Monday, 22 April 2024

भारतीय इतिहास राजवंशों से भारत गणराज्य तक एक परिचय

भारत एक परिचय - 

1870 में राजस्थान की मीणा जनजाति के योद्धाओं की खींची गई तस्वीर

राजवंशों से भारत गणराज्य एक अवलोकन -

25 वर्ष की उम्र में 200 साल की अंग्रेज हुकुमत को हिला देने वाले आदिवासी क्रांतिकारी जल, जंगल, ज़मीन और आदिवासी अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले महान स्वतंत्रता सैनानी बिरसा मुंडा।
   दांतिया भील एक स्वतंत्रता सेनानी 

     अंग्रेजी कैद से मुक्त हो कर आए क्रांतिकारियों का स्वागत करती जनता

12 किलो ग्राम वज़नी इस सिक्के की ढ़लाई मुग़ल बादशाह जहांगीर के समय हुई थी। 

मुगल शिल्पकार मुहम्मद सालेह थट्टवी द्वारा बनाया गया खगोलीय ग्लोंब, 1663 ईस्वी।

उपलब्ध दस्तावेज़ों के अनुसार जहांगीर ने ये 1000 मोहर का सिक्का ईरानी राजदूत जमील बेग को दिया था। जहांगीर की यह सोने की मोहर सारे विश्व में चर्चा का विषय बन गई थी। मुगल काल में भारत की जीडीपी लगभग 27% थी। इसी काल के भारत को सोने की चिडिया कहा जाता है।

सन् 1899 : भारत में मानसून की बारिश विफल रही। कम से कम 1,230,000 वर्ग किलोमीटर (474,906 वर्ग मील) क्षेत्र में सूखे से फसलें सूख गईं, जिससे लगभग 60 मिलियन लोग प्रभावित हुए। सूखा दूसरे वर्ष तक बढ़ने से खाद्य फसलें और पशुधन मर गए और जल्द ही लोग भूखे मरने लगे। 1899-1900 के भारतीय अकाल में लाखों लोग मारे गए - शायद 90 लाख तक।
हिस्ट्रीटीवी.इंडिया एक अमेरिकी पर्यटक और एक अज्ञात पश्चिमी महिला एक अकाल पीड़ित के साथ पोज़ देते हुए, भारत, 1900। 
फोटो साभार - जॉन डी. व्हिटिंग कलेक्शन / लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस प्रिंट्स एंड फोटोग्राफ्स

उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया
जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।


            1857 की क्रांति का एक दृश्य 
अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के युवा पुत्र।
1857-1859 के भारतीय विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की सहायता करने वाले भारतीय सैनिक का चित्र।

हाल ही में मिले पुरातन सिक्के - 
जयपुर राजस्थान में मिले 750 साल पुराने चांदी के 82 सिक्के, इनमें 76 सिक्के चौहान वंश व 6 सिक्के मुगलकाल के सामने आए।
जयपुर जिले के जमवारामगढ़ में मनरेगा कार्यों के अंतर्गत एक तालाब की खुदाई में करीब 750 साल पुराने चांदी के 82 सिक्के मिले है। चार दिन पहले मिले इन मध्यकालीन सिक्कों का पुरातत्व विभाग ने निरीक्षण किया। इसमें सामने आया है कि 82 सिक्कों में से 6 बड़े सिक्के दिल्ली सल्तनत के शासकों के समय के है। इनमें तीन सिक्के गयासुद्दीन बलबन (1266-1287) और तीन सिक्के मुईजुद्दीन कैकूबाद (1287-1290) के शासन काल में उपयोग में आते थे।
82 सिक्कों में से 6 बड़े सिक्के दिल्ली सल्तनत के शासकों के समय के है -
पुरातत्व विभाग के मुद्रा विशेषज्ञ प्रिंस कुमार उप्पल, सर्किल अधीक्षक सोहनलाल चौधरी ने इन सिक्कों का जमवारामगढ़ के ट्रेजरी विभाग कार्यालय में निरीक्षण किया। इन सिक्कों की फोटोग्राफी भी की गई। मुद्रा विशेषज्ञ प्रिंस कुमार के मुताबिक ये सभी सिक्के चांदी के बने हुए है। इनमें चांदी की मात्रा थोड़ी कम है। काफी सिक्कों पर सल्फेट का जमाव है, जिन्हें रासायनिक उपचार की आवश्यकता है।
रणथंभौर के चौहान वंश के शासक जैत्रसिंह के शासन काल में चलन में आए सिक्कों में अग्रभाग पर शेर वाम देखने को मिलता है। इन छोटे सिक्कों में चांदी व तांबा भी मिश्रित है। चौहान वंश के सिक्कों के पृष्ठ भाग पर देवनागरी लिपि में 'जैतसी देवा' लिखा हुआ है। दिल्ली सल्तनत शासकों के सिक्कों पर अरबी के स्पष्ट आलेख हैं। वहीं, रणथंभौर के चौहान वंश के शासक महाराजा जैत्रसिंह के शासन काल में चलन में आए सिक्कों में अग्रभाग पर शेर वाम देखते हुए स्पष्ट रुप से अंकित है। साथ ही दूसरी तरफ पृष्ठ भाग पर देवनागरी लिपि में 'जैतसी देवा' लिखा हुआ है।

एक बयान - 
1857 के गदर के बाद दिल्ली के चांदनी चौक से पेशावर तक पेड़ों पर सैनिकों और मौलानाओं के शव लटके हुए मिलते थे। अंग्रेज सरकार द्वारा प्रति दिन 80 लोग फांसी पर लटकाए जाते थे।
"में दिल्ली के एक खेमे में बैठा था मुझे मांस जलने की बदबू आई तो खेमे के पीछे जा कर देखता हूं कि आग के अंगारों पर 30-40 मौलानाओं को नंगा करके डाला जा रहा है। दूसरे 30- 40 लोग इसी तरह लाए गए उन्हें नंगा किया गया। एक अंग्रेज़ अफसर कहा यदि तुम इंकलाब 1857 में शिरकत से इंकार कर दो तो तुम्हें छोड़ दिया जाएगा, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया।"
- टॉमसन तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कम्पनी सैनिक

विश्व के महान देशों में से एक भारत की पहचान उप महाद्वीप के रूप में होती है जिस का नाम है भारतीय उप महाद्वीप। यह दक्षिण में हिंद (सिंध) महा सागर से ले कर उत्तर में हिमालय पर्वत श्रृंखला तक और पूर्व में बर्मा (म्यांमार) से ले कर ईरान की सीमा काबुल और कंधार तक विस्तृत है। इस क्षेत्र में अनेक प्रतापी शासक हुए। इनका शोर्य आम जन में आज भी कथाओं के रूप में संरक्षित है। मानव सभ्यता में ज्ञान रश्मि के प्रस्फुटन के समय से भारत राष्ट्र के रूप में संकलित हो चुका था (इस हेतु पृथक से भारत सभाता और संस्कृति) के नाम से हम पूर्व में चर्चा कर चुके हैं।
हम जानते हैं कि मानव सभ्यता के विकास के साथ - साथ राज्य की उत्पत्ति हुई जिसमें शासन, कानून और अन्य व्यवस्थाएं समाहित थीं।
प्रारंभिक समय में धर्म की स्थापना ही शासन था जो कालांतर में सम्राट और राजा के रूप में विकसित हुआ जिसमें सभी अधिकार समाहित थे। भगवान की अवधारणा भी इन्हीं राजाओं में से या इनकी संतान से विकसित हुई। इन्ही राजाओं और सम्राटों के अध्यधीन राजवंशों की नीव पड़ी। इस स्तंभ में हम भारत के राजाओं और राजवंशों के संबंध में जानकारी करेंगे।
प्रारंभिक दस्तावेज के अनुसार शासक और राजवंश जिन्हें भारतीय उपमहाद्वीप के एक हिस्से पर शासन करने के लिए समझा जाता है, इस सूची में शामिल हैं जो साम्राज्यों और राजवंशों की काल क्रम अनुसार है इस सभी राजवंशों को शामिल किया जाना संभव नहीं है। क्योकि किस "साम्राज्य" को इस श्रेणी में रखा जाये बहुत ही कठिन हैं, और विद्वानों में विवाद का विषय रहा हैं।
राज्य की अवधारणा में विश्व का कोई ना कोई राष्ट्र किसी न किसी उपनिवेशवादी शक्ति के अधीन रहा है। पहले तो केवल बाजार की संभावना हेतु दूसरे देशों पर कब्जा किया जाता था, बाद में धीरे - धीरे सम्पूर्ण शक्तियां हथिया ली जातीं। इससे लोगों में आक्रोश बढ़ता जाता और यह आक्रोश आंदोलन का रूप ले कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम बन जाता।
ठीक इसी तरह का घटनाक्रम है भारतीय स्वतंत्रता संग्राम। इस में  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की चर्चा से पहले हम अंग्रेजों से पहले की शासन व्यवस्था और शासकों के बारे में जानकारी करते हैं।
बलिदान क्रांति के उद्देश्य के प्रचार के लिए ही किया था। जनता में जागृति लाने का कार्य महात्मा गांधी के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने किया। बंगाल की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी श्रीमती कमला दासगुप्त ने कहा है कि "क्रांतिकारी की निधि थी "कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान", महात्मा गांधी की निधि थी "अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान"। सन् 42 के बाद उन्होंने अधिकतम व्यक्ति तथा अधिकतम बलिदान का मंत्र दिया।" भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
क्रांति सिरफिरों का अनियोजित कार्य नहीं हो कर मातृभूमि के पैरों में बंधी बेड़ियां तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा रही है। देश की रक्षा के लिए कर्तव्य समझ कर उन्होंने शस्त्र उठाए। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था बल्कि देश का सम्मान लौटाना था। 
अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में एक ओर क्रांति की ज्वाला थी दूसरी ओर राष्ट्रवाद की भावना। हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं विचारवान भी थे परंतु सभी स्वतंत्रता सेनानी आज हमें न तो याद हैं और ना ही उनका कोई निशान बाकी है।
जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली उन सबको उचित सम्मान भी नहीं मिल सका। अनेकों नाम स्वतंत्रता के बाद भी गुमनाम हैं।
नाविक विद्रोह के सैनिकों को स्वतंत्र भारत की सेना में स्थान देना न्यायोचित होता, पर नौकरशाहों ने उन्हें सेना में रखना नियमों का उल्लंघन समझा। अनेक क्रांतिकारियों की अस्थियाँ  आज भी विदेशों में हैं। अनेक क्रांतिकारियों के घर भग्नावशेष हैं। उनके घरों के स्थान पर आलीशान होटल बन गए हैं। क्रांतिकारियों की बची हुई पीढियां भी समाप्त हो गई है। निराशा में आशा की किरण यही है कि सामान्य जनता में उनके प्रति सम्मान की थोड़ी-बहुत भावना अभी शेष है। उस आगामी पीढ़ी तक इनकी गाथाएँ पहुँचाना हमारा दायित्व है।
1757 से अंग्रेजी सरकार द्वारा जारी लूट तथा भारतीय किसानों, मजदूरों, कारीगरों की बर्बादी, धार्मिक, सामाजिक भेदभाव ने जिस गति से जोर पकड़ा उसी गति से देश के विभिन्न हिस्सो में विद्रोह की चिंगारियाँ भी फूटने लगीं, जो 1857 में जंग-ए-आजादी के महासंग्राम के रूप में फूट पड़ी।

प्राचीन भारत एवं इसकी शासन व्यवस्था (राजवंश)
सूर्यवंशी इश्वाकु राजवंश (रघु वंश) - 
ब्रह्मा जी के 10  पुत्रों में से एक मरीचि हैं। इक्ष्वाकु को भगवान ऋषभदेव भी कहा जाता हैं। इस वंश के शासन काल को चार भागों में बांटा गया है - 

सतयुग के शासक - 
1- ब्रह्मा के पुत्र मांरीचि 
2- मरीचि के पुत्र कश्यप 
3- कश्यप के पुत्र विवस्वान या सूर्य 
4- विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु – जिनसे सूर्यवंश का आरम्भ हुआ। 
5- वैवस्वत के पुत्र नाभाग 
6- नाभाग 
7- अम्बरीष 
8- विरुप 
9- पृषदश्व 
10- रथीतर
11- इक्ष्वाकु कोलिय' – ये परम प्रतापी राजा थे, इनसे इस वंश का एक नाम इक्ष्वाकु कोलिय नागवंशी वंश' हुआ। (दूसरी जगह इनके पिता वैवस्वत मनु भी वताये जाते हैं)
12- कुक्षि
13- विकुक्षि
14- पुरन्जय
15- अनरण्य प्रथम
16- पृथु
17- विश्वरन्धि
18- चंद्र
19- युवनाश्व
20- वृहदश्व
21- धुन्धमार
22- दृढाश्व
23- हर्यश्व
24- निकुम्भ
25- वर्हणाश्व
26- कृशाष्व
27- सेनजित

त्रेता युग के शासक - 
28- युवनाश्व द्वितीय
29- मान्धाता सूर्यवंशी क्षत्रिय कोलिय (कोली) के इष्टदेव भगवान श्री मान्धाता महाराजा हैं। राजा मान्धाता ने पूरी पृथ्वी पर शासन किया, इसी कारण से मांधाता को पृथ्वीपति के नाम से जाना जाता हैं।
30- पुरुकुत्स
31- त्रसदस्यु
32- अनरण्य
33- हर्यश्व
34- अरुण
35- निबंधन
36- सत्यवृत (त्रिशंकु)
37- सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र
38- रोहिताश
39- चम्प
40- वसुदेव
41- विजय
42- भसक
43- वृक
44- बाहुक
45- सगर
46- अमंजस
47- अंशुमान
48- दिलीप प्रथम
49- भगीरथ – (मान्यता के अनुसार गंगा को धरती पर लाये)
50- श्रुत
51- नाभ
52- सिन्धुदीप
53- अयुतायुष
54- ऋतुपर्ण
55- सर्वकाम
56- सुदास
57- सौदास
58- अश्मक
59- मूलक
60- सतरथ
61- एडविड
62- विश्वसह
63- खटवाँग
64- दिलीप (दीर्घवाहु)
65- रघु – (सूर्यवंश के सवसे प्रतापी राजा)
66- अज
67- दशरथ
68- राम (लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न)

द्वापर युग के शासक - 
69- कुश
70- अतिथि
71- निषध
72- नल
73- नभ
74- पुण्डरीक
75- क्षेमधन्मा
76- देवानीक
77- अनीह
78- परियात्र
79- बल
80- उक्थ
81- वज्रना
82- खगण
83- व्युतिताष्व
84- विश्वसह
85- हिरण्याभ
86- पुष्य
87- ध्रुवसंधि
88- सुदर्शन
89- अग्निवर्ण
90- शीघ्र
91- मरु
92- प्रश्रुत
93- सुसंधि
94- अमर्ष
95- महस्वान
96- विश्वबाहु
97- प्रसेनजक
98- तक्षक
99- वृहद्वल
100- वृहत्रछत्

कलयुग के शासक - 
101- उरुक्रीय (या गुरुक्षेत्र)
102- वत्सव्यूह
103- प्रतियोविमा
104- भानु
105- दिवाकर (दिवाक)
106- वीर सहदेव
107- बृहदश्व II
108- भानुराठ (भानुमान)
109- प्रतिमाव
110- सुप्रिक
111- मरुदेव
112- सूर्यक्षेत्र
113- पुष्कर (किन्नरा)
114- अंतरीक्ष
115- सुवर्णा (सुताप)
116- सुमित्रा (अमितराजित)
117- ब्रुहदराज (ओक्काका)
118- बरही (ओक्कामुखा)
119- कृतांजय (सिविसमंजया)
120- रणजय्या (सिहसारा)
121- संजय (महाकोशल या जयसेना)
122- शाक्य (सिहानू:शाक्य वंश के संस्थापक)
123- शुद्धोधन
124- सिद्धार्थ, गौतम बुद्ध
125- राहुल शाक्य 
(यही शाक्य मौर्य बने शाक्यों के नरसंहार के बाद)
126- प्रसेनजीत
127- कुशद्रका (या कुंतल)
128- रानाक (या कुलका)
129- सुरथ
130- सुमित्र
राजा सुमित्र अंतिम सूर्यवंशी शासक थे, जिन्हें 362 ईसा पूर्व में मगध के शक्तिशाली सम्राट महापद्म नंद ने हराया था। इसके पश्चात वह बिहार में स्थित रोहतास चले गये थे। इक्ष्वाकु वंश को रघुवंश भी कहा जाता है जिसके वंशज रघुवंशी हैं जो मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में मुख्यतौर पर पाए जाते हैं. इक्ष्वाकु वंश के राजा पृथु, मांधाता, दिलीप, सगर, भगीरथ, रघु, हरिश्चंद्र जैसे प्रतापी लोग हुए. विष्णु पुराण में कहा गया है कि जब मनु को छींक आई तो इक्ष्वाकु उनकी नासिका से निकले। 
सिसोदिया, 
कुशवाह (कच्छवाहा), 
मौर्य, 
शाक्य, 
बैछला (बैसला) और 
गैहलोत (गुहिल) इसी राजवंश की शाखाएं थीं।

चंद्रवंशी–यदुवंश
यायाति पुत्र यदु ने यदुवंश की स्थापना की।
1 महाराज यदु का वंश उनके सबसे बड़े पुत्र सहस्रजीत 2 सहस्रजीत के पुत्र थे सतजित 
3 सतजीत (सतजित के तीन पुत्र हुए: हैहय, रेनुहय और हय) 
हैहय विष्णु और लक्ष्मी के मानस पुत्र थे। हैहय से हैहय वंश।

हैहय वंश - 
कार्तवीर्य 
अर्जुन के बाद, उनके पौत्र 
तल्जंघा (अर्जुन के पौत्र) 
वित्रोत्र (अयोध्या पर कब्जा किया) 
तालजंघ
वित्रोत्र (राजा सगर के हाथों मृत्यु)
वित्रोत्र के पुत्र (मधु और वृष्णि) यादव वंश से क्रोहतास में निर्वासित हुए। (हैहय साम्राज्य के संस्थापक, सूर्यवंशी राजा मंधात्री से समकालीन)

सहस्रजित
सतजीत
महाउपाय, रेणुहाया और हैहय्या
धर्म (हैहय का पुत्र)
नेत्रा
कुंती
सूजी
महिष्मान (नर्मदा नदी तट पर महिष्मती के संस्थापक)
भद्रसेनका (भद्रसेन) (सूर्यवंशी राजा त्रिशंकु से समकालीन)
दुर्मदा (सूर्यवंशी राजा हरिश्चंद्र के लिए समकालीन)
डारडम
भीम
समहत
कनक
धनक (भगवान विष्णु)
कृतवीर्य
कृताग्नि
कृतवर्मा
कृतौजा (सूर्यवंशी राजा रोहिताश्व के समकालीन)
अर्जुन (सहस्रबाहु कार्तवीर्य अर्जुन कृतवीर के पुत्र की परशुराम द्वारा हत्या)
जयध्वज
वृषभ
मधु
उरुजित (परशुराम द्वारा मुक्त कर दिया गया परंतु 115 अन्य क्षत्रियों की परशुराम द्वारा हत्या)
तालजंघ (सूर्यवंशी राजा असिता के समकालीन)
विथिहोत्र (सूर्यवंशी राजा सगर के समकालीन)
मधु
वृष्णि
व्योमा
जिमूता
विकृति
भीमरथ
रथवारा
नवरथ
दशरथ
एकादशारथ
शकुनि
करिभि
देवरात
देवक्षेत्र
देवला
मधु
भजमन
पुरुवाशा
पुरुहोत्र
कुमारवंश
कुंभलभी
रुक्मावतवाच
कुरुवंश
अनु
प्रवासी
पुरुमित्र
श्रीकर
चित्ररथ द्वितीय
विदुरथ
शौर्य
शार्मा
पृथ्वीराज
स्वयंभूज
हरधिका
वृष्णि द्वितीय
देवमेधा
सुरसेन –(मदिशा और परजन्या वेस्पर्ना (देवमिन्ध की दूसरी पत्नी) के पुत्र)
वसुदेव (सुरसेन के पुत्र)
नंद (परजन्य के पुत्र)
योगमाया बलराम और कृष्ण (वसुदेव की संतान)
प्रद्युम्न (कृष्ण के पुत्र)
अनिरुद्ध
वज्रनाभ
प्रतिभा
सुबाहु
शांतसेन
शतसेन

चेदि वंश
यदु के वंशज विदर्भ जो विदर्भ साम्राज्य के संस्थापक थे, उनके तीन पुत्र कुशा, कृत और रोमपाद हैं। कुशा द्वारका के संस्थापक थे। रोमपाद को मध्य भारत मध्य प्रदेश दिया गया था। राजा रोमपद के वंशज चेदि थे।

रोमपाद
बबेरू
कृति
उशिका
चेदी (चेदी साम्राज्य के संस्थापक थे।)
सुबाहु I (सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्णा और नल और दमयंती से समकालीन)
वीरबाहु
सुबाहु द्वितीय
तमन्ना

कुकुरा राजवंश
वृष्णि के वंशज विश्वगर्भ का वासु नाम का एक पुत्र था। वासु के दो बेटे थे, कृति और कुकुर। कृति के वंशज शूरसेन, वसुदेव, कुंती, आदि कुकुर के वंशज उग्रसेन, कंस और देवीसेना की गोद ली हुई बेटी थी। देवका के बाद, उनके छोटे भाई उग्रसेन ने मथुरा पर शासन किया।

कुकुरा
वृष्णि
रिक्शा
कपोर्मा
टिटिरी
पुंरवासु
अभिजीत
धृष्णू
आहुका
देवका और उग्रसेन
कंस और 10 अन्य उग्रसेन की संतान थे जबकि देवकी, देवका की पुत्री, उग्रसेन की दत्तक पुत्री थी।


कुरु वंश  (1200 ई.पू.-500 ई.पू.)
सुदास (14वीं शताब्दी ई.पू.), ने कुरु साम्राज्य की नींव डाली
प्रतीप
शांतनु 
चित्रांगदा
विचित्रवीर्य
धृतराष्ट्र
पांडु
युधिष्ठिर
दुर्योधन
परीक्षित (1000 ई.पू.)
जनमेजय (950 ई.पू.)
शतानीक
अश्वमेधदत्त
धिसीमकृष्ण
निचक्षु
उष्ण
चित्ररथ
शुचिद्रथ
वृष्णिमत
सुषेण
नुनीथ
रुच
नृचक्षुस
सुखीबल
परिप्लव
सुनय
मेधाविन
नृपंजय
ध्रुव
तिग्म्ज्योती
बृहद्रथ
वसुदान
शत्निक द्वितीय
उदयन
अहेनर
खान्दपनी
निरमित्र
क्षेमक 
राजा/सम्राट हुए। महाभारत, गीता महाकाव्य की रचना इसी काल में घृतराष्ट्र और पांडू के शासनकाल में हुई।

मगध राजवंश (940 ई.पूर्व से  345 ई.पूर्व)
धर्म
सुनीत कुमार
सत्यजीत
विश्वजीत
रिप्युञ्या 
मगध साम्राज्य के अंतर्गत ही अन्य राजवंश स्थापित हुए।

प्रद्योत वंश (सी. 779 ई.पू.-544 ई.पू.)
प्रद्योत 
महासेना
पालक
विशाखयूप
अजक (राजक)
वर्तिवर्धन (नंदीवर्धन)

हर्यंक वंश (सी. 544 ई.पू. - 413 ई.पू.)
बिम्बिसार (558 ई.पूर्व से 491 ई.पू.), साम्राज्य के संस्थापक
अजातशत्रु (491-461 ई.पू.)
उदायिभद्र
अनिरुद्ध
मुंडा
दर्शक (461 ई.पू.)
नागदशक (हर्यंक वंश का अंतिम शासक)

शिशुनाग वंश (सी 413 ई.पू. से 385 ई.पू.)
शिशुनाग (412 से 395 ईसा पूर्व) मगध के राजा
कलाशोक (काकवर्ण)
क्षेमधर्मन
क्षत्रौजस
नंदिवर्धन
महानन्दि (345 ईसा पूर्व तक) कासाम्राज्य का अवैध पुत्र महापद्म नंद को विरासत में मिला था।

नंद राजवंश (345 ई.पू. से 321 ई.पू.)
नंद साम्राज्य 15,00,000 46% 350 ई.पू. धनानंद (सम्राट) पाटलिपुत्र
महापद्म नन्द (से 345 ईसा पूर्व) महानन्दि का बेटा महनंदि का साम्राज्य विरासत में मिलने के बाद नंद साम्राज्य की स्थापना
पंडुकनन्द
पाङुपतिनन्द
भूतपालनन्द
राष्ट्रपालनन्द
गोविषाणकनन्द
दशसिद्धकनन्द
कैवर्तनन्द
कार्विनाथ नंद (महापद्म नंदा का अवैध पुत्र)
धनानंद (321 ई.पू. तक) 
चंद्रगुप्त मौर्य से हारने के बाद राजवंश समाप्त।

मौर्य वंश (321 ई.पू. से 185 ई.पू.)
मौर्य साम्राज्य 52,00,000 161% 250 ई.पू. अशोक (चक्रवर्ती, सम्राट) पाटलिपुत्र
चंद्रगुप्त मौर्य ( 321 से 298 ई.पू.)
बिन्दुसार
अमित्राधाट (298 से 273 ई.पू.)
अशोक (273 से 232 ई. पूर्व)
कुणाल (232 से 224 ई. पूर्व)
दशरथ (232 से 224 ई.पू.)
सम्प्रति (224 से215 ई. पूर्व)
शालिशुका (215-202 ईसा पूर्व)
देववर्मन (202-195 ईसा पूर्व)
शतधन्वन (19518 ई.पू.), इनके शासनकाल के दौरान मौर्य साम्राज्य सिकुड़ गया था
बृहद्रथ (187-185 ईसा पूर्व), पुष्यमित्र शुंग द्वार हत्या कर दी गई।

शुंग वंश (सी. 185 ईसा पूर्व - 73 ईसा पूर्व)
शुंग राजवंश 12,00,000 37% 150 ई.पू. पुष्यमित्र शुंग (सम्राट) पाटलिपुत्र
पुष्यमित्र शुंग (175 ईसा पूर्व) ने बृहद्रथ की हत्या करने के बाद राजवंश की स्थापना की।
अग्निमित्र (141 ईसा पूर्व), पुष्यमित्र के पुत्र
वसुजीष्ठ (131 ईसा पूर्व)
वसुमित्र (124 ईसा पूर्व)
आंध्रका (122 ई.पू.)
पुलिंदका (119 ईसा पूर्व)
घोष (113 ई.पू.)
वज्रमित्र (110 ई.पू.)
भागभद्र (सी. 110 ईसा पूर्व), पुराणों द्वारा वर्णित।
देवभूति (73 ईसा पूर्व), इसी के मन्त्री वसुदेव ने इसकी हत्या कर दी।

कण्व वंश (66 ईसा पूर्व)
वासुदेव (66  ईसा पूर्व), देवभूति की हत्या करने के बाद राजवंश की स्थापना की।
भूमिमित्र (सी. 42 ईशा पूर्व )
नारायण (सी. 40 ईसा पूर्व )
सुषरमन (सी. 23 ई.पू.)

गुप्त वंश (सी 240–605 ई.पू.)
गुप्त राजवंश 35,00,000 119% 400 चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (सम्राट) पाटलिपुत्र
श्रीगुप्त प्रथम (सी. 240-290), संस्थापक
घटोत्कच (290-320)
चंद्रगुप्त प्रथम (320–325)
समुद्रगुप्त (325-375)
रामगुप्त (375-380)
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वितीय) (380–415)
कुमारगुप्त प्रथम (४१५-४५५)
स्कन्दगुप्त (455-467)
पुरुगुप्त (467-472)
कुमारगुप्त द्वितीय (472–479)
बुद्धगुप्त (479-496)
नरसिंहगुप्त बालादित्य (496-530)
भानुगुप्त (496-530)
वैन्यगुप्त (496-530)
चंद्रगुप्त तृतीय (496-530)
कुमारगुप्त तृतीय (530-540)
विष्णु गुप्त प्रथम (सी. 540–570)
स्कन्दगुप्त (अंतिम राजा)

प्राचीन दक्षिणी राजवंश
पाण्ड्य राजवंश (सी. 550 ईपू - 345 ई)मध्य पाण्ड्य
कडुकोन, (सी 550–450 ई.पू.)
पंडियन (50 ई.पू. - 50 ई.), 
यूनानियों और रोमनों में पंडियन के रूप में जाना जाता है
प्रारंभिक पाण्ड्य
नेदुनज चेलियन प्रथम (अरियाप पडई कादंथा नेदुंज चेलियान)
पुदाप्पाण्डियन
मुदुकुडि परुवलुधि
नेदुनज चेलियन द्वितीय (पसम्पुन पांडियान)
नान मारन
नेदुनज चेलियन तृतीय (तलैयालंगनाथु सेरुवेंद्र नेदुंज चेलियान)
मारन वलुड़ी
मुसरी मुटरिया चेलियन
उकिराप पेरूवलुथी

पहला साम्राज्य कुंडुगोन (c। 600–700 ई.), राजवंश को पुनर्जीवित किया
माड़वर्मन अवनि शुलमणि (590–620 ई.)
शेन्दन/जयंतवर्मन (620-640 ई.)
अरिकेसरी माड़वर्मन निंदरेसर नेदुमारन (640-674 ई.)
कोक्काडैयन रणधीरन (675-730 ई.)
अरिकेसरी परनकुसा माड़वर्मन राजसिंह प्रथम (730–765 ई.)
जटिल परांतक नेंडुजडैयन/वरगुण प्रथम (765–790 ई.)
राससिंगन द्वितीय (790-800 ई.)
वरगुण प्रथम (800–830 ई.)
श्रीमाड़ श्रीवल्लभ (830-862 ई.)
वरगुण द्वितीय (862-880 ई.)
परांतक वीरनारायण (862–905 ई.)
माड़वर्मन राजसिंह पांडियन द्वितीय (905–920 ई.)

पाण्ड्य वंश पुनरुद्धार
जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम (1251–1268), पंड्य गौरव को पुनर्जीवित किया, दक्षिण भारत के महानतम विजेताओं में से एक माने जाते हैं।
माड़वर्मन सुंदर पाण्ड्य
मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य प्रथम (1268-1308)
सुंदर पंड्या (1308–1311) मारवर्मन् कुलशेखर के बेटे ने अपने भाई वीरा पंड्या के साथ सिंहासन के लिये लड़ाई लड़ी।
जटावर्मन् वीर पांड्य द्वितीय (1308–1311) मारवर्मन कुलशेखर के पुत्र ने अपने भाई सुंदर सिंह पांड्या से सिंहासन पर कब्जा किया, मदुरई को ख़िलजी वंश द्वारा जीत लिया गया।

पंडालम राजवंश (सी. 1200)
राजा राजशेखर (सी. 1200 - 1500), अय्यप्प के पिता (सनातन देवता के रूप में माने जाने वाले) पाण्ड्य राजवंश के वंशज

चेर राजवंश (सी. 300 ई.पू. - 1124 ई.पू.)
(इनका शासन वर्ष अभी भी विद्वानों के बीच विवादित है)
प्राचीन चेर राजा
उदयन चेरलतन 
अंतू वे चेरलतन 
इमाया नयादुम चेरलतन (56–115 CE)
चेरन चेंकुतुवन ( 115 CE)
पलयेनई सेल-केलू कुत्रुवन (115–130)
पोरायन कदूंगों (115 BC)
कलंनकई-कन्नी नरमुदी चरेल (115–140)
वेल केलू कुत्तुवा (130–185)
सेल्वक कडूगो (131–155)
अदुकोत पट्टू चेरलत्तन (140–178)
कुत्तुवन इरम पोरई (178–185)
तेगादुर एरिंडा पेरूम चेरल (185–201)
येनिकत-से मन्तरन चेरल (201–241)
इलम चेलम इरमपेरई (241–257)
पेरम्म कुडूगो (257–287)
इलम कडूगो (287–317)
कनाईकल इरंपरल (367–397)

चोल वंश (सी. 300 ई.पु. - 1279 ई.)
चोल साम्राज्य 36,00,000 110% 1030 राजेन्द्र चोल (सम्राट) उरैयूर
संगम चोल
इलमजेतचेन्नी
करिकला चोल
नेदूनकिल्ली
नालनकिल्ली
किल्लीवलावन
पेरूनारकिल्ली
कोचेनगानन
शाही चोल (848–1279 ई.)
विजयालय चोल (848–881)
आदित्य चोल (871–907)
परन्तका चोल I (907–955)
गंधराआदित्य चोल (950–957)
अरिंजय चोल  (956–957)
परंतका चोल II (957–970)
उत्तम चोल (973–985)
राजेन्द्र चोल I (985–1014)
राजेन्द्र चोल I (1014–1018)
राजाधिराज चोल I (1018–1054)
राजेंद्र चोल II (1054–1063)
विर्राजेंद्र चोल (1063–1070)
अधिराजेंदर चोल (1067–1070)
कुलूथूंगा चोल I (1071–1122 CE)
विक्रम चोल (1118–1135)
कुलीथुंगा चोल II (1133–1150)
राजेंद्र चोल II (1146–1163)
राजेंद्र चोल II (1163–1178)
कुलीथूंगा चोल III (1178–1218)
राजेंद्र चोल III (1216–1246)
राजेन्द्र चोल III (1246–1279) अंतिम चोल सम्राट 
उत्तर-पश्चिमी भारत में विदेशी आक्रमणकारी
ये साम्राज्य विशाल थे, जोकि फारस या भूमध्यसागरीय में केंद्रित थे; भारत में उनके क्षत्रप (प्रांत) उनके बाहरी इलाके में आते थे।

हख़ामनी साम्राज्य की सीमाएँ सिंधु नदी तक थीं।
अरगेड राजवंश के सिकंदर महान (326–323 ईसा पूर्व) ने झेलम नदी की लड़ाई में पोरस को हराया उसका साम्राज्य जल्द ही तथाकथित डियाडोची में विभाजित कर दिया गया।
सेल्यूकस निकेटर (323-321 ईसा पूर्व), डियाडोची जनरल, जिन्होनें सिकंदर की मौत के बाद मकदूनियाई साम्राज्य के पूर्वी भाग में नियंत्रण पाने के बाद सेल्यूकसी साम्राज्य की स्थापना की।
हेलेनिस्टिक यूथिडेमिड राजवंश भी भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमांतों तक पहुँच गया (सी. 221-85 ई.पू.)

मुहम्मद बिन कासिम (711–715), उमायद खलीफा के एक अरब जनरल, ने सिंध, बलूचिस्तान और दक्षिणी पंजाब पर विजय प्राप्त की और उमय्यद खलीफा, अल-वालिद इब्न अब्द अल-मलिक की ओर से इन जमीनों पर शासन किया।

सातवाहन वंश (सी. 271 ई.पू. - 220 ई.)
सातवाहन शासन की शुरुआत 271 ईसा पूर्व से 30 ईसा पूर्व तक विभिन्न समयों में की गई है। सातवाहन प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक दक्खन क्षेत्र पर प्रभावी थे। यह तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक चला। निम्नलिखित सातवाहन राजाओं को ऐतिहासिक रूप से एपिग्राफिक रिकॉर्ड द्वारा सत्यापित किया जाता है, हालांकि पुराणों में कई और राजाओं के नाम हैं सातवाहन वंश शासकों की सूची - 
सिमुका सातवाहन (सी. 230 ई.पू. - 207 ई.पू.)
कान्ह सातवाहन (सी. 207 ईसा पूर्व - 189 ईसा पूर्व)
मालिया शातकर्णी (सी. 189 बीसीई - 179 ईसा पूर्व)
पूर्णोथंगा (सी. 179 ई.पू. - 161 ईसा पूर्व)
शातकर्णी (सी. 179 ई.पू. - 133 ई.पू.)
लम्बोदर सातवाहन (सी. 87 ईसा पूर्व - 67 ईसा पूर्व)
हाला (20–24 ई.)
मंडलाक (24–30 ई.)
पुरिन्द्रसेन (30–35 ई.)
सुंदर शातकर्णी (35-36 ई.)
काकोरा शातकर्णी (36 ई.)
महेंद्र शातकर्णी (36–65 ई.)
गौतमी पुत्र शातकर्णी (106-130 ई.)
वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी (130–158 ई.)
वशिष्ठिपुत्र सातकर्णि (158-170 ई.)
यज्ञश्री शातकर्णी (170-199 ई.)
वाकाटक वंश (सी. 250 - 500 ई.)
विंध्यशक्ति (250-270 ई.)
प्रवरसेन प्रथम (270–330 ई.)

प्रवरपुर-नन्दिवर्धन शाखा
रुद्रसेन प्रथम (330–355 ई.)
पृथ्वीसेन प्रथम (355–380 ई.)
रुद्रसेन द्वितीय (380–385 ई.)
दिवाकरसेना (385-400 ई.)
प्रभावतीगुप्त (महिला), राज-प्रतिनिधि (385-405 ई.)
दामोदरसेन (प्रवरसेन द्वितीय) (400-440 ई.)
नरेंद्रसेन (440-460 ई.)
पृथ्वीसेन द्वितीय (460-480 ई.)

वत्सगुल्म शाखा
सर्वसेन (330-355)
विंध्यसेन (विंध्यशक्ति द्वितीय) (355-442)
प्रवरसेन द्वितीय (400-415)
अज्ञात (415-450)
देवसेन (450–475)
हरिसेन (475-500)

हिंद-सीथींऐंस शासक (सी. 90 ई.पू. - 45 ई.)
उत्तर पश्चिमी भारत (सी. 90 ई.पू. - 10 ई.)
इंडो-सिथीएंस साम्राज्य 15,00,000 46% 100 ई.पू. माउस (राजा) सिगल, तक्षशिला, मथुरा 
मेउस (सी. 85–60 ई.पू.)
वोनोन्स (सी. 75-65 ई.पू.)
स्पालहोर्स (सी. 75-65 ई.पू.)
स्पैलारिस (सी. 60–57 ई.पू.)
एज़ेस प्रथम (सी. 57-35 ई.पू.)
अज़िलिस (सी. 57-35 ई.पू.)
एज़ेस द्वितीय (सी. 35–12 ई.पू.)
ज़ियोनीज़ (सी. 10 ई.पू. - 10 ई.)
खारहोस्तेस (c। 10 ई.पू. - 10 ई.)

हजात्रिया
लीका कुसुलुका
चुक्सा का क्षत्रप
कुसुलाक पेटिका - चुक्सा का क्षत्रप और लीका कुसुलुका का पुत्र

मथुरा क्षेत्र (सी. 20 ई.पू. - 20 ई.)
अपराचाजरा शासक (12 ई.पू. - 45 ई.)
विजयमित्र (12 ई.पू. - 15 ई.)
इतरावसु (सी. 20 ई.)
अस्पवर्मा (15–45 ई.)

स्थानीय शासक
भद्रयशा निगास
मामवेदी
अर्साकेस
हिन्द-पहलव (पार्थियन) शासक (सी. 21–100 ई.)
गॉन्डोफ़र्नीज I (सी। 21–50)
अब्दागेसिस प्रथम (सी। 50-65)
सतवस्त्र (सी। 60)
सर्पदन (सी। 70)
ऑर्थेनेस (सी। 70)
उबोज़ान्स (सी। 77)
सस या गॉन्डोफ़र्नीज II (सी। 85)
अब्दागेसिस II (सी। 90)
पाकोरस (सी। 100)
पश्चिमी क्षत्रप (सी. 35–405 ई.)
नहपान (119-124 सीई)
चष्टन (सी. 120)
रुद्रदमन प्रथम (सी। 130–150)
दामघसद प्रथम (170-175)
जीवादमन (175, डी। 199)
रूद्रसिंह प्रथम (175-188, डी। 197)
ईश्वरदत्त (188-191)
रूद्रसिंह प्रथम (बहाल) (191-197)
जीवदामन (बहाल) (197-199)
रुद्रसेन प्रथम (२००-२२२)
संघदामन (222–223)
दामसेन (223-232)
दामजदश्री द्वितीय (232–239)
विरदमन (234–238)
यशोदामन (239-240)
यशोदामन द्वितीय (240)
विजयसेन (240–250)
दामजदश्री तृतीय (251-255)
रुद्रसेन द्वितीय (२५५-२ 255))
विश्वसिंह (277-282)
भारत्रीदामन (282–295) के साथ
विश्वसेन (293304)
रुद्रसिंह द्वितीय (304-348) के साथ
यशोदामन द्वितीय (317–332)
रुद्रदामन द्वितीय (332-348)
रुद्रसेन तृतीय (348–380)
सिम्हसेन (380)

कुषाण वंश (80-225)
कुषाण राजवंश 25,00,000 76% 200 कनिष्क (सम्राट) पुरुषापुर, तक्षशिला, मथुरा
कनिष्क प्रथम (127-147)
हुविष्क (सी. १५५-१ c))
वासुदेव प्रथम (सी। 191-225), महान कुषाण सम्राटों में से अंतिम
कनिष्क द्वितीय (सी। २२24-२४ka)
वाशिष्क (सी। 247-265)
कनिष्क तृतीय (सी। 268)
वासुदेव द्वितीयI (सी। 275–300)
शक कुषाण (300-350)

गधरा राजा
नाग राजवंश (तीसरी-चौथी शताब्दी के दौरान)
वृष-नाग उर्फ वृष-भाव या वृषभ- संभवतः विदिशा में गत दूसरी शताब्दी में इनका शासन था। वृषभ या वृष-भाव - यह भी एक विशिष्ट राजा का नाम हो सकता है, जो वृष नाग के उत्तराधिकारी थे।
भीम नाग, (ल. 210-230 ईस्वी)- पद्मावती से शासन करने वाले शायद पहले राजा थे।
स्कंद नाग
वासु नाग
बृहस्पति नाग
विभु नाग
रवि नाग
भव नाग
प्रभाकर नाग
देव नाग
व्याघरा नाग
गणपति नाग

पल्लव राजवंश (275–882)
प्रारंभिक पल्लव (275-355)
मध्य पल्लव (355-537)
उत्तर-काल पल्लव (537–882)
चित्रदुर्ग में चंद्रवल्ली के कदंब (345–525 ईस्वी)

कदंब राजवंश
मयूरशर्मा (मयूरवर्मा) - (345–365 ईस्वी)
कंगवर्मा - (365–390 ईस्वी)
भागीरथ - (390–415 ईस्वी)
रघु - (415–435 ईस्वी)
काकुस्थवर्मा - (435–455 ईस्वी)
शांतिवर्मा - (455–460 ईस्वी)
मृगेशवर्मा - (460-480 ईस्वी)
शिवमंधतिवर्मा - (480–485 ईस्वी)
रविवर्मा - (485–519 ईस्वी)
हरिवर्मा - (519-525 ईस्वी)
गोवा के कदंब - (1345 तक)
हंगल के कदंब - (1347 तक)

तालकाड के पश्चिम गंग वंश (350-1024 ईस्वी)
कोंगणिवर्मन माधव (350–370 ईस्वी)
माधव द्वितीय(370–390 ईस्वी)
हरिवर्मन (390–410 ईस्वी)
विष्णुगोप (410–430 ईस्वी)
तडांगला माधव (430–466 ईस्वी)
अविनीत (466–495 ईस्वी)
दुर्विनीत (495–535 ईस्वी)
मुष्कर (535–585 ईस्वी)
श्रीविक्रम (585–635 ईस्वी)
भूविक्रम (635–679 ईस्वी)
शिवमार प्रथम (679–725 ईस्वी)
श्रीपुरुष (725–788 ईस्वी)
शिवमार द्वितीय (788–816 ईस्वी)
राजमल्ल प्रथम (816–843 ईस्वी)
नीतिमार्ग एरेगंग (843–870 ईस्वी)
राजमल्ल द्वितीय (870–907 ईस्वी)
एरेगंग नीतिमार्ग द्वितीय (907–921 ईस्वी)
नरसिंहदेव (921–933 ईस्वी)
राजमल्ल तृतीय (933–938 ईस्वी)
बुतुग द्वितीय (938–961 ईस्वी)
मरुलदेव (961–963 ईस्वी)
मारसिंह तृतीय (963–975 ईस्वी)
राजमल्ल चतुर्थ (974–985 ईस्वी)
राजमल्ल पंचम (रक्कस गंग) (986–999 ईस्वी)
नीतिमार्ग परमानदी (999- ईस्वी)

राय वंश (524–632 ईस्वी)
राय दिवाजी (देवादित्य)
राय सहिरस (श्री हर्ष)
राय सहसी (सिंह सेना)
राय सहिरस द्वितीय - निम्रोज़ के राजा से लड़ते हुए मारे गए।
राय साहसी द्वितीय - अंतिम राजा

वल्लभी के मैत्रक (बटार) (470-776 ईस्वी) मैत्रक राजवंश
भट्टारक (ल. 470–492 ईस्वी)
धरसेन प्रथम (ल. 493-499 ईस्वी)
द्रोणसिंह (ल. 500-520 ईस्वी), (जिन्हें "महाराजा" के नाम से भी जाना जाता है)
ध्रुवसेन प्रथम (ल. 520-550 ईस्वी)
धरनपट्ट (ल. 550-556 ईस्वी)
गुहसेन (ल. 556-570 ईस्वी)
धरसेन द्वितीय (ल. 570-595 ईस्वी)
सिलादित्य प्रथम (ल. 595-615 ईस्वी) (जिसे धर्मादित्य भी कहा जाता है)
खरग्रह प्रथम (ल. 615 – 626 ईस्वी)
धर्मसेन तृतीय (ल. 626 –640 ईस्वी)
ध्रुवसेन द्वितीय (ल. 640-644 ईस्वी), (जिसे बालदित्य/ध्रुवभट्ट के नाम से भी जाना जाता है)
चक्रवर्ती राजा धरसेन चतुर्थ (ल. 644-651 ईस्वी), (परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, चक्रवर्तिन उपाधि धारक)
ध्रुवसेन तृतीय (ल. 651-656 ईस्वी)
खरग्रह द्वितीय (ल. 656-662 ईस्वी)
सिलादित्य द्वितीय (ल. 662–?)
सिलादित्य तृतीय
सिलादित्य चतुर्थ
सिलादित्य पंचम
सिलादित्य छटे
सिलादित्य सप्तम (766-776 ईस्वी)

शाकमभरी के चाहमान (6वीं-12वीं शताब्दी) चौहान वंश
वासुदेव (ल. छटी शताब्दी)
सामन्तराज (ल. 684-709 ईस्वी)
नारा-देव (ल. 709–721 ईस्वी)
अजयराज प्रथम (ल. 721–734 ईस्वी), उर्फ ​​जयराज या अजयपाल
विग्रहराज प्रथम (ल. 734–759 ईस्वी)
चंद्रराज प्रथम (ल. 759–771 ईस्वी)
गोपेंद्रराज (ल. 771–784 ईस्वी)
दुर्लभराज प्रथम (ल. 784–809 ईस्वी)
गोविंदराज प्रथम (ल. 809–836 ईस्वी), उर्फ ​​गुवाक प्रथम
चंद्रराज द्वितीय (ल. 836-863 ईस्वी)
गोविंदराजा द्वितीय ( 863–890 ईस्वी), उर्फ ​​गुवाक द्वितीय
चंदनराज (ल. 890–917 ईस्वी)
वाक्पतिराज प्रथम (ल. 917–944 ईस्वी); उनके छोटे बेटे ने नद्दुल चाहमान शाखा की स्थापना की।
सिम्हराज (ल. 944–971 ईस्वी)
विग्रहराज द्वितीय (ल. 971–998 ईस्वी)
दुर्लभराज द्वितीय (ल. 998–1012 ईस्वी)
गोविंदराज तृतीय (ल. 1012-1026 ईस्वी)
वाक्पतिराज द्वितीय (ल. १०२६-१०४० ईस्वी)
विर्याराम (ल. 1040 ईस्वी)
चामुंडराज चौहान (ल. १०४०-१०६५ ईस्वी)
दुर्लभराज तृतीय (ल. 1065-1070 ईस्वी), उर्फ ​​दुआला
विग्रहराज तृतीय (ल. 1070-1090 ईस्वी), उर्फ ​​विसला
पृथ्वीराज प्रथम (ल. 1090–1110 ईस्वी)
अजयराज द्वितीय (ल. १११०-११३५ ईस्वी), राजधानी को अजयमेरु (अजमेर) ले गए।
अर्णोराज चौहान (ल. 1135–1150 ईस्वी)
जगददेव चौहान (ल. ११५० ईस्वी)
विग्रहराज चतुर्थ (ल. 1150–1164 ईस्वी), उर्फ ​​विसलदेव
अमरगंगेय (ल. 1164–1165 ईस्वी)
पृथ्वीराज द्वितीय (ल. 1165–1169 ईस्वी)
सोमेश्वर चौहान (ल. ११६ ९ -११vv ईस्वी)
पृथ्वीराज तृतीय (ल. 1178–1192 ईस्वी), इन्हें पृथ्वीराज चौहान के नाम से जाना जाता है
गोविंदाराज चतुर्थ (ल. 1192 ईस्वी); मुस्लिम अस्मिता स्वीकार करने के कारण हरिराज द्वारा निर्वासित; रणस्तंभपुरा के चाहमान शाखा की स्थापना की।
हरिराज (ल. 1193–1194 ईस्वी)

चालुक्य राजवंश (543–1156 ईस्वी)
चालुक्य राजवंश 11,00,000 33% 636 पुलकैशिन द्वितीय (महाराजा) बदामी, कर्नाटक
बादामी के चालुक्य (543-757)
बसवकल्याण कल्याणी के चालुक्य (973–1156)

शशांक राजवंश (गौड़ राज्य) (600–626 ईस्वी गौड़ राजवंश

हर्ष वंश (606–647 ईस्वी)
हर्ष साम्राज्य 10,00,000 30% 648
विम तक्षम (सी. 80–105 ई.), उर्फ सोटर मेगास

गुर्जर-प्रतिहार राजवंश (650–1036 ईस्वी)
गुर्जर-प्रतिहार राजवंश 18,00,000 55% 860 भोज प्रथम (महाराजा) कन्नौज

जेजाकभुक्ति के चन्देल (9वीं से 13वीं शताब्दी)

दिल्ली के तौमर (736–1052 ईस्वी)

सौराष्ट्र के चालुक्य (940–1244 ईस्वी)

सोलंकी राजवंश

मान्यखेत के राष्ट्रकूट (735-982 ईस्वी)
राष्ट्रकूट राजवंश 25,00,000 76% 805 गोविन्द iii (सम्राट) मान्यखेट

पाल साम्राज्य (750–1174 ईस्वी)

मालवा के परमार वंश (9वीं शताब्दी से 1305 ईस्वी)

देवगिरि के यादव (850–1334 ईस्वी)

काबुल शाही वंश

ब्राह्मण शाही वंश (890–964)

शाही वंश (964–1026 ईस्वी)

चन्द्र राजवंश (900-1050)

होयसल राजवंश (1000–1346)

बंगाल के सेन राजवंश (1070-1230 ईस्वी)

पूर्वी गंग राजवंश (1078-1434 ईस्वी)

काकतीय राजवंश (1083–1323 ईस्वी)

कल्याणी (दक्षिणी) वंश के कलचुरि (1130–1184 ईस्वी)

पूर्वी असम के शुतीया राजवंश (1187-1524)

मगदीमंडालम का बान वंश (1190–1260 )

दिल्ली सल्तनत काल  (1206-1526)
दिल्ली का मामलुक (गुलाम) वंश (1206-1290)
खिलजी वंश (1290–1320)
तुगलक वंश (1321-1414)
जौनपुर सल्तनत (1394-1479)
सैय्यद वंश (1414-1451)
लोदी वंश (1451-1526)
बहमनी सल्तनत (1347-1527)
मालवा सल्तनत (1392-1562)
गौरी (1390-1436)
खिलजी (1436-1535)
गुजरात के तहत (1530-1534)
बिदार शाही वंश (1489-1619)
इमाद शाही (बिरार) वंश (1490–1572)
आदिल शाही वंश (1490-1686) बीजापुर सल्तनत
निज़ाम शाही वंश (1490-1636) दक्षिण के सल्तनत
कदिरीद

कुशवाहा (कच्छवाहा) राजवंश जयपुर - 
राजा भगवंत दास (1527 - से 4 दिसंबर 1589) आमेर राज्य के 23वें कछवाहा राजपूत शासक थे। उन्होंने 1586 में कुछ महीनों के लिए लाहौर और काबुल के सूबेदार के रूप में भी कार्य किया। उनकी बहन हरका देजी, जिन्हें बाद में "मरियम-उज़-ज़मानी" के नाम से जाना जाता था, मुगल सम्राट अकबर की मुख्य पत्नी थीं। उनके बेटे मान सिंह प्रथम, अकबर के नवरत्नों में से एक, उनके दरबार के सर्वोच्च पदस्थ अधिकारी बने और उनकी बेटी, मनबावत देजी या मानबाई,  जहांगीर (पूर्व में राजकुमार सलीम) की पहली और मुख्य पत्नी थीं।
भगवंत दास अकबर के सेनापतियों में से एक थे, जिन्होंने उन्हें 1585 में 5000 की मनसब (पदवी) से सम्मानित किया और उन्हें अमीर-उल-उमरा (शाब्दिक रूप से 'मुख्य कुलीन') की उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने पंजाब, कश्मीर और अफगानिस्तान में लड़ाईयों सहित अकबर के लिए कई लड़ाइयाँ लड़ीं, और वे काबुल के गवर्नर भी थे। भगवंत दास ने कश्मीरी राजा, युसुफ शाह चक की सेना को बुरी तरह पराजित किया।
उन्होंने अपनी बेटी, मानबाई का विवाह राजकुमार सलीम से किया, जिन्होंने बाद में सम्राट जहांगीर के रूप में गद्दी संभाली। उनकी संतान जहांगीर का सबसे बड़ा बेटा, ख़ुसरो मिर्जा था।
4 दिसंबर 1589 को लाहौर में टोडर माल के अंतिम संस्कार में शामिल होने के कुछ ही समय बाद, भगवंत दास का उल्टी और रक्तमेह के दौरे के बाद निधन हो गया। उस समय, अकबर ने भगवती देवी से अपने बड़े बेटे और उत्तराधिकारी मान सिंह प्रथम को शोक का फ़रमान जारी किया, जिसमें राजा और दयालु संदेश सभी आधारों से परे लिखे गए थे और उन्हें अपने सम्मान के कपड़े और एक अंगरक्षक का घोड़ा भेजा गया था। उन्होंने आगे उन्हें उनके पिता की मृत्यु के कारण राजा की उपाधि भी प्रदान की। उनके दूसरे बेटे, माधो सिंह, भांगर के शासक बने।


कुतब शाही वंश (1518–1687) गोलकोण्डा
                     कुली कुतुब शाह
मुहम्मद कुली कुतुब शाह गोलकुंडा की कुतुबशाही वंश के पाँचवें सुल्तान थे। उन्हें दक्षिण-मध्य भारत के हैदराबाद शहर का संस्थापक और इसके स्थापत्य कला के केंद्रबिंदु, चारमीनार के निर्माता के रूप में जाना जाता है। वे एक कुशल प्रशासक थे और उनका शासनकाल कुतुबशाही वंश के सबसे गौरवशाली समयों में गिना जाता है।  मुहम्मद कुली कुतुब शाह, इब्राहिम कुली कुतुब शाह वली और हिंदू माता भागीरथी के तीसरे पुत्र थे। वे एक निपुण कवि थे और फारसी, तेलुगु और उर्दू में कविता लिखते थे। उर्दू भाषा के पहले लेखक के रूप में, उन्होंने फ़ारसी दीवान शैली में अपनी कविताएँ रचीं, जिनमें एक ही विषय से संबंधित छंद होते थे, जिन्हें "ग़ज़ल-ए-मुसलसल" कहा जाता है। मुहम्मद कुली के "कुलियात" में 1800 पृष्ठों के लेखन शामिल थे, जिनमें से आधे से अधिक ग़ज़लें थीं, एक सौ पृष्ठों पर क़सीदे थे, जबकि बाकी में 300 से अधिक पृष्ठों पर मसनवी और मर्सिये थे। मुहम्मद कुली कुतुब शाह का शासनकाल कुतुबशाही वंश के लिए महान समृद्धि और सांस्कृतिक विकास का समय था। वे एक कुशल प्रशासक और सैन्य नेता थे, और उन्होंने राज्य के क्षेत्र का विस्तार किया और इसकी अर्थव्यवस्था को मजबूत किया। वे कला और विज्ञान के संरक्षक भी थे, और उन्होंने कई मस्जिदें, महल और अन्य सार्वजनिक कार्य बनवाए।
1591 में, मुहम्मद कुली कुतुब शाह ने मुसी नदी के तट पर हैदराबाद शहर की स्थापना की। यह शहर जल्द ही व्यापार और वाणिज्य का एक प्रमुख केंद्र बन गया, और यह आज भी भारतीय राज्य तेलंगाना की राजधानी है।
चारमीनार हैदराबाद के सबसे प्रतिष्ठित स्थलों में से एक है। इसे मुहम्मद कुली कुतुब शाह ने 1591 में बनवाया था। चारमीनार एक चार मीनारों वाला स्मारक है जो 184 फीट ऊंचा है। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है और हैदराबाद के समृद्ध इतिहास और संस्कृति का प्रतीक है। मुहम्मद कुली कुतुब शाह का 1612 में 47 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके बाद उनके बेटे, सुल्तान मुहम्मद कुतुब शाह ने गद्दी संभाली। मुहम्मद कुली कुतुब शाह को कुतुबशाही वंश के सबसे कुशल और उदार शासकों में से एक के रूप में याद किया जाता है। उन्हें दक्षिण भारत में गोलकुंडा साम्राज्य को एक प्रमुख शक्ति में बदलने का श्रेय दिया जाता है। उन्हें कला के संरक्षक के रूप में भी याद किया जाता है, और हैदराबाद शहर की स्थापना के लिए भी।

असम के आहोम राजवंश (1228–1826)
बारो-भुइयां (1576-1632)
मुसुनुरी नायक (1323–1368)
रेड्डी राजवंश (1325-1548)
विजयनगर साम्राज्य (1336-1646)
संगम राजवंश (1336-1487)
त्रिपुरा राज्य (1463-1949)
सुलुव राजवंश (1490–1567)
तुलुव राजवंश (1491–1570)
अरावती राजवंश (1565-1680)
मैसूर का साम्राज्य
ओडेयर राजवंश (पहला शासन, 1371-1761)
मैसूर के हैदर अली का राजवंश (1761-1799)
ओडेयर राजवंश (दुसरा शासन, 1371-1761)
गजपति राजवंश (1434–1541 )
कोचीन के महाराजा (पेरम्पादापू स्वरूपम, 1503-1964)
मुगल साम्राज्य (1526-1857)
मेवाड़ शिशोदिया राजवंश
सूरी साम्राज्य (1540–1555)
चोग्याल, सिक्किम और लद्दाख के सम्राट (1642-1975)

मराठा साम्राज्य (1674-1818)
मराठा साम्राज्य 28,00,000 85% 1760 बालाजी बाजीराव पेशवा (पेशवा) रायगढ़ 
छत्रपति शिवाजी महाराज युग
कोल्हापुर में भोसले छत्रपति (1700-1947)
सतारा में भोसले छत्रपति (1707-1839)
पेशवा (1713-1858)
तंजावुर के भोसले महाराजा (1799)
नागपुर के भोसले महाराजा (1799-1881)
इंदौर के होलकर शासक (1731-1948)
ग्वालियर के सिंधिया शासक (1731-1947) ग्वालियर रियासत
बड़ौदा के गायकवाड़ राजवंश (1721-1947)
मालवा के सुल्तान - 
बाज बहादुर खान मालवा सल्तनत का अंतिम सुल्तान था, जिसने 1555 से 1562 तक राज्य किया। वह अपने पिता शुजाअत खान के बाद गद्दी पर बैठा था।  वह रूपमती के साथ अपने प्रेम संबंध के लिए जाना जाता है।एक सुल्तान के रूप में, राज्य की देखभाल करने या एक मजबूत सेना बनाने में बाज बहादुर की दिलचस्पी नहीं थी। उसे कला और रूपमती से ज्यादा लगाव था। उसे एक खूबसूरत हिंदू चरवाहे रूपमती से प्यार हो गया और उसने रीवा कुंड का भी निर्माण करवाया। यह मांडू में निर्मित जलाशय है, जिसे नर्मदा नदी तक ले जाने के लिए एक जलसेतु से जोड़ा गया था। मुगलों ने उसे हरा दिया और उसकी प्रेमिका रूपमती को बंदी बना लिया। इस घटना के बाद रूपमती ने आत्महत्या कर ली।
बाज बहादुर की राजधानी मांडू (अब मध्य प्रदेश में) थी, जो बाद में मुगल साम्राज्य का एक महत्वपूर्ण शहर बन गया। जहाज महल मांडू में ही स्थित है।
।               बाजबहादुर और रूपवती

                       मुर्शीद अली खान 
मुर्शिद कुली खान (लगभग 1660 – 30 जून 1727), जिन्हें मोहम्मद हादी के नाम से भी जाना जाता है और जो जन्म से सूर्य नारायण मिश्रा थे, बंगाल के पहले नवाब थे, जिन्होंने 1717 से 1727 तक शासन किया। दक्कन पठार में एक हिंदू परिवार में लगभग 1670 में जन्मे मुर्शिद कुली खान को मुगल दरबारी हाजी शफी ने खरीदा था। शफी की मृत्यु के बाद, उन्होंने विदर्भ के दिवान के अधीन कार्य किया, जहां उनकी योग्यता ने तत्कालीन सम्राट औरंगज़ेब का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने उन्हें 1700 के आसपास बंगाल का दिवान नियुक्त किया। हालांकि, उनकी नियुक्ति से प्रांत के सूबेदार अज़ीम-उस-शान के साथ खूनी संघर्ष हुआ। 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, उन्हें अज़ीम-उस-शान के पिता मुगल सम्राट बहादुर शाह प्रथम ने दक्कन पठार में स्थानांतरित कर दिया। लेकिन 1710 में उन्हें फिर से बंगाल का डिप्टी सूबेदार बनाया गया। 1717 में, उन्हें फर्रुखसियर ने मुर्शिदाबाद का नवाब नाज़िम नियुक्त किया। अपने शासनकाल के दौरान, मुर्शिद कुली खान ने जमीन प्रबंधन प्रणाली में महत्वपूर्ण सुधार किए, जिसमें उन्होंने जागीरदारी प्रणाली को बदलकर माल जास्मानी प्रणाली लागू की, जो बाद में जमींदारी प्रणाली में परिवर्तित हो गई। उन्होंने मुगल साम्राज्य को राज्य से राजस्व भेजना जारी रखा। मुगल सम्राटों से उन्हें कई खिताब मिले, जैसे कार्तलब खान, मुर्शिद कुली खान, जाफर खान और मुतमिन अल-मुल्क आला'उद-दौला जाफर खान नासिरी नासिर जंग बहादुर। उन्होंने मुर्शिदाबाद में कत्रा मस्जिद का निर्माण किया, जहां उनकी मृत्यु के बाद उन्हें सीढ़ियों के नीचे दफनाया गया। 30 जून 1727 को उनकी मृत्यु के बाद, उनके दामाद शुजा उद दीन मुहम्मद खान ने उनकी जगह ली। औरंगज़ेब ने क़ुली खान को 1700 के आसपास बंगाल का दिवान नियुक्त किया था। उस समय, मुगल सम्राट का पोता अज़ीम-उस-शान प्रांत का सूबेदार था। वह इस नियुक्ति से खुश नहीं था क्योंकि वह बंगाल से एकत्र किए गए राजस्व का उपयोग औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुगल सिंहासन पर कब्जा करने के अपने अभियान को वित्तपोषित करने के लिए करना चाहता था। क़ुली खान की नियुक्ति के तुरंत बाद, उन्होंने जहांगीरनगर (वर्तमान में ढाका) जाकर अज़ीम-उस-शान के अधिकारियों को अपने अधीन कर लिया, जिससे अज़ीम-उस-शान नाराज हो गया। अज़ीम-उस-शान ने क़ुली खान की हत्या की योजना बनाई। सैनिकों के वेतन न मिलने का फायदा उठाकर, उसने उन्हें समझाया कि इसके लिए क़ुली खान जिम्मेदार हैं। उसने सैनिकों को यह विश्वास दिलाया कि वेतन की मांग के बहाने क़ुली खान को घेर लें और फिर उसे मार डालें। लेकिन, क़ुली खान को इस योजना का पता था और उन्होंने सैनिकों से कहा कि अगर वे उन्हें मारेंगे तो उन्हें औरंगज़ेब के क्रोध का सामना करना पड़ेगा। अज़ीम-उस-शान इस घटना से चिंतित हो गया और क़ुली खान ने यह दिखाया कि उन्हें कुछ भी पता नहीं है। क़ुली खान ने खुद को ढाका में असुरक्षित महसूस किया और इसलिए उन्होंने दीवानी कार्यालय को मुर्शिदाबाद स्थानांतरित कर दिया। यह शहर बंगाल के मध्य भाग में स्थित था और गंगा नदी के किनारे होने के कारण यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण स्थल था। 1703 में, औरंगज़ेब ने अज़ीम-उस-शान को बिहार स्थानांतरित कर दिया और फर्रुखसियर को बंगाल का औपचारिक सूबेदार नियुक्त किया। मुर्शिदाबाद तेजी से व्यापार और प्रशासन का केंद्र बन गया।
क़ुली खान के शासनकाल के दौरान, हिंदू प्रजा की स्थिति भी अच्छी थी। वह मुख्यतः हिंदुओं को राजस्व विभाग में नियुक्त करते थे क्योंकि उन्हें इस क्षेत्र में विशेषज्ञ माना जाता था और वे धाराप्रवाह फ़ारसी भी बोल सकते थे। लगभग 1720 में, क़ुली खान ने चावल के निर्यात पर रोक लगा दी, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि स्थानीय खाद्य सुरक्षा बनी रहे। उनके प्रशासनिक सुधार और आर्थिक नीतियां बंगाल की भावी सरकारों के लिए एक मजबूत नींव बनीं।
मुर्शिद कुली खान की विरासत में मुर्शिदाबाद में कत्रा मस्जिद का निर्माण शामिल है, जहां उनकी मृत्यु के बाद उन्हें दफनाया गया। 30 जून 1727 को उनकी मृत्यु के बाद, उनके दामाद शुजा उद दीन मुहम्मद खान ने उनकी जगह ली। उनका शासन प्रशासनिक सुधारों, आर्थिक रणनीतियों और बंगाल में विभिन्न समुदायों के सामंजस्यपूर्ण समावेशन के लिए याद किया जाता है।

मुगल/ब्रिटिश प्रभुत्व के मुस्लिम जागीरदार (1707-1856)
बंगाल के नवाब (1707-1770)
अवध के नवाब (1719-1858)
हैदराबाद के निज़ाम (1720–1948)
त्रवनकोर का साम्राज्य (1729-1947)
सिख साम्राज्य (1801-1849)
भारत के सम्राट/महारानी (1857-1947)
भारत गणराज्य (1947-1950)
पाकिस्तान गणराज्य (1947-1956)

मध्यकाल में महिला सशक्तिकरण - 
रज़िया सुल्तान, नूरजहां, जहांआरा, चांद बीबी से लेकर बेग़म हज़रत महल तक वो महिलाएं जिन्होंने अपने दम पर इतिहास लिखा। ख़ुद की अलग पहचान बनाई। 

तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

असरारुल हक़ की इस नज़्म को 800 साल पहले हक़ीक़त कर दिखाया।
                          महाम अंगा 
महाम अंगा, 16वीं सदी के मध्य मुगल साम्राज्य में एक ताकतवर महिला थीं। दरबार में वह कोई साधारण महिला नहीं थीं, बल्कि भविष्य के सम्राट अकबर की दाई माँ और पालनहार थीं। इस रिश्ते के कारण उन्हें खासा प्रभाव रखने का मौका मिला, जिसका उन्होंने बखूबी फायदा उठाया।
महाम अंगा का दायित्व सिर्फ अकबर की देखभाल तक सीमित नहीं था। वह एक चालाक और महत्वाकांक्षी महिला थीं। जैसे-जैसे अकबर बड़े हो रहे थे, वैसे-वैसे उन्होंने सत्ता हथियाने का मौका देखा। उन्होंने उस वक्त मात्र 17 वर्षीय सम्राट अकबर को उनके संरक्षक और बादशाह बैराम खान की जरूरत नहीं होने का भरोसा दिला दिया। इस घटना ने 1560 से 1562 के बीच थोड़े समय के लिए महाम अंगा को साम्राज्य की वास्तविक शासिका बना दिया।
महाम अंगा का शासन विवादों से भरा रहा। उन्हें अपने बेटे आदम खान को तरजीह देने और दरबार में उसका ओहदा बढ़ाने के लिए जाना जाता था। यही उनकी कमजोरी साबित हुई। आदम खान की हिंसक कारनामों के चलते अकबर के आदेश से उसे मौत के घाट उतार दिया गया। कहा जाता है कि इस घटना ने महाम अंगा को तोड़कर रख दिया और 1562 में ही उनकी मृत्यु हो गई।
विवादों के बावजूद, अकबर पर महाम अंगा के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने अकबर के शुरुआती शासन में अहम भूमिका निभाई और भारत में मुगल सत्ता को मजबूत करने में मदद कीं। उनकी कहानी मुगल दरबार की जटिलताओं और शाही परिवार से बाहर की महिलाओं के प्रभाव की एक झलक पेश करती है।
          नूर बाई और मोहम्मद अली रंगीला 

नूर बाई और कोहिनूर - 
मुगलों के जमाने में, दरबारी महिलाओं का रिवाज काफी मशहूर था इनको "तवायफ" कहा जाता था। ये खूबसूरत महिलाएं सिर्फ नाचने गाने वाली नहीं थीं बल्कि शायरी, शिष्टाचार, और बातचीत करने में भी उस्ताद हुआ करती थीं। उन्हें शाही खानदानों में बहुत इज्जत दी जाती थी। कुछ तवायफों को तो खुद बादशाहों से तालीम हासिल करने का मौका भी मिलता था।  नूरबाई ऐसी ही एक तवायफ थीं जो अपनी बेमिसाल खूबसूरती, तीखे दिमाग और मोटे खर्च के लिए मशहूर थीं। सिर्फ अमीर और शहजादे ही उनकी महफिल सजाने का खर्च उठा सकते थे।
नूरबाई बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला की खास बन गईं और उन्हें बादशाह के खास महल में जाने की इजाजत मिल गई। वहां उन्होंने कोहिनूर हीरे के बारे में जाना जो एक गुप्त राज था। ये हीरा बादशाह की पगड़ी में छुपा रहता था लेकिन नूर बाई ये राज़ अपने दिल में न रख सकीं। जब दिल्ली पर नादिर शाह ने हमला किया तो नूर बाई ने जाकर उन्हें कोहिनूर हीरे के बारे में बता दिया। नादिर शाह ने बादशाह को धोखा देने के लिए एक चाल चली। उन्होंने एक रस्म रखी जिसमें दोनों बादशाह अपनी पगड़ियां बदलते इसी दौरान नादिर शाह ने वो हीरा हासिल कर लिया।  नूरबाई के गद्दारी की वजह से कोहिनूर हीरा हिंदुस्तान से चला गया। ये हीरा एक लंबे सफर पर निकला जिसमें बहुत खून-खराबा हुआ। आखिरकार ये ब्रिटिश राजशाही के पास जा पहुंचा और वहीं है।

गोरी साम्राज्य
  1 - 1193 मोहम्मद गौरी
  2 - 1206 कुतुबुद्दीन ऐबकी
  3 - 1210 - 
  4 - 1211 - 
  5 - 1236 रकिनुद्दीन फ़िरोज़ शाह
  6 - 1236 रजिया सुल्तान
  7 - 1240 मोजद्दीन बहराम शाह
  8 - 1242 अल-दीन मसूद शाह
  9 - 1246 नसीरुद्दीन महमूदी
  10 - 1266 गयासुद्दीन बलबन
  11 - 1286 - 
  12 - 1287 मस्जिद के कबड्डी
  13 = 1290 शमसुद्दीन कमर
  गौरी साम्राज्य का अंत

 खिलजी साम्राज्य
  1 - 1290 जलालुद्दीन फ़िरोज़ खिलजी
  2- 1292 अलाउद्दीन खिलजी
अलाउद्दीन खिलजी (वास्तविक नाम अलीगुर्शप 1296-1316) दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का दूसरा शासक था। उसका साम्राज्य अफगानिस्तान से लेकर उत्तर-मध्य भारत तक फैला था। इसके बाद इतना बड़ा भारतीय साम्राज्य अगले तीन सौ सालों तक कोई भी शासक स्थापित नहीं कर पाया था।
20 जुलाई सन 1296 खिलजी वंश के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के तख्त पर आसीन हुए। मध्यकालीन भारतीय इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी का नाम कई प्रशासनिक एवं सैन्य कार्यों को अंजाम देने में चर्चित रहा है। अलाउद्दीन ने उस समय भारत पर मंडरा रहे मंगोलों के खतरे से हिफाजत की। वही मंगोल जिनका उद्देश्य लोगों को मारना और लूटपाट था। अलाउद्दीन ने इसके लिए सैनिकों को नगद वेतन देने, घोड़ा दागने एवम् सैनिकों के हुलिया दर्ज करने की प्रथा आरंभ की। बाज़ार नियंत्रण प्रणाली को इतनी सख़्ती से लागू किया कि यदि कोई व्यापारी सामान कम तौलता तो उतना ही उसके शरीर से मांस काट लिया जाता था। जब मंगोलों ने दिल्ली में घुसपैठ की तो उनको हाथी से कुचलवाकर सिरी किले की नींव में उनके सरो को दफन किया गया । कुछ के सरों को चोर मीनार में लोगों को दिखाने के लिए टांग दिए गए। 
लेखक मालिक मोहम्मद जायसी ने अलाउद्दीन खिलजी के बारे में कुछ अनर्गल लिखा है जो सत्य प्रतीत नहीं होता और इसे राजस्थान के इतिहासकार भी गलत ठहराते हैं।
                      अलाउद्दीन खिलजी 
               अलाउद्दीन खिलजी की मजार

सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी के गुज़र जाने के सेकडो बरस बाद भी लोग उनके दौर को ये कह कर हसरत से याद करते रहे की मरहूम सुल्तान के वक़्त में रोटी की इतनी क़ीमत नहीं थी और ज़िन्दगी बसर करना इतना मुश्किल नहीं था। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के दौर में 11 ग्राम चांदी के एक सिक्के के एवज़ में 85 किलो गेंहू मिला करता था। खाने की चीज़ों के ऐसे कम दाम उनकी हुकूमत के ख़त्म होने तक क़ायम रहे। बारिश हो या ना हो, फ़सल अच्छी हो या ख़राब हो जाये, खाने की चीज़ों के दाम रत्ती भर भी नहीं बढ़ते थे।
  4=1316 शहाबुद्दीन उमर शाह
  5 = 1316 कुतुबुद्दीन मुबारक शाह
  6 = 1320 नसीरुद्दीन खुसरो शाह
  खिलजी साम्राज्य का अंत

तुगलक साम्राज्य
दिल्ली सल्तनत (तुगलक) 32,00,000 97% 1312 मुहम्मद बिन तुगलक (सुल्तान) दिल्ली
  1 = 1320 गयासुद्दीन तुगलक (प्रथम)
  2 = 1325 मोहम्मद इब्न तुगलक (द्वितीय)
  3 = 1351 फिरोज शाह तुगलक
  4 = 1388 गयासुद्दीन तुगलक (द्वितीय)
  5 = 1389 अबू बकर शाह
  6 = 1389 मोहम्मद तुगलक (सोम)
  7 = 1394 - 
  8 = 1394 नसीरुद्दीन शाह (द्वितीय)
  9=1395 नुसरत शाह
  10 = 1399 नसीरुद्दीन मोहम्मद शाह (द्वितीय)
  11 = 1413 - 
  तुगलक साम्राज्य का अंत

  सईद वंश
  1 = 1414 पाम खान
  2 = 1421 मुइज़ुद्दीन मुबारक शाह (द्वितीय)
  3 = 1434 मुहम्मद शाह (चतुर्थ)
  4 = 1445 अल्लाह आलम शाह
  सईद साम्राज्य का अंत

  लोधी साम्राज्य
  1 = 1451 बहलोल लोधी
  2 = 1489 लोधी (द्वितीय)
  3 = 1517 इब्राहीम लोधी
  लोधी साम्राज्य का अंत

 मुगल साम्राज्य - (मुगल फारसी शब्द है जिसका हिंदी अर्थ है मंगोल)

 बाबर (फारसी शब्द का  हिंदी अर्थ चिता/पैंथर)
बाबर फ़रग़ना से भारत आया। बाबर 1494 में फ़रग़ना के सिंहासन के लिए सफल हुआ जब वह केवल 12 वर्ष का था। उसे उज़बेक्स (मंगोल दल) के आक्रमण के कारण अपने पैतृक सिंहासन को छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था। वह अपने पिता की तरफ से तैमूर का वंशज था और अपनी मां की तरफ से चंगेज़ खान का वंशज थाआलम खान और दौलत खान ने बाबर को भारत आने का न्योता भेजा।
1530 को आगरा में बाबर की मृत्‍यु हो गई। उसके शव को अस्‍थाई रूप से जमुना पार चार बाग में रखा गया और बाद में उसकी इच्‍छानुसार काबुल ले जाकर अंतिम रूप से दफना दिया गया। बाबर की मृत्‍यु के चार दिन बाद 30 दिसम्‍बर 1530 को हुमायूं आगरा के सिंहासन पर बैठा।अन्तिम दिन कहा जाता है कि अपने पुत्र हुमायूँ के बीमार पड़ने पर उसने अल्लाह से हुमायूँ को स्वस्थ्य करने तथा उसकी बीमारी खुद को दिये जाने की प्रार्थना की थी। इसके बाद बाबर का स्वास्थ्य बिगड़ गया और अंततः वो 1530 में 48 वर्ष की उम्र में मर गया। उसकी इच्छा थी कि उसे काबुल में दफ़नाया जाए पर पहले उसे आगरा में दफ़नाया गया था
                 राजा हसन खान मेवाती 
                           राणा सांगा 
                जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर 
गोला बारूद और बाबर
भारत में बारूद लाने वाला बाबर था। देश के इतिहास की बात करे तो 1193 में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली की सत्ता पर कब्जा कर लिया। जो 1526 तक चलती रही। 1526 में राणा सांगा (महाराणा प्रताप के दादा) ने दिल्ली पर कब्जा करने की रणनीति बनाई परंतु इस लायक ताकत न होने पर पहले दौलत खां लोदी (इब्राहिम लोदी का भतीजा) को अपने साथ मिलाया। फिर साजिश रचकर बाबर को भारत आने की दावत दी। ये बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजुक ए बाबरी में लिखा है। जो तुर्की भाषा में है।
अब यहां राणा सांगा ने सोचा कि बाबर भी तैमूर लंग की तरह इब्राहिम लोदी को हराकर वापस चला जाएगा और फिर वो आराम से दिल्ली पर कब्जा करने में कामयाब हो जाएगा।  21 अप्रैल 1526 को बाबर अपने 12000 घुड़सवारों के साथ पानीपत के मैदान में आकर जम गया। इब्राहिम लोदी अपने 1 लाख सैनिकों के साथ सामने था। लेकिन यहां बाबर ने इब्राहिम लोदी की सेना पर अपने तोपखाने का इस्तेमाल किया। अब भारतीयों के लिए बारूद बिल्कुल नई नवेली चीज थी। इब्राहिम लोदी के पास न तोपखाना था और न ही उसका साथ दे रहे किसी राजपुत राजा के पास। हालत ये हुए कि तोपो के गोलों के सामने इब्राहिम की सेना की अग्रिम पंक्ति में खड़े हाथी भड़क कर भाग खड़े हुए और अपनी ही सेना को कुचल डाला। बाबर ने अपनी बारूद के दम पर इस युद्ध को दोपहर से पहले ही खत्म कर दिया और खुद को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया। राणा सांगा ने बाबर को बुलाया इसलिए था कि वह दिल्ली का राजा बने, इसलिए बाबर को फिर तीन युद्ध और लड़ने पड़े। 

बाबर ने काबुल में रहते हुए राणा सांगा से समझौता किया कि वह इब्राहीम लोधी पर आगरा की ओर से और बाबर उत्तर की ओर से आक्रमण करे। बाबर ने दिल्ली और आगरा पर अधिकार करने के बाद राणा पर अविश्वास का आरोप लगाया। राणा सांगा ने बाबर पर आरोप लगाया कि उसने कालपी, धौलपुर और बयाना पर अधिकार कर लिया जबकि समझौते की शर्तोँ के अनुसार ये स्थान सांगा को ही मिलने चाहिए थे। सांगा ने सभी राजपूत राजाओं को बाबर के विरुद्ध इकठ्ठा कर लिया और सन 1528 में खानवा के मैदान में बाबर और सांगा के बीच युद्ध हुआ।उस समय मेवात के राजा हसन खान मेवाती थे। हसन खान मेवाती की वीरता सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध थी। बाबर ने राजा हसन खान मेवाती को पत्र लिखा और उस पत्र में लिखा "बाबर भी कलमा-गो है और हसन खान मेवाती भी कलमा-गो है। इस प्रकार एक कलमा-गो दूसरे कलमा-गो का भाई है इसलिए राजा हसन खान मेवाती को चाहिए की बाबर का साथ दे। राजा हसन खान मेवाती ने बाबर को खत लिखा और उस खत में लिखा "बेशक़ हसन खान मेवाती कलमा-गो है और बाबर भी कलमा-गो है, मग़र मेरे लिए मेरा मुल्क(भारत) पहले है और यही मेरा ईमान है, इसलिए हसन खान मेवाती राणा सांगा के साथ मिलकर बाबर के विरुद्ध युद्ध करेगा". सन 1528 में राजा हसन खान मेवाती 12000 हज़ार मेव घुड़सवारों के साथ खानवा की मैदान में राणा सांगा के साथ लड़ते-लड़ते शहीद हो गये। मुल्क़ का नाम लेकर भारतवर्ष में शहीद होने वाले वह पहले व्यक्ति थे।

  1 - 1526 जहीरुद्दीन बाबर
  2 - 1530 हुमायूँ
  मुगल साम्राज्य का अंत

  सुरियन साम्राज्य
                        शेर शाह शूरी
बाबर और हुमायूँ के आगमन के बाद मुगल साम्राज्य में अस्थिरता का दौर आया। ऐसे में शेरशाह सूरी का शासनकाल एक महत्वपूर्ण कालखंड था, जिसे हम "इन्टरवल"  कह सकते हैं। उन्होंने अपने पूरे साम्राज्य में कानून-व्यवस्था बहाल करने में अहम भूमिका निभाई। चोरों, लुटेरों और उन जमींदारों से सख्ती से निपटा गया, जो जमीन का राजस्व नहीं देते थे या सरकारी आदेशों की अवहेलना करते थे। तारीख ए शेरशाही लिखने वाले इतिहासकार अब्बास खान सरवानी उनकी तारीफ करते हुए कहते हैं कि जमींदार उनसे इतने खौफ खाते थे। कि कोई उनके खिलाफ विद्रोह का झंडा नहीं उठाना चाहता था, न ही कोई राहगीरों को परेशान करने की हिम्मत करता था।
शेरशाह ने व्यापार को बढ़ावा देने और यातायात के साधनों में सुधार पर भी बहुत ध्यान दिया। उन्होंने ग्रैंड ट्रंक रोड को फिर से खोल दिया, जो सिंधु नदी से बंगाल के सोनारगांव गाँव तक जाती थी। उन्होंने आगरा से जोधपुर और चित्तौड़गढ़ तक एक सड़क बनाई और इसे गुजरात के बंदरगाहों की ओर जाने वाली सड़कों से जोड़ा। उन्होंने लाहौर से मुल्तान तक एक तीसरी सड़क भी बनवाई। मुल्तान तब पश्चिम और मध्य एशिया की ओर जाने वाले कारवां  का प्रारंभिक बिंदु था। यात्रियों की सुविधा के लिए, उन्होंने इन सड़कों पर हर दो कोस (लगभग आठ किलोमीटर) पर सरायें  बनवाईं। इन सरायों में ठहरने, भोजन और यात्रियों के सामान की सुरक्षा का ख्याल रखा जाता था। हिंदुओं और मुसलमानों के रहने के लिए अलग-अलग व्यवस्था थी। हिंदू यात्रियों को भोजन, बिस्तर और उनके घोड़ों के लिए चारा उपलब्ध कराने के लिए ब्राह्मणों को नियुक्त किया गया था। अब्बास खान बताते हैं कि इन सरायों में नियम यह था कि जो कोई भी आए उसे सरकार की ओर से उसके पद के अनुसार भोजन और उसके जानवरों के लिए चारा और पानी मिलेगा। इन सरायों के आसपास गाँवों को बसाने के प्रयास किए गए और सरायों के खर्चों को पूरा करने के लिए कुछ जमीन भी अलग रखी गई थी। प्रत्येक सराय में एक शाहना के अधीन कुछ चौकीदार होते थे।
कहा जाता है कि शेरशाह ने कुल 1700 सरायें बनवाई थीं। उनमें से कुछ आज भी खड़ी हैं, जिससे उनकी मजबूती का अंदाजा लगाया जा सकता है। शेरशाह का शासनकाल निश्चित रूप से भारतीय इतिहास में एक यादगार अध्याय है, जिसने देश में कानून-व्यवस्था, व्यापार और परिवहन के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
                           जरीब 
जरीब एक ऐसी जंजीर  है जिसका उपयोग लंबाई मापने के लिए किया जाता था। यह भारत में भूमि मापन का एक पारंपरिक तरीका था। एक जरीब की मानक लंबाई 66 फीट या 22 गज होती थी। इसमें 100 कड़ियाँ होती थीं, जिसका मतलब है कि हर कड़ी 0.6 फीट या 7.92 इंच लंबी होती थी। 
जरीब का उपयोग भारत शेरशाह सूरी के काल से होता रहा है। लेकिन अकबर के समय में राजा टोडरमल ने जरीब को शेरशाह के काल से इस्तेमाल होने वाली रस्सी की जरीब से बेहतर बनाया। उन्होंने बाँस के डंडों की कड़ियों वाली जरीब का उपयोग शुरू किया, जो लोहे की पत्तियों से जुड़ी होती थीं। इससे मापन में अधिक सटीकता आ गई।
10 जरीब की दूरी को 1 फर्लांग और 80 जरीब की दूरी को 1 मील कहा जाता था। एक मील लगभग 1.609 किलोमीटर के बराबर होता है।
दक्षिण भारत में, शिवाजी ने रस्सी के माप के बजाय डंडे या लट्ठे का उपयोग मापन के लिए शुरू किया था। मलिक अम्बर ने पहली बार दक्षिण भारत में बाँस वली लोहे की जरीब का उपयोग शुरू किया था। 
जरीब का उपयोग भारत में कई सालों तक भूमि मापन के लिए होता रहा, लेकिन अब इसका उपयोग बहुत कम होता है। आधुनिक समय में, मीटर को लंबाई मापने की मानक इकाई के रूप में अपना लिया गया है।

  1 - 1539 शेर शाह सूरी
  2 - 1545 इस्लाम शाह सूरी
  3 - 1552 महमूद शाह सूरी
  4 - 1553 अब्राहम सूरी
  5 - 1554 परवेज शाह सूरी
  6 - 1554 मुबारक खान सूरी
  सुररियन साम्राज्य का अंत

 मुगल साम्राज्य फिर से
मुग़ल साम्राज्य 44,00,000 138.75% 1690 औरंगज़ेब दिल्ली, आगरा
  1 - 1555 हुमायूँ (फिर से)
  2 - 1556 जलालुद्दीन अकबर
19 मई 1623 में मुगल सम्राट अकबर  की राजपूत पत्नी मरियम उज़ जमानी , मलिका ए हिंदुस्तान की मृत्यु आगरा में हुई। इतिहास के पन्नों में मरियम उज़ जमानी को कई नामों से जाना जाता है। उन्हें हरकाबाई, जोधाबाई व हीरा कुंवारी कहा जाता है। हरकाबाई आमेर के कछवाहा राजपूत राजा भारमल की पुत्री थी। यह अकबर के पुत्र सलीम( जो कि जहांगीर के नाम से मुगल तख्त पर बैठा था) उसकी मां भी थी। बादशाह अकबर ने राजपूत राजकुमारी से विवाह कर इन्हें मलिका ए हिंदुस्तान बनाया एवं जब इन्होंने सलीम को जन्म दिया था तो अकबर ने उन्हें मरियम उज़ ज़मानी बेगम साहिबा के खिताब से नवाजा था। 
बादशाह अकबर और हरकाबाई का विवाह राजनीतिक कारणों से हुआ था। इसे हम अकबर द्वारा राजपूतों को विवाह के ज़रिए से मुगलों में मिलाने की फेहरिस्त में रख सकते है। 6 फ़रवरी 1562 को सांभर (राजस्थान) में अकबर और हरकाबाई का विवाह हिन्दू व मुस्लिम रीति रिवाज़ो के मुताबिक़ संपन्न हुआ। वैसे तो मध्यकालीन भारत में हिन्दू मुस्लिम विवाहों के कई उदाहरण हमारे सामने मौजूद है किन्तु वहां केवल शादी के बाद दूसरे पक्ष को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था।अकबर ने इससे अलग रास्ता इख्तियार किया। 
अकबर ने जोधाबाई को इस्लाम धर्म को अपनाने पर जोर नहीं दिया बल्कि उन्हें अपने धर्म को मानने की ही पूर्ण स्वतंत्रता दी। इसके लिए फतेहपुर सीकरी में एक जोधाबाई महल बनवाया गया। जिसके भीतर एक हिन्दू मंदिर भी मौजूद था। लाल बलुआ पत्थर से बना यह महल इंडो इस्लामिक स्थापत्य शैली के समन्वय को दर्शाता है। इसमें हिन्दू मंदिरों में इस्तेमाल होने वाले स्तंबो का लगाया गया है।
अकबर ने राजपूत राजकुमारियों से शादी कर उनके परिजनों से संबंध बनाए रखे।उन्हें दरबार में ऊंचे अोहदे प्रदान किया। राजा भारमल को उच्च पद प्राप्त हुआ। हरकबाई का भाई भगवान दास को 5000 मनसब मिले वहीं भगवान दास का पुत्र मान सिंह 7000 हज़ार मनसब तक पहुंचा। भगवानदास की बेटी शाह बेगम की शादी जहांगीर के साथ हुई थी। जो कि खुसरो मिर्ज़ा की मां थी। खुसरो मिर्ज़ा ने अपने बाप के विरूद्ध विद्रोह किया था।
हरकाबाई के तीन पुत्र हुए किन्तु एक भी जिंदा नहीं रहा। ऐसे में अकबर को ज्योतिषों ने बताया कि आप फतेहपुर सीकरी में मौजूद सूफी सलीम चिश्ती के पास जाइए। शायद वे आपकी मदद करें। अकबर सलीम चिश्ती के पास जाते है और उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते है। कुछ समय बाद 1569 में हरकाबाई को एक पुत्र हुआ। जिसका नाम सलीम रखा गया जो कि आगे चलकर जहांगीर के नाम से शासक बना। अकबर सलीम चिश्ती से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने फतेहपुर सीकरी के किले में ही सलीम चिश्ती का मकबरा बनवाया। यह मकबरा संगमरमर पत्थर से निर्मित है। 
मरियम उज़ जमानी को मुगल हरम में बड़ा सम्मान दिया जाता था। उन्हें हरम की मुख्या भी कहा जा सकता है। जहांआरा इससे सम्बन्धित लिखती है " वो एक हिन्दू परिवार से आती है। हमें उनका मूल नाम तो नहीं पता हम उन्हें उनकी उपाधि मरियम उज़ ज़मानी के नाम से जानते है। वे मुगल हरम की सबसे सम्मानित महिला है " 
मरियम उज़ ज़मानी की मृत्यु आगरा में हुई। उन्हें आगरा के सिकंदरा में दफनाया गया। जहांगीर ने उनकी कब्र पर एक भव्य मक़बरा  बनवाया था। इसके अलावा जहांगीर ने उनके सम्मान में एक मरियम उज़ ज़मानी नाम से मस्ज़िद भी बनवाई जो कि लाहौर पाकिस्तान में स्थित है। 
                जोधा बाई (मरियम उज्ज्जमा)
  3 - 1605 जहांगीर
          सलीम उर्फ शेखू उर्फ जहांगीर

नूरजहां, जिनका असली नाम मेहर-उन-निशा था, मुगल सम्राट जहांगीर की सिर्फ बीसवीं पत्नी नहीं थीं, बल्कि वह एक ताकतवर महिला थीं जिन्होंने जहांगीर के शासनकाल में काफी प्रभाव जमाया था. इतिहासकार उन्हें 17वीं सदी के ज़्यादातर समय में असली हुकूम चलाने वाली शख्सियत मानते हैं। मल्लिका बनने का उनका सफर आसान नहीं था. एक रईस फ़ारसी परिवार में जन्म लेने के बाद, उनकी शादी पहले शेर अफगान नाम के एक सैनिक से हुई थी. लेकिन, उस वक्त शहज़ादा सलीम के नाम से जाने जाते जहांगीर को उनसे प्यार हो गया. शेर अफगान की मृत्यु के बाद शोक की अवधि बीतने के बाद आखिरकार 1611 में नूरजहां जहांगीर की बेगम बनीं। उनका रिश्ता उस समय के लिए अनोखा था. नूरजहां सिर्फ एक राजघराने की पत्नी बनकर पर्दे में रहने वाली महिला नहीं थीं. उन्होंने दरबार के मामलों में सक्रिय रूप से भाग लिया. वे जहांगीर को तीखी सलाह देती थीं और उन पर काफी प्रभाव रखती थीं. कला और आराम के शौकीन जहांगीर फैसले लेने के लिए नूरजहां की बुद्धि पर निर्भर करने लगे। नूरजहां का पहले की किसी भी मुगल बादशाह की बेगम से कहीं ज्यादा दबदबा था. उन्हें ऐसे सम्मान मिले जो पहले किसी को नहीं मिले थे, मसलन उनके नाम और तस्वीर वाले सिक्के जारी किए गए. वे एक कुशल राजनीतिज्ञ थीं, उन्होंने गठबंधन बनाए और दरबार में अपनी और अपने परिवार की स्थिति मजबूत करने के लिए कुशलता से काम लिया। नूरजहां की विरासत जटिल है. कुछ लोग उन्हें सत्ता के लिए लालच रखने वाली महिला मानते हैं, वहीं कुछ उनकी बुद्धि और राजनीतिक सूझबूझ को स्वीकार करते हैं. इस बात में कोई शक नहीं कि वह एक अद्भुत महिला थीं जिन्होंने परंपराओं को तोड़ा और मुगल इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।

  4 - 1628 शाहजहाँ
वह मुग़ल शहजादा जिसकी आंखे फोड़कर कर दी गई हत्या 
जहांगीर के सबसे बड़े बेटे ख़ुसरो मिर्जा एक ऐसे राजकुमार थे, जिनमें असाधारण प्रतिभा थी, लेकिन उनका जीवन दुखद घटनाओं से भरा रहा। 1587 में पैदा हुए, वे अपने दादा अकबर के लाडले थे और कविता, दर्शन और राजनीति में जल्दी ही कुशल हो गए थे। अपने सौतेले भाई खुर्रम (बाद में शाहजहाँ) के विपरीत, ख़ुसरो का स्वभाव नम्र था और उनकी बुद्धि तेज थी।
हालाँकि, किस्मत ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। जहांगीर, जो शुरू में अपने बड़े बेटे पर गर्व करते थे, बाद में ख़ुसरो की लोकप्रियता से ईर्ष्या करने लगे और उन्हें सिंहासन के लिए खतरा मानने लगे। बादशाह का ध्यान धीरे-धीरे खुर्रम की ओर बढ़ गया, जो महत्वाकांक्षी और निर्दयी था। इस स्पष्ट पक्षपात ने ख़ुसरो के समर्थकों को नाराज़ कर दिया और विद्रोह की शुरुआत हुई।
अपने अधिकार को वापस पाने की उम्मीद में, उन्नीस साल की उम्र में ख़ुसरो ने अपने पिता के खिलाफ बगावत कर दी। उन्होंने अपने साथी सैनिकों और कुछ असंतुष्ट सरदारों के साथ एक छोटी लेकिन वफादार सेना बनाई। लेकिन, जहांगीर की सेना, जिसकी अगुवाई मिर्जा घियास बेग ने की, ने उनके विद्रोह को जल्दी ही कुचल दिया।
ख़ुसरो को पकड़ लिया गया और उनके पिता के सामने लाया गया। एक दुखद घटना में, गुस्से और दुःख से भरकर, जहांगीर ने अपने बड़े बेटे की आँखें निकालने का आदेश दिया। इस क्रूरता ने पूरे देश को झकझोर दिया और जहांगीर की इज़्ज़त कम हो गई।
अकेले और टूटे हुए, ख़ुसरो ने अपना बाकी का जीवन अंधेरे में बिताया। उनकी एक बार की तेज बुद्धि अब उदासी से भर गई थी और उन्हें बहुत दर्द सहना पड़ा। उन्होंने कविता लिखकर सुकून पाया, जिनमें उन्होंने अपने दुखद जीवन के बारे में लिखा।
अंत में, 1622 में, पैंतीस साल की उम्र में, ख़ुसरो मिर्जा की मृत्यु हो गई। वह पहले के उस होनहार राजकुमार की छाया बन गए थे। उनकी अचानक मौत मुग़ल दरबार में सत्ता के लिए हुए कड़वे संघर्षों की निशानी बन गई और यह दिखाती है कि महत्वाकांक्षा की कीमत कितनी भारी हो सकती है।

शाहजहाँ ने कई यादगार इमारतों का निर्माण करवाया।इन इमारतों का डिजाइन जहाँआरा बेगम द्वारा तैयार करवाया ज्ञात। 17वीं सदी के मुगल वास्तुकला को आकार देने में उनकी अहम भूमिका रही है। इतिहासकार हरबर्ट चार्ल्स फानशॉ अपनी किताब "मुगल आर्किटेक्चर" (1902) में लिखते हैं कि जहाँआरा को न सिर्फ डिजाइन की गहरी समझ थी बल्कि मुगल सौंदर्यशास्त्र की भी बारीक पसंद थी।
उनका प्रभाव सबसे ज्यादा 1648 में उनके पिता द्वारा स्थापित नई राजधानी शाहजहानाबाद के ढांचे और नक्शे में दिखाई देता है। जहाँआरा ने शाहजहानाबाद की अठारह इमारतों में से पांच बनवाने में अहम भूमिका निभाई, जिन्हें औरतों ने बनवाया था। उनका सबसे मशहूर योगदान बेशक चांदनी चौक है, जो शाहजहानाबाद की रग-रग में बहता मुख्य बाज़ार है। 
फ्रांस्वा बैर्नियर, एक फ्रांसीसी डॉक्टर जो मुगल दरबार में सेवा करता था, ने अपनी किताब में चांदनी चौक की तुलना पेरिस के शानदार पाले रॉयल से की थी ।  जहाँआरा के समय चांदनी चौक में एक खूबसूरत सराय (सड़क के किनारे का सराय) और बारीकी से सजाए हुए बाग़ भी हुआ करते थे। चांद की रोशनी को दर्शाती हुई बीच की नहर, जिसकी बैर्नियर ने भी तारीफ की थी, इस व्यापारिक केंद्र की खूबसूरती को और बढ़ाती थी।
जहाँआरा की विरासत सिर्फ शाहजहानाबाद की दीवारों तक ही सीमित नहीं है। उन्हें 1648 में बनकर पूरी हुई आगरा की भव्य जामा मस्जिद के निर्माण का भी श्रेय दिया जाता है। पूरी तरह से अपने ही ख़र्च से बनवाई गई। उसी तरह, उन्होंने जामा मस्जिद से जुड़े एक मदरसे (इस्लामी शिक्षा का विद्यालय) की भी स्थापना की, जो उनकी आस्था और तालीम दोनों के लिए जुनून को दर्शाता है।
जहाँआरा का स्थापत्य प्रभाव भले ही सीधा नज़र ना आए, लेकिन वो निर्विवाद है। उनके सूझ-बूझ भरे फ़ैसलों और कुशल संरक्षण ने मुगल भारत की भव्यता को निखारने में मदद की। उनकी ये विरासत आज भी हमारे बीच है - हलचल भरे बाज़ार, शांत उद्यान और शानदार मस्जिदें, जो हमें आज भी मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

  5 - 1659 औरंगजेब
दिल्ली में शालीमार बाग़ नाम की एक बड़ा और सुंदर बगीचा हुआ करता था। इस बगीचे में एक शानदार महल था, जिसे शीश महल कहते थे। 31 जुलाई 1658 में, इसी शीश महल में औरंगज़ेब को बादशाह बनाया गया। यह एक बहुत ही बड़ा और खास मौका था, क्योंकि इससे मुग़ल बादशाह के तौर पर औरंगज़ेब का राज़ शुरू हुआ और उनके पिता शाहजहाँ का राज़ खत्म हुआ।

  6 - 1707 शाह आलम (प्रथम)
  7 - 1712 बहादुर शाह
  8 - 1713 - 
  9 - 1719 - 
  10 - 1719 - 
  11 - 1719 - 
  12 - 1719 महमूद शाह
  13 - 1748 अहमद शाह
  14 - 1754 - 
  15 - 1759 शाह आलम
  16 - 1806 अकबर शाह
  17 - 1837 बहादुर शाह ज़फ़र 
दुनिया की सबसे अमीर सलतनत मुग़ल-सल्तनत को तबाह करने वाला शख्स और दुनिया का सबसे क़ीमती हीरा दरिया ए नूर (कोहिनूर)और अकबर बादशाह द्वारा बनाया मुग़ल सिहासन को हिंदुस्तान से ले जाने वाला बादशाह नादिर शाह का 19 जून 1747 को क़त्ल कर दिया गया।
नादिर शाह के कत्ल की साज़िश उसके दरबारियों ने ही रची थी जिसमे उसके दो निजी गार्ड मुहम्मद कुली खान और नादिर के घर का देखरेख करने वाले सलाहा खान शामिल था। एक चरवाहे के घर पैदा हुआ नादिर शाह ने बादशाहत तक का सफर तय किया था, तैमूर के नक़्शे कदम पर चलते हुए एशिया के एक बड़े हिस्से पर राज किया था लाखों लोगो का क़त्ल किया जिसमे दिल्ली की अवाम भी शामिल है। ज़ब नादिर ने मुग़ल बादशाह को हराया तब वो लालकिले पर काबिज़ हो गया।
अफवाह के अनुसार बादशाह मारे गए तब दिल्ली के लोगो ने नादिर शाह के सिपाहियों पर हमला कर दिया नादिर शाह के खिलाफ एक छोटी सी चंद लम्हो को जंग छेड दी बदले मे नादिर के हुक्म पर दिल्ली लाल कर दी गयी। करीब 50 हजार के करीब लोगो का कत्ल किया।
सन् 1862 की नवंबर की दोपहर में, अंग्रेज़ों के कब्ज़े वाले रंगून में गुप्त तरीके से बहादुर शाह ज़फ़र के शव को साधारण कैदी बता कर दफ़नाया गया। अंग्रेज़ सिपाहियों की निगरानी में, इस लिपटे हुए शव को रंगून नदी के किनारे एक जेल के भीतर एक बिना निशान वाली क़ब्र में दफ़ना दिया गया। भारी पहरे के बावजूद कुछ स्थानीय लोग जल्दबाज़ी में दफ़न से पहले श्रद्धांजलि अर्पित करने में कामयाब रहे।
अंग्रेज़ अधिकारी इस कैदी की हर निशानी मिटाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने जल्दी से शव को सड़ने दिया और क़ब्र पर एक अस्थायी बांस की बाड़ लगा दी जो जल्द ही ख़त्म हो जाती। अंग्रेज़ कमिश्नर, कैप्टन एच. एन. डेविस ने लंदन को बताया कि यह मरा हुआ व्यक्ति ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं था और इसकी मौत का ज़्यादा असर लोगों पर नहीं पड़ा। उन्होंने कैदी को एक बूढ़ा और कमज़ोर आदमी बताया और उसकी मौत को स्वाभाविक बताया। डेविस को यक़ीन था कि थोड़े समय में दफ़न की सारी निशानियाँ मिट जाएंगी और आख़िरी मुग़ल शासक की कोई याददाश्त नहीं रहेगी। 

  मुगल साम्राज्य का अंत

  ब्रिटिश राज या अंग्रेज - 
जामा मस्जिद से होकर गुजरने वाला ये काफ़िला दिल्ली दरबार मे शामिल होने वाले नवाबों और राजाओं का है। ब्रिटिश हुक़ूमत ने 12 दिसंबर 1911 को लाल किले के दरबार में भारत के उन सभी राजाओं को आमंत्रित किया था जो ब्रिटिश हुक़ूमत के अधीन हो चुके थे।

ब्रिटिश राज 49,74,000 158% 1911
  1 = 1858 लॉर्ड किंग
  2 = 1862 लॉर्ड जेम्स ब्रूस एल्गिन
  3 = 1864 लॉर्ड जे. लॉरेंस
  4 = 1869 लॉर्ड रिचर्ड मेयो
  5 = 1872 लॉर्ड नार्थबक
  6 = 1876 लॉर्ड एडवर्ड लैटिन
  7 = 1880 लॉर्ड जॉर्ज रिपोन
  8 = 1884 लॉर्ड डफरिन
  9 = 1888 लॉर्ड हनी लेसडन
  10 = 1894 लॉर्ड विक्टर ब्रूस एल्गिन
  11 = 1899 लॉर्ड जॉर्ज कोरजेन
  12 = 1905 लॉर्ड गिल्बर्ट मिंटो
  13 = 1910 लॉर्ड चार्ल्स हार्डगे
  14 = 1916 लॉर्ड फ्रेडरिक से राजकोष तक
  15 = 1921 लॉर्ड रक्स अजाक रिडिगो
  16 = 1926 लॉर्ड एडवर्ड इरविन
  17 = 1931 लॉर्ड फर्मन वेल्डन
  18 = 1936 लॉर्ड एलेजांद्रा लिनलिथगो
  19 = 1943 लॉर्ड आर्चीबाल्ड व्हील
  20 = 1947 लॉर्ड माउंट बैटन
  ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंत

भारत के प्रधान मंत्री
भारत गणराज्य के स्वतंत्रता समझौते पर हस्ताक्षर करते प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू 

भारतीय गणराज्य (तुलना के लिए) 32,87,263  भारत सरकार,नई दिल्ली 
  1 - 1947 जवाहरलाल नेहरू
  2 - 1964 गोलजारी लाल नंदा
  3 - 1964 लाल बहादुर शास्त्री
  4 - 1966 गोलजारी लाल नंदा
  5 - 1966 इंदिरा गांधी
  6 - 1977 मोरारजी देसाई
  7 = 1979 चरण सिंह
  8 - 1980 इंदिरा गांधी
  9 - 1984 राजीव गांधी
  10 - 1989 वी पी सिंह
  11 - 1990 चंद्रशेखर
  12 - 1991 पी.वी. नृत्य राव
  13 - 1992 अटल बिहारी वाजपेयी
  14 - 1996 देवेगौड़ा
  15 - 1997 आई.के. गुजराल
  16 - 1998 अटल बिहारी वाजपेयी
  17 - 2004 मनमोहन सिंह
  18=2014 नरेंद्र मोदी से 2024
19. 
  
1757 में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के मध्य प्लासी नामक स्थान पर युद्ध हुआ जिस में लार्ड क्लाइव अंग्रेज सेना और डुप्ले फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व कर रहे थे। फ्रांसीसी सेना हार गई और बंगाल के व्यापार पर सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
इसके बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने साम्राज्यवादी पर पसारने शुरू कर दिए जिस की पहल की गई बंगाल से।

                      अलीवर्दी खान
अलीवर्दी खान, बंगाल के चौथे नवाब, 1740 में सत्ता में आए, उन्होंने सर्फराज खान को हराकर ऐसा किया था। उन्होंने मुगल सम्राट की स्वीकृति प्राप्त करके और अपने पूर्ववर्ती के समान नीतियों को लागू करके जल्दी से अपना शासन मजबूत कर लिया। हालांकि, उनका शासन काफी हद तक संघर्षों से भरा रहा। मराठा साम्राज्य ने बंगाल पर बार-बार छापे मारे, जिससे अलीवर्दी को किले बनाने और कई लड़ाइयां लड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कुछ जीत के बावजूद, अलीवर्दी ने अंततः 1751 में उड़ीसा को मराठों को सौंप दिया। उन्हें अपने पोते और अफगान समूहों के आंतरिक विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा, जिन्हें वे दबाने में सफल रहे। अपने 16 साल के शासन के अंत में, अलीवर्दी ने बंगाल के पुनर्निर्माण पर ध्यान दिया। उन्होंने ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध से क्षेत्र की सफलतापूर्वक रक्षा की और अपने क्षेत्र में सक्रिय यूरोपीय शक्तियों के बीच तटस्थता बनाए रखी। वह कला के संरक्षक भी थे, उन्होंने संगीत वाद्ययंत्रों और साहित्यिक कार्यों का समर्थन किया।  1756 में अलीवर्दी खान की मृत्यु हो गई और उनके पोते सिराज-उद-दौला उनके उत्तराधिकारी बने।


    सिराजुद्दोला जन्म 1933 मृत्यु 2.07.1957

                        घसीटी बेगम
अठारहवीं सदी के बंगाल में घसेटी बेगम( मेहरुन्निसा बेगम), नवाब अलीवर्दी खान की बेटी, एक शक्तिशाली हस्ती थीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने उत्तराधिकार को प्रभावित करने का प्रयास किया, सिराजुद्दौला के सत्ता में आने का विरोध किया। सिराज के खिलाफ कमजोर करने के लिए घसेटी ने एक सैन्य नेता मीर जाफर और कुछ व्यापारियों के साथ साजिश रची। 1757 में प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की हार के बाद, घसेटी को मीर जाफर ने कैद कर लिया था। हालांकि, उनकी सुरक्षा के लिए डरते हुए, मीर जाफर के बेटे ने उन्हें 1760 में स्थानांतरित कर दिया. दुखद रूप से, ऐसा माना जाता है कि इस स्थानांतरण के दौरान मीर जाफर के बेटे द्वारा ही घसेटी की हत्या कर दी गई थी।

रॉबर्ट क्लाइव (जन्म 29 सितंबर, 1725, स्टाइचे, श्रॉपशायर , इंग्लैंड-मृत्यु 22 नवंबर, 1774, लंदन) एक सैनिक सैनिक थे। बंगाल के ब्रिटिश प्रशासक, जो भारत में ब्रिटिश सत्ता के रचनाकारों में से एक थे। अपने पहले गवर्नरशिप (1755-60) में उन्होंने प्लासी की लड़ाई जीती और बंगाल के शासक बने।

नवाब बंगाल सिराजुद्दौला भारत की आज़ादी के लिए फिरंगियों के ख़िलाफ़ सब से पहली कोशिश प्लासी के युद्ध में सन 1757 में की थी।
1757 ई को बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला एवं ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी के मध्य प्लासी का युद्ध मुर्शिदाबाद के निकट नदिया जिले के प्लासी नामक स्थान पर हुआ। इस युद्ध में ब्रिटिश सेना का नेतृत्व रॉबर्ट क्लाइव कर रहे थे। सिराजुद्दौला को इस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा, और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत हुई।
जैसा कि उल्लेखनीय है कि सिराजुद्दौला बंगाल के पूर्व नवाब अलवर्दी खां के पौत्र थे। यह वही अलावर्दी खां थे जिसने सरफराज की हत्या करके बंगाल की सत्ता हथिया ली थी। 1756 में जब अलावर्दी खां का निधन हुआ तो उसकी दोहिते (नवासे) सिराजुद्दौला को बंगाल का नवाब बनाया गया। किंतु सिराजुद्दौला की मोसियो की नज़र बंगाल के तख्त पर ही थी। ऐसे में इस स्थिति का फायदा अंग्रेजों ने उठाया और सिराज के विरोधियों को अपने साथ मिला लिया।
गौरतलब है कि प्लासी के युद्ध से पहले अंग्रेजों और सिराजुद्दोला के बीच छोटी छोटी झड़पें होती रही। इसमें एक घटना ब्लैक होल के नाम से जानी जाती है। अंग्रेजों ने सिराजुद्दौला पर यह आरोप लगाया कि एक कमरे में सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों को बंद करके मार दिया। लेकिन इस घटना की वास्तविकता पर मतभेद है, अंग्रेजों का असल मकसद सिराजुद्दौला को बदनाम कर साम्राज्य का विस्तार करना था।
प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला के सेनापति मीरजाफर , दीवान राम दुर्लभ , मौसी घसीटी बेगम, व्यापारी अमीन चंद्र और बैंकर जगत सेठ ने अंग्रेज़ो का साथ दिया और सिराजुद्दौला के साथ गद्दारी की।
वहीं दूसरी ओर मीर मदान एवं मोहन लाल सिराजुद्दौला के प्रति वफादार सेनापति थे और मरते दम तक उनका उसका साथ दिया। 
प्रसिद्ध बांग्ला कवि नवीन चंद्र सेन ने प्लासी युद्ध से संबंधित कहा है कि "प्लासी के युद्ध के बाद भारत के लिए शाश्वत दुःख की काली रात का आरंभ हुआ।"


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन परिचय :-
प्रमुख आदिवासी क्रांतिकारी
प्लासी का युद्ध (सन् 1757)
प्लासी का युद्ध अंग्रेजों और बंगाल के शासक सिराजुद्दौला के बीच सन् 1757 में लड़ा गया था। यह युद्ध केवल आठ घण्टे चला और कुल तेईस सैनिक मारे गए। युद्ध में सिराजुद्दौला की ओर से मीर जाफर ने गद्दारी की और रॉबर्ट क्लाइव ने उसका भरपूर लाभ उठाया। प्लासी-विजय के पश्चात् भारतवर्ष में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अंग्रेजी साम्राज्य की नींव पड़ गई।

1757 के बाद भारतीयों के ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह -
संन्यासी विद्रोह (1763-1800), 
मिदनापुर चुआड़ विद्रोह (1766-1767), 
रगंपुर व जोरहट विद्रोह (1769-1799), 
रेशम कारिगर विद्रोह (1770-1800), 
चिटगाँव का चकमा आदिवासी विद्रोह (1776-1789),
पहाड़िया सिरदार विद्रोह (1778), 
रंगपुर किसान विद्रोह (1783), 
केरल में कोट्टायम विद्रोह (1787-1800), 
सिलहट विद्रोह (1787-1799), 
वीरभूमि विद्रोह (1788-1789), 
खासी विद्रोह (1788), 
भिवानी विद्रोह (1789), 
विजयानगरम विद्रोह (1794), 
कारीगरों का विद्रोह (1795-1805), 
मिदनापुर आदिवासी चुआड़ विद्रोह (1799), 
पलामू विद्रोह (1800-02), 
वैल्लोर सिपाही विद्रोह (1806), 
त्रावणकोर का बेलूथम्बी विद्रोह (1808-1809),
बुंदेलखण्ड में मुखियाओं का विद्रोह (1808-12),
गुजरात का भील विद्रोह (1809-28), 
कटक पुरी विद्रोह (1817-18), 
खानदेश, धार व मालवा भील विद्रोह (1817-31,1846 व 1852), 
छोटा नागपुर, पलामू चाईबासा कोल विद्रोह (1820-37),
बंगाल आर्मी बैरकपुर में पलाटून विद्रोह (1824), 
गूजर विद्रोह (1824), 
भिवानी हिसार व रोहतक विद्रोह (1824-26), 
काल्पी विद्रोह (1824), 
वहाबी आंदोलन (1830-61), 
24 परगंना में तीतू मीर आंदोलन (1831), 
मैसूर में किसान विद्रोह (1830-31), 
विशाखापट्टनम का किसान विद्रोह (1830-33), 
कोल विद्रोह (1831-32), 
भूमिज विद्रोह (1832-33), 
संबलपुर का गौंड विद्रोह (1833), 
मुंडा विद्रोह (1834), 
सूरत का नमक आंदोलन (1844), 
नागपुर विद्रोह (1848), 
नगा आंदोलन (1849-78), 
हजारा में सय्यद का विद्रोह (1853), 
संथाल विद्रोह (1855-56)
टंट्या भील - भील विद्रोह (1878-89)
बिरसा मुण्डा - मुण्डा विद्रोह (उलगुलान) (1899-1900)
जतरा भगत - स्वतंत्रता आंदोलन (1912-14)
अल्लूरी सीताराम राजू - स्वतंत्रता आंदोलन (1922)
कोमुरम भीम - स्वतंत्रता आंदोलन (1928-40)
रानी गाइदिन्ल्यू - स्वतंत्रता आंदोलन (1932)
1920 -1921: ताना भगत आंदोलन।
1922 - अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में कोया आदिवासी समुदाय ने गोदावरी एजेंसी में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
1928 - 1940: कोमुरम भीम के नेतृत्व में गोंड आदिवासी विद्रोह
1932 - मणिपुर में 14 वर्षीय रानी गाइदिन्ल्यू के नेतृत्व में नागाओं ने विद्रोह किया।
1941 - हैदराबाद राज्य के आदिलाबाद जिले में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ गोंड और कोलम ने विद्रोह किया।
1942 - जयपोर राज्य के कोरापुट में लक्ष्मण नाइक के नेतृत्व में आदिवासी विद्रोह।
1942 - 1945: अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की जनजातियों ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सैनिकों द्वारा अपने द्वीपों पर कब्जे के खिलाफ विद्रोह किया , तक सिलसिला जारी रहा। जिसके बीच में हैदर अली, टीपू सुल्तान व नाना फर्णनविस के भारत की आजादी के लिये संगठित प्रतिरोध ने अंग्रेजों के लिये भारी मुश्किले पैदा कीं।

महत्वपूर्ण विद्रोह -
चुआड़ विद्रोह  01 (सन् 1766)
बंगाल के जंगल महल (अब कुछ भाग पश्चिम बंगाल एवं झारखंड में) के भूमिज आदिवासियों ने जगन्‍नाथ सिंह के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1766 में जो आन्दोलन आरम्भ किया उसे चुआड़ विद्रोह कहते हैं। यह आन्दोलन 1833 तक चला। इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह भी कहा जाता है।
गंगा नारायण सिंह - भूमिज विद्रोह (चुआड़ विद्रोह)
जगन्नाथ सिंह - चुआड़ विद्रोह (1766-71)
सुबल सिंह - चुआड़ विद्रोह (1766-71)
तिलका माँझी - संथाल विद्रोह (1784-85)
दुर्जन सिंह - चुआड़ विद्रोह (1786-99)
 (1831-34)

संन्यासी एवं फकीर विद्रोह (सन् 1763 से 1773 तक)
बंगाल में संन्यासियों और फकीरों के अलग-अलग संगठन थे। पहले तो इन दोनों संगठनों ने मिलकर अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया, लेकिन बाद में उन्होंने पृथक्-पृथक् रूप से विरोध किया। संन्यासियों में उल्लेखनीय नाम हैं—मोहन गिरि और भवानी पाठक तथा फकीरों के नेता के रूप में मजनूशाह का नाम प्रसिद्ध है। ये लोग पचास-पचास हजार सैनिकों के साथ अंग्रेजी सेना पर आक्रमण करते थे। अंग्रेजों की कई कोठियाँ इन लोगों ने छीन लीं और कई अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। अंततोगत्वा संन्यासी विद्रोह और फकीर विद्रोह—दोनों ही दबा दिए गए।

बंगाल का द्वितीय सैनिक विद्रोह (सन् 1795)
बंगाल की पंद्रहवीं बटालियन को आदेश मिला कि वह हमलक स्थान पर पहुँच जाए। बटालियन वहाँ पहुँच गई। वहाँ पर उस बटालियन को बताया गया कि उसे जहाज पर चढ़कर यूरोप जाना है। यूरोप में इस बटालियन को डच लोगों के साथ युद्ध करना था। भारतीय सैनकों ने (समुद्र पार करने से धर्म भ्रष्ट होने के विश्वास के चलते) जहाज पर चढ़ने से इनकार कर दिया। उनमें से कुछ को गोलियों से भून दिया गया और कुछ को तोपों के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया।

चुआड़ विद्रोह 02 (सन् 1798 से 1831 तक)
बंगाल की भूमिज जनजाति को चुआड़ कहा जाता था। चुआड़ विद्रोह इसी जनजाति का विद्रोह था। यह जनजाति जंगल महल जिले के भिन्न-भिन्न परगनों में रहती थी। कई स्थानों पर चुआड़ वीरों ने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंका। बाद में संगठित होकर अंग्रेजी सेना ने बड़ी निर्ममता से इस विद्रोह का दमन कर दिया। 1798 में ‘दुर्जन सिंह’ ने विद्रोह किया। रानी शिरोमणि नाम की महिला विद्रोही ने वीरता का प्रदर्शन किया। बाद में वह बंदी बना ली गई। यह 1766 के चुआड़ विद्रोह से सम्बन्धित है जो 1833 तक चला। इस विद्रोह को भूमिज विद्रोह भी कहा जाता है।

वेल्लौर का सैनिक विद्रोह (सन् 1803)
वेल्लौर स्थित मद्रासी सेना ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। वह विद्रोह नंदी दुर्ग, सँकरी दुर्ग आदि स्थानों तक फैल गया। इसी विद्रोह के फलस्वरूप लॉर्ड विलियम वेंटिक को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

वेलू थाम्पी का विद्रोह (1808-09)
साम्राज्यवाद के विरुद्ध थाम्पी के संघर्ष को पहला राष्ट्रीय संघर्ष कहा जाता है। वेलू थाम्पी त्रावणकोर राज्य का एक मंत्री था। शुरू में त्रावणकोर राज्य की ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मैत्री थी और इस राज्य ने टीपू सुल्तान के विरुद्ध कम्पनी का साथ दिया। वेलू थाम्पी का मानना था कि यदि कम्पनी को बिना रोक-टोक मन मानी करने दी गई तो एक दिन त्रावणकोर के व्यापार पर इसका एकाधिकार हो जायेगा। फिर जैसा कम्पनी चाहेगी वैसा करेगी। वेलू ने एक घोषणा की -
जो कुछ वह करने की कोशिश कर रहे हैं यदि उसका प्रतिरोध इस समय नहीं किया गया तो हमारी जनता को कष्टों का सामना करना पड़ेगा जिन्हें मनुष्य सहन नहीं कर सकते हैं।  
इस घोषणा का जनता पर बहुत गहरा असर पड़ा और हजारों हथियारबंद लोग उसके साथ आ गये। इस संघर्ष में त्रावणकोर के शासक और कोचीन राज्य के मंत्री पालियाथ आचन ने भी वेलू का एक बार तो साथ दिया परन्तु बाद में आचन उसने धोखा दे दिया। उत्तरी मालाबार में पज्हासी ने कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह छेड़ दिया। थम्पी, आचन और पज्हासी के संघर्ष सामन्ती वर्ग के नेतृत्व में चलने वाले संघर्ष थे।

भील विद्रोह (1817)
1817 ई. में पश्चिमी तट के खानदेश (अब गुजरात) में रहने वाली भील जनजाति ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। 1825 में भीलों ने सेवाराम के नेतृत्व में पुनः विद्रोह किया। अंग्रेजों के अनुसार इस विद्रोह को पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्यम्बकजी दांगलिया ने बढ़ावा दिया था।

नायक विद्रोह (सन् 1821)
बगड़ी राज्य की नायक जाति ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया। अचल सिंह इस जाति का नेता था। गनगनी नामक स्थान पर अचल सिंह और अंग्रेज अफसर ओकेली की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर से बहुत जनहानि हुई। एक गद्दार के छल से अचल सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया।

बैरकपुर का प्रथम सैनिक विद्रोह (सन् 1824)
यह नायक विद्रोह और बहावी विद्रोह के बीच की कड़ी है। बंगाल रेजीमेंट को आदेश मिला कि वह बैलों की पीठ पर बैठकर हुगली नदी पार करें। रेजीमेंट ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया। सारे सैनिकों को निहत्था कर गोलियों से भून दिया गया।

रघुनाथ सिंह - चुआड़ विद्रोह (1831-34)
बिंदराय मानकी - कोल विद्रोह (1832-33)
सिंदराय मानकी - कोल विद्रोह (1832-33)
बुधू भगत - कोल विद्रोह (1832-33)
पोटो हो - हो विद्रोह (1837)
तेलंगा खड़िया - खड़िया विद्रोह (1850-60)
सिद्धू-कान्हू मुर्मू - संथाल विद्रोह (1855)

कोल विद्रोह (सन् 1831-33)
यह विद्रोह कोल जनजाति द्वारा अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के खिलाफ 1831 में किया गया, जो 1833 तक चला। मुंडा, उरांव, भूमिज और हो आदिवासियों को अंग्रेजों द्वारा कोल कहा जाता था। यह विद्रोह बाहरी लोगों (सनातनी, मुस्लिम, सिख और अंग्रेजों) के विरुद्ध लड़ा गया। इस विद्रोह की शुरुआत मुंडा-मानकी द्वारा की गई।

भूमिज विद्रोह - 03 (सन् 1832 से 1834 तक)
जंगल महल के भूमिजों ने एक बार फिर गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में संगठित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया। जिससे भयभीत होकर अंग्रेज अफसर भाग खड़े हुए। चाईबासा के चैतन सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों ने धोखे से गंगा नारायण को मारा। 1766 से 1833 तक भूमिजों द्वारा चले सम्पूर्ण विद्रोह को चुआड़ विद्रोह या भूमिज विद्रोह कहा जाता है।

गुजरात का महीकांत विद्रोह (सन् 1836)
वैसे तो पूरे गुजरात में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की हवा चल रही थी; पर महीकांत में विद्रोह भड़का कर तीव्र किया। इस विद्रोह का दृढ़ता के साथ दमन कर दिया गया।

धर राव विद्रोह (सन् 1841)
इस विद्रोह का सूत्रपात सतारा के महाराज छत्रपति प्रतापसिंह को अपदस्थ करने से हुआ। इस विद्रोह का नेतृत्व धरराव पँवार ने किया। विद्रोहियों ने बदामी दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजी सेना ने पुनः आक्रमण कर दुर्ग को वापस ले लिया और विद्रोहियों को कड़े दंड दिए।


कोल्हापुर विद्रोह (सन् 1844)
अंग्रेजों ने दाजी कृष्ण पंडित नाम के एक नए कर्मचारी की राज्य में नियुक्ति करके उसके द्वारा दोनों राजकुमारों को कैद करने का षड़्यंत्र रचा। प्रजा सजग हो गई और अंग्रेज अफसरों को ही कैद किया जाने लगा। कई किले अंग्रेजों से छीन लिए गए। अंग्रेजी खजाने लूट लिये गए। अंग्रेज रक्षक मार डाले गए। कर्नल ओवांस को कैद कर लिया गया। बड़ी मुश्किल से संगठित होकर अंग्रेजों ने विद्रोह का दमन किया।

संथाल विद्रोह (सन् 1855 से 1856 तक)
(बंगाल और बिहार) के संथालों के जीवन को ब्रिटिश शासन व्यवस्था और कर प्रणाली ने तहस नहस कर दिया। हर वस्तु पर कर, यहां तक कि जंगली उत्पादों पर करों की वसूली बाहर के लोग करते थे जिन्हें दिकू कहा जाता था। उनके द्वारा पुलिस प्रशासन के सहयोग से संथालों का शोषण किया जाता था। महिलाओं का बड़े पैमाने पर यौन शोषण किया गया।
भागलपुर- वर्धमान रेल मार्ग के निर्माण में उन से जबरन बेगार ली गई। इसी समय पुलिस प्रशासन ने कुछ संथालों को चोरी के इल्ज़ाम में पकड़ लिया। इस घटना के कारण संथलों में गुस्सा भड़का और 30 जून 1855 को भागिनीडीह गाँव में सीधो और कान्हो के नेतृत्व में 400 गांवों के हज़ारों संथाल जमा हुए और विद्रोह का बिगुल फूंक दिया गया जो मांग कर रहे थे कि  दिकुओं का निष्कासन किया जावे। क्षेत्र में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया एवं हज़ारों संथालों को मार डाला गया और विद्रोह का दमन कर दिया गया।
विद्रोह के कारण सरकर ने भागलपुर एवं वीरभूमि के संथाल बहुल क्षेत्रों को काटकर संथाल परगना ज़िला बनाया। इस क्षेत्र के लिए भू राजस्व की नई प्रणाली बनाई गयी एवं ग्राम प्रधानों के पूर्व के अधिकारों को बहाल किया गया।

सन् 1855 का सैनिक विद्रोह हैदराबाद 
यह सैनिक विद्रोह निजाम हैदराबाद की फौज की तृतीय घुड़सवार सेना ने किया था। इस विद्रोह को दबाने में ब्रिगेडियर मैकेंजी के शरीर पर दस घाव लगे। मुश्किल से उसकी जान बच पाई। बड़ी फौज भेज कर विद्रोह दबा दिया गया।


4 मई 1799 को जब शेर-ए-मैसूर #टीपू_सुल्तान ने अपने वतन की हिफाजत करते हुए अपनी जान की कुर्बानी दे दी थी। अगर टीपू सुल्तान भी चाहते तो निजाम और बाकी रजवाड़ों की तरह अंग्रेजों से संधि कर उनकी तमाम शर्तों और गुलामी को कुबूल करके अपनी रियासत बचा सकते थे लेकिन उन्होंने इस गुलामी से बेहतर शहादत को तरजीह दी।

उस वक्त टीपू सुल्तान का नाम अंग्रेजों के लिए खौफ का पैग़ाम था शायद ही हिंदुस्तान के किसी सुल्तान या राजा का इतना ख़ौफ़ अंग्रेजों के दिलो पर रहा होगा टीपू सुल्तान ने उस वक्त अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी जिस वक्त के हिंदुस्तान के ज्यादातर नवाब व राजे रजवाड़े अपनी हुकूमत और वजूद बचाने के लिए अंग्रेज़ों की चौखट पर नाक रगड़ रहे थे।

जिस दिन सुल्तान टीपू शहीद हुए थे उस दिन ब्रिटेन में जश्न मनाया गया था जिसमें लंदन के नामवर अदीबों और फनकारों ने शिरकत की थी, अंग्रेज़ों में सुल्तान टीपू का इतना खौफ़ था की उनकी लाश के पास जाने तक की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे जब एक गोली उनके दाएं सीने में धंस गई तब वो ज़मीन पर गिर गए थे जब अंग्रेजों को किसी ने यक़ीन दिलाया की टीपू मारे गए तब एक सिपाही ने उनकी म्यान में जड़ा रत्न निकालने की कोशिश की तो टीपू सुल्तान ने अपने आख़िरी वक़्त में उसका हाथ अपनी तलवार से जख्मी कर दिया था इसी तरह एक फौजी ने उन्हे तलवार से मारना चाहा तो मौत के दहाने पर खड़े टीपू सुल्तान ने उस फौजी के सर में अपनी तलवार से इतना ज़बरदस्त वार किया की वह फौजी वहीं ढेर हो गया।
जब टीपू सुल्तान शहीद हो गए तब गवर्नर जनरल ने कहा था कि आज से मुकम्मल हिंदुस्तान हमारा है। अंग्रेज़ों के लिये टीपू सुल्तान की मौत की खुशी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि विकी कॉलिंस की मशहूर नॉवेल The Moonstone के शुरुआती सीन में टीपू सुल्तान की दार-उल सल्तनत श्रीरंगपट्टनम की लूटपाट और घेराबंदी को दिखाया गया है शायद ही किसी हुक्मरान ने अंग्रेजों से इस तरह लोहा लेने की जुर्रत करी होगी।
लड़ाई के आखिरी वक़्त में टीपू के बॉडीगार्ड राजा खां ने उनसे कहा था कि आप अंग्रेजों को अपनी पहचान बता दें वो आप पर रहम खाएंगे, उस वक्त उस मर्दे मुजाहिद ने जो अल्फाज कहे वो तारीख में अमर हो गए। उन्होंने उनसे कहा की शेर की एक दिन की ज़िन्दगी गीदड़ की सौ साला ज़िन्दगी से बेहतर है।
           टीपू सुल्तान की मृत्यु का एक दृश्य

टीपू सुल्तान की वफ़ात के बाद उनके बेटे अंग्रेजों के सामने हथियार डालते हुए बायीं ओर खड़े उनके बेटे ने अपनी तलवार मेजर जनरल बेयर्ड को सौंप दी। दायीं ओर हिंदुस्तानी अफसरान अपनी बंदूकों के करीब जमा हुए और अपना झंडा नीचे रखा। बायीं तरफ ब्रिटिश अफसरान और दीवार पर फहरता ब्रिटिश साम्राज्य का झंडा और तैनात सिपाही।
अवध के अंतिम नवाब, मिर्जा वाजिद अली शाह ने एक छोटे से कार्यकाल में शासन किया, जो चुनौतियों और विवादों से भरा हुआ था। 1847 में वो गद्दी पर बैठे, उन्हें एक ऐसा राज्य विरासत में मिला जो पहले से ही कमज़ोर था, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ हुए समझौतों की वजह से। कुप्रबंधन के इल्ज़ामों का सामना करने के बावजूद, हालिया अध्ययनों से पता चलता है कि स्थिति उतनी खराब नहीं थी, जितना अंग्रेजों ने पेश किया था। आखिरकार अंग्रेज़ों ने 1856 में अवध को अपने साम्राज्य में मिला लिया। 
वाजिद अली शाह कला के दीवाने थे, जो शायरी, संगीत और नाच के बेहद शौकीन थे। उन्होंने मुगलों के पतन के बाद कथक को दरबारी नाच के रूप में पेश किया। अपने राज्य को खोने के बाद वो कलकत्ता निर्वासित हो गए, मगर उन्होंने अपनी कलात्मक रुचि को जारी रखा। यहाँ तक कि उन्होंने निर्वासन में "मिनी लखनऊ" बसाया, जिसमें बगीचे, संगीतकार और कलाकार शामिल थे। उन्हें सत्ता में वापसी की उम्मीद थी, लेकिन आखिरकार 1887 में निर्वासन में ही उनका इंतकाल हो गया। उनकी विरासत पेचीदा है, उनके शासन और योगदान को लेकर अलग-अलग विचार मौजूद हैं।

           अवध नवाब मिर्जा वाजिद अली शाह
                 झांसी का किला
जब रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से अंतिम युद्ध लड़ते हुए घायल हो गई और अंग्रेज उनका पीछा कर रहे थे, तब एक अंग्रेज ने गोली चलाई, जो रानी लक्ष्मीबाई की बाई जंघा में लगी। इस समय रानी के दोनों हाथों में तलवारें थीं, लेकिन गोली लगने के बाद जब सम्भलना मुश्किल हुआ, तो उन्होंने बाएं हाथ की तलवार फेंक दी और लगाम पकड़ी। गोली चलाने वाले अंग्रेज को रानी ने दाएं हाथ की तलवार से समाप्त किया। इसी समय एक और अंग्रेज ने तलवार से रानी लक्ष्मीबाई के सिर पर प्रहार किया, जिससे रानी के सिर का एक हिस्सा कट गया और दाई आंख बाहर आ गई। एसी परिस्थिति में भी रानी ने उस अंग्रेज का कंधा काट दिया। तब तक रानी के साथी गुल मुहम्मद भी आ पहुंचे। गुल मुहम्मद ने उस अंग्रेज के 2 टुकड़े कर दिए। फिर रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई और उनके अंतिम संस्कार के समय वहां गुल मुहम्मद, रघुनाथ, देशमुख व बालक दामोदरराव थे।
रानी लक्ष्मीबाई के अंतिम समय का ये वर्णन वृंदावनलाल वर्मा ने किया है। वृंदावनलाल वर्मा के परदादा झांसी के दीवान आनंदराय थे, जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई का साथ देते हुए वीरगति पाई। इस अंतिम समय के बारे में वृंदावनलाल को उनकी परदादी ने बताया, उस समय वृंदावनलाल की आयु 10 वर्ष थी।

आगरा का विद्रोह
यह युद्ध 10 अक्टूबर 1857 के भारतीय विद्रोह के समय हुआ। इसमें ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से एडवर्ड ग्रीथेड 10000 ((12 तोपें) सैनिक भारत की ओर से बहादुर शाह ज़फर के मध्य हुई। इसमें 433 इसमें कप्तान गेरिसन सहित 101 यूरोपीय और 332 भारतीय काल कवलित हुए। अंत मे भारतीय हार गए और तितर-बितर हो गए ब्रिटिश लखनऊ तक पहुंच गए।
आगरा ब्रिटिश प्रशासन और वाणिज्य केंद्र था। आस - पास के सैन्य छावनियों में तैनात थे 3 बंगाल फुसिलियर्स (ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की पैदल सेना की (यूरोपीय रेजिमेंट) अंग्रेज सैनिकों द्वारा बनाई गई तोपखाना इन्फेंट्री, और 44 वीं और 67 वीं रेजिमेंट बंगाल नेटिव इन्फैंट्री। विद्रोह का तात्कालिक कारण था बंगाल की सेना का डर कि ईस्ट इंडिया कंपनी के आर्मी सुधारों से भारतीय समाज और उनकी जाति को खतरा है। उधर बैरकपुर विद्रोह की खबर तेजी से फैली। आगरा में, समाचार ने स्थानीय ब्रिटिश कमांडरों को 31 मई को दो बंगाल मूल निवासी इन्फैंट्री रेजिमेंटों को नष्ट करना चाहा ताकि संभावित विद्रोह को विफल किया जा सके। दिल्ली की घटनाओं और ग्रामीण इलाकों में बढ़ती अशांति ने 6,000 शरणार्थियों (ब्रिटिश नागरिकों और उनके परिवारों और नौकरों) को आगरा किला में शरण दी गई। तीन महीने की घेराबंदी का सामना किया विद्रोहियों ने अंग्रेजी को जहां देखा ठिकाने लगाना शुरू कर दिया।
21 सितंबर को, दिल्ली की घेराबंदी अंग्रेजों द्वारा विद्रोह समाप्त किया गया। आगरा में गैरीसन व अधिकारियों ने विश्वास दिलाया कि दुश्मन खारा नड्डी एवं धारा साँचा कन्वर्ट से दूर हट गए हैं । इस विद्रोह से दिल्ली और कॉवनपोर के बीच अंग्रेजों के विरोध में लोगों संगठित किया जिससे लखनऊ और कपोर के दूसरे युद्ध हुआ।

प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1857 -
इस क्रांति को सिपाही विद्रोह, भारतीय विद्रोह, महान विद्रोह, 1857 का विद्रोह और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में वर्णित किया गया है।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सन 1757 में प्लासी का युद्ध जीता। युद्ध के बाद हुई संधि में अंग्रेजों को बंगाल में कर मुक्त व्यापार का अधिकार मिल गया।
1764 में बक्सर का युद्ध जीतने के बाद अंग्रेजों का बंगाल पर पूरी तरह से अधिकार हो गया। इन दो युद्धों में हुई जीत ने अंग्रेजों की ताकत को बहुत बढ़ा दिया और उनकी सैन्य क्षमता को परम्परागत भारतीय सैन्य क्षमता से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। कंपनी ने जल्द ही बॉम्बे और मद्रास में अपने ठिकानों के आसपास अपने क्षेत्रों का विस्तार किया; बाद में, आंग्ल-मैसूर युद्ध (1766-1799) और आंग्ल-मराठा युद्ध (1772-1818) के कारण भारत के कई भागों पर कंपनी का नियंत्रण हो गया।

क्रांति के दो पक्ष -
क्रांतिकारी पक्ष -
अवध के अपदस्थ राजा के बेटे बिरजिस कद्र के अनुयाई
 झांसी की अपदस्थ रानी, रानी लक्ष्मीबाई की सेना, ग्वालियर गुट,जोधपुर गुट,,जगदीशपुर,बांदा अन्य राजा, नवाब, जमींदार, ठाकुर, चौधरी, तालुकदार, सरदार और प्रधान।

महत्वपूर्ण नाम 
मंगल पांडे
बहादुर शाह द्वितीय (युद्ध-बन्दी)
नाना साहेब
बख़्त खान
रानी लक्ष्मीबाई
तात्या टोपे
बेगम हजरत महल
कुँवर सिंह

ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी पक्ष -
ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड का यूनाइटेड किंगडम ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड का यूनाइटेड किंगडम, भारत की 21 रियासतें - बीकानेर,मारवाड़,रामपुर,कपूरथला,नाभा,
 भोपाल, सिरोही,,पटियाला, सिरमौर, अलवर, भरतपुर, बूंदी,जावर, बीजावार,अजयगढ़, रीवा,केन्दुझाड, हैदराबाद, कश्मीर, नेपाल राजशाही क्षेत्र के अन्य राज्य।

महत्वपूर्ण नाम -
अर्ल कैनिंग
जॉर्ज एनसोन
सर पैट्रिक ग्रांट
सर कॉलिन कैंपबेल
सर ह्यू रोज़
सर हेनरी हैवलॉक
सर जेम्स आउट्रम
सर हेनरी लॉरेंस
सर जेम्स नील
जॉन निकोलसन
जंग बहादुर
धीर शमशेर राणा
रणधीर सिंह
सर युसेफ अली खान

1857 की क्रांति ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के विरुद्ध बड़ा विद्रोह था। विद्रोह 10 मई 1857 को दिल्ली से 64 किमी उत्तर-पूर्व में मेरठ के गैरीसन शहर में कंपनी की सेना के सिपाहियों के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ जो बाद में ऊपरी गंगा के मैदान और मध्य भारत में अन्य विद्रोहों और नागरिक विद्रोहों में बदल गया। विद्रोह की घटनाएं उत्तर और पूर्व में भी हुईं।10 मई-1857 भारत के इतिहास का अहम दिन।
24 अप्रैल 1857, मेरठ परेड ग्राउंड में रोजाना की तरह परेड चल रही थी। 90 सिपाहियों को नए कारतूस बांटे जाने थे। इन नब्बे सिपाहियों में से हिंदू मुसलमान लगभग बराबर संख्या में थे। ये अफवाह तो सब जगह फैली थी कि नए कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है। इसलिए पाँच सिपाहियों को छोड़कर सभी ने कारतूस लेने से इनकार कर दिया। 
अपने अफसर का हुक्म न मानने के कारण इन 85 सिपाहियों को दस साल की कठोर कारावास की सजा हुई। 9 मई को परेड ग्राउंड में सभी सजायाफ्ता सिपाहियों की पेशी हुई। सभी की वर्दी उतरवाई गई और मैडल छीन लिए गए। इन्हे बेडियों में डालकर सरे बाज़ार जेल ले जाया गया था.. इसलिए बाकी सिपाहियों में गुस्से की लहर दौड़ गई।

10 मई का घटनाक्रम 
"8 मई 1857 को सैनिकों को कुछ कारतूस बांटे गए जिनको नमी से बचाने हेतु चर्बी से सील किया गया था। इन कारतूसों को दांतों से काटकर खोला जाता था। यह चर्बी गाय या सुअर की थी जिसके कारण 05 सैनिकों को छोड़कर सभी ने उपयोग करने से मना कर दिया। आदेश नहीं मानने पर 90 सैनिकों की वर्दी और मेडल उतार कर सरे बाज़ार पैदल ले जाकर जेल में डाल दिया।
रविवार 10 मई 1857 को सुबह सुबह ही अफवाह फ़ैल गई कि आज बाकी बचे सिपाहियों से भी हथियार छीन लिए जायेंगे। अंग्रेज अफसर परिवार के साथ मौज मस्ती कर रहे थे। उधर मेरठ छावनी के सिपाहियों ने शस्त्रागार पर हमला करके हथियार लूट लिए। इसके बाद उन्होंने जेल में बंद अपने सभी साथियों को आजाद कर लिया।
सिपाहियों और आजाद कैदियों ने मेरठ शहर और छावनी में जो भी अंग्रेज दिखा, उसे मौत के घाट उतार दिया। आस पास के गावों से भी लोग बाग़ इस फसाद में शामिल हो गए। जिन्होंने भी इन को समझाने की कोशिश की, वो भी मार डाला गया। विद्रोह रोकने हेतु अंग्रेजों ने योजना बनाई कि रात को तोप का इस्तेमाल करके सभी बागियों को मार डाला जाए। लेकिन रात होने तक सभी सिपाही मेरठ को छोड़कर दिल्ली की और कूच कर चुके थे।
11 मई को मेरठ के क्रान्तिकारी सैनिकों दिल्ली पहुंचे, 12 मई को लाल किले पर कब्जा कर अपदस्थ मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफ़र को पुनः सम्राट घोषित कर दिया।
जल्द ही विद्रोह लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, बनारस, बिहार तथा झांसी में भी फैल गया...और होते होते सारे देश में बगावत फैल गई। 
1857 की क्रांति की देशव्यापी शुरूआत के लिए 31 मई 1857 का दिन निर्धारित किया गया था। एक ही दिन क्रांति शुरू होने पर उसका व्यापक प्रभाव होता। मगर,फौजियों ने आक्रोश में आकर तयशुदा वक्त से पहले 10 मई, 1857 को ही विद्रोह कर दिया। 
फौजियों की इस जल्दबाजी की वजह से क्रांति की योजना अधूरी रह गयी। निश्चित समय का पालन नहीं होने के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति की शुरूआत अलग-अलग दिनों में हुई। इससे अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का दमन करने में काफी मदद मिली । 
बहुत सी जगहों पर तो 31 मई का इन्तजार कर रहे सैनिकों के हथियार छीन लिए गए। अगर सभी क्षेत्रों में क्रांति का सूत्रपात एक साथ नहीं हो पाया।
लॉर्ड कैनिंग के गवर्नर-जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान क्रान्ति हुई। इस क्रान्ति का आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुआ, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गया। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया।"
20 जून 1858 को ग्वालियर में विद्रोहियों की हार के साथ उन पर काबू पाया लिया गया। 1 नवंबर 1858 को, ब्रिटिशों ने हत्या में शामिल नहीं होने वाले सभी विद्रोहियों को माफी दे दी, 8 जुलाई 1859 तक अंग्रेज भारतीयों से शत्रुता से बदला लेते रहे।
इस क्रांति का केंद्र मेरठ, दिल्ली, ग्वालियर, कानपुर, लखनऊ, झाँसी और जबलपुर रहे।
क्रांति के बाद कुछ राज्य पूर्ववर्ती राजाओं को लौटा दिये गये कुछ जब्त कर लिये गए। अकाल,भुखमरी,युद्ध और क्रांति के कारण 800,000 भारतीय और 6000 ब्रिटिश काल का ग्रास बने।

क्रांति के कारण - 

रियासतों का विलय -
19वीं शताब्दी के अंत के बाद, गवर्नर-जनरल वेलेस्ली ने कंपनी क्षेत्रों के दो दशकों के त्वरित विस्तार की शुरुआत की। यह या तो कंपनी और स्थानीय शासकों के बीच सहायक गठबंधनों द्वारा या सीधे सैन्य विलय द्वारा हासिल किया गया था। सहायक गठबंधनों ने हिन्दू महाराजाओं और मुस्लिम नवाबों की रियासतों का निर्माण किया। सन 1843 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सिन्ध क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। 
1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद कमजोर हुए पंजाब पर अंग्रेजों ने अपना हाथ बढा़या और 1849 में द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के बाद पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया।
1846 की अमृतसर संधि के तहत कश्मीर को तुरंत जम्मू के डोगरा राजवंश को बेच दिया गया और इस तरह यह एक रियासत बन गया।। सन 1853 में अंतिम मराठा पेशवा बाजी राव के दत्तक पुत्र नाना साहेब की पदवी छीन ली गयी और उनका वार्षिक खर्चा बंद कर दिया गया। सन 1854 में बरार और सन 1856 में अवध को कंपनी के राज्य में मिला लिया गया।

किसानों में असंतोष -
ब्रिटेन और यूरोप में आयात कर और रुकावटों के चलते भारतीय निर्यात समाप्त हो गया। पारम्परिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की कारण यह स्थिति और भी विषम हो गयी। साधारण जनता के पास खेती के अलावा कोई और साधन नहीं बचा।
खेती करने वाले किसानो की हालत अत्यंत खराब थी। कंपनी शासन के प्रारम्भ में किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया, जिन्होने लगान बढा़ दिया और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानो का शोषण प्रारम्भ कर दिया। कंपनी ने खेती के सुधार पर बहुत कम खर्च किया और अधिकतर लगान कंपनी के खर्चों को पूरा करने में प्रयोग होता था। फसल के खराब होने की दशा में किसानो को साहूकार अधिक ब्याज पर कर्जा देते थे और अनपढ़ किसानो को कई तरीकों से ठगते। 
अंग्रेज कानून के अन्तर्गत भूमि हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानों को अपनी भूमि से भी हाथ धोना पड़ता था। इन समस्याओं के कारण समाज के हर वर्ग में असंतोष व्याप्त था।

राजनैतिक कारण - (डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स) -
सन 1848 और 1858 के बीच लार्ड डलहोजी ने डाक्ट्रिन औफ़ लैप्स के कानून के अन्तर्गत अनेक राज्यों पर अधिकार कर लिया। इस सिद्धांत अनुसार कोई राज्य, क्षेत्र कंपनी के अधीन हो जायेगा, यदि क्षेत्र का राजा निसन्तान मर जाता है या शासक कंपनी की दृष्टि में अयोग्य साबित होता है। 
इस सिद्धांत पर कार्य करते हुए लार्ड डलहोजी और उसके उत्तराधिकारी लार्ड कैन्निग ने सतारा, नागपुर, झाँसी, अवध को कंपनी के शासन में मिला लिया। कंपनी द्वारा तोडी गय़ी सन्धियों और वादों के कारण कंपनी की राजनैतिक विश्वसनियता पर भी प्रश्नचिन्ह लग चुका था।
1849 में लार्ड डलहोजी की घोषणा के अनुसार बहादुर शाह के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोड़ना पडेगा और शहर के बाहर जाना होगा और 1856 में लार्ड कैन्निग की घोषणा कि "बहादुर शाह के उत्तराधिकारी राजा नहीं कहलायेंगे" ने मुगलों को कंपनी के विद्रोह में खडा कर दिया।

कम वेतन -
भारतीय सैनिकों का वेतन महज सात रूपये प्रतिमाह था और अवध व पंजाब जीतने के बाद सिपाहियों का भत्ता समाप्त कर दिया गया था। 

सिपाहियों में जातिय आधार खोने की आशंका - 
कंपनी में भारतीय सिपाही मूलत: बंगाल सेना में काम करने वाले सैनिक थे। बम्बई, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेन्सी की अपनी अलग सेना और सेना प्रमुख था जिसमें अधिकांश सिपाही अंग्रेज थे।
बम्बई व मद्रास प्रेसीडेन्सी में अलग - अलग क्षेत्रों के 257000 सैनिक होने के कारण विभिन्नतापूर्ण थे।
बंगाल प्रेसीडेन्सी में भर्ती होने वाले सैनिक मुख्यत: अवध और गंगा के मैदानी इलाको (अधिकतर गुर्जर) थे। इनमे ब्राह्मणों और राजपूत सैनिक अंग्रेजों का साथ देते।
कंपनी के प्रारम्भिक वर्षों में बंगाल सेना में जातिगत विशेषाधिकारों और रीति - रिवाजों को महत्व दिया गया पर 1840 के बाद कलकत्ता में आधुनिकता पसन्द सरकार आने के बाद सिपाहियों में अपनी जाति खोने की आशंका व्याप्त हो गयी।
सिपाहियों को जाति और धर्म से सम्बन्धित चिन्ह पहनने से मना कर दिया गया। 1856 के एक आदेश के अन्तर्गत सभी नये भर्ती सिपाहियों को विदेश में कुछ समय के लिये काम करना अनिवार्य कर दिया गया। सिपाही धीरे-धीरे सेना के जीवन के विभिन्न पहलुओं से असन्तुष्ट होने लगे। एनफ़ील्ड बंदूक के बारे में फ़ैली अफवाहों ने सिपाहियों की आशन्का को और बढा़ दिया कि कंपनी उनकी धर्म और जाति परिवर्तन करना चाहती है।

एनफ़ील्ड बंदूक
कंपनी ने सेना को पुरानी बंदूक ब्राउन बेस बंदूक के स्थान पर अधिक शक्तिशाली आधुनिक प्रिक्शन कैप प्रणाली से लैस 0.577 केलीबर पैटन 1853 में k -3 बैण्ड एनफिल्ड बन्दूक विद्रोह का मुख्य कारण रही।
इस बंदूक को लोड करने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता। कारतूस का बाहरी आवरण सीलन से बचाने हेतु चर्बी से बनाया गया। सैनिकों ने इस कारतूस को मुंह से काटने से यह कहते हुए मना कर दिया कि कारतूस पर लगी चर्बी गाय/सुअर की है जो धर्म भ्रष्ट करती है। 
अलग - अलग छावनियों के सभी सैनिकों ने एक साथ सम्पूर्ण क्षेत्र में विद्रोह की योजना बनाई।

प्रचार - प्रसार - 
कंपनी राज्य समाप्त करने हेतु विद्रोह की सूचना चपातियों और कमल के फ़ूल पर सांकेतिक भाषा में सम्पूर्ण भारत में वितरित की गई।

फ्लैगस्टाफ टॉवर, दिल्ली, जहां विद्रोह से बचे ब्रिटिश लोग 11 मई 1857 को एकत्र हुए थे; फेलिस बीटो द्वारा खींची गई तस्वीर।

ब्रिटिश अधिकारी और नागरिक दिल्ली के उत्तर में फ्लैग स्टाफ टॉवर पर एकत्र हुए जहां टेलीग्राफ ऑपरेटर अन्य ब्रिटिश छावनियों को घटनाओं की खबरें भेज रहे थे। मेरठ से अपेक्षित मदद नहीं मिल रही है तो वे गाड़ियों में बैठकर करनाल की ओर चल पड़े। जो लोग मुख्य भवन से अलग हो गए या जो फ्लैगस्टाफ टॉवर तक नहीं पहुंच सके, वे भी पैदल ही करनाल के लिए निकल पड़े। कुछ को रास्ते में गाँव वालों ने मदद की; अन्य लोग मारे गये।

घटनाक्रम -

         बहादुर शाह जफर का अंतिम सफर
बहादुर शाह ज़फ़र के आखिरी दिन क़ैद, देश निकाले और गुमनामी की ज़िंदगी में गुज़रे। 1857 के सितम्बर में, जब अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया, तो 82 साल के बुज़ुर्ग बादशाह हुमायूं के मकबरे में पनाह लेने के लिए मजबूर हुए। मगर उन्हें पकड़ लिया गया और उनकी बेगम को हवेली में क़ैद कर दिया गया। वहां उन्हें अपने अंग्रेज़ क़ैदियों से बेइज़्ज़ती और बेरुखी का सामना करना पड़ा। 
मशहूर इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल ने अपनी किताब "द लास्ट मुग़ल" में इस दौर को बादशाह के लिए "बेपनाह दुःख" का ज़माना बताया है। उन्हें अपनी आंखों से अपने बेटों - मिर्जा मुगल, मिर्जा खिज्र सुल्तान और पोते मिर्जा अबू बख़्त की बेरहमी से क़त्ल होते हुए देखना पड़ा, जिन्हें ब्रिटिश अफसर मेजर विलियम हॉडसन ने अंजाम दिया था।
1858 में उन्हें रंगून (आज का यांगून, म्यांमार)  भेज दिया गया, जहां उनकी ज़िंदगी क़ैद और तंगहाली में कटी। इतिहासकार माइकल एडवर्ड्स अपनी किताब "ए हिस्ट्री ऑफ इंडिया" में लिखते हैं कि बादशाह के साथ "पूर्व-सम्राट की तरह नहीं बल्कि एक सियासी क़ैदी" जैसा सलूक किया गया। उन्हें कम संसाधनों वाले छोटे से घर में क़ैद कर दिया गया, जिससे उनकी सेहत और गिर गई। गले में लकवा होने के बाद आखिरकार नवंबर 1862 में 87 साल की उम्र में उनका इंतकाल हो गया। उनकी कब्र बेनाम है, जो उनके पूर्वज मुगल बादशाहों की शानदार क़ब्रों के बिल्कुल उलट है।
हालांकि उनकी ज़िंदगी का अंत दुखद रहा, बहादुर शाह ज़फ़र भारतीय इतिहास में एक अहम शख्सियत बने हुए हैं। 1857 के विद्रोह से उनका जुड़ाव और उनकी दिल छू लेने वाली उर्दू शायरी उन्हें राष्ट्रीय स्मृति में एक खास जगह दिलाती है। वह मुगल साम्राज्य के पतन और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष की याद दिलाते हैं।

               मिर्जा अशादुल्लाह खान गालिब 
1857 की क्रांति के दौरान मिर्ज़ा ग़ालिब ने पूरी तरह से दिल्ली में ही रहकर इस घटनाक्रम को करीब से देखा था। उन्होंने इस दौरान घटित घटनाओं, विशेषकर 11 मई, 1857 से 31 जुलाई, 1858 तक के अनुभवों को अपनी फ़ारसी डायरी दस्तंबू में दर्ज किया। क्रांति के दौरान उनके मन में उठने वाले विचारों और भावनाओं को हम उनकी डायरी के साथ-साथ उनके पत्रों में भी समझ सकते हैं। पत्रों में उन्होंने अपनी भावनाओं को अधिक खुलकर और निडरता से व्यक्त किया।
क्रांति के दिनों में ग़ालिब अपनी पत्नी और बेटों के साथ घर पर ही रहे। उन्होंने एक पत्र में लिखा था, "यहाँ इस शहर में अपनी पत्नी और बेटों के साथ, मैं खून के समुद्र में तैर रहा हूँ। मैंने अपनी दहलीज़ पार नहीं की है। न ही मुझे पकड़ा गया, न निकाला गया, न कैद किया गया, और न ही मारा गया।" लेकिन, अंग्रेज़ों द्वारा दिल्ली पर फिर से कब्ज़ा करने के बाद ग़ालिब को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उस समय वे बल्लीमारन में हाकिम महमूद हसन ख़ान के घर में रह रहे थे। शहर पर कब्ज़ा होने के बाद दो दिन तक उन्हें खाने-पीने सामान तक नहीं मिला। तीसरे दिन पटियाला के महाराजा द्वारा भेजे गए सैनिक हाकिम महमूद ख़ान की संपत्ति की रक्षा के लिए आए। इन सैनिकों की मदद से ग़ालिब ने अपने घर को भी लूटपाट से बचा लिया, लेकिन विजयी सेना ने उनकी पत्नी द्वारा मियां काले साहब के तहखाने में रखे गए कीमती सामान और गहनों को लूट लिया। इसके बाद, ग़ालिब को कुछ अंग्रेज़ सैनिकों ने उनके घर से गिरफ्तार करके कर्नल बर्न के सामने पेश किया।

घटनाक्रम - 
देश के विभिन्न हिस्सों के क्रांतिकारियों के दिल्ली पहुंचने और अंग्रेज अफसरों के किला छोड़ कर भाग जाने के बाद बहादुर शाह ने औपचारिक दरबार आयोजित किया। जिसमें बहुत से लोगों ने भाग लिया।इस बदलाव से राजाओ ने विद्रोह को समर्थन दिया। 
16 मई को, 50 से अधिक ब्रिटिश, जिन्हें महल में बंदी बना लिया गया था कुछ शहर में छिपे थे उन्हें महल के बाहर एक आंगन में पीपल के पेड़ के नीचे मार डाला गया।
अन्य स्थानों पर लड़ रहे सैनिकों ने रोटी दिल्ली दरबार में ही खाने की कसम खाई। मौलाना मुहम्मद क़ासिम नानोत्वी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही जैसे कुछ इस्लामी विद्वानों ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ हथियार उठाए, लेकिन कई मुसलमानों, जिनमें सुन्नी और शिया दोनों संप्रदायों के उलेमा भी शामिल थे, ने अंग्रेजों का पक्ष लिया। विभिन्न अहल अल-हदीस विद्वानों और नानोत्वी के सहयोगियों ने क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग नही लिया। दिल्ली में अहल अल-हदीस उलेमा के सबसे प्रभावशाली सदस्य, मौलाना सैय्यद नज़ीर हुसैन देहलवी ने क्रांति के आह्वान के लिए विद्रोहियों के दबाव का विरोध किया और इसके बजाय मुस्लिम-ब्रिटिश संबंधों को देखते हुए ब्रिटिश शासन के पक्ष में घोषणा की। कानूनी अनुबंध जिसे तब तक नहीं तोड़ा जा सकता था जब तक कि उनके धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन न किया गया हो।

विद्रोहियों से ली गई लूट को बांटते सिख सैनिक, 1860
पंजाब और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के सिखों और पठानों ने अंग्रेजों का समर्थन किया और दिल्ली पर दोबारा कब्ज़ा करने में मदद की। सिखों को विशेष रूप से उत्तरी भारत में मुगल शासन की बहाली का डर था। उन्होंने बंगाल सेना में पुरबिया या 'पूर्वी लोगों' (बिहारियों और आगरा और अवध के संयुक्त प्रांत के लोगों) के प्रति भी तिरस्कार महसूस किया। सिखों को लगा कि पहले और दूसरे आंग्ल-सिख युद्ध (चिल्लियांवाला और फिरोजशाह) की सबसे खूनी लड़ाई ब्रिटिश सैनिकों ने जीत ली थी और भारतीय सिपाहियों ने युद्ध में सिखों से मिलने से इनकार कर दिया था। ये भावनाएँ तब और बढ़ गईं जब भारतीय सिपाहियों को पंजाब में गैरीसन सैनिकों के रूप में एक बहुत ही दृश्यमान भूमिका सौंपी गई और पंजाब में लाभ कमाने वाले नागरिक पदों से सम्मानित किया गया। विद्रोह के समर्थन और विरोध में विभिन्न समूहों को इसकी विफलता का एक प्रमुख कारण माना जाता है।
जंगल में पीछे हटने के कारण जगह खाली हो गई। संबलपुर का अधिकांश क्षेत्र विद्रोहियों के नियंत्रण में था, और उन्होंने काफी समय तक हिट एंड रन गुरिल्ला युद्ध जारी रखा। दिसंबर में अंग्रेजों ने संबलपुर में विद्रोह को कुचलने की तैयारी की, और इसे अस्थायी रूप से छोटा नागपुर डिवीजन से बंगाल प्रेसीडेंसी के उड़ीसा डिवीजन में स्थानांतरित कर दिया गया। 30 दिसंबर को एक बड़ी लड़ाई लड़ी गई जिसमें सुरेंद्र सिंह के भाई सहित कई क्रांतिकारी शहीद हो गए। जनवरी में अंग्रेजों को छोटी-मोटी सफलता मिली और उन्होंने कोलाबीरा जैसे कुछ प्रमुख गांवों पर कब्ज़ा कर लिया और फरवरी में शांति बहाल होने लगी। हालाँकि, सुरेन्द्र सिंह फिर भी डटे रहे इसके अतिरिक्त, अंग्रेजों के साथ सहयोग करने का साहस करने वाले किसी भी मूल निवासी को उनके परिवार सहित आतंकित किया गया। विद्रोहियों के लिए माफी का वादा करने वाली एक नई नीति के बाद, सुरेन्द्र सिंह ने मई 1862 में आत्मसमर्पण कर दिया।

ब्रिटिश साम्राज्य
इस विद्रोह के बाद भारतीय आबादी वाले ब्रिटिश उपनिवेशों के अधिकारियों, सिपाही हों या नागरिक, ने नकलची विद्रोह के खिलाफ खुद को सुरक्षित करने हेतु उपाय किए। स्ट्रेट्स सेटलमेंट्स और त्रिनिदाद में वार्षिक होसे जुलूसों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, बर्मा और सेटलमेंट्स में दंडात्मक कार्यवाही स्वरूप बस्तियों में दंगे भड़काए गए, पेनांग में एक बंदूक की हानि ने दंगा भड़का दिया, और विशेष रूप से भारतीय आबादी के स्थानों पर सुरक्षा बढ़ा दी गई। भारतीय आबादी के साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाने लगा। इन भावनाओं पर कार्य करते हुए, 1880 से 1885 तक वायसराय रहे लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वशासन की शक्तियों को बढ़ाया और इल्बर्ट बिल द्वारा कानूनन अदालतों में नस्लीय प्रथाओं को हटाने की मांग की। यह नीति एक स्तर तक उदार और प्रगतिशील थी, दूसरे स्तर पर प्रतिक्रियावादी और पिछड़ी हो गई, जिससे नए अभिजात वर्ग का निर्माण हुआ और पुराने दृष्टिकोण की पुष्टि हुई। इल्बर्ट बिल का प्रभाव केवल श्वेत विद्रोह और कानून के समक्ष पूर्ण समानता की संभावना को समाप्त करना था। 1886 में सिविल सेवा में भारतीयों के प्रवेश को प्रतिबंधित करने के उपाय अपनाये गये।

सैन्य पुनर्गठन
जनरल सर के कैप्टन सी स्कॉट। होप ग्रांट का कॉलम, मद्रास रेजिमेंट , जो 1858 में कोहली के किले के हमले में शहीद हो गए। सेंट मैरी चर्च, मद्रास में स्मारक

यॉर्क मिनिस्टर के अंदर स्मारक
 सन 1857 से पहले बंगाल की सेना भारतीय सेना पर हावी थी और विद्रोह के बाद इसका सीधा परिणाम सेना में बंगाली टुकड़ी के आकार में कमी आना था। विद्रोहियों के रूप में उनकी कथित प्राथमिक भूमिका के कारण बंगाल सेना में ब्राह्मणों की उपस्थिति कम हो गई। अंग्रेज़ों ने स्पष्ट असंतोष के परिणामस्वरूप पंजाब में बंगाल सेना के लिए भर्ती में वृद्धिकी, जिसके परिणामस्वरूप सिपाहीयों में आपसी संघर्ष हुआ।
विद्रोह ने ब्रिटिश भारत की देशी और ब्रिटिश दोनों सेनाओं को बदल दिया। 1857 की शुरुआत में मौजूद 74 नियमित बंगाल नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंटों में से केवल बारह विघटन से बची। बंगाल लाइट कैवेलरी रेजिमेंट की सभी दस कंपनी समाप्त हो गई। पुरानी बंगाल सेना तदनुसार युद्ध के क्रम से लगभग पूरी तरह से गायब हो गई। इन सैनिकों की जगह अब तक अंग्रेजों द्वारा कम उपयोग की जाने वाली जातियों सिखों और गोरखाओं जैसी अल्पसंख्यक "लड़ाकू जातियों" से भर्ती की गई नई इकाइयों ने ले ली। पुराने संगठन की अक्षमताओं, जिसने सिपाहियों को उनके ब्रिटिश अधिकारियों से अलग कर दिया गया। 1857 के बाद की इकाइयों को मुख्य रूप से "अनियमित" प्रणाली पर संगठित किया गया। 1797 से लेकर 1857 के विद्रोह तक, प्रत्येक नियमित बंगाल नेटिव इन्फैंट्री रेजिमेंट में 22 या 23 ब्रिटिश अधिकारी थे, जिनके पास प्रत्येक कंपनी के सेकेंड-इन-कमांड का पद था। अनियमित इकाइयों में कम ब्रिटिश अधिकारी थे, लेकिन वे अपने सैनिकों के साथ कहीं अधिक निकटता से जुड़े हुए थे, जबकि भारतीय अधिकारियों को अधिक जिम्मेदारी दी गई थी। अंग्रेजों ने भारत के भीतर ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों का अनुपात बढ़ा दिया। 1861 से कुछ पहाड़ी प्लाटून को छोड़कर भारतीय तोपखाने का स्थान ब्रिटिश इकाइयों ने ले लिया। विद्रोह के बाद के बदलावों ने 20वीं सदी की शुरुआत तक ब्रिटिश भारत के सैन्य संगठन का आधार बनाया।

विद्रोह में शहीद हुए जवानों को दिया गया पुरस्कार -
विक्टोरिया क्रॉस -
विद्रोह के दौरान ब्रिटिश सशस्त्र बलों और ब्रिटिश भारतीय सेना के सदस्यों को पदक प्रदान किये गये।

 भारतीय विद्रोह पदक
290,000 भारतीय विद्रोह पदक प्रदान किये गये। दिल्ली की घेराबंदी और लखनऊ की घेराबंदी और राहत के लिए क्लैस्प्स प्रदान किए गए।

इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट
ब्रिटिश भारत की एक सैन्य और नागरिक सम्मान इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट को पहली बार 1837 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा पेश किया गया था, और 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद 1858 में क्राउन द्वारा इसे अपने कब्जे में ले लिया गया था। इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट 1837 और 1907 के बीच मूल सैनिकों के लिए उपलब्ध एकमात्र वीरता पदक था।

अमेरिका तथा कनाडा में गदर पार्टी (प्रथम विश्वयुद्ध के आगे-पीछे)

गदर राज्य-क्रान्ति -
अमेरिका और कनाडा पहुँचनेवाले प्रवासी भारतीयों ने सन् 1907 में ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन’ नाम की एक संस्था स्थापित की। सन् 1913 में कनाडा के सान फ्रांसिस्को नगर में ‘गदर पार्टी’ नाम की एक संस्था स्थापित की गई। इस संस्था का मुखपत्र गदर दुनिया के कई देशों में निःशुल्क भेजा जाता था। गदर पार्टी के संस्थापकों में लाला हरदयाल, सोहनसिंह भकना, भाई परमानंद, पं. परमानंद, करतारसिंह सराबा और बाबा पृथ्वीसिंह आजाद प्रमुख थे। इस पार्टी के हजारों सदस्य भारत को आजाद कराने के लिए जहाजों द्वारा भारत पहुँचे। ये लोग पूरे पंजाब में फैल गए और अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध गोपनीय कार्य करने लगे। गद्दारों की सूचनाओं से यह आंदोलन भी दबा दिया गया। सैकड़ों लोग गोलियों से भून दिए गए और सैकड़ों को फाँसी पर लटका दिया गया।

रासबिहारी बोस की क्रांति चेष्टा -
जब गोपनीय क्रांति समितियों द्वारा भारत की आजादी के प्रयास सफल नहीं हुए तो कुछ क्रांतिकारियों का ध्यान इस ओर गया कि सेना के बिना स्वाधीनता प्राप्त करना संभव नहीं है। सेना का निर्माण संभव नहीं था। इस बात का प्रयत्न किया गया कि अंग्रेजों के अधीन भारतीय सेनाओं को विप्लव के लिए भड़काया जाए और आजादी की दिशा में प्रयत्न किए जाएँ। महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस इस योजना के सूत्रधार थे। इस कार्य के लिए सेनाओं को तैयार कर लिया गया; लेकिन कृपालसिंह नाम के एक गद्दार ने भेद देकर सारी योजना पर पानी फेर दिया। कई क्रांतिकारियों को फाँसी दे दी गई।

हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ - (सन् 1915) 
रासबिहारी बोस के लेफ्टीनेंट शचींद्रनाथ सान्याल ने समस्त उत्तर भारत में एक सशक्त क्रांतिकारी संगठन खड़ा किया, इस संगठन की सेना के विभागाध्यक्ष रामप्रसाद बिस्मिल थे। इस संघ ने कई महत्त्पूर्ण कार्य किए; लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य ने इसकी कार्ययोजना को विफल कर दिया।

सशस्त्र क्रांति का प्रगतिशील युग -
इस युग को ‘भगतसिंह-चन्द्रशेखर आजाद युग’ के नाम से जाना जाता है। भगतसिंह क्रांतिपथ के मील के पत्थर की भाँति थे। इन लोगों ने ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ का नाम बदलकर ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ कर दिया। 
इस संघ के प्रगतिशील कार्य (उद्देश्य) थे—
01. पूरे भारत में क्रांतिकारी संगठन खड़ा करना,
02. क्रांति संगठन को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करना,
03. समाजवादी समाज की स्थापना करना।
04.  क्रांतिकारी आंदोलन को जन आंदोलन बनाना।
05. महिलाओं को क्रांति में प्रमुख स्थान प्रदान करना।
इस युग में भारत की आजादी के लिए जो प्रयत्न किए गए, वे अहिंसात्मक आंदोलनकारियों और क्रांतिकारियों द्वारा मिलजुलकर किए गए। इस आंदोलन के दो प्रमुख चरण थे। 
पहला चरण गांधी से पूर्व का आंदोलन और दूसरा गांधी युग।

महान क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु

अगस्त क्रांति सन् 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन
सन् 1942 में व्यापक जनक्रांति फूट पड़ी। ब्रिटिश शासन ने 9 अगस्त सन् 1942 को महात्मा गाँधी और सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया। गाँधी जी द्वारा ‘करो या मरो’ का नारा दिया जा चुका था। नेताविहीन आंदोलनकारियों की समझ में जो आया, वही उन्होंने किया। सशस्त्र क्रांति के समर्थक, जो ‘सत्याग्रह आंदोलन’ में विश्वास नहीं रखते थे, वे भी इस आंदोलन में कूद पड़े और तोड़-फोड़ का कार्य करने लगे। संचार व्यवस्था भंग करने के लिए तार काट दिए गए और सेना का आवागमन रोकने के लिए रेल की पटरियाँ उखाड़ी जाने लगीं। ब्रिटिश शासन ने निर्ममतापूर्वक इस आंदोलन को कुचल डाला। हजारों लोग गोलियों के शिकार हुए।

दक्षिण-पूर्व एशिया में आजाद हिंद आन्दोलन एवं आजाद हिंद फ़ौज -
द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों से ही भारत के क्रांतिकारी नेता सुभाषचंद्र बोस अपनी योजना के अनुसार ब्रिटिश जासूसों की आँखों में धूल झोंककर अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी जा पहुँचे। जब विश्वयुद्ध दक्षिण-पूर्व एशिया में उग्र हो उठा और अंग्रेज जापानियों से हारने लगे, तो सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से जापान होते हुए सिंगापुर पहुँच गए तथा आजाद हिंद आंदोलन के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिये। उन्हें नेताजी के नाम से पुकारा जाने लगा। आजाद हिंद आंदोलन के प्रमुख अंग थे—आजाद हिंद संघ, आजाद हिंद सरकार, आजाद हिंद फौज, रानी झाँसी रेजीमेंट, बाल सेना, आजाद हिंद बैंक और आजाद हिंद रेडियो। आजाद हिंद फौज ने कई लड़ाइयों में अंग्रेजी सेनाओं को परास्त किया तथा मणिपुर एवं कोहिमा क्षेत्रों तक पहुँचने और भारत भूमि पर तिरंगा झंडा फहराने में सफलता प्राप्त की। 
अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी नगरों पर परमाणु बम गिराने और भारी तबाही के कारण जापान ने हथियार डालने से नेताजी द्वारा भारत की आजादी के लिए किए जा रहे प्रयत्नों का पटाक्षेप हो गया। आजाद हिंद फौज के बड़े-बडे़ अफसरों को गिरफ्तार करके भारत लाया गया और उन पर मुकदमे चलाए गए। सुभाष चंद्र के विषय में सुना गया कि मोर्चा बदलने के क्रम में विमान दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण 18 अगस्त 1945 को फारमोसा द्वीप के ताइहोकू स्थान पर उनकी मृत्यु हो गई।
चुन्दरीगर ने तो कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए स्वयंसेवकों को लगाने तक का प्रस्ताव दिया था। नेहरू ने नौसैनिकों के विद्रोह का यह कहकर विरोध किया कि हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है। गाँधी ने 22 फ़रवरी को कहा कि हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं - मुसलमानों का एक साथ आना एक अपवित्र बात है। नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने कहा कि यदि उन्हें कोई शिकायत है तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। अरुणा आसफ अली ने इसका दोटूक जवाब देते हुए कहा कि नौसैनिकों से नौकरी छोड़ने की बात कहना उन कांग्रेसियों के मुँह से शोभा नहीं देता जो ख़ुद विधायिकाओं में जा रहे हैं।
नौसेना विद्रोह ने कांग्रेस और लीग के वर्ग चरित्र को एकदम उजागर कर दिया। नौसेना विद्रोह और उसके समर्थन में उठ खड़ी हुई जनता की भर्त्सना करने में लीग और कांग्रेस के नेता बढ़-चढ़ कर लगे रहे, लेकिन सत्ता की बर्बर दमनात्मक कार्रवाई के खिलाफ उन्होंने चूँ तक नहीं की। जनता के विद्रोह की स्थिति में वे साम्राज्यवाद के साथ खड़े होने को तैयार थे और स्वातन्त्रयोत्तर भारत में साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए तैयार थे। जनान्दोलनों की जरूरत उन्हें बस साम्राज्यवाद पर दबाव बनाने के लिए और समझौते की टेबल पर बेहतर शर्तें हासिल करने के लिए थी।

विद्रोह का प्रभाव
1967 में भारतीय स्वतंत्रता की 20 वीं वर्षगांठ पर एक संगोष्ठी चर्चा के दौरान; यह उस समय के ब्रिटिश उच्चायुक्त जॉन फ्रीमैन ने कहा कि 1946 के विद्रोह ने 1857 के भारतीय विद्रोह की तर्ज पर दूसरे बड़े पैमाने के विद्रोह की आशंका को बढ़ा दिया था। ब्रिटिश सरकार को डर था कि अगर 2.5 मिलियन भारतीय सैनिक जिन्होंने विश्व युद्ध में भाग लिया था, विद्रोह करते हैं तो ब्रिटिश में से कोई नहीं बचेगा और उन्हें अंतिम व्यक्ति तक मार दिया जाएगा"।
लिबिया लोबो, अंबिका दांडेकर, मित्रा बीर, सेलिना मोनिझ, शालिनी लोलयेकर, किशोरी हरमलकर ऐसी अनेक महिलाएं थीं जिन्होनें स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और कुर्बानियां दी। ये सूची बहुत लम्बी है।

खिलाफत आंदोलन एक तथ्य - 
प्रिंसेस दुर्रे शहवर सल्तनत ए उस्मानिया के आखिरी ख़लीफ़ा सुल्तान अब्दुल मजीद II की बेटी थीं इनकी शादी हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली खान के बेटे आजम जाह से हुई थी।

जब अतातुर्क ने आखिरी उस्मानी खलीफा को खिलाफत से अपदस्थ किया और फिर ख़िलाफ़त ए उस्मानिया के समापन की घोषणा की। खलीफा को देश से बाहर फ्रांस भेज दिया। अतातुर्क कमाल पाशा के इस अत्याचार का सबसे अधिक विरोध भारत में हुआ।
1919 में उस्मानी ख़िलाफ़त की पुनःस्थापना हेतु भारत  में खिलाफत आंदोलन शुरू हो गया। हैदराबाद के निज़ाम ने निर्वासन में फ्रांस में रह रहे ख़लीफा की आर्थिक सहायता की। दुनिया भर में विरोध को देखते हुए ब्रिटिश और कमाल अतातुर्क ने 3 मार्च 1924 को ख़िलफ़त के खात्मे का ऐलान कर दिया। इसके साथ ही भारत में खिलाफत आंदोलन भी खत्म हो गया।
लेकिन रिश्तों को बनाए रखने के लिए हैदराबाद के निज़ाम ने अपने बेटे प्रिंस आज़म जाह के लिए ख़लीफा की बेटी शहज़ादी दुर्रे शेवर को निकाह का संदेश भेजा। और ये पैग़ाम लेकर आए अल्लामा इकबाल ने शहज़ादी दुर्रे शेवर एवं नीलोफर का निकाह शहज़ादा आज़म जाह व मोअज़्ज़म जाह के साथ1932 में फ्रांस में संपन्न करवाई। इस तरह तुर्की की शहजादियां हैदराबाद के निज़ाम के घर बहू बनकर भारत आईं।

डॉ राममनोहर लोहिया और गोवा मुक्ति आंदोलन -
15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्र घोषित कर दिया। लेकिन गोवा, दमन और दीव में पुर्तगाली जमे रहे। पुर्गताली गोवा को किसी भी कीमत पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। पुर्तगालियों के खिलाफ स्थानीय लोगों ने विद्रोह किया।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरित होकर 1940 तक गोवा के स्वतंत्रता आन्दोलन ने गति प्राप्त कर ली थी। पूरे देश में जिस तरह अंग्रेजी शासन समाप्त करने के लिये आन्दोलन चल रहे थे, उसी तरह गोवा में भी पुर्तगालियों के खिलाफ स्थानीय लोगों का निरन्तर और स्वतः स्फूर्त प्रतिरोध शुरू हो गया। पुर्तगाली शासन द्वारा समय-समय पर गोवा वासियों को अपने पूर्ण नियंत्रण में लाने हेतु कठोर कदम उठाए गए उनका हमेशा कड़ा विरोध हुआ। गोवा कांग्रेस बनी और आजादी का आन्दोलन चलाया गया। भारत में जो कांग्रेस थी उसे उसका साथ मिला। गोवा को मुक्त कराने में डॉक्टर राममनोहर लोहिया का बहुत बड़ा योगदान रहा। 1946 में वह गोवा पहुंचे, जहां उन्होंने देखा कि पुर्तगाली तो अंग्रजों से भी बदतर थे। 18 जून 1946 को बीमार राम मनोहर लोहिया ने पुर्तगाली प्रतिबंध को पहली बार चुनौती दी। वहां नागरिकों को सभा सम्बोधन का भी अधिकार नहीं था। लोहिया से ये सब देखा नहीं गया और उन्होंने तुरन्त 200 लोगों की एक सभा बुलाई। तेज बारिश के बावजूद उन्होंने पहली बार एक जनसभा को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने पुर्तगाली दमन के विरोध में आवाज उठाई। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और मड़गांव की जेल में रखा गया। लेकिन जनता के भारी आक्रोश के कारण उन्हें छोड़ना पड़ा। पुर्तगालियों ने लोहिया के गोवा आने पर पांच साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन इसके बावजूद भी गोवा की आजादी की लड़ाई लगातार जारी रही।
11 जून 1953 को पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में भारत ने अपने दूतावास बन्द किए। फिर पुर्तगाल पर दबाव डालना शुरू किया। गोवा, दमन और दीव के बीच आने जाने पर बंदिशे लग गईं। 15 अगस्त 1955 को तीन से पांच हजार आम लोगों ने गोवा में घुसने की कोशिश की। लोग निहत्थे थे और पुर्तगाल की पुलिस ने गोली चला दी। 30 लोगों की जान चली गई। तनाव बढ़ने के बाद गोवा पर सेना की चढ़ाई की तैयारी की गई। 1 नवम्बर 1961 में भारतीय सेना के तीनों अंगों को युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा। भारतीय सेना ने अपनी तैयारियों को अंतिम रूप देने के साथ दो दिसंबर को गोवा मुक्ति का अभियान शुरू कर दिया।
जमीन से सेना, समुद्र से नौसेना और हवा से वायुसेना गई। इसे 'ऑपरेशन विजय' का नाम दिया गया। दिसंबर 1961 को गोवा की तरफ सेना पहली बार बढ़ी। सेना जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई लोग स्वागत करते गए। कुछ जगह पुर्तगाल की सेना लड़ी। लेकिन हर तरफ से घिरे होने के कारण पराजय तय थी। वायु सेना ने आठ और नौ दिसंबर को पुर्तगालियों के ठिकाने पर अचूक बमबारी की, थल सेना और वायुसेना के हमलों से पुर्तगाली तिलमिला गए। आखिर में 19 दिसंबर 1961 की रात साढ़े आठ बजे भारत में पुर्तगाल के गवर्नर जनरल मैन्यु आंतोनियो सिल्वा ने समर्पण सन्धि पर हस्ताक्षर किये। इसी के साथ गोवा पर 451 साल का पुर्तगाली राज समाप्त हुआ।
एक सो नब्बे साल चला संघर्ष कितना बड़ा था, कितने दिन चला, कितनों के वहां पर बलिदान हुए आदि की कसौटी पर इस संग्राम का मूल्यांकन करना कठिन होगा। उपनिवेश काल में अहिंसा वादी और सशस्त्र क्रांतियों के कारण भारत मुक्त हो पाया। इन क्रांतियों में ऐसे कई युवक सहभागी हुए, जिन्होंने स्वयं की आहुति दी परंतु इतिहास के पन्नों पर उनके नाम दर्ज नहीं हैं।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख आंदोलन - 
चौरीचौरा काण्ड
भारत छोड़ो आन्दोलन
आजाद हिन्द फौज
गदर पार्टी
काकोरी कांड
अनुशीलन समिति
युगान्तर
जलसेना विद्रोह (मुम्बई)
बंगभंग आन्दोलन
दिल्ली-लाहौर षडयन्त्र
हिन्दू-जर्मन षडयन्त्र
होमरुल आन्दोलन
हिंदुस्तान पब्लिकन एसोशिएशन
चुआड़ आन्दोलन

कुछ महत्वपूर्ण क्रांतिकारियों के नाम -
01. भगत सिंह
28 सितम्बर 1907 23 मार्च 1931 
1919 में सेन्ट्रल असेम्बली में बम फेंका।
उधम सिंह
26 दिसम्बर 1899 31 जुलाई 1940
केंगस्टन हॉल में गोलियां चलाई 
वंशीनाथन
1886 17 जून 1911
तिरुवैली के जिला कर अधिकारी की गोली मारकर हत्या
हेमू कालाणी
23 मार्च 1923 21 जनवरी 1943
रेल्वे ट्रेक उखाड़ फेंके
अशफाकुल्ला खान
22 अक्टूबर 1900 19 दिसंबर1927
काकोरी काण्ड
शचीन्द्रनाथ बख्शी
25 दिसम्बर 1904 23 नवंबर 1984
काकोरी काण्ड
मन्मथ नाथ गुप्त
7 फरवरी 1908 26 अक्टूबर 2000
काकोरी काण्ड
वासुदेव बलवन्त फड़के
4 नवम्बर 1845 17 फरवरी 1883
Deccan Rebellion
अनन्त लक्ष्मण कान्हेरे
1891 19 अप्रैल 1910
जैक्सन नामक अंग्रेज अधिकारी को गोली मारी।
कृष्णजी गोपाल कार्वे
1887 19 अप्रैल 1910
जैक्सन नामक अंग्रेज अधिकारी को गोली मारी।
गणेश दामोदर सावरकर
13 जून 1879 16 मार्च 1945
सशस्त्र विद्रोह
विनायक दामोदर सावरकर
28 मई 1883 26 फरवरी 1966
स्वतंत्रता आंदोलन
बाघा जतिन
7 दिसम्बर 1879 10 सितम्बर 1915
सीतापुर हत्याकांड, हिंदू जर्मन विद्रोह
बटुकेश्वर दत्त
18 नवम्बर 1910 20 जुलाई 1965
केंद्रीय असेंबली में बम कांड 1929
सुखदेव
15 मई 1907 23 मार्च 1931
केंद्रीय असेंबली में बम कांड 1929
शिवराम हरि राजगुरु
24 अगस्त 1908 23 मार्च 1931
जेपी सांडर्श हत्याकांड
रोशन सिंह
22 जनवरी 1892 19 दिसम्बर 1927
काकोरी काण्ड, बामरोली कांड
प्रीतिलता वाद्देदार
5 मई 1911 23 सितम्बर 1932
पहाड़ताली यूरोपीय क्लब पर आक्रमण
यतीन्द्र नाथ दास
27 अक्टूबर 1904 13 सितम्बर 1929
लाहौर कांड और भूख हड़ताल 
दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी)
7 अक्टूबर 1907 15 अक्टुबर 1999 '
हिमालयन टॉयज नामक बम कारखाने की संचालिका
भगवती चरण वोहरा
4 जुलाई 1904 28 मई 1930
बम बनाने के विशेषज्ञ
मदनलाल ढींगरा
18 सितम्बर 1883 17 अगस्त 1909
कर्जन वाइली की हत्या
अल्लूरी सीताराम राजू
1897  से 7 May 1924
रांपा विद्रोह 1922
कुशल कोंवार
1905 से  15 जून 1943
सीतापुर ट्रेन लूट कांड
सूर्य सेन (मास्टरदा)
22 मार्च 1894 12 जनवरी 1934
चितागोंग हथियार लूट कांड
अनन्त सिंह
1 दिसम्बर 1903 से 25 जनवरी 1979
चटगांव विद्रोह
अरविन्द घोष
15 अगस्त 1872 से 5 दिसम्बर 1950
अलीपुर बम काण्ड
रास बिहारी बोस
25 मई 1886 से 21 जनवरी 1945
आजाद हिंद फ़ौज
ओबैदुल्ला सिन्धी
10 मार्च 1872 से 22 अगस्त 1944
Silk Letter Conspiracy
योगेश चन्द्र चट्टोपाधाय
1895 से 1969
काकोरी काण्ड 
बैकुण्ठ शुक्ला
1907 से 14 मई 1934
फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या, जो सरकार का मुखविर था
अम्बिका चक्रवर्ती
1892 से 6 मार्च 1962
चित्ती गोंग हथियार लूट
बादल गुप्त
1912 से 8 दिसंबर 1930
राइटर्स बिल्डिंग पर हमला
दिनेश बसु
6 दिसंबर 1911 से 7 जुलाई 1931
राइटर्स बिल्डिंग पर हमला
विनय बसु
11 सितंबर 1908 13 दिसंबर 1930
राइटर्स बिल्डिंग पर हमला
राजेन्द्र लाहिड़ी
1901 से 17 दिसंबर 1927
काकोरी काण्ड
बारीन्द्र कुमार घोष
5 जनवरी 1880 से 18 अप्रैल 1959
अलीपुर बम कांड
प्रफुल्ल चाकी
10 दिसंबर 1888 से 1908
मुजफ्फरपुर हत्याकांड
उल्लासकर दत्त
16 अप्रेल 1885 17 मई 1965
अलीपुर बम कांड
हेमचन्द्र कानूनगो
1871 से 1951
अलीपुर बम कांड
बसवों सिंह
23 मार्च 1909 7 अप्रेल 1989
लाहौर हत्याकांड
भावभूषन मित्र
1881 से 27 जनवरी 1970
गदर पार्टी 
बीना दास
24 अगस्त 1911 से 26 दिसंबर 1986
बंगाल जर्नल स्टेनली जैक्शन की हत्या का प्रयास
वीर भाई कोतवाल
1 दिसंबर 1912 से 2 जनवरी 1943
कोतवाल दस्ता , भारत छोड़ो आन्दोलन 
रानी लक्ष्मीबाई
19 नवम्बर 1828 से 17 जून 1858 
1857 की क्रांति
ओम प्रकाश विज
1 जुलाई 1934 से 23 मार्च 2000
भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष

आज से 110 साल पहले यानी 25 मार्च 1915 को  स्वतंत्रता सेनानी रहमत अली और उनके साथी लाल सिंह, जगत सिंह और जीवन सिंह को मांटगेमरी जेल (अब पकिस्तान में) फांसी दे दी गई थी  ये लोग ग़दर पार्टी से जुड़े हुए थे..
हमें एक ख़ास क़िस्म के मुजाहिदे आज़ादी पसंद हैं  जिनसे सीयासत चमके। ऐसे गुमनाम शहीदों को श्रद्धांजलि देने वाले आज बहुत कम है। मगर जिन्होने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दी उनको अपना मक़सद प्यारा था ना की नाम और शोहरत।

       अब्दुल हबीब युसूफ मारफानी
रँगून के इस इस व्यवसायी ने आजाद हिंद फौज को एक करोड रूपये दान दिए, जो आज के लगभग दस हजार करोड रूपये होते हैं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इन्हें सेवा ए हिंद पदक दिया।
शमशेर भालू खान
25.03.2024

संदर्भ सामग्री - 
क्रांतिकारी साहित्य
आनन्द मठ - बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय
सत्यार्थ प्रकाश - स्वामी दयानन्द सरस्वती
1947 का स्वातंत्र्य समर - विनायक दामोदर सावरकर
हिन्द स्वराज - महात्मा गांधी
इंटरनेट

जिगर चुरुवी
शमशेर भालू खान
9587243963

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