Wednesday, 27 March 2024

मुंशी प्रेमचंद

                          मुंशी प्रेमचंद
                सामान्य परिचय एवं जीवन
हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक 
                  पत्नी के साथ प्रेमचंद 
(इसी फोटो को आधार बना कर हरिशंकर परसाई ने प्रेमचंद के फटे जूते व्यंग्यात्मक लेख लिखा)

                प्रेमचंद स्मृति जीवन के अंतिम दिन 

प्रेमचंद
नाम - धनपत राय श्रीवास्तव
उपनाम - मुंशी प्रेमचन्द, नबाब राय
जन्म -  जुलाई ,1880 
जन्म स्थान - लमही, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
मृत्यु – 8 अक्टूबर 1936
मृत्यु का स्थान - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
जाति - कायस्थ
पिता का नाम - अजॉय राय (डाक बाबू वाराणसी डाकघर में, 1896 में मृत्यु)
माता का नाम - आनंदी देवी (1887 में देहांत), माता की मृत्यु के पश्चात पिता ने दूसरी शादी की और सौतेली मां का व्यवहार उनके प्रति सही नहीं रहा।
विवाह - 1895 में  (1905 में पहली पत्नी को तलाक दे दिया) 
दूसरा विवाह - बाल विधवा शिवरानी देवी से 1906 में हुआ जो एक सुशिक्षित महिला थीं। शिवरानी देवी ने कुछ कहानियाँ और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। 
संतान -  तीन सन्ताने हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव।
विवाह के संबंध में उनके विचार - प्रेमचंद लिखते हैं कि “पिताजी ने जीवन के अंतिम वर्षों में एक ठोकर खाई और स्वंय तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया और मेरी शादी बिना सोचे समझे करा दिया|"
व्यवसाय - लेखन,संपादन, प्रकाशन, फिल्म पटकथा लेखन (इस हेतु 1933 में 10 माह  तक बॉम्बे रहे), शिक्षक, पत्रकार
प्रकाशन हेतु सरस्वती प्रेस खरीदा जो में घाटे में रहा और बन्द करना पड़ा। 
लेखक संघ - अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ (तरक्की पसंद तहरीक)
साहित्य का प्रेमचंद युग - रामविलास शर्मा के अनुसार "सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पण्डे-पुरोहित का कर्मकाण्ड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे।"
वर्ष 1906 से 1936 का काल मुख्य लेखन काल रहा जिसमें से हिंदी कहानी और उपन्यास में 1918 से 1936 का काल खंड प्रेमचंद युग कहलाता है। इस काल खंड (30) वर्ष का साहित्य तत्कालीन सामाजिक सांस्कृतिक दशा का दस्तावेज है। समाज सुधार आन्दोलन, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण किया गया है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जातिय भेदभाव, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष असमानता, आदि उस समय की लगभग सभी प्रमुख समस्याओं का सजीव चित्रण किया गया है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है।

शिक्षा -
प्रेमचंद की प्रारंभिक शिक्षा फारसी में हुई, बालपन से ही पढ़ने लगन रही। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ। 
1898 में मेट्रिक पास किया आगे पढ़ाई के साथ नौकरी भी जारी रखी।1910 में अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास लेकर इण्टर किया।
सन 1919 में अंग्रेजी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी. ए. किया। 1919 में स्नातक पास कर के शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए और 23.06.1921 को अशयोग आंदोलन के समर्थन में इस्तीफा दे दिया।

व्यवसाय एवं स्वतन्त्रता संग्राम -
सन 1921 में असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से 23 जून को त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बनाया। उन्होंने कुछ महीने मर्यादा नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके बाद उन्होंने लगभग छह वर्षों तक हिंदी पत्रिका माधुरी का संपादन किया। इस दौरान उन्होंने प्रवासीलाल के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस पत्रिका और जागरण समाचार पत्र प्रकाशित किया। प्रेस उनके लिए व्यावसायिक रूप से लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ और बेचना पड़ा। प्रेमचंद पर कर्जा चढ़ गया। सन 1933 में ऋण उतारने हेतु प्रकाशक मोहन लाल भवनानी की कंपनी अजंता सिनेटोन में कहानी (फिल्म पटकथा) लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार करन पड़ा। फिल्म मजदूर की पटकथा उनकी लिखी हुई है।
फिल्म नगरी प्रेमचंद को रास नहीं आई। वे एक वर्ष का अनुबन्ध भी पूरा नहीं कर सके और दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य निरन्तर बिगड़ता गया। लम्बी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया। 
प्रेमचार के विरोधियों ने उनके निजी जीवन के संबंध में विचार व्यक्त कर कुछ आरोप भी लगाए हैं ।
प्रेमचंद के अध्‍येता कमल किशोर गोयनका ने अपनी पुस्‍तक 'प्रेमचंद : अध्‍ययन की नई दिशाएं' में प्रेमचंद के जीवन पर कुछ आरोप लगाए हैं। जैसे- प्रेमचंद ने अपनी पहली पत्‍नी को बिना वजह छोड़ा और दूसरे विवाह के बाद भी उनके अन्‍य किसी महिला से संबंध रहे (जैसा कि शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' में उद्धृत किया है)। प्रेमचंद ने जागरण विवाद में विनोद शंकर व्‍यास के साथ धोखा किया, प्रेमचंद ने अपनी प्रेस के वरिष्‍ठ कर्मचारी प्रवासी लाल वर्मा के साथ धोखाधडी की, प्रेमचंद की प्रेस में मजदूरों ने हड़ताल की, प्रेमचंद ने अपनी बेटी के बीमार होने पर झाड़-फूंक का सहारा लिया आदि।
फिर भी कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा उनको सदैव याद किया जाता रहेगा। प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से 30 जुलाई 1980 को जन शताब्दी के अवसर पर 30 पैसे का डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई। प्रेमचंद की 125वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे लमही गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा

साहित्यिक जीवन

साहित्य कार्य  -
भाषा - फारसी, हिंदी एवं उर्दू
आदर्शवादी व यथार्थवादी लेखक प्रेमचंद का साहित्य दोनों भाषाओं में उस समय की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में प्रकाशित हुआ।
लेखन का केंद्रीय विषय - किसान,साहूकार,समसामयिक सामाजिक सरोकार 
संपादन - जागरण (समाचार पत्र), हंस, मर्यादा, माधुरी (साहित्यिक पत्रिका) का संपादन
धनपत राय का साहित्यिक जीवन 1901 से शुरू होता है।  उन्होंने नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखना शुरू किया। प्रेम करने के फलस्वरूप (एक दलित स्त्री से मामा का प्रेम) मामा की खूब पिटाई हुई और इसी आधार पर उन्होंने पहली कहानी नाटक लिखा यह प्रकाशित नहीं हो सका। इसका उदहरण प्रमचंद ने स्वयं के लेख ‘पहली रचना’ में किया है। उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद उर्दू साप्ताहिक आवाज-ए-खल्क़ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 दो साल तक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ। कालान्तर में यह हिन्दी में देवस्थान रहस्य नाम से भी प्रकाशित हुआ।
प्रेमचंद का दूसरा उर्दू उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' है जो हिंदी में 'प्रेमा' नाम से 1907 में प्रकाशित हुआ। सन 1908 में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भविष्‍य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसी कारण उन्हें दयानारायण निगम द्वारा दिए गए नाम प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया। 'प्रेमचंद' नाम से पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई।
सन 1915 में उस समय की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत प्रकाशित हुई। सन 1918 में उनका पहला हिंदी उपन्यास सेवा सदन प्रकाशित हुआ। इसकी अत्यधिक लोकप्रियता ने प्रेमचंद को उर्दू से हिंदी का कथाकार बना दिया और लगभग सभी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती रहीं।
उपन्यास - लगभग 18 उपन्यास - सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान, बेवा, मानसरोवर आदि  कहानियां - लगभग 300 से अधिक कहानियां, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि 
जीवन के अंतिम दिनों तक साहित्य सृजन में रत प्रेमचंद का महाजनी सभ्यता अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अन्तिम व्याख्यान, कफन अन्तिम कहानी, गोदान अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।
1922 में बेदखली की समस्या पर आधारित प्रेमाश्रम उपन्यास प्रकाशित किया। सन 1925 में उन्होंने रंगभूमि नामक वृहद उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें मंगलप्रसाद पुरस्कार मिला। सन 1926 से 1927 में महादेवी वर्मा द्वारा संपादित हिंदी मासिक पत्रिका चाँद के लिए धारावाहिक उपन्यास के रूप में निर्मला की रचना की। इसके बाद उन्होंने कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि और गोदान की रचना की। उन्होंने सन 1930 में बनारस से स्वयं की प्रेस से मासिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। सन 1932 में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन आरंभ किया।  सन 1936 में लखनउ में आयोजित अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ (तरक्की पसंद तहरीक) के सम्मेलन की अध्यक्षता की। सन 1920 से 1936 तक प्रेमचंद लगभग दस से अधिक कहानी प्रतिवर्ष लिखते रहे। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ "मानसरोवर" नाम से 08 खंडों में प्रकाशित हुईं। उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त वैचारिक निबंध, संपादकीय, पत्र के रूप में भी उनका विपुल लेखन उपलब्ध है। 

प्रेमचन्द के अधिकांश साहित्य का वर्तमान में सार्वजानिक प्रकाशन डायमंड पाकेट बुक द्वारा किया गया है। इन में से कुछ इस प्रकार हैं - 
किशना - 1907 के 'ज़माना' में प्रकाशित
रूठी रानी -  अप्रेल 1907 में अप्रैल से अगस्त तक ज़माना में प्रकाशित किया गया।
जलवए ईसार- यह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ था।
सेवासदन- 1918 ई. में प्रकाशित सेवासदन प्रेमचंद का हिन्दी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था। यह मूल रूप से उन्‍होंने 'बाजारे-हुस्‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा गया लेकिन इसका हिन्दी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित हुआ। यह स्त्री समस्या पर केन्द्रित उपन्यास है जिसमें दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, स्त्री-पराधीनता आदि समस्याओं के कारण और प्रभाव शामिल हैं।
प्रेमाश्रम - 1922 यह किसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास है। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। यह अवध के किसान आन्दोलनों के दौर में लिखा गया में किसानों के हालत पर लिखा गया पहला उपन्यास है। इसमें सामंती व्यवस्था के साथ किसानों के अन्तर्विरोधों को केंद्र में रखकर उसकी परिधि में आने वाले प्रत्येक सामाजिक तबके का -ज़मींदार, ताल्लुकेदार, उनके नौकर, पुलिस, सरकारी मुलाजिम, शहरी मध्यवर्ग - और उनकी सामाजिक भूमिका का सजीव चित्रण किया गया है।
रंगभूमि (1925)- इसमें प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात करते हैं।
निर्मला (1925)- यह अनमेल विवाह की समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है।
कायाकल्प (1926)
अहंकार - इसका प्रकाशन कायाकल्प के साथ ही सन् 1926 ई. में हुआ था। अमृतराय के अनुसार यह "अनातोल फ्रांस के 'थायस' का भारतीय परिवेश में रूपांतर है।"[15]
प्रतिज्ञा (1927)- यह विधवा जीवन तथा उसकी समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है।
गबन (1928)- उपन्यास की कथा रमानाथ तथा उसकी पत्नी जालपा के दाम्पत्य जीवन, रमानाथ द्वारा सरकारी दफ्तर में गबन, जालपा का उभरता व्यक्तित्व इत्यादि घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है।
कर्मभूमि (1932)-यह अछूत समस्या, उनका मन्दिर में प्रवेश तथा लगान इत्यादि की समस्या को उजागर करने वाला उपन्यास है।
गोदान (1936)- यह उनका अन्तिम पूर्ण उपन्यास है जो किसान-जीवन पर लिखी अद्वितीय रचना है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 'द गिफ्ट ऑफ़ काओ' नाम से प्रकाशित हुआ।
मंगलसूत्र (अपूर्ण)- यह प्रेमचंद का अधूरा उपन्‍यास है जिसे उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया। इसके प्रकाशन के संदर्भ में अमृतराय प्रेमचंद की जीवनी में लिखते हैं कि इसका-"प्रकाशन लेखक के देहान्त के अनेक वर्ष बाद 1948 में हुआ।"

प्रेमचद की कुछ कहानियों के नाम -

कहानी संग्रह-
सप्त सरोज
1917 में इसके पहले संस्करण की भूमिका लिखी गई थी। सप्त सरोज में प्रेमचंद की सात कहानियाँ संकलित हैं। उदाहरणतः बड़े घर की बेटी[, सौत, सज्जनता का दण्ड, पंच परमेश्वर, नमक का दारोगा, उपदेश तथा परीक्षा आदि।

नवनिधि
यह प्रेमचंद की नौ कहानियों का संग्रह है। जैसे-राजा हरदौल, रानी सारन्धा, मर्यादा की वेदी, पाप का अग्निकुण्ड, जुगुनू की चमक, धोखा, अमावस्या की रात्रि, ममता, पछतावा आदि।

समरयात्रा
इस संग्रह के अंतर्गत प्रेमचंद की 11 राजनीतिक कहानियों का संकलन किया गया है। उदाहरण स्वरूप-जेल, कानूनी कुमार, पत्नी से पति, लांछन, ठाकुर का कुआँ, शराब की दुकान, जुलूस, आहुति, मैकू, होली का उपहार, अनुभव, समर-यात्रा आदि।

मानसरोवर' - 
भाग एक व दो और 'कफन'। उनकी मृत्‍यु के बाद उनकी कहानियाँ 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई। इनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। प्रेमचंद ने जीवन काल में लगभग 300 से अधिक कहानियाँ तथा 18 से अधिक उपन्यास लिखे है| इनकी इन्हीं क्षमताओं के कारण इन्हें कलम का जादूगर कहा जाता है| प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़ ए वतन (राष्ट्र का विलाप) नाम से जून 1908 में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम से ओतप्रोत उनकी पहली प्रकाशित कहानी है

अन्य संग्रह - प्रेमपूर्णिमा, प्रेम-पचीसी, प्रेम-प्रतिमा,
प्रेम-द्वादशी
कुछ कहानियों के नाम -
1. अन्धेर
2. अनाथ लड़की
3. अपनी करनी
4. अमृत
5. अलग्योझा
6. आखिरी तोहफ़ा
7. आखिरी मंजिल
8. आत्म-संगीत
9. आत्माराम
10. दो बैलों की कथा
11. आल्हा
12. इज्जत का खून
13. इस्तीफा
14. ईदगाह
15. ईश्वरीय न्याय
16. उद्धार
17. एक आँच की कसर
18. एक्ट्रेस
19. कप्तान साहब
20. कर्मों का फल
21. क्रिकेट मैच
22. कवच
23. कातिल
24. कोई दुख न हो तो बकरी खरीद ला
25. कौशल़
26. खुदी
27. गैरत की कटार
28. गुल्‍ली डण्डा
29. घमण्ड का पुतला
30. ज्‍योति
31. जेल - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
32. जुलूस
33. झाँकी
34. ठाकुर का कुआँ  - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
35. तेंतर
36. त्रिया-चरित्र
37. तांगे वाले की बड़
38. तिरसूल
39. दण्ड
40. दुर्गा का मन्दिर
41. देवी
42. देवी - एक और कहानी
43. दूसरी शादी
44. दिल की रानी
45. दो सखियाँ
46. धिक्कार
47 धिक्कार - एक और कहानी
48. नेउर
49. नेकी
50. नबी का नीति-निर्वाह
51. नरक का मार्ग
52. नैराश्य
53. नैराश्य लीला
54. नशा
55. नसीहतों का दफ्तर
56. नाग-पूजा
57. नादान दोस्त
58. निर्वासन
59. पंच परमेश्वर (1917 में प्रकाशित सप्त सरोज कहानी संग्रह)
60. पत्नी से पति  - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
61. पुत्र-प्रेम
62. पैपुजी
63. प्रतिशोध
64. प्रेम-सूत्र
65. पर्वत-यात्रा
66. प्रायश्चित
67. परीक्षा (1917 में प्रकाशित सप्त सरोज कहानी संग्रह)
68. पूस की रात
69. बैंक का दिवाला
70. बेटों वाली विधवा
71. बड़े घर की बेटी (1917 में प्रकाशित सप्त सरोज कहानी संग्रह)
72. बड़े बाबू
73. बड़े भाई साहब
74. बन्द दरवाजा
75. बाँका जमींदार
76. बोहनी
77. मैकू  - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
78. मन्त्र
79. मन्दिर और मस्जिद
80. मनावन
81. मुबारक बीमारी
82. ममता
83. माँ
84. माता का ह्रदय
85. मिलाप
86. मोटेराम जी शास्त्री
87. र्स्वग की देवी
88. राजहठ
89. राष्ट्र का सेवक
90. लैला
91. वफ़ा का खंजर 
92. वासना की कड़ियां
93. विजय
94. विश्वास
95. शंखनाद
96. शूद्र
97. शराब की दुकान
98. शान्ति
99. शादी की वजह
100. स्त्री और पुरूष
101. स्वर्ग की देवी
102. स्वांग
103. सभ्यता का रहस्य
104. होली का उपहार  - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
105. समस्या
106. सैलानी बन्दर
107. स्‍वामिनी
108. सिर्फ एक आवाज
119. सोहाग का शव
110. सौत - (1917 में प्रकाशित सप्त सरोज कहानी संग्रह)
111. होली की छुट्टी
112. आहुति  - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
113.गृह-दाह
114.सवा सेर गेहूँ 
115. नमक का दरोगा (1917 में प्रकाशित सप्त सरोज कहानी संग्रह)
116. सज्जनता का दंड (1917 में प्रकाशित सप्त सरोज कहानी संग्रह)
117.दूध का दाम
118.मुक्तिधन
119.कफ़न
120. उपदेश (1917 में प्रकाशित सप्त सरोज कहानी संग्रह)
नव निधि कहानी संग्रह में प्रकाशित कहानियां -
121. राजा हरदौल 
122. रानी सारन्धा
123. मर्यादा की वेदी
124. पाप का अग्निकुण्ड
125. जुगुनू की चमक
127. धोखा
126. अमावस्या की रात्रि
128.ममता
129. पछतावा
130. कानूनी कुमार - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
131. लांछन - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
132 शराब की दुकान - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
133.जुलूस - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
134. होली का उपहार - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
138. अनुभव - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)
139. समर-यात्रा - (समर यात्रा कहानी संग्रह में प्रकाशित)

नाटक

संग्राम (1923)- 
यह किसानों के मध्य व्याप्त कुरीतियाँ तथा किसानों की फिजूलखर्ची के कारण हुआ कर्ज और कर्ज न चुका पाने के कारण अपनी फसल निम्न दाम में बेचने जैसी समस्याओं पर विचार करने वाला नाटक है।

कर्बला (1924)

प्रेम की वेदी (1933)
ये नाटक शिल्‍प और संवेदना के स्‍तर पर हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्‍यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्‍त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्‍तुतः संवादात्‍मक उपन्‍यास ही बन गए हैं।

कथेतर साहित्य

प्रेमचंद : विविध प्रसंग- 
यह अमृतराय द्वारा संपादित प्रेमचंद की कथेतर रचनाओं का संग्रह है। इसके पहले खण्ड में प्रेमचंद के वैचारिक निबन्ध, संपादकीय आदि प्रकाशित हैं। इसके दूसरे खण्ड में प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है।

प्रेमचंद के विचार- 
तीन खण्डों में प्रकाशित यह संग्रह भी प्रेमचंद के विभिन्न निबंधों, संपादकीय, टिप्पणियों आदि का संग्रह है।

साहित्‍य का उद्देश्‍य- 
इसी नाम से उनका एक निबन्ध-संकलन भी प्रकाशित हुआ है जिसमें 40 लेख हैं।
प्रेमचंद के कुछ निबन्धों की सूची निम्नलिखित है-
01. पुराना जमाना नया जमाना
02. स्‍वराज के फायदे
03. कहानी कला (भाग 1,2,3)
04. कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार
05. हिन्दी-उर्दू की एकता
06. महाजनी सभ्‍यता
07. उपन्‍यास
08. जीवन में साहित्‍य का स्‍थान।

चिट्ठी-पत्री- 
यह प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है। दो खण्डों में प्रकाशित इस पुस्तक के पहले खण्ड के संपादक अमृतराय और मदनगोपाल हैं। इस पुस्तक में प्रेमचंद के दयानारायन निगम, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्र आदि समकालीन लोगों से हुए पत्र-व्यवहार संग्रहित हैं। संकलन का दूसरा भाग अमृतराय ने संपादित किया है।

अनुवाद
प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्‍होंने दूसरी भाषाओं के लेखकों को पढ़ा और जिनसे प्रभावित हुए उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। उन्होंने 'टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ' (1923), गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों की हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्‍याय (1931) नाम से अनुवाद किया। उनका रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्‍यास फसान-ए-आजाद का हिन्दी अनुवाद आजाद कथा बहुत मशहूर हुआ।

बाल साहित्य : रामकथा, कुत्ते की कहानी, दुर्गादास
विचार : प्रेमचंद : विविध प्रसंग, प्रेमचंद के विचार (तीन खण्डों में)

संपादन -
प्रेमचन्द ने 'जागरण' नामक समाचार पत्र तथा 'हंस' नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया था। उन्होंने सरस्वती प्रेस भी चलाया था। वे उर्दू की पत्रिका ‘जमाना’ में नवाब राय के नाम से लिखते थे।


विशेषताएँ -
साहित्य के प्रति यानी चाहे राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में समेटा और खास कर एक आम आदमी को, एक किसान को, एक आम दलित वर्ग के लोगों को वह अपने आप में एक उदहारण के रूप में प्रस्तुत करता है।साहित्य में दलित विमर्श की शुरुआत शायद प्रेमचंद की रचनाओं से हुई थी। प्रेम चंद की विचारधारा में उनके साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। सेवासदन के दौर में वे यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित तो कर रहे थे लेकिन उसका एक आदर्श समाधान भी निकाल रहे थे। 1936 के आते-आते महाजनी सभ्यता, गोदान और कफ़न जैसी रचनाएँ अधिक यथार्थपरक हो गईं, किंतु उसमें समाधान नहीं सुझाया गया। अपनी विचारधारा को प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहा है। इसके साथ ही प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार हैं। इस अर्थ में उन्हें राष्ट्रवादी भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद मानवतावादी भी थे और मार्क्सवादी भी। प्रगतिवादी विचारधारा उन्हें प्रेमाश्रम के दौर से ही आकर्षित कर रही थी। प्रेमचंद ने 1936 में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधित किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। इस अर्थ में प्रेमचंद निश्चित रूप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं।

प्रेमचन्द के अनुमार्गी -
प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने में कई रचनाकारों ने भूमिका अदा की है। प्रेमचंद की परंपरा को अलका कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा और  निराला ने अपनाया। उसे चकल्लस और क्या से क्या आदि कहानियों के लेखक पढ़ीस ने भी अपनाया। उस परंपरा की झलक नरेंद्र शर्मा, अमृतलाल नागर आदि की कहानियों और रेखाचित्रों में मिलती है। 50 से 60 के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं।

प्रेमचंद से संबंधित रचनाएँ
प्रेमचंद की तीन जीवनीपरक पुस्तकें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं:
01. प्रेमचंद घर में- 
सन 1944 में प्रकाशित यह पुस्तक प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी द्वारा लिखी गई है जिसमें उनके व्यक्तित्व के घरेलू पक्ष को उजागर किया है। सन 2005.में प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार ने संशोधित संस्करण प्रकाशित करवाया।
02. प्रेमचंद कलम का सिपाही- 
सन 1962 में प्रकाशित प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय द्वारा लिखी गई यह प्रेमचंद वृहद जीवनी है जिसे प्रामाणिक बनाने के लिए उन्होंने प्रेमचंद के पत्रों का उपयोग किया है। 
03. कलम का मज़दूर:प्रेमचन्द- 
सन 1964 में प्रकाशित इस कृति की भूमिका रामविलास शर्मा के अनुसार-"29 मई, 1962 में लिखी गई थी किंतु उसका प्रकाशन बाद में किया गया. मदन गोपाल द्वारा रचित प्रेमचंद की जीवनी मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई और हिंदी अनुवाद बाद में प्रकाशित हुआ। यह प्रेमचंद के परिवार के बाहर के व्यक्ति द्वारा रचित जीवनी है जो प्रेमचंद संबंधी तथ्यों का अधिक तटस्थ रूप से मूल्यांकन करती है।

आलोचनात्मक पुस्तकें
रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद और उनके जीवन तथा साहित्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया है। प्रेमचंद पर हुए नए अध्‍ययनों में कमल किशोर गोयनका और डॉ॰ धर्मवीर का नाम उल्‍लेखनीय है। कमल किशोर गोयनका ने प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य (दो भाग) व 'प्रेमचंद विश्‍वकोश' (दो भाग) का संपादन भी किया है। डॉ॰ धर्मवीर ने दलित दृष्टि से प्रेमचंद साहित्‍य का मूल्यांकन करते हुए प्रेमचंद : सामंत का मुंशीप्रेमचंद की नीली आँखें नाम से पुस्‍तकें लिखी हैं।

प्रेमचंद और सिनेमा
प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में शतरंज के खिलाड़ी और 1981 में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में गोदान और 1966 में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

"हंस" के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए।[31]



चुरू ट्रिपल मर्डर मिस्ट्री

Monday, 25 March 2024

रविंदर नाथ टैगोर

                
                  कविंद्र रविन्द्र नाथ टैगोर
                 कवि, दार्शनिक एवं गीतकार
                   गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर 
    गुरुदेव रवीन्द्रनाथमृणालि देवी टैगोर 1920

सामान्य परिचय एवं इतिहास 
नाम -  रविंद्र नाथ ठाकुर  (अंग्रेजी में अपभ्रांस के कारण ठाकुर को टैगोर बोला गया बाद में यही नाम प्रसिद्ध हो गया।
उपनाम - गुरुदेव
पिता का नाम - देवेंद्र नाथ ठाकुर (व्यापारी)
माता का नाम - शारदा देवी (माता को बाल्यकाल में ही मृत्यु के कारण पालन पोषण नौकरों द्वारा हुआ।
जन्म -  07.05.1861
जन्म भूमि - जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी, कोलकाता 
मृत्यु - 07.08.1941
शांत स्थल - कोलकाता
सहोदर
01. सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ (दार्शनिक और कवि)
02. भाई सत्येंद्रनाथ (यूरोपीय सिविल सेवा हेतु चयनित पहले भारतीय)
03 भाई ज्योतिरिंद्रनाथ (संगीतकार और नाटककार )
04. बहिन स्वर्ण कुमारी (उपन्यासकार)
विवाह -  मृणालिनी देवी (01 मार्च 1854 से 23 नवंबर 1902) वर्ष 1873 में।
संतान - 05 (जिनमें से 02 का बाल्यावस्था में निधन)
धर्म - सनातन
गोत्र - राजपूत 
                     पत्नी के साथ टैगोर

पारिवारिक पृष्ठभूमि - 
टैगोर परिवार बंगाल पुनर्जागरण के समय अग्रणी था उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया; बंगाली और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत एवं रंगमंच और पटकथाएं वहां नियमित रूप से प्रदर्शित हुईं थीं। टैगोर के पिता ने कई पेशेवर ध्रुपद संगीतकारों को घर में रहने और बच्चों को भारतीय शास्त्रीय संगीत पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया। ज्योतिरिंद्रनाथ की पत्नी कादंबरी देवी जो टैगोर से थोड़ी बड़ी थीं और उनकी प्रिय मित्र और  प्रभावशाली स्त्री थीं ने 1884 में आत्महत्या कर ली। इस कारण टैगोर और इनका शेष परिवार  क्षणिक कठिनाइयों से घिरा रहा।
पद
01.विश्वविख्यात हिंदी और बांग्ला भाषा के कवि, साहित्यकार, दार्शनिक
02. भारतीय साहित्य के (एशिया के प्रथम) नोबेल पुरस्कार विजेता हैं।
03. एकमात्र कवि जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं।
01. भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और 
02. बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांङ्ला'
रबीन्द्रनाथ टैगोर (१९२५)
शिक्षा-
01. माध्यमिक शिक्षा सेंट जेवियर स्कूल कोलकाता।
02. बैरिस्टर बनने की इच्छा में 1858 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम लिखाया
03. लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया किन्तु 
04. सन 1870 में बिना डिग्री प्राप्त किए ही स्वदेश लौट आए।
दर्शन - आधुनिकतावाद
                आइंस्टीन के साथ टैगोर

जीवन परिचय -
भाभी के आत्महत्या करने के बाद टैगोर पढ़ाई से कतराने लगे। स्थानीय क्षेत्र मैरर या पास के बोलपुर और पनिहती में घूमने जाने लगे। भाई हेमेंन्द्र नाथ ने पढ़ाया और शारीरिक रूप से पुष्ट किया। गंगा को तैर कर पार करना, जिमनास्टिक्स, जूडो और कुश्ती अभ्यास करना भाई ने सिखाया। टैगोर ने ड्राइंग, शरीर विज्ञान, भूगोल और इतिहास, साहित्य, गणित, संस्कृत और अंग्रेजी को सबसे पसंदीदा विषय के रूप में अध्ययन किया। ओपचारिक शिक्षा से उनका मन उचांट रहा। टैगोर ने कहा है कि ओपचारिक शिक्षा जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाती है।
ग्यारह वर्ष की आयु में उपनयन (यज्ञोंपवित/ जनेऊ) संस्कार के बाद, टैगोर पिता के साथ महीनों, भारत यात्रा पर रहे। फरवरी 1873 में कलकत्ता छोड़ कर शांति निकेतन और अमृतसर से डेलाहौसी के हिमालय के पर्वतीय स्थलों तक यात्रा की। वहां टैगोर ने जीवनी, इतिहास, खगोल विज्ञान, आधुनिक विज्ञान और संस्कृत का अध्ययन किया और कालिदास की शास्त्रीय कविताओं के बारे में पढ़ाई की। सन 1873 में अमृतसर के एक महीने के प्रवास के समय, गुरूद्वारे में गाई जाने वाली सुप्रभात गूरुवाणी और नानक वाणी से बहुत प्रभावित हुए और नियमित सुनने जाते रहे। इसके बारे में टैगोर ने 1912 में प्रकाशित पुस्तक मेरी यादों में उल्लेख किया है।

साहित्यिक जीवन -
टैगोर परिवार साहित्य से जुड़ा रहा और घर में साहित्यिक वातावरण के कारण स्वताः ही साहित्यिक गतिविधियां उनको मोहित करने लगीं। सन 1881 में  टैगोर ने वाल्मीकि प्रतिभा' नामक नाटक में शीर्ष भूमिका (इंदिरा देवी,लक्ष्मी) किभुमिका निभाई।
बचपन से ही कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास करवाया। टैगोर ने पहली कविता आठ वर्ष की आयु में लिखी थी और सन् 1877 में सोलह वर्ष की आयु में उनकी प्रथम लघुकथा प्रकाशित हुई।
टैगोर ने अपने जीवनकाल में कई उपन्यास, निबंध, लघु कथाएँ, यात्रावृन्त, नाटक और सैंकडों गाने लिखे हैं। टैगोर मुख्यतः पद्य कविताओं के लिए प्रसिद्ध हैं। गद्य में लिखी उनकी छोटी कहानियाँ बहुत लोकप्रिय रही हैं। टैगोर ने इतिहास, भाषा विज्ञान और आध्यात्मिकता से जुड़ी पुस्तकें भी लिखी थीं। टैगोर के यात्रावृन्त, निबंध, और व्याख्यान कई खंडों में संकलित किए गए, जिनमें यूरोप के जटरिर पत्र (यूरोप से पत्र) और मनुशर धर्म (मनुष्य का धर्म) शामिल थे। अल्बर्ट आइंस्टीन के साथ उनकी संक्षिप्त बातचीत, वास्तविकता की प्रकृति पर नोट, बाद के उत्तरार्धों के एक परिशिष्ट के रूप में सम्मिलित किया गया है।
टैगोर के 150वें जन्मदिन के अवसर पर उनके कार्यों का संकलन (कालनुक्रोमिक रबीन्द्र रचनावली) प्रकाशित किया गया है। इसमें प्रत्येक कार्य के सभी संस्करण शामिल हैं और लगभग अस्सी संस्करण है। सन 2011 में, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने विश्व-भारती विश्वविद्यालय के साथ अंग्रेजी में उपलब्ध फखरुल आलम और राधा चक्रवर्ती द्वारा संपादित टैगोर के कार्यों के सबसे बड़े संकलन द एसेंटियल टैगोर प्रकाशित करने हेतु सहयोग किया।
            एक नाटक के प्रस्तुतिकरण में टैगोर

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कृतियाँ -
गीतांजलि
पूरबी प्रवाहिन
शिशु भोलानाथ
महुआ
वनवाणी
परिशेष
पुनश्च
वीथिका शेषलेखा
चोखेरबाली
कणिका
नैवेद्य मायेर खेला
क्षणिका
गीतिमाल्य
कथा ओ कहानी
रविन्द्र नाथ की कहानियां
घरे बहिरे
गोरा
मनुशर धर्म
यूरोप से पत्र

रबीन्द्र संगीत -
टैगोर ने लगभग 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएँ तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग - अलग रंग प्रस्तुत करते हैं।
अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं कि यह रचना उस राग विशेष के लिए ही की गई थी। प्रकृति के प्रति गहरा लगाव रखने वाला यह प्रकृति प्रेमी ऐसे एकमात्र लेखक हैं जिनके गाने दो देशों के राष्ट्रगान बने। जन गण मन भारत और ओमार सोनार बांग्ला बंगला देश का राष्ट्रीय गान है।

रविंद्र दर्शन - 
गुरुदेव रविंदर नाथ टैगोर ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गाँधी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहे। जहां गांधी जी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गांधी जी को डाकू का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस समय गांधी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक प्रदान किया।
जीवन के अन्तिम समय से कुछ पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्ति निकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा और नए का आगमन होगा।

रविंद्र नाथ की साहित्यिक विशेषताए -
टैगोर की रचनाओं में मनुष्य और ईश्वर के बीच के चिरस्थायी सम्पर्क की विविध रूपों में अभिव्यक्ति मिलती है। उन्होंने बंगाली साहित्य में नए तरह के पद्य और गद्य के साथ बोलचाल की भाषा का भी उपयोग किया। इससे बंगाली साहित्य शास्त्रीय संस्कृत के प्रभाव से मुक्त हो गया। टैगोर की रचनायें बांग्ला साहित्य में एक नई ऊर्जा ले कर आई। उन्होंने एक दर्जन से अधिक उपन्यास लिखे। इनमे चोखेर बाली, घरे बहिरे, गोरा आदि शामिल है। उनके उपन्यासों में मध्यम वर्गीय समाज विशेष रूप से उभर कर सामने आया। सन 1913 में गीतांजलि के लिए इन्हें एशिया के प्रथम साहित्यकार के रूप में साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला। मात्र आठ वर्ष की उम्र मे पहली कविता और केवल 16 वर्ष की उम्र मे पहली लघुकथा प्रकाशित कर बांग्ला साहित्य मे एक नए युग की शुरुआत की। उनकी कविताओं में नदी और बादल की अठखेलियों से लेकर अध्यात्म के विभिन्न विषयों को बखूबी उकेरा गया है। टैगोर की कविता पढ़ने से उपनिषद पढ़ने जैसी भावनाएं परिलक्षित होती है।

विश्व-भारती विश्वविद्यालय -
विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना 22 दिसंबर 1921 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने पश्चिम बंगाल के शान्ति निकेतन बोलपुर, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल,  में की। यह भारत के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में से एक है अनेक स्नातक और अधिस्नातक संस्थान इससे संबद्ध हैं। इसका आदर्श वाक्य है यत्र विश्वं भवत्येकनीड़म
सन 1901 में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यहां बालकों की शिक्षा हेतु एक प्रयोगात्मक विद्यालय स्थापित किया जो प्रारम्भ में ब्रह्म विद्यालय, बाद में शान्ति निकेतन तथा 1921 में विश्व भारती' विश्वविद्यालय के नाम से प्रख्यात हुआ।
विश्व भारती महर्षि रवीन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का मूर्तमान स्वरूप है। यहाँ खुले गगन के नीचे वृक्षों व कुंजों के झुरमुटों में जमीन पर बैठकर देश-विदेशों से आकर असंख्य विद्यार्थी धर्म, दर्शन, साहित्य एवं कला का उच्च अध्ययन करते हैं। प्राच्य व पाश्चात्य संस्कृतियों के सम्मिश्रण में इस संस्था ने बड़ा योग दिया है। सात्विक व सादा जीवन, प्रकृति से संपर्क, प्राचीन व आधुनिक शिक्षा पद्धतियों का एकीकरण आध्यात्मिक व भौतिक शिक्षा पर समान बल एवं सांस्कृतिक उत्थान इत्यादि इस संस्था की अपनी विशेषताएँ हैं। भारत की शिक्षा के इतिहास में यह एक नूतन व महान परीक्षण माना गया है।
           विश्व भारती विश्व विद्यालय का लोगो

शांति निकेतन में शाम को भ्रमण करते हुए गुरुदेव

शांतिनिकेतन का जन्म
टैगोर के पिता देवेन्द्र नाथ ठाकुर ने सन 1863 में साधना हेतु कलकत्ते के निकट बोलपुर नामक ग्राम में एक आश्रम की स्थापना की जिसका नाम शांति-निकेतन रखा। जिस स्थान पर वे साधना किया करते थे वहां एक संगमरमर की शिला पर बंगला भाषा में अंकित है--तिनि आमार प्राणेद आराम, मनेर आनन्द, आत्मार शांति।
गुरु-शिष्य सम्बन्धों पर विचार करते हुए टैगोर ने आधुनिक किशोर की समस्याओं का सहृदयता से अध्ययन किया और अपना दृढ़ मत व्यक्त किया कि शिक्षण संस्थाओं में व्याप्त अनुशासनहीनता को दूर करने के लिए जेल और मिलिट्री की बैरकों का कठोर अनुशासन काम नहीं दे सकता, यह तो अध्यापकों की प्रतिष्ठा पर भी आघात होगा। विद्यार्थियों से यह आशा करना ही गलत है वे अध्यापकों से वैसा ही व्यवहार करें जैसा किसी सामन्त के दरबारी करते हैं। टैगोर का विश्वास था कि शिक्षा में आदान-प्रदान की प्रक्रिया यदि पारस्परिक सम्मान की भावना से युक्त हो तो अनुशासन की समस्या स्वत ही सुलझ जाएगी।
ज्ञान को समाज के हर वर्ग में फैलाना अतीत की शिक्षा का एक आदर्श था। धर्म ग्रन्थों और महाकाव्यों के अंशों का वाचन, भक्त ध्रुव, सीता वनवास, दानवीर कर्ण, सत्यवादी हरिशचन्द्र, आदि नाटक इसी उद्देश्य से किए जाते थे। यह उत्तम प्रकार की समाज शिक्षा थी। परन्तु अंग्रेजी शिक्षा का लाभ अधिकांश नगरों तक ही सीमित रहा और शेष देश के असंख्य गाँव अशिक्षा, रोग और क्षय के अन्धकार में विलीन होते गए। इस स्थिति को सुधारना चाहिए।

            गाँधीजी विश्वभारती में सन 1940
टैगोर शान्ति निकेतन विद्यालय की स्थापना से ही संतुष्ट नहीं थे। उनका विचार था कि एक ऐसे शिक्षा केन्द्र की स्थापना की जाए, जहाँ पूर्व और पश्चिम को मिला सके। सन् 1916 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विदेशों से भेजे गए एक पत्र में लिखा था- "शान्ति निकेतन को समस्त जातिगत तथा भौगोलिक बन्धनों से अलग हटाना होगा, यही मेरे मन में है। समस्त मानव-जाति की विजय-ध्वजा यहीं गड़ेगी। पृथ्वी के स्वादेशिक अभिमान के बंधन को छिन्न-भिन्न करना ही मेरे जीवन का शेष कार्य रहेगा।"
                विश्व भारती कला भवन

विश्व भारती विश्व विद्यालय के उद्देश्य
(01) विभिन्न दृष्टिकोणों से सत्य के विभिन्न रूपों की प्राप्ति के लिए मानव मस्तिष्क का अध्ययन करना।
(02) प्राचीन संस्कृति में निहित आधारभूत एकता के अध्ययन एवं शोध द्वारा उनमें परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना।
(03) एशिया में व्याप्त जीवन के प्रति दृष्टिकोण एवं विचारों के आधार पर पश्चिम के देशों से संपर्क बढ़ाना।
(04) पूर्व एवं पश्चिम में निकट संपर्क स्थापित कर विश्व शान्ति की संभावनाओं को विचारों के स्वतंत्र आदान-प्रदान द्वारा सुदृढ़ बनाना।
(05) इन आदर्शों को ध्यान में रखते हुए शान्ति निकेतन में एक ऐसे सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना करना जहाँ धर्म, साहित्य, इतिहास, विज्ञान एवं हिन्दू, बौद्ध, जैन, मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य सभ्यताओं की कला का अध्ययन और उनमें शोधकार्य, पश्चिमी संस्कृति के साथ, आध्यात्मिक विकास के अनुकूल सादगी के वातावरण में किया जाए।

विश्व भारती विश्व विद्यालय के विभाग -
(01) पाठ भवन - 
इसमें स्कूल सर्टिफिकेट (मैट्रिक परीक्षा) उत्तीर्ण करने के लिए शिक्षा दी जाती है तथा 6 से 12 वर्ष की आयु के बालकों को प्रवेश दिया जाता है। शिक्षा का माध्यम बंगाली है।

(02) शिक्षा भवन -
इसमें सीनियर स्कूल सर्टिफिकेट (इन्टर परीक्षा) की परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए शिक्षा दी जाती है। छात्रों की आवश्यकताओं पर व्यक्तिगत ध्यान तथा सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य सहगामी क्रियाओं की प्रचुर मात्रा में व्यवस्था शिक्षा भवन की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

(03) विद्या भवन - 
इसमें 3 वर्ष की बी.ए. (आनर्स) पाठ्यक्रम की तैयारी कराई जाती है। परीक्षा के विषय संस्कृत, बंगाली, हिन्दी, उड़िया, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र और दर्शन है। भवन में दो वर्ष के एमए. पाठ्यक्रम की व्यवस्था संस्कृत, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति, बंगाली, हिन्दी, उड़िया, अंग्रेजी तथा दर्शन में है। छात्र इन विषयों में अनुसंधान कार्य भी कर सकते हैं। दो वर्षीय सार्टिफिकेट्स कोर्स, तत्पश्चात एक वर्षीय डिप्लोमा कोर्स का अतिरिक्त प्रबन्ध संस्कृत, बंगाली, हिन्दी, उड़िया, चीनी, जापानी, तिब्बती, फ्रेंच, जर्मन, अरबी और अंग्रेजी भाषाओं में किया गया है।

(04) विनय भवन - 
यह एक अध्यापक प्रशिक्षण कॉलेज है जिसमें एक वर्षीय बी.एड. पाठ्यक्रम की व्यवस्था है। प्रशिक्षण काल में शिल्प तथा अन्य व्यावहारिक एवं रचनात्मक क्रियाओं की शिक्षा का भी प्रबन्ध किया जाता है।

(05) कला भवन
इसमें ड्राइंग, पेंटिंग, मूर्ति कला, कढ़ाई आदि के अतिरिक्त काष्ठ कला, कलात्मक चर्म-कार्य तथा अन्य शिल्पों की शिक्षा भी दी जाती है। कला भवन में कलात्मक शिल्पों में दो वर्षीय सर्टिफिकेट कोर्स तथा मैट्रिक परीक्षा के पश्चात 4 वर्षीय डिप्लोमा कोर्स की व्यवस्था है।

(06) संगीत भवन - 
इसमें संगीत में (क) 3 वर्षीय इंटरमीडिएट परीक्षा का पाठ्यक्रम, (ख) तत्पश्चात रवीन्द्र संगीत, हिन्दुस्तानी संगीत, सितार, मणिपुरी नृत्य, कत्थक, कथाकली और भरतनाट्यम में 2 वर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम की व्यवस्था है।
(07) चीन भवन - इसमें भारतीय छात्रों को चीन सम्बन्धी और चीनी छात्रों को भारतीय संस्कृति की शिक्षा दी जाती है।

(08) हिन्दी भवन - इसमें हिन्दी भाषा की शिक्षा तथा अनुसंधान कार्य करने की सुविधाएं है।

(09) हिन्द-तिब्बती शिक्षालय
इसमें तिब्बती भाषा की शिक्षा का प्रबन्ध है।

(10) श्री निकेतन -
 इसमें ग्राम्य जीवन की समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य छात्रों को ग्राम्य जीवन से परिचित करवाना तथा ग्राम्य समस्याओं के समाधान की शक्ति पैदा करना है। श्री निकेतन में ग्रामीण बालकों को माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षा सत्र की स्थापना की गई है। घरेलू उद्योग-धन्धों के प्रशिक्षण का कार्य शिल्प सदन द्वारा किया जाता है।

(11) शिक्षा चर्चा भवन -
बेसिक अध्यापक प्रशिक्षण विद्यालय के रूप में स्थापित संस्था तथा भारत सरकार द्वारा स्थापित ग्रामीण महाविद्यालय उच्च ग्रामीण शिक्षा की व्यवस्था करती है।

विश्व भारती की विशेषताएँ
(01) स्वयं गुरुदेव रवीन्द्र ने विश्व भारती की विशेषता का उल्लेख इन शब्दों में किया - "विश्व भारती भारत का प्रतिनिधित्व करती है। यहाँ भारत की बौद्धिक सम्पदा सभी के लिए उपलब्ध है। अपनी संस्कृति के श्रेष्ठ तत्व दूसरों को देने में और दूसरों की संस्कृति के श्रेष्ठ तत्व अपनाने में भारत सदा से उदार रहा है। विश्व भारती भारत की इस महत्वपूर्ण परम्परा को स्वीकार करती है।"
(02) कोई छात्र किसी एक विभाग में प्रवेश पाने के पश्चात् किसी दूसरे विभाग में भी बिना कोई अतिरिक्त शुल्क दिए शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
(03) विदेशी छात्रों को नियमित छात्र के रूप में या अस्थाई छात्र के रूप में भी प्रवेश दिया जा सकता है।
(04) ड्राइंग, पेंटिंग, मूर्ति कला, चर्म कार्य, कढ़ाई, नृत्य, संगीत आदि ललित कलाओं में तथा चीनी और जापानी भाषाओं में शान्ति निकेतन ने विशेष ख्याति प्राप्त की है। इन क्षेत्रों में शान्ति निकेतन का योगदान विशिष्ट है।
(05) खुले मैदानों में या वृक्षों के नीचे प्रकृति के सान्निध्य में और स्वतंत्र वातावरण में शिक्षा दी जाती है।
(06) गुरु शिष्य के आदर्श सम्बन्धों को पुन: स्थापित किया जा रहा है।
(07) विश्वविद्यालय का पुस्तकालय बहुत प्रसिद्ध है जहाँ लगभग दो लाख पुस्तकों का संग्रह है।

सार्वजनिक सम्मान -
सन 1913 में रबीन्द्रनाथ ठाकुर को उनकी काव्य रचना गीतांजलि के लिये साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
1915 में उन्हें राजा जॉर्ज पंचम ने नाइटहुड (सर) की पदवी से सम्मानित किया। सन 1919 के जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में उन्होंने यह उपाधि लौटा दी थी।
                 जीवन के आखिरी क्षण 

आज सम्पूर्ण भारत में टैगोर को श्रद्धा पूर्वक याद किया जाता है और किया जाता रहेगा।

शमशेर भालू खान
जिगर चुरूवी
9587243963

Sunday, 24 March 2024

सरदार भगत सिंह

सरदार भगत सिंह संधू सामान्य जीवन परिचय
शहीद ए आजम भगत सिंह संधु 

बोलशेबिक विचारधारा के धनी, धर्म, आडंबर,पूंजीवाद और साम्राज्यवाद, विरोधी भगत सिंह  एक भारतीय उपनिवेशवाद-विरोधी क्रांतिकारी और हिंसा के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के पक्षधर भगत सिंह लाला लाजपत राय की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु अंग्रेज स्कॉट के स्थान पर सांडर्श की हत्या, असेंबली में बम फेंकने और सावतंत्रता आंदोलन में भाग लेने पर 23 वर्ष की आयु में शहीद होने वाले महान राष्ट्रभक्त थे। 

(विशेष - भगत सिंह की फांसी के दिन उनकी उम्र 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन थी और दिन भी था 23 मार्च।)

सामान्य परिचय - 
नाम - भगत सिंह
उपनाम - 
01.भागो वाला' (दादी द्वारा रखा गया नाम)
02. शहीद ए आजम 
जन्म - 28 सितम्बर 1907
(पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह तथा स्वर्ण सिंह अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण जेल में बंद थे। इसी दिन रिहा हुए)
जन्म स्थान - बंगा, जिला लालपुर पंजाब
मृत्यु - 23 मार्च 1931 (आयु 23 वर्ष)
मृत्यु का कारण - फांसी
फांसी का स्थान - हुसैनी वाला, लाहौर सेंट्रल जेल के पास, पंजाब (जॉन पी. सॉन्डर्स और चन्नन सिंह की हत्या के जुर्म में)
पिता का नाम - किशन सिंह संधू 
माता का नाम - विद्यावती कौर 
सहोदर - 03 भाई 03 बहन (कुल 07 संतान में भगत सिंह 02 नंबर थे)
धर्म - सिक्ख, बाद में नास्तिक और पंथ विरोधी
सामाजिक विचारधारा - आर्य समाजी 
जाति - संधु
आर्थिक विचार - कम्युनिस्ट, पूंजीवाद विरोधी
अनुगामी - चाचा प्रगतिशील विचारधारा के आंदोलनकारी (1907 नहर उपनिवेशीकरण आंदोलन के अग्रणी एवं गदर पार्टी कार्यकर्ता अजीत सिंह संधू)
संगठन
01. नौजवान भारत सभा
02. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन
लेखन और संपादन - भाषा पंजाबी और उर्दू (भगत सिंह अपने लेख छद्म नाम विद्रोही/बलवंत/अजीत के नाम सें लिखते थे।
01. पुस्तक का नाम - मैं नास्तिक क्यों हूँ
02. तत्कालीन अखबारों में लेख लिखना और संपादन कार्य
03. वर्कर्स एंड पीजेंट्स (कीर्ति किसान पार्टी)पार्टी हेतु की कीर्ति पत्रिका दिल्ली में भी लेख लिखे।
04. अर्जुन अखबार हेतु लेखन
05. नौजवान सभा हेतु पोस्टर लेखन
राजनीतिक दल - फॉरवर्ड ब्लॉक 
विवाह - 1923 में इंटर मिडियट के बाद घर वाले विवाह करना चाहते थे, परंतु भगत लाहौर से भाग कर कानपुर आ गए।
भाषाएं - हिंदी,पंजाबी,उर्दू,अंग्रेजी और बांग्ला 

जीवन परिचय - 
लाहौर कॉलेज ड्रामा क्लब (1924) में सिंह की तस्वीर (पिछली पंक्ति, दाएँ से चौथी
शिक्षा - 
प्रारंभिक शिक्षा बंगा के स्कूल से पूर्ण करने के बाद, भगत सिंह को लाहौर के दयानंद एंग्लो - वैदिक स्कूल भेजा गया। सन 1923 में, लाहौर में नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया, जिसकी स्थापना दो साल पहले लाला लाजपत राय ने महात्मा गांधी का असहयोग (ब्रिटिश सरकार द्वारा संचालित संस्थाओं के बहिष्कार आंदोलन) के समर्थन में की थी। इसी समय से वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए।
सन 1923 में भगत सिंह की प्रथम गिरफ्तारी के समय का चित्र
देखते ही देखते भगत सिंह युवाओं के चहेते बनने लग गए जिस से ब्रिटिश सरकार युवाओं पर सिंह के प्रभाव से चिंतित हो गई और मई 1927 में सन 1926 के लाहौर बम कांड के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। चाचा अजीत सिंह ने 60000 रुपये की जमानत पर रिहा करवा लिया गया।

भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियां - 

01 जॉन सॉन्डर्स की हत्या - 
सन 1928 में भारत की राजनीतिक स्थिति पर रिपोर्ट हेतु  साइमन कमीशन भारत आया। इसका राजनीतिक दलों ने बहिष्कार किया क्योंकि इसकी सदस्यों में एक भी भारतीय नहीं था, और पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हुए। जब आयोग ने 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर का दौरा किया, तो लाला लाजपत राय ने इसके विरोध में एक मार्च का नेतृत्व किया। जनता के विरोध के कारण पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट ने भीड़ को तितर-बितर करने हेतु बल प्रयोग किया जिस से हिंसा भड़क गई। लाठी चार्ज से चोटिल लाला लाजपत राय की कुछ समय पश्चात 17.11.1928 को मृत्यु हो गई।(पुलिस के अनुसार हृदयाघात के कारण मृत्यु हुई)। यह मामला ब्रिटिश संसद में उठाया गया, ब्रिटिश सरकार ने राय की मौत में पुलिस की भूमिका से इनकार कर दिया।
भगत सिंह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) के एक प्रमुख सदस्य थे और सन 1928 में जिसका नाम बदल कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) कर दिया गया। एचएसआरए के सदस्यों ने राय की मौत का बदला लेने की कसम खाई थी। इसमें भगत सिंह, शिवराम राजगुरु, सुखदेव थापर और चन्द्रशेखर आजाद प्रमुख थे। इन्होंने ने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर स्कॉट को मारने की योजना बनाई पर गलत पहचान के कारण परिवीक्षा अवधि में कार्यरत सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पी. सॉन्डर्स को लाहौर पुलिस मुख्यालय से बाहर निकलते समय 17 दिसंबर 1928 की गोली मार कर हत्या कर दी।
             HSRA द्वारा जारी एक पोस्टर 
सॉन्डर्स की हत्या के बाद एचएसआरए ने एक पैम्फलेट जारी किया जिस पर बलराज के नाम छद्म नाम से चन्द्रशेखर आजाद के हस्ताक्षर थे।
इस हत्याकांड पर अहिंसा वादियों ने जिसमें (नौजवान भारत सभा, जिसने एचएसआरए के साथ लाहौर विरोध मार्च की आयोजक संस्था) ने सार्वजनिक बैठकों में हिंसा का विरोध किया। लाल लाजलापत राय द्वारा 1925 में स्थापित संस्था द पीपल एवं महत्मा गांधी ने भी हिंसा का विरोध किया। परंतु  जवाहरलाल नेहरू ने भगत सिंह की प्रशंसा करते हुए लिखा कि - भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण नहीं बल्कि लाला लाजपत राय और उनके माध्यम से राष्ट्रय सम्मान की रक्षा करने के कारण प्रसिद्ध हुए हैं। अब भगत सिंह राष्ट्रवाद के प्रतीक बन गए,  कुछ ही महीनों में पंजाब के हर शहर और गांव सहित सम्पूर्ण उत्तर भारत उनका नाम गूंज उठा। उनके बारे में अनगिनत गाने बने और अद्भुत ख्याति प्राप्त की।

चन्नन सिंह की हत्या -
सॉन्डर्स की हत्या के बाद, जिला पुलिस मुख्यालय की सड़क पार कर डीएवी कॉलेज के प्रवेश द्वार से होते हुए दोनो (भगत सिंह और राजगुरु) भागने लगे जिन्हें चंद्र शेखर आजाद कवर कर रहे थे। उनका पीछा कर रहे हेड कांस्टेबल चानन सिंह ने इन्हें पकड़ने के प्रयास किए तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने गोली मार दी। फिर वे साइकिलों पर सवार होकर फरार हो गए। पुलिस ने उन्हें पकड़ने के लिए बड़े पैमाने पर तलाशी अभियान चलाया और शहर के सभी प्रवेश और निकास द्वारों को बंद कर दिया, आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) ने लाहौर छोड़ने वाले सभी युवाओं पर नजर रखी। यह दो दिनों तक छुपे रहे।  19 दिसंबर 1928 को, सुखदेव ने एचएसआरए के एक अन्य सदस्य भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गावती देवी (दुर्गा भाभी) की सहायता से बठिंडा होते हुए हावड़ा (कलकत्ता) जाने वाली ट्रेन से कलकत्ता जाने का फैसला किया।
भगत सिंह और राजगुरु, दोनों हथियार ले कर सुबह जल्दी घर से निकल गए। अंग्रेजी पोशाक पहने (भगत सिंह ने अपने बाल कटवाए, अपनी दाढ़ी कटवाई और सर पर टोपी पहनी), और दुर्गा भाभी के सोते हुए बच्चे को ले कर एक युवा जोड़े के रूप में और  राजगुरु नौकर के रूप में सामान सामान उठाए स्टेशन पहुंचे। स्टेशन पर, सिंह टिकट खरीदते समय अपनी पहचान छिपाने में कामयाब रहे और तीनों कानपुर के लिए ट्रेन में चढ़ गए। वहां से लखनऊ (सीधे हावड़ा जाने पर पकड़े जाने के हावड़ा रेलवे स्टेशन पर सीआईडी आमतौर पर लाहौर के भय से) पहुंचे। लखनऊ में, राजगुरु अलग से बनारस (वाराणसी) के लिए रवाना हो गए , जबकि भगत सिंह और दुर्गा भाभी हावड़ा चले गए, भगत सिंह को छोड़कर सभी कुछ दिनों बाद लाहौर लौट आए।

दिल्ली असेम्बली में बम विस्फोट और गिरफ्तारी
क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ जन समर्थन हेतु नाटक के माध्यम से प्रचार करते रहे। जादुई लालटेन के माध्यम से क्रांतिकारियों के फोटो और देश की दुर्दशा दिखाने हेतु स्लाइड दिखाते थे इसमें राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों के बारे में उनकी बातचीत को जीवंत को बनाया जाता, बिस्मिल की शहादत इसके क्रांतिकारी गतिविधियों के तहत हुई थी। काकोरी षड़यंत्र 1929 में गतिविधियों के संचालन हेतु एचएसआरए को एक नाटकीय कार्य का प्रस्ताव दिया जो पेरिस में चैंबर ऑफ डेप्युटीज़ पर बमबारी करने वाले फ्रांसीसी क्रांतिकारी ऑगस्टे वैलेन्ट से प्रभावित थे। योजना केंद्रीय विधान सभा के अंदर एक बम विस्फोट कर  सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक और व्यापार विवाद अधिनियम का विरोध करना था, जिसे विधानसभा ने खारिज कर दिया था। परंतु वायसराय द्वारा विशेष शक्तियों का उपयोग करते हुए अधिनियमित करवाया जा रहा था। विस्फोट के बाद क्रांतिकारीयों द्वारा खुद को गिरफ्तार करवाने का प्लान  था ताकि जनता,सरकार और नेताओं का ध्यान आकर्षित किया जा सके।
एचएसआरए कार्यकर्ता शुरू में बमबारी में भगत की भागीदारी का विरोध कर रहे थे, उन्हें यकीन था कि सॉन्डर्स हत्याकांड में उनकी पूर्व भागीदारी के कारण गिरफ्तार फांसी दी जा सकती है। अंतिम निर्णय अनुसार इस बम धमाके हेतु भगत सिंह ही उपयुक्त थे। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ चलते सत्र में विधानसभा दीर्घा में काम तीव्रता वाले (सिर्फ डराने के लिए) दो बम फेंके जिसमें कार्यकारी परिषद के वित्त सदस्य जॉर्ज अर्नेस्ट शूस्टर सहित कुछ सदस्य घायल हो गए और धुंआ पूरी असेंबली में भर गया। बच कर भागने की बजाय, वे " इंकलाब जिंदाबाद , क्रान्ति जिंदाबाद के नारे लगाते रहे और पर्चे फेंकते रहे। दोनों को गिरफ्तार कर दिल्ली जेल में डाल दिया गया।
पूरे देश में चर्चा छिड़ गई, कुछ इसे सही कार्यवाही और कुछ गलत बता रहे थे। गांधी जी ने हिंसा के स्थान पर अहिंसा पर बल दिया। भगत सिंह और दत्त ने अंततः असेंबली बम कांड पर बयान जारी किया कि "हम मानव जीवन को शब्दों से परे पवित्र मानते हैं। हम न तो कायरतापूर्ण अत्याचारों के अपराधी हैं... न ही हम 'पागल' हैं जैसा कि लाहौर के ट्रिब्यून और कुछ अन्य लोगों ने माना होगा... आक्रामक तरीके से लागू किया गया बल 'हिंसा' है जो, नैतिक रूप से अनुचित है, परंतु हिंसा का उपयोग जनहित में अथवा वैध उद्देश्य की प्राप्ति हेतु किया जाए तो इसका अपना नैतिक औचित्य होता है।"
मामले की सुनवाई मई के पहले सप्ताह में शुरू हुई,। 12 जून को, दोनों व्यक्तियों को गैरकानूनी और दुर्भावनापूर्ण तरीके से जीवन को खतरे में डालने के अपराध के कारण
आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। आसफ अली ने दत्त का बचाव किया, भगत सिंह ने अपनी पैरवी  खुद की। मुकदमे में दी गई गवाही की सटीकता के बारे में संदेह प्रकट किया गया जिसमें, मुख्य विरोधाभास भगत सिंह से जब्त स्वचालित पिस्तौल से संबंधित था। गवाहों ने कहा कि इस पिस्तौल से दो या तीन गोलियां चलाई गई, जबकि उसे गिरफ्तार करने वाले हवलदार ने गवाही दी कि जब उसने बंदूक उससे ली थी तो वह नीचे की ओर थी और भगत सिंह उसके साथ खेल रहा था। इंडिया लॉ जर्नल के एक लेख के अनुसार , अभियोजन पक्ष के गवाहों को नकार किया गया था, उनके बयान गलत थे, और सिंह ने खुद ही पिस्तौल पलट दी थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा दी गई।

अन्य साथियों की गिरफ्तारी - 
सन 1929 में एचएसआरए ने लाहौर और सहारनपुर में बम कारखाने स्थापित किए। 15 अप्रैल 1929 को पुलिस ने लाहौर बम फैक्ट्री में सुखदेव, किशोरी लाल और जय गोपाल सहित एचएसआरए के अन्य सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया। इसके कुछ ही समय बाद, सहारनपुर कारखाने पर (कुछ साथियों की गद्दारी और सूचना के कारण) छापा मार कर वहां से साथियों को गिरफ्तार किया। यहां उपलब्ध जानकारी के आधार पर सॉन्डर्स हत्या, असेंबली बम कांड और बम निर्माण के तीन पहलुओं को जोड़ने में पुलिस सक्षम हो गई। सिंह, सुखदेव, राजगुरु और 21 अन्य पर सॉन्डर्स की हत्या का आरोप लगाया गया था।

भूख हड़ताल और लाहौर षडयंत्र मामला
भगत सिंह को सॉन्डर्स और चानन सिंह की हत्या के आरोप में  पर्याप्त सबूतों के आधार पर फिर से गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें उनके सहयोगियों हंस राज वोहरा और जय गोपाल के बयान भी शामिल थे। असेंबली बम मामले में उनकी आजीवन कारावास की सज़ा को सॉन्डर्स मामले का फैसला आने तक टाल दिया गया था। उन्हें दिल्ली जेल से सेंट्रल जेल मियांवाली भेज दिया गया। मियांवली जेल में उन्होंने यूरोपीय और भारतीय कैदियों के बीच भेदभाव देखा। वह स्वयं को, दूसरों के साथ, एक राजनीतिक कैदी मानते थे। उन्होंने कहा कि उन्हें दिल्ली में बढ़ा हुआ आहार मिला था जो मियांवाली में नहीं दिया जा रहा था। जेल में इस भेदभाव के विरुद्ध भूख हड़ताल में अन्य भारतीय राजनीतिक कैदियों को साथ ले कर भूख हड़ताल शुरू कर दी। मांगे थीं -
01. राजनैतिक कर्दियों के साथ आम अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं कर पृथक रखा जावे।
02.  दिया जाने वाला खाना, कपड़े, सामग्री और सुविधाएं मानकों के अनुसार हो।
03. राजनैतिक कैदियों की स्वच्छता आवश्यकताओं की पूर्ति की जावे।
04.यूरोपीय और भारतीय कैदियों में समानता का भाव रखा जावे।
05.  पढ़ने हेतु पुस्तक और दैनिक समाचार पत्र दिए जावे।
06. राजनैतिक कैदियों को जेल में शारीरिक श्रम या कोई भी अशोभनीय काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जावे।
इस भूख हड़ताल को नेताओं सहित जनता का भरपूर समर्थन मिला। द ट्रिब्यून अखबार इस आंदोलन में विशेष रूप से न्यूज छापता। इस अखबार की न्यूज के आधार पर जन आंदोलन शुरू हो गया जिसे दबाने के लिए सरकार को सभाओं को सीमित करने हेतु धारा 144 लागू करनी पड़ी।
               लाहौर षड्यंत्र का पोस्टर 
जवाहरलाल नेहरू ने सेंट्रल जेल मियांवाली में भगत सिंह और अन्य हड़तालियों से मुलाकात की । बैठक के बाद उन्होंने कहा "वीरों की व्यथा देखकर मुझे बहुत दुःख हुआ। उन्होंने इस संघर्ष में अपना जीवन दांव पर लगा दिया है. वे चाहते हैं कि राजनीतिक कैदियों के साथ राजनीतिक कैदियों जैसा ही व्यवहार किया जाए. मुझे पूरी उम्मीद है कि उनके बलिदान को सफलता मिलेगी।" मुहम्मद अली जिन्ना ने असेंबली में हड़तालियों के समर्थन किया और बयान जारी करते हुए कहा कि "जो आदमी भूख हड़ताल पर बैठता है उसके पास एक आत्मा होती है। वह उस आत्मा से प्रेरित है, और वह अपने उद्देश्य के न्याय में विश्वास करता है... चाहे आप उनकी कितनी भी निंदा करें और, चाहे आप कितना भी कहें कि वे गुमराह हैं, यह व्यवस्था है, शासन की यह निंदनीय प्रणाली है, जिससे लोग नाराज हैं लोग।"
सरकार ने जेल की कोठरियों में विभिन्न खाद्य पदार्थ रखकर हड़ताल को तोड़ने की कोशिश की। पानी के घड़े दूध से भर दिये गये ताकि या तो कैदी प्यासे रहें या अपनी हड़ताल तोड़ दें; कोई भी लड़खड़ाया नहीं और गतिरोध जारी रहा। इसके बाद अधिकारियों ने कैदियों को जबरदस्ती खाना खिलाने का प्रयास किया लेकिन इसका विरोध किया गया। मामला अभी भी अन सुलझा होने पर, भारतीय वायसराय लॉर्ड इरविन ने जेल अधिकारियों के साथ स्थिति पर चर्चा करने हेतु शिमला से छुट्टियां कैंसल कर मियांवली पहुंचे। इधर भूख हड़ताल करने वालों की गतिविधियों ने देश भर में लोगों में लोकप्रियता प्राप्त कर ध्यान आकर्षित किया। अब  सरकार ने सॉन्डर्स हत्या कांड के मुकदमे की कार्यवाही को आगे बढ़ाने का फैसला किया, जिसे आगे से लाहौर षडयंत्र केस कहा गया। भगत सिंह को बोरस्टल जेल, लाहौर ले जा कर 10 जुलाई 1929 को मुकदमा शुरू किया गया। उन पर सॉन्डर्स की हत्या का आरोप लगाने के अलावा 27 अन्य कैदियों पर स्कॉट की हत्या की साजिश रचने का आरोप भी लगाया गया, और सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ना जेसी धाराएं लगाई गई। भगत सिंह (जो अभी भी भूख हड़ताल पर थे) को स्ट्रेचर पर हथकड़ी लगाकर अदालत में ले जाना पड़ा, हड़ताल शुरू करने के बाद से उनका वजन 60 किलो से घट कर 53.60 किलो रह गया।
सरकार ने कुछ रियायतें देनी शुरू की लेकिन राजनीतिक कैदी के वर्गीकरण के मुख्य मुद्दे पर आगे बढ़ने से मना कर दिया। अधिकारियों की नजर में अगर किसी ने कानून तोड़ा तो वह राजनीतिक नहीं बल्कि निजी कृत्य था और वे आम अपराधी था। अब तक उसी जेल में बंद एक अन्य अनशनकारी जतींद्र नाथ दास की हालत काफी खराब हो चुकी थी। जेल समिति ने उनकी बिना शर्त रिहाई की सिफारिश की, लेकिन सरकार ने सुझाव को खारिज कर दिया और उन्हें जमानत पर रिहा करने की पेशकश की। 13 सितंबर 1929 को 63 दिनों की भूख हड़ताल के बाद दास की मृत्यु हो गई। देश के लगभग सभी राष्ट्रवादी नेताओं ने दास की मृत्यु पर श्रद्धांजलि अर्पित की। मोहम्मद आलम और गोपी चंद भार्गव ने विरोध में पंजाब विधान परिषद से इस्तीफा दे दिया, और नेहरू ने लाहौर के कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार के खिलाफ निंदा के रूप में केंद्रीय विधानसभा में स्थगन प्रस्ताव पेश किया। भगत सिंह ने कांग्रेस पार्टी के प्रस्ताव और पिताजी के अनुरोध पर  116 दिनों के बाद 5 अक्टूबर 1929 को भूख हड़ताल समाप्त कर दी। इस अवधि के दौरान आम भारतीयों के बीच सिंह की लोकप्रियता पंजाब से आगे तक बढ़ गई।
भगत सिंह का ध्यान अब मुकदमे की ओर गया, जहां उन्हें सीएच कार्डेन-नोआड, कलंदर अली खान, जय गोपाल लाल और अभियोजन निरीक्षक बख्शी दीना नाथ की अभियोजन टीम का सामना करना था। बचाव पक्ष में आठ वकील शामिल थे। 27 आरोपियों में से सबसे कम उम्र के प्रेम दत्त वर्मा ने गोपाल लाल (पहले करंतीकारी गतिविधियों में शामिल) पर सरकारी गवाह बनने पर गद्दार कहते हुए अदालत में चप्पल फेंकी। इसके परिणामस्वरूप मजिस्ट्रेट ने आदेश दिया कि सभी आरोपियों को हथकड़ी लगाई जाये। भगत सिंह और अन्य लोगों को हथकड़ी लगाने से मना करने पर पिटाई सहन करनी पड़ी। इस पिटाई के कारण क्रांतिकारियों ने अदालत में उपस्थित होने से इनकार कर दिया और भगत सिंह ने विभिन्न कारणों का हवाला देते हुए मजिस्ट्रेट को एक पत्र लिखा। मजिस्ट्रेट ने आरोपीयों या एचएसआरए के सदस्यों के बिना मुकदमा चलाने का आदेश दिया। यह सिंह के लिए एक झटका था क्योंकि वह अब इस मुकदमे को अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए अदालत का एक मंच के रूप में उपयोग नहीं कर सकते थे।

जल्द सुनवाई हेतु विशेष न्यायाधिकरण -
धीमी सुनवाई में तेजी लाने के लिए वायसराय लॉर्ड इरविन ने 1 मई 1930 को आपातकाल की घोषणा की और मामले के लिए तीन उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की विशेष बेंच (न्यायाधिकरण) स्थापित करने का अध्यादेश पेश किया। इस निर्णय ने न्याय की सामान्य प्रक्रिया को छोटा कर दिया क्योंकि ट्रिब्यूनल के बाद एकमात्र अपील इंग्लैंड में स्थित प्रिवी काउंसिल में थी।
2 जुलाई 1930 को, उच्च न्यायालय में एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की गई, जिसमें अध्यादेश को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह अधिकार के बाहर है और इसलिए अवैध है; वायसराय के पास न्याय निर्धारण की पारंपरिक प्रक्रिया को छोटा करने की कोई शक्ति नहीं थी। याचिका में तर्क दिया गया कि भारत रक्षा अधिनियम 1915 ने वायसराय को एक अध्यादेश लाने और ऐसे न्यायाधिकरण की स्थापना करने की अनुमति दी है जो केवल कानून-व्यवस्था के खराब होने की स्थिति में है जैसा कि इस मामले में दावा किया गया है ऐसा नहीं हुआ था। हालाँकि, याचिका को समय से पहले होने के कारण खारिज कर दिया गया था।
कार्डेन-नोआड ने सरकार सामान पर डकैतियां डालने, हथियारों और गोला-बारूद के अवैध अधिग्रहण समेत अन्य आरोप पेश किए। लाहौर के पुलिस अधीक्षक जीटीएच हेमिल्टन हार्डिंग के साक्ष्य ने अदालत को चौंका दिया। उन्होंने कहा कि उन्होंने पंजाब के मुख्य सचिव से लेकर राज्यपाल तक के विशेष आदेशों के तहत आरोपियों के खिलाफ पहली सूचना रिपोर्ट दर्ज की थी और उन्हें मामले के विवरण की जानकारी नहीं थी। अभियोजन मुख्य रूप से पीएन घोष, हंस राज वोहरा और जय गोपाल के साक्ष्य पर निर्भर था जो एचएसआरए में भगत सिंह के सहयोगी थे। 10 जुलाई 1930 को, ट्रिब्यूनल ने 18 आरोपियों में से केवल 15 के खिलाफ आरोप लगाने का फैसला किया और उनकी याचिकाओं को अगले दिन सुनवाई के लिए लेने की अनुमति दी। मुकदमा 30 सितंबर 1930 को समाप्त हो गया। जिन तीन आरोपियों पर आरोप वापस ले लिए गए, उनमें दत्त भी शामिल थे, जिन्हें पहले ही असेंबली बम मामले में आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।
अध्यादेश (न्यायाधिकरण) 31 अक्टूबर 1930 को समाप्त हो रहा था क्योंकि इसे केंद्रीय विधानसभा या ब्रिटिश संसद द्वारा पारित नहीं किया गया था। 7 अक्टूबर 1930 को, ट्रिब्यूनल ने सभी सबूतों के आधार पर अपना 300 पेज का फैसला सुनाया और निष्कर्ष निकाला कि सॉन्डर्स की हत्या में भगत सिंह, सुखदेव और शिवराम राजगुरु की भागीदारी थी। उन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गई। अन्य आरोपियों में से तीन को बरी कर दिया गया ( अजॉय घोष , जतींद्र नाथ सान्याल और देस राज) कुंदन लाल को सात साल कठोर कारावास की सजा मिली , प्रेम दत्त को पांच साल की सजा हुई, और शेष सात किशोरी लाल , महावीर सिंह, बिजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव कपूर और कमल नाथ तिवारी सभी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
इस फैसले के विरुद्ध पंजाब प्रांत रक्षा समिति ने प्रिवी काउंसिल में अपील करने की योजना बनाई। भगत सिंह शुरू में अपील के खिलाफ थे लेकिन बाद में इस उम्मीद में सहमत हो गए कि अपील ब्रिटेन में एचएसआरए को लोकप्रिय बनाएगी। अपीलकर्ताओं ने दावा किया कि ट्रिब्यूनल बनाने वाला अध्यादेश अमान्य था, जबकि सरकार ने प्रतिवाद किया कि वायसराय को इस तरह का ट्रिब्यूनल बनाने का पूरा अधिकार था। अपील को न्यायाधीश विस्काउंट डुनेडिन ने खारिज कर दिया ।
प्रिवी काउंसिल में अपील की अस्वीकृति के बाद, कांग्रेस अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने 14 फरवरी 1931 को इरविन के समक्ष दया अपील दायर की। कुछ कैदियों ने महात्मा गांधी को हस्तक्षेप करने की अपील भेजी। 19 मार्च 1931 के अपने नोट्स में, वायसराय ने दर्ज किया -
लौटते समय गांधीजी ने मुझसे पूछा कि क्या वह भगत सिंह के बारे में बात कर सकते हैं क्योंकि अखबारों में 24 मार्च को उनकी फांसी की खबर छपी थी। वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण दिन होगा क्योंकि उस दिन कांग्रेस के नये अध्यक्ष को कराची पहुंचना था और खूब गरमागरम चर्चा होने वाली थी। मैंने उसे समझाया कि मैंने इस पर बहुत सावधानी से विचार किया है लेकिन मुझे सजा कम करने के लिए खुद को समझाने का कोई आधार नहीं मिला। ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्हें मेरा तर्क वजनदार लगा।
ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने मामले पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि "इस मामले का इतिहास, जिसका हमें राजनीतिक मामलों के संबंध में कोई उदाहरण नहीं मिलता है, निर्दयता और क्रूरता के लक्षणों को दर्शाता है जो ब्रिटेन की साम्राज्यवादी सरकार की फूली हुई इच्छा का परिणाम है ताकि लोगों में भय पैदा किया जा सके। दमित लोगों के दिल में दहशत भरी जा सके।" एचएसआरए सदस्य दुर्गा देवी के पति, भगवती चरण वोहरा ने इस उद्देश्य के लिए बम बनाने का प्रयास किया, लेकिन दुर्घटनावश विस्फोट होने से उनकी मृत्यु हो गई।
इससे भगत सिंह और साथीयों की कैदियों को जेल से छुड़ाने की योजना विफल हो गई।

              भगत सिंह का मृत्यु प्रमाण पत्र

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर षड्यंत्र मामले में मौत की सजा के अनुसार 24 मार्च 1931 को फांसी देने का आदेश दिया गया। परंतु 11 घंटे पहले लाहौर जेल में तीनों को 23 मार्च 1931 को शाम 7:30 बजे फांसी दे दी गई (जबकि सूर्यास्त के पश्चात फांसी नहीं दी जाती है)। कानूनी प्रक्रिया अनुसार कोई एक मजिस्ट्रेट फांसी के समय उपस्थित होना अनिवार्य था परंतु  कोई भी मजिस्ट्रेट इस निगरानी हेतु तैयार नहीं था तो यह निगरानी नवाब मुहम्मद अहमद खान कसूरी नामक मानद न्यायाधीश ने की और तीनों के मूल वारंट 24.03.1931 थे और फांसी पहले दी जा रही थी तो तीनों के नए डेथ वारंट पर हस्ताक्षर भी किए। फिर जेल अधिकारियों ने जेल की पिछली दीवार  तोड़ कर, गुपचुप तरीके से गंडा सिंह वाला गांव के बाहर अंधेरे में तीनों का अंतिम संस्कार कर राख फिरोजपुर से 10 किलोमीटर दूर सतलज नदी में बहा दी। 
इसके पश्चात न्यायाधिकरण परीक्षण की आलोचना हुई। भगत सिंह के मुकदमे को सुप्रीम कोर्ट ने "आपराधिक न्यायशास्त्र के मौलिक सिद्धांत के विपरीत" बताया है क्योंकि अभियुक्तों को खुद का बचाव करने का कोई अवसर नहीं दिया गया था। यह विशेष न्यायाधिकरण मुकदमे के लिए अपनाई गई सामान्य प्रक्रिया से पृथक प्रक्रिया थी और इसके फैसले के खिलाफ केवल ब्रिटेन में स्थित प्रिवी काउंसिल में अपील की जा सकती थी। आरोपी अदालत से अनुपस्थित थे और फैसला एकपक्षीय पारित कर दिया गया । विशेष न्यायाधिकरण बनाने के लिए वायसराय द्वारा पेश किया गया अध्यादेश, केंद्रीय विधानसभा या ब्रिटिश संसद द्वारा भी अनुमोदित नहीं था, और अंततः यह बिना किसी कानूनी या संवैधानिक मान्यता के समाप्त हो गया।

शहीदों की फाँसी पर प्रतिक्रियाएँ -
भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव की फाँसी की द ट्रिब्यून समाचार रिपोर्ट, 1931
इस फाँसी की घटना को प्रेस द्वारा व्यापक रूप से प्रसारित किया गया। कराची में कांग्रेस पार्टी के वार्षिक सम्मेलन की पूर्व संध्या के अवसर पर कानपुर पहुंचे गांधी को गुस्साए युवाओं द्वारा काले झंडे दिखाए गए और उग्र प्रदर्शन का सामना करना पड़ा जिन्होंने "गांधी मुर्दाबाद" के नारे लगाए। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस प्रकार से खबर प्रकाशित की कि "संयुक्त प्रांत के कानपुर शहर में आतंक का राज और कराची के बाहर एक युवक द्वारा महात्मा गांधी पर हमला, भगत सिंह और दो साथीयों की फांसी पर भारतीय चरमपंथियों ने विरोध जताया।
कराची अधिवेशन के दौरान कांग्रेस पार्टी ने घोषणा की कि "किसी भी आकार या रूप में राजनीतिक हिंसा से खुद को अलग करते हुए और इसे अस्वीकार करते हुए कांग्रेस भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की बहादुरी और बलिदान की प्रशंसा करती है और इन लोगों की मौत पर उनके शोक संतप्त परिवारों के साथ शोक मनाती है।"

भगत सिंह की राजनैतिक विचारधारा - साम्यवादी 
भगत सिंह गदर पार्टी के संस्थापक सदस्य करतार सिंह सराभा को अपना नायक मानते थे और भाई प्रेमानंद से प्रभावित थे। इसी कारण वे क्रांति और साम्यवाद की ओर आकर्षित थे । वह मिखाइल बाकुनिन की शिक्षाओं के शौकीन और पुस्तकें पढ़ते थे और उन्होंने कार्ल मार्क्स, व्लादिमीर लेनिन और लियोन ट्रॉट्स्की को भी पढ़ा था । अपने अंतिम वसीयतनामा, "युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए" में, उन्होंने अपने आदर्श को  मार्क्सवादी आधार पर सामाजिक पुनर्निर्माण के रूप में घोषित किया है। भगत सिंह गांधीवादी विचारधारा में विश्वास नहीं करते थे - जो सत्याग्रह और अहिंसक प्रतिरोध के अन्य रूपों की वकालत करती थी, और उन्हें लगता था कि ऐसी राजनीति शोषकों के एक समूह की जगह दूसरे को ले लेगी। 
मई 1931 में देश में क्रांति पर लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित हुई। उन्हें इस बात की चिंता थी कि जनता क्रांति की अवधारणा को गलत समझ रही है, उन्होंने लिखा कि: "लोग क्रांति शब्द से डरते हैं। क्रांति शब्द का इतना दुरुपयोग किया गया है कि भारत में भी क्रांतिकारियों को अलोकप्रिय बनाने के लिए उन्हें अराजकतावादी कहा जाने लगा है।" उन्होंने स्पष्ट किया कि क्रांति का तात्पर्य शासक की अनुपस्थिति और राज्य के उन्मूलन से है, व्यवस्था की अनुपस्थिति से नहीं। उन्होंने आगे कहा: "मुझे लगता है कि भारत में सार्वभौमिक भाईचारे का विचार, संस्कृत वाक्य वसुधैव कुटुंबकम आदि का एक ही अर्थ है।" उनका मानना था कि क्रांति का अंतिम लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता है, जिसके अनुसार कोई भी ईश्वर या धर्म के प्रति आसक्त नहीं होगा, न ही कोई धन या अन्य सांसारिक इच्छाओं के लिए पागल होगा। शरीर पर कोई बेड़ियाँ या राज्य का नियंत्रण नहीं होगा। भगत सिंह वे देवस्थान, ईश्वर और धर्म,राज्य; निजी संपत्ति के विरोधी थे।
21 जनवरी 1930 को लाहौर षडयंत्र केस की सुनवाई के दौरान भगत सिंह और उनके एचएसआरए साथी लाल स्कार्फ पहनकर अदालत में पेश हुए। जब मजिस्ट्रेट ने अपनी कुर्सी संभाली, तो उन्होंने "समाजवादी क्रांति लंबे समय तक जीवित रहें", "कम्युनिस्ट इंटरनेशनल लंबे समय तक जीवित रहें", "लोग लंबे समय तक जीवित रहें" "लेनिन का नाम कभी नहीं मरेगा", और " साम्राज्यवाद मुर्दाबाद " के नारे लगाए। भगत सिंह ने तब अदालत में एक टेलीग्राम पढ़ा और मजिस्ट्रेट से इसे थर्ड इंटरनेशनल को भेजने का अनुरोध किया । टेलीग्राम में कहा गया है कि "लेनिन दिवस पर हम उन सभी को हार्दिक शुभकामनाएं भेजते हैं जो महान लेनिन के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कामना करते हैं। हम अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक वर्ग आंदोलन के साथ अपनी आवाज मिलाते हैं। सर्वहारा वर्ग की जीत होगी. पूंजीवाद हारेगा. साम्राज्यवाद का नाश।
इतिहासकार केएन पणिक्कर के अनुसार भगत सिंह भारत के शुरुआती मार्क्सवादियों में से एक थे। राजनीतिक सिद्धांतकार जेसन एडम्स का कहना है कि वह मार्क्स की तुलना में लेनिन के प्रति अधिक आकर्षित थे। 1926 के बाद से, उन्होंने भारत और विदेशों में क्रांतिकारी आंदोलनों के इतिहास का अध्ययन किया। जेल में लिखी नोटबुक में उन्होंने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के संदर्भ में लेनिन और ट्रॉट्स्की के क्रांतिकारी विचारों को भी उद्धृत किया।
फाँसी के दिन, भगत सिंह जर्मन मार्क्सवादी क्लारा ज़ेटकिन द्वारा लिखित पुस्तक रेमिनिसेंस ऑफ़ लेनिन पढ़ रहे थे। जब भगत सिंह से पूछा गया कि उनकी आखिरी इच्छा क्या है तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी का अध्ययन कर रहे थे और वह इसे मृत्यु से पहले खत्म करना चाहते हैं।

भगत सिंह और नास्तिकता
महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन को भंग करने के बाद भड़के हिंदू-मुस्लिम दंगों को देखने के बाद भगत सिंह ने धार्मिक विचारधाराओं पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। उन्हें यह समझ में नहीं आया कि इन दोनों समूहों के सदस्य, जो शुरू में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में एकजुट हुए थे, अपने धार्मिक मतभेदों के कारण एक-दूसरे के गले कैसे पड़ सकते हैं। इस बिंदु पर भगत सिंह ने अपनी धार्मिक मान्यताओं को छोड़ दिया, क्योंकि उनका मानना था कि धर्म स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारियों के संघर्ष में बाधा डालता है, और बाकुनिन , लेनिन , ट्रॉट्स्की - सभी नास्तिक क्रांतिकारियों के कार्यों का अध्ययन करना शुरू कर दिया। उन्होंने सोहम स्वामी की पुस्तक कॉमन सेंस में भी रुचि ली।
1930-31 में जेल में रहते हुए, भगत सिंह से साथी कैदी और सिख नेता रणधीर सिंह ने संपर्क किया , जिन्होंने बाद में अखंड कीर्तनी जत्था की स्थापना की। भगत सिंह के करीबी सहयोगी शिवा वर्मा, जिन्होंने बाद में उनके लेखन को संकलित और संपादित किया, के अनुसार, रणधीर सिंह ने भगत सिंह को ईश्वर के अस्तित्व के बारे में समझाने की कोशिश की, और असफल होने पर उन्हें डांटा: "आप प्रसिद्धि से घमंडा गए हैं और आपने अहंकार विकसित कर लिया है जो कायम है आपके और भगवान के बीच एक काले पर्दे की तरह"।  जवाब में, भगत सिंह ने इस सवाल का समाधान करने के लिए " मैं नास्तिक क्यों हूं " शीर्षक से एक निबंध लिखा कि क्या उनकी नास्तिकता घमंड से पैदा हुई थी। निबंध में, उन्होंने अपने स्वयं के विश्वासों का बचाव किया और कहा कि वह सर्वशक्तिमान में दृढ़ विश्वास रखते थे, लेकिन उन मिथकों और विश्वासों पर विश्वास नहीं कर सके, जिन्हें अन्य लोग अपने दिल के करीब रखते थे। उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया कि धर्म ने मृत्यु को आसान बना दिया है परंतु यह भी कहा कि अप्रमाणित दर्शन मानवीय कमजोरी का संकेत है। इस संदर्भ में उन्होंने कहा कि "जहां तक ईश्वर की उत्पत्ति का संबंध है, मेरा विचार है कि मनुष्य ने अपनी कमजोरियों, सीमाओं और कमियों का एहसास होने पर अपनी कल्पना में ईश्वर की रचना की। इस तरह उसे सभी कठिन परिस्थितियों का सामना करने और अपने जीवन में आने वाले सभी खतरों का सामना करने का साहस मिला और साथ ही समृद्धि और संपन्नता में अपने प्रकोप को रोकने का भी साहस मिला। भगवान, अपने सनकी कानूनों और माता-पिता की उदारता के साथ कल्पना के विविध रंगों से रंगे हुए थे। जब उनके क्रोध और उनके कानूनों को बार-बार प्रचारित किया जाता था तो उन्हें एक निवारक कारक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था ताकि मनुष्य समाज के लिए खतरा न बन जाए। वह व्यथित आत्मा की पुकार थी क्योंकि ऐसा माना जाता था कि जब कोई व्यक्ति संकट के समय अकेला और असहाय हो जाता है तो वह पिता और माता, बहन और भाई, भाई और मित्र के रूप में खड़ा होता है। वह सर्वशक्तिमान था और कुछ भी कर सकता था। संकट में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर का विचार ही सहायक होता है।"
निबंध के अंत में भगत सिंह ने लिखा कि आइए देखें कि मैं कितना दृढ़ हूँ। मेरे एक मित्र ने मुझसे प्रार्थना करने के लिए कहा। जब उन्हें मेरी नास्तिकता के बारे में बताया गया, तो उन्होंने कहा, "जब आपके अंतिम दिन आएंगे, तो आप विश्वास करना शुरू कर देंगे।"  मैंने कहा, "नहीं, प्रिय महोदय, ऐसा कभी नहीं होगा। मैं इसे पतन और मनोबल गिराने वाला कृत्य मानता हूं। ऐसे तुच्छ स्वार्थी उद्देश्यों के लिए, मैं कभी प्रार्थना नहीं करूंगा।" पाठको एवं मित्रो, क्या यह घमंड है?  यदि ऐसा है तो मैं इसके पक्ष में हूं।"

लार्ड इरविन को पत्र - विचारों की हत्या
8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली में फेंके गए पत्रक में उन्होंने कहा: "व्यक्तियों को मारना आसान है लेकिन आप विचारों को नहीं मार सकते। महान साम्राज्य ढह गए, जबकि विचार जीवित रहे।"  जेल में रहते हुए भगत सिंह और दोनो साथियों ने लॉर्ड इरविन को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने युद्ध के कैदियों के रूप में व्यवहार करने और परिणामस्वरूप फायरिंग दस्ते द्वारा गोलियों से उड़ा देने की मांग की थी, न कि फांसी की। भगत सिंह के मित्र प्राणनाथ मेहता, उनकी फांसी से तीन दिन पहले 20 मार्च को क्षमादान के लिए एक मसौदा पत्र के साथ जेल में उनसे मिलने गए, लेकिन उन्होंने इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया।

लोकप्रियता
        भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की प्रतिमा
 "भगत सिंह युवाओं में नई जागृति के प्रतीक बन गए थे।" सुभाष चंद्र बोस।
भगत सिंह की लोकप्रियता एक नई राष्ट्रीय जागृति का कारण बन रही है "वह एक साफ-सुथरे सेनानी थे जिन्होंने खुले मैदान में अपने दुश्मन का सामना किया... वह एक चिंगारी की तरह थे जो कुछ ही समय में एक ज्वाला बन गई और एक से बढ़कर एक फैल गई।" देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र व्याप्त अंधकार को दूर करना।''  - जवाहर लाल नेहरू
"उनकी तस्वीर हर शहर और टाउनशिप में बिक्री पर थी और एक समय के लिए लोकप्रियता में खुद श्री गांधी के भी प्रतिद्वंद्वी थी"। - इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक, सर होरेस विलियमसन 

मैं नास्तिक क्यों हूं - 
मैं नास्तिक क्यों हूँ भगत सिंह द्वारा लिखा एक लेख है जो उन्होंने लाहौर सेंट्रल जेल में क़ैद के दौरान लिखा था और इसका प्रथम प्रकाशन लाहौर से ही छपने वाले अख़बार दि पीपल में 27 सितम्बर 1931 को हुआ। यह लेख भगत सिंह के द्वारा लिखित साहित्य के सर्वाधिक चर्चित और प्रभावशाली लेखन में गिना जाता है और बाद में इसका कई बार प्रकाशन हुआ। इस लेख के माध्यम से भगत सिंह ने तार्किक रूप से यह बताने की कोशिश की है कि वे किसी ईश्वरीय सत्ता में क्यों यकीन नहीं करते हैं।
इतिहासकार बिपिन चन्द्र के अनुसार भगत सिंह ने जेल में कई किताबे और पर्चे लिखे थे, लेकिन इनका अधिकांश हिस्सा नष्ट हो गया। यह पर्चा (लेख) किसी प्रकार उनके पिता के हाथों जेल से बाहर आया। इस लेख का प्रथम प्रकाशन बाबा रणधीर सिंह ने किया।

लेख का अंश - 
जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त, यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।
हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘'अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।'’ मैंने कहा, ‘'नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।'’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।


शमशेर भालू खान
जिगर चुरूवी
 9587243963

Wednesday, 6 March 2024

सहजूसर मुस्लिम

सहजुसर मुस्लिम
(1) दौलतखानी
1 मदारी खां परिवार
1 हबीब खान/मदारी खान
2 इंतजार खान/हबीब खां
3 आमीन खां/ हबीब खां 
4 आबीद खां/ हबीब खां 
5 मोहम्मद अली खां/ हबीब खां 
6 रमजान खां/शौकत खां फौजी 
7 मुस्तकिम खां/शौकत खां फौजी 
8 अरशद खां/हिदायत खां
9 आसिफ खां/ हिदायत खां 
10 लाल खां/मदारी खां
11 बशीर खां/मदारी खां

2 मनीर खां परिवार
12 मुस्ताक खां/मनीर खां
13 सुल्तान खां/मनीर खां
14 निसार खां/मनीर खां 

3 एवज खां परिवार
15 खुर्शीद खां/निजाम खां
16 महबूब खां/निजाम खां 
17 हुसैन खां/निजाम खां 
18 फरियाद खां/निजाम खां 
19 आजम खां/एवज खान
20 रमजान खां/आजम खां 
20 रफीक खां/आजम खां 
21 इस्लाम खां/जाफर खां
22 मेंजर खां/एवज खां
23 मुमताज खां/एवज खां 

4 बक्सू खां परिवार
24 इकबाल खां/बाक्सू खां

अजीम खां परिवार
25 सोहेल खां/मैनुद्दीन खां
26 सिकंदर खां/अजीम खां
27 इस्लाम खां/अजीम खां

5 अलीम खां परिवार
28 यूनुस खां/अलीम खां

6 असगर खां परिवार
29 अयुब खां/असगर खां
30 शब्बीर खां/असगर खां
31 इनायत खां/असगर खां फौजी
32 नजीर खां/असगर खां
33 आरिफ खां/असगर खां
34 सलीम खां/असगर खां
35 साकिब खां/असगर खां

7 भोले खां परिवार
36 भंवरू खां/भोले खां
37 मोहब अली खां/भोले खां
38 रमजान खां/मोहीद्दिन खां
39 इकबाल खां/भंवरू खां 
40 लियाकत खां/भोले खां 

8 लाउ खां परिवार
41 बल्लू खां/लाउ खां
42 अमजद खां/बल्लू खां
43 इस्लाम खां/बल्लू खां
44 मोहम्मद अली/बल्लू खां
45 यासीन खां/लाउ खां
46 यूनुस खां/यासीन खां
47 इंतजार खां/यासीन खां
48 इलियास खां/यासीन खां

9 महनु खां परिवार
49 सलीमुद्दीन खां/महनु खां 
50 आरिफ खां/सलीमुद्दीन खां
51 यूनुस खां/सलेमुद्दीन खां
52 मांगू खां/महनु खां

10 एमन खां परिवार 
53 जंगशेर खां/हाकम अली खां
54 आरिफ खां/हाकम अली खां
55 हसन खां/हाकम अली खां
56 अमजद खां/हाकम अली खां
57 आजम अली खां/एमन खां
58 बल्लू खां/एमन खां
59 उम्मेद खां/बल्लू खां
60 खुशी खां/बल्लू खां
61 मनोहर खां/एमन खां
62 अली खां/एमन खां
63 इस्लाम खां/अली खां

11 सुभान खां परिवार
64 मुबारिक खां/सुभान खां
65 सफी खां/सुभान खां 
66 आरिफ खां /सुभान खां फौजी
67 जंगशेर खां/सुभान खां फौजी
68 असलम खां/सुभान खां

12 अल्लादीन खान परिवार
69 लियाकत खां/अल्लादीन खां
70 नवाब खां/अल्लादीन खां फौजी
71 जीवन खां/अल्लाद्दिन खां फौजी
72 मजीद खां/अल्लाद्दीन खां
73 सिकंदर खां/अल्लाद्दीन खां
74 मकसूद खां/अल्लाद्दिन खां

13 म्हालु खां परिवार
75 मुकारब खां/म्हालू खां
76 निसार खां/मुकारब खां
77 अरशद खां/मुकारब खां
78 आरिफ खां/मुकारब खां 
79 नवाब खां/म्हालु खां
80 जाकिर खां/म्हालु खां
81 गोसम अली खां/म्हालू खां
82 शब्बीर खां/म्हालू खां

14 सुमर खां परिवार
83 सत्तार खां/सुमर खां
84 जंगशेर खां/सुमर खां

15 उमर खां परिवार
85 आलम अली खां/उमर खां
86 जाफर खां/उमर खां

16 कासु खां परिवार
87 मुनीमुद्दीन खां/कासु खां
88 आरिफ खां/कासु खां
89 सिकंदर खां/कासु खां
90 आमीन खां/कासु खां

17 यासीन खां परिवार
91 असलम खां/यासीन खां
92 अकरम खां/यासीन खां

18 हासम खां परिवार
93 हासम खां/फैजु खां
94 आरिफ खां/हासम खां

19 म्हाल खां परिवार
95 बाबू खां/म्हाल़ खां 
96 इस्लाम खां/ बाबू खां
97 लाल खां/म्हाल़ खां 
98 सुभान खां/म्हाल़ खां 
99 अल्लादीन खां/म्हाल़ खां 
100 हाकम अली खां/म्हाल़ खां 
101 रज्जाक खां/म्हाल़ खां 
102 उम्मेद खां/म्हाल़ खां
103 यूसुफ खां/म्हाल़ खां 

20 भंवरू खां थानेदार परिवार
104 गुलाब खां/भंवरू खां
105 तुफिल खां/गुलाब खां
106 नानू खां/भंवरू खां
107 इकबाल खां/भंवरू खां
108 निजाम खां/भंवरू खां
109 नवाब खां/निजाम खां
110 राशिद खां/निजाम खां
111 सद्दाम खां/निजाम खां
112 अदरीश खां/निजाम खां
113 बाबू खां भंवरू खां
114 मेंजर खां/भंवरू खां

21 गफूर खां परिवार 
115 लियाकत खां/गफूर खां
116 उम्मेद खां/गफूर खां

22 जीवन खां परिवार
117 जीवन खां/रहमत खां
118 सत्तार खां/जीवन खां

23 कादर खां परिवार
119 यूनुस खां/कादर खां
120 सलीम खां/कादर खां
121 रफीक खां/कादर खां

24 बिसारत खां परिवार
122 नवाब खां/बिसारात खां
123 इमरान खां/नवाब खां
124 अफजल खां/नवाब खां
125 जाकिर खां/बिसारत खां

25 महनु खां परिवार
126 मनोहर खां/महनू खां
127 जाबिर खां/मनोहर खां

26 दुल्ले खां परिवार
128 बल्लू खां/दुल्लेे खां 
129 निसार खां/बल्लू खां

27 उमर खां एजेंट परिवार
130 आरिफ खां/मैनिद्दीन खां
131 तौफिक खां/मैनुद्दीन खां
132 लियाकत खां/उमर खां
133 अयुब खां/उमर खां
134 अहमद अली खां/उमर खां

28 नजीर खां चाकी परिवार
135 नजीर खां/मदारी खां
136 जंगशेर खां/नजीर खां
137 यूनुस खां/नजीर खां
138 हसन खां/नजीर खां
139 असलम खां/नजीर खां
140 इंतजार खां/नजीर खां 
141 अमजद खां/नजीर खां

29 सुगन खां परिवार
142 सफी खां/सुगन खां
143 अयूब खां/सुगन खां

30 मुस्ताक खां परिवार
144 उम्मेद खां/मुस्ताक खां
145 यूनुस खां/मुस्ताक खां
146 आरिफ खां/मुस्ताक खां 
कुल दौलतखानी 146 घर

(2) फतन्यान (थेलासर)
31 कासम खां परिवार
147 कासम खां/इनायत खां
कुल फतन्यान 01 घर

(3) इसेखानी (पिथिसर)
32 भीखन खां परिवार 
148 लाल खां/भीखन खां
149 इकबाल खां/भीखन खां
150 इस्लाम खां/इकबाल खां
151 जाकिर खां/भीखन खां
कुल इसेखानी 04 घर

(4 हाथीखानी राणासर, झारिया)
33 नूरे खां परिवार
152 हाकम अली खां/नूरे खां
153 उम्मेद खां/हाकम अली खां
154 वाजिद अली खां/हाकम अली खां
155 आजम अली खां/नूरे खां
156 उस्मान खां/आजम अली खां
157 इस्लाम खां/आजम अली खां

34 सादुले खां परिवार 
158 समदर खां/सादूले खां
159 बूधे खां/सादूले खां
160 उम्मेद खां/सादूले खां
161 जाकिर खां/सादुले खां
162 बाबू खां/सादूले खां
कुल हाथीखानी 11 घर

5 दायमखानी (राणासर, जसरासर)
35 बरकत खां परिवार
163 बरकत खां/नब्बू खां
164 भंवरू खां/ बरकत खां
165 इंतजार खां/ बरकत खां
166 हसन खां/ बरकत खां
167 बाबू खां/बरकत खां

36 अजमत खान परिवार
168 इब्राहिम खां/अजमत खां
169 हाकम अली खां/इब्राहिम खां
170 सलीम खां/इब्राहिम खां
171 मुस्ताक खां/अजमत खां
172 उम्मेद खां/अजमत खां

37 महनु खां (जिन्ना साहब) परिवार
173 मुकारब खां/महनु खां
174 मकसूद खां/मुकारब खां
175 इस्लाम खां/मुकारब खां
176 हुसैन खां/मुकारब खां
177 भादर खां/महनु खां

39 मोहब अली खां परिवार
178 महमूद खां/मोहब अली खां
179 शब्बीर खां/मोहब अली खां
180 रफीक खां/मोहब अली खां
181 मांगू खां/मोहब अली खां

40 कासम खां परिवार
182 जंगशेर खां/कासम खां
183 अल्लाद्दिन खां/कासम खां
184 आरिफ खां/कासम खां
185 इस्लाम खां/कासम खां

41 हासम खां परिवार
186 हासम खां/जीतू खां
187 मकसूद खां/हासम खां

42 यासीन खां (हाजीजी) परिवार
188 यासीन खां/फैज़ू खां
189 अयुब खां/यासीन खां
190 महमूद खां/यासीन खां
191 जाबिर खां/यासीन खां
192 अरशद खां/यासीन खां
193 मुबारिक खां/यासीन खां

43 उमद खां परिवार
194 उमेद खां/उमद खां 

44 मुकारब खां परिवार
195 मुस्ताक खां/मुकारब खां
196 शौकत खां/मुकारब खां
197 सालेह मोहम्मद खां/मुकारब खां
198 सब्बीर खां/मुकारब खां

कुल दायमखानी 37 घर

(6) मलकान(बेरी छोटी,नागौर)
199 लियाकत खां/भंवरू खां
200 इकबाल खां/भंवरू खां
201 जंगशेर खां/भंवरू खां
202 सत्तार खां/भंवरू खां
203 नवाब खां/भंवरू खां
204 सिकंदर खां/भंवरू खां
205 आरिफ खां/भंवरू खां

46 नानू खां परिवार
206 भंवरू खां/नानू खां
207 अल्ताफ खां/भंवरू खां
208 सदिक खां/नानू खां
209 हुसैन खां/सदिक खां
210 गुलामू खां/नानू खां
211 निसार खां/नानू खां

47 सहाजु खां परिवार
212 मुमताज खां/सहाजु खां
213 मकसूद खां/मुमताज खां
214 शौकत खां/सहाज़ू खां
215इस्पाक खां/सहाजू खां

48 अलीम खां परिवार
216 अहमद अली खां/अलीम खां
217 हबीब खां/अलीम खां
218 अयुब खां/अलीम खां
219 आरिफ खां/अलीम खां
220 तारीफ खां/अलीम खां
221 एजाज खां/अलीम खां

49 फूले खां परिवार
222 मुकारब खां/फूले खां
223 आमीन खां/मुकारब खां
224 अयुब खां/मुकारब खां

50 मनोहर खां परिवार
225 महबूब खां/मनोहर खां मास्टर
226 मुख्तयार खां/मनोहर खां

51 दुले खां परिवार
227 रमजान खां/दुले खां
228 इकबाल खां/दुले खां मास्टर
229 नियाज खां/दुले खां
230 आमीन खां/दुले खां (हाल, चूरू)

52 भालू खां परिवार
231 मकबूल खां/आबिद खां
232 कयूम खां/भंवरू खां
233 गनी खां/भंवरू खां
234 शेर खां/भालू खां
235 इलियास खां/भालू खां
236 शमशेर भालू खां (गांधी)/भालू खां

53 आजम अली खां परिवार
237 आजम अली खां/लावदी खां
238 इकबाल खां/आजम अली खां
239 मुमताज खां/आजम अली खां
240 इस्लाम खां/आजम अली खां मास्टर

54 नजीर खां परिवार
241 यूनुस खां/नजीर खां
242 इमरान खां/नजीर खां

55 हिदायत खां परिवार
243 हिदायत खां/बक्सु खां
244 लियाकत खां/हिदायत खां
245 असलम खां/हिदायत खां
246 अयुब खां/हिदायत खां
247 सदीक खां/बक्सु खां

7 काजी (भिंछरी)
56 नेक मोहम्मद शाह परिवार
248 रोशन शाह/मुस्ताक शाह
249 हकीम शाह/मुस्ताक शाह
250 जंगशेर शाह/मुस्ताक शाह
251 इस्लाम शाह/मुस्ताक शाह 
252 इदरीश शाह/मुस्ताक शाह
253 हुसैन शाह/हनीफ शाह
254 नवाब शाह/ नेक मोहम्मद
255 नोसर शाह/नवाब शाह
256 लियाकत शाह/नेक मोहम्मद
257 सुभान शाह/नेक मोहम्मद
258 मैनुद्दीन शाह/नेक मोहम्मद
259 यूसुफ शाह/नेक मोहम्मद
260 आबिद शाह/यूसुफ शाह
261 रफीक शाह/यूसुफ शाह

(1उस्मान खां/मुकारब खां दायमखानी चुरू 
2 लियाकत खां/कासु खां दौलतखानी भादरा 
3 सरवर शाह/मुस्ताक शाह रतनगढ़)
बस गए।)

कुल घर
1 दौलतखानी 146 
2 फतन्यान 01
3 हाथीखानी 11
4 इसेखानी 04
5 दायमखानी 37
6 मलकान 49

कुल कायमखानी घर
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       247
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7 काजी 13
कुल काजी घर
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       13
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कुल मुस्लिम घर
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       261
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शमशेर भालू खां
9587243963