घोड़ा एक परिचय -
घोड़े का प्रथम गुण गति है।
घोड़े की शक्ति को अश्व शक्ति (हॉर्स पावर) कहा जाता है। किसी इंजन की शक्ति अश्व शक्ति कहा जाता है।
उत्तम घोड़े की पहचान -
लंबे मुँह और बाल, भारी नाक, माथा और खुर, लाल जीभ और होठ तथा छोटे कान और पूँछवाले घोड़ों को उत्तम माना गया है।
घोड़े से संबंधित लोकोक्तियां एवं मुहावरे -
1. घोड़ा - शक्तिशाली
2. घोड़े की जीन बांधना - कार्य आरंभ की तैयारी करना।
3. घोड़े दौड़ाना - पूरी ताकत लगाना।
4. घोड़ा तो घोड़ी में ही रहेगा - जो होना है वही होगा।
5. घोड़े की नाल - टिकाऊ, लंबी अवधि तक टिकने वाला।
6. घोड़ी बनाना - शोषण करना।
7. घोड़ी मारना/ घोड़ी खोलना - नुकसान करना।
8. घोड़े की शक्ल - बदसूरत आदमी
9. घोड़े सी नाक फुलाना - असहमति दर्ज करवाना।
10. घोड़े पर चढ़ना - काम शुरू करना, जोखिम उठाना।
11. घर में घोड़ा घालना - नुकसानदायक काम करना।
12. घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या - व्यवसाय में रिश्तों का पालन नहीं किया जा सकता।
13 शह - हार (शतरंज में राजा को जितने से पहले घोड़े को जीतना होता है।
14. शाह - घोड़े का मालिक (कालांतर में यह शब्द बड़े पद या संभ्रांत व्यक्ति के लिए काम लिया जाने लगा आगे चलकर इस शब्द से शहंशाह शब्द बना।)
15. हॉर्स ट्रेडिंग - विधायकों एवं सांसदों की खरीद - फरोख्त करना।
एक शेअर -
गिरते हैं शह सवार ही मैदान ए जंग में
वो तिफ्ल क्या खाक गिरे जो घुटनों के बल चले।
घोड़ा पर्यायवाची -
घोड़ा, अश्व, तूर, खर, टट्टू, शह, तुरंग
घोड़े से संबंधित शब्द -
जीन/काठी - घोड़े की पीठ पर लगने वाला आसान।
रकाब/नकेल - घोड़े को काबू में करने हेतु सूत या चमड़े का रस्सा।
नाल - घोड़े के खुरों के नीचे लोहे की अर्द्ध गोल आकृति कील से ठोकी जाती है। घोड़े की नाल को शुभ मानते हुए इसे घरों में दीवार पर लगाया जाता है।
शहसवार/घुड़सवार - घोड़े का सवार
घुड़सवारी - घोड़े की सवारी
घुड़दौड़ - घोड़ों की दौड़
पागड़ा - घोड़े की काठी से जुड़ा लोहे का लटकता हुआ पैर रखने का साधन।
तुरही - एक वाद्य यंत्र जो युद्ध आरंभ से पहले बजाई जाती है।
घोड़ा - वैज्ञानिक वर्गीकरण -
एकलखुरी, कार्डेता स्तनधारी पालतू पशु।
वंश - ऐक़्विडे
जाति - ऐ. फ़ेरस
उपजाति - ऐ. फ. कैबेलस
वर्ग - ऐक़्वस फ़ेरस (Equus ferus)
त्रिपद नाम - ऐक़्वस फ़ेरस कैबेलस
घोड़े का इतिहास -
घोड़े का विकास लगभग पचास हजार साल पहले छोटे बहु-उंगली जीव, ऐओहिप्पस से हुआ। शेवालस्की घोड़ा प्रजाति एक मात्र जंगली नस्ल शेष है जो लुप्त होते प्राणियों की सूचि में शामिल है। इस वंश में घोड़ा, गधा, जेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड़-खर एवं खच्चर शामिल हैं जो घोड़े के निकट संबंधी हैं। घोड़े का वैज्ञानिक नाम ईक्वस नाम लैटिन भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ है। परंतु इस कुटुंब के दूसरे सदस्य ईक्वस जाति की ही दूसरों छ: उपजातियों में विभाजित है। अत: केवल ईक्वस शब्द से घोड़े को अभिहित करना उचित नहीं है। आज के घोड़े का सही नाम ईक्वस कैबेलस है। एक मान्यता के अनुसार आज के जंगली घोड़े उन्ही पालतू घोड़ो के पूर्वज हैं जो कभी बाद में जंगल में चले गए। मध्य एशिया के पश्चिमी मंगोलिया और पूर्वी तुर्की में मिलने वाले ईक्वस प्रज़्वेलस्की प्रजाति घोड़े को वास्तविक जंगली घोड़ा मानते हैं जो पालतू घोड़े के पूर्वजो में से एक है। दक्षिण अफ्रिका के जंगलों में जंगली घोड़े बड़े झुंडो (झुंड में सौ से हजार तक घोड़े) में पाए जाते हैं। झुंड में एक नर ओर कई मादाएँ होती हैं। जंगली घोड़ों में सामाजिक व्यवस्था पाई जाती है। झुंड का नेतृत्व एक घोड़ा करता है शेष सभी उसका आज्ञपालन। सभी झुंड बिना वैमनस्य भाव के शांति से निर्वाह करते हैं। संकट काल में सभी नर मादाओं को घेर आक्रांता से डटकर मुकाबला करते हैं। एशिया के जंगलों में ठिगने जंगली घोड़े विचरण करते हैं।
हिंदी शब्द तुरंत (तूर - घोड़ा) का अर्थ है घोड़े की गति। चेतक की राणा प्रताप के प्रति वफादारी आज भी प्रसिद्ध है। घोड़ा अपने मालिक के प्रति अति वफादार होता है। घोड़े की वफादारी पर डॉक्टर जाकिर हुसैन का लेख (कहानी रूप में) - भलाई का बदला भलाई काफी चर्चित रहा है।
पालतू घोड़ा -
मानव ने लगभग 6500 वर्ष पूर्व (आदि नूतन युग) घोड़े को पालतू बनाया। दक्षिणी रूस एवं दक्षिणी पूर्वी एशिया में सब से पहले घोड़ों को पालना शुरू किया गया।घोड़ों को वृहत स्तर पर पालकर प्रशिक्षित करने का काम आर्यो ने किया। एशिया से यह प्रजाति संपूर्ण विश्व में फैल गई। मानव इतिहास में महाभारत काल से पूर्व घोड़े के पालन एवं चिकित्सा के संबंध में प्रथम पुस्तक शालिहोत्र संहिता है। शालिहोत्र संहिता में घोड़ों की 48 नस्लों का वर्णन है जो इसके बालों के आवर्तों के अनुसार है। इसी आधार पर अश्व चिकित्सक को शालिहोत्र कहा जाता है। 12 -13वीं सदी में जयादित्य ने अश्ववैद्यक पुस्तक में घोड़े की चिकित्सा में अफीम के उपयोग का वर्णन किया है। खाद्य और कृषि संगठन, (एफएओ) के अनुमान के अनुसार विश्व में लगभग छः करोड़ घोड़े हैं। अमेरिका में दस लाख, एशिया (अरब सहित) मे डेढ़ करोड़ और यूरोप में तरेशठ लाख घोड़े हैं।
घोड़ों में प्रजनन -
इसका उद्देश्य उत्तमोत्तम घोड़ों की नस्ल पैदा करना है। उत्तम जाति के नर - मादा के संसर्ग से प्राप्त संकर नस्ल अधिक उपयोगी होती है। यह सदियों पहले इतना सुंदर,शक्तिशाली एवं धावक नहीं था जितना आज है। लगातार संकरण से उत्तम से अतिउत्तम नस्ल सुधार होता गया। घोड़ों की परिवेश अनुसार अपनी विशेषताएं होती हैं। संकरण से बछेरे में माता और पिता के विशेष गुण आते जाते हैं। इंग्लैंड में अश्व संकरण के प्रथम प्रयास हेनरी अष्टम ने किए। अश्वों नस्ल सुधार हेतु राजकीय नीति बनाई गई। दो वर्ष के पांच फुट से कम ऊंचाई के घोड़ों को बधिया कर दिया जाता था। इंच से कम रहते थे संतानोत्पत्ति से वंचित रखा जाता था। विश्व के अनेक भागों से उत्तम किस्म के घोड़े इंग्लैंड मंगवाए गए और संकरण के माध्यम से उत्तम नस्ल का प्रजनन करवाया गया। गर्भवती घोड़ी को हल्का परंतु लगातार पर्याप्त व्यायाम एवं पोषक आहार आवश्यक है। इसका गर्भकाल 11 माह होता है। नवजात बछेरे को मां का दूध पर्याप्त मात्रा में निश्चित समय अंतराल पर छः माह तक पिलाया जाता है।
घोड़े की उपयोगिता -
सदियों से घोड़े मानव संस्कृतियों में अहम भूमिका निभाते आ रहे हैं। घोड़ों का उपयोग युद्ध, खेल, कृषि, परिवहन, सवारी एवं प्रतियोगियों में किया जाता है। घुड़सवारी कौशल एवं लगातार प्रशिक्षण के बाद ही संभव होती है। घोड़े को भी इस हेतु अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाता है।
घोड़े के प्रशिक्षक एवं व्यवसायिक सार को जोकि कहते हैं।
वर्तमान में तेज गति वाहनों के कारण इनकी उपयोगिता कम हो गई है। घोड़े अब शोक या खेल के लिए ही पाले जाते हैं। अब युद्ध एवं सवारी के स्थान पर शौकिया घोड़ा पालन ही किया जाता है। सेना में भी अब परेड के उपयोग हेतु ही घोड़ों का उपयोग होता है।
घोड़े का चारा -
घोड़े को पौष्टिक आहार की अधिक जरूरत होती है। यह सूखी या हरी घास, भूसा, अनाज, चना, दाल एवं जौ बड़े चाव से खाता है। इसे विटामिन एवं प्रोटीन मय मिश्रित चारा खिलाना आवश्यक है। घोड़े शाकाहारी एवं छोटे पेट वाले होते हैं, इसलिए उन्हें अपने पाचन तंत्र को काम करने के लिए काफ़ी मात्रा में फ़ाइबर की ज़रूरत होती है। रेस के घोड़ों को दिन में कई बार गाढ़ा चारा खिलाते हैं। घोड़े की उम्र, वज़न, नस्ल, और विकास की अवस्था के हिसाब से उसे अलग-अलग चारा खिलाना चाहिए। बूढ़े, चोटिल, और ज़्यादा काम करने वाले घोड़ों को ज़्यादा प्रोटीन और विटामिन की ज़रूरत होती है।
घोड़े को नमक, फल, और सब्ज़ियां भी खिलाई जाती हैं। घोड़े को ताज़ा पानी की भी ज़रूरत होती है।
घोड़े का प्रशिक्षण -
घोड़े को प्रशिक्षित हेतु थोड़ा-थोड़ा लगातार निश्चित छोटे सत्र का अभ्यास कार्यक्रम तय करना चाहिए। घोड़ों की याददाश्त अच्छी होती है, इसलिए वे दोहराव से सीखते हैं। प्रशिक्षण के दौरान घोड़े की शारीरिक भंगिमा पर ध्यान देना चाहिए। घोड़े को ऊबने या निराश होने से बचाना चाहिए। घोड़े का प्रशिक्षण सरल से कठिन की ओर धीमी प्रतिक्रिया से चरणवार प्रारंभ करना चाहिए। घोड़े को प्रशिक्षण के बाद पर्याप्त आराम देना चाहिए। घोड़े को प्रशिक्षित करने के लिए, क्लिकर प्रशिक्षण पद्धति का उपयोग अधिक प्रभावी होती है। का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। क्लिकर प्रशिक्षण में सही गतिविधि पर क्लिकर की आवाज़ के साथ उसे इनाम दिया जाता है। प्रशिक्षण हेतु ड्राइव लाइन पद्धति का इस्तेमाल उत्तम है।
घोड़े में बीमारियां एवं उनका उपचार शालिहोत्र -
श्रावस्ती निवासी शालिहोत्रि भारत में पशु चिकित्सा शास्त्र के जनक माने जाते हैं। उन्होंंने शालिहोत्र संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की।
शरीर के अंगों के अनुसार भी घोड़ों के नाम, त्रयण्ड (तीन वृषण वाला), त्रिकर्णिन (तीन कानवाला), द्विखुरिन (दोखुरवाला), हीनदंत (बिना दाँतवाला), हीनांड (बिना वृषणवाला), चक्रवर्तिन (कंधे पर एक या तीन अलक वाला), चक्रवाक (सफेद पैर और आँखों वाला) दिए गए हैं। गति के अनुसार तुषार, तेजस, धूमकेतु, एवं ताड़ज नाम के घोड़े बताए हैं। इस ग्रन्थ में घोड़े के शरीर में १२,००० शिराएँ बताई गई हैं। बीमारियाँ तथा उनकी चिकित्सा आदि, अनेक विषयों का उल्लेख पुस्तक में किया गया है, जो इनके ज्ञान और रुचि को प्रकट करता है। इसमें घोड़े की औसत आयु ३२ वर्ष बताई गई है। मुँह की लंबाई २ अंगुल, कान ६ अँगुल तथा पूँछ २ हाथ लिखी गई है। उच्च वंश, रंग और शुभ आवर्तोंवाले अश्व में भी यदि गति नहीं है, तो वह बेकार है।
घोड़े की नस्ल -
घोड़ों का विकास ईयोसीन युग में हुआ जब रॉकी, ऐन्डीज़, एवं आल्पस पर्वत श्रृंखलाओं ने आकार लेना शुरू किया तब हाथी, गैंडे, बैल, बंदर और घोड़े के पूर्वज भी दिखाई देने लगे। एक अनुमान के अनुसार घोड़े का प्रथम स्तनधारी पूर्वज मनुष्य से लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया, जिसे हायिराकोथिरियम कहा गया। यह लगभग 12 इंच लंबा, लोमड़ी के समान छोटा एवं पैर लंबे और पतले थे। इसके आगे के पैरों में चार अँगुलियाँ जबकि पीछे के पैरों में तीन अँगुलियाँ थी। धीरे-धीरे आगे के पैर की चौथी अंगुली गायब हो गई, और शेष तीन अँगुलियां अल्पविकसित खुर में बदल गईं, बाहरी अंगुलियां अर्धविकसित उपांगों में सिकुड़ गईं। दक्षिणी अमेरिका में में मिले जीवाश्म के अनुसार खुर वाले स्तनधारियों परिवार की उत्पत्ति इसी क्षेत्र में हुई। माना जाता है कि बाद में हायिराकोथिरियम उत्तर की ओर एशिया तथा यूरोप में फैल गये। जलवायु परिवर्तनों के कारण 4 करोड़ वर्ष पूर्व हायिराकोथिरियम पूरी तरह से विलुप्त हो गए। नई अनुकूलित नस्ल औरोहिप्पस विकसित हो कर बाद में एपिहिप्पस नस्लों में बदली। इसके बाद तीन अँगुलियों वाले मेसोहिप्पस घोड़े का विकास हुआ, जिसमें चौथी अँगुली का अभाव था। इस छोटी नस्ल के कई अंगों का विकास हो चुका था। इसके बाद मियोहिप्पस तथा पेराहिप्पस घोड़े का विकास हुआ, जो कि आकार में थोड़े बड़े थे। विकास के इस क्रम में मेरीकिप्पस नाम की नस्ल का विकास हुआ जो वर्तमान घोड़े का करीबी है। इसके बाद प्लायोसीन युग में प्लायोहिप्पस नस्ल का विकास हुआ, जो वर्तमान घोड़े ईक्वस का निकटतम पूर्वज था। यही नस्ल आगे चल कर आधुनिक घोड़े में विकसित हुई। घोड़े के विकास क्रम में आकार में वृद्धि, टाँगों का लंबा होना, बाँई और दाईं अँगुलियों का कम होना, बीच की अँगुली का खुरों में बदलना आदि परिवर्तन होते गए। इस प्रकार धीरे-धीरे घोड़ों की विविध नस्लों का विकास हुआ। समय के साथ घोड़े की कई प्रजातियां या नस्लें विलुप्त हो चुकी हैं, तथा अनेकों नस्ल निकट भविष्य में विलुप्त होने की कगार पर हैं।
जंगल, जू में भी आज इनकी कोई निशानी शेष नहीं है।
कैनेडियन नस्ल -
लुई 14वें द्वारा 350 वर्ष पूर्व निर्यातित फ्रांसीसी संकरित नस्ल जो आज संकटग्रस्त कनाडा के इस राष्ट्रीय घोड़े को बहुमुखी प्रतिभा के रूप में जाना जाता है। इनका रंग काला या गहरा भूरा होता है।इसे क्यूबेक/लिटिल आयरन हॉर्स भी कहते हैं जो मजबूत और शक्तिशाली होने के साथ ही विपरीत पर्यावरण परिस्थितियों में यह घोड़ा स्वयं को अनुकूलित कर सकता है। वर्तमान में विश्व में इनकी संख्या लगभग 6000 बची है।
इनके सिर बारीक तराशे, गर्दन ढलानदार (धनुषाकार), लंबी पूंछ, सख्त खुर, समझदार, मिलनसार, और खुशमिजाज़ होते हैं जो लंबे समय तक जीवित रहते हैं।
अरबी घोड़ों से पुरानी घोड़े की इस नस्ल को दुनिया के सबसे सुंदर और दुर्लभ घोड़ों में से एक माना जाता है विलुप्ति के कगार पर है। इसके बालों की विशेष चमक इसे अन्य घोड़ों से अलग पहचान देती है। इस नस्ल को लंबी दूरी तय करने वाली घुमंतू जनजातिय जीवन शैली के अनुरूप विकसित किया गया था। आंतरिक प्रजनन के कारण घोड़े की यह नस्ल संकटग्रस्त स्थिति में है।
इंग्लैंड के उत्तरी भाग की मूल नस्ल डेल्स पोनी का विकास शीशे के खनन की शुरुआत के समय हुआ। इन की सहायता से खदानों से अयस्कों को उत्तरी सागर के बंदरगाहों तक ले जाया जाता था। वर्तमान में इस उत्खनन कार्य में कमी के कारण इन घोड़ों की संख्या में बड़ी गिरावट आई है। वर्तमान में इनका उपयोग मनोरंजन एवं सवारी के तौर पर किया जाता है। ब्रिटेन में इनकी आबादी 300 से कम और विश्व में 5,000 से कम है।
मजबूत पैरों और मांसपेशियों वाला सफोल्क पंच घोड़ा भारी सामान ढोने में माहिर है जिसका विकास 1768 के आस - पास माना गया है। प्रथम विश्व युद्ध से पहले इस नस्ल को बहुत अधिक पसंद किया जाता था, किन्तु कृषि के मशीनीकरण से घोड़े की इस नस्ल की संख्या में अत्यधिक गिरावट आई।
क्लीवलैंड बे घोड़ा इंग्लैंड की सबसे पुरानी नस्ल मानी जाती है, जो अत्यधिक बलवान और समझदार स्वभाव की होती है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस नस्ल की संख्या में गंभीर गिरावट आई। रानी एलिजाबेथ ने इसे संरक्षण प्रदान किया। इस नस्ल को शिकार, शो जंपिंग, खेतों और परिवहन हेतु काम किया जाता है। संकरण द्वारा इससे घोड़े की अन्य नस्ल ओल्डेनबर्ग व हनोवरियन नस्ल में सुधार किया गया। यह संकटग्रस्त नस्ल है।
न्यूफाउंडलैंड पोनी कनाडा के न्यूफाउंडलैंड और लैब्राडोर प्रांत में पाए जाने वाली घोड़ों की यह नस्ल वास्तव में अंग्रेजी, आयरिश और स्कॉटिश नस्लों के मिश्रण से उत्पन्न हुई हैं। मजबूत और अत्यधिक मांसल होने के कारण यह नस्ल बहुपयोगी परंतु घुड़सवारी हेतु उपयुक्त है। यह नस्ल अति संकटग्रस्त है।
अमेरिकन क्रीम घोड़ा : यह नस्ल अपने भव्य शैम्पेन/क्रीम जैसे रंग और पारभासी, सुनहरी आंखों के लिए प्रसिद्ध है। खेती हेतु उपयुक्त इस घोड़े की नस्ल संकटग्रस्त है।
स्कॉटलैंड के हाइब्रिडियन द्वीपों की मूल की एरिस्के पोनी मूल रूप से पश्चिमी आइल पोनीस के रूप में जानी जाती है। यह शांत स्वभाव के लिए जाना जाता है। यह कठोर और अत्यधिक ठंडी जलवायु में भी अपने अस्तित्व को अच्छी तरह बनाए रख सकता है। टांगा खींचने हेतु उपयुक्त यह नस्ल वर्तमान में संकटग्रस्त है।
कैस्पियन घोड़ा : घोड़े की इस प्राचीन नस्ल के घोड़े विभिन्न रंगों के होते हैं जो लगभग 3000 ईसा पूर्व के हैं। इस प्रकार इन्हें दुनिया की सबसे पुरानी नस्लों में से एक माना जाता है। संरक्षण प्रयासों के कारण इनकी संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन इसे अभी भी दुर्लभ घोड़ों की नस्लों में से एक माना जाता है।
हैकनी घोड़े की नस्ल को इंग्लैंड में विकसित किया गया। यह गाड़ी चलाने हेतु उत्तम हैं। हैकनी में अच्छी सहनशक्ति होती है, और वे लंबे समय तक उच्च गति से दौड़ने में सक्षम होते हैं।
ब्रिटिश द्वीपों के पर्वतीय और दलदली घोड़ों में से सबसे बड़ा हाईलैंड पोनी देशी स्कॉटिश घोड़ा है। जो 1880 में संकरण से विकसित हुआ। इसे परिवहन, ट्रैकिंग और सवारी हेतु काम लिया जाता है । वे मजबूत और दृढ़ और किफायती होते हैं।
शायर घोड़ा -
शानदार और दुर्लभ शायर घोड़ा अपनी ऊंचाई और ताकत के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है, जिसने दुनिया में सबसे लंबा घोड़ा होने का रिकॉर्ड बनाया है। क्लाइडसडेल के समान दिखने वाले ये घोड़े बड़े खुरों और पैरों पर पंखों के साथ बड़े विशाल होते हैं। लेकिन अपने भव्य आकार के बावजूद, शायर घोड़े आमतौर पर शांत, विनम्र और खुश मिजाज होते हैं।
अरबी घोड़ा -
घोड़ों की बात हो और अरबी घोड़ों को नजर अंदाज कर दिया गया तो सब अकारथ होगा। यह (मध्य पूर्व एशिया और उत्तरी अफ्रीका) के अरब प्रायद्वीप में विकसित हुआ। इन्हें घुमंतू बद्दू जनजाति द्वारा पाला और विकसित किया। अरबी घोड़ों का औसत वजन 400 किलो, औसत ऊंचाई 60 इंच, रंग मटमेला,, काला, तांबा रंग या सफेद होता है। यह साबिनो या रेकेबिनो पेटर्न में भी पाए जाते हैं। कुछ अरबियन घोड़ों में (सभी में नहीं) 6 के स्थान पर 5 काठ कशेरुक और 18 के बजाय 17 जोड़ी पसलियां होती हैं।
अरबी घोड़ों की विशिष्ट पहचान है उनकी
बारीक नक्काशीदार अस्थि संरचना, धनुषाकार गर्दन, ऊंची पूंछ और मजबूत पुट्ठे, लंबा सिर, चौड़ा माथा, बड़ी आंखें, बड़े नथुने और छोटी थूथन। विभिन्न अच्छी नस्ल के नस्लों से इस घोड़े की नस्ल बनाई गई जो अच्छे स्वभाव, सीखने में तेज,सतर्क, वफादार और खुशमिजाज नस्ल है। अरब में युद्ध हेतु मुख्यतः इस नस्ल को काम में लिया जाता था। इन घोड़ों को काबू में करना मुश्किल होता है। कालांतर में अरबी घोड़ों का संपूर्ण विश्व में निर्यात किया जाने लगा। आज अरब के घोड़े पूरी दुनिया में पाए जाते हैं। अब उन्हें बेडौइन नस्ल के आधार पर वर्गीकृत नहीं किया जाता है, बल्कि दिए गए वंशावली में प्रसिद्ध घोड़ों के मूल देश के आधार पर अनौपचारिक रूप से वर्गीकृत किया जाता है। अरब के लोकप्रिय प्रकारों को पोलिश, स्पेनिश, क्रैबेट, रूसी, मिस्र, केलॉग, डेवनपोर्ट, मेन्सबोरो, बैबसन, डिकेंसन और सेल्बी नस्ल सम्मिलित हैं। अमेरिका में, क्रैबेट, मेन्सबोरो और केलॉग रक्त रेखाओं के एक विशिष्ट मिश्रण का कॉपीराइट पदनाम "CMK" प्राप्त किया है।
विश्व अरबियन हॉर्स एसोसिएशन (WAHO) के पास शुद्ध नस्ल के अरबियन की सबसे व्यापक परिभाषा है। WAHO के अनुसार शुद्ध नस्ल का अरबियन घोड़ा वह है जो WAHO द्वारा स्वीकार्य के रूप में सूचीबद्ध किसी भी शुद्ध नस्ल के अरबियन स्टड बुक या रजिस्टर में दिखाई देता है। इसके अनुसार विश्व में ज्ञात शुद्ध नस्ल के अरबियन घोड़ों में से 95% से अधिक WAHO की स्टड बुक में पंजीकृत हैं।
अल खम्सा संगठन के अनुसार घोड़े जिन्हें अल खम्सा अरब घोड़े कहा जाता है, उत्तरी अमेरिका के वे घोड़े हैं जिन्हें अरब प्रायद्वीप के रेगिस्तान के घोड़ा-प्रजनन करने वाले बेडौइन जनजातियों द्वारा पैदा किया गया।
सीरिया में कुछ शुद्ध रक्त शुद्धता वाले रेगिस्तानी नस्ल के अरबी घोड़ों की पंजीकृत शुद्ध नस्ल के रूप में स्वीकार किए जाने में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सीरियाई बद्दुओं ने अपने घोड़ों की शुद्धता को सत्यापित करने हेतु प्रयास नहीं किए। अंततः सीरियाई लोगों ने अपने जानवरों के लिए एक स्टड बुक विकसित की जिसे 2007 में वर्ल्ड अरेबियन हॉर्स एसोसिएशन द्वारा स्वीकार किया गया।
भारत में घोड़ों की नस्ल -
भारत में घोड़ों की कई नस्लें पाई जाती हैं।
भारत में घोड़ों का पालन ज़्यादातर पंजाब, राजस्थान, गुजरात, और मणिपुर में होता है। कृषि आयोग के अनुसार, भारत में घोड़ों को मोटे तौर पर दो वर्गों में रखा जा सकता है। धीमी गति से चलने वाले और तेजी से चलने वाले घोड़े। भारत में मारवाड़ी, काठियावाड़ी, मणिपुरी, स्पीति, भूटिया और जंस्करी देसी नस्ल हैं। इनमें से, मारवाड़ी और काठियावाड़ी को कुछ समानताओं के बावजूद अलग-अलग नस्लों के रूप में माना जाता है।
भारत में घोड़ों की विदेशी नस्लों में अंग्रेजी थोरब्रेड, वाटर, अरब, पोलिश, कोनीमेरा और हाफलिंगर शामिल हैं। अरबी घोड़ों ने काठियावाड़ी, मारवाड़ी, सिंधी, मालानी और मणिपुरी घोड़ों के विकास में योगदान दिया। संकरण की अनुपलब्धता के कारण घोड़ों की सभी देशी नस्लों की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आ रही है और यह अपनी पहचान खोने की कगार पर हैं।
भारत में घोड़ों, गधों, टट्टू व खच्चर की संख्या 12वीं पशु गणना के अनुसार साढ़े ग्यारह लाख थी जो 20वीं पशुगणना के अनुसार 5 लाख 40 हजार रह गई है।
भारतीय घोड़े की नस्लें -
मालवी -
यह घोड़े मालवा (महाराष्ट्र क्षेत्र) में पाए जाते हैं।
भूटिया -
भूटिया घोड़े सिक्किम और दार्जिलिंग में पाए जाते हैं जिनका रंग ग्रे या बे रंग के होता है। यह तिब्बती टट्टू के समान होते हैं।
चुम्मरती -
भारतीय घोड़े चुम्मरती एक संकटग्रस्त नस्ल है। हिमाचल प्रदेश इसका मूल निवास है।
दक्कनी -
संकटग्रस्त
काठियावाड़ी -
गुजरात के कठियावाड़ (सौराष्ट्र) क्षेत्र में पाई जाने वाले इस नस्ल का उपयोग युद्ध में अधिक किया जाता था। इसके शरीर का रंग लाल या काला होता है। पूंछ और गर्दन के बाल काले होते हैं। इनके माथे तक त्रिकोणीय और छोटा थूथन, बड़े नथुने, नासिका का किनारा पतला है 90 डिग्री अक्ष पर छोटे, महीन और घुमावदार सीधे कान (180 डिग्री पर घूम सकते हैं), चौड़ा माथा और बड़ी आंखें, लंबी पूंछ होती है। इनका औसत लंबाई 119 सेमी, ऊंचाई 147 सेमी होती है। कान की लंबाई 15 सेमी, चेहरे की लंबाई 53 सेमी और चौड़ाई 21 सेमी होती है।
पूर्वोत्तर के मणिपुर - असम क्षेत्र में सदियों से घोड़ों की पहाड़ी और सादे दोनों नस्लों के गुणों वाले मणिपुरी घोड़ों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। अपनी बुद्धिमत्ता के लिए प्रसिद्ध मणिपुरी घोड़ों का उपयोग पोलो और रेसिंग के लिए किया जाता है। यह नस्ल विलुप्त होने के कगार पर मानी जाती है। मणिपुरी घोड़े टट्टूओं की मणिपुरी नस्ल भारत के घोड़ों की सबसे शुद्ध और प्रतिष्ठित नस्लों में से एक है जो चरम भू-जलवायु परिस्थितियों में पूर्ण अनुकूलता वाली मजबूत और कठोर नस्ल है। इसकी गर्दन मोटी और सीधी, कान छोटे नुकीले, आंखें तिरछी, सपाट नाक, अवतल चेहरा, लंबी पूंछ और सरल स्वभाव इसकी पहचान है। मणिपुरी टट्टू बुद्धिमान और सहनशक्ति वाले होते हैं। यह नस्ल 14 रंगों में उपलब्ध है जैसे बे, ब्लैक, ग्रे, मोरा व्हाइट, लीफॉन व्हाइट, सिनाई व्हाइट, स्टॉकिंग, लिवर चेस्टनट, रोआन, लाइट ग्रे, रेडिश ब्राउन और डार्क बे।
यह नस्ल दार्जिलिंग (सिक्किम) क्षेत्र की मूल नस्ल है जो संकटग्रस्त है।
स्पिती -
स्पीति घोड़े स्पीति घाटी और हिमाचल प्रदेश के कुल्लू और किन्नौर क्षेत्र के आसपास के क्षेत्रों में पाये जाते हैं जिसके दो प्रकार हैं
1. स्पीति
2.कोनीमारे
स्पिती घोड़े कद में छोटे (गधे से थोड़ा अधिक)होते हैं। कोनिमारे टट्टू थोड़े लम्बे होते हैं। वे खाने की कमी, कम तापमान और उच्च स्थानों पर लंबी यात्रा के लिए उपयुक्त हैं। इनका उपयोग सवारी और सामान ढोने हेतु अधिक किया जाता है। स्पीति घोड़े कठोर और पक्के खुर व मोटे (लंबे मोटे बालों से ढके) पैर वाले होते हैं। गर्दन (अयाल) में 20 से 30 सेंटीमीटर लंबे बाल होते हैं। इसका उत्तल चेहरा, उभरे हुए कान, काली आंखें, सीधी पीठ, लंबी और सीधी पूंछ, छोटा कद इस नस्ल विशेषताएं हैं। इनकी औसत लंबाई 97 सेंटीमीटर, ऊंचाई 127 सेंटीमीटर, कान 15 सेंटीमीटर, चेहरे की लंबाई 49 सेंटीमीटर और चेहरे की चौड़ाई 20 सेंटीमीटर होती है।
जांसकारी घोड़े जम्मू और कश्मीर के लेह और लद्दाख क्षेत्र में पाए जाते हैं। इसका स्लेटी, काला और तांबा रंग होता है। यह घोड़े समान लंबा चलने, दौड़ने और ऊंचाई पर भार उठाने की क्षमता के कारण प्रसिद्ध हैं। जांसकारी घोड़े की ऊंचाई 120 से 140 सेमी होती हैं। इसकी भारी बड़ी आँखें, लंबी पूंछ, शरीर पर पतले, लंबे और चमकदार खास पहचान है।
वर्तमान में ज़ांस्कर और लद्दाख की अन्य घाटियों में केवल कुछ सौ घोड़े मौजूद हैं। टट्टूओं के साथ बड़े पैमाने पर संकरण ने इस नस्ल को खतरे में डाल दिया है। पशुपालन विभाग, जम्मू और कश्मीर ने हाल ही में चयनात्मक प्रजनन के माध्यम से नस्ल सुधार और संरक्षण के लिए लद्दाख के कारगिल जिले के पदुम ज़ांस्कर में ज़ांस्करी हॉर्स ब्रीडिंग फार्म की स्थापना की है।
यह स्वदेशी घोड़े गुजरात के कच्छ और राजस्थान के जैसलमेर - बाड़मेर क्षेत्र के मूल निवासी हैं। इनकी नाक रोमन, सिर पर मुड़े हुए कान, ऊंचाई 56 से 60 इंच, ऊंचाई कम, छोटी पीठ, विनम्र स्वभाव एवं मजबूत खुर होते हैं। इनका मुख्य रंग बे एवं शाहबलूत है। इन घोड़ों की नाक की हड्डी बीच में उठी हुई होती है और नथुनों के सिरे पर तेजी से गिरने से तोते की सी नाक कहा जा सकता है। कान सीधे होते हैं और हर समय अलग रहते हैं। ये घोड़े अपनी रेवल चाल के कारण प्रसिद्ध हैं। घोड़े में शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्र में सूखा और गर्मी सहन करने की क्षमता होती है।इनकी कुल आबादी करीब चार हजार है।
उत्तरी भारत के पंजाब और हरियाणा में पायी जाती है और खिलाने के लिए प्रसिद्ध है।
थोरब्रेड -
घुड़दौड़ के लिए उत्तम थोरब्रेड को इंग्लैंड से भारत लाया गया। थोरब्रेड घोड़े की शुद्ध नस्ल है जिसे गर्म खून वाला वाला घोड़ा भी कहा जाता है। यह चपलता, गति और जोश के लिए जाने जाते हैं। थोरब्रेड्स में लंबी गर्दन पर एक अच्छी तरह से तराशा हुआ सिर, ऊंचे कंधे , गहरी छाती, छोटी पीठ, पिछले हिस्से की अच्छी गहराई, दुबला शरीर और लंबे पैर होते हैं। इसकी औसत ऊंचाई 157 से 173 सेमी होती है।
सन 1174 में थोरब्रेड का विकास डोले अरेबियन घोड़े ओर गोडोफ्लिन अरेबियन नस्ल के संकरण से किया गया।
मालानी/मारवाड़ी घोड़ा -
काठियावाड़ी और सिंधी घोड़ों के संकरण से बना मालानी घोड़ा राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र का है। घोड़ा शक्ति और सुंदरता के लिए जाना जाता है। पोलो और घुड़दौड़ के लिए इन घोड़ों की मांग अधिक रहती है।
यह घोड़ा कठोर सवारी वाला होता है.
यह घोड़ा यह घोड़ा सभी प्रकार के रंगों में पाया जाता है। इसके दोनों कान मिले होते हैं। मारवाड़ी घोड़ों का शरीर की लंबाई 130-140 सेमी, ऊंचाई 166-175 सेमी, चेहरे की लंबाई 60 सेमी, चेहरे की चौड़ाई 22 सेमी, कान की लंबाई 18 सेमी और पूंछ की लंबाई 47 सेमी होती है। इसका औसत वजन नर 365 किलो - मादा 340 किलो होता है। यह नस्ल सोलहवीं सदी में तुर्की घोड़ों की नस्ल से प्रभावित हुई।
एक किंवदंती के अनुसार "मारवाड़ी घोड़ा केवल तीन स्थितियों में जीत, मृत्यु या घायल मालिक को सुरक्षित स्थान पर ले जाने हेतु ही युद्ध का मैदान छोड़ सकता है।"
भीमथड़ी घोड़े -
कभी मराठा साम्राज्य के गौरव रहे ऐतिहासिक भीमथड़ी घोड़े 200 वर्ष तक उपेक्षित रहे। हाल में इसे अलग नस्ल की मान्यता मिलने इनकी संख्या में इजाफा हो रहा है। पुणे (महाराष्ट्र) में भीमथड़ी घोड़ा फॉर्म की स्थापना की गई है। इसे मराठों का चेतक भी कहा जाता है। इस नस्ल को और बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केन्द्र के प्रभागाध्यक्ष डॉ. एस.सी. मेहता ने तीन साल के अनुसंधान के परिणाम के आधार पर इस घोड़े को घोड़ों की आठवीं नस्ल के रूप में मान्यता दिलाई है।
कुछ तथ्य -
🐴 के जंगली संबंधियों से भी यौन संबंध स्थापति करने पर बाँझ संतान उत्पन्न नहीं होती है।
🐴 खड़े - खड़े सो सकता है।
🐴 बिना रुके लंबी दूरी तय कर सकता है।
🐴 व्यवसायिक दौड़ हेतु घोड़ों की आयु की गणना उत्तरी गोलार्ध में पैदा होने एक जनवरी, दक्षिणी गोलार्ध में पैदा होने वाले एक अगस्त से की जाती है।
🐴को काम शास्त्र में मुख्य भूमिका दी गई है।
🐴 तुर्की,मंगोलिया एवं चीन में घोड़े का मांस खाया जाता है।
स्रोत -
राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान संस्थान
पशु - पालन विभाग
फोटो -
गूगल के साभार
शमशेर भालू खां
9587243963
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