Thursday, 6 February 2025

✅ऊंट

ऊंट - 🐫 
                    ऊंट 
         झूट (मद) करते हुए ऊंट
ऊंट - एक परिचय - 
एडर - एडर को ऊंट का पांचवां पैर भी कहते हैं। यह ऊंट के पेट के नीचे (आगे वाली टांगों के पास) होता है। एडर पेट को जमीन पर टिकने से बचाता है। इससे ऊंट का पेट गर्म रेत से दूर रहता है। इसी मोटी - खुरदरी त्वचा की परत चारों पैरों के घुटनों पर होती है।

कहावत एवं लोकोक्तियां - 
ऊंट - नासमझ।
ऊंट के मुंह में जीरा - बहुत कम।
ऊंट पर चढ़ना - मुश्किल काम करना।
ऊंट वालों से यारी पर दरवाजे ऊंचे करने पड़ते हैं - बराबरी का व्यवहार करना।
देखो किस करवट बैठता है ऊंट - अनिश्चय की स्थिति।
ऊंट को छत पर चढ़ाना - मुश्किल काम करना
अक्ल बिना ऊंट उभाना - ना समझी के कारण नुकसान।
ऊंट चढ़े को कुत्ता काटना - अनहोनी होना।
ऊंट की तरह रिझना - बहुत अधिक परिश्रम करना।
टोडा बोता कोले - कोले - सब एक समान (नकारात्मक)
ऊंट वालों से जो करो यारी मेरे राजा तो ऊंचा करो घर का दरवाजा - बराबरी करने वाले को खर्च भी बराबर उठाना पड़ता है।

पर्यायवाची - 
ऊंट, भेत, करला, मदवा, डगरा

नाम - 
ऊंट camel 🐪 
सांड (मादा ऊंट)
टोडियो - नर बच्चा
टोरडी - मादा बच्चा


ऊंट उत्पत्ति - 
ऊँट को अरबी भाषा में जमल कहते हैं जिसका अर्थ है ”सुंदरता”।
ऊंट की उत्पत्ति लगभग दो करोड़ वर्ष पहले उत्तरी अमरीका में हुई। उत्पत्ति के समय इनका आकार पाँच उँगलियों वाले खरगोश के बराबर था। क्रमानुसार विकास द्वारा लगभग एक लाख वर्ष पूर्व ये आधुनिक आकार के दो उँगली वाले पशु बने। इस बीच इनके आकार में अत्यधिक परिवर्तन हुआ। ऊंट के विभिन्न वंशजों के कंकाल अमरीकी चट्टानों में मिले हैं, वर्तमान आकार के ऊंटों के कंकाल यूरोप तथा एशिया में पाए गए हैं। 
एक लाख वर्ष पूर्व ऊंट अमरीकी भूखंड में जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तर और दक्षिण दिशा में फैल गए। इनकी एक शाखा उत्तर पश्चिम प्रांतों से होती हुई एशिया, यूरोप तथा अफ्रीका पहुँची और दूसरी शाखा पनामा के स्थल - डमरू-मध्य होती हुई दक्षिण अमरीका पहुँची। ऊंट एक शाकाहारी जीव है। लगभग 2000 साल पहले मानव ने ऊंट को पालतू बनाया। ऊंट का दूध और मांस खाया जाता है तथा इसके बाल एवं चमड़ा घरेलू उत्पाद हेतु काम में लिए जाते हैं।

ऊंट कुल - 
इस कुल के पैर कोमल तथा चौड़े होते हैं, खुर नहीं होते, एक जोड़ा छेदक दांत होते हैं, भेदक (चीर फाड़ वाले canine) दांत छोटे होते हैं, या नहीं होते। आमाशय में तीन - चार थैलियां होती हैं जिनमें से पहली दो जल संग्रहण थैलियां होती हैं। इनके कूबड़ का अधिकांश भाग वसा निर्मित होता है और आहार की कमी पर शरीर के पोषण में काम आता है। साँड (ऊंटनी, dromedary) का कूबड़ अल्प विकसित होता है। इनका निर्वाह कंटीली वनस्पतियों पर निर्भर है। यौन उत्तेजन के समय नर ऊंट बर्बर हो जाते हैं और तालु को लाल गुब्बरे के समान फुला लेते हैं जिसे गुल्ला कहा जाता है। मांस भक्षियों की तरह परन्तु खुरीय प्राणियों के विपरीत ऊंट अपने अंगों को समेट कर लेट जाते हैं।

जन्म एवं औसत आयु - 
ऊंटनी के प्रत्येक दो वर्ष के अंतराल में बच्चे का जन्म लगभग 400 (ग्यारह माह) दिनों के गर्भकाल के बाद होता है। ऊंटनी से संभोग हेतु ऊंट को झूंट (मस्ती) होनी जरूरी है, ऐसे समय में ऊंट को मदवा कहते हैं। ऊंटनी से संभोग हेतु प्रायः मनुष्यों का सहारा लिया जाता है, क्योंकि ऊंट का लिंग उल्टी दिशा में होता है। एक ऊंटनी जीवन काल में लगभग 12 से 15 बच्चे पैदा कर सकती है। इसकी औसत आयु लगभग 45 वर्ष होती है। ऊंट का बच्चा दूसरे दिन घूमने फिरने लगता है और सप्ताह भर में यह लगभग तीन फुट उँचा हो जाता है। ऊंट तीन वर्ष की अवस्था होने वयस्क होने लगते हैं। इस समय पालक  या रेबारी ऊंट का प्रशिक्षण शुरू कर देते हैं। ऊंट की आयु का पता उसके दांत और नेस से चलता है। 12 वर्ष का ऊंट संभोग हेतु तैयार हो जाता है।

ऊंट  - 
पालतू एक कूबड़ वाले ऊंट मरुस्थल के निवासी होते हैं। एक कूबड़ धारी ऊंट अरब से थार क्षेत्र अफ्रीका के सहारा क्षेत्र (मिश्र,सूडान), सऊदी अरब, इराक, ईरान, पाकिस्तान (बलूचिस्तान) तथा भारत (राजस्थान) में मिलते हैं। इनके शरीर पर छोटे और भूरे रंग के बाल होते हैं। पूँछ के किनारे बाल अधिक लंबे होते हैं। इनके कान छोटे गर्दन तीन फुट तक लंबी होती है। कंधा भूमि से सात फुट ऊँचा होता है। अंग्रेजी भाषा में इनको ड्रॉमिडरी कहते हैं।
एशियाई ऊंट दो प्रकार के होने पर भी आपस में संतानोत्पादन कर सकते हैं। ऐसी संतान में कूबड़ एक ही होता है, पर बाल लंबे होते हैं। माता पिता की अपेक्षा ऐसी संतान अधिक परिश्रमी होती है।
नर ऊंट का भार लगभग 500 से 700 किग्रा और मादा ऊंट का औसत भार लगभग 400-600 किग्रा. होता है। जन्म के समय बच्चे का बच्चा 35 से 40 किग्रा होता है।

कूबड़ विहीन ऊंट - 
यह आकार में छोटे (ऊँचाई तीन फुट एवं लंबाई चार फुट गर्दन दो फूट लंबी) होते हैं। इनके प्रत्येक पैर के नीचे दो पृथक् पृथक् गद्दियाँ होती हैं। इनके कान कुछ लंबे और नोकीले होते हैं। इनके आमाशय में जलकोश नहीं होता। पूँछ अधिक से अधिक छह इंच लंबी होती है।

               ऊंट का बच्चा

ऊंट का मल - 
ऊंट के मल को मिंगना कहते हैं। खाद्य पदार्थ का समस्त पानी निचोड़ लेने के कारण यह शुष्क होते हैं। मिंगना जलावन के काम आते हैं।
ऊंट के मूत्र को चीड कहा जता है। यह गाढ़ा और सफेद होता है। ऊंट के पेशाब के साथ ही खारे पानी का नामक भी निकल जाता है। सांप काटने पर ऊंट का मूत्र पिलाया जाता है। पुराने समय में औषधीय कारण से ऊंट का मूत्र पिया जाता था।

ऊंट को वश में करने एवं श्रृंगार के साधन - 
मोरी - एक रस्सी जो ऊंट की नाक में लगे गिरबान से बंधी होती है।
गिरबान - बचपन में ही ऊंट की नाक के दोनों नथुने फाड़ कर उसमें लकड़ी की बनी कील डाल देते हैं। इन लकड़ी की किलों को गिरबान कहते हैं।
सेबा - ऊंट को वश में करने हेतु उसके दोनों नथुनों में तांबे या पीतल की गोल कड़ी या तार डाल दिया जाता है। इस कड़ी या तार को सेबा कहते हैं।
मोरिया - ऊंट के कानों पर और नथुनों से थोड़ा ऊपर आंखों के पास से गले में रस्सी को बुन कर डाला गया एक विशेष रस्सा।
पागड़ा - ऊंट पर बनी मचान (कूंची/डोल/पिलान) से लोहे या धातु से बनी अर्ध गोलाकार वस्तु जिस में सवार अपने पैर फंसता है।
पिलान - ऊंट को गाड़ा जोड़ने हेतु सांकल लटकाने और उसे स्थिर करने हेतु थूई (कूबड़) पर रखा जाने वाला साधन। कभी कभी पिलान पर चढ़ कर भी सवारी की जाती है।
कूंची - कपड़े या चमड़े से बने थड़ों (अन्दर घास भरी होती है) वाला लकड़ी का ढांचा। इस से ऊंट पर आसन बनाया जाता है जहां दो सवारी बैठ सकती हैं।
डोल - चमड़े का बना आसान जो कूबड़ को घेर लेता है। इस के नीचे रंग बिरंगी नक्काशी की हुई कपड़े की चादर लगी होती है।
गोरबंद - ऊंट को सजाने हेतु सर और गर्दन पर लगाई जाने वाली रंग बिरंगी बुनी हुई रस्सियां।
छेवटी - पिलान या डोल के नीचे ऊंट पर बिछाई जाने वाली सुंदर कपड़े की चादर जिसके चारों कोने थोड़े लटकते हुए हों।
पैंजनी - पीतल की खोखली छड़ जिसमें लोहे की गोलियां भरी होती हैं। यह छड़ ऊंट के पैरों में डालने से चलने पर छन - छन की आवाज आती है।
टाली - पीतल की घंटी जो ऊंट के गले में बांधी जाती है।
घुंघरू - टाली के साथ ही घुंघरू पैरों में और गले में पीतल के घुंघरू बांधे जाते हैं।
पुराणी - ऊंट को हल जोतते समय हाथ में ली जाने वाली लकड़ी।
तंगड़ - ऊंट को हल जोतते हेतु हल को ऊंट से जोड़े रखने का साधन जो रस्सियों, कपड़ों और खपच्चियां से बना होता है।
पुनणी - हल और तंगड़ को संबंधित करने वाली अर्ध चंद्राकर लकड़ी की फट्टी।
नैश - पुनणी और हल को जोड़ने वाली गोल गुंथी हुई रस्सी।
ठाण - ऊंट के चरने का स्थान।
हल - लकड़ी से बना ऊंट से खेत जोतने का साधन जिसके अंग हैं 
कुश - लोहे की लंबी चौकोर छड़
पात - लोहे की चपटी पत्ती 
बिजौलिया - बीज डालने का थैला जो हाली अपने कंधों पर लटकाता है।
बांसिया - बांस का खोखला डंडा जो ऊपर से छील कर चौड़ा किया जाता है। इसी के माध्यम से बीज बोया जाता है।
पट्टिया - तंगड़ को ऊंट के शरीर से मजबूती से बांधने हेतु निवार की पट्टी जो ऊंट के एडर के पास से बांधी जाती है।
बेल - ऊंट चोरी रोकने हेतु मोटी सांकल जो चाबी से खुलती है। यह ऊंट के पैरों में बांधी जाती है।

नाम - 
प्रचलित नाम - रेगिस्तान के जहाज
हिंदी - ऊँट
अरबी - जमल
इंग्लिश - Camel 🐫 
संस्कृत - उष्ट्र 
राजस्थानी - 
नर  - ऊँट
मादा - सांड 
नर बच्चा - टोरड़ा, टोडीया
नर बच्ची - टोरड़ी
ऊंट परिवार - भेत
ऊंटों का समूह - टोला
सामान ले जाने हेतु कार्य - कतार
ऊंटों का डॉक्टर - रेबारी

वैज्ञानिक वर्गीकरण - 
जीव वर्ग - खुरधारी
जगत - जंतु
संघ - कौरडेटा
वर्ग - स्तनधारी
गण - आर्टियोडैकटिला
कुल - कैमलिडाए
वंश समूह - कैमलिनाए 
वंश - कैमेलस
नस्ल - 
ड्रोमडेरिअस - अरब-थार का एक कूबड़ (पश्चिमी एशिया के सूखे रेगिस्तान में)
बैक्ट्रियन - दो कूबड़ (मध्य और पूर्व एशिया में)

ऊंट परिवार (केमलस) - 
ऊंट परिवार में छह प्राणी हैं 
1. ड्रोमडेरिअस
2. बैक्ट्रियन
(दोनों वास्तविक ऊँट)
3. लामा
4.अल्पाका
5.गुआनाको
6.विकुना

1. ड्रोमडेरिअस - 
अरब-थार (पश्चिमी एशिया के सूखे रेगिस्तान में) का एक कूबड़ वाला ऊंट।
2. बैक्ट्रियन -  
मध्य एवं पूर्व एशिया में दो कूबड़ वाला ऊंट।
     (दोनों का विस्तार से विवरण नीचे)

3. लामा - 
लामा की उत्पत्ति उत्तरी अमेरिकी मैदानों में चार करोड़ वर्ष पूर्व हुआ। उत्तरी अमेरिका से चल कर यह दक्षिण अमेरिका आ गये। लगभग बारह हजार वर्ष पूर्व (हिमयुग के अंत में) उत्तरी अमेरिका से कैमेलिड विलुप्त हो गये।
नम्र प्रकृति वाला लामा गुआनाको का वंश सदस्य है। आकार में बड़े गुआनाको को स्थानीय भाषा में लामा कहते हैं। ऊंट की तरह इसे सवारी व भार ढोने हेतु काम में लिया जाता है। इनके बाल सफेद होते हैं। शत्रु से बचाव हेतु यह मुंह में जमा खाना उगल कर उसके ऊपर फेंक कर बचाव करता है।
वयस्क लामा की ऊँचाई 5.5 से 6 फुट तक एवं वजन 130 से 200 किलो होता है। लामा एक सामाजिक एवं बुद्धिमान पशु है और यह दूसरे लामाओं के साथ झुंड में रहना पसन्द करते हैं। यह किसी सरल काम को कुछ प्रयासों के बाद सीख सकता है। लामा अपने वजन का 25% से 30% वजन ले जा सकता है। कुछ वर्ष पूर्व लामा को यूरोप तथा आस्ट्रेलिया में पालने के प्रयत्न हुए परन्तु सफलता नहीं मिली। इसी प्रकार एशियाई ऊंटों को अमरीका में पालने का प्रयास किया गया परन्तु यह योजना भी असफल रही।
लामा और अलपाका आपस में संतानोत्पादन करते हैं, पर ऐसी संतानों में उत्पादन शक्ति नहीं होती।

4. गुआनाको - 
हल्के लाल रंग के बालों वाले यह जीव दक्षिणी अमरीका के पैटागोनिया और टियेरा-डिल-फिउगों प्रांतों के पहाड़ी अंचलों में पाए जाते हैं। इनके बाल हल्के लाल रंग के होते हैं।
                 गुआनाको

5. अल्पाको - 
गुआनाको की एक नस्ल जो कद व आकार में छोटे होते हैं। इनके बाल घने, लंबे और सफेद होते हैं। स्थानीय भाषा में इनको अलपाका' कहते हैं। ये केवल ऊन के लिए पाले जाते हैं। यह ऊँट की तरह एक जानवर है जो दक्षिण अमेरिका के पेरू क्षेत्र में पाया जाता है । इसके बाल लंबे एवं मुलायम होते हैं । अल्पाको की उन से पतला कपड़ा बनाया जाता है। यह रेशम या सूत के साथ मिला कर बनाया जाता है। यह कई रंगों का बनता है, पर विशेषकर काला होता है।
                  अल्पाको 

6.विकूनिया - 
अमरीकी ऊंट को 'विकुनिया' नाम से जाना जाता है। ये गुआनाको की अपेक्षा छोटे होते हैं जो दक्षिणी अमरीका के पश्चिमी तट पर ईक्वेडर, चिली, पेरू तथा बोलिविया प्रांतों की एंडीज पर्वत श्रेणी क्षेत्र में पाए जाते हैं। शिकारी लोग इनका शिकार करते हैं। ये पूर्णत: जंगली पशु हैं। इनके बाल हल्के बादामी रंग के होते हैं।
                   विकूनिया

ऊंट की विशेषताएं - 

राजस्थान में ऊंट के विभिन्न नाम - 
किशोर - टोरड़ा (टोडीया) - टोरड़ी
जवान - मदवा 
बूढ़ा - करला 
एक से अधिक ऊंट - भ त
अधिक संख्या में - टोला
राजस्थान में ऊँट एवं उसकी नस्ल - 
ऊंट थार के रेगिस्तान का महत्वपूर्ण पशु है। ऊंट को सवारी करने, भार ढोने, हल जोतने, रहट चलाने, ईख पेरने तथा गाड़ियों में जोतने के काम में लाया जाता है। सवारी करने हल जोतने रहट चलाने व गाड़ी में भार ढोने के लिए रेगिस्तानी क्षेत्रों में इसे सबसे ज्यादा उपयुक्त माना गया है। पहाड़ी क्षेत्रों में भी इसे भार ढोने के लिए काम में लेते हैं। ऊंट के बालों से कंबल बनाए जाते हैं। सन 2012 में पशु गणना के अनुसार राजस्थान में ऊंटों की संख्या 0.32 मिलियन है। भारत में पाई जाने वाली ऊंटों की मुख्य प्रजातियां बीकानेरी, जैसलमेरी, मेवाड़ी, कच्छी और सांचौरी है।  कार्य के आधार पर भारतीय ऊंटों को दो भागों में बांटा जा सकता है सामान ढोने वाले और सवारी करने वाले सामान ढोने वाला ऊंट हट्टा-कट्टा और सवारी वाले का शरीर हल्का होता है। 
राजस्थान में ऊंट की तीन मुख्य नस्लें पाई जाती है बीकानेर, जैसलमेरी और मेवाड़ी नस्ल।

बीकानेरी नस्ल
इस नस्ल के ऊंट का मूल स्थान बीकानेर क्षेत्र है। बीकानेर के जोहड़- बीड़ में राष्ट्रीय ऊष्ट्र अनुसंधान केंद्र है। यह नस्ल सिंधी एवं बलूची ऊंटों के संकरण से से तैयार हुई है।
बीकानेरी ऊंट का रंग गहरा भूरा हल्का काला होता है। ऊंट की ऊंचाई जमीन से थुई तक 10 से 12 फीट तक होती है। शरीर गठीला एवं मजबूत होता है। आंखें गोल व बड़ी होती हैं। खोपड़ी गोलाकार एवं उठी हुई होती है। जहां खोपड़ी आगे की और खत्म होती है वहां एक गड्ढा होता है जिसे 'स्टॉप' कहते हैं जो इस नस्ल की खास पहचान है। ऊंट की आंखों, कानों एवं गले पर लंबे लंबे काले बाल पाए जाते हैं। सिर मंझले दर्जे का एवं भारी होता है। आंखें चमकदार एवं बाहर निकली हुई होती है। आंखों के ऊपर की तरफ गड्ढा सा होता है जहां से नाक की हड्डी ऊपर उठी हुई दिखाई देती है इससे यह नस्ल सुंदर लगती है। वर्तमान में जो नस्ल बीकानेरी ऊंट की है वह विश्व के सबसे सुंदर ऊंटों में से है। आंखों की भौहों पर व पलकों पर घने काले बाल होते हैं। कान छोटे-छोटे और ऊपर से गोलाई लिए हुए होते हैं। गर्दन मंझलें आकार की नीचे से गोलाई लिए होती है। थुई बड़ी एवं पीठ के बीच में होती है। छाती की गद्दी अच्छी सुदृढ़ होती है जो इसको बैठने में सहायक होती है। अगले पैर लंबे सीधे और मजबूत हड्डियों वाले होते हैं पिछले पैर अगले पैरों की अपेक्षा कमजोर, अंदर की ओर मुड़े हुए होते हैं। पूंछ के दोनों ओर नीचे की तरफ लंबे काले बाल होते हैं। अंडकोष गोल, बड़े एवं पीछे की ओर निकले होते हैं। मादा ऊंटों में थन बड़े-बड़े एवं चूचक में दो-दो छेद होते हैं। दूध की वाहिनी बड़ी व उन्नत होती है। इस नस्ल के ऊंट सभी कामों के लिए उपयुक्त है। ज्यादातर बोझा ढोने एवं कृषि कार्य में काम में लिए जाते हैं।

जैसलमेरी नस्ल
जैसलमेरी नस्ल के ऊंट का रंग हल्का भू रंग का होता है एवं ऊंचाई 7 से 9 फीट तक होती है। इस नस्ल के ऊंट का शरीर छोटा एवं पतला होता है। आंखें चमकदार एवं सिर के अनुपात से बड़ी होती है। इस नस्ल के ऊंटों का कपाल उठा हुआ नहीं होता एवं स्टॉप भी नहीं होता जो कि बीकानेरी नस्ल में होता है। कान छोटे पास पास होते हैं। पैर पतले एवं छोटे होते हैं। पैरों के तलवे भी छोटे व हल्के होते हैं जो तेज चलने में सहायक हैं।
जैसलमेरी नस्ल सवारी हेतु उपयुक्त हैं। प्रशिक्षित ऊंट एक रात में 100 से 140 किमी तक यात्रा कर सकता है। सेना व पुलिस के जवान गश्त के लिए इस नस्ल के ऊंटो को काम में लेते हैं।

मेवाड़ी नस्ल
अरावली की पहाड़ियों में बसे उदयपुर के आसपास के क्षेत्र को मेवाड़ कहा जाता है। पुराने जमाने में सामान लाने ले जाने एवं यात्रा हेतु ऊंट, पंजाब से लाए गए थे उन्होंने अपने आप को इस क्षेत्र के अनुकूल ढाल लिया एवं धीरे-धीरे एक नस्ल का रूप ले लिया और इस क्षेत्र के ऊंट मेवाड़ी कहलाते हैं। यह नस्ल राजस्थान के पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर गुजरात तक फैली हुई है।
इस नस्ल के ऊंट की लंबाई मध्यम आकार की होती है। इनका हल्का भूरा रंग होता है। आंखें छोटी-छोटी होती है। पैर छोटे एवं तलवे कठोर होते हैं। हड्डियां मोटी व मजबूत होती हैं। मुंह के नीचे का होंठ गिरा हुआ होता है। जो इस नस्ल की खास पहचान है। सिर बड़ा एवं भारी होता है। गर्दन छोटी एवं मोटी होती है। शरीर पर बाल घने, सख्त एवं मोटे होते हैं। इस ऊंट की औसत गति 3 से 5 मील प्रति घंटा होती है। इस नस्ल के ऊंटों को कृषि कार्य एवं भार को ढोने के लिए काम में लिया जाता है। इस नस्ल की मादा लगभग 4 से 6 लीटर दूध प्रतिदिन देती है।

ऊंट की विशेषताएं - 
सदियों से कठिन रेगिस्तानी परिस्थितियों में रहते हुए इसकी शारीरिक बनावट उसी के अनुकूल हो गई -
1.ऊंट रेगिस्तान में लगभग इक्कीस दिन तक बिना पानी पिये चल सकता है। यह 7 दिन बिना पानी पिए रह सकता है।
2. ऊंट भोजन की ओर आकृष्ट हो कर जिस दिशा में चल पड़े तो उसी दिशा में चलते रहेंगे। ऊंट निवास स्थान से अधिक लगाव नहीं रखते। 
3. ऊंट की प्रकृति उग्र होती है। कभी कभी यह मालिक पर हमला भी कर देते हैं। अधिक गुस्सा आने पर ऊंट अपने पैर को काटना शुरू कर देता है जिसे इरकी करना कहते हैं। ऊंट मालिक की मार को लंबे समय तक याद रख कर उसे अकेले पा कर पैरों तले रौंद कर या दांतों से काट कर मार डालता है। कभी कभी ऊंट मालिक के ऊपर बैठ जाता है और तब तक नहीं छोड़ता जब तक कि वह मर नहीं जाए।
4. ऊंट की याद रखने की अद्भुत क्षमता होती है। कई वर्षों के अंतराल के बाद भी और सरलता वह पुराने निवास स्थान पर पहुंच जाता है।
5.विशाल शरीर के कारण यह तेज धूप से बचाव नहीं कर पाता, किंतु बड़े आकार के ऊंट छोटे आकार के ऊंट की अपेक्षा दिन की गर्मी में धीरे-धीरे गर्म होता है। 
6.ऊंट रेगिस्तान में पानी की खोज में दूर-दूर तक जा सकता है।
7. ऊँट के बाल धूप की किरणों को प्रतिबिम्बित कर देते हैं, जिसके कारण उनके शरीर में ठंडक कायम रहती है।
8. ऊंट अपनी पीठ अपने वजन का आधा भार उठा सकता है।
9. ऊँट की नज़र और सुनने की क्षमता तीव्र होती है।
10. ऊँट अतिरिक्त वसा को कुबड़ (थूई) में चर्बी के रूप में जमा करता रहता है। अकाल के समय यह वसा शरीर की ऊर्जा देती है। कुबड़ आकार में 50 सेंटीमीटर ऊंची  200 सेंटीमीटर घेराव वाले होते हैं जो अकाल में ऊर्जा देने के बाद सिकुड़ जाते हैं।
11. ऊँट के पैर तपती हुई धरती से उसके शरीर को दूर रखने हेतु लम्बे होते हैं।
12.सर्दियों में ऊँट कई महीनो तक बिना पानी के रह सकता है।
13. ऊंट की त्वचा के नीचे वसा की तह नहीं के कारण अतिरिक्त ताप को निकालना सुविधाजनक रहता है।
14. इसके पैर के पंजों की हड्डियां चौड़ी वह चपटी होती है जो गद्देदार चमड़ी में धंसी होती है। ऊंट के चलने पर दबाव के कारण गद्देदार पंजा फैलता है जो रेत में सुदृढ़ पकड़ पैदा करता है इस कारण रेतीली भूमि पर सुगमता से चल सकता है। इसी क्षमता के कारण से रेगिस्तान का जहाज भी कहा जाता है।
15. ऊंट के वक्ष स्थल एवं चारों पैरों के घुटनों पर मोटी कठोर त्वचा की गद्दी होती है । ऊंट जब बैठता है तब केवल यही भाग भूमि के संपर्क में आता है । शरीर के अन्य भाग ऊंचाई पर रहते हैं।
16. ऊंट की गर्दन व सिर का कठिन परिस्थितियों में जीवित रहे पाने में एक महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके होंठ अत्यधिक संवेदनशील होते हैं जिससे कंटीली झाड़ियों एवं वृक्षों से पत्तियां चरते हुए कांटे चुभने से बचाव होता है। 
17. ऊंट की उभरी हुई भौंहे सूर्य के प्रकाश की चौंध से उसकी आंखों का बचाव करती हैं। यह भौहें 10 सेंटिमीटर लम्बी होती हैं जो उसकी आँखों में रेत को जाने से रोकती हैं।
18. उनके कानों पर उगे बाल रेत को अंदर नहीं जाने देते।
19. ऊंट ने रेगिस्तान के वातावरण से अनुकूलन कर लिया है। लगभग सात फीट लम्बा, और 680 किलो का यह जीव बिना भोजन और पानी के लम्बे समय तक जीवित रह सकता है। यह शरीर में पानी की 25% कमी तक सहन कर पाता है। हरे पौधे खाने से, ऊँट को पानी के तत्त्व मिलते हैं। पानी मिलने पर लगभग 150 लीटर पानी एक साथ पी लेते हैं। ऊँट के रक्त वाहिकाओं का आकार बड़ा होता है जिसके कारण यह कई दिनों तक बिना खाए - पिए जीवित रह सकता है।
20. रात के समय ऊंट के शरीर का तापमान लगभग 34 डिग्री सेल्शियस होता और दिन के समय, 41 डिग्री सेल्शियस तक रहता है।
21. एक घंटे में ऊँट, 40 मील तक दौड़ सकता है।
22. ऊंट स्वयं को किसी खतरे से बचाने हेतु यह चारों पैर लात मारने लगता हैं।
23. राजा-महाराजा युद्ध के समय ऊँट का इस्तेमाल करते थे।
24. ऊँट को पालकर प्रशिक्षित कर उन्हें कई काम लिए जा सकते हैं।
25. ऊँट समूह में रहना पसंद करते हैं।
26. ऊँट का मुँह दो भाग में बँटा होता है।
27. ऊंट कम समय के लिए बहुत तेज़ (लगभग 65 किलोमीटर प्रति घंटा) दौड़ सकते हैं।
28. ऊँट लेटकर सोते हैं।
29. गाय - भैंस की तरह ऊँट भी खाए हुए भोजन को फिर से मुँह में लाकर चबा सकता है।

वर्तमान में ऊंट की स्थिति - 
भारत और राजस्थान में ऊंटों की संख्या लगातार कम हो रही है। ऊंटों की संख्या कम होने के कारण उनका अस्तित्व संकट में है। 
ऊंटों की संख्या कम होने के कुछ कारण- 
1. उपयोगिता कम होना।
2. ऊंटों की तस्करी।
3. ऊंटों हेतु खाने की चीज़ें कम हो रही हैं।
4. ऊंटों में बीमारियां फैल रही हैं।
5. ऊंटों की प्रजनन दर धीमी होती जा रही है।
6. परिवहन के आधुनिक साधनों के कारण ऊंटों के खरीददार नहीं मिल पा रहे हैं, जिससे यह अनुपयोगी हो रहे हैं।
7. ऊंटनी के दूध के प्रसंस्करण और विपणन की व्यवस्था नहीं है।

उपाय - 
ऊंटों के संरक्षण के लिए राजस्थान सरकार ने साल 2014 में उन्हें राज्य पशु घोषित किया। किसान अथवा पशु पालक के यहां ऊंट का बच्चा पैदा होने पर उसके पालन -पोषण हेतु 10000 रुपए आर्थिक सहायता दी जाती है। इसके बावजूद भी ऊंटों की संख्या में लगातार कमी होती जा रही है।
ऊंट को जिंदा सांप खिलाने की परम्परा - 
अरब और अफ्रीका में ऊंट को जिंदा सांप खिलाया जाता है। इनका मानना है कि इससे ऊंट में अधिक लंबी दूरी तय करने की शक्ति आती है, ऊंट का पाचन तंत्र मजबूत होता है।
पूरी बात समझने के लिए यह वीडियो देखें - ऊंट को जिंदा सांप खिलाने का रिवाज

उस्ता कला - 
मीनाकारी या मुनव्वत के काम को उस्ता कला कहते हैं. यह कला राजस्थान के बीकानेर और टोंक में प्रसिद्ध है।
फारसी भाषा का शब्द उस्ताद से बना है शब्द जिसका अर्थ होता है गुरू ।
उस्ता कला ईरान से दिल्ली होते हुए बीकानेर पहुंची। महाराजा बीकानेर राय सिंह उस्ता कलाकारों को बीकानेर ले कर आए। विभिन्न धार्मिक, सामाजिक पौराणिक घटनाक्रम ऊंट के बाल कतर कर प्रदर्शित किए जाते हैं। विलुप्त होती इस कला को केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा दिया है। उस्ता कला के लिए हिसामुद्दीन उस्ता को वर्ष 1986 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। इस कला में ऊंट के बालों को कई रंगों में रंगा भी जाता है जिनमें लाल, हरा और नीले रंग मुख्य है। कला जगत् में बीकानेर की उस्ता कला ने खास मुकान बनाया है। राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय व्यापार मेलों, प्रदर्शनियों में इस कला से सज्जित ऊँट की खाल की सुराहिया, कुप्पियां, टेबल लैंप, आभूषणों ने विशेष आकर्षण पैदा किया है। इससे बने झरोखे, फोटो फ्रेम, आईने, गजराजर, ढोलामारू, घोडे, बैलगाडियां, उस्ता कला की बेजोड कलाकृतियां साबित हुई है। देश के प्रमुख महानगरों में हस्तकलाओं के शोरूमों में बीकानेर में बनी उस्ता कला की कृतियां चाव से पंसद की जाती है।

ऊंट को कतरना - 
कैंची से ऊंट के बालों पर की जाने वाली कलाकारी। यह काम रायका करता है। इसमें पणिहारी एवं पाबू जी की फाड़ का मांडना किया जाता है।

वर्तमान में यदि ऊंट इसी तरह उपेक्षित रहा तो वह समय दूर नहीं जब ऊंट सिर्फ फोटो में दिखाई देगा।

शमशेर भालू खां 
9587243963

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