बोलशेबिक विचारधारा के धनी, धर्म, आडंबर,पूंजीवाद और साम्राज्यवाद, विरोधी भगत सिंह एक भारतीय उपनिवेशवाद-विरोधी क्रांतिकारी और हिंसा के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के पक्षधर भगत सिंह लाला लाजपत राय की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु अंग्रेज स्कॉट के स्थान पर सांडर्श की हत्या, असेंबली में बम फेंकने और सावतंत्रता आंदोलन में भाग लेने पर 23 वर्ष की आयु में शहीद होने वाले महान राष्ट्रभक्त थे।
(विशेष - भगत सिंह की फांसी के दिन उनकी उम्र 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन थी और दिन भी था 23 मार्च।)
सामान्य परिचय -
नाम - भगत सिंह
उपनाम -
01.भागो वाला' (दादी द्वारा रखा गया नाम)
02. शहीद ए आजम
जन्म - 28 सितम्बर 1907
(पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह तथा स्वर्ण सिंह अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण जेल में बंद थे। इसी दिन रिहा हुए)
जन्म स्थान - बंगा, जिला लालपुर पंजाब
मृत्यु - 23 मार्च 1931 (आयु 23 वर्ष)
मृत्यु का कारण - फांसी
फांसी का स्थान - हुसैनी वाला, लाहौर सेंट्रल जेल के पास, पंजाब (जॉन पी. सॉन्डर्स और चन्नन सिंह की हत्या के जुर्म में)
पिता का नाम - किशन सिंह संधू
माता का नाम - विद्यावती कौर
सहोदर - 03 भाई 03 बहन (कुल 07 संतान में भगत सिंह 02 नंबर थे)
धर्म - सिक्ख, बाद में नास्तिक और पंथ विरोधी
सामाजिक विचारधारा - आर्य समाजी
जाति - संधु
आर्थिक विचार - कम्युनिस्ट, पूंजीवाद विरोधी
अनुगामी - चाचा प्रगतिशील विचारधारा के आंदोलनकारी (1907 नहर उपनिवेशीकरण आंदोलन के अग्रणी एवं गदर पार्टी कार्यकर्ता अजीत सिंह संधू)
संगठन
01. नौजवान भारत सभा
02. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन
लेखन और संपादन - भाषा पंजाबी और उर्दू (भगत सिंह अपने लेख छद्म नाम विद्रोही/बलवंत/अजीत के नाम सें लिखते थे।
01. पुस्तक का नाम - मैं नास्तिक क्यों हूँ
02. तत्कालीन अखबारों में लेख लिखना और संपादन कार्य
03. वर्कर्स एंड पीजेंट्स (कीर्ति किसान पार्टी)पार्टी हेतु की कीर्ति पत्रिका दिल्ली में भी लेख लिखे।
04. अर्जुन अखबार हेतु लेखन
05. नौजवान सभा हेतु पोस्टर लेखन
राजनीतिक दल - फॉरवर्ड ब्लॉक
विवाह - 1923 में इंटर मिडियट के बाद घर वाले विवाह करना चाहते थे, परंतु भगत लाहौर से भाग कर कानपुर आ गए।
भाषाएं - हिंदी,पंजाबी,उर्दू,अंग्रेजी और बांग्ला
जीवन परिचय -
लाहौर कॉलेज ड्रामा क्लब (1924) में सिंह की तस्वीर (पिछली पंक्ति, दाएँ से चौथी
शिक्षा -
प्रारंभिक शिक्षा बंगा के स्कूल से पूर्ण करने के बाद, भगत सिंह को लाहौर के दयानंद एंग्लो - वैदिक स्कूल भेजा गया। सन 1923 में, लाहौर में नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया, जिसकी स्थापना दो साल पहले लाला लाजपत राय ने महात्मा गांधी का असहयोग (ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित संस्थाओं के बहिष्कार आंदोलन) के समर्थन में की थी। इसी समय से वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए।
देखते ही देखते भगत सिंह युवाओं के चहेते बनने लग गए जिस से ब्रिटिश सरकार युवाओं पर सिंह के प्रभाव से चिंतित हो गई और मई 1927 में सन 1926 के लाहौर बम कांड के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। चाचा अजीत सिंह ने 60000 रुपये की जमानत पर रिहा करवा लिया गया।
भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियां -
01 जॉन सॉन्डर्स की हत्या -
सन 1928 में भारत की राजनीतिक स्थिति पर रिपोर्ट हेतु साइमन कमीशन भारत आया। इसका राजनीतिक दलों ने बहिष्कार किया क्योंकि इसकी सदस्यों में एक भी भारतीय नहीं था, और पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए। जब आयोग ने 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर का दौरा किया, तो लाला लाजपत राय ने इसके विरोध में एक मार्च का नेतृत्व किया। जनता के विरोध के कारण पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट ने भीड़ को तितर-बितर करने हेतु बल प्रयोग किया जिस से हिंसा भड़क गई। लाठी चार्ज से चोटिल लाला लाजपत राय की कुछ समय पश्चात 17.11.1928 को मृत्यु हो गई।(पुलिस के अनुसार हृदयाघात के कारण मृत्यु हुई)। यह मामला ब्रिटिश संसद में उठाया गया, ब्रिटिश सरकार ने राय की मौत में पुलिस की भूमिका से इनकार कर दिया।
भगत सिंह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के एक प्रमुख सदस्य थे और सन 1928 में जिसका नाम बदल कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) कर दिया गया। एचएसआरए के सदस्यों ने राय की मौत का बदला लेने की कसम खाई थी। इसमें भगत सिंह, शिवराम राजगुरु, सुखदेव थापर और चन्द्रशेखर आजाद प्रमुख थे। इन्होंने ने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर स्कॉट को मारने की योजना बनाई पर गलत पहचान के कारण परिवीक्षा अवधि में कार्यरत सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पी. सॉन्डर्स को लाहौर पुलिस मुख्यालय से बाहर निकलते समय 17 दिसंबर 1928 की गोली मार कर हत्या कर दी।
सॉन्डर्स की हत्या के बाद एचएसआरए ने एक पैम्फलेट जारी किया जिस पर बलराज के नाम छद्म नाम से चन्द्रशेखर आजाद के हस्ताक्षर थे।
इस हत्याकांड पर अहिंसा वादियों ने जिसमें (नौजवान भारत सभा, जिसने एचएसआरए के साथ लाहौर विरोध मार्च की आयोजक संस्था) ने सार्वजनिक बैठकों में हिंसा का विरोध किया। लाल लाजलापत राय द्वारा 1925 में स्थापित संस्था द पीपल एवं महत्मा गांधी ने भी हिंसा का विरोध किया। परंतु जवाहरलाल नेहरू ने भगत सिंह की प्रशंसा करते हुए लिखा कि - भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण नहीं बल्कि लाला लाजपत राय और उनके माध्यम से राष्ट्रय सम्मान की रक्षा करने के कारण प्रसिद्ध हुए हैं। अब भगत सिंह राष्ट्रवाद के प्रतीक बन गए, कुछ ही महीनों में पंजाब के हर शहर और गांव सहित सम्पूर्ण उत्तर भारत उनका नाम गूंज उठा। उनके बारे में अनगिनत गाने बने और अद्भुत ख्याति प्राप्त की।
चन्नन सिंह की हत्या -
सॉन्डर्स की हत्या के बाद, जिला पुलिस मुख्यालय की सड़क पार कर डीएवी कॉलेज के प्रवेश द्वार से होते हुए दोनो (भगत सिंह और राजगुरु) भागने लगे जिन्हें चंद्र शेखर आजाद कवर कर रहे थे। उनका पीछा कर रहे हेड कांस्टेबल चानन सिंह ने इन्हें पकड़ने के प्रयास किए तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने गोली मार दी। फिर वे साइकिलों पर सवार होकर फरार हो गए। पुलिस ने उन्हें पकड़ने के लिए बड़े पैमाने पर तलाशी अभियान चलाया और शहर के सभी प्रवेश और निकास द्वारों को बंद कर दिया, आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) ने लाहौर छोड़ने वाले सभी युवाओं पर नजर रखी। यह दो दिनों तक छुपे रहे। 19 दिसंबर 1928 को, सुखदेव ने एचएसआरए के एक अन्य सदस्य भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी) की सहायता से बठिंडा होते हुए हावड़ा (कलकत्ता) जाने वाली ट्रेन से कलकत्ता जाने का फैसला किया।
भगत सिंह और राजगुरु, दोनों हथियार ले कर सुबह जल्दी घर से निकल गए। अंग्रेजी पोशाक पहने (भगत सिंह ने अपने बाल कटवाए, अपनी दाढ़ी कटवाई और सर पर टोपी पहनी), और दुर्गा भाभी के सोते हुए बच्चे को ले कर एक युवा जोड़े के रूप में और राजगुरु नौकर के रूप में सामान सामान उठाए स्टेशन पहुंचे। स्टेशन पर, सिंह टिकट खरीदते समय अपनी पहचान छिपाने में कामयाब रहे और तीनों कानपुर के लिए ट्रेन में चढ़ गए। वहां से लखनऊ (सीधे हावड़ा जाने पर पकड़े जाने के हावड़ा रेलवे स्टेशन पर सीआईडी आमतौर पर लाहौर के भय से) पहुंचे। लखनऊ में, राजगुरु अलग से बनारस (वाराणसी) के लिए रवाना हो गए , जबकि भगत सिंह और दुर्गा भाभी हावड़ा चले गए, भगत सिंह को छोड़कर सभी कुछ दिनों बाद लाहौर लौट आए।
दिल्ली असेम्बली में बम विस्फोट और गिरफ्तारी
क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ जन समर्थन हेतु नाटक के माध्यम से प्रचार करते रहे। जादुई लालटेन के माध्यम से क्रांतिकारियों के फोटो और देश की दुर्दशा दिखाने हेतु स्लाइड दिखाते थे इसमें राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों के बारे में उनकी बातचीत को जीवंत को बनाया जाता, बिस्मिल की शहादत इसके क्रांतिकारी गतिविधियों के तहत हुई थी। काकोरी षड़यंत्र 1929 में गतिविधियों के संचालन हेतु एचएसआरए को एक नाटकीय कार्य का प्रस्ताव दिया जो पेरिस में चैंबर ऑफ डेप्युटीज़ पर बमबारी करने वाले फ्रांसीसी क्रांतिकारी ऑगस्टे वैलेन्ट से प्रभावित थे। योजना केंद्रीय विधान सभा के अंदर एक बम विस्फोट कर सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक और व्यापार विवाद अधिनियम का विरोध करना था, जिसे विधानसभा ने खारिज कर दिया था। परंतु वायसराय द्वारा विशेष शक्तियों का उपयोग करते हुए अधिनियमित करवाया जा रहा था। विस्फोट के बाद क्रांतिकारीयों द्वारा खुद को गिरफ्तार करवाने का प्लान था ताकि जनता,सरकार और नेताओं का ध्यान आकर्षित किया जा सके।
एचएसआरए कार्यकर्ता शुरू में बमबारी में भगत की भागीदारी का विरोध कर रहे थे, उन्हें यकीन था कि सॉन्डर्स हत्याकांड में उनकी पूर्व भागीदारी के कारण गिरफ्तार फांसी दी जा सकती है। अंतिम निर्णय अनुसार इस बम धमाके हेतु भगत सिंह ही उपयुक्त थे। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ चलते सत्र में विधानसभा दीर्घा में काम तीव्रता वाले (सिर्फ डराने के लिए) दो बम फेंके जिसमें कार्यकारी परिषद के वित्त सदस्य जॉर्ज अर्नेस्ट शूस्टर सहित कुछ सदस्य घायल हो गए और धुंआ पूरी असेंबली में भर गया। बच कर भागने की बजाय, वे " इंकलाब जिंदाबाद , क्रान्ति जिंदाबाद के नारे लगाते रहे और पर्चे फेंकते रहे। दोनों को गिरफ्तार कर दिल्ली जेल में डाल दिया गया।
पूरे देश में चर्चा छिड़ गई, कुछ इसे सही कार्यवाही और कुछ गलत बता रहे थे। गांधी जी ने हिंसा के स्थान पर अहिंसा पर बल दिया। भगत सिंह और दत्त ने अंततः असेंबली बम कांड पर बयान जारी किया कि "हम मानव जीवन को शब्दों से परे पवित्र मानते हैं। हम न तो कायरतापूर्ण अत्याचारों के अपराधी हैं... न ही हम 'पागल' हैं जैसा कि लाहौर के ट्रिब्यून और कुछ अन्य लोगों ने माना होगा... आक्रामक तरीके से लागू किया गया बल 'हिंसा' है जो, नैतिक रूप से अनुचित है, परंतु हिंसा का उपयोग जनहित में अथवा वैध उद्देश्य की प्राप्ति हेतु किया जाए तो इसका अपना नैतिक औचित्य होता है।"
मामले की सुनवाई मई के पहले सप्ताह में शुरू हुई,। 12 जून को, दोनों व्यक्तियों को गैरकानूनी और दुर्भावनापूर्ण तरीके से जीवन को खतरे में डालने के अपराध के कारण
आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। आसफ अली ने दत्त का बचाव किया, भगत सिंह ने अपनी पैरवी खुद की। मुकदमे में दी गई गवाही की सटीकता के बारे में संदेह प्रकट किया गया जिसमें, मुख्य विरोधाभास भगत सिंह से जब्त स्वचालित पिस्तौल से संबंधित था। गवाहों ने कहा कि इस पिस्तौल से दो या तीन गोलियां चलाई गई, जबकि उसे गिरफ्तार करने वाले हवलदार ने गवाही दी कि जब उसने बंदूक उससे ली थी तो वह नीचे की ओर थी और भगत सिंह उसके साथ खेल रहा था। इंडिया लॉ जर्नल के एक लेख के अनुसार , अभियोजन पक्ष के गवाहों को नकार किया गया था, उनके बयान गलत थे, और सिंह ने खुद ही पिस्तौल पलट दी थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा दी गई।
अन्य साथियों की गिरफ्तारी -
सन 1929 में एचएसआरए ने लाहौर और सहारनपुर में बम कारखाने स्थापित किए। 15 अप्रैल 1929 को पुलिस ने लाहौर बम फैक्ट्री में सुखदेव, किशोरी लाल और जय गोपाल सहित एचएसआरए के अन्य सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया। इसके कुछ ही समय बाद, सहारनपुर कारखाने पर (कुछ साथियों की गद्दारी और सूचना के कारण) छापा मार कर वहां से साथियों को गिरफ्तार किया। यहां उपलब्ध जानकारी के आधार पर सॉन्डर्स हत्या, असेंबली बम कांड और बम निर्माण के तीन पहलुओं को जोड़ने में पुलिस सक्षम हो गई। सिंह, सुखदेव, राजगुरु और 21 अन्य पर सॉन्डर्स की हत्या का आरोप लगाया गया था।
भूख हड़ताल और लाहौर षडयंत्र मामला
भगत सिंह को सॉन्डर्स और चानन सिंह की हत्या के आरोप में पर्याप्त सबूतों के आधार पर फिर से गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें उनके सहयोगियों हंस राज वोहरा और जय गोपाल के बयान भी शामिल थे। असेंबली बम मामले में उनकी आजीवन कारावास की सज़ा को सॉन्डर्स मामले का फैसला आने तक टाल दिया गया था। उन्हें दिल्ली जेल से सेंट्रल जेल मियांवाली भेज दिया गया। मियांवली जेल में उन्होंने यूरोपीय और भारतीय कैदियों के बीच भेदभाव देखा। वह स्वयं को, दूसरों के साथ, एक राजनीतिक कैदी मानते थे। उन्होंने कहा कि उन्हें दिल्ली में बढ़ा हुआ आहार मिला था जो मियांवाली में नहीं दिया जा रहा था। जेल में इस भेदभाव के विरुद्ध भूख हड़ताल में अन्य भारतीय राजनीतिक कैदियों को साथ ले कर भूख हड़ताल शुरू कर दी। मांगे थीं -
01. राजनैतिक कर्दियों के साथ आम अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं कर पृथक रखा जावे।
02. दिया जाने वाला खाना, कपड़े, सामग्री और सुविधाएं मानकों के अनुसार हो।
03. राजनैतिक कैदियों की स्वच्छता आवश्यकताओं की पूर्ति की जावे।
04.यूरोपीय और भारतीय कैदियों में समानता का भाव रखा जावे।
05. पढ़ने हेतु पुस्तक और दैनिक समाचार पत्र दिए जावे।
06. राजनैतिक कैदियों को जेल में शारीरिक श्रम या कोई भी अशोभनीय काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जावे।
इस भूख हड़ताल को नेताओं सहित जनता का भरपूर समर्थन मिला। द ट्रिब्यून अखबार इस आंदोलन में विशेष रूप से न्यूज छापता। इस अखबार की न्यूज के आधार पर जन आंदोलन शुरू हो गया जिसे दबाने के लिए सरकार को सभाओं को सीमित करने हेतु धारा 144 लागू करनी पड़ी।
जवाहरलाल नेहरू ने सेंट्रल जेल मियांवाली में भगत सिंह और अन्य हड़तालियों से मुलाकात की । बैठक के बाद उन्होंने कहा "वीरों की व्यथा देखकर मुझे बहुत दुःख हुआ। उन्होंने इस संघर्ष में अपना जीवन दांव पर लगा दिया है. वे चाहते हैं कि राजनीतिक कैदियों के साथ राजनीतिक कैदियों जैसा ही व्यवहार किया जाए. मुझे पूरी उम्मीद है कि उनके बलिदान को सफलता मिलेगी।" मुहम्मद अली जिन्ना ने असेंबली में हड़तालियों के समर्थन किया और बयान जारी करते हुए कहा कि "जो आदमी भूख हड़ताल पर बैठता है उसके पास एक आत्मा होती है। वह उस आत्मा से प्रेरित है, और वह अपने उद्देश्य के न्याय में विश्वास करता है... चाहे आप उनकी कितनी भी निंदा करें और, चाहे आप कितना भी कहें कि वे गुमराह हैं, यह व्यवस्था है, शासन की यह निंदनीय प्रणाली है, जिससे लोग नाराज हैं लोग।"
सरकार ने जेल की कोठरियों में विभिन्न खाद्य पदार्थ रखकर हड़ताल को तोड़ने की कोशिश की। पानी के घड़े दूध से भर दिये गये ताकि या तो कैदी प्यासे रहें या अपनी हड़ताल तोड़ दें; कोई भी लड़खड़ाया नहीं और गतिरोध जारी रहा। इसके बाद अधिकारियों ने कैदियों को जबरदस्ती खाना खिलाने का प्रयास किया लेकिन इसका विरोध किया गया। मामला अभी भी अन सुलझा होने पर, भारतीय वायसराय लॉर्ड इरविन ने जेल अधिकारियों के साथ स्थिति पर चर्चा करने हेतु शिमला से छुट्टियां कैंसल कर मियांवली पहुंचे। इधर भूख हड़ताल करने वालों की गतिविधियों ने देश भर में लोगों में लोकप्रियता प्राप्त कर ध्यान आकर्षित किया। अब सरकार ने सॉन्डर्स हत्या कांड के मुकदमे की कार्यवाही को आगे बढ़ाने का फैसला किया, जिसे आगे से लाहौर षडयंत्र केस कहा गया। भगत सिंह को बोरस्टल जेल, लाहौर ले जा कर 10 जुलाई 1929 को मुकदमा शुरू किया गया। उन पर सॉन्डर्स की हत्या का आरोप लगाने के अलावा 27 अन्य कैदियों पर स्कॉट की हत्या की साजिश रचने का आरोप भी लगाया गया, और सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ना जेसी धाराएं लगाई गई। भगत सिंह (जो अभी भी भूख हड़ताल पर थे) को स्ट्रेचर पर हथकड़ी लगाकर अदालत में ले जाना पड़ा, हड़ताल शुरू करने के बाद से उनका वजन 60 किलो से घट कर 53.60 किलो रह गया।
सरकार ने कुछ रियायतें देनी शुरू की लेकिन राजनीतिक कैदी के वर्गीकरण के मुख्य मुद्दे पर आगे बढ़ने से मना कर दिया। अधिकारियों की नजर में अगर किसी ने कानून तोड़ा तो वह राजनीतिक नहीं बल्कि निजी कृत्य था और वे आम अपराधी था। अब तक उसी जेल में बंद एक अन्य अनशनकारी जतींद्र नाथ दास की हालत काफी खराब हो चुकी थी। जेल समिति ने उनकी बिना शर्त रिहाई की सिफारिश की, लेकिन सरकार ने सुझाव को खारिज कर दिया और उन्हें जमानत पर रिहा करने की पेशकश की। 13 सितंबर 1929 को 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद दास की मृत्यु हो गई। देश के लगभग सभी राष्ट्रवादी नेताओं ने दास की मृत्यु पर श्रद्धांजलि अर्पित की। मोहम्मद आलम और गोपी चंद भार्गव ने विरोध में पंजाब विधान परिषद से इस्तीफा दे दिया, और नेहरू ने लाहौर के कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार के खिलाफ निंदा के रूप में केंद्रीय विधानसभा में स्थगन प्रस्ताव पेश किया। भगत सिंह ने कांग्रेस पार्टी के प्रस्ताव और पिताजी के अनुरोध पर 116 दिनों के बाद 5 अक्टूबर 1929 को भूख हड़ताल समाप्त कर दी। इस अवधि के दौरान आम भारतीयों के बीच सिंह की लोकप्रियता पंजाब से आगे तक बढ़ गई।
भगत सिंह का ध्यान अब मुकदमे की ओर गया, जहां उन्हें सीएच कार्डेन-नोआड, कलंदर अली खान, जय गोपाल लाल और अभियोजन निरीक्षक बख्शी दीना नाथ की अभियोजन टीम का सामना करना था। बचाव पक्ष में आठ वकील शामिल थे। 27 आरोपियों में से सबसे कम उम्र के प्रेम दत्त वर्मा ने गोपाल लाल (पहले करंतीकारी गतिविधियों में शामिल) पर सरकारी गवाह बनने पर गद्दार कहते हुए अदालत में चप्पल फेंकी। इसके परिणामस्वरूप मजिस्ट्रेट ने आदेश दिया कि सभी आरोपियों को हथकड़ी लगाई जाये। भगत सिंह और अन्य लोगों को हथकड़ी लगाने से मना करने पर पिटाई सहन करनी पड़ी। इस पिटाई के कारण क्रांतिकारियों ने अदालत में उपस्थित होने से इनकार कर दिया और भगत सिंह ने विभिन्न कारणों का हवाला देते हुए मजिस्ट्रेट को एक पत्र लिखा। मजिस्ट्रेट ने आरोपीयों या एचएसआरए के सदस्यों के बिना मुकदमा चलाने का आदेश दिया। यह सिंह के लिए एक झटका था क्योंकि वह अब इस मुकदमे को अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए अदालत का एक मंच के रूप में उपयोग नहीं कर सकते थे।
जल्द सुनवाई हेतु विशेष न्यायाधिकरण -
धीमी सुनवाई में तेजी लाने के लिए वायसराय लॉर्ड इरविन ने 1 मई 1930 को आपातकाल की घोषणा की और मामले के लिए तीन उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की विशेष बेंच (न्यायाधिकरण) स्थापित करने का अध्यादेश पेश किया। इस निर्णय ने न्याय की सामान्य प्रक्रिया को छोटा कर दिया क्योंकि ट्रिब्यूनल के बाद एकमात्र अपील इंग्लैंड में स्थित प्रिवी काउंसिल में थी।
2 जुलाई 1930 को, उच्च न्यायालय में एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई, जिसमें अध्यादेश को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह अधिकार के बाहर है और इसलिए अवैध है; वायसराय के पास न्याय निर्धारण की पारंपरिक प्रक्रिया को छोटा करने की कोई शक्ति नहीं थी। याचिका में तर्क दिया गया कि भारत रक्षा अधिनियम 1915 ने वायसराय को एक अध्यादेश लाने और ऐसे न्यायाधिकरण की स्थापना करने की अनुमति दी है जो केवल कानून-व्यवस्था के खराब होने की स्थिति में है जैसा कि इस मामले में दावा किया गया है ऐसा नहीं हुआ था। हालाँकि, याचिका को समय से पहले होने के कारण खारिज कर दिया गया था।
कार्डेन-नोआड ने सरकार सामान पर डकैतियां डालने, हथियारों और गोला-बारूद के अवैध अधिग्रहण समेत अन्य आरोप पेश किए। लाहौर के पुलिस अधीक्षक जीटीएच हेमिल्टन हार्डिंग के साक्ष्य ने अदालत को चौंका दिया। उन्होंने कहा कि उन्होंने पंजाब के मुख्य सचिव से लेकर राज्यपाल तक के विशेष आदेशों के तहत आरोपियों के खिलाफ पहली सूचना रिपोर्ट दर्ज की थी और उन्हें मामले के विवरण की जानकारी नहीं थी। अभियोजन मुख्य रूप से पीएन घोष, हंस राज वोहरा और जय गोपाल के साक्ष्य पर निर्भर था जो एचएसआरए में भगत सिंह के सहयोगी थे। 10 जुलाई 1930 को, ट्रिब्यूनल ने 18 आरोपियों में से केवल 15 के खिलाफ आरोप लगाने का फैसला किया और उनकी याचिकाओं को अगले दिन सुनवाई के लिए लेने की अनुमति दी। मुकदमा 30 सितंबर 1930 को समाप्त हो गया। जिन तीन आरोपियों पर आरोप वापस ले लिए गए, उनमें दत्त भी शामिल थे, जिन्हें पहले ही असेंबली बम मामले में आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।
अध्यादेश (न्यायाधिकरण) 31 अक्टूबर 1930 को समाप्त हो रहा था क्योंकि इसे केंद्रीय विधानसभा या ब्रिटिश संसद द्वारा पारित नहीं किया गया था। 7 अक्टूबर 1930 को, ट्रिब्यूनल ने सभी सबूतों के आधार पर अपना 300 पेज का फैसला सुनाया और निष्कर्ष निकाला कि सॉन्डर्स की हत्या में भगत सिंह, सुखदेव और शिवराम राजगुरु की भागीदारी थी। उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गई। अन्य आरोपियों में से तीन को बरी कर दिया गया ( अजॉय घोष , जतींद्र नाथ सान्याल और देस राज) कुंदन लाल को सात साल कठोर कारावास की सजा मिली , प्रेम दत्त को पांच साल की सजा हुई, और शेष सात किशोरी लाल , महावीर सिंह, बिजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव कपूर और कमल नाथ तिवारी सभी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
इस फैसले के विरुद्ध पंजाब प्रांत रक्षा समिति ने प्रिवी काउंसिल में अपील करने की योजना बनाई। भगत सिंह शुरू में अपील के खिलाफ थे लेकिन बाद में इस उम्मीद में सहमत हो गए कि अपील ब्रिटेन में एचएसआरए को लोकप्रिय बनाएगी। अपीलकर्ताओं ने दावा किया कि ट्रिब्यूनल बनाने वाला अध्यादेश अमान्य था, जबकि सरकार ने प्रतिवाद किया कि वायसराय को इस तरह का ट्रिब्यूनल बनाने का पूरा अधिकार था। अपील को न्यायाधीश विस्काउंट डुनेडिन ने खारिज कर दिया ।
प्रिवी काउंसिल में अपील की अस्वीकृति के बाद, कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने 14 फरवरी 1931 को इरविन के समक्ष दया अपील दायर की। कुछ कैदियों ने महात्मा गांधी को हस्तक्षेप करने की अपील भेजी। 19 मार्च 1931 के अपने नोट्स में, वायसराय ने दर्ज किया -
लौटते समय गांधीजी ने मुझसे पूछा कि क्या वह भगत सिंह के बारे में बात कर सकते हैं क्योंकि अखबारों में 24 मार्च को उनकी फांसी की खबर छपी थी। वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण दिन होगा क्योंकि उस दिन कांग्रेस के नये अध्यक्ष को कराची पहुंचना था और खूब गरमागरम चर्चा होने वाली थी। मैंने उसे समझाया कि मैंने इस पर बहुत सावधानी से विचार किया है लेकिन मुझे सजा कम करने के लिए खुद को समझाने का कोई आधार नहीं मिला। ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्हें मेरा तर्क वजनदार लगा।
ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने मामले पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि "इस मामले का इतिहास, जिसका हमें राजनीतिक मामलों के संबंध में कोई उदाहरण नहीं मिलता है, निर्दयता और क्रूरता के लक्षणों को दर्शाता है जो ब्रिटेन की साम्राज्यवादी सरकार की फूली हुई इच्छा का परिणाम है ताकि लोगों में भय पैदा किया जा सके। दमित लोगों के दिल में दहशत भरी जा सके।" एचएसआरए सदस्य दुर्गा देवी के पति, भगवती चरण वोहरा ने इस उद्देश्य के लिए बम बनाने का प्रयास किया, लेकिन दुर्घटनावश विस्फोट होने से उनकी मृत्यु हो गई।
इससे भगत सिंह और साथीयों की कैदियों को जेल से छुड़ाने की योजना विफल हो गई।
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षड्यंत्र मामले में मौत की सजा के अनुसार 24 मार्च 1931 को फांसी देने का आदेश दिया गया। परंतु 11 घंटे पहले लाहौर जेल में तीनों को 23 मार्च 1931 को शाम 7:30 बजे फांसी दे दी गई (जबकि सूर्यास्त के पश्चात फांसी नहीं दी जाती है)। कानूनी प्रक्रिया अनुसार कोई एक मजिस्ट्रेट फांसी के समय उपस्थित होना अनिवार्य था परंतु कोई भी मजिस्ट्रेट इस निगरानी हेतु तैयार नहीं था तो यह निगरानी नवाब मुहम्मद अहमद खान कसूरी नामक मानद न्यायाधीश ने की और तीनों के मूल वारंट 24.03.1931 थे और फांसी पहले दी जा रही थी तो तीनों के नए डेथ वारंट पर हस्ताक्षर भी किए। फिर जेल अधिकारियों ने जेल की पिछली दीवार तोड़ कर, गुपचुप तरीके से गंडा सिंह वाला गांव के बाहर अंधेरे में तीनों का अंतिम संस्कार कर राख फिरोजपुर से 10 किलोमीटर दूर सतलज नदी में बहा दी।
इसके पश्चात न्यायाधिकरण परीक्षण की आलोचना हुई। भगत सिंह के मुकदमे को सुप्रीम कोर्ट ने "आपराधिक न्यायशास्त्र के मौलिक सिद्धांत के विपरीत" बताया है क्योंकि अभियुक्तों को खुद का बचाव करने का कोई अवसर नहीं दिया गया था। यह विशेष न्यायाधिकरण मुकदमे के लिए अपनाई गई सामान्य प्रक्रिया से पृथक प्रक्रिया थी और इसके फैसले के खिलाफ केवल ब्रिटेन में स्थित प्रिवी काउंसिल में अपील की जा सकती थी। आरोपी अदालत से अनुपस्थित थे और फैसला एकपक्षीय पारित कर दिया गया । विशेष न्यायाधिकरण बनाने के लिए वायसराय द्वारा पेश किया गया अध्यादेश, केंद्रीय विधानसभा या ब्रिटिश संसद द्वारा भी अनुमोदित नहीं था, और अंततः यह बिना किसी कानूनी या संवैधानिक मान्यता के समाप्त हो गया।
शहीदों की फाँसी पर प्रतिक्रियाएँ -
इस फाँसी की घटना को प्रेस द्वारा व्यापक रूप से प्रसारित किया गया। कराची में कांग्रेस पार्टी के वार्षिक सम्मेलन की पूर्व संध्या के अवसर पर कानपुर पहुंचे गांधी को गुस्साए युवाओं द्वारा काले झंडे दिखाए गए और उग्र प्रदर्शन का सामना करना पड़ा जिन्होंने "गांधी मुर्दाबाद" के नारे लगाए। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस प्रकार से खबर प्रकाशित की कि "संयुक्त प्रांत के कानपुर शहर में आतंक का राज और कराची के बाहर एक युवक द्वारा महात्मा गांधी पर हमला, भगत सिंह और दो साथीयों की फांसी पर भारतीय चरमपंथियों ने विरोध जताया।
कराची अधिवेशन के दौरान कांग्रेस पार्टी ने घोषणा की कि "किसी भी आकार या रूप में राजनीतिक हिंसा से खुद को अलग करते हुए और इसे अस्वीकार करते हुए कांग्रेस भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की बहादुरी और बलिदान की प्रशंसा करती है और इन लोगों की मौत पर उनके शोक संतप्त परिवारों के साथ शोक मनाती है।"
भगत सिंह की राजनैतिक विचारधारा - साम्यवादी
भगत सिंह गदर पार्टी के संस्थापक सदस्य करतार सिंह सराभा को अपना नायक मानते थे और भाई प्रेमानंद से प्रभावित थे। इसी कारण वे क्रांति और साम्यवाद की ओर आकर्षित थे । वह मिखाइल बाकुनिन की शिक्षाओं के शौकीन और पुस्तकें पढ़ते थे और उन्होंने कार्ल मार्क्स, व्लादिमीर लेनिन और लियोन ट्रॉट्स्की को भी पढ़ा था । अपने अंतिम वसीयतनामा, "युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए" में, उन्होंने अपने आदर्श को मार्क्सवादी आधार पर सामाजिक पुनर्निर्माण के रूप में घोषित किया है। भगत सिंह गांधीवादी विचारधारा में विश्वास नहीं करते थे - जो सत्याग्रह और अहिंसक प्रतिरोध के अन्य रूपों की वकालत करती थी, और उन्हें लगता था कि ऐसी राजनीति शोषकों के एक समूह की जगह दूसरे को ले लेगी।
मई 1931 में देश में क्रांति पर लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित हुई। उन्हें इस बात की चिंता थी कि जनता क्रांति की अवधारणा को गलत समझ रही है, उन्होंने लिखा कि: "लोग क्रांति शब्द से डरते हैं। क्रांति शब्द का इतना दुरुपयोग किया गया है कि भारत में भी क्रांतिकारियों को अलोकप्रिय बनाने के लिए उन्हें अराजकतावादी कहा जाने लगा है।" उन्होंने स्पष्ट किया कि क्रांति का तात्पर्य शासक की अनुपस्थिति और राज्य के उन्मूलन से है, व्यवस्था की अनुपस्थिति से नहीं। उन्होंने आगे कहा: "मुझे लगता है कि भारत में सार्वभौमिक भाईचारे का विचार, संस्कृत वाक्य वसुधैव कुटुंबकम आदि का एक ही अर्थ है।" उनका मानना था कि क्रांति का अंतिम लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता है, जिसके अनुसार कोई भी ईश्वर या धर्म के प्रति आसक्त नहीं होगा, न ही कोई धन या अन्य सांसारिक इच्छाओं के लिए पागल होगा। शरीर पर कोई बेड़ियाँ या राज्य का नियंत्रण नहीं होगा। भगत सिंह वे देवस्थान, ईश्वर और धर्म,राज्य; निजी संपत्ति के विरोधी थे।
21 जनवरी 1930 को लाहौर षडयंत्र केस की सुनवाई के दौरान भगत सिंह और उनके एचएसआरए साथी लाल स्कार्फ पहनकर अदालत में पेश हुए। जब मजिस्ट्रेट ने अपनी कुर्सी संभाली, तो उन्होंने "समाजवादी क्रांति लंबे समय तक जीवित रहें", "कम्युनिस्ट इंटरनेशनल लंबे समय तक जीवित रहें", "लोग लंबे समय तक जीवित रहें" "लेनिन का नाम कभी नहीं मरेगा", और " साम्राज्यवाद मुर्दाबाद " के नारे लगाए। भगत सिंह ने तब अदालत में एक टेलीग्राम पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे थर्ड इंटरनेशनल को भेजने का अनुरोध किया । टेलीग्राम में कहा गया है कि "लेनिन दिवस पर हम उन सभी को हार्दिक शुभकामनाएं भेजते हैं जो महान लेनिन के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कामना करते हैं। हम अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक वर्ग आंदोलन के साथ अपनी आवाज मिलाते हैं। सर्वहारा वर्ग की जीत होगी. पूंजीवाद हारेगा. साम्राज्यवाद का नाश।
इतिहासकार केएन पणिक्कर के अनुसार भगत सिंह भारत के शुरुआती मार्क्सवादियों में से एक थे। राजनीतिक सिद्धांतकार जेसन एडम्स का कहना है कि वह मार्क्स की तुलना में लेनिन के प्रति अधिक आकर्षित थे। 1926 के बाद से, उन्होंने भारत और विदेशों में क्रांतिकारी आंदोलनों के इतिहास का अध्ययन किया। जेल में लिखी नोटबुक में उन्होंने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के संदर्भ में लेनिन और ट्रॉट्स्की के क्रांतिकारी विचारों को भी उद्धृत किया।
फाँसी के दिन, भगत सिंह जर्मन मार्क्सवादी क्लारा ज़ेटकिन द्वारा लिखित पुस्तक रेमिनिसेंस ऑफ़ लेनिन पढ़ रहे थे। जब भगत सिंह से पूछा गया कि उनकी आखिरी इच्छा क्या है तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी का अध्ययन कर रहे थे और वह इसे मृत्यु से पहले खत्म करना चाहते हैं।
भगत सिंह और नास्तिकता
महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन को भंग करने के बाद भड़के हिंदू-मुस्लिम दंगों को देखने के बाद भगत सिंह ने धार्मिक विचारधाराओं पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। उन्हें यह समझ में नहीं आया कि इन दोनों समूहों के सदस्य, जो शुरू में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में एकजुट हुए थे, अपने धार्मिक मतभेदों के कारण एक-दूसरे के गले कैसे पड़ सकते हैं। इस बिंदु पर भगत सिंह ने अपनी धार्मिक मान्यताओं को छोड़ दिया, क्योंकि उनका मानना था कि धर्म स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारियों के संघर्ष में बाधा डालता है, और बाकुनिन , लेनिन , ट्रॉट्स्की - सभी नास्तिक क्रांतिकारियों के कार्यों का अध्ययन करना शुरू कर दिया। उन्होंने सोहम स्वामी की पुस्तक कॉमन सेंस में भी रुचि ली।
1930-31 में जेल में रहते हुए, भगत सिंह से साथी कैदी और सिख नेता रणधीर सिंह ने संपर्क किया , जिन्होंने बाद में अखंड कीर्तनी जत्था की स्थापना की। भगत सिंह के करीबी सहयोगी शिवा वर्मा, जिन्होंने बाद में उनके लेखन को संकलित और संपादित किया, के अनुसार, रणधीर सिंह ने भगत सिंह को ईश्वर के अस्तित्व के बारे में समझाने की कोशिश की, और असफल होने पर उन्हें डांटा: "आप प्रसिद्धि से घमंडा गए हैं और आपने अहंकार विकसित कर लिया है जो कायम है आपके और भगवान के बीच एक काले पर्दे की तरह"। जवाब में, भगत सिंह ने इस सवाल का समाधान करने के लिए " मैं नास्तिक क्यों हूं " शीर्षक से एक निबंध लिखा कि क्या उनकी नास्तिकता घमंड से पैदा हुई थी। निबंध में, उन्होंने अपने स्वयं के विश्वासों का बचाव किया और कहा कि वह सर्वशक्तिमान में दृढ़ विश्वास रखते थे, लेकिन उन मिथकों और विश्वासों पर विश्वास नहीं कर सके, जिन्हें अन्य लोग अपने दिल के करीब रखते थे। उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया कि धर्म ने मृत्यु को आसान बना दिया है परंतु यह भी कहा कि अप्रमाणित दर्शन मानवीय कमजोरी का संकेत है। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि "जहां तक ईश्वर की उत्पत्ति का संबंध है, मेरा विचार है कि मनुष्य ने अपनी कमजोरियों, सीमाओं और कमियों का एहसास होने पर अपनी कल्पना में ईश्वर की रचना की। इस तरह उसे सभी कठिन परिस्थितियों का सामना करने और अपने जीवन में आने वाले सभी खतरों का सामना करने का साहस मिला और साथ ही समृद्धि और संपन्नता में अपने प्रकोप को रोकने का भी साहस मिला। भगवान, अपने सनकी कानूनों और माता-पिता की उदारता के साथ कल्पना के विविध रंगों से रंगे हुए थे। जब उनके क्रोध और उनके कानूनों को बार-बार प्रचारित किया जाता था तो उन्हें एक निवारक कारक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था ताकि मनुष्य समाज के लिए खतरा न बन जाए। वह व्यथित आत्मा की पुकार थी क्योंकि ऐसा माना जाता था कि जब कोई व्यक्ति संकट के समय अकेला और असहाय हो जाता है तो वह पिता और माता, बहन और भाई, भाई और मित्र के रूप में खड़ा होता है। वह सर्वशक्तिमान था और कुछ भी कर सकता था। संकट में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर का विचार ही सहायक होता है।"
निबंध के अंत में भगत सिंह ने लिखा कि आइए देखें कि मैं कितना दृढ़ हूँ। मेरे एक मित्र ने मुझसे प्रार्थना करने के लिए कहा। जब उन्हें मेरी नास्तिकता के बारे में बताया गया, तो उन्होंने कहा, "जब आपके अंतिम दिन आएंगे, तो आप विश्वास करना शुरू कर देंगे।" मैंने कहा, "नहीं, प्रिय महोदय, ऐसा कभी नहीं होगा। मैं इसे पतन और मनोबल गिराने वाला कृत्य मानता हूं। ऐसे तुच्छ स्वार्थी उद्देश्यों के लिए, मैं कभी प्रार्थना नहीं करूंगा।" पाठको एवं मित्रो, क्या यह घमंड है? यदि ऐसा है तो मैं इसके पक्ष में हूं।"
लार्ड इरविन को पत्र - विचारों की हत्या
8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली में फेंके गए पत्रक में उन्होंने कहा: "व्यक्तियों को मारना आसान है लेकिन आप विचारों को नहीं मार सकते। महान साम्राज्य ढह गए, जबकि विचार जीवित रहे।" जेल में रहते हुए भगत सिंह और दोनो साथियों ने लॉर्ड इरविन को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने युद्ध के कैदियों के रूप में व्यवहार करने और परिणामस्वरूप फायरिंग दस्ते द्वारा गोलियों से उड़ा देने की मांग की थी, न कि फांसी की। भगत सिंह के मित्र प्राणनाथ मेहता, उनकी फांसी से तीन दिन पहले 20 मार्च को क्षमादान के लिए एक मसौदा पत्र के साथ जेल में उनसे मिलने गए, लेकिन उन्होंने इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया।
लोकप्रियता
"भगत सिंह युवाओं में नई जागृति के प्रतीक बन गए थे।" सुभाष चंद्र बोस।
भगत सिंह की लोकप्रियता एक नई राष्ट्रीय जागृति का कारण बन रही है "वह एक साफ-सुथरे सेनानी थे जिन्होंने खुले मैदान में अपने दुश्मन का सामना किया... वह एक चिंगारी की तरह थे जो कुछ ही समय में एक ज्वाला बन गई और एक से बढ़कर एक फैल गई।" देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र व्याप्त अंधकार को दूर करना।'' - जवाहर लाल नेहरू
"उनकी तस्वीर हर शहर और टाउनशिप में बिक्री पर थी और एक समय के लिए लोकप्रियता में खुद श्री गांधी के भी प्रतिद्वंद्वी थी"। - इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक, सर होरेस विलियमसन
मैं नास्तिक क्यों हूं -
मैं नास्तिक क्यों हूँ भगत सिंह द्वारा लिखा एक लेख है जो उन्होंने लाहौर सेंट्रल जेल में क़ैद के दौरान लिखा था और इसका प्रथम प्रकाशन लाहौर से ही छपने वाले अख़बार दि पीपल में 27 सितम्बर 1931 को हुआ। यह लेख भगत सिंह के द्वारा लिखित साहित्य के सर्वाधिक चर्चित और प्रभावशाली लेखन में गिना जाता है और बाद में इसका कई बार प्रकाशन हुआ। इस लेख के माध्यम से भगत सिंह ने तार्किक रूप से यह बताने की कोशिश की है कि वे किसी ईश्वरीय सत्ता में क्यों यकीन नहीं करते हैं।
इतिहासकार बिपिन चन्द्र के अनुसार भगत सिंह ने जेल में कई किताबे और पर्चे लिखे थे, लेकिन इनका अधिकांश हिस्सा नष्ट हो गया। यह पर्चा (लेख) किसी प्रकार उनके पिता के हाथों जेल से बाहर आया। इस लेख का प्रथम प्रकाशन बाबा रणधीर सिंह ने किया।
लेख का अंश -
जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त, यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।
हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘'अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।'’ मैंने कहा, ‘'नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।'’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।
शमशेर भालू खान
जिगर चुरूवी
9587243963
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