नाम :- गुलाम हुसैन मोहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अल हुसैनी।
एक उत्कृष्ट वक्ता :-
अबुल कलाम शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘संवादों का देवता’ (Lord of Dialogues)।
जीवन परिचय :-
उपनाम - अबुल कलाम आजाद
पदवी - मौलाना
पूरा नाम - गुलाम हुसैन मोहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अल हुसैनी
लकब - अबुल कलाम आजाद
पिता - अफगानी मूल के मौलाना मोहम्मद खैरुद्दीन (1836 - 1908 ) (फारसी ईरानी) वंशज हेरात से बाबर के समय भारत आए और कलकता में बस गए। 1857 की क्रांति के बाद पिता भारत छोड़ कर अरब (मक्का) चले गए जहां उन्होंने अरबी मूल की आलिया शेख से शादी की।
मक्का में ही अबुल कलाम आजाद का जन्म हुआ। वापस 1898 में वो भारत (कलकत्ता) आ गए। 1908 में उनकी कलकत्ता में मृत्यु हो गई। पिता वहाबी आंदोलन के आलोचक थे।
माता - अरबी मूल शेख मोहम्मद जाहिर बतरी की बेटी आलिया शेख से (आज़ाद की आयु के मात्र 11 साल में 1899 (कलकत्ता भारत) में उनकी माता का देहांत हो गया।
जन्म - 11 नवंबर, 1888
मक्का सऊदिया अरबिया ( जीवन के 10 वर्ष साउदी अरब में बिताए)
मृत्यु - 22 फरवरी, 1958
नई दिल्ली भारत
पत्नी - जुलेखा बेगम 1901 में (आजाद की आयु 13 वर्ष) 1943 में मृत्यु।
शिक्षा -
1. घर/ मस्जिद पर अरबी,फारसी,उर्दू, हिंदी व अंग्रेजी (स्वाध्याय) (इतिहास व गणित)
2. 1905 में काहिरा (मिश्र) इस्लामिक स्टडी के लिए अल मजहर यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया और 1907 में भारत लौटे।
कार्य -
लेखक, पत्रकार स्वतंत्रता सेनानी राजनेता एवम शिक्षाविद।
संगठन -
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1920 में कांग्रेस के सदस्य बने)
इस्लामी विचारधारा -
सलाफी (देवबंद)
जीवनी का लेखन :-
मौलाना शबली नोअमानी
समर्थक -
महात्मा गांधी,सर सैय्यद अहमद खान।
पद आजादी से पहले -
1 .1923 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष (सब से कम उम्र के)
2. 1940 से 1946 पुनः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष
आजादी के बाद पद -
1. रायपुर उत्तर प्रदेश से सांसद 1952
2. भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री (1947 से 1958 मृत्यु तक 11 वर्ष)
3. 1957 में गुड़गांव हरियाणा से सांसद चुने गए।
आंदोलन -
1. खिलाफत आंदोलन,
2. असहयोग आंदोलन,
3. दांडी यात्रा,
4. अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन
( कई वर्षों तक निर्वासित और जेल में रहे)।
शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख देन :-
1. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.)
2. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की स्थापना
3. संगीत नाटक अकादमी (1953)
4. साहित्य अकादमी (1954)
5. ललितकला अकादमी (1954)
7. केंद्रीय सलाहकार शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष होने पर सरकार से केंद्र और राज्यों दोनों के अतिरिक्त विश्वविद्यालयों में सार्वभौमिक शिक्षा।
8. प्राथमिक शिक्षा 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा
9. बालिका शिक्षा
10. व्यावसायिक प्रशिक्षण
11. कृषि शिक्षा
12. तकनीकी शिक्षा जैसे सुधारों की वकालत की।
13. 1938 वर्धा शिक्षा समिति प्रस्ताव की ड्राफ्टिंग।
14. 1920 में मुसलमानों के लिए स्वतन्त्र शिक्षा और सामाजिक कायाकल्प को बढ़ावा देने के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना की।
15. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस IISc,
16. स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर
17.अन्य देशों में भारतीय संस्कृति के परिचय हेतु भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (Indian Council for Cultural Relations-ICCR) का गठन किया
विदेश यात्राएं -
सऊदी अरब,ईरान, इराक़ मिस्र तथा सीरिया।
पुरस्कार/उपाधि -
भारत रत्न (1992 मरणोपरांत)
पुस्तकें :-
1. गुब्बारे खातिर
2. सेलिस ऑफ माइंड ( गुब्बारे खातिर का अंग्रेजी अनुवाद)
3. तर्जुमा कुरआन मजीद
4. विलादत ए नबवी
5. कुरआन का कानून (उरूज ओ जवाल)
6. हिजरो विसाल
7. अल हिलाल के तब्सीरे
8. इंडिया विंस फ्रीडम
9. बेसिक कांसेप्ट ऑफ कुरआन
10. दर्श-ए-वफा
आजाद क्रांतिकार के रूप में :-
पिता की मृत्यु के बाद आजाद 1909 से आजादी के आंदोलन से जुड़ गए।
आजाद बचपन से ही अंग्रेज सरकार के विरोधी थे और अंग्रेजी सरकार को आम आदमी के शोषण के लिए जिम्मेदार मानते थे। आजाद ने क्रांतिकारी गतिविधियों में श्री अरबिन्दो और श्यामसुन्हर चक्रवर्ती के साथ मिलकर कार्य किया।
वे समकालीन रूढ़िवादी मुस्लिम नेताओं के भी आलोचक थे जो देश के हित के समकक्ष साम्प्रदायिक हित को महत्व देते थे। वे अंग्रेज सरकार के 1905 के बंगाल विभाजन (बंग - भंग) के विरोधी थे और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अलगाववादी विचारधारा से पृथक।
ईद अलज्जुहा के मौके पर 1947 में कलाम साहब का भाषण जिसे अमेरिकन स्कॉलर चौधरी मोहम्मद नईम ने उर्दू में तहरीर किया।.ये स्पीच बताती है कि जब तक हम खुद को नहीं बदलेंगे, कुछ नहीं हो सकता. चाहे कितनी ही सच्चर रिपोर्टें आती रहें. नेता आते रहें. कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
" मेरे अज़ीज़ो! आप जानते हैं कि वो कौन सी ज़ंजीर है जो मुझे यहां ले आई. मेरे लिए शाहजहां की इस यादगार मस्जिद में ये इज्तमा नया नहीं. मैंने उस ज़माने में भी किया. अब बहुत सी गर्दिशें बीत चुकी हैं. मैंने जब तुम्हें ख़िताब किया था, उस वक्त तुम्हारे चेहरों पर बेचैनी नहीं इत्मीनान था. तुम्हारे दिलों में शक के बजाय भरोसा था. आज जब तुम्हारे चेहरों की परेशानियां और दिलों की वीरानी देखता हूं तो भूली बिसरी कहानियां याद आ जाती हैं।
तुम्हें याद है? मैंने तुम्हें पुकारा और तुमने मेरी ज़बान काट ली. मैंने क़लम उठाया और तुमने मेरे हाथ कलम कर दिए. मैंने चलना चाहा तो तुमने मेरे पांव काट दिए. मैंने करवट लेनी चाही तो तुमने मेरी कमर तोड़ दी. हद ये कि पिछले सात साल में तल्ख़ सियासत जो तुम्हें दाग़-ए-जुदाई दे गई है. उसके अहद-ए शबाब (यौवनकाल, शुरुआती दौर) में भी मैंने तुम्हें ख़तरे की हर घड़ी पर झिंझोड़ा था. लेकिन तुमने मेरी सदा (मदद के लिए पुकार) से न सिर्फ एतराज़ किया बल्कि गफ़लत और इनकारी की सारी सुन्नतें ताज़ा कर दीं. नतीजा मालूम ये हुआ कि आज उन्हीं खतरों ने तुम्हें घेर लिया, जिनका अंदेशा तुम्हें सिरात-ए-मुस्तक़ीम (सही रास्ते ) से दूर ले गया था।
सच पूछो तो अब मैं जमूद (स्थिर) हूं. या फिर दौर-ए-उफ़्तादा (निरीह) सदा हूं. जिसने वतन में रहकर भी गरीब-उल-वतनी की जिंदगी गुज़ारी है. इसका मतलब ये नहीं कि जो मक़ाम मैंने पहले दिन अपने लिए चुन लिया, वहां मेरे बाल-ओ-पर काट लिए गये या मेरे आशियाने के लिए जगह नहीं रही. बल्कि मैं यह कहना चाहता हूं. मेरे दामन को तुम्हारी करगुज़ारियों से गिला है. मेरा एहसास ज़ख़्मी है और मेरे दिल को सदमा है. सोचो तो सही तुमने कौन सी राह इख़्तियार की ? कहां पहुंचे और अब कहां खड़े हो ? क्या ये खौफ़ की ज़िंदगी नहीं. और क्या तुम्हारे भरोसे में फर्क नहीं आ गया है. ये खौफ तुमने खुद ही पैदा किया है. अभी कुछ ज़्यादा वक़्त नहीं बीता, जब मैंने तुम्हें कहा था कि दो क़ौमों का नज़रिया मर्ज़े मौत का दर्जा रखता है. इसको छोड़ दो. जिन पर आपने भरोसा किया, वो भरोसा बहुत तेज़ी से टूट रहा है. लेकिन तुमने सुनी की अनसुनी सब बराबर कर दी. और ये न सोचा कि वक़्त और उसकी रफ़्तार तुम्हारे लिए अपना वजूद नहीं बदल सकते. वक़्त की रफ़्तार थमी नहीं।
तुम देख रहे हो. जिन सहारों पर तुम्हारा भरोसा था. वो तुम्हें लावारिस समझकर तक़दीर के हवाले कर गए हैं. वो तक़दीर जो अंग्रेजी की मंशा के मुताबिक कुछ अलग
की ख्वाहिश पैदा हो गई है तो फिर इस तरह बदलो, जिस तरह तारीख (इतिहास) ने अपने को बदल लिया है.आज भी हम एक दौरे इंकलाब को पूरा कर चुके, हमारे मुल्क की तारीख़ में कुछ सफ़हे (पन्ने) ख़ाली हैं. और हम उन सफ़हो में तारीफ़ के उनवान (हेडिंग) बन सकते हैं. मगर शर्त ये है कि हम इसके लिए तैयार भी हों।
अज़ीज़ों,
तब्दीलियों के साथ चलो. ये न कहो इसके लिए तैयार नहीं थे, बल्कि तैयार हो जाओ. सितारे टूट गये, लेकिन सूरज तो चमक रहा है. उससे किरण मांग लो और उस अंधेरी राहों में बिछा दो. जहां उजाले की सख्त ज़रूरत है।
मैं तुम्हें ये नहीं कहता कि तुम हाकिमाना इक्तेदार के मदरसे से वफ़ादारी का सर्टिफिकेट हासिल करो. मैं कहता हूं कि जो उजले नक्श-ओ-निगार तुम्हें इस हिंदुस्तान में माज़ी की यादगार के तौर पर नज़र आ रहे हैं, वो तुम्हारा ही काफ़िला लाया था, उन्हें भुलाओ नहीं, उन्हें छोड़ो नहीं. उनके वारिस बनकर रहो ,और समझ लो तुम भागने के लिए तैयार नहीं तो फिर कोई ताक़त तुम्हें नहीं भगा सकती।
आओ,
अहद (क़सम) करो कि ये मुल्क हमारा है , हम इसी के लिए हैं और उसकी तक़दीर के बुनियादी फैसले हमारी आवाज़ के बगैर अधूरे ही रहेंगे। आज ज़लज़लों से डरते हो ? कभी तुम ख़ुद एक ज़लज़ला थे। आज अंधेरे से कांपते हो, क्या याद नहीं रहा कि तुम्हारा वजूद ख़ुद एक उजाला था। ये बादलों के पानी की सील क्या है कि तुमने भीग जाने के डर से अपने पायंचे चढ़ा लिए हैं। वो तुम्हारे ही इस्लाफ़ थे जो समुंदरों में उतर गए, पहाड़ियों की छातियों को रौंद डाला, आंधियां आईं तो उनसे कह दिया कि तुम्हारा रास्ता ये नहीं है, ये ईमान से भटकने की ही बात है जो शहंशाहों के गिरेबानों से खेलने वाले आज खुद अपने ही गिरेबान के तार बेच रहे हैं। और ख़ुदा से उस दर्जे तक गाफ़िल हो गये हैं कि जैसे उसपर कभी ईमान ही नहीं था।
अज़ीज़ों,
मेरे पास कोई नया नुस्ख़ा नहीं है वही 1400 बरस पहले का नुस्ख़ा है वो नुस्ख़ा, जिसको क़ायनात का सबसे बड़ा मोहसिन (मोहम्मद साहब) लाया था, और वो नुस्ख़ा है क़ुरान का ये ऐलान, 'बददिल न होना, और न गम करना, अगर तुम मोमिन (नेक, ईमानदार) हो, तो तुम ही ग़ालिब होगे।'
आज की सोहबत खत्म हुई, मुझे जो कुछ कहना था वो कह चुका, लेकिन फिर कहता हूं, और बार-बार कहता हूं अपने हवास पर क़ाबू रखो, अपने गिर्द-ओ-पेश अपनी जिंदगी के रास्ते खुद बनाओ।
ये कोई मंडीकी चीज़ नहीं कि तुम्हें ख़रीदकर ला दूं. ये तो दिल की दुकान ही में से आमाल (कर्म) की नक़दी से दस्तयाब (हासिल) हो सकती हैं।
वस्सलामुअलैक़ुम।
मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद।
सुंदर नामों को धारण करने पर भी गुलामी सबसे बुरी है।
भगवान के एक बच्चे के रूप में, मैं उस चीज से बड़ा हूं जो मेरे साथ हो सकता
जीभ से पढ़ाने को सहन किया जा सकता है लेकिन अच्छे काम से मजबूत बने रह सकते हैं।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अनमोल विचार
1. बहुत से लोग पेड़ लगाते हैं लेकिन उनमें से कुछ को ही इसका फल मिलता है।
2. मैं उस अविभाज्य एकता का हिस्सा हूं जो भारतीय राष्ट्रीयता है।
3. दिल से दी गई शिक्षा समाज में क्रांति ला सकती है।
4. हमने किसी पर आक्रमण नहीं किया है। हमने किसी पर विजय प्राप्त नहीं की है। हमने उनकी जमीन, उनकी संस्कृति, उनके इतिहास को नहीं पकड़ा है और उन पर हमारे जीवन के तरीके को लागू करने की कोशिश की है।
5. शिक्षाविदों को छात्रों में पूछताछ, रचनात्मकता, उद्यमशीलता और नैतिक नेतृत्व की भावना का निर्माण करना चाहिए और उनका आदर्श बनना चाहिए।
6. शीर्ष पर चढ़ना ताकत की मांग करता है, चाहे वह माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर हो या आपके करियर के शीर्ष पर।
7. अपने मिशन में सफल होने के लिए, आपके पास अपने लक्ष्य के लिए एकल-दिमाग वाली भक्ति होनी चाहिए।
8. अपने सपने सच करने से पहले आपको सपने देखने होंगे।
9. क्या हमें यह एहसास नहीं है कि आत्म-सम्मान आत्मनिर्भरता के साथ आता है?
10. महान सपने देखने वालों के महान सपने हमेशा पूरे होते हैं।
11. तेज लेकिन सिंथेटिक खुशी के बाद चलने की तुलना में ठोस उपलब्धियां बनाने के लिए अधिक समर्पित रहें।
12. सुंदर नामों को धारण करने पर भी गुलामी सबसे बुरी है।
13. भगवान के एक बच्चे के रूप में, मैं उस चीज से बड़ा हूं जो मेरे साथ हो सकता है।
14. जीभ से पढ़ाने को सहन किया जा सकता है लेकिन अच्छे काम से मजबूत बने रह सकते हैं।
जेल में गांधी से मुलाकात :-
आजादी के आंदोलन में शामिल नेता सिद्धांत के बहुत पक्के हुआ करते थे। नियम कानून से अलग हटकर कोई काम नहीं करते थे। इन्हीं नेताओं में एक थे मौलाना अबुल कलाम आजाद।
1941 में वे प्रयागराज की नैनी केंद्रीय जेल में बंद थे। उनके साथ मदन मोहन मालवीय, बालकृष्ण शर्मा, केशवदेव मालवीय भी बंद थे। उसी दौरान अबुल कलाम से जेल में महात्मा गांधी मिलने आए थे। जेल अधीक्षक अपने कक्ष में दोनों की मुलाकात कराने चाहते थे। पर अबुल कलाम ने जेल अधीक्षक के कक्ष में महात्मा गांधी से मिलने से इंकार कर दिया उन्होंने कहा जिस बैरक में बंद हूं वहीं उनसे मिलना पसंद करूंगा। जेल प्रशासन को आखिरकार महात्मा गांधी की मुलाकात उनकी बैरक में कराने की अनुमति देनी पड़ी।
विशेष दर्जा (राजनीतिक कैदी) प्राप्त आजाद को अलग बैरक में रखा गया था।
मौलाना अबुल कलाम आजाद राजनीतिक बंदीयों को बैडमिंटन खेलते देखते थे, वे अपने हाथ से कश्मीरी चाय बनाकर मिलने वालों को पिलाते। अबुल कलाम कट्टर मुसलमान एवं विद्वान थे। जेल में प्राय: भाषा विवाद पर उनकी कमलापति त्रिपाठी और बालकृष्ण शर्मा नवीन से बहस होती थी। बहस कभी गरम भी हो जाती थी। बहस के दौरान उनके तर्क और प्रस्तुति लाजवाब होती थी।
आजाद एक शिक्षाविद् :-
शिक्षा के क्षेत्र में मौलाना आज़ाद उदारवादी सर्वहितवाद/सार्वभौमिकता के प्रतिपादक थे, जो वास्तव में उदार मानवीय शिक्षा प्रणाली थी।
शिक्षा के संदर्भ में आज़ाद की विचारधारा पूर्वी और पश्चिमी अवधारणाओं के सम्मिलन पर केंद्रित थी जिससे पूरी तरह से एकीकृत व्यक्तित्व का निर्माण हो सके। जहाँ पूर्वी अवधारणा आध्यात्मिक उत्कृष्टता एवं व्यक्तिगत मोक्ष पर आधारित थी वहीं पश्चिमी अवधारणा ने सांसारिक उपलब्धियों और सामाजिक प्रगति पर अधिक बल दिया। सर सैयद की अवधारणा से प्रभावित।
पत्रकारिता -
आज़ाद की शिक्षा उन्हे एक दफ़ातर (किरानी) बना सकती थी लेकिन राजनीति के प्रति उनके झुकाव ने उन्हें पत्रकार बना दिया।
1912 में उन्होंने उर्दू अखबार अल हिलाल शुरू किया जिसका उद्देश्य युवकों को क्रांतिकारी आन्दोलनों के प्रति उत्साहित करना और सनातन-मुस्लिम एकता पर बल देना था।
इस अखबार ने मॉर्ले-मिंटो सुधारों के बाद (1909) दो समुदायों के बीच हुए मनमुटाव को समाप्त कर सनातन - मुस्लिम एकता को स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1916 में ब्रिटिश सरकार ने इस अखबार पर भी प्रतिबंध लगा दिया तथा मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को कलकत्ता से निष्कासित कर बिहार निर्वासित कर दिया,जहाँ से उन्हें वर्ष 1920 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद रिहा किया गया।
उन्होने बंगाल, बिहार तथा बंबई में क्रांतिकारी गतिविधियों के गुप्त आयोजनों द्वारा कांग्रेस नेताओं को अपनी ओर आकर्षित किया।
1920 में क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें राँची में जेल की सजा भुगतनी पड़ी।
असहयोग आन्दोलन :-
रांची जेल से रिहाई के बाद आजाद जलियांवाला बाग हत्याकांड का विरोध करने अन्य नेताओं के साथ हो गए।
महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया।
असहयोग अभियान पहले सफल रहा। कार्यक्रम की शुरुआत विधायी परिषदों, सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से हुई। सरकारी कार्य और उपाधियों और सम्मानों का समर्पण। बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, हड़तालें और सविनय अवज्ञा के कार्य पूरे भारत में फैल गए। सनातन और मुसलमान अभियान में शामिल हुए, जो शुरू में शान्तिपूर्ण था। गांधी व अली बन्धुओं और अन्य लोगों को अंग्रेज सरकार द्वारा तेजी से गिरफ्तार किया गया था।
खिलाफत आंदोलन - (मार्च 1919-जनवरी 1921)
ओटोमन सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय (1842-1918) ने ओटोमन साम्राज्य को पश्चिमी हमले और विघटन से बचाने के लिए और घर पर लोकतान्त्रिक विरोध को कुचलने के लिए अपने पैन-इस्लामिक कार्यक्रम की शुरुआत की। उन्होंने 19 वीं शताब्दी के अन्त में एक दूत, जमालुद्दीन अफ़गानी को भारत भेजा। तुर्क सम्राट के कारण ने भारतीय मुसलमानों में पान्थिक जुनून और सहानुभूति पैदा की। खलीफ़ा होने के नाते, तुर्क सुल्तान दुनिया भर के सभी सुन्नी मुसलमानों के सर्वोच्च धार्मिक और राजनीतिक नेता थे। हालाँकि, इस प्राधिकरण का उपयोग वास्तव में कभी नहीं किया गया था।
सन् 1908 ई. में तुर्की में युवा तुर्क दल द्वारा शक्तिहीन ख़लीफ़ा के प्रभुत्व का उन्मूलन ख़लीफ़त (ख़लीफ़ा के पद) की समाप्ति का प्रथम चरण था जिसका भारतीय मुसलमानों पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं हुआ पर 1922 में तुर्की-इतालवी तथा बाल्कन युद्धों में, तुर्की के विपक्ष में, ब्रिटेन के योगदान को इस्लामी संस्कृति तथा सर्व इस्लामवाद पर प्रहार समझकर भारतीय मुसलमान ब्रिटेन के प्रति उत्तेजित हो उठे। यह विरोध भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रोषरूप में परिवर्तित हो गया। इस उत्तेजना को अबुलकलाम आज़ाद, ज़फ़र अली ख़ाँ तथा मोहम्मद अली ने अपने समाचारपत्रों अल-हिलाल, जमींदार तथा कामरेड और हमदर्द द्वारा बड़ा व्यापक रूप दिया। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की पर ब्रिटेन के आक्रमण ने असन्तोष को प्रज्वलित किया। सरकार की दमननीति ने इसे और भी उत्तेजित किया। राष्ट्रीय भावना तथा मुस्लिम धार्मिक असन्तोष का समन्वय आरम्भ हुआ।
भारत में यह आंदोलन सन् 1919 में लखनऊ शौकत अली के घर से शुरू हुआ जिस में मौलाना आजाद ने शामिल हो कर प्रमुख भूमिका निभाई।
मोहम्मद अली और उनके भाई मौलाना शौकत अली अन्य मुस्लिम नेताओं जैसे पीर गुलाम मुजादिद सरहन्दी, शेख शौकत अली सिद्दीकी, डॉ। मुख्तार अहमद अंसारी, रईस-उल-मुअज्जीन बैरिस्टर जान मुहम्मद जुनेजो, हसरत मोहानी, सैयद अता उल्लाह शाह बुखारी व मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और डॉ॰ हकीम अजमल खान के साथ शामिल हुए और ऑल इण्डिया खिलाफत कमेटी बनाई।
उत्तर मध्य भारत में अमानुल्लाह खान ने कमान संभाली।
तहरीक-ए-खिलाफ़त के झण्डे के नीचे, एक पंजाब खिलाफ़त की प्रतिनियुक्ति जिसमें मौलाना मंज़ूर अहमद और मौलाना लुतफ़ुल्लाह खान दनकौरी शामिल थे, ने पंजाब (सिरसा, लाहौर, हरियाणा आदि) में एक विशेष एकाग्रता के साथ पूरे भारत में एक प्रमुख भूमिका निभाई।
बंगाल में खिलाफ़त समिति में मुहम्मद अकरम खान, मनीरुज्जमाँ इस्लामाबादी, मुजीबुर रहमान खान और चित्तरंजन दास शामिल थे।
खिलाफ़त आंदोलन तुर्की के उस्मानी साम्राज्य (खलीफा) की प्रथम विश्वयुद्ध में हारने पर उन पर लगाए हर्जाने का विरोध करता था। उस समय ऑटोमन (उस्मानी तुर्क) मक्का पर काबिज़ थे और इस्लाम के खलीफ़ा वही थे। इसके कारण विश्वभर के मुस्लिमों में रोष था और भारत में यह खिलाफ़त आंन्दोलन के रूप में उभरा जिसमें उस्मानियों को हराने वाले मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन, फ्रांस, इटली) के साम्राज्य का विरोध हुआ।मार्च 1919 में बम्बई में एक खिलाफत समिति का गठन किया गया था। मोहम्मद अली और शौकत अली बन्धुओ के साथ-साथ अनेक मुस्लिम नेताओं ने इस मुद्दे पर संयुक्त जन कार्यवाही की सम्भावना तलाशने के लिए महात्मा गांधी के साथ चर्चा शुरू की।
सितम्बर 1920 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भी भाग लिया और वहीं से खिलाफत आंदोलन के समर्थन की घोषणा की।
विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद राजनीतिक से बदले की भावना से ब्रिटिश की ओर से भारत को रौलट बिल, दमनचक्र, तथा जलिया वाला बाग हत्याकांड मिले, जिसने राष्ट्रीय भावना में आग में घी का काम किया।
ऑक्सफ़ोर्ड शिक्षित मुस्लिम पत्रकार, मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने औपनिवेशिक सरकार के प्रतिरोध की वकालत करने और खलीफ़ा के समर्थन में चार वर्ष जेल में बिताए थे।
अखिल भारतीय ख़िलाफ़त कमेटी ने जमियत - उल्-उलेमा के सहयोग से ख़िलाफ़त आन्दोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में ख़िलाफ़त घोषणा पत्र जारी किया। राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व गांधी जी ने ग्रहण किया। गांधी जी के प्रभाव से ख़िलाफ़त आन्दोलन तथा असहयोग आंदोलन एक रूप हो गए। मई, 1920 तक ख़िलाफ़त कमेटी ने महात्मा गांधी की अहिंसात्मक असहयोग योजना का समर्थन किया। सितम्बर में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ने असहयोग आन्दोलन के दो ध्येय घोषित किए :- 1. स्वराज्य
2. ख़िलाफ़त की माँगों की स्वीकृति। नवम्बर, 1922 में तुर्की में मुस्तफ़ा कमालपाशा ने सुल्तान ख़लीफ़ा मोहम्मद छठवें को पदच्युत कर अब्दुल मजीद आफ़न्दी को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार छीन लिए तब ख़िलाफ़त कमेटी ने 1924 में विरोध प्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमण्डल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफ़ा कमाल ने उसकी सर्वथा उपेक्षा की और 3 मार्च 1924 को उन्होंने ख़लीफ़ी का पद समाप्त कर ख़िलाफ़त का अन्त कर दिया। इस प्रकार, भारत का खिलाफ़त आन्दोलन भी अपने आप समाप्त हो गया।
दांडी मार्च (नमक सत्याग्रह) :-
वर्ष 1930 में मौलाना आज़ाद को गांधीजी के नमक सत्याग्रह में शामिल होने तथा नमक कानून का उल्लंघन करने के लिये गिरफ्तार किया गया था। वे डेढ़ साल तक मेरठ जेल में कैद रहे।
अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन :- 1942
1940 में मौलाना आजाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने इस समय आजादी का आंदोलन चरम पर था।
देश में 1930 को मुंबई अधिवेशन के समय जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस के सम्पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा के पक्ष में आग लगी थी।
अंग्रेजों के राज पर अंतिम चोट के लिए 8 अगस्त 1942 को अगस्त क्रांति मैदान में महात्मा गांधी ने करो या मरो के नारे के साथ अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा दिया।
अंततः 1946 की माउंटबेटन योजना के अनुसार 1947 को भारत आजाद हुआ।
आजाद भारत विभाजन के विपक्ष में
हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार मौलाना आज़ाद कभी भी मुस्लिम लीग की द्विराष्ट्रवादी सिद्धांत के समर्थक नहीं बने, उन्होंने खुलकर इसका विरोध किया।
15 अप्रैल 1946 को कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आज़ाद ने कहा, ''मैंने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान के रूप में अलग राष्ट्र बनाने की मांग को हर पहलू से देखा और इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि यह फ़ैसला न सिर्फ़ भारत के लिए नुकसानदायक साबित होगा बल्कि इसके दुष्परिणाम खुद मुसलमानों को भी झेलने पड़ेंगे. यह फ़ैसला समाधान निकालने की जगह और ज़्यादा परेशानियां पैदा करेगा।"
मौलाना आज़ाद ने बंटवारे को रोकने की हरसंभव कोशिश की. 1946 में जब बंटवारे की तस्वीर काफ़ी हद तक साफ़ होने लगी और दोनों पक्ष भी बंटवारे पर सहमत हो गए, तब मौलाना आज़ाद ने सभी को आगाह करते हुए कहा था कि आने वाले वक्त में भारत इस बंटवारे के दुष्परिणाम झेलेग।
उन्होंने कहा था कि नफ़रत की नींव पर तैयार हो रहा यह नया देश तभी तक ज़िंदा रहेगा जब तक यह नफ़रत जिंदा रहेगी, जब बंटवारे की यह आग ठंडी पड़ने लगेगी तो यह नया देश भी अलग-अलग टुकड़ों में बंटने लगेगा.
मुस्लिम लीडरशिप और मुसलमान
अबुल कलाम आज़ाद
vrs
मोहम्मद अली जिन्ना
भारत के मुसलमानों की एक आम शिकायत है कि मुस्लिम क़ौम का कोई लीडर नहीं है।
आज़ादी से पहले से लेकर आज तक के हालात का जाइज़ा लें तो पता चलता है कि भारतीय मुसलमानों ने अच्छे लीडर्स को पहचाना ही नहीं।
अच्छे लीडर की पहचान :-
लीडर का काम होता है अपनी क़ौम को हर क़िस्म की पस्ती से निकालकर उसे उरूज़ (उत्थान) की ओर ले जाना।
◆ लीडर, बॉस की तरह हुक्म नहीं चलाता बल्कि क़ौम के आम लोगों के साथ काँधे से काँधा मिलाकर चलता है।
◆ लीडर, क़ौम में फैली हर क़िस्म की बुराइयों से आगाह कराता है और क़ौम को भलाई के रास्ते पर चलाने की कोशिश करता है।
◆ लीडर, क़ौम के बीच में रहता है। उनके हर सुख-दु:ख में शरीक होता है। क़ौम के साथ मिलकर जद्दोजहद करता है।
◆ लीडर, कभी यह नहीं कहता कि तुम सब एक हो जाओ और मेरी क़यादत को मज़बूत करो बल्कि वो क़ौम को एकजुट करने के लिये हर मुमकिन कोशिश करता है।
आज़ादी से पहले, मुसलमानों के सामने एक लीडर थे नाम था मौलाना अबुल कलाम आज़ाद।
वो क़ुर्आन से बाबस्ता थे जो अपने रिसालों में आर्टिकल लिखकर मुस्लिम समाज में फैली कुरीतियों की तरफ़ तवज्जो दिलाने की कोशिश करते रहे। कलाम ने मुसलमानों को सही राह की तरफ़ पलट आने का आह्वान किया लेकिन क़ौम ने उनकी क़यादत को क़ुबूल नहीं किया।
आज़ादी से पहले दूसरे लीडर थे मोहम्मद अली जिन्ना जो मुस्लिम क़ौम को लच्छेदार जज़्बाती तक़रीरें करने वाले, भड़काऊ भाषण देने वाले लीडर बेरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना जो अलग मुल्क दिलाने की बात करता था।
उसने कभी नहीं कहा कि शराब मत पियो, जुआ मत खेलो, ब्याज मत खाओ। उसने कभी नहीं कहा कि शादी-ब्याह में फ़िज़ूलख़र्ची मत करो। उसने कभी नहीं कहा कि अल्लाह के दीन की तरफ़ पलट आओ, इसी में हमारी कामयाबी है।
वो यह सब बातें कैसे कहता क्योंकि जिन्ना तो ख़ुद नाम का मुसलमान था। उसके नाम में मुहम्मद और अली जैसे सम्मानित अल्फ़ाज़ थे लेकिन वो तो असल में जिन्ना था।
ग़लत हाथों में लीडरशिप हो और उस लीडर के पास क़ौम के उत्थान का पूरा प्लान न हो तो वो क़ौम, समाज और देश तबाह व बर्बाद हो जाता है।
आज यही हाल फिर से होने जा रहे हैं।
सुंदर नामों को धारण करने पर भी गुलामी सबसे बुरी है।
भगवान के एक बच्चे के रूप में, मैं उस चीज से बड़ा हूं जो मेरे साथ हो सकता
जीभ से पढ़ाने को सहन किया जा सकता है लेकिन अच्छे काम से मजबूत बने रह सकते हैं।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अनमोल विचार
1. बहुत से लोग पेड़ लगाते हैं लेकिन उनमें से कुछ को ही इसका फल मिलता है।
2. मैं उस अविभाज्य एकता का हिस्सा हूं जो भारतीय राष्ट्रीयता है।
3. दिल से दी गई शिक्षा समाज में क्रांति ला सकती है।
4. हमने किसी पर आक्रमण नहीं किया है। हमने किसी पर विजय प्राप्त नहीं की है। हमने उनकी जमीन, उनकी संस्कृति, उनके इतिहास को नहीं पकड़ा है और उन पर हमारे जीवन के तरीके को लागू करने की कोशिश की है।
5. शिक्षाविदों को छात्रों में पूछताछ, रचनात्मकता, उद्यमशीलता और नैतिक नेतृत्व की भावना का निर्माण करना चाहिए और उनका आदर्श बनना चाहिए।
6. शीर्ष पर चढ़ना ताकत की मांग करता है, चाहे वह माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर हो या आपके करियर के शीर्ष पर।
7. अपने मिशन में सफल होने के लिए, आपके पास अपने लक्ष्य के लिए एकल-दिमाग वाली भक्ति होनी चाहिए।
8. अपने सपने सच करने से पहले आपको सपने देखने होंगे।
9. क्या हमें यह एहसास नहीं है कि आत्म-सम्मान आत्मनिर्भरता के साथ आता है?
10. महान सपने देखने वालों के महान सपने हमेशा पूरे होते हैं।
11. तेज लेकिन सिंथेटिक खुशी के बाद चलने की तुलना में ठोस उपलब्धियां बनाने के लिए अधिक समर्पित रहें।
12. सुंदर नामों को धारण करने पर भी गुलामी सबसे बुरी है।
13. भगवान के एक बच्चे के रूप में, मैं उस चीज से बड़ा हूं जो मेरे साथ हो सकता है।
14. जीभ से पढ़ाने को सहन किया जा सकता है लेकिन अच्छे काम से मजबूत बने रह सकते हैं।
आज कोई कलाम फिर से जाग जाए
बदलने तकदीर हिंद के मुसलमां की।
जिगर चुरुवी
9587243963