Tuesday, 4 February 2025

✅गाय उत्पत्ति एम वर्तमान

      गाय उत्पत्ति एवं विकास - 
गाय से संबंधित लोकोक्तियां एवं मुहावरे - 
गाय - सीधा सरल व्यक्तित्व।
राम/अल्लाह की गाय - बहुत साधारण इंसान।
अल्लाह/राम की गाय को लात से मारना - अन्याय करना।
सांढ - शक्तिशाली व्यक्ति
सांढ की आंख - एक निश्चित लक्ष्य पर ध्यान देना।
गाय की भैंस क्या लगती है - सभी संबंध विच्छेद करना।
गाय का भैंस तले करना - बेमेल कार्य करना।

गाय उत्पत्ति एवं वर्तमान 
लगभग 6000 साल पहले गीजा के पिरामिड में गाय

   थारपाकर गाय

    जर्सी गाय 

गाय 
उत्पत्ति,मान्यता व वर्तमान स्थिति

आज से लगभग 10500 साल पहले तुर्की (TURKY) के आसपास एक जंगली जानवर एरॉक्स/एरोज (AUROCHS) नाम के पशु को पालतू बना कर दुधारू पशु के रूप में घर लाया गया।
                  एरोज एक जरायुज स्तनपाई  था जिस की लगभग 80 श्रेणियां थीं। बारह सिंगा, याक, हरिन,जिराफ, ऊंट घोड़ा,गधा,बकरी, भेड़ यह सब इसी श्रेणी के पशु हैं।
              
नाम -     मादा - गाय (भारतीय)
              Cow (लेटिन)
        नर - सांड ( bull ) गर्भधारण हेतु  बैल ( ox ) वजन खींचने व अन्य मेहनत के कामों के लिए 
गाय के बच्चे का नाम - बछड़ा calf
 बछिया (haifer calf) बछड़ा (bull calf)
श्रेणी - मवेशी (Bovine) (Bovidea) (Bovinee)
जीव वैज्ञानिक परिवार  -
पशु Animal - बड़े स्तनधारी  पशु  Memal - खुर वाले पशु (Artiodoctyla ) 

वजन - 
वयस्क नर - 500 से 1800 किलोग्राम
वयस्क मादा - 400 से 1200 किलोग्राम

थन की संख्या  - 04
श्रेणी - शाकाहारी
सींग - हां (विदेशी नस्ल के नहीं भी हो सकते हैं,या बचपन से ही सींगों को कलम कर समाप्त कर दिया जाता है।
सींगों की संख्या - 02
दांतों की संख्या - 32
गाय श्रेणी के पशुओं की विशेषता "जुगाली" - यह बहुत सारी घास या चारा एक साथ चार लेते हैं बाद में वो उसे वापस उगल कर जुगाली के रूप में चबाते हैं।

संभोग काल - ( गर्मी आने का समय / पाली का समय) - वर्ष पर्यन्त (अधिकतर गर्मियों में)
गर्भ धारण का समय - 30 से 60 दिन
पाली के समय में गर्भ ठहरने का समय - 18 से 20 दिन (उत्तम अवधि - 20 से 36 घण्टे)
कृत्रिम/ संरक्षित वीर्य से पाली आने के 12  से 18 घंटे गर्भ धारण का उत्तम समय।
गर्भ काल - 275 से 280 दिन

गायों की प्रजातियां
(1) देसी भारतीय नस्ल -
 zebu/indus ( ब्राह्मण) भारतीय नस्ल
इनकी विशेषता - 
1 - थूई (Hump)
2 - गलकंबल (Dowlap)
3 - सींग (Horns)
4 - हर मौसम व स्थान के लिये सहिष्णु
(2) विदेशी नस्ल :-
(19 वीं शताब्दी में नेल्लोर व गिर नस्ल की गाय को विदेश ले जाया गया जिससे उस की कुछ नई नस्लें तैयार की गई।) 
A -  Taurus (Bos Taurus)
B - Bos indicus
C - German
D - African
E - jarsi (जर्सी) 
F - Holistein friesion 
G - Galloway scotland
H - Angus charolais France 
I - Bengus - Brahman के  3/8 एवम Angus का 5/8 भाग
J - Hereford इंग्लेंड 
K - Pollad पोलेंड
L - Shorthom इंग्लैंड
M - Dorham (3/8 Brahman + 5/8 Shortham 
N - Simmental स्विट्जरलैंड
O - Brent Huffman
P - Indo Brazil
Q - Charbray (ब्राह्मण + कोरोलेस )
R - jarsi (जर्सी) विदेशी नस्ल की जर्सी Bos Tataurus गाय - यह Urus नाम के एक जंगली जानवर से G.M. पद्धति (अनुवांसिक फेरबदल द्वारा) से बनाई गई है जो अत्यधिक दूध (30 से 40 लीटर प्रति दिन)  देती है जिसकी गुणवत्ता भारतीय नस्ल की गाय से कम होती है। इसके नर बलिष्ठ नहीं होते हैं।

विश्व में गायों की स्थिति
सम्पूर्ण विश्व में सब से अधिक गाय भारत में पाई जाती हैं जिनकी मुख्य नस्लें 30 हैं। मजेदार तथ्य यह है कि डेनमर्क और इटली जैसे देश मुख्य 11 गोपालक देशों की श्रेणी में नहीं होने के बावजूद गाय के उत्पाद व दुग्ध निर्मित उत्पाद में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। 
इसके साथ ही गाय की पूजा करने वाला हमारा देश इस सम्मान से ( विश्व की सब से ज्यादा लगभग 30% गाय होने के बावजूद ) बहुत दूर है। हां बीफ ( भेंस/ गाय का मांस) निर्यात में प्रथम स्थान पर है।
विश्व में गायों की संख्या लगभग करोड़ में :-
1 - भारत - 28 करोड़ 
2 - ब्राजील - 18 करोड़ 
3 -  चीन - 15 करोड़
4 - संयुक राज्य अमेरिका - 10 करोड़
5 -  अर्जेंटीना - 09 करोड़
6 -  यूरोपीय संघ - 05 करोड़
7 -  ऑस्ट्रेलिया - 03 करोड़
8 -  मेक्सिको - 2.5 करोड़
9 -  रूस - 2.5 करोड़
10 -  दक्षिण अफ्रीका - 02 करोड़
11 -  कनाडा - 1.5 करोड़
12 -  अन्य देश - 05 करोड़
सम्पूर्ण विश्व में गाय को आर्थिक संबलन के लिये पला जाता है जिस से दुग्ध,दुग्ध उत्पाद व मांस प्राप्त करना मुख्य है।

भारत में गाय :-
भारत में गाय आस्था, धार्मिक विश्वास व पूजा के आधार पर पाली जाती है।
भारतीय मान्यता  (भगवद पुराण) के अनुसार जब दानवों और देवताओं ने समुद्र मंथन किया तो पांच गाय (कामधेनु) अमृत के साथ प्रकट हुईं जिनके नाम हैं - 
1-  नंदा
2 -  सुभद्रा
3 - सुरभि
4 - सुशीला
5 - बंदूल 
यह कामधेनु ( संस्कृत में कामधुक ) ब्रह्मा जी द्वारा ऋषियों को पंच गव्य (पंचामृत) हेतु दी गई।
पंचगव्य - 
1 - दुग्ध 
2 - दही 
3 - घी 
4 - गौमूत्र 
5 - गौ गोबर

भागवत पुराण के अनुसार गाय की त्वचा में सूर्य की किरणों को सोने के अंश में बदलने की शक्ति है। स्वर्ण मस्तिष्क के लिये बहुत गुणकारी है , अतः गाय का दूध,दही एव घी मानसिक स्वास्थ्य के लिये उत्तम माना गया है।
(गाय का दूध गर्म करने पर पीला हो जाता है व घी स्वर्ण रंगत का होता है जबकि भैंस का घी दानेदार व सफेद ।)
इसके साथ ही गाय का दूध व पंचगव्य औषधीय गुण वाले होते हैं। जब कोई बीमार पड़ जाता है तो उसे गाय का दूध पिलाने की सलाह दी जाती है। बच्चों,धात्री,गर्भवती महिलाओं को भी गाय का दूध देना उत्तम माना जाता है।
गौ हत्यां ब्रह्म हत्यां च करोति द्वतिदेशिकीम 
यो ही गच्छतगम्या  च य स्त्री हत्याम करोति च।
भिक्षु हत्याम महापापी भ्रूण हत्यां च भारते
कुंभीपाके वसेत्सsधि यावदिन्द्राब्रा तुदर्शम।

पवित्र कुरआन में भी लोगो को कहा गया है कि "गाय का दूध तुम्हारे लिये बेहतर है और उस का मांस निकृष्ट।"
संस्कृत में कहा गया है 
"गौ दुग्धम अमृतम"
एक और संस्कृत वाक्य "गौ विश्वस्य मातरम"

गाय की भारतीय नस्ल - 
भारत में विश्व की कुल संख्या की 30% संख्या पाई जाती है। भारतीय नस्ल को सामूहिक रूप से ZEBU/INDUS/BRAHAMAN के नाम से जाना जाता है। 
भारतीय गाय की महत्वपूर्ण 04 विशेषताएं होती हैं :-
1  - लंबे बड़े सींग (Horns)
2 -  कूबड़ ( Hump)
3 -  गलकंबल ( Dawlap)
4 -  हर मौसम व स्थिति में रहने की योग्यता।

भारतीय गाय की श्रेणियां :- 
     भारतीय गाय को 03 श्रेणियों में रखा गया है :- 
(1) एकांगी - अधिक दूध देने वाली पर कमजोर नर।
(2) पेतृअंगी - दूध कम व नर बलिष्ठ।
(3) स्रवांगी - अधिक दूध व बलिष्ठ नर।

गाय की भारत में बहुत सी नस्लें पाई जाती हैं जिन में से यह कुछ नस्लें महत्वपूर्ण हैं  :-
1 -  सहीवाल 
2 -  सिंधी
3 - ककरेज (मालवी)
4 - काकरेज (सांचोरी)
5 - नागौरी
6- थारपाकर 
7 - भगनाडी
8 - दज्जल
9- गावलाव
10 - हरियाणा
11- एंगोल/निल्लोर
12 - राठी
13 - गिर
14- देवानी
15- निमाड़ी
16 - अलाव
17,- अमृत महल
18 - हल्लीकर
19 - बरगुर
20 - बालमबादी
21 - कंगाय
22 - कृष्णावल्लम

01 - सहीवाल :-
         रावी नदी के तटवर्ती क्षेत्र, बागड़,गंगानगर व पंजाब के कुछ क्षैत्र में पाई जाने वाली इस गाय की सींग छोटी,सिर थोड़ा चौड़ा होता है।
04 से 06% वसा के साथ 10 से 22 लीटर दूध प्रतिदिन लगभग 10 माह तक देती है। इसका नर ओसत श्रेणी का बलिष्ठ होता है।

02 - सिंधी :-
       सिंध नदी के क्षेत्र हैदराबाद, लाहौर,बाड़मेर, जैसलमेर के आसपास पाई जाने वाली  इस गाय का कद ऊंचा, शरीर लंबा,मोटी त्वचा बादामी रंग होता है जिसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है। इसके सींग छोटे होते हैं।
7 से 8 माह तक 6 से 10 लीटर दूध प्रतिदिन देती है जिसमें वसा की मात्रा 04 से 05% तक होती है।

03 काकरोज (मालवी) :-
                         मध्य प्रदेश के मालवा ,रतलाम,मंदसौर,राजस्थान के डूंगरपुर,बांसवाड़ा, उदयपुर क्षेत्र में पाई जाने वाली इस गाय का रंग सफेद,भूरा व गर्दन का रंग हल्का काला होता है।
यह दूध कम देती है जिसमें वसा की मात्रा अत्यधिक होती है। 04 से 08 लीटर प्रतिदिन लगभग 07 माह तक दूध देती है। इसके नर अत्यधिक बलिष्ठ होते हैं।

04 - काकरोज ( सांचौरी) :-
         कच्छ के रण,सिंध क्षेत्र में पाई जाने वाली इस गाय को सर्वांगी (अधिक दूध व बलिष्ठ नर) श्रेणी में रखा गया है।
रंग हल्का भूरा,/काला या रुपहला  होता है।
इसके सींग मझौले सीधे होते हैं। यह गाय 12 से 22 लीटर दूध लगभग 10 माह तक देती है।

05 नागौरी - 
       नहरिया नागौरी देख्या ऊंट जेसलमेरिया, बिकाने री गाया देखी घोड़ा बाडमेरिया।
बड़े सींग, सुडौल शरीर लंबी ऊंची  सफेद या हल्के भूरे रंग की गाय नागौरी नस्ल होती हैं।
इनके नर बोझा खींचने में सब से उत्तम हैं। कम खुराक वाली यह गाय प्रतिदिन 10 से 18 लीटर दूध 07 से 08 माह तक की अवधि के लिये देती है।

06 थारपारकर :- 

                थारपरकर

      सीधे सींग वाली प्रसिद्ध भारतीय नस्ल की गाय जिसका रंग खाकी,भूरा,या सफेद होता है। इसकी खुराक कम होती है जो प्रतिदिन 08 से 10 लीटर दूध 07 से 08 माह तक देती है जो ओसत से कम है।
यह गाय अपने क्रोधी स्वभाव के लिये कुख्यात है।

07 भगनाड़ी :- 
       नाड़ी नदी के तटवर्ती क्षेत्र में पाई जाने वाली इस गाय का शरीर लंबा व कद ऊंचा होता है। ओसत से कम दूध देने वाली इस गाय के नर अधिक बलिष्ठ होते हैं।

08 दज्जल :- 
       पंजाब क्षेत्र में झेलम, चिनाब के तटवर्ती इलाकों में पाई जाने वाली इस नस्ल की गाय कम अवधि के लिये ऊसर से कम दूध देती है। इस के बैल भी ओसत श्रेणी के ही होते हैं।

09 गावलांव :- 
        सतपुड़ा - नागपुर के पठारी भाग में पाई जाने वाली इस नस्ल की जा कद मझौला व रंग लगभग सफेद होता है। सींग ओसत से थोड़े छोटे नुकीले होते हैं। 
इसकी खास विशेषता है इसके उठे हुये कान। दूध प्रतिदिन 10 से 12 लीटर 8 से 10 माह तक देती है।

10 हरियाणा नस्ल :- 
      यमुना नदी के क्षेत्र गुड़गांव,हिसार,भरतपुर,अलवर,दिल्ली के आसपास की नस्ल जो
प्रतिदिन  08 से 12 लीटर दूध लगभग 08 माह के लिये देती है। 
शरीर गठीला, रंग सफेद/मोतिया/ या भूरा होता है। 
यह गाय भारत की पांच प्रमुख गायों में से एक गिनी जाती है।

11 अंगोल/ निलोर नस्ल :- 
           आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के (गुंटूर क्षेत्र) में पाई जाने वाली इस गाय की खुराक बहुत कम है।
इसका रंग हल्का लाल या हल्का बादामी है। शरीर से मझोली मध्यम सींग वाली गाय प्रतिदिन 10 से 15 लीटर दूध 8 से 10 माह की अवधि तक देती है। मधाय्म चाल वाले इसके नर खेतों को जोतने के लिये उत्तम होते हैं।

12 राठी :- 
      रेगिस्तानी क्षेत्रों में पाई जाने वाली गाय चकतेदार,लाल,भूरी,भूरी - काली जो प्रतिदिन 15 से 25 लीटर दूध 10 माह की अवधि तक देती है व इसकी खुराक ओसत है।  यह गाय विदेशी नस्ल की अधिक दूध देने वाली व भारतीय नस्ल की अधिक वसा वाले दूध के मध्य की कड़ी है।
इसकी खास विशेषता है हर तरह के मौसम व क्षेत्र में रह पाना।

13 गिर ( रेंडा, अजमेरी )  :- 
     काठियावाड़  गुजरात के गिर के जंगल क्षेत्र के इलाकों में पाई जाने वाली गाय जिसे 19 वीं शताब्दी में विदेशों में ले जाया गया और उस से कई नई नस्लों को तैयार किया गया। 
यह गाय प्रतिदिन 30 लीटर से अधिक दूध 10 माह की अवधि के लिये देती है। 
यह गाय भारतीय नस्ल की श्रेष्ठ गाय है जिसके नर भी ओसत से अधिक बलवान होते हैं।

 14 देवानी :- 
      तेलंगाना व आंध्रप्रदेश के हिंसोल क्षेत्र में पाई जाने इस गाय का शारीरिक शौष्ठव उत्तम है।
यह गाय भी 10 माह की अवधि के लिये 30 लीटर से अधिक दूध प्रतिदिन देती है। रंग हल्का काला या हल्का लाल होता है व सींग मझौले।

15 निमाड़ी :- 
      नर्मदा घाटी क्षेत्र में पाई जाने वाली इस गाय का रंग लगभग भूरा या हल्का काला होता है। यह सर्वांगी नस्ल की गाय है जिसके नर भी बलिष्ठ होते हैं और दूध भी ओसत से अधिक 18 से 25 लीटर प्रतिदिन 10 माह की अवधि तक होता है।

16 कृष्णवल्लम  :-


भारत में गायों की स्थिति :-

गाय आस्था व विश्वास के साथ - साथ किसान एवम पशु पालकों के लिये अर्थ अर्जन व जीविकोपार्जन का महत्वपूर्ण साधन भी है।
प्राचीन समय में भारत में गाय विनिमय का मात्रक हुआ करती थी।

भारत में गाय चार स्थानों पर पाई जाती है -
1- घर /खेत
2 - डेयरी
3 - गौशाला
4 - सड़क/ बाजार 

गाय, ऊंट,भेंस,बकरी, भेड़, गधे या घोड़े पशु धन में सब से सब से पवित्र पशु गाय को मना गया है।
इसका कारण है धार्मिक आस्था और गाय के दुग्धोत्पाद के ओषधीय गुण। वास्तव में गाय का दूध,सही व घी अधिक गुणकारी और ओषधीय गुण वाले है। गाय का घी सोने जैसा पीला होता है। 
सनातन धर्म में पितृ त्रान,शुभ कार्य, अंतिम संस्कार,या अन्य शुभ कार्य के उपरांत गौ दान करना धार्मिक कार्य का महत्वपूर्ण  अंग है।


नंदी :-
       नंदी (बैल) भगवान शिव का वाहन है जहां शिवलिंग की स्थापना होती है उसी के समीप नंदी की स्थापना भी की जाती है।
नंदी की उपयोगिता :- 
खेती का काम :-
         भारत कृषि प्रधान देश है जहां अधिकांश लोग खेती बाड़ी कर जीवन यापन करते हैं। पूर्व में जब मशीनों का अविष्कार नहीं हुआ था तब बैल किसान की शक्ति हुआ करते थे। वर्तमान में स्थिति बदल गई हैं। खेती का काम ट्रेक्टर,हार्वेस्टर व थ्रेसर से होने लगा है बैल अनुपयोगी और अनार्थिक हो गवे और किसान के यहां आर्थिक भार।

बोझा ढोने का काम :- 
        शहरों और गांवों में खेत - खलिहान, सवारी, इक्का या बैल गाड़ी से समान ढोने के काम अधिकतर बैल ही करते थे। ऊंट रखना हर किसी के बस की बात नहीं होती थी साथ ही ऊंट हर मौसम या वातावरण के में कार्यशील नहीं रह सकता और महंगा भी पड़ता है। बैल कम खाकर अधिक कार्य करता है। पर
अफसोस की बात है कि आज गांव और शहरों से नंदी (बैल) गायब हो गए और यह किसान या कामगारों के लिए अनार्थिक और बोझ बन गए। 

गाय के गर्भधारण हेतु कार्य :- 
        हर गांव में व्यवस्था के अंतर्गत अच्छी नस्ल के सेहतमंद और सुंदर बैल को सांड के रूप में पाला जाता है जिसे दाग के पश्चात गायों को ग्याभ (गर्भ) धारण हेतु कार्य करवाते हैं। इस सांड की देख - रेख गांव की संस्था द्वारा की जाती है। 
परंतु वर्तमान में कृत्रिम गर्भाधान या संचित वीर्य के माध्यम से गर्भाधान करवाया जाना शुरू हो गया है और सांड प्रथा दम तोड चुकी है।

बोझा ढोने, खेती के काम और गर्भाधान कार्य में नंदी की उपस्थिति लगभग समाप्त हो चली है और सब से ज्यादा नर गाय (बछड़े,बैल,सांड) ही मारे -  मारे फिर रहे हैं जिनका कोई मालिक नहीं।

भगवान शिव का वाहन आज समय की मार का मांरा फटकार खा रहा है।

देसी या विदेशी नस्ल की गाय में अंतर :-
     
गाय की नस्ल 

क्रम सं     देसी               विदेशी

1-  मोटी त्वचा।       पतली त्वचा
2 - बड़े/ छोटे सींग  सींग विहीन
3 - कम दूध            अधिक दूध
4 - कम अवधि        अधिक अवधि
5 - हर मौसम के अनुकूल    हर मोसाम के अनुकूल नहीं
6 - कम कीमत    अधिक कीमत
7 - घरेलू आवारा सांड से गर्भाधान            कृत्रिम/संचित/आयातित सांड के वीर्य से गर्भाधान
8 - ठोस गोबर।       पतला गोबर
9 - निर्धारित समय पर चरती है।     
             पूरे दिन चरती है।
10 - बैल(नर) अधिक बलिष्ठ,कार्यशील।        नर कम बलिष्ठ व कार्यशील
11 अधिक संख्या में आवारा      नगण्य संख्या में आवारा
12 - अधिक संख्या में गौवध।      नगण्य गौवध
13 -  गौशाला में संरक्षण।     घर/डेयरी में अधिक 
14 - अनार्थिक       आर्थिक लाभ

भारत में गाय चार स्थानों पर पाई जाती है -
1- घर/खेत
2 - डेयरी
3 - गौशाला
4 - सड़क/ बाजार 

गाय, ऊंट,भेंस,बकरी, भेड़, गधे या घोड़े पशु धन में सब से सब से पवित्र पशु गाय को मना गया है।
इसका कारण है धार्मिक आस्था और गाय के दुग्धोत्पाद के ओषधीय गुण। वास्तव में गाय का दूध,सही व घी अधिक गुणकारी और ओषधीय गुण वाले है। गाय का घी सोने जैसा पीला होता है। 
सनातन धर्म में पितृ त्रान,शुभ कार्य, अंतिम संस्कार,या अन्य शुभ कार्य के उपरांत गौ दान करना धार्मिक कार्य का महत्वपूर्ण  अंग है।

गाय घर/खेत में :-
    पशुपालक गाय घर या खेत में बाड़ों में गायों को रखते हैं। किसानों के पास 1से=100 तक गाय होती हैं जिनका पालन सहर्ष किया जाता है। इससे उसे आस्था के साथ - साथ दूध,दूध उत्पाद,  खाद एवम जलावन भी मिल जाता है। परंतु खेद का विषय है गाय से 6 माह दूध लेने के बाद टालने पर उसे बछड़े सहित घर से बाहर निकाल दिया जाता है। 

गाय सड़क/बाजार में (आवारा)   :-
  
  पशुपालक दूध से टालने पर गाय को बछड़े सहित घर से बाहर निकाल देते हैं और यही गाय सड़कों पर मारी - मारी  फिरती हैं। हालांकि गाय आस्था,पूजा व विश्वास का विषय है पर आस्था पर अर्थ सदैव हावी रहा है। यही कारण है कि पशुपालक को ना चाहते हुए अपनी आस्था को मार कर जिसे वो माता कहता है घर से निकाल देता है। 
मैं राजस्थान के कोने - कोने में बस,गाड़ी,मोटरसाइकल,पैदल या ट्रेन सभी साधनों से घूमा हूं और यह पाया है कि हाड़ौती, डांग व मत्स्य प्रदेश के क्षेत्र को छोड़ कर मेवाड़,मारवाड़,शेखावाटी, बागड़ी,बागड़,एवम खादर क्षेत्र में गाय अधिक संख्या में आवारा सड़कों पर पाई जाती हैं। 

गाय के आवारा होने के नुकसान :-
   हम अखबारों और सोशल मीडिया के माध्यम से हर दिन खबर पढ़ते रहते हैं कि गाय के हमले से घायल,सड़क पर गाय को बचाने की कोशिश में वाहन दुर्घटनाग्रस्त,या दो सांडों की लड़ाई की चपेट में आया व्यक्ति।
मेरे गांव के नजदीक ही छोटा सा गांव है गिनडी पट्टा लोहसना जहां एक अधेड़ रास्ते से जा रहा था, अचानक दो सांड लड़ते हुए आए और वह चपेट में आ गया। सांड का सींग अधेड़ के पेट को चीर चुका था। 
दूसरी घटना मेरी बेटी के साथ हुई। एलएलबी के फार्म भरवाने के लिए अंजलि चुरू जा रही थी, उस समय मैं चुरू कलेक्ट्रेट के आगे धरने पर था, दोपहर के समय किसी ने मुझे फोन कर बताया कि अंजलि की स्कूटी दो गायों की लड़ाई की चपेट में आ गई। उसे तुरंत हस्पताल लाए और हॉट के चार टांके लगवाने पड़े। 
इस तरह की बहुत सारी घटनाएं/दुर्घटनाएं हमारे सामने होती रहती हैं। अक्सर बाजार या सड़क पर हम यह दृश्य देखते रहते हैं।

1- सड़क दुर्घटना की प्रबल संभावना
2 - बाजार में दुर्घटना की घटनाएं
3 -  लड़ते पशु की चपेट में आने से इंसान की मृत्यु/ घायल होना
4 - सब से ज्यादा नुकसान किसान के होता है। वह खेत जोतता है, अच्छी बारिश भी हो जाती है, खेत लहलहाने लगते हैं,और गायों का झुंड रात के समय खेतों में घुस कर सब चट कर जाता है। किसान तारबंदी करते हैं पर यह उसे पार कर ही लेटी हैं। कई गाय/ सांड तो तरणबंदी की पट्टी को टक्कर मार कर तोड़ डालते हैं। 
इस नुकसान से बचने के लिए वह रात भर खेतों में जाग कर फसल की रखवाली करता है। आजकल परेशान होकर किसानों ने झटका तार लगाना शुरू किया है जिस से तार को चुने से अचानक जबरदस्त बिजली का झटका लगता है और फिर पशु उस खेत में नही आते।
आवारा पशुओं के कारण खेती की लागत बढ़ती जा रही है और आर्थिक नुकसान अलग से।
5 - गौ वध - पशु के आवारा होने पर विभिन्न असामाजिक तत्वों के द्वारा अमानवीय कृत्य कारित किए जाते हैं जिन में से सब से अधिक संवेदनशील मामला है गौवध। आवारा गायों को इस लोग रात को पकड़ कर ले जाते हैं और उनका वध कर देते हैं। यह स्थिति पहले ज्यादा भयावह नहीं थी। अब मुफ्त में उसे अपना व्यापार करने का मौका मिल रहा है । खरीद कर यह कार्य करना लगभग असंभव है। इस तरह की घटनाओं से सामाजिक वैमनस्य बढ़ता है। बहुत बार इस तरह की घटनाओं से दंगों की स्थिति बनी है। मेवात (अलवर,भरतपुर, नूह,फिरोजपुर,पुनहाना,मथुरा, बृज क्षेत्र) में लगभग इसी घटनाएं ज्यादा घटित होती हैं। अखबारों की सुर्खियां रहा गौ रक्षा दल के सदस्यों द्वारा रकबर व पहलू खान की हत्या का मामला इसका ज्वलंत उदाहरण है।
6 - अधिकांश आवारा गाय देसी नस्ल की हैं। ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब भारतीय देसी गाय विलुप्त पशुओं की श्रेणी में आ जाएगी। तीर चीतों की तरह गाय भी विदेश से आयात करनी होंगी जो आम आदमी के बस की बात नहीं होगी।
7 - इसके अलावा भी बहुत से छुपे हुए नुकसान हैं।

गाय गौ शाला में :- 
राजस्थान में लगभग 2700 पंजीकृत गौ शालायें है और विधान सभा क्षेत्र 200 लोकसभा सीट 25 , इस हिसाब से ओसत प्रति विधानसभा क्षेत्र में 13 से 14 गौशाल या प्रति लोकसभा क्षेत्र में 108 गौशाला स्थापित हैं जिन में 500 से 5000 तक गाय संरक्षित हैं। 
गौशालों के माध्यम से गायों का संरक्षण किया जा रहा है जो कि एक सुखद अनुभव करवाता है। परंतु सभी गौशाल सिर्फ गाय संरक्षण का कार्य नहीं कर पा रहीं हैं। कुछ वर्ष पूर्व हिंगोनिया गौ शाला में गायों की दुर्दशा देख कर मन विचलित हो जाता है।
इसलिए 
1 गोशाला प्रबंधन बेहतर किया जावे।
2 गौ शाला में आवारा गायों को लेना अनिवार्य किया जावे।
3 गौ शाला में ली गई गायों को आवारा नहीं छोड़ा जावे ।
4 गौशाला प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित की जावे।

गौशालाओं हेतु आर्थिक प्रबंधन
1 प्रति बड़ी गाय 40 रूपये और छोटी गाय के 20 रूपये  राज्य सरकार द्वारा 9 माह के लिए दिया जाता है।
2 धार्मिक संस्थाएं गौशाला को चंदा देती हैं।
3 संत महात्माओं व कथाकारों द्वारा भागवत कथा का आयोजन कर आर्थिक संबलन किया जाता है।
4 इनकम टैक्स की धारा 80G के अंतर्गत tex की राशि से प्राप्त सहायता।
5 धर्म प्रेमी सज्जनों द्वारा सहायता। 

 
गायों में प्रमुख रोग,उनका उपचार और रोकथाम :-

उपचार से पहले बचाव :-
गायों के बीमार होने पर उसका इलाज करने की बजाय  उन्हें तंदुरूस्त बनाये रखने का इंतजाम करना ज्यादा बेहतर है। 
"जब गरजे आसमान तब हल देखे वो नहीं किसान" एक कहावत है। अच्छा पशुपालक और किसान वही है जो समय से पहले रोग से बचाव के उपाय करे चाहे वो फसल हो या गोधन। 
इस हेतु निम्नानुसार उपाय जरूरी हैं :-
1 गोधन के लिए साफ-सुथरा और हवादार स्थान निश्चित करना।
2 सन्तुलित चारा और पानी उपयोग में लेना।
3 समय पर चिकित्सक व सरकार के निर्देशानुसार टीकाकरण करवाना।
4 उचित देख-भाल करने पर गायों को रोगग्रस्त होने से बचाया जा सकता है। 
5 संक्रामक रोगों के प्रकोप पर संक्रमित गायों को पृथक करना।
6 समय समय पर फिटकरी का घोल पिलाना।
7 कैल्सियम की पूर्ति करना।
8 कमजोर पशुओं को विशेष चारा व अतिरिक्त खुराक दे कर रोग निरोधक शक्ति प्रदान करना। 9 पशुओं के बांधने के बाड़े, ठाण और खेल को सुथरा रखने के साथ साथ परजीवी मुक्त रखना। 
10 पशुओं की देखभाल करने वाले गोपालक स्वयं को भी स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए जिससे छूत की बीमारी न फेल सके।
11 गायों की खुराक में सूखे चारे के साथ हरा चारा खल व दाने में  नमक निश्चित मात्रा में देना।
12 साफ पानी परजीवी मुक्त कर निश्चित समय पर पिलाना।
13 गायों को बांधने की जगह ऊँची और ढालदार हो जिससे मूत्र आदि बह जाए। 
14 चारा चरने का ठान इस trh बनाया जाए कि पशु आसानी से पहुंच सके और अधिक पशु हैं तो जाली या ईंटों से अलग-अलग चार सकें ऐसा डिवाइड बनाया जावे।
15 बाड़े में सूर्य का प्रकाश व हवा की पहुंच हो और वह खुला खुला फिर सके इतनी जगह हो।
16 मक्खी मच्छर पनपने से रोकने के लिए दवाओं का छिड़काव किया जाना चाहिए।
17 बाड़े के पक्के फर्स को फिनायल से धोया जाना चाहिए। 18 गोबर और मूत्र को समय समय पर साफ कर दिया जाए कम से कम दिन में दो बार।
18 दूध पीने वाले बछड़े के द्वारा थन काटने से बचाव किया जावे।
19 दिन में खुले स्थान पर टहलने घूमने के लिए स्थान उपलब्ध करवाना आवश्यक है।
20  गायों के शरीर की सफाई और यदि कहीं चोट लगी हो तो तुरंत मरहम पट्टी की जानी चाहिए।
21 गायों को डरा कर रखने के स्थान पर स्नेह पूर्वक व्यवाहर किया जाए।
22 गायों में फैलने वाले ज्यादातर संक्रामक रोग खुरपका, मुंहपका जैसे (छूत  रोग) स्थानिक (एंडेमिक - वो रोग जो एक बार जिस स्थान पर जिस समय फैलते है उसी स्थान पर उसी समय बार- बार फ़ैलते हैं एंडेमिक रोग कहलाते हैं।) से बचाने के लिए टीकाकरण आवश्यक है। इन टीकों का शुल्क नाममात्र होता या नहीं भी होता है।

गायों में तीन तरह के रोग होते हैं,
1 संक्रामक रोग (छूत की बीमारियाँ)
2 सामान्य रोग 
3 परजीवी जनित रोग

1 संक्रमक रोग (छूत की बीमारियाँ)
संक्रामक रोग संसर्ग या छूआछूत( संपर्क) से एक गाय से कई गायों में फ़ैल जाते हैं। पशुपालक को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि छूत की बीमारियाँ आमतौर पर महामारी का रूप ले लेती हैं। यह रोग प्राय: विषाणुओं के माध्यम से  फैलते हैं परंतु इनके संक्रमण के रास्ते पृथक - पृथक होते हैं।
जैसे खुरपका के विषाणु बीमार गाय की लार से पानी या चारे में  मिल कर उसे दूषित कर देते हैं और अन्य स्वस्थ गायों के इसके संपर्क में आने पर वो भी इस रोग की शिकार हो जाते हैं।
इसलिये यदि कहीं संक्रामक रोग फ़ैल जाये तो गायों को बचाने हेतु यह उपाय करें : –
1 रोग फैलने की सूचना पशुपालन विभाग को दें।
2 बीमारी फैलने वाले स्थान के निकट अन्य गायों का आवागमन तुरंत बंद कर दें।
3 पानी सामलाती खेल के स्थान पर पृथक - पृथक बठल में पिलाएं।
4 सार्वजनिक चारागाह में रोग का प्रकोप समाप्त होने तक चराना बंद कर दें।
5 स्नक्रमित गाय को स्वस्थ गायों से तुरंत अलग करें।
6 इन रोगों से मरी गायों को खुले में फेंकने के स्थान पर  कम से कम 6 फुट गहरे गड्ढे में गाड़ना चाहिए।
7 बीमार या मरी गाय के स्थान को दिन में तीन बार फिनायल से धो कर चूने का छिड़काव करना आवश्यक है।
खाल की खरीद – बिक्री करने 8 8 इस तरह के रोग से संक्रमित हो कर मरी गायों की चमड़ी नहीं निकालने देनी चाहिए वरना खाल के माध्यम से विषाणु आसानी से दूसरे स्थान पर पहुंच कर स्वस्थ गायों को संक्रमित कर बीमार कर देगा।
संक्रमित रोग उसने बचाव व उपचार :-
(i) गलाघोंटू :-
         अधिकतर बरसात के मोसम में होनी वाला गलघोंटू रोग गाय,भैंस, भेड़,बकरी व सुअर में ज्यादा होता है।

रोग के लक्षण : –
1 गलघोंटू का विषाणु पशु के शरीर का तापमान बढ़ा कर उसे सुस्त बना देता है। 
2 रोगी पशु का गला सूज जाता है जिससे खाना निगलने में दिक्कत होती है।
3 गले में सूजन और दर्द के कारण पशु खाना-पीना छोड़ देता है। 
4 पशु को साँस लेने में कठिनाई होती है।
5 पशु को पहले कब्ज होता है बाद में दस्त लगने शुरू हो जाते हैं।
6 बीमार पशु के मुंह से लार गिरने लगती है और 6 से 24 घंटों में पशु की मौत हो जाती है।

रोग का उपचार :-
1 गलघोंटू रोग निरोधक टीके बारिश का मौसम आने से पहले लगवाना।

(ii) जहरबाद (सुजवा,ब्लैक क्वार्टर) रोग :- 
बरसात के मौसम में फैलने वाला रोग जिसकी विशेषता है कि इस रोग के विषाणु ज्यादातर छह से अठारह माह के स्वस्थ बछड़ों को शिकार बनाते हैं। 

रोग के लक्षण :-
1 संक्रमित बछड़े का पीछे का पुट्ठा सूजने से लंगड़ा कर चलने  लगता है।
2 कुछ गायों के अगले पैर भी सूज जाते हैं शरीर के दूसरे भागों में भी फैलने लगती है। 
3 सूजन में पीड़ादायक होती है (सूजन के स्थान को दबाने पर एक आवाज आती है), शरीर का तापमान 104 से 106 डिग्री बढ़ जाता है। 
4 सूजन के स्थान वाली त्वचा सड़ने लगती है जिससे घाव बन  जाता है।

चिकित्सा :-
पशुपालन विभाग के परार्मश से सभी गायों को बरसात के पहले रोग निरोधक टीके लगवाना।

(iii)  एंथ्रेक्स (प्लीहा रोग) :-
एंथ्रेक्स एक वायरस जनित संक्रामक रोग है जो गाय के अलावा भेड़, बकरी और घोड़े भी होया है।
संक्रमित पशु की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है।  

लक्षण –
1 तेज बुखार 106 डिग्री से 107 डिग्री तक।
2 पशु की मृत्यु के बाद नाक, पेशाब और गुदा के रास्ते खून आना।
3 संक्रमित पशु के विभिन्न अंगों पर सूजन आना। 
4 रोग अधिक बढ़ने पर  पेट का  फूलना।

एंथ्रेक्स का उपचार – 
1 संक्रामक रोगों की रोक-थाम उनसे बचाव के तरीके ऊपर बताए अनुसार उपाय करने चाहिए।
2 तुरंत चिकित्सक की सेवाएँ लें।
3 एंथ्रेक्स स्थानिक रोग है जिसका समय रहते टिकाकरण करवाया जावे।

(iv) खुरपका– मुहंपका (फूट एंड माउथ डिजीज़)

लार से फैलने वाला यह रोग गाय, बैल और भैंस भेड़ व बकरियों को भी अपना शिकार बनाता है।जो तेजी से अन्य पशुओं को संक्रमित कर देता है। इस रोग से ग्रसित पशु के मरने की संभावना कम रहती है पर  पशु कमजोर हो जाता है जिससे उसकी कार्यक्षमता और दुग्ध उत्पादन कई दिनों तक कम हो जाता है। 

रोग के लक्षण – 
1 पशु को बुखार हो जाना।
2 कम चरना।
3 दूध में कमी आना।
4 मुंह और खुर में पहले छोटे-छोटे दाने निकलना और बाद में पक कर घाव हो जाना इस रोग के लक्षण हैं।

रोग की चिकित्सा :– 
1 संक्रामक रोग की रोक-थाम  के उपाय।
2 मुंह के छालों को फिटकरी के 2 प्रतिशत घोल सा साफ करें।
3 पैर के घाव को फिनाइल के घोल से धोये।
4 पैर में तुलसी अथवा नीम के पत्तों का लेप लाभदायक है।
5 घावों को मक्खी मच्छर से बचाना।
6 पशु के साल में दो बार छ: माह के अंतर से रोग निरोधक टीका लगवाना।

(v) पशु यक्ष्मा (टीबी)

संसर्ग से फैलने वाला रोग जो मनुष्यों को भी संक्रमित कर सकता है।

पशुओं में टीबी रोग के लक्षण :- 1 पशु कमजोर और सुस्त हो जाता है। 
2 कभी-कभी पशु की नाक से खून निकलता है।
3 पशु को सूखी खाँसी भी हो सकती है। 
4 चारा चरने में रुचि कम हो जाती है 
5 पशु के  फेफड़ों में सूजन आना।

टीबी रोग की चिकित्सा :– 
1 संक्रामक रोगों से बचाव के उपाय
2 यह एक असाध्य रोग है।
3 बचाव ही इलाज है।

(vi) थनैला रोग :-
दुधारू मवेशियों को यह रोग इन कारणों से होता है -
1 थन पर चोट लगना कट जाने से 2 संक्रामक जीवाणुओं के थन में प्रवेश कर जाने से
3 अस्वच्छ स्थान पर पशु को बंधना।
4 अनियमित रूप से दूध दूहना। 5 अधिक दूध देने वाली गाय-भैंस इसका शिकार अधिक होती हैं।

थनेला के लक्षण
1 थन गर्म और लाल हो जाना।
2 थनों में सूजन होना।
3 शरीर का तापमान बढ़ जाना।
4 चारा चरने में अरुचि।
5 दूध का उत्पादन कम हो जाना।
6 दूध का रंग बदल जाना।
7 दूध में जमावट हो जाना

थनेला की चिकित्सा :-
1 पशु को हल्का और सुपाच्य आहार दें।
2 सूजे स्थान को गर्म राख, पानी से सेंकना।
3 पशू चिकित्सक की राय से एंटीबायोटिक दवा या मलहम लगाना।
4 थनैल रोग ग्रस्त मवेशी को सबसे अंत में दुहना।

(Vi) संक्रामक गर्भपात रोग :-
गाय,भैंस,भेड़ व बकरी को होने वाला रोग जिस से ज्ञाभ असमय गिर जाता है।

रोग के लक्षण :-
1 पशु को बेचैनी होना।
2 ब्यावंत के लक्षण दिखाई देते हैं।
3 योनि से तरल पदार्थ बहने लगता है। 
4 गर्भ के पांचवे, छठे महीने यह रोग अपने लक्षण दिखाई देने लगता है।
5 गर्भपात होने के बाद भी बच्चा अंदर रह जाता है।

बचाव :-
  6 से 8 महीने के पशु को इस रोग (ब्रूसोलेसिस) का टिका लगवा देने से इस रोग का खतरा कम रहता है।

रोग की चिकित्सा :-
1सफाई का पूरा ध्यान रखना। 
2 बीमार पशुओं को अलग कर देना चाहिए। 
3 गर्भपात के बाद पिछला भाग गुनगुने  पानी से धोकर पोंछना
4 गर्भपात के भ्रूण को जला देना चाहिए। जिसे स्थान पर गर्भपात हो, उसे रोगाणुनाशक दवा के घोल से धोयें। 
5 पशु चिकित्सक की सेवाएँ लें।

सामान्य रोग या आम बीमारियाँ :-

साधारण या सामान्य रोग से पशुओं की उत्पादन – क्षमता कम हो जाती है। यह रोग अधिक भयानक नहीं होते पर समय रहते इनका इलाज नहीं कराने पर काफी खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। 
2 कुछ साधारण बीमारियां उनके लक्षण और प्राथमिक चिकित्सा :-

(i) अफरा :-
कारण :-
1 हरा और रसीला चारा
2 भीगा चारा या दलहनी चारा अधिक मात्रा में खाने
3 बछड़े के अधिक दूध पी लेने के कारण पशु को अफरा की बीमारी हो जाती है। 
4 पाचन शक्ति कमजोर हो जाने
रसदार चारा जल्दी-जल्दी खाकर अधिक मात्रा में पानी पीने से यह बीमारी पैदा होती है।

लक्षण

1 एकाएक पेट फूल जाता है।
2 ज्यादातर रोगी पशु का बायाँ पेट पहले फूलता है। पेट को थपथपाने पर ढोल की तरह आवाज आती है।
3 पशु कराहने लगता है और फूले पेट तरफ देखता है।
4 पशु को साँस लेने में तकलीफ होती है।
5 रोग बढ़ जाने पर पशु चारा दाना छोड़ देता है।
6 बेचैनी बढ़ जाती है।
7 पशु झुक कर खड़ा होता है और अगल-बगल झांकता रहता है।
8 रोग की तीव्र अवस्था में पशु बार-बार लेटता और खड़ा होता है।
9 रोग ग्रस्त पशु जीभ बाहर लटकाकर हांफता है।
10 रोगी पशु पीछे के पैरों को बार पटकता है।
11 तुरंत इलाज नहीं करने पर रोगी पशु मर सकता है।

चिकित्सा :-

1 पशु के बाएं पेट पर दबाव डालकर मालिश करना।
2 पेट पर ठंडा पानी डालना।
3 पीठ व पेट पर तारपीन का तेल गर्म कर लगाना।
4 पशु के मुंह को खुला रखने के लिये जीभ को मुंह से बाहर निकालकर जबड़ों के बीच साफ व चिकनी लकड़ी दबा दें।
5 प्रारंभिक अवस्था में पशु को घुमाने से फायदा होता है।
6 आधा से एक छटाक तारपीन का तेल, छ: छटाक टीसी के तेल में मिलाकर पिलानें से पशु को अफरा से आराम मिलता है । 
7 दो सौ ग्राम मैगसल्फ़ के साथ दो सौ ग्राम नमक दो लीटर पानी में मिलाकर जुलाब देना।
8 लकड़ी के कोयले का चूरा, आम का पुराना अचार, काला नमक, अदरख, हींग और सरसों पशु चिकित्सक के परामर्श से देने से बीमार पशु को आराम मिलता है।
9 पशु को स्वस्थ होने के बाद थोड़ा-थोड़ा पानी दें पर पूर्ण स्वस्थ होने तक कोई चारा न खिलाएं।
10 तुरंत पशु चिकित्सक की सहायता प्राप्त करें।

(ii)  दुग्ध - ज्वर

दुधारू गाय भैंस या बकरी इस रोग के चपेट में पड़ती है। ज्यादा दुधारू पशु को ही यह बीमारी अपना शिकार बनाती है। बच्चा देने के 24 घंटे के अदंर दुग्ध – ज्वर के लक्षण साधारणतया दिखेते हैं।

लक्षण

1 पशु बेचैन हो जाता है।
2 पशु कांपने और लड़खड़ाने लगता है। 
3 मांसपेसियों में कंपन होने लगता है, 
4 पशु खड़ा रहने में असमर्थ रहता है।
5 मुंह सूख जाता है।
6 तापमान सामान्य या सामान्य से कम हो जाता है।
7 रोग की तीव्र अवस्था में पशु बेहोश हो जाता है।
चिकित्सा के अभाव में पशु 24 घंटे के भीतर मृत्यु हो जाती है।

रोग की चिकित्सा :- 

1 थनो को गीले कपड़े से पोंछ कर साफ कपड़ा लपेटें।
2 थन में हवा भरना लाभदायक है।
3 पशु के ठीक होने के बाद तीन दिन तक उस्टी पूरी तरह खाली नहीं करें।
4 पशु को हल्की सुपाच्य खुराक दें।
5 पशु चिकित्सक से राय लें।

(iii)  दस्त और मरोड़ रोग :-

इस रोग के दो कारण हैं :-
1 अचानक ठंडा लग जाना।
2 पेट में किटाणुओं का होना जिससे आंत सूज जाती हैं।

रोग के लक्षण :- 

1 पतला और पानी जैसे दस्त होता है।
2 पेट में मरोड़ होता है।
3 पोटे में खून आना।

रोग की चिकित्सा :-

1 हल्का व सुपाच्य आहार देना ।2 कम चारा और पानी कम देना चाहिए।
3 बछड़े को कम दूध पीने देना चाहिए।
4 पशु चिकित्सक की राय लें।

(iv)  जेर का गर्भाशय में रह जाना :-

ब्यावन्त के  चार से पांच घंटों के बीच जेर (नाल) का बाहर निकलना जरूरी है। कभी - कभी जेर अंदर ही रह जाती। जिसके कारण मवेशी बांझपन,उलांस आना व जेर के संक्रमित होने पर कभी कभी मृत्यु भी हो सकती है।

रोग के लक्षण :- 

1 जेर नहीं पड़ने से गाय या भैंस बेचैन हो जाती है।
2 जेर का एक हिस्सा योनिमुख से बाहर निकल जाता है।
3 चकलेटी रंग का बदबूदार पानी निकलने लगता है।
4 दूध भी फट जाता है।
 

रोग की चिकित्सा :- 

1 जेर को बिना छुये पिछले भाग को गर्म पानी से धोना।
2 जेर को निकालने के लिए किसी प्रकार का जोर नहीं लागायें।
3 चिकित्सक की राय से गर्म तासीर का खाना दें।

(V)  योनि प्रदाह (योनि से स्वेत पदार्थ का गिरना  :- 

कारण जी गाय व भैंस की ब्यावंत के बाद जेर का सही से नहीं गिरना।

रोग के लक्षण :- 

1 मवेशी के शरीर का तापमान बढ़ जाता है।
2 योनि मार्ग से दुर्गन्धयुक्त पीप जैसा तरल गिरता रहता है ( बैठे रहने की अवस्था में तरल अधिक गिरता है)।
3 पशु बेचैनी रहता है।
4 दूध घट जाता है।
5 दूध का कम होना।

रोग की चिकित्सा :- 

1गूनगूने पानी में डेटोल या पोटाश मिलकर रबर की नली की सहायता0गर्भाशय की सफाई करनी चाहिए।
2 पशु चिकित्सक की राय लें।

(vi) निमोनिया :- 

रोग के कारण :-
1 पानी में लगातार भीगना।
2 सर्दी लगने पर निमोनिया रोग हो जाता है।

निमोनिया के लक्षण :- 

1पशु के शरीर का तापमान का बढ़ना।
2 सांस लेने में कठिनाई।
3 नाक से पानी बहना।
4 भूख कम हो जाती है।
5 दूध कम होना।

निमोनिया की चिकित्सा :- 

1 सर्दी से बचाव।
2 तारपीनउ का तेल डाल कर गर्म पानी की भाप देना 
3 सरसों तेल में कपूर मिलकर मालिश करना।
4 पशु चिकित्सक की राय से दावा देना।

(vii)  घाव

झाड़ी,तार,लकड़ी या फांस से लगने, कटने या छील जाने से पशुओं की त्वचा में घाव होना आम बात है।

चिकित्सा

1 गुनगुने पानी में लाल पोटाश या फिनाइल मिलाकर सफाई करना।
2 घाव में कीड़े पड़ने पर तारपीन के तेल में गाज पट्टी भिगो कर बांधना।
3 मुंह के घाव को फिटकरी के पानी से धोकर छोआ  और बोरिक एसिड का घोल लगाना।
4 शरीर के घाव पर नारियल के तेल में चौथाई भाग तारपीन का तेल व कपूर मिलाकर लगाना।

3 परजीवी जन्य रोग :- 
जोंक,पिस्सू,चिंचड़ी,मक्खी,मच्छर या आन्तरिक परजीवियों के कारण मवेशियों को कई प्रकार की बीमारियों हो जाती हैं। 

(i) नाभी रोग (अधिकतर बछड़ों को होता है।) :- 

नाभी रोग के लक्षण :- 

पशु (बछड़े) की नाभि के आस-पास सूजन का होना जो बाद अंदर पीप ले लेती है  हो जाती है, जिसको छूने पर रोगी बछड़े को दर्द होता है। जिससे बुखार के कारण बछड़ा सुस्त हो जाता है।

नाभि रोग की चिकित्सा :- 

1 सूजे हुए भाग को दिन में दो बार गर्म पानी से सेंकना।
2 घाव का मुंह खुल जाने पर उसे अच्छी तरह साफ कर एंटी बायोटिक पाउडर पूर्ण सावस्थ होने तक भरना चाहिए। 
3 पशु चिकित्सक की राय से दावा करना।

(iv) सफ़ेद दस्त :- 
बछड़ों  के जन्म से तीन सप्ताह तक विषाणुओं के कारण होता है। 
कारण :- 
1अस्वच्छ गंदे ठान
गाय के थन सही से नहीं धोना।
3 जन्म से कमजोर बछड़े इस रोग का शिकार अधिक होते हैं।

लक्षण
1 बछड़ों का पिछला भाग दस्त से लथ - पथ रहना।
2 बछड़ा सुस्त हो जाता है।
3 खाना – पीना छोड़ देता है।
4 शरीर का तापमान कम हो जाता है।
4 आंखे अदंर की ओर धंस जाती है।

चिकित्सा :-
निकट के पशु चिकित्सा के परामर्श से इलाज कराएं।

(v) कौक्सिड़ोसिस :-
यह रोग कौक्सिड़ोसिस नामक एक किटाणु के कारण होता है।

लक्षण
1. दस्त के साथ  खून आना।
2. पशु खाना पीना छोड़ देता है।
3. पोटे के समय ऐंठन से दर्द होता है।
4 रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है।

चिकित्सा उपाय :- 
1 चिकित्सक से इलाज करवाना।

(vi)  रतौंधी :- 
शाम होने के बाद से सूरज निकलने के पहले तक रोग ग्रस्त गाय को दिखाई नहीं देना रतौंधी के लक्षण हैं। 

चिकित्सा उपाय :- 
1 15 दिन लगातार लगभग 25 बूँद कोड लिवर ऑइल दूध के साथ देने से आराम मिलता है।
2 पशु चिकित्सक के परामर्श अनुसार दवा व देखभाल ।

(Vii) बंद पड़ना (कब्ज) :-
गाय द्वारा मल त्याग नहीं कर पाने को बंद या कब्ज कहते हैं।

कब्ज (बंद का कारण)
1 सुखा चारा अधिक देना।
2 अनाज अधिक देना।
3 तूंतड़ा अधिक मात्रा में देना।

चिकित्सा :- 
1 50 ग्राम पाराफिन लिक्विड (तरल) 200 ग्राम गर्म दूध में मिलाकर दें।
2 साबुन के घोल का एनिमा देना भी लाभदायक है।


(viii) लम्पी स्किन डिजीज :-

लंपी क्या है :- 
यह बीमारी सबसे पहले 1929 में अफ्रीका में पाई गई जो फैलते फैलते कुछ सालों में ही कई देशों के पशुओं में पाई गई।
2015 में तुर्की और ग्रीस और 2016 में रूस, 2019 बांग्लादेश में अपना विभत्स रूप दिखा चुकी है जो बाद में कई एशियाई देशों में फैलती रही है और यह अभी भी जारी है।
भारत में सबसे पहले लम्पी स्किन डिजीज वायरस का संक्रमण साल 2019 में पश्चिम बंगाल (बांग्लादेश से) में देखा गया  जो कि 2021 तक 15 से अधिक राज्यों के पशुओं को अपनी चपेट में ले चुका था।
वर्तमान में लंपी की शुरुआत गुजरात ( पाकिस्तान से) से हुई जो  राजस्थान होते  हुए हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अंडमान निकोबार जैसे प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों  सहित कम ज्यादा पूरे देश के 14  राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में फैल गई है। आज के दिन तो इसका असर कम हुआ है।राज्य सरकार के पशुपालन विभाग के अनुसार राजस्थान में 3500 के करीब गायों की मृत्यु हुई है पर यह आंकड़े हकीकत से बहुत कम हैं।
मेरे गांव सहजूसर  में ही 300 से अधिक गायों ने दम तोड़ा है। कई पशुपालकों के खूंटे खाली हो गए।
यह एक नई बीमारी है जिसने पशुपालकों के बाड़े खाली कर दिए।
1 लम्पी स्किन डिजीज क्या है? 2 यह किन पशुओं को प्रभावित करता है?
3  इसके लक्षण क्या हैं?

लंपी स्किन डिजीज एक वायरल जो एलएसडी वायरस के कारण  मच्छर मक्खियों जोंक व खून चूसने वाले परजीवियों के माध्यम से गाय-भैंसों में होने वाला संक्रामक रोग है। लम्पी स्किन डिज़ीज़ में शरीर पर गांठें बनने लगती हैं विशेषकर  सर, गर्दन, और जननांगों के आसपास और धीरे-धीरे यह गांठे बड़ी होने लगती हैं और पूरे शरीर पर फैल कर  घाव में बदल जाती हैं।
यह रोग संक्रमित गाय की लार से पानी, और चारे के माध्यम से भी फैलता है।
लंपि स्किन डीजीज के लक्षण :- 
1 पशुओं को तेज बुखार आना। 2 दुधारु पशु का दूध देना कम हो जाना।
3 मादा पशुओं का गर्भपात हो जाना। 
4 गांठों के घावों से दर्द के कारण पशु की मौत।
क्या करें यदि पशु लंपी ग्रस्त हो जावे :- 
1 तुरंत संक्रमित पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर दें।
2 दूध निकाल कर सुरक्षित रूप से कहीं फेंक दें।
3 घावों को फिटकरी व नीम के पानी से साफ करें।
4 डॉक्टर से संपर्क करें।
5 पशुओं का परिवहन,आवागमन स्थगित कर दें।
6 डीडीटी व फिनायल का छिड़काव करें।
7 आईसीएआर-नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन इक्वाइन (आईसीएआर-एनआरसीई), हिसार (हरियाणा) ने आईसीएआर-भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई), इज्जतनगर, उत्तर प्रदेश के सहयोग  वैक्सीन "लंपी-प्रोवैकइंड" विकसित कर लिया है जो राजस्थान सरकार द्वारा सभी पशु चिकित्सालयों में मुफ्त लगाया जाता है। 
8 लम्पी स्किन डिजीज से संक्रमित पशु की मौत होने पर उसे कम से कम 6 फुट गहरे गड्ढे में गाड़ना आवश्यक है।

गायों के संरक्षण के उपाय :-
  आप और हम सब जानते हैं कि भेंस,बकरी,भेड़ ऊंट व जर्सी गाय आदि हमें कहीं आवारा घूमते नहीं मिलेंगे।
भूल से भी यह पशु घर से निकल जाएं तो पशुपालक ढूंढते हुए गांव ढाणियों की खाक छान कर इनको तलाश लेते हैं।
गाय ही (नर या मादा) विशेष रूप से देसी गाय झुंड के झुंड आवारा दिखाई देते हैं। जिसके कारण हम पूर्व में जान चुके हैं।
इन गायों के सुरक्षण के उपाय :- 
1 प्रत्येक गाय चाहे छोटी हो या वयस्क उसकी पहचान व मालिक का नाम रिकॉर्ड किया जावे।
2 सरकार द्वारा टैग लगा कर गायों की पहचान निश्चित की गई है जिसे आम पोर्टल पर टैग नंबर के माध्यम से पशुपालक की पहचान आम की जावे।
3 दूध देना बंद करने पर टैग लगी गाय को घर से निकालने वाले पशुपालक पर कार्यवाही की जावे।
4 अनुपयोगी नर बैलों के उपयोग हेतु नीति बनाई जावे।
5 गौवध करने वाले व्यक्तियों पर सख्त कार्यवाही कर कम से कम 14 वर्ष का कारावास की सजा का प्रावधान किया जावे।
6 गौशालाओं की निगरानी राजकीय एजेंसियों द्वारा की जावे।
7 किसी भी गौशाला क्षेत्र में आवारा गाय मिलने पर तुरंत उसे गौशाला में जमा करने हेतु सख्ती से पाबंद किया जावे।
7 नर गायों (सांड व बैल) हेतु नदी शाला की स्थापना की जावे।
8 गौशाला के संचालन का कार्य यथा संभव ग्राम पंचायत को ही दिया जावे और स्वतंत्र गौशालाओं की मॉनिटरिंग भी पंचायतों के माध्यम से करवाई जावे।
9 किसानों को गौशाला की तर्ज पर गाय पालने हेतु 40 रूपये बड़े पशु व 20 रूपये छोटे पशु हेतु अनुदान दिया जावे।
10 छतीशगढ़ राज्य की तर्ज पर गाय का गोबर ग्राम पंचायत के माध्यम से 2 रूपये किलो खरीद कर कंपोस्ट खाद बना कर वापिस किसानों को उचित दर पर बेच दिया जावे।
11 शहरों में फिरने वाली आवारा गायों को निकटतम गौशाला में जमा करवाया जावे।
12 गोपालन आयोग को शसक्त किया जावे।
13 गौ उत्पाद बिक्री केंद्र स्थापित कर गोपालन के लिए आम किसान को प्रोत्साहित किया जावे 
14 गाय का दूध भैंस के दूध से कम कीमत पर बिकता है, इसलिए गाय और भेंस के दूध की अंतर राशि का राज्य सरकार द्वारा कर पशु पालक को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
15 किसानों को बैल पालन हेतु प्रोत्साहित किया जावे 
16 विद्युत उत्पादन हेतु टरबाइन का संचालन किया जाता है, सरकार द्वारा ऐसी योजना बनाई जा सकती है जिस से बेलों को टरबाइन चलाने हेतु बेलों की शक्ति का उपयोग किया जा सके जिससे बेलों के अनार्थिक होने का बोझ कम हो जाए।
17 पशुपालन विभाग द्वारा बेहतरीन नस्ल की गायों के लिए कृत्रिम/वीर्य द्वारा नस्ल सुधार कार्यक्रम का संचालन करना।
18 गाय को धर्म व आस्था के साथ उत्पादन के साधन के रूप में पहचान करवाना।
 19 सुरक्षित चरागृह का विकास करना।।
20 खाली जोहड़ पायतन,पड़ती भूमि और बीहड़ों को गोचर भूमि के रूप में विकसित किया जावे।
21 पाशुपालों को चारा उत्पादन हेतु प्रोत्साहन देना।

उराग्वे देश और गाय की स्थिति  :-

गाय 
उत्पत्ति,मान्यता व वर्तमान स्थिति

आज से लगभग 10500 साल पहले तुर्की (TURKY) के आसपास एक जंगली जानवर एरॉक्स/एरोज (AUROCHS) नाम के पशु को पालतू बना कर दुधारू पशु के रूप में घर लाया गया।
                  एरोज एक जरायुज स्तनपाई  था जिस की लगभग 80 श्रेणियां थीं। बारह सिंगा, याक, हरिन,जिराफ, ऊंट घोड़ा,गधा,बकरी, भेड़ यह सब इसी श्रेणी के पशु हैं।
              
नाम - मादा - गाय (भारतीय)
          Cow (लेटिन)
        नर - सांड ( bull ) गर्भधारण हेतु  बैल ( ox ) वजन खींचने व अन्य मेहनत के कामों के लिए 
गाय के बच्चे का नाम - बछड़ा calf
 बछिया (haifer calf) बछड़ा (bull calf)
श्रेणी - मवेशी (Bovine) (Bovidea) (Bovinee)
जीव वैज्ञानिक परिवार  -
 पशु Animal - बड़े स्तनधारी  पशु  Memal - खुर वाले पशु (Artiodoctyla ) 

वजन - 
वयस्क नर - 500 से 1800 किलोग्राम
वयस्क मादा - 400 से 1200 किलोग्राम

थन की संख्या  - 04
श्रेणी - शाकाहारी
सींग - हां (विदेशी नस्ल के नहीं भी हो सकते हैं,या बचपन से ही सींगों को कलम कर समाप्त कर दिया जाता है।
सींगों की संख्या - 02
दांतों की संख्या - 32
गाय श्रेणी के पशुओं की विशेषता "जुगाली" - यह बहुत सारी घास या चारा एक साथ चार लेते हैं बाद में वो उसे वापस उगल कर जुगाली के रूप में चबाते हैं।

संभोग काल - ( गर्मी आने का समय / पाली का समय) - वर्ष पर्यन्त (अधिकतर गर्मियों में)
गर्भ धारण का समय - 30 से 60 दिन
पाली के समय में गर्भ ठहरने का समय - 18 से 20 दिन (उत्तम अवधि - 20 से 36 घण्टे)
कृत्रिम/ संरक्षित वीर्य से पाली आने के 12  से 18 घंटे गर्भ धारण का उत्तम समय।
गर्भ काल - 275 से 280 दिन

गायों की प्रजातियां - 
(1) देसी भारतीय नस्ल -
 zebu/indus ( ब्राह्मण) भारतीय नस्ल
इनकी विशेषता - 
1 - थूई (Hump)
2 - गलकंबल (Dowlap)
3 - सींग (Horns)
4 - हर मौसम व स्थान के लिये सहिष्णु
(2) विदेशी नस्ल 
(19 वीं शताब्दी में नेल्लोर व गिर नस्ल की गाय को विदेश ले जाया गया जिससे उस की कुछ नई नस्लें तैयार की गई।) 
A -  Taurus (Bos Taurus)
B - Bos indicus
C - German
D - African
E - jarsi (जर्सी) 
F - Holistein friesion 
G - Galloway scotland
H - Angus charolais France 
I - Bengus - Brahman के  3/8 एवम Angus का 5/8 भाग
J - Hereford इंग्लेंड 
K - Pollad पोलेंड
L - Shorthom इंग्लैंड
M - Dorham (3/8 Brahman + 5/8 Shortham 
N - Simmental स्विट्जरलैंड
O - Brent Huffman
P - Indo Brazil
Q - Charbray (ब्राह्मण + कोरोलेस )
R - jarsi (जर्सी) विदेशी नस्ल की जर्सी Bos Tataurus गाय - यह Urus नाम के एक जंगली जानवर से G.M. पद्धति (अनुवांसिक फेरबदल द्वारा) से बनाई गई है जो अत्यधिक दूध (30 से 40 लीटर प्रति दिन)  देती है जिसकी गुणवत्ता भारतीय नस्ल की गाय से कम होती है। इसके नर बलिष्ठ नहीं होते हैं।

विश्व में गायों की स्थिति - 
सम्पूर्ण विश्व में सब से अधिक गाय भारत में पाई जाती हैं जिनकी मुख्य नस्लें 30 हैं। मजेदार तथ्य यह है कि डेनमर्क और इटली जैसे देश मुख्य 11 गोपालक देशों की श्रेणी में नहीं होने के बावजूद गाय के उत्पाद व दुग्ध निर्मित उत्पाद में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। 
इसके साथ ही गाय की पूजा करने वाला हमारा देश इस सम्मान से ( विश्व की सब से ज्यादा लगभग 30% गाय होने के बावजूद ) बहुत दूर है। हां बीफ ( भेंस/ गाय का मांस) निर्यात में प्रथम स्थान पर है।
विश्व में गायों की संख्या लगभग करोड़ में 
1 - भारत - 28 करोड़ 
2 - ब्राजील - 18 करोड़ 
3 -  चीन - 15 करोड़
4 - संयुक राज्य अमेरिका - 10 करोड़
5 -  अर्जेंटीना - 09 करोड़
6 -  यूरोपीय संघ - 05 करोड़
7 -  ऑस्ट्रेलिया - 03 करोड़
8 -  मेक्सिको - 2.5 करोड़
9 -  रूस - 2.5 करोड़
10 -  दक्षिण अफ्रीका - 02 करोड़
11 -  कनाडा - 1.5 करोड़
12 -  अन्य देश - 05 करोड़


सम्पूर्ण विश्व में गाय को आर्थिक संबलन के लिये पला जाता है जिस से दुग्ध,दुग्ध उत्पाद व मांस प्राप्त करना मुख्य है।
भारत में गाय आस्था, धार्मिक विश्वास व पूजा के आधार पर पाली जाती है।
भारतीय मान्यता  (भगवद पुराण) के अनुसार जब दानवों और देवताओं ने समुद्र मंथन किया तो पांच गाय (कामधेनु) अमृत के साथ प्रकट हुईं जिनके नाम हैं - 
1-  नंदा
2 -  सुभद्रा
3 - सुरभि
4 - सुशीला
5 - बंदूल 
यह कामधेनु ( संस्कृत में कामधुक ) ब्रह्मा जी द्वारा ऋषियों को पंच गव्य (पंचामृत) हेतु दी गई।
पंचगव्य - 
1 - दुग्ध 
2 - दही 
3 - घी 
4 - गौमूत्र 
5 - गौ गोबर

भागवत पुराण के अनुसार गाय की त्वचा में सूर्य की किरणों को सोने के अंश में बदलने की शक्ति है। स्वर्ण मस्तिष्क के लिये बहुत गुणकारी है , अतः गाय का दूध,दही एव घी मानसिक स्वास्थ्य के लिये उत्तम माना गया है।
(गाय का दूध गर्म करने पर पीला हो जाता है व घी स्वर्ण रंगत का होता है जबकि भैंस का घी दानेदार व सफेद ।)
इसके साथ ही गाय का दूध व पंचगव्य औषधीय गुण वाले होते हैं। जब कोई बीमार पड़ जाता है तो उसे गाय का दूध पिलाने की सलाह दी जाती है। बच्चों,धात्री,गर्भवती महिलाओं को भी गाय का दूध देना उत्तम माना जाता है।

गौ हत्यां ब्रह्म हत्यां च करोति द्वतिदेशिकीम 
यो ही गच्छतगम्या  च य स्त्री हत्याम करोति च।

भिक्षु हत्याम महापापी भ्रूण हत्यां च भारते
कुंभीपाके वसेत्सsधि यावदिन्द्राब्रा तुदर्शम।

पवित्र कुरआन में भी लोगो को कहा गया है कि "गाय का दूध तुम्हारे लिये बेहतर है और उस का मांस निकृष्ट।"
संस्कृत में कहा गया है 
"गौ दुग्धम अमृतम"
एक और संस्कृत वाक्य "गौ विश्वस्य मातरम"

गाय की भारतीय नस्ल - 
भारत में विश्व की कुल संख्या की 30% संख्या पाई जाती है। भारतीय नस्ल को सामूहिक रूप से ZEBU/INDUS/BRAHAMAN के नाम से जाना जाता है। 
भारतीय गाय की महत्वपूर्ण 04 विशेषताएं होती हैं 
1  - लंबे बड़े सींग (Horns)
2 -  कूबड़ ( Hump)
3 -  गलकंबल ( Dawlap)
4 -  हर मौसम व स्थिति में रहने की योग्यता।

भारतीय गाय की श्रेणियां :- 
     भारतीय गाय को 03 श्रेणियों में रखा गया है :- 
(1) एकांगी - अधिक दूध देने वाली पर कमजोर नर।
(2) पेतृअंगी - दूध कम व नर बलिष्ठ।
(3) स्रवांगी - अधिक दूध व बलिष्ठ नर।

गाय की भारत में बहुत सी नस्लें पाई जाती हैं जिन में से यह कुछ नस्लें महत्वपूर्ण हैं  :-
1 -  सहीवाल 
2 -  सिंधी
3 - ककरेज (मालवी)
4 - काकरेज (सांचोरी)
5 - नागौरी
6- थारपाकर 
7 - भगनाडी
8 - दज्जल
9- गावलाव
10 - हरियाणा
11- एंगोल/निल्लोर
12 - राठी
13 - गिर
14- देवानी
15- निमाड़ी
16 - अलाव
17,- अमृत महल
18 - हल्लीकर
19 - बरगुर
20 - बालमबादी
21 - कंगाय
22 - कृष्णावल्लम

01 - सहीवाल :-
         रावी नदी के तटवर्ती क्षेत्र, बागड़,गंगानगर व पंजाब के कुछ क्षैत्र में पाई जाने वाली इस गाय की सींग छोटी,सिर थोड़ा चौड़ा होता है।
04 से 06% वसा के साथ 10 से 22 लीटर दूध प्रतिदिन लगभग 10 माह तक देती है। इसका नर ओसत श्रेणी का बलिष्ठ होता है।

02 - सिंधी :-
       सिंध नदी के क्षेत्र हैदराबाद, लाहौर,बाड़मेर, जैसलमेर के आसपास पाई जाने वाली  इस गाय का कद ऊंचा, शरीर लंबा,मोटी त्वचा बादामी रंग होता है जिसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है। इसके सींग छोटे होते हैं।
7 से 8 माह तक 6 से 10 लीटर दूध प्रतिदिन देती है जिसमें वसा की मात्रा 04 से 05% तक होती है।

03 काकरोज (मालवी) :-
                         मध्य प्रदेश के मालवा ,रतलाम,मंदसौर,राजस्थान के डूंगरपुर,बांसवाड़ा, उदयपुर क्षेत्र में पाई जाने वाली इस गाय का रंग सफेद,भूरा व गर्दन का रंग हल्का काला होता है।
यह दूध कम देती है जिसमें वसा की मात्रा अत्यधिक होती है। 04 से 08 लीटर प्रतिदिन लगभग 07 माह तक दूध देती है। इसके नर अत्यधिक बलिष्ठ होते हैं।

04 - काकरोज ( सांचौरी) :-
         कच्छ के रण,सिंध क्षेत्र में पाई जाने वाली इस गाय को सर्वांगी (अधिक दूध व बलिष्ठ नर) श्रेणी में रखा गया है।
रंग हल्का भूरा,/काला या रुपहला  होता है।
इसके सींग मझौले सीधे होते हैं। यह गाय 12 से 22 लीटर दूध लगभग 10 माह तक देती है।

05 नागौरी - 
       नहरिया नागौरी देख्या ऊंट जेसलमेरिया, बिकाने री गाया देखी घोड़ा बाडमेरिया।
बड़े सींग, सुडौल शरीर लंबी ऊंची  सफेद या हल्के भूरे रंग की गाय नागौरी नस्ल होती हैं।
इनके नर बोझा खींचने में सब से उत्तम हैं। कम खुराक वाली यह गाय प्रतिदिन 10 से 18 लीटर दूध 07 से 08 माह तक की अवधि के लिये देती है।

06 थारपारकर :- 
      सीधे सींग वाली प्रसिद्ध भारतीय नस्ल की गाय जिसका रंग खाकी,भूरा,या सफेद होता है। इसकी खुराक कम होती है जो प्रतिदिन 08 से 10 लीटर दूध 07 से 08 माह तक देती है जो ओसत से कम है।
यह गाय अपने क्रोधी स्वभाव के लिये कुख्यात है।

07 भगनाड़ी :- 
       नाड़ी नदी के तटवर्ती क्षेत्र में पाई जाने वाली इस गाय का शरीर लंबा व कद ऊंचा होता है। ओसत से कम दूध देने वाली इस गाय के नर अधिक बलिष्ठ होते हैं।

08 दज्जल :- 
       पंजाब क्षेत्र में झेलम, चिनाब के तटवर्ती इलाकों में पाई जाने वाली इस नस्ल की गाय कम अवधि के लिये ऊसर से कम दूध देती है। इस के बैल भी ओसत श्रेणी के ही होते हैं।

09 गावलांव :- 
        सतपुड़ा - नागपुर के पठारी भाग में पाई जाने वाली इस नस्ल की जा कद मझौला व रंग लगभग सफेद होता है। सींग ओसत से थोड़े छोटे नुकीले होते हैं। 
इसकी खास विशेषता है इसके उठे हुये कान। दूध प्रतिदिन 10 से 12 लीटर 8 से 10 माह तक देती है।

10 हरियाणा नस्ल :- 
      यमुना नदी के क्षेत्र गुड़गांव,हिसार,भरतपुर,अलवर,दिल्ली के आसपास की नस्ल जो
प्रतिदिन  08 से 12 लीटर दूध लगभग 08 माह के लिये देती है। 
शरीर गठीला, रंग सफेद/मोतिया/ या भूरा होता है। 
यह गाय भारत की पांच प्रमुख गायों में से एक गिनी जाती है।

11 अंगोल/ निलोर नस्ल :- 
           आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के (गुंटूर क्षेत्र) में पाई जाने वाली इस गाय की खुराक बहुत कम है।
इसका रंग हल्का लाल या हल्का बादामी है। शरीर से मझोली मध्यम सींग वाली गाय प्रतिदिन 10 से 15 लीटर दूध 8 से 10 माह की अवधि तक देती है। मधाय्म चाल वाले इसके नर खेतों को जोतने के लिये उत्तम होते हैं।

12 राठी :- 
      रेगिस्तानी क्षेत्रों में पाई जाने वाली गाय चकतेदार,लाल,भूरी,भूरी - काली जो प्रतिदिन 15 से 25 लीटर दूध 10 माह की अवधि तक देती है व इसकी खुराक ओसत है।  यह गाय विदेशी नस्ल की अधिक दूध देने वाली व भारतीय नस्ल की अधिक वसा वाले दूध के मध्य की कड़ी है।
इसकी खास विशेषता है हर तरह के मौसम व क्षेत्र में रह पाना।

13 गिर ( रेंडा, अजमेरी )  :- 
     काठियावाड़  गुजरात के गिर के जंगल क्षेत्र के इलाकों में पाई जाने वाली गाय जिसे 19 वीं शताब्दी में विदेशों में ले जाया गया और उस से कई नई नस्लों को तैयार किया गया। 
यह गाय प्रतिदिन 30 लीटर से अधिक दूध 10 माह की अवधि के लिये देती है। 
यह गाय भारतीय नस्ल की श्रेष्ठ गाय है जिसके नर भी ओसत से अधिक बलवान होते हैं।

 14 देवानी :- 
      तेलंगाना व आंध्रप्रदेश के हिंसोल क्षेत्र में पाई जाने इस गाय का शारीरिक शौष्ठव उत्तम है।
यह गाय भी 10 माह की अवधि के लिये 30 लीटर से अधिक दूध प्रतिदिन देती है। रंग हल्का काला या हल्का लाल होता है व सींग मझौले।

15 निमाड़ी :- 
      नर्मदा घाटी क्षेत्र में पाई जाने वाली इस गाय का रंग लगभग भूरा या हल्का काला होता है। यह सर्वांगी नस्ल की गाय है जिसके नर भी बलिष्ठ होते हैं और दूध भी ओसत से अधिक 18 से 25 लीटर प्रतिदिन 10 माह की अवधि तक होता है।

भारत में गायों की स्थिति :-

गाय आस्था व विश्वास के साथ - साथ किसान एवम पशु पालकों के लिये अर्थ अर्जन व जीविकोपार्जन का महत्वपूर्ण साधन भी है।
प्राचीन समय में भारत में गाय विनिमय का मात्रक हुआ करती थी।

भारत में गाय चार स्थानों पर पाई जाती है -
1- घर /खेत
2 - डेयरी
3 - गौशाला
4 - सड़क/ बाजार 

गाय, ऊंट,भेंस,बकरी, भेड़, गधे या घोड़े पशु धन में सब से सब से पवित्र पशु गाय को मना गया है।
इसका कारण है धार्मिक आस्था और गाय के दुग्धोत्पाद के ओषधीय गुण। वास्तव में गाय का दूध,सही व घी अधिक गुणकारी और ओषधीय गुण वाले है। गाय का घी सोने जैसा पीला होता है। 
सनातन धर्म में पितृ त्रान,शुभ कार्य, अंतिम संस्कार,या अन्य शुभ कार्य के उपरांत गौ दान करना धार्मिक कार्य का महत्वपूर्ण  अंग है।


नंदी :-
       नंदी (बैल) भगवान शिव का वाहन है जहां शिवलिंग की स्थापना होती है उसी के समीप नंदी की स्थापना भी की जाती है।
नंदी की उपयोगिता :- 
खेती का काम :-
         भारत कृषि प्रधान देश है जहां अधिकांश लोग खेती बाड़ी कर जीवन यापन करते हैं। पूर्व में जब मशीनों का अविष्कार नहीं हुआ था तब बैल किसान की शक्ति हुआ करते थे। वर्तमान में स्थिति बदल गई हैं। खेती का काम ट्रेक्टर,हार्वेस्टर व थ्रेसर से होने लगा है बैल अनुपयोगी और अनार्थिक हो गवे और किसान के यहां आर्थिक भार।

बोझा ढोने का काम :- 
        शहरों और गांवों में खेत - खलिहान, सवारी, इक्का या बैल गाड़ी से समान ढोने के काम अधिकतर बैल ही करते थे। ऊंट रखना हर किसी के बस की बात नहीं होती थी साथ ही ऊंट हर मौसम या वातावरण के में कार्यशील नहीं रह सकता और महंगा भी पड़ता है। बैल कम खाकर अधिक कार्य करता है। पर
अफसोस की बात है कि आज गांव और शहरों से नंदी (बैल) गायब हो गए और यह किसान या कामगारों के लिए अनार्थिक और बोझ बन गए। 

गाय के गर्भधारण हेतु कार्य :- 
        हर गांव में व्यवस्था के अंतर्गत अच्छी नस्ल के सेहतमंद और सुंदर बैल को सांड के रूप में पाला जाता है जिसे दाग के पश्चात गायों को ग्याभ (गर्भ) धारण हेतु कार्य करवाते हैं। इस सांड की देख - रेख गांव की संस्था द्वारा की जाती है। 
परंतु वर्तमान में कृत्रिम गर्भाधान या संचित वीर्य के माध्यम से गर्भाधान करवाया जाना शुरू हो गया है और सांड प्रथा दम तोड चुकी है।

बोझा ढोने, खेती के काम और गर्भाधान कार्य में नंदी की उपस्थिति लगभग समाप्त हो चली है और सब से ज्यादा नर गाय (बछड़े,बैल,सांड) ही मारे -  मारे फिर रहे हैं जिनका कोई मालिक नहीं।

भगवान शिव का वाहन आज समय की मार का मांरा फटकार खा रहा है।

देसी या विदेशी नस्ल की गाय में अंतर :-
     
गाय की नस्ल 

क्रम सं     देसी               विदेशी

1-  मोटी त्वचा।       पतली त्वचा
2 - बड़े/ छोटे सींग  सींग विहीन
3 - कम दूध            अधिक दूध
4 - कम अवधि        अधिक अवधि
5 - हर मौसम के अनुकूल    हर मोसाम के अनुकूल नहीं
6 - कम कीमत    अधिक कीमत
7 - घरेलू आवारा सांड से गर्भाधान            कृत्रिम/संचित/आयातित सांड के वीर्य से गर्भाधान
8 - ठोस गोबर।       पतला गोबर
9 - निर्धारित समय पर चरती है।     
             पूरे दिन चरती है।
10 - बैल(नर) अधिक बलिष्ठ,कार्यशील।        नर कम बलिष्ठ व कार्यशील
11 अधिक संख्या में आवारा      नगण्य संख्या में आवारा
12 - अधिक संख्या में गौवध।      नगण्य गौवध
13 -  गौशाला में संरक्षण।     घर/डेयरी में अधिक 
14 - अनार्थिक       आर्थिक लाभ

भारत में गाय चार स्थानों पर पाई जाती है -
1- घर/खेत
2 - डेयरी
3 - गौशाला
4 - सड़क/ बाजार 

गाय, ऊंट,भेंस,बकरी, भेड़, गधे या घोड़े पशु धन में सब से सब से पवित्र पशु गाय को मना गया है।
इसका कारण है धार्मिक आस्था और गाय के दुग्धोत्पाद के ओषधीय गुण। वास्तव में गाय का दूध,सही व घी अधिक गुणकारी और ओषधीय गुण वाले है। गाय का घी सोने जैसा पीला होता है। 
सनातन धर्म में पितृ त्रान,शुभ कार्य, अंतिम संस्कार,या अन्य शुभ कार्य के उपरांत गौ दान करना धार्मिक कार्य का महत्वपूर्ण  अंग है।

गाय घर/खेत में :-
    पशुपालक गाय घर या खेत में बाड़ों में गायों को रखते हैं। किसानों के पास 1से=100 तक गाय होती हैं जिनका पालन सहर्ष किया जाता है। इससे उसे आस्था के साथ - साथ दूध,दूध उत्पाद,  खाद एवम जलावन भी मिल जाता है। परंतु खेद का विषय है गाय से 6 माह दूध लेने के बाद टालने पर उसे बछड़े सहित घर से बाहर निकाल दिया जाता है। 

गाय सड़क/बाजार में (आवारा)   :-
  
  पशुपालक दूध से टालने पर गाय को बछड़े सहित घर से बाहर निकाल देते हैं और यही गाय सड़कों पर मारी - मारी  फिरती हैं। हालांकि गाय आस्था,पूजा व विश्वास का विषय है पर आस्था पर अर्थ सदैव हावी रहा है। यही कारण है कि पशुपालक को ना चाहते हुए अपनी आस्था को मार कर जिसे वो माता कहता है घर से निकाल देता है। 
मैं राजस्थान के कोने - कोने में बस,गाड़ी,मोटरसाइकल,पैदल या ट्रेन सभी साधनों से घूमा हूं और यह पाया है कि हाड़ौती, डांग व मत्स्य प्रदेश के क्षेत्र को छोड़ कर मेवाड़,मारवाड़,शेखावाटी, बागड़ी,बागड़,एवम खादर क्षेत्र में गाय अधिक संख्या में आवारा सड़कों पर पाई जाती हैं। 

गाय के आवारा होने के नुकसान :-
   हम अखबारों और सोशल मीडिया के माध्यम से हर दिन खबर पढ़ते रहते हैं कि गाय के हमले से घायल,सड़क पर गाय को बचाने की कोशिश में वाहन दुर्घटनाग्रस्त,या दो सांडों की लड़ाई की चपेट में आया व्यक्ति।
मेरे गांव के नजदीक ही छोटा सा गांव है गिनडी पट्टा लोहसना जहां एक अधेड़ रास्ते से जा रहा था, अचानक दो सांड लड़ते हुए आए और वह चपेट में आ गया। सांड का सींग अधेड़ के पेट को चीर चुका था। 
दूसरी घटना मेरी बेटी के साथ हुई। एलएलबी के फार्म भरवाने के लिए अंजलि चुरू जा रही थी, उस समय मैं चुरू कलेक्ट्रेट के आगे धरने पर था, दोपहर के समय किसी ने मुझे फोन कर बताया कि अंजलि की स्कूटी दो गायों की लड़ाई की चपेट में आ गई। उसे तुरंत हस्पताल लाए और हॉट के चार टांके लगवाने पड़े। 
इस तरह की बहुत सारी घटनाएं/दुर्घटनाएं हमारे सामने होती रहती हैं। अक्सर बाजार या सड़क पर हम यह दृश्य देखते रहते हैं।

1- सड़क दुर्घटना की प्रबल संभावना
2 - बाजार में दुर्घटना की घटनाएं
3 -  लड़ते पशु की चपेट में आने से इंसान की मृत्यु/ घायल होना
4 - सब से ज्यादा नुकसान किसान के होता है। वह खेत जोतता है, अच्छी बारिश भी हो जाती है, खेत लहलहाने लगते हैं,और गायों का झुंड रात के समय खेतों में घुस कर सब चट कर जाता है। किसान तारबंदी करते हैं पर यह उसे पार कर ही लेटी हैं। कई गाय/ सांड तो तरणबंदी की पट्टी को टक्कर मार कर तोड़ डालते हैं। 
इस नुकसान से बचने के लिए वह रात भर खेतों में जाग कर फसल की रखवाली करता है। आजकल परेशान होकर किसानों ने झटका तार लगाना शुरू किया है जिस से तार को चुने से अचानक जबरदस्त बिजली का झटका लगता है और फिर पशु उस खेत में नही आते।
आवारा पशुओं के कारण खेती की लागत बढ़ती जा रही है और आर्थिक नुकसान अलग से।
5 - गौ वध - पशु के आवारा होने पर विभिन्न असामाजिक तत्वों के द्वारा अमानवीय कृत्य कारित किए जाते हैं जिन में से सब से अधिक संवेदनशील मामला है गौवध। आवारा गायों को इस लोग रात को पकड़ कर ले जाते हैं और उनका वध कर देते हैं। यह स्थिति पहले ज्यादा भयावह नहीं थी। अब मुफ्त में उसे अपना व्यापार करने का मौका मिल रहा है । खरीद कर यह कार्य करना लगभग असंभव है। इस तरह की घटनाओं से सामाजिक वैमनस्य बढ़ता है। बहुत बार इस तरह की घटनाओं से दंगों की स्थिति बनी है। मेवात (अलवर,भरतपुर, नूह,फिरोजपुर,पुनहाना,मथुरा, बृज क्षेत्र) में लगभग इसी घटनाएं ज्यादा घटित होती हैं। अखबारों की सुर्खियां रहा गौ रक्षा दल के सदस्यों द्वारा रकबर व पहलू खान की हत्या का मामला इसका ज्वलंत उदाहरण है।
6 - अधिकांश आवारा गाय देसी नस्ल की हैं। ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब भारतीय देसी गाय विलुप्त पशुओं की श्रेणी में आ जाएगी। तीर चीतों की तरह गाय भी विदेश से आयात करनी होंगी जो आम आदमी के बस की बात नहीं होगी।
7 - इसके अलावा भी बहुत से छुपे हुए नुकसान हैं।

गाय गौ शाला में :- 
राजस्थान में लगभग 2700 पंजीकृत गौ शालायें है और विधान सभा क्षेत्र 200 लोकसभा सीट 25 , इस हिसाब से ओसत प्रति विधानसभा क्षेत्र में 13 से 14 गौशाल या प्रति लोकसभा क्षेत्र में 108 गौशाला स्थापित हैं जिन में 500 से 5000 तक गाय संरक्षित हैं। 
गौशालों के माध्यम से गायों का संरक्षण किया जा रहा है जो कि एक सुखद अनुभव करवाता है। परंतु सभी गौशाल सिर्फ गाय संरक्षण का कार्य नहीं कर पा रहीं हैं। कुछ वर्ष पूर्व हिंगोनिया गौ शाला में गायों की दुर्दशा देख कर मन विचलित हो जाता है।
इसलिए 
1 गोशाला प्रबंधन बेहतर किया जावे।
2 गौ शाला में आवारा गायों को लेना अनिवार्य किया जावे।
3 गौ शाला में ली गई गायों को आवारा नहीं छोड़ा जावे ।
4 गौशाला प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित की जावे।

गौशालाओं हेतु आर्थिक प्रबंधन
1 प्रति बड़ी गाय 40 रूपये और छोटी गाय के 20 रूपये  राज्य सरकार द्वारा 9 माह के लिए दिया जाता है।
2 धार्मिक संस्थाएं गौशाला को चंदा देती हैं।
3 संत महात्माओं व कथाकारों द्वारा भागवत कथा का आयोजन कर आर्थिक संबलन किया जाता है।
4 इनकम टैक्स की धारा 80G के अंतर्गत tex की राशि से प्राप्त सहायता।
5 धर्म प्रेमी सज्जनों द्वारा सहायता। 

 
गायों में प्रमुख रोग,उनका उपचार और रोकथाम :-

उपचार से पहले बचाव :-
गायों के बीमार होने पर उसका इलाज करने की बजाय  उन्हें तंदुरूस्त बनाये रखने का इंतजाम करना ज्यादा बेहतर है। 
"जब गरजे आसमान तब हल देखे वो नहीं किसान" एक कहावत है। अच्छा पशुपालक और किसान वही है जो समय से पहले रोग से बचाव के उपाय करे चाहे वो फसल हो या गोधन। 
इस हेतु निम्नानुसार उपाय जरूरी हैं :-
1 गोधन के लिए साफ-सुथरा और हवादार स्थान निश्चित करना।
2 सन्तुलित चारा और पानी उपयोग में लेना।
3 समय पर चिकित्सक व सरकार के निर्देशानुसार टीकाकरण करवाना।
4 उचित देख-भाल करने पर गायों को रोगग्रस्त होने से बचाया जा सकता है। 
5 संक्रामक रोगों के प्रकोप पर संक्रमित गायों को पृथक करना।
6 समय समय पर फिटकरी का घोल पिलाना।
7 कैल्सियम की पूर्ति करना।
8 कमजोर पशुओं को विशेष चारा व अतिरिक्त खुराक दे कर रोग निरोधक शक्ति प्रदान करना। 9 पशुओं के बांधने के बाड़े, ठाण और खेल को सुथरा रखने के साथ साथ परजीवी मुक्त रखना। 
10 पशुओं की देखभाल करने वाले गोपालक स्वयं को भी स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए जिससे छूत की बीमारी न फेल सके।
11 गायों की खुराक में सूखे चारे के साथ हरा चारा खल व दाने में  नमक निश्चित मात्रा में देना।
12 साफ पानी परजीवी मुक्त कर निश्चित समय पर पिलाना।
13 गायों को बांधने की जगह ऊँची और ढालदार हो जिससे मूत्र आदि बह जाए। 
14 चारा चरने का ठान इस trh बनाया जाए कि पशु आसानी से पहुंच सके और अधिक पशु हैं तो जाली या ईंटों से अलग-अलग चार सकें ऐसा डिवाइड बनाया जावे।
15 बाड़े में सूर्य का प्रकाश व हवा की पहुंच हो और वह खुला खुला फिर सके इतनी जगह हो।
16 मक्खी मच्छर पनपने से रोकने के लिए दवाओं का छिड़काव किया जाना चाहिए।
17 बाड़े के पक्के फर्स को फिनायल से धोया जाना चाहिए। 18 गोबर और मूत्र को समय समय पर साफ कर दिया जाए कम से कम दिन में दो बार।
18 दूध पीने वाले बछड़े के द्वारा थन काटने से बचाव किया जावे।
19 दिन में खुले स्थान पर टहलने घूमने के लिए स्थान उपलब्ध करवाना आवश्यक है।
20  गायों के शरीर की सफाई और यदि कहीं चोट लगी हो तो तुरंत मरहम पट्टी की जानी चाहिए।
21 गायों को डरा कर रखने के स्थान पर स्नेह पूर्वक व्यवाहर किया जाए।
22 गायों में फैलने वाले ज्यादातर संक्रामक रोग खुरपका, मुंहपका जैसे (छूत  रोग) स्थानिक (एंडेमिक - वो रोग जो एक बार जिस स्थान पर जिस समय फैलते है उसी स्थान पर उसी समय बार- बार फ़ैलते हैं एंडेमिक रोग कहलाते हैं।) से बचाने के लिए टीकाकरण आवश्यक है। इन टीकों का शुल्क नाममात्र होता या नहीं भी होता है।

गायों में तीन तरह के रोग होते हैं,
1 संक्रामक रोग (छूत की बीमारियाँ)
2 सामान्य रोग 
3 परजीवी जनित रोग

1 संक्रमक रोग (छूत की बीमारियाँ)
संक्रामक रोग संसर्ग या छूआछूत( संपर्क) से एक गाय से कई गायों में फ़ैल जाते हैं। पशुपालक को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि छूत की बीमारियाँ आमतौर पर महामारी का रूप ले लेती हैं। यह रोग प्राय: विषाणुओं के माध्यम से  फैलते हैं परंतु इनके संक्रमण के रास्ते पृथक - पृथक होते हैं।
जैसे खुरपका के विषाणु बीमार गाय की लार से पानी या चारे में  मिल कर उसे दूषित कर देते हैं और अन्य स्वस्थ गायों के इसके संपर्क में आने पर वो भी इस रोग की शिकार हो जाते हैं।
इसलिये यदि कहीं संक्रामक रोग फ़ैल जाये तो गायों को बचाने हेतु यह उपाय करें : –
1 रोग फैलने की सूचना पशुपालन विभाग को दें।
2 बीमारी फैलने वाले स्थान के निकट अन्य गायों का आवागमन तुरंत बंद कर दें।
3 पानी सामलाती खेल के स्थान पर पृथक - पृथक बठल में पिलाएं।
4 सार्वजनिक चारागाह में रोग का प्रकोप समाप्त होने तक चराना बंद कर दें।
5 स्नक्रमित गाय को स्वस्थ गायों से तुरंत अलग करें।
6 इन रोगों से मरी गायों को खुले में फेंकने के स्थान पर  कम से कम 6 फुट गहरे गड्ढे में गाड़ना चाहिए।
7 बीमार या मरी गाय के स्थान को दिन में तीन बार फिनायल से धो कर चूने का छिड़काव करना आवश्यक है।
खाल की खरीद – बिक्री करने 8 8 इस तरह के रोग से संक्रमित हो कर मरी गायों की चमड़ी नहीं निकालने देनी चाहिए वरना खाल के माध्यम से विषाणु आसानी से दूसरे स्थान पर पहुंच कर स्वस्थ गायों को संक्रमित कर बीमार कर देगा।
संक्रमित रोग उसने बचाव व उपचार :-
(i) गलाघोंटू :-
         अधिकतर बरसात के मोसम में होनी वाला गलघोंटू रोग गाय,भैंस, भेड़,बकरी व सुअर में ज्यादा होता है।

रोग के लक्षण : –
1 गलघोंटू का विषाणु पशु के शरीर का तापमान बढ़ा कर उसे सुस्त बना देता है। 
2 रोगी पशु का गला सूज जाता है जिससे खाना निगलने में दिक्कत होती है।
3 गले में सूजन और दर्द के कारण पशु खाना-पीना छोड़ देता है। 
4 पशु को साँस लेने में कठिनाई होती है।
5 पशु को पहले कब्ज होता है बाद में दस्त लगने शुरू हो जाते हैं।
6 बीमार पशु के मुंह से लार गिरने लगती है और 6 से 24 घंटों में पशु की मौत हो जाती है।

रोग का उपचार :-
1 गलघोंटू रोग निरोधक टीके बारिश का मौसम आने से पहले लगवाना।

(ii) जहरबाद (सुजवा,ब्लैक क्वार्टर) रोग :- 
बरसात के मौसम में फैलने वाला रोग जिसकी विशेषता है कि इस रोग के विषाणु ज्यादातर छह से अठारह माह के स्वस्थ बछड़ों को शिकार बनाते हैं। 

रोग के लक्षण :-
1 संक्रमित बछड़े का पीछे का पुट्ठा सूजने से लंगड़ा कर चलने  लगता है।
2 कुछ गायों के अगले पैर भी सूज जाते हैं शरीर के दूसरे भागों में भी फैलने लगती है। 
3 सूजन में पीड़ादायक होती है (सूजन के स्थान को दबाने पर एक आवाज आती है), शरीर का तापमान 104 से 106 डिग्री बढ़ जाता है। 
4 सूजन के स्थान वाली त्वचा सड़ने लगती है जिससे घाव बन  जाता है।

चिकित्सा :-
पशुपालन विभाग के परार्मश से सभी गायों को बरसात के पहले रोग निरोधक टीके लगवाना।

(iii)  एंथ्रेक्स (प्लीहा रोग) :-
एंथ्रेक्स एक वायरस जनित संक्रामक रोग है जो गाय के अलावा भेड़, बकरी और घोड़े भी होया है।
संक्रमित पशु की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है।  

लक्षण –
1 तेज बुखार 106 डिग्री से 107 डिग्री तक।
2 पशु की मृत्यु के बाद नाक, पेशाब और गुदा के रास्ते खून आना।
3 संक्रमित पशु के विभिन्न अंगों पर सूजन आना। 
4 रोग अधिक बढ़ने पर  पेट का  फूलना।

एंथ्रेक्स का उपचार – 
1 संक्रामक रोगों की रोक-थाम उनसे बचाव के तरीके ऊपर बताए अनुसार उपाय करने चाहिए।
2 तुरंत चिकित्सक की सेवाएँ लें।
3 एंथ्रेक्स स्थानिक रोग है जिसका समय रहते टिकाकरण करवाया जावे।

(iv) खुरपका– मुहंपका (फूट एंड माउथ डिजीज़)

लार से फैलने वाला यह रोग गाय, बैल और भैंस भेड़ व बकरियों को भी अपना शिकार बनाता है।जो तेजी से अन्य पशुओं को संक्रमित कर देता है। इस रोग से ग्रसित पशु के मरने की संभावना कम रहती है पर  पशु कमजोर हो जाता है जिससे उसकी कार्यक्षमता और दुग्ध उत्पादन कई दिनों तक कम हो जाता है। 

रोग के लक्षण – 
1 पशु को बुखार हो जाना।
2 कम चरना।
3 दूध में कमी आना।
4 मुंह और खुर में पहले छोटे-छोटे दाने निकलना और बाद में पक कर घाव हो जाना इस रोग के लक्षण हैं।

रोग की चिकित्सा :– 
1 संक्रामक रोग की रोक-थाम  के उपाय।
2 मुंह के छालों को फिटकरी के 2 प्रतिशत घोल सा साफ करें।
3 पैर के घाव को फिनाइल के घोल से धोये।
4 पैर में तुलसी अथवा नीम के पत्तों का लेप लाभदायक है।
5 घावों को मक्खी मच्छर से बचाना।
6 पशु के साल में दो बार छ: माह के अंतर से रोग निरोधक टीका लगवाना।

(v) पशु यक्ष्मा (टीबी)

संसर्ग से फैलने वाला रोग जो मनुष्यों को भी संक्रमित कर सकता है।

पशुओं में टीबी रोग के लक्षण :- 1 पशु कमजोर और सुस्त हो जाता है। 
2 कभी-कभी पशु की नाक से खून निकलता है।
3 पशु को सूखी खाँसी भी हो सकती है। 
4 चारा चरने में रुचि कम हो जाती है 
5 पशु के  फेफड़ों में सूजन आना।

टीबी रोग की चिकित्सा :– 
1 संक्रामक रोगों से बचाव के उपाय
2 यह एक असाध्य रोग है।
3 बचाव ही इलाज है।

(vi) थनैला रोग :-
दुधारू मवेशियों को यह रोग इन कारणों से होता है -
1 थन पर चोट लगना कट जाने से 2 संक्रामक जीवाणुओं के थन में प्रवेश कर जाने से
3 अस्वच्छ स्थान पर पशु को बंधना।
4 अनियमित रूप से दूध दूहना। 5 अधिक दूध देने वाली गाय-भैंस इसका शिकार अधिक होती हैं।

थनेला के लक्षण
1 थन गर्म और लाल हो जाना।
2 थनों में सूजन होना।
3 शरीर का तापमान बढ़ जाना।
4 चारा चरने में अरुचि।
5 दूध का उत्पादन कम हो जाना।
6 दूध का रंग बदल जाना।
7 दूध में जमावट हो जाना

थनेला की चिकित्सा :-
1 पशु को हल्का और सुपाच्य आहार दें।
2 सूजे स्थान को गर्म राख, पानी से सेंकना।
3 पशू चिकित्सक की राय से एंटीबायोटिक दवा या मलहम लगाना।
4 थनैल रोग ग्रस्त मवेशी को सबसे अंत में दुहना।

(Vi) संक्रामक गर्भपात रोग :-
गाय,भैंस,भेड़ व बकरी को होने वाला रोग जिस से ज्ञाभ असमय गिर जाता है।

रोग के लक्षण :-
1 पशु को बेचैनी होना।
2 ब्यावंत के लक्षण दिखाई देते हैं।
3 योनि से तरल पदार्थ बहने लगता है। 
4 गर्भ के पांचवे, छठे महीने यह रोग अपने लक्षण दिखाई देने लगता है।
5 गर्भपात होने के बाद भी बच्चा अंदर रह जाता है।

बचाव :-
  6 से 8 महीने के पशु को इस रोग (ब्रूसोलेसिस) का टिका लगवा देने से इस रोग का खतरा कम रहता है।

रोग की चिकित्सा :-
1सफाई का पूरा ध्यान रखना। 
2 बीमार पशुओं को अलग कर देना चाहिए। 
3 गर्भपात के बाद पिछला भाग गुनगुने  पानी से धोकर पोंछना
4 गर्भपात के भ्रूण को जला देना चाहिए। जिसे स्थान पर गर्भपात हो, उसे रोगाणुनाशक दवा के घोल से धोयें। 
5 पशु चिकित्सक की सेवाएँ लें।

सामान्य रोग या आम बीमारियाँ :-

साधारण या सामान्य रोग से पशुओं की उत्पादन – क्षमता कम हो जाती है। यह रोग अधिक भयानक नहीं होते पर समय रहते इनका इलाज नहीं कराने पर काफी खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। 
2 कुछ साधारण बीमारियां उनके लक्षण और प्राथमिक चिकित्सा :-

(i) अफरा :-
कारण :-
1 हरा और रसीला चारा
2 भीगा चारा या दलहनी चारा अधिक मात्रा में खाने
3 बछड़े के अधिक दूध पी लेने के कारण पशु को अफरा की बीमारी हो जाती है। 
4 पाचन शक्ति कमजोर हो जाने
रसदार चारा जल्दी-जल्दी खाकर अधिक मात्रा में पानी पीने से यह बीमारी पैदा होती है।

लक्षण

1 एकाएक पेट फूल जाता है।
2 ज्यादातर रोगी पशु का बायाँ पेट पहले फूलता है। पेट को थपथपाने पर ढोल की तरह आवाज आती है।
3 पशु कराहने लगता है और फूले पेट तरफ देखता है।
4 पशु को साँस लेने में तकलीफ होती है।
5 रोग बढ़ जाने पर पशु चारा दाना छोड़ देता है।
6 बेचैनी बढ़ जाती है।
7 पशु झुक कर खड़ा होता है और अगल-बगल झांकता रहता है।
8 रोग की तीव्र अवस्था में पशु बार-बार लेटता और खड़ा होता है।
9 रोग ग्रस्त पशु जीभ बाहर लटकाकर हांफता है।
10 रोगी पशु पीछे के पैरों को बार पटकता है।
11 तुरंत इलाज नहीं करने पर रोगी पशु मर सकता है।

चिकित्सा :-

1 पशु के बाएं पेट पर दबाव डालकर मालिश करना।
2 पेट पर ठंडा पानी डालना।
3 पीठ व पेट पर तारपीन का तेल गर्म कर लगाना।
4 पशु के मुंह को खुला रखने के लिये जीभ को मुंह से बाहर निकालकर जबड़ों के बीच साफ व चिकनी लकड़ी दबा दें।
5 प्रारंभिक अवस्था में पशु को घुमाने से फायदा होता है।
6 आधा से एक छटाक तारपीन का तेल, छ: छटाक टीसी के तेल में मिलाकर पिलानें से पशु को अफरा से आराम मिलता है । 
7 दो सौ ग्राम मैगसल्फ़ के साथ दो सौ ग्राम नमक दो लीटर पानी में मिलाकर जुलाब देना।
8 लकड़ी के कोयले का चूरा, आम का पुराना अचार, काला नमक, अदरख, हींग और सरसों पशु चिकित्सक के परामर्श से देने से बीमार पशु को आराम मिलता है।
9 पशु को स्वस्थ होने के बाद थोड़ा-थोड़ा पानी दें पर पूर्ण स्वस्थ होने तक कोई चारा न खिलाएं।
10 तुरंत पशु चिकित्सक की सहायता प्राप्त करें।

(ii)  दुग्ध - ज्वर

दुधारू गाय भैंस या बकरी इस रोग के चपेट में पड़ती है। ज्यादा दुधारू पशु को ही यह बीमारी अपना शिकार बनाती है। बच्चा देने के 24 घंटे के अदंर दुग्ध – ज्वर के लक्षण साधारणतया दिखेते हैं।

लक्षण

1 पशु बेचैन हो जाता है।
2 पशु कांपने और लड़खड़ाने लगता है। 
3 मांसपेसियों में कंपन होने लगता है, 
4 पशु खड़ा रहने में असमर्थ रहता है।
5 मुंह सूख जाता है।
6 तापमान सामान्य या सामान्य से कम हो जाता है।
7 रोग की तीव्र अवस्था में पशु बेहोश हो जाता है।
चिकित्सा के अभाव में पशु 24 घंटे के भीतर मृत्यु हो जाती है।

रोग की चिकित्सा :- 

1 थनो को गीले कपड़े से पोंछ कर साफ कपड़ा लपेटें।
2 थन में हवा भरना लाभदायक है।
3 पशु के ठीक होने के बाद तीन दिन तक उस्टी पूरी तरह खाली नहीं करें।
4 पशु को हल्की सुपाच्य खुराक दें।
5 पशु चिकित्सक से राय लें।

(iii)  दस्त और मरोड़ रोग :-

इस रोग के दो कारण हैं :-
1 अचानक ठंडा लग जाना।
2 पेट में किटाणुओं का होना जिससे आंत सूज जाती हैं।

रोग के लक्षण :- 

1 पतला और पानी जैसे दस्त होता है।
2 पेट में मरोड़ होता है।
3 पोटे में खून आना।

रोग की चिकित्सा :-

1 हल्का व सुपाच्य आहार देना ।2 कम चारा और पानी कम देना चाहिए।
3 बछड़े को कम दूध पीने देना चाहिए।
4 पशु चिकित्सक की राय लें।

(iv)  जेर का गर्भाशय में रह जाना :-

ब्यावन्त के  चार से पांच घंटों के बीच जेर (नाल) का बाहर निकलना जरूरी है। कभी - कभी जेर अंदर ही रह जाती। जिसके कारण मवेशी बांझपन,उलांस आना व जेर के संक्रमित होने पर कभी कभी मृत्यु भी हो सकती है।

रोग के लक्षण :- 

1 जेर नहीं पड़ने से गाय या भैंस बेचैन हो जाती है।
2 जेर का एक हिस्सा योनिमुख से बाहर निकल जाता है।
3 चकलेटी रंग का बदबूदार पानी निकलने लगता है।
4 दूध भी फट जाता है।
 

रोग की चिकित्सा :- 

1 जेर को बिना छुये पिछले भाग को गर्म पानी से धोना।
2 जेर को निकालने के लिए किसी प्रकार का जोर नहीं लागायें।
3 चिकित्सक की राय से गर्म तासीर का खाना दें।

(V)  योनि प्रदाह (योनि से स्वेत पदार्थ का गिरना  :- 

कारण जी गाय व भैंस की ब्यावंत के बाद जेर का सही से नहीं गिरना।

रोग के लक्षण :- 

1 मवेशी के शरीर का तापमान बढ़ जाता है।
2 योनि मार्ग से दुर्गन्धयुक्त पीप जैसा तरल गिरता रहता है ( बैठे रहने की अवस्था में तरल अधिक गिरता है)।
3 पशु बेचैनी रहता है।
4 दूध घट जाता है।
5 दूध का कम होना।

रोग की चिकित्सा :- 

1गूनगूने पानी में डेटोल या पोटाश मिलकर रबर की नली की सहायता0गर्भाशय की सफाई करनी चाहिए।
2 पशु चिकित्सक की राय लें।

(vi) निमोनिया :- 

रोग के कारण :-
1 पानी में लगातार भीगना।
2 सर्दी लगने पर निमोनिया रोग हो जाता है।

निमोनिया के लक्षण :- 

1पशु के शरीर का तापमान का बढ़ना।
2 सांस लेने में कठिनाई।
3 नाक से पानी बहना।
4 भूख कम हो जाती है।
5 दूध कम होना।

निमोनिया की चिकित्सा :- 

1 सर्दी से बचाव।
2 तारपीनउ का तेल डाल कर गर्म पानी की भाप देना 
3 सरसों तेल में कपूर मिलकर मालिश करना।
4 पशु चिकित्सक की राय से दावा देना।

(vii)  घाव

झाड़ी,तार,लकड़ी या फांस से लगने, कटने या छील जाने से पशुओं की त्वचा में घाव होना आम बात है।

चिकित्सा

1 गुनगुने पानी में लाल पोटाश या फिनाइल मिलाकर सफाई करना।
2 घाव में कीड़े पड़ने पर तारपीन के तेल में गाज पट्टी भिगो कर बांधना।
3 मुंह के घाव को फिटकरी के पानी से धोकर छोआ  और बोरिक एसिड का घोल लगाना।
4 शरीर के घाव पर नारियल के तेल में चौथाई भाग तारपीन का तेल व कपूर मिलाकर लगाना।

3 परजीवी जन्य रोग :- 
जोंक,पिस्सू,चिंचड़ी,मक्खी,मच्छर या आन्तरिक परजीवियों के कारण मवेशियों को कई प्रकार की बीमारियों हो जाती हैं। 

(i) नाभी रोग (अधिकतर बछड़ों को होता है।) :- 

नाभी रोग के लक्षण :- 

पशु (बछड़े) की नाभि के आस-पास सूजन का होना जो बाद अंदर पीप ले लेती है  हो जाती है, जिसको छूने पर रोगी बछड़े को दर्द होता है। जिससे बुखार के कारण बछड़ा सुस्त हो जाता है।

नाभि रोग की चिकित्सा :- 

1 सूजे हुए भाग को दिन में दो बार गर्म पानी से सेंकना।
2 घाव का मुंह खुल जाने पर उसे अच्छी तरह साफ कर एंटी बायोटिक पाउडर पूर्ण सावस्थ होने तक भरना चाहिए। 
3 पशु चिकित्सक की राय से दावा करना।

(iv) सफ़ेद दस्त :- 
बछड़ों  के जन्म से तीन सप्ताह तक विषाणुओं के कारण होता है। 
कारण :- 
1अस्वच्छ गंदे ठान
गाय के थन सही से नहीं धोना।
3 जन्म से कमजोर बछड़े इस रोग का शिकार अधिक होते हैं।

लक्षण
1 बछड़ों का पिछला भाग दस्त से लथ - पथ रहना।
2 बछड़ा सुस्त हो जाता है।
3 खाना – पीना छोड़ देता है।
4 शरीर का तापमान कम हो जाता है।
4 आंखे अदंर की ओर धंस जाती है।

चिकित्सा :-
निकट के पशु चिकित्सा के परामर्श से इलाज कराएं।

(v) कौक्सिड़ोसिस :-
यह रोग कौक्सिड़ोसिस नामक एक किटाणु के कारण होता है।

लक्षण
1. दस्त के साथ  खून आना।
2. पशु खाना पीना छोड़ देता है।
3. पोटे के समय ऐंठन से दर्द होता है।
4 रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है।

चिकित्सा उपाय :- 
1 चिकित्सक से इलाज करवाना।

(vi)  रतौंधी :- 
शाम होने के बाद से सूरज निकलने के पहले तक रोग ग्रस्त गाय को दिखाई नहीं देना रतौंधी के लक्षण हैं। 

चिकित्सा उपाय :- 
1 15 दिन लगातार लगभग 25 बूँद कोड लिवर ऑइल दूध के साथ देने से आराम मिलता है।
2 पशु चिकित्सक के परामर्श अनुसार दवा व देखभाल ।

(Vii) बंद पड़ना (कब्ज) :-
गाय द्वारा मल त्याग नहीं कर पाने को बंद या कब्ज कहते हैं।

कब्ज (बंद का कारण)
1 सुखा चारा अधिक देना।
2 अनाज अधिक देना।
3 तूंतड़ा अधिक मात्रा में देना।

चिकित्सा :- 
1 50 ग्राम पाराफिन लिक्विड (तरल) 200 ग्राम गर्म दूध में मिलाकर दें।
2 साबुन के घोल का एनिमा देना भी लाभदायक है।


(viii) लम्पी स्किन डिजीज :-

लंपी क्या है :- 
यह बीमारी सबसे पहले 1929 में अफ्रीका में पाई गई जो फैलते फैलते कुछ सालों में ही कई देशों के पशुओं में पाई गई।
2015 में तुर्की और ग्रीस और 2016 में रूस, 2019 बांग्लादेश में अपना विभत्स रूप दिखा चुकी है जो बाद में कई एशियाई देशों में फैलती रही है और यह अभी भी जारी है।
भारत में सबसे पहले लम्पी स्किन डिजीज वायरस का संक्रमण साल 2019 में पश्चिम बंगाल (बांग्लादेश से) में देखा गया  जो कि 2021 तक 15 से अधिक राज्यों के पशुओं को अपनी चपेट में ले चुका था।
वर्तमान में लंपी की शुरुआत गुजरात ( पाकिस्तान से) से हुई जो  राजस्थान होते  हुए हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अंडमान निकोबार जैसे प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों  सहित कम ज्यादा पूरे देश के 14  राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में फैल गई है। आज के दिन तो इसका असर कम हुआ है।राज्य सरकार के पशुपालन विभाग के अनुसार राजस्थान में 3500 के करीब गायों की मृत्यु हुई है पर यह आंकड़े हकीकत से बहुत कम हैं।
मेरे गांव सहजूसर  में ही 300 से अधिक गायों ने दम तोड़ा है। कई पशुपालकों के खूंटे खाली हो गए।
यह एक नई बीमारी है जिसने पशुपालकों के बाड़े खाली कर दिए।
1 लम्पी स्किन डिजीज क्या है? 2 यह किन पशुओं को प्रभावित करता है?
3  इसके लक्षण क्या हैं?

लंपी स्किन डिजीज एक वायरल जो एलएसडी वायरस के कारण  मच्छर मक्खियों जोंक व खून चूसने वाले परजीवियों के माध्यम से गाय-भैंसों में होने वाला संक्रामक रोग है। लम्पी स्किन डिज़ीज़ में शरीर पर गांठें बनने लगती हैं विशेषकर  सर, गर्दन, और जननांगों के आसपास और धीरे-धीरे यह गांठे बड़ी होने लगती हैं और पूरे शरीर पर फैल कर  घाव में बदल जाती हैं।
यह रोग संक्रमित गाय की लार से पानी, और चारे के माध्यम से भी फैलता है।
लंपि स्किन डीजीज के लक्षण :- 
1 पशुओं को तेज बुखार आना। 2 दुधारु पशु का दूध देना कम हो जाना।
3 मादा पशुओं का गर्भपात हो जाना। 
4 गांठों के घावों से दर्द के कारण पशु की मौत।
क्या करें यदि पशु लंपी ग्रस्त हो जावे :- 
1 तुरंत संक्रमित पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर दें।
2 दूध निकाल कर सुरक्षित रूप से कहीं फेंक दें।
3 घावों को फिटकरी व नीम के पानी से साफ करें।
4 डॉक्टर से संपर्क करें।
5 पशुओं का परिवहन,आवागमन स्थगित कर दें।
6 डीडीटी व फिनायल का छिड़काव करें।
7 आईसीएआर-नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन इक्वाइन (आईसीएआर-एनआरसीई), हिसार (हरियाणा) ने आईसीएआर-भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई), इज्जतनगर, उत्तर प्रदेश के सहयोग  वैक्सीन "लंपी-प्रोवैकइंड" विकसित कर लिया है जो राजस्थान सरकार द्वारा सभी पशु चिकित्सालयों में मुफ्त लगाया जाता है। 
8 लम्पी स्किन डिजीज से संक्रमित पशु की मौत होने पर उसे कम से कम 6 फुट गहरे गड्ढे में गाड़ना आवश्यक है।

गायों के संरक्षण के उपाय :-
  आप और हम सब जानते हैं कि भेंस,बकरी,भेड़ ऊंट व जर्सी गाय आदि हमें कहीं आवारा घूमते नहीं मिलेंगे।
भूल से भी यह पशु घर से निकल जाएं तो पशुपालक ढूंढते हुए गांव ढाणियों की खाक छान कर इनको तलाश लेते हैं।
गाय ही (नर या मादा) विशेष रूप से देसी गाय झुंड के झुंड आवारा दिखाई देते हैं। जिसके कारण हम पूर्व में जान चुके हैं।
इन गायों के सुरक्षण के उपाय :- 
1 प्रत्येक गाय चाहे छोटी हो या वयस्क उसकी पहचान व मालिक का नाम रिकॉर्ड किया जावे।
2 सरकार द्वारा टैग लगा कर गायों की पहचान निश्चित की गई है जिसे आम पोर्टल पर टैग नंबर के माध्यम से पशुपालक की पहचान आम की जावे।
3 दूध देना बंद करने पर टैग लगी गाय को घर से निकालने वाले पशुपालक पर कार्यवाही की जावे।
4 अनुपयोगी नर बैलों के उपयोग हेतु नीति बनाई जावे।
5 गौवध करने वाले व्यक्तियों पर सख्त कार्यवाही कर कम से कम 14 वर्ष का कारावास की सजा का प्रावधान किया जावे।
6 गौशालाओं की निगरानी राजकीय एजेंसियों द्वारा की जावे।
7 किसी भी गौशाला क्षेत्र में आवारा गाय मिलने पर तुरंत उसे गौशाला में जमा करने हेतु सख्ती से पाबंद किया जावे।
7 नर गायों (सांड व बैल) हेतु नदी शाला की स्थापना की जावे।
8 गौशाला के संचालन का कार्य यथा संभव ग्राम पंचायत को ही दिया जावे और स्वतंत्र गौशालाओं की मॉनिटरिंग भी पंचायतों के माध्यम से करवाई जावे।
9 किसानों को गौशाला की तर्ज पर गाय पालने हेतु 40 रूपये बड़े पशु व 20 रूपये छोटे पशु हेतु अनुदान दिया जावे।
10 छतीशगढ़ राज्य की तर्ज पर गाय का गोबर ग्राम पंचायत के माध्यम से 2 रूपये किलो खरीद कर कंपोस्ट खाद बना कर वापिस किसानों को उचित दर पर बेच दिया जावे।
11 शहरों में फिरने वाली आवारा गायों को निकटतम गौशाला में जमा करवाया जावे।
12 गोपालन आयोग को शसक्त किया जावे।
13 गौ उत्पाद बिक्री केंद्र स्थापित कर गोपालन के लिए आम किसान को प्रोत्साहित किया जावे 
14 गाय का दूध भैंस के दूध से कम कीमत पर बिकता है, इसलिए गाय और भेंस के दूध की अंतर राशि का राज्य सरकार द्वारा कर पशु पालक को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
15 किसानों को बैल पालन हेतु प्रोत्साहित किया जावे 
16 विद्युत उत्पादन हेतु टरबाइन का संचालन किया जाता है, सरकार द्वारा ऐसी योजना बनाई जा सकती है जिस से बेलों को टरबाइन चलाने हेतु बेलों की शक्ति का उपयोग किया जा सके जिससे बेलों के अनार्थिक होने का बोझ कम हो जाए।
17 पशुपालन विभाग द्वारा बेहतरीन नस्ल की गायों के लिए कृत्रिम/वीर्य द्वारा नस्ल सुधार कार्यक्रम का संचालन करना।
18 गाय को धर्म व आस्था के साथ उत्पादन के साधन के रूप में पहचान करवाना।
 19 सुरक्षित चरागृह का विकास करना।।
20 खाली जोहड़ पायतन,पड़ती भूमि और बीहड़ों को गोचर भूमि के रूप में विकसित किया जावे।
21 पाशुपालों को चारा उत्पादन हेतु प्रोत्साहन देना।
उरागवे देश एवं गाय की स्थिति :-
उरुग्वे एक ऐसा देश है जिसका राष्ट्रीय चिह्न सूर्य और राष्ट्रीय प्रतीक गाय व घोड़ा है। प्रति व्यक्ति आय 2 लाख डॉलर प्रति वर्ष है। आय का मुख्य स्रोत कृषि पशुपालन है। अनाज, दूध, दही, घी औऱ मक्खन का उत्पादन व निर्यात ही मुख्य आय के साधन हैं।
यहां औसतन हर एक आदमी के पास 4 गायें हैं और पूरे विश्व में वो खेती के मामले में प्रगतिशील देश है! 
यहां की कुल आबादी 50 लाख से कम है जहां गायों की संख्या 120 लाख है!
पशु संरक्षण हेतु हर गाय के कान पर इलेक्ट्रॉनिक चिप लगा कर हर पशु/गाय की स्थिति विभाग व पशु मालिक के ध्यान में रहता है।
किसानों की उन्नति भी देखने लायक है, किसान मशीन के अन्दर बैठा फसल कटाई करता है, और ऑपरेटर दूर बैठा स्क्रीन के माध्यम से फसल के डेटा संधारित करता रहता है जिसके जरिए, किसान प्रति वर्ग मीटर की पैदावार का स्वयं विश्लेषण करता हैं।
आज यह देश लगभग 3 करोड़ लोगों के लिये अनाज पैदा कर रहा है।
उरुग्वे के सफल प्रदर्शन के पीछे देश, किसानों और पशुपालकों की प्रगति का अध्ययन व गतिविधियों का संचालन कृषि गतिविधियों को देखने के लिए 500 कृषि इंजीनियर लगातार काम पर लगे रहते हैं।
पशुधन और कृषि कार्यों की देखरेख ड्रोन और सैटेलाइट के माध्यम से की जाती है।
भारतीय उराग्वे की प्रगति से सीख ले सकते हैं।

शमशेर गांधी
9587243963

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