भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेता -सुभाष चन्द्र बोस
नाम - सुभाष चन्द्र
प्रचलित नाम - नेताजी (हिटलर द्वारा दिया गया नाम)
जाति - कायस्थ
उपजाति - बॉस
धर्म - सनातन
पिता - जानकीनाथ बॉस
पिता का व्यवसाय - कटक महानगर पालिका में सरकारी वकील बाद में स्वयं की प्रेक्टिस बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। उन्हे अंग्रेज सरकार द्वारा राय बहादुर की उपाधि दी गई।
माता - प्रभावती देवी (प्रभावशाली व्यक्ति गंगनरायण दत्त की पुत्री)
जन्म दिनांक - 23 जनवरी 1897
जन्म स्थान - कटक (वर्तमान उड़ीसा तत्कालीन बंगाल)
सहोदर - 8 भाई 6 बहन कुल 14 में सुभाष का स्थान 9 वां था।
2 शरत चंद्र बोस (मेज दा)
9 सुभाष चन्द्र बोस
विवाह - 1937
पत्नी का नाम - एमिली शेंकल (बियाना ऑस्ट्रिया निवासी टाइपिस्ट)
(बिना किसी कार्यक्रम के गुप्त विवाह सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा नहीं।)
संतान - अनिता बोस फाफ (हाल वियना ऑस्ट्रिया)
मृत्यु - 18 अगस्त 1945 आयु 48 वर्ष
मृत्यु का कारण - जर्मनी से जापान जाते हुए वायुयान दुर्घटना (नेताजी की मृत्यु के संबंध में अभी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है। उनके परिवार के अनुसार वो दुर्घटना के बाद भी जीवित थे,जबकि जापानी सरकार के अनुसार उनकी मृत्यु हो गई थी।
मृत्यु स्थान - सेना अस्पताल नानमोन, ताईहोकु, ताइवान (तत्कालीन जापान का भाग) ताइपे में ताइपे सिटी हॉस्पिटल हेपिंग फुयू)
नारे -
1 जय हिन्द
2 तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा
3 दिल्ली चलो आजाद हिंद फौज के कमांडर के रूप में (5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सैनिकों को संबोधन
पद -
1 ICS पद पर चयनित परंतु कार्यग्रहण नहीं किया
2 कमांडर - आजाद हिंद फौज के संस्थापक जिसे उनकी मृत्यु के बाद मोहन सिंह ने बतौर उत्तराधिकारी आगे संभाला
3 अध्यक्ष - जवाहर लाल नेहरू के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (18 जनवरी 1938 – 29 अप्रैल 1939) इनके बाद Dr. राजेंद्र प्रसाद शर्मा
4 नई पार्टी ऑल इंडिया फारवर्ड ब्लाक के संस्थापक व अध्यक्ष (22 जून 1939 से 16 जनवरी 1941) इनकी मृत्यु के बाद सार्दुल सिंह अध्यक्ष
5 कलकत्ता के मेयर 4th अध्यक्ष (5वें) - यतींद्र मोहन सेनगुप्ता के बाद (22 अगस्त 1930 – 15 अप्रैल 1931) इनके बाद 6th मेयर विधान चंद्र राय
राष्ट्रीय अध्यक्ष - परतंत्र भारत की पहली अस्थाई सरकार 21 अक्टूबर 1943 को बनाई जिसे जर्मनी, जापान, फ़िलीपीन्स, कोरिया, चीन ,इटली, मान्चुको और आयरलैंड सहित 11 देशों ने मान्यता दी। जापान ने अण्डमान - निकोबार द्वीपसमूह इस अस्थायी सरकार को सौंप दिये।
शिक्षा -
1 प्रेसीडेंसी स्कूल कटक से प्राथमिक शिक्षा 1909
2 रेवेंशा कोलेजियट स्कूल इंटरमीडियट 1915 द्वितीय श्रेणी
3 1916 में दर्शन शास्त्र पर बी ए की पढ़ाई के बीच में ही प्रेसीडेंसी कॉलेज के शिक्षकों से हुये झगड़े के कारण उन्हें एक वर्ष के लिये रिस्टिकेट कर दिया गया और परीक्षा देने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
4 वर्ष 1916 में 49 वीं बंगाल रेजीमेंट पात्रता परीक्षा दी और कम दिखने के कारण अयोग्य घोषित हो गये।
5 स्कॉटिश चर्च कॉलेज कटक में प्रवेश लिया
6 टेरीटोरियल आर्मी परीक्षा दी और फोर्ड विलियम आर्मी में बतौर सैनिक भर्ती हो गये।
7 कलकत्ता विश्वविद्यालय (बीए, दर्शनशास्त्र, 1919) प्रथम श्रेणी,कलकत्ता विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान।
8 सुभाष ने 15 सितंबर 1919 को इंग्लैंड पहुंच कर किट्स विलियम स्कूल में प्रवेश लिया और मानसिक और नैतिक विज्ञान में बीए ओनर्स किया। 1920 में आईसीएस परीक्षा 4th रेंक से पास की।
आईसीएस की नौकरी से इस्तीफा - आईसीएस बनने के बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके मन - मस्तिष्क में महर्षि दयानंद सरस्वती और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों हैं जिनके विरुद्ध आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी नहीं कर पायेंगे।
22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई.एस.मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा।
एक पत्र देशबंधु चित्तरंजन दास को लिखा।
सुभाष के आईसीएस की नौकरी छोड़ने पर माँ प्रभावती ने उन्हें पत्र लिखा कि "पिता,परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।"
9 कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (मानसिक और नैतिक विज्ञान ट्रिपोस में बीए, 1921)
10 भारत आगमन 1921
भारत पहुंचने के बाद घनाक्रम -
कोलकाता के स्वतन्त्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर सुभाष चंद बोस दास बाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दास बाबू को खत लिखकर उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार भारत वापस आने पर सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गांधी से मिले। मुम्बई में गांधी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ 20 जुलाई 1921 को गांधी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। गांधीजी ने उन्हें कोलकाता जाकर दास बाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाष कोलकाता आकर दास बाबू से मिले।
उन दिनों गांधीजी अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन चला रहे थे। दास बाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाष इस आन्दोलन में सहभागी हो गये। गाँधी जी द्वारा 5 फरवरी 1922 को चौरी चौरा घटना के बाद असहयोग आंदोलन बंद कर दिया गया जिसके कारण 1922 में दास बाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अन्दर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिये कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता और दास बाबू कोलकाता के महापौर बन गये। उन्होंने सुभाष को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाष ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता में सभी रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये गये। स्वतन्त्रता संग्राम में प्राण न्योछावर करने वालों के परिजनों को महापालिका में नौकरी देनी शुरू कर दी।
बहुत जल्द ही सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गये। जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाष ने कांग्रेस के अन्तर्गत युवकों की इण्डिपेण्डेंस लीग शुरू की। 1927 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये। कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाष उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष ने खाकी गणवेश धारण करके मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी।
गाँधी जी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की माँग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में गांधीजी ने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाष और जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की माँग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अन्त में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिये एक साल का वक्त दिया जाये। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग करेगी। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की। इसलिये 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायेग।
सुभाष चन्द्र बोस की कार
जेल यात्रा -
26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहरा कर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलाई और घायल कर जेल भेज दिया। जब सुभाष जेल में थे तब गाँधी जी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिये गाँधी जी ने सरकार से बात तो की। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गांधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष गाँधी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो गये।
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ।
1925 में गोपीनाथ साहा नामक एक क्रान्तिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाष फूट फूट कर रोये। उन्होंने गोपीनाथ का शव माँगकर उसका अन्तिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाष ज्वलन्त क्रान्तिकारियों से न केवल सम्बन्ध ही रखते हैं अपितु वे उन्हें उत्प्रेरित भी करते हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाष को गिरफ़्तार किया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के लिये म्याँमार के माण्डले कारागृह में बन्दी बनाकर भेज दिया।
5 नवम्बर 1925 को देशबंधु चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसे। सुभाष ने उनकी मृत्यु की खबर माण्डले कारागृह में रेडियो पर सुनी। माण्डले कारागृह में रहते समय सुभाष की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो गया। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रिहा करने से मना कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी कि वे इलाज के लिये यूरोप चले जायें। लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाष ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी कि जेल अधिकारियों को यह लगने लगा कि शायद वे कारावास में ही न मर जायें। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाष की कारागृह में मृत्यु हो जाये। इसलिये सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। उसके बाद सुभाष इलाज के लिये डलहौजी चले गये।
1930 में सुभाष कारावास में थे और कलकत्ता नगरपरिषद चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये।
यूरोप प्रवास और विवाह -
सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी. वलेरा सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। जिन दिनों सुभाष यूरोप में थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सान्त्वना दी।
ऑस्ट्रिया में प्रेम विवाह -
सन् 1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे हुए थे उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करवा दी। एमिली के पिता एक प्रसिद्ध पशु चिकित्सक थे। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में स्वाभाविक प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए उन दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्धति से विवाह रचा लिया। वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब सुभाष की मौत हुई तो अनिता लगभग पौने तीन साल की थी। वह अभी ऑस्ट्रिया में ही रहती है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल और सुभाष चन्द्र बोस विवाद -
यूरोप में सुभाष चन्द्र विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाष ने मन्त्रणा की जिसे पटेल-बोस विश्लेषण के नाम से जाना जाता है।
इस विश्लेषण में उन दोनों ने गांधीजी के नेतृत्व की जमकर निन्दा की। उसके बाद विठ्ठल भाई पटेल बीमार हो गये तो सुभाष ने उनकी खूब सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल नहीं बचे और उनका निधन हो गया।
विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी सारी सम्पत्ति सुभाष के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात् उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया। सरदार पटेल ने इस वसीयत को लेकर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जीतने पर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने भाई की सारी सम्पत्ति गांधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेंट कर दी।
पिता की मृत्यु और पुनः जेल यात्रा-
1934 में सुभाष को उनके पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली। खबर सुनते ही वे हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। यद्यपि कराची में ही उन्हे पता चल गया था कि उनके पिता की मृत्यु हो चुकी है फिर भी वे कोलकाता गये। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया।
आजादी की जागृति यात्रा -
3 सितम्बर 1939 को मद्रास में सुभाष को ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिड़ने की सूचना मिली। उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है उसे अपनी मुक्ति के लिये अभियान तेज कर देना चाहिये। 8 सितम्बर 1939 को युद्ध के प्रति पार्टी का रुख तय करने के लिये सुभाष को विशेष आमन्त्रित के रूप में काँग्रेस कार्य समिति में बुलाया गया। उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि अगर काँग्रेस यह काम नहीं कर सकती है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू कर देगा।
अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष की यूथ ब्रिगेड ने रातों - रात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। सुभाष के स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। यह एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश दिया था कि जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया है उसी तरह वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे।
इसके परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।
आजाद हिंद फौज -
1942 में जर्मन सेना रूस में फंस गई और बोस दक्षिण-पूर्व एशिया (जापान) में जान चाहते थे, मई 1942 के अंत में बोस के साथ अपनी एकमात्र मुलाकात के दौरान एडोल्फ हिटलर ने एक पनडुब्बी की मदद दी। धुरी राष्ट्रों के साथ मजबूती से जुड़ने के बाद , बोस फरवरी 1943 में एक जर्मन पनडुब्बी में सवार हुए। मेडागास्कर से बाहर, उन्हें एक जापानी पनडुब्बी में स्थानांतरित कर दिया गया, जहां से वह सुमात्रा में उतरे। मई 1943 में।
1944 को आज़ाद हिंद फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।
6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिए उनका आशीर्वाद और शुभ कामनाएँ मांगी।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1943 में जापान की सहायता से टोकियो में रासबिहारी बोस ने भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतन्त्र कराने के लिये आजाद हिन्द फौज या इण्डियन नेशनल आर्मी (INA) नामक सशस्त्र सेना का संगठन तैयार किया। इस सेना के गठन में कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना का विचार सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में आया था। इसी बीच विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग की स्थापना की गई, जिसका प्रथम सम्मेलन जून 1942 ई, को बैंकाक में हुआ।
आरम्भ में इस फौज़ में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये। आरंभ में इस सेना में लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया।जब जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा किया था तो लगभग 45 हजार भारतीय सेनानियों को पकड़ा गया था।आज़ाद हिन्द फौज के सेनानियों की संख्या का अनुमोदन ब्रिटिश गुप्तचर रहे कर्नल जीडी एण्डरसन ने किया है।
पर इसके बाद ही जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। अब यह संगठन निष्क्रिय हो गया।आज़ाद हिन्द फौज का दूसरा चरण तब प्रारम्भ होता है, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये।
सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की, किन्तु जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब उनके सामने कठिनाई उत्पन्न हो गई और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया।
जब नेताजी साउथ एशिया में आए और संगठन की प्रगति के बारे में जाना तो उन्हें लगा कि अब फिर से आजाद हिन्द फौज को उठाकर भारत की आजादी का संग्राम लड़ना होगा. 4 जुलाई 1943 को इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के प्रवासी भारतीयों की बैठक बुलाई गई, सभी ने सर्वसम्मति से नेताजी को अपना नेता बनाया तथा सुभाष जी ने नेतृत्व अपने हाथ में लेकर संगठन को फिर से खड़ा किया।
आज़ाद हिन्द फ़ौज के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल क़िला में नवम्बर, 1945 ई. को झूठा मुकदमा चलाया और फौज के मुख्य सेनानी कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने दलीलें दी लेकिन फिर भी इन तीनों की फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, आम जनमानस भड़क उठे और और अपने दिल में जल रहे मशालों को हाथों में थाम कर उन्होंने इसका विरोध किया, नारे लगाये गये। लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो। विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्यु दण्ड की सज़ा को माफ करा दिया।
सिंगापुर में आईएनए का स्मारक -
सिंगापुर के एस्प्लेनेड पार्क में लगी आईएनए की भूमिका का उल्लेख करती हुई स्मृति पट्टिका
आज़ाद हिन्द फौज़ के गुमनाम शहीदों की याद में सिंगापुर के एस्प्लेनेड पार्क में आईएनए वार मेमोरियल बनाया गया था। आज़ाद हिन्द फौज के सुप्रीम कमाण्डर सुभाष चन्द्र बोस ने 8 जुलाई 1945 को इस स्मारक पर जाकर उन अनाम सैनिकों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
बाद में इस स्मारक को माउण्टबेटन के आदेश पर ब्रिटिश साम्राज्य की सेनाओं ने ध्वस्त करके सिंगापुर शहर पर कब्जा कर लिया। इस स्मारक पर आज़ाद हिन्द फौज़ के तीन ध्येयवाचक शब्द - इत्तेहाद (एकता), एतमाद (विश्वास) और कुर्बानी (बलिदान) लिखे हुए थे।
सन् 1995 में सिंगापुर की राष्ट्रीय धरोहर परिषद (नेशनल हैरिटेज बोर्ड) ने वहाँ निवास कर रहे भारतीय समुदाय के लोगों के आर्थिक सहयोग से इण्डियन नेशनल आर्मी की बेहद खूबसूरत स्मृति पट्टिका उसी ऐतिहासिक स्थल पर फिर से स्थापित कर दी। इसकी देखरेख का काम सिंगापुर की सरकार करती है।
आजाद हिंद फौज का गीत -
द्रुत प्रयाण गीत -
कदम कदम बढाये जा - आजाद हिन्द फौज का प्रयाण गीत (क्विक मार्च सॉन्ग) था जिसकी रचना राम सिंह ठकुरि ने की थी। इस ट्यून का आज भी भारतीय सेना के प्रयाण गीत के रूप में इसका प्रयोग होता है। पूरा गीत इस प्रकार है-
क़दम क़दम बढ़ाए जा
ख़ुशी के गीत गाए जा
ये ज़िंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाए जा।
उड़ी तमिस्र रात है, जगा नया प्रभात है,
चली नई जमात है, मानो कोई बरात है,
समय है, मुस्कुराए जा
ख़ुशी के गीत गाए जा।
ये ज़िंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाए जा।
जो आ पड़े कोई विपत्ति मार के भगाएँगे,
जो आए मौत सामने तो दाँत तोड़ लाएँगे,
बहार की बहार में
बहार ही लुटाए जा।
यह जिंदगी है कोम की
तू कौम पे लुटाए जा।
जहाँ तलक न लक्ष्य पूर्ण हो समर करेंगे हम
खड़ा हो शत्रु सामने तो शीश पै चढ़ेंगे हम
विजय हमारे हाथ है
विजय-ध्वजा उड़ाए जा
यह....
क़दम बढ़े तो बढ़ चले, आकाश तक चढ़ेंगे हम
लड़े हैं, लड़ रहे हैं, तो जहान से लड़ेंगे हम
बड़ी लड़ाइयाँ हैं तो
बड़ा क़दम बढ़ाए जा
यह....
निगाह चौमुखी रहे, विचार लक्ष्य पर रहे
जिधर से शत्रु आ रहा उसी तरफ़ नज़र रहे
स्वतंत्रता का युद्ध है,
स्वतंत्र होके गाए जा
ये ज़िंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाए जा।
आजाद हिंद फौज के मेडल -
वरीयता के क्रम में)
शेरे-हिन्द
सरदारे-जंग
वीरे-हिन्द
शहीदे-भारत
नेताजी की मृत्यु की अनसुलझी गुत्थी -
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था।
18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बम वर्षक विमान से आ रहे थे और 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी।
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिये 1956 और 1977 में दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही शहीद हो गये।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।
नेताजी के जीवित होने के किस्से -
देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य में जिला रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चन्द्र बोस के होने का मामला राज्य सरकार तक गया। परन्तु राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप के योग्य न मानते हुए मामले की फाइल ही बन्द कर दी।
पुस्तक लेखन -
The Indian struggle
भारत का संघर्ष
नेताजी के जीवन पर संपूर्ण वाङ्मय
दिसंबर 1940 से नेताजी के अंतिम समय तक उनके पूर्ण विश्वासपात्र तथा निकट सहयोगी रहे डॉ.शिशिर कुमार बोस ने नेताजी रिसर्च ब्यूरो की स्थापना कर नेताजी के 'समग्र साहित्य' के प्रकाशन का कार्य विनोद सी.चौधरी के साथ मिलकर 1961 ईस्वी में आरंभ किया जो 1980 में 12 खंडों में संकलित रचनाओं के प्रकाशन का काम पूरा हुआ।
आरंभिक योजना 10 खंडों में 'समग्र साहित्य' के प्रकाशन की थी, परंतु बाद में यह योजना 12 खंडों की हो गयी। अप्रैल 1980 में सर्वप्रथम बांग्ला में इसके प्रथम खंड का प्रकाशन हुआ था और नवंबर 1980 में अंग्रेजी में। हिंदी में इसका प्रथम खंड 1982 में प्रकाशित हुआ और फिर इन तीनों भाषाओं में समग्र साहित्य का प्रकाशन होता रहा। इसका अंतिम (12वाँ) खंड 2011 में छप कर आ पाया।
इस 'समग्र वाङ्मय' के संकलन एवं प्रकाशन कार्य से आरंभ से ही सुगत बोस भी जुड़े हुए थे और अंतिम दो खंडों का प्रकाशन डॉ. शिशिर कुमार बोस के निधन के कारण सुगत बोस के संपादन में हुआ।
इस 'समग्र वाङ्मय' के प्रथम खंड में उनकी 'आत्मकथा' के साथ कुछ पत्रों का प्रकाशन हुआ है और द्वितीय खंड में उनकी पुस्तक 'भारत का संघर्ष' (द इंडियन स्ट्रगल) का प्रकाशन हुआ है। फिर अन्य खंडों में उनके द्वारा लिखित पत्रों, टिप्पणियों एवं भाषणों आदि समग्र उपलब्ध साहित्य का क्रमबद्ध प्रकाशन हुआ है। इस प्रकार यथासंभव उपलब्ध नेताजी का लिखित एवं वाचिक 'समग्र वाङ्मय' अध्ययन हेतु सुलभ हो गया है और यह युगीन आवश्यकता भी है कि महात्मा गांधी की तरह नेताजी के सन्दर्भ में भी अनेकानेक संदर्भ-रहित कथनों एवं अपूर्ण जानकारियों के आधार पर राय कायम करने की बजाय उपयुक्त मुद्दे को उसके उपयुक्त एवं सम्यक् संदर्भों में देखते हुए सटीक एवं प्रामाणिक राय कायम की जाय। वे बहुत ही सरल थे।
विशेष -
16 जनवरी 2014 (गुरुवार) को
1 कलकत्ता उच्च न्यायालय ने नेता जी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई के लिए विशेष पीठ के गठन का आदेश दिया
2 वर्ष 2014 में भारत सरकार ने राज पथ का नाम बदल कर कर्तव्य पथ किया और नई दिल्ली शहीद स्मारक पर सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा स्थापित की।
सुभाष चन्द्र बोस के ड्राईवर
अब्दुल हबीब युसूफ मारफानी
रँगून के इस इस व्यवसायी ने आजाद हिंद फौज को एक करोड रूपये दान दिए, जो आज के लगभग दस हजार करोड रूपये होते हैं। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इन्हें सेवा ए हिंद पदक दिया।
शमशेर भालू खान
जिगर चुरूवी
9587243963
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