Saturday, 1 March 2025

✅खिलाफत व ख़िलाफ़ते राशिदून

      खलीफा  ( खिलाफत)
अरबी भाषा के शब्द خليفة‎‎  ख़लीफ़ा का शब्दार्थ है (सर्वोच्च धर्माधिकारी, शासक,इमाम,सुल्तान व काज़ी सभी कार्य, नायक,इस्लामिक राज्य प्रमुख) शरीयत के अनुसार शासन करने वाला शासक ख़लीफ़ा कहलाता है।
 मोहम्मद (स0) विषाल (देहांत)  8 जून 632 सन ईस्वी के बाद शासन व्यवस्था संभालने वाले व्यक्ति खलीफा हुये जो सम्पूर्ण मुस्लिम राज्य क्षेत्र के राजनैतिक नेता माने जाते थे।
 खलीफाओं का सिलसिला अबूबक्र के शासन काल 632 से शुरू हो कर उस्मानी साम्राज्य के पतन पर तुर्की के अंतिम शासक मुस्तफा कमालपाशा तक 1924 ईस्वी सन में समाप्त हुआ।
दरअसल मोहम्मद साहब की विषाल के पहले ही जब वो बीमार थे तब से मुस्लिम साम्राज्य का अध्यक्ष बनने की चालें चलनी शुरू हो गई थी। सहाबा अलग-अलग गुटों में बंट कर ख़लीफ़ा बनने के लिये मोहरे सजाने लगे।
इस बात को साबित करने के लिये तर्क दिया जा सकता है कि उमर, अबूबक्र व उस्मान नबी के विशाल (देहांत) के समय व अंतिम क्रिया (मदफ़न) के समय उनके पास न हो कर ख़लीफ़ा की योजना के बारे में आगामी रणनीतिक बैठकें ले रहे थे। सिर्फ अली और कुछ सहाबा ही यह काम कर रहे थे। यहाँ यह भी साबित होता है कि जिस मुस्लिम सम्राज्य की नींव मोहम्मद साहब ने डाली थी उसका मुखिया चुनने के लिये एकता के स्थान पर बिखराव शुरू हो चुका था।
इस्लामिक नियम व हज अल विदा के दौरान मोहम्मद साहब की हदीष के अनुसार अली पहले ख़लीफ़ा बनने चाहिये थे (अली मोहम्मद साहब के चचेरे भाई व दामाद थे)
परन्तु सूरा के फैसले के अनुसार अबूबक्र (सिद्दीक़) को पहला ख़लीफ़ा बनाया गया।
पहले से चार ख़लीफ़ा (ख़िलाफ़ते राशिदीन)
1 अबूबक्र सिद्दीक़ (आयशा के पिता मोहम्मद साहब के ससुर)
2 उमर (फारुख) (अली के दामाद *उम्मे कुलसुम के पति)
3 उस्मान (ग़नी) (मोहम्मद साहब के दामाद *रुकय्या व उम्मे कुलसुम के पति
4 अली (मुर्तज़ा) (मोहम्मद साहब के बड़े दामाद व चाचा अबु तालिब के बेटे  *फ़ातिमा के पति)
चारों ही नबी के साथी (सहाबी) व विश्वास पात्र थे।
 ईस्वी सन 632 से 661 तक ख़लीफ़ा ए राशिदीन (सतपंथी शासक) कहलाये।
इस्लामी खिलाफत को 5 भागों में बांटा जा सकता है - 

1 ख़िलाफ़ते राशिदीन
2 ख़िलाफ़ते उम्मयद
3 ख़िलाफ़ते अय्यूबी 
4 ख़िलाफ़ते फ़ातिमी
5 ख़िलाफ़ते उस्मानी

ख़िलाफ़ते राशिदीन :-
पैगम्बर मोहम्मद के देहान्त के बाद के पहले चार खलीफाओं को सुन्नी सम्प्रदाय के मुस्लिम राशिदी खलीफा कहते हैं यह कालखण्ड ख़िलाफ़ते राशिदीन कहलाता है।
अरबी शब्द  राशिद का अर्थ है सही मार्ग पर चलने वाला या सतपंथी ।
ख़लीफ़ा ए राशिदीन घटनाक्रम :-
 मुहम्मद साहब के गुजरने के तुरन्त बाद आपसी बातचीत सुरा के फैसले से अबुबक्र को खलीफा चुना गया जिसका सभी मोहम्मद साहब के साथियों ने समर्थन किया।
अबू बकर का शासन 662 से 634  केवल दो साल ही चला था और वो बीमार पड़ गये। आखिरी समय निकट देख कर अबूबक्र ने देहांत से पहले  बिना किसी विचार-विमर्श  व सुरा के फैसले के उमर बिन खीत्ताब को ख़लीफ़ा घोषित कर दिया। 
इस समय उमर का समर्थन केवल उन्ही साथियों ने किया जो उस समय मदीना में थे और कुछ साथीयों ने उमर को ख़लीफ़ा मानने से इंकार भी कर दिया। कुछ समय बाद उमर ने इस्लामिक सम्राज्य विस्तार के लिए ईरान पर हमला किया तो ईरानियों ने उमर को सत्ता से हटाने के लिये 9-10 साल बाद 7 नवम्बर 646 ईस्वी सन को हमला कर उमर को शहीद कर दिया।
उमर ने छह व्यक्तियों की परिषद का गठन कर रखा था जिसकी जिम्मेदारी आपसी समझौते से उनमें से एक को चुनकर उमर के बाद ख़लीफ़ा बनाना थी। 
इस परिषद में अली और उस्मान भी शामिल थे। परिषद द्वारा उस्मान को चुना गया और वे 11 नवम्बर 644 को तीसरे ख़लीफ़ा बने। उस्मान का कार्यकाल लगभग 12 साल का रहा। 27 जुलाई 656 को ईरानी,इराकी व अन्य विद्रोहियों ने उस्मान की भी हत्या कर दी।
काफी दिन ख़लीफ़ा का पद खाली रहा अन्त में अली के रूप में चौथे ख़लीफ़ा का चुनाव किया गया।
 शियाने अली व बनी हासिम के लोगों का मत था कि अली को प्रथम ख़लीफ़ा चुना जाना चाहिये था पर ऐसा नहीं हुआ जिससे शिया-सुन्नी विवाद उत्पन्न हुआ जिसका वर्णन आगे के चेप्टर (शिया सुन्नी विवाद व शिया सम्प्रदाय) में पढ़ेंगे।
बहरहाल 4 साल में ही कूफ़ा में 661 में अली को इब्ने मुलज़्म (एक ख़ारजी) ने शहीद कर दिया । 
इस बार उस्मान का चचेरा भाई व उम्मे हबीबी (मोहम्मद साहब की पत्नी) का सौतेला भाई मुआविया इब्ने अबूसुफ़यान पाचवाँ ख़लीफ़ा बना और खिलाफते उमय्यद की स्थापना की।
यहाँ विभाजन की शुरुआत हुई। एक पक्ष हसन (पांचवां ख़लीफ़ा) को ख़लीफ़ा बनाना चाहता था तो दूसरा पक्ष माविया के साथ था।(इस बारे में भी अगले अध्याय में पढ़ेंगे)
इस्लामिक इतिहास को निम्नानुसार विभाजित किया जा सकता है:-

1मोहम्मद साहब से पहले का अरब व इतिहास
2 मोहम्मद साहब की नबुव्वत (ईश सन्देश प्राप्ति) से पहले ईस्वी सन 571 से 610 तक का इतिहास
3 नबुव्वत के बाद मक्का में धर्म प्रचार ईस्वी सन 610 से 622 तक
4 मक्का से मदीना (पलायन) यात्रा (हिज़रत) से विषाल (अंतिम समय तक) 622 से 632 तक
5  राशिदुन (प्रथम चार) ख़लीफ़ाओं के समय ईस्वी सन 632 से 661 तक का इतिहास
6 ख़िलाफ़ते उमय्यद का समय ईस्वी सन 661 से 750 तक
7 ख़िलाफ़ते अय्यूबी 
8 ख़िलाफ़ते फ़ातिमी
9 ख़िलाफ़ते उस्मानी

खलीफ़ा ए राशिदीन :- 
1 अबुबक्र सिद्दीक  ईस्वी सन 632 से 634 तक हज़री सन 11 से 
2 उमर बिन अल ख़त्ताब ईस्वी सन 634 से 644 तक हज़री 
3 उसमान बिन अफ़्फ़ान ईस्वी सन 644 से 656 तक हिज़री 
अली बिन अबु तालिब  ईस्वी सन 656 से 661 तक हिजरी 

1 अबूबक्र :- (573 से 634)
 इनका असली नाम अब्दुल्लाह इब्न अबू क़ुहाफ़ा था।
खलीफा शासनावधि
8 जून 632 से 22 अगस्त 634 ईस्वी सन तक
जन्म -27 अक्टूबर 573
मक्का,सऊदी अरब
निधन -22 अगस्त 634 (उम्र 61)
मदीना,अरब
दफ़न -अल-मस्जिद अन नबवी, मदीना
पत्नियाँ
1 क़ुतयलह बिन अब्द-अल-उज़्ज़ा (तलाकशुदा)
2 उम्म रूमान
3 अस्मा बिन उमैस
4 हबीबा बिन ख़रिजा
संतान
पुत्र
1 अब्दुल्लाह इब्न अबुबक्र
2 अब्दुल रहमान इब्न अबुबक्र
3 मुहम्मद इब्न अबुबक्र

बेटियाँ
1 आयशा
2 उम्म खुलसुम बिन्त अबूबक्र
3 असमा बिन्त अबुबक्र

घराना -सिद्दीकी
पिता -उस्मान अबू क़ुहाफ़ा
माता -सलमा उम्म-उल खैर

जीवन :-
अबू बक्र मोहम्मद साहब के ससुर (आयशा के पिता) और उनके दोस्त व प्रमुख साथी (सहाबी) थे। 
अबूबक्र मोहम्मद साहब के बाद मुसलमानों के पहले खलीफा चुने गये। सुन्नी मुसलमान इनको चार प्रमुख पवित्र खलीफाओं में अग्रणी मानतें हैं। मोहम्मद साहब पर पहले विश्वास (बच्चों में अली प्रथम( वयस्कों में अबूबक्र)(ईमान लाने वाले) करने वाले व्यक्ति एवं प्रारंभिक अनुयायियों में से थे।
अबू बक्र उस्मान अबू कहाफा के पुत्र थे। इनके लक़ब (उपनाम) सिदीक और अतीक भी थे। नबी के विशाल (8 जून 632 ई0) के पश्चात् मदीना के लोगों ने एक सभा में लंबी मन्त्रणा के पश्चात क़ुरान की एक आयत को आधार बनाते हुये जो अबु बक्र की प्रशंसा मे थी उनको पैगंबर का खलीफा (उत्तराधिकारी) स्वीकार किया।
मोहम्मद साहब के विशाल के तुरंत बाद मक्का,मदीना और ताइफ़ के अलावा बाकी पूरे अरब का बड़ा हिस्सा इस्लाम से विमुख हो गया। लोग यह समझ रहे थे कि नबी थे तो इस्लाम था वह नहीं रहे तो इस्लाम की क्या ज़रुरत है।मोहम्मद साहब द्वारा लगाये गये करों और नियुक्त किए गए गवर्नरों का लोगों ने बहिष्कार करना शुरू कर दिया। 
तीन पुरुष व एक स्त्री (स्वयम्भू पैगम्बर) बन कर अपना प्रचार करने लगे। अबूबक्र ने अपने घनिष्ठतम मित्रों के परामर्श के खिलाफ विद्रोही आदिवासियों से समझौता नहीं किया और 11 सैनिक दस्तों की सहायता से समस्त अरब प्रदेश को एक वर्ष में नियंत्रित कर लिया। मुस्लिम धर्माधिकारियों ने धर्म परिवर्तन के अपराध के लिये सभी को मृत्यु दंड की सज़ा दी किंतु अबूबक्र ने उन सब जातियों को क्षमा कर दिया जिन्होंने इस्लाम और उसकी केंद्रीय शक्ति को पुन: स्वीकार कर लिया।
ख़लीफ़ा बनने के एक वर्ष के भीतर ही अबू बक्र के आदेश से खालिद बिन वलीद ने मुसन्ना (सेनापति का नाम) के साथ 29000 सैनिक लेकर इराक पर चढ़ाई कर दी। इस सेना ने ईरानी शक्ति को अनेक लड़ाइयों में नष्ट करके बाबुल तक जो ईरानी साम्राज्य की राजधानी मदाइन के निकट था अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद खालिद ने अबूबक्र के आदेशानुसार इराक से सीरिया की ओर कूच किया अरब के मरुस्थल को पार कर 30000 अरब सैनिकों को और मिला लिया जिसने एक लाख बिजंतीनी सेना को फिलस्तीन के अजन दैइन नामक स्थान 31 जुलाई 634 ई0 को हरा दिया।
 कुछ ही दिनों बाद अबू बक्र का देहांत हो गया 23 अगस्त 634 को अबुबक्र का देहांत हो गया।
शासन के सिद्धांत :-
अबू बक्र ने नबी द्वारा प्रतिपादित गरीबी और आसानी के सिद्धांतो का अनुकरण किया। उनका कोई सचिवालय और राजकीय कोष नहीं था। कर प्राप्त होते ही व्यय कर दिया जाता था। वह 5000 दिरहम सालाना स्वयं लिया करते थे किंतु अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने इस धन को भी अपनी निजी संपत्ति बेचकर वापस कर दिया।

2 उमर इब्न अल ख़त्ताब  (ई 590 से 644) 
शासनावधि
23 अगस्त 634  ई0 से 3 नवम्बर 644  ई0 तक
जन्म -583 ई0 सन
मक्का, सऊदिया अरेबिया
निधन -3 नवंबर 644 (26 जुल हिज़्ज़ 23 हिजरी)
मदीना, सऊदिया अरेबिया, राशिदून साम्राज्य
दफ़न -मस्जिद ए नबवी मदीना सऊदिया अरेबिया

पत्नियाँ
1 ज़ैनब बिन्त मज़ून
2 क़ुरैबा बिन्त अबु उमय्या 
3 अल मख्ज़ूमी
4 उम्म हकीम बिन्त अल-हारिस इब्न हिशाम
5 उम्म कुल्सुम बिन्त अली
6 आतिक़ा बिन्त ज़ैद इब्न अमर इब्न नुफ़ैल

संतान
बेटे
1 अब्दुल्ला इब्न उमर
2 अब्दुर्रहमान इब्न उमर
3 उबैदुल्ला इब्न उमर
4 ज़ैद इब्न उमर
5 आसिम इब्न उमर
6 इयाद इब्न उमर
बेटियां
1 हफ़्सा बिन्त उमर
2 फ़ातिमा बिन्त उमर
3 ज़ैनब बिन्त उमर
पिता -खत्ताब इब्न नुफ़ैल
माता -हन्तमा बिन्ते हिशाम

जीवन परिचय :-
मुहम्मद साहब के प्रमुख चार सहाबा (साथियों) में से एक व अली के दामाद थे *उम्मे कुलसुम के पति)। वो अबु बक्र के बाद मुसलमानों के दूसरे ख़लीफ़ा चुने गये। मोहम्मद साहब ने  उमर को फारूक नाम की उपाधि (अर्थ सत्य और असत्य में फर्क करने वाला) दी थी। मोहम्मद साहब के अनुयाईयों में इनका नाम अबूबक्र के बाद आता है। उमर ख़ुलफा ए राशीदीन में दूसरे ख़लीफा बने। 
उमर ख़ुलफा ए राशीदीन में सबसे सफल ख़लीफा साबित हुये। मुसलमान इनको फारूक-ए-आज़म तथा अमीरुल मुमिनीन भी कहते हैं। युरोपीय लेखकों ने इनके बारे में कई किताबें लिखीं व उमर महान (Umar The Great) की उपाधी दी।
जल दस्युओं को सज़ा देने के लिये (ऐसा कहा जाता है ) भारत के ठाणे भी आये थे।

3 उसमान बिन अफ़्फ़ान (579 से 656)
पदवी
1 ज़ुन्नूरैन (दो दीप वाले)
2 अल-ग़नी (धनी)
3 अमीरुल मूमिनीन
राशिदून ख़लीफ़ा में से उमर बिन खत्ताब के बाद 3सरे नम्बर के ख़लीफ़ा थे जिन्हें 6 व्यक्तियों की सूरा (परिषद) ने चुना था।
पहले वो एक धनी व्यापारी हुआ करते थे लेकिन बाद में अपना सब कुछ इस्लाम के नाम कर मोहम्मद साहब के प्रमुख साथी बने। मोहम्मद साहब ने अपनी बेटी रुकय्या की शादी उस्मान से की थी जिसकी मृत्यु हो जाने पर उम्मे कुलसुम का विवाह उस्मान से किया।

ख़िलाफ़त शासनावधि -ईस्वी सन 6 नवम्बर 644 से 17 जून 656
जन्म:- -576 ईस्वी  (47 हिजरी पूर्व)
ताइफ़ शहर, सऊदी अरब
निधन -17 जून 656  ईस्वी (18 जिल हिज़्ज़ 35 हिजरी (आयु 79 साल) मदीना शहर में घर पर हमले के दौरान सऊदी अरब, 
दफन -जन्नतुल बकी, मदीना

पत्नियाँ
1 उम् अम्र
2 रुक़य्या बिन्त मुहम्मद
3 उम् कुलसुम बिन्त मुहम्मद
4 फ़खीता बिन्त ग़ज़वान
5 उम् अल बनीन
6 फ़ातिमा बिन्त अल-वलीद
खालिद बिन असीद की पुत्री
7 उम् अम्र उम् नज्म बिन्त जुन्दुब
6 रमला बिन्त शैबा
7 नाइला बिन्त अल फुराफ़िसा

संतान
1 अबान बिन उस्मान
जाति :- क़ुरैश 
घराना ;-  बनू उमय्या
पिता :- अफ्फ़ान इब्न अबी अल-आस
माता :- अरवा बिन्त कुरैज़
जीवन 
अपने धन के कारण उनको अल ग़नी भी कहते हैं।
इनके पिता मक्का के प्रभावशाली व्यापारी थे जबकि ये ख़ुद कारोबारी सिलसिले में इथियोपिया में रहने लगे। इनके परिवार के अन्य सदस्यों ने अगले 70 सालों के इस्लामी साम्राज्य-विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की एवं संपुर्ण उत्तरी अफ्रिका पर विजय प्राप्त की। बाद के उमय्यद वंश के शासक इनके वंश से संबंधित थे। कुख्यात अरब जनरल अबू सुफ़ियान और बाद में स्पेन में राज करने वाले मूसा भी इनके ख़ून के रिश्तेदार थे।

ख़लीफ़ा के रूप में चुनाव:-
उमर ने मौत के वक़्त पर अगले खलीफा को अपने बीच में से चुनने के लिए छह लोगों की एक समिति  सूरा का गठन किया। 
यह समिति थी :-
1 अली
2 उस्मान इब्न अफान
3 अब्दुर रहमान बिन अवेफ
4 जेद इब्न अबी वकाकस
5 अल-जुबैर
6 तलहा
ख़लीफ़ा उमर ने निर्दिष्ट किया कि उनकी मृत्यु के बाद, समिति तीन दिनों के भीतर एक अंतिम निर्णय लेगी और अगले ख़लीफ़ा को चौथे दिन ख़िलाफ़त की शपथ दिलवायेगी । 
तलहा समिति के सदस्य इस अवधि में मदीना से बाहर थे इसलिये 5 आदमियों ने विचार-विमर्श शुरू किया।
अब्दुर रहमान बिन औफ़ ने मध्यस्थ के रूप में कार्य करने के लिये खलीफा के रूप में नियुक्त किये जाने बाबत अपना नाम वापस ले लिया और समिति के शेष 4 सदस्यों में से प्रत्येक सदस्य से अलग से मुलाकात करके रायशुमारी का कार्य शुरू किया। 
रहमान ने सब से चारों में से किसी एक को वोट देने को कहा,अली ने किसी को वोट नहीं दिया, उस्मान ने अली के लिये मतदान किया,जुबैर ने अली व उस्मान दोनों को व साद ने उस्मान को चुना।
इस प्रकार से उस्मान को 2 वोट साद व ज़ुबैर के,अली को 2 वोट उस्मान व ज़ुबैर के मिले निर्णायक के रूप में अब्दुल रहमान ने उस्मान का नाम ख़लीफ़ा के लिये प्रस्तावित किया जिसे उमर ने स्वीकार कर उस्मान को अगला ख़लीफ़ा तय कर दिया।
उस्मान ने मोहम्मद साहब के समय युद्धों में घायल हुये लोगों के आश्रितों को दिये जाने वाले वज़ीफ़े और पेंशन बंद कर दी। 
वो इस्लामिक सल्तनत को बढाने के प्रयास करने लगे और बैतूल माल से इस पर अधिक धन खर्च करने लगे।
अरब के लोग इससे खफ़ा हो गये,जगह-जगह विद्रोह होने लगे।
इधर ईरान,इराक़ व अन्य जगह के विद्रोही उस्मान को हटाना चाहते थे। उस्मान के घर बैतूल उमरा को घेर लिया गया। हालांकि अली व उसके दो पुत्र हसन-हुसैन उस्मान के घर की रक्षा कर रहे थे पर विद्रोही पीछे से घर में घुस गये और 79 वर्ष के उस्मान को सर पर चोट मार-मार कर शहीद कर दिया इस विद्रोह में बीच बचाव कर रही उनकी पत्नी भी घायल हो गई।

4 अली इब्ने अबु तालिब
जन्म -15 सितम्बर 601 से 
मक्का ,सऊदिया अरबिया (काबा के अंदर जन्मने वाले पहले इंसान)
मृत्यु - (60 वर्ष की आयु में)29 जनवरी 661 कूफ़ा में मस्जिद में नमाज़ पढ़ते वक़्त खारीजी द्वारा ज़हर लगी तलवार से हत्या
खिलाफत काल - (5 वर्ष)18 जून 656 से 29 जनवरी 661
लक़ब 
1 मुर्तज़ा
2 मौला

पत्नियाँ 
1 फ़ातिमा बिन्त मोहम्मद
2 फ़ातिमा बिन्त हिजाज़
3 खवाला बिन्त जाफर हनफिया
फातिमा से सन्तान
1 हसन इब्न अली 625
2 हुसैन इब्न अली 626 
3 जैनब बिंत अली 
4 उम्म कुलसुम बिन्त अली चार बच्चे थे। 
दूसरी पत्नी फ़ातिमा की मृत्यु 633 के बाद विवाह फ़ातिमा बिन्ते हिजाज़ से सन्तान (उम अल बानीन)
1अब्बास इब्न अली
2 हुसैन अल मानक, 
3 जाफर इब्ने अली
4 अब्दुल्लाह इब्ने अली
तीसरी पत्नी बानी हनीफा कबीले की ख़वाला बिन्त जफर हनफिया से सन्तान
1 मोहम्मद इब्न अल हनफिया इब्ने अली
2 अबूबक्र इब्ने अली
कुछ इतिहासकारों ने अली के अन्य पुत्रों के नाम जोड़े हैं 
1 इब्राहिम
2 उमर 
3 अब्दुल्लाह इब्न अल असकर 

बेटीयाँ
1 जैनब (करबला में थीं याजीद की सेना ने कब्जा कर लिया था और बाद में हुसैन व उसके साथियों के साथ घटित घटनाओं को बताया)।
फातिमा बिन्त मोहम्मद व अली के वंशजों को शरीफ (उपनाम) नाम से जाना जाता है। यह अरबी में आदरणीय खिताब हैं, शरीफ का अर्थ (महान है) मोहम्मद साहब के एकमात्र वंशज के रूप में, उन्हें सुन्नी और शिया दोनों सम्मान देते हैं।
2 उम्मे कुलसुम (उमर से विवाह)
पिता - अबु तालिब बिन अब्दुल्लाह
माता - फ़ातिमा बिन्त अशद

जीवन व संघर्ष :-
अली के पिता, अबू तालिब, शक्तिशाली कुरैशी जनजाति की एक महत्वपूर्ण शाखा बनू हाशिम काबा के संरक्षक थे। वह मोहम्मद साहब के चाचा थे जिन्होंने अब्दुल मुत्तलिब (अबू तालिब के पिता और मोहम्मद साहब के दादा) की मृत्यु के बाद मोहम्मद साहब के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी उठाई थी।
 अली की मां फातिमा बिन असद भी बानू हाशिम से संबंधित थीं, जो इब्राहीम के वंशज थे।
खासकर शिया, यह प्रमाणित करते हैं कि अली मक्का शहर में काबा के अंदर पैदा हुआ थे, जहां वह तीन दिनों तक अपनी मां के साथ रहे।  काबा का दौरा करते हुए उनकी मां ने अपने श्रम दर्द (बच्चों के जन्मने से पूर्व दर्द) की शुरुआत महसूस की और  काबा में प्रवेश किया जहां उनके बेटे अली का जन्म हुआ। कुछ शिया स्रोतों में अली की मां के प्रवेश के चमत्कारी विवरण काबा में हैं। काबा में अली का जन्म शिया के बीच अपने "उच्च आध्यात्मिक केंद्र" को साबित करने वाला एक अनूठी मिसाल माना जाता है जबकि विभिन्न सुन्नी विद्वानों में यह एक महान बात मानी गई है। 
एक परंपरा के अनुसार, मोहम्मद पहले व्यक्ति थे जिन्हें अली ने देखा और अपने हाथों में नवजात शिशु को लिया था। मोहम्मद साहब ने उन्हें अली नाम दिया जिसका अर्थ है महान।
 अली के माता-पिता के साथ मोहम्मद साहब के घनिष्ठ संबंध थे। जब मोहम्मद अनाथ हो गये और बाद में अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब को भी खो दिया तोअली के पिता उन्हें अपने घर ले आये।  मोहम्मद साहब की ख़दीजा बिन्त खुवैलिद से शादी के 2 साल बाद अली का जन्म हुआ था।
जब अली पांच वर्ष के थे मोहम्मद साहब उन्हें अपने घर ले आये।
 कुछ इतिहासकार कहते हैं कि ऐसा इसलिये किया था कि उस समय मक्का में एक अकाल था और अली को पालने के लिये पिता समर्थ नहीं थे।
 हालांकि अन्य लोग बताते हैं कि पिता पर बोझ नहीं थे, क्योंकि अली उस समय पांच वर्ष के थे, और अकाल के बावजूद अली के पिता वित्तीय रूप से सुदृढ़ थे मुसाफिरों व भूखों को भोजन देने के लिए जाने जाते थे ।
अली पांच साल की उम्र से मोहम्मद और खदीजा के साथ रहने लगे। अली की नौ वर्ष की उम्र में मोहम्मद साहब ने खुद को इस्लाम के पैगंबर के रूप में घोषित किया और अली इस्लाम स्वीकार करने वाले पहले बच्चे बने।
खादीजा के बाद इस्लाम को स्वीकार करने वाला दूसरे व्यक्ति अली ही थे।इस तरह अली और कुरआन मोहम्मद साहब के घर में जुड़वां की तरह रहे।
अली की जिंदगी का दूसरा पड़ाव  610 में शुरू हुआ जब उन्होंने 9 साल की उम्र में इस्लाम स्वीकार कर लिया और मोहम्मद साहब के साथ 622 में हिजरत कर मदीना चले आये।
 जब मोहम्मद साहब ने बताया कि उन्हें एक दिव्य प्रकाश (ज्ञान) प्राप्त हुआ है तो अली नौ साल की उम्र में उनका विश्वास किया (ईमान लाये)।
उन्होंने इस्लाम को किसी भी पूर्व इस्लामी मक्का पारंपरिक धर्म संस्कार में भाग लेने से पहले स्वीकार किया जिसे मुस्लिमों द्वारा बहुवादी के रूप में मानते है या मूर्तिपूजक।
अली ने कभी मूर्ति पूजा नहीं की इसलिये उन्हें करम अल्लाह वजाहु भी कहते हैं  जिसका अर्थ है उसके चेहरे पर भगवान का अनुग्रह है। उन्हें मूर्तियों को तोड़ने के लिए जाना जाता था।
मोहम्मद साहब व अली का परिवार बानी हाशिम कबीले के लोग इस्फ के आने से पहले हनीफ़ या एकेश्वरवादी सम्प्रदाय में(इब्राहीम का धर्म) में विश्वास रखते थे।
मुस्लिम इतिहास में सबसे कठिन अवधि में से एक दौर में अली 656 से 661 ईस्वी सन के बीच ख़लीफ़ा रहे।
 सम्राज्य में पहले से ही फ़ितना (विद्रोह) हो रहे थे। अधिकांश इतिहासकार सहमत हैं कि अली एक गहन धार्मिक व्यक्ति था जो इस्लाम,कुरान और सुन्नत के अनुसार न्याय का शासन संचालित करता था। वह धार्मिक कर्तव्यों के मामले में मुसलमानों के खिलाफ युद्ध में भी लगे थे। 
कठिन तपस्या धार्मिक कर्तव्यों का कठोर पालन और सांसारिक वस्तुओं से अलग रहे। 
कुछ लेखकों के अनुसार उनमें राजनीतिक कौशल और लचीलापन की कमी थी,गुस्सा बहुत आता था।

अली का ख़लीफ़ा के रूप में चुनाव :-
उस्मान की हत्या के बाद एक नया खलीफा चुनना ज़रूरी हो गया। 
विद्रोही मुहजीरुन,अंसार, मिस्रवासी, कुफा,और बसरा समेत कई समूहों में विभाजित थे। 
इस बार खिलाफत के तीन उम्मीदवार थे :-
1अली
2 तलहा 
3 जुबेर 
सबसे पहले विद्रोहियों ने अली से संपर्क किया, चौथा खलीफ बनने के लिये मोहम्मद साहब के कुछ साथीयों ने अली को खिलाफत स्वीकार करने के लिए राजी करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने प्रस्ताव को अली ने अस्वीकार कर दिया।
विद्रोहियों ने मदीने वालों को एक दिन में ख़लीफ़ा मुकर्रर करने की चेतावनी देते हुये ऐसा न कर पाने पर सज़ा भुगतने की डेडलाइन दी। समस्या के हल के लिये मुस्लिम मस्जिदे नबवी में 18 जून, 656 को खलीफा नियुक्त करने के लिये एकत्र हुये और अली को ख़लीफ़ा बनने के लिये राज़ी करने लगे।
प्रारंभ में अली ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया क्योंकि सिर्फ उनके सबसे सशक्त समर्थक विद्रोही थे।(इस कथन के अनुसार अली की विद्रोहियों से सांठगांठ थी पर कोई विद्वान यह साबित नहीं कर पाया कि अली प्रत्यक्ष रूप से विद्रोहियों से मिले हुये थे) हालांकि, जब मदीना के निवासियों के अलावा मोहम्मद साहब के कुछ उल्लेखनीय साथीयों ने उन्हें प्रस्ताव स्वीकार करने का आग्रह किया जिसे अंततः स्वीकार कर लिया।
एक सहाबी अबू मेखनाफ के अनुसार तलहा पहले प्रमुख साथी थे जिन्होंने अली को साथ देने का भरोसा दिलाया पर कई इतिहासकार लिखते हैं कि जुबैर व तलहा ने दावा किया कि उन्हें साथ देने के लिये विवस किया गया व अनिच्छा से अली का समर्थन किया था।
तलहा व जुबेर का यह दावा इतिहासकार अमान्य करते हैं कि जब मस्ज़िद में सार्वजनिक उद्घोषणा की गई हो तो बलात समर्थन की बात असत्य है।
 भले ही अली ने इन दावों को खारिज कर दिया और जोर देकर कहा कि उन्होंने उन्हें स्वेच्छा से समर्थन दिया है पर आयशा भी अली को ख़लीफ़ा बनाने के विरुद्ध थी।एक इतिहासकार विल्फेर्ड मैडेलंग का मानना ​​है कि बलपूर्वक बात मनवाने व समर्थन के दावे में सत्यता प्रतीत नहीं होती। 
उधर उस्मान के रिश्तेदार माविया शिरिया भाग गया उसने अली का समर्थन नहीं किया। कुछ लोग जो अली के समर्थन में नहीं थे वे मस्ज़िद में ही नहीं आये अपने घर पर ही रहे इनमें साद इब्न अबु वक्कास,अब्दुल्ला इब्ने उमर को रोक दिया गया था लेकिन दोनों ने अली को आश्वासन दिया कि वे उनका समर्थन नहीं कर पा रहे पर उनके खिलाफ विद्रोह भी नहीं करेंगे।
अली के समय मे खिलाफत पश्चिम में मिस्र से पूर्व में ईरानी की पहाड़ियों तक फैली हुई थी।
अली ने खलीफा बनने के तुरंत बाद उन सभी प्रांतीय गवर्नरों को बर्खास्त कर दिया जिन्हें उस्मान ने नियुक्त किया था और खुद के भरोसेमंद सहयोगियों को नियुक्त किया।
अली ने मुगीरा इब्न शुबा और इब्न अब्बास का भी विरोध किया जो वास्तव में अली के शुभचिंतक थे और बिना भेदभाव व बदले की भावना से शासन संचालन के पक्षधर थे। अली अपने अधिकार और उनके धार्मिक मिशन से बहुत  गहरा संबन्ध रखते थे थोड़े गुस्सेल व जिद्दी भी। उन्होंने राजनीतिक योग्यता के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया जिससे आने वाले समय में बहुत मुसीबतों का सामना करना पड़ा।
सब से पहले मुआविया (शिरिया का गवर्नर) ने विद्रोह किया। अली मुस्लिम राजनीति में असंतोष,विद्रोह और विवाद को हमेशा के लिये शांत करना चाहते थे।
निजामे इलाही की स्थापना हेतु खिलाफत की रिआया (जनता) से सहयोग की अपील की व विध्वंसक गतिविधियों के संचालकों को कठोर कार्यवाही की चेतावनी भी दी।

पहला फ़ितना (विद्रोह) :-
आयशा, तल्हा,ज़ुबैर व मुआवियाह जो उस्मान के हत्यारों को सज़ा देने की मांग कर रहे थे ने विद्रोह कर दिया।
विद्रोहियों ने बसरा के करीब डेरा डाल दिया कई वार्ता कई दिनों तक चली और बाद में युद्ध हुआ और दोनों ही तरफ काफी जनहानि हुई। 
भ्रम में ऊंट की लड़ाई 656 में शुरू हुई, जहां अली विजयी हुये। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उन्होंने इस मुद्दे का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को खोजने के लिये किया।
 विद्रोहियों ने कहा कि कुरआन और सुन्नत के अनुसार शासन नहीं करने के आरोप में उस्मान को मारा गया था, इसलिये बदले की कार्यवाही की कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ का मत था कि उस्मान के हत्यारे विद्रोहियों को नियंत्रित करने या दंडित करने के लिये अली के पास पर्याप्त बल नहीं था जबकि अन्य कहते हैं कि अली ने विद्रोहियों के तर्क को स्वीकार किया या कम से कम विचार नहीं किया कि उस्मान एक ख़लीफ़ा थे औऱ उनके हत्यारों के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं की।
ऐसी परिस्थितियों में, एक विवाद हुआ जिसने मुस्लिम इतिहास में पहला गृह युद्ध शुरू किया।
उस्मान के समर्थक उस्मानी नाम से जाने जाने वाले कुछ मुसलमानों ने उनको अंत तक एक सही और हक़ खलीफा माना जिसे अवैध तरीके से मार दिया गया कुछ अन्य जिन्हें शियाने अली (अली की टोली) के नाम से जाना जाता है का मानना ​​था कि उस्मान गलत नीति पर था उन्होंने खलीफा पद का नाजायज उपयोग किया।उनकी सत्ता को जब्त किया जाना उचित था। इस प्रकार अली सिर्फ सही और सच्चे इमाम थे और उनके विरोधी नास्तिक।  इस गृह युद्ध ने मुस्लिम समुदाय के भीतर स्थायी विभाजन किया, जिनके पास खलीफा पर कब्जा करने का वैध अधिकार था। 
प्रथम फिटना

अली का शासनकाल 656 से 661 
उस्मान की हत्या के बाद अली के खलीफा बनने के दौरान जारी रहा (इस गृह युद्ध जिसे अक्सर फितना कहा जाता है) इस्लामी उम्मह (राष्ट्र) की प्रारंभिक एकता का अंत हो गया व दो भागों में बंट गई।
1 उस्मानी (सुन्नी)
2 शियाने अली (शिया)
अली मदीना छोड़ कर कूफ़ा (इराक़) चले गये और कूफ़ा को ही अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने बसरा (इराक़) के गवर्नर अब्दुल्लाह इब्न अब्बास को नियुक्त कर दिया।
शिरिया पूर्व में बेंजाटीन (रोमन)साम्राज्य के अधीन था व इराक़ सासानी (फ़ारसी) साम्राज्य के क्षेत्र में था। जिन में लंबी अवधि से संघर्ष व युद्ध चल रहे थे
इराक व शिरिया के बीच गहरे मतभेद थे।
इराक़ी चाहते थे कि नव स्थापित इस्लामी राज्य की राजधानी कुफा में हो ताकि वे अपने क्षेत्र में अधिक राजस्व ला सकें और सीरिया का विरोध कर सकें।
उन्होंने अली को इराक आकर कुफा में राजधानी स्थापित करने के लिये राज़ी कर लिया।
बाद में शिरिया (लेवेंट) के गवर्नर माविया/मुआविया (उस्मान का चचेरा भाई,अबूसुफियान का बेटा) स्वतंत्र रियासत बनाना चाहता था उसने उस्मानी (सुन्नी) सेना को संगठित करना शुरू कर दिया।
अली ने भी अपनी सेनाओं को उत्तर में स्थानांतरित कर दिया और दोनों ने सौ से अधिक दिनों तक सिफिन में डेरा डाले रखा।
माविया व अली के मध्य पत्रों व मध्यस्थों के माध्यम से वार्ताएँ हुईं लेकिन टकराव कम नहीं हो सका और 657 में सिफिन की लड़ाई शुरू हो गई।
एक सप्ताह की हिंसक लड़ाई के बाद लैलातुल हरिर (कड़वाहट की रात) के नाम से जाने जानी वाली रात को, मुवायाह की सेना मार्गांतरित होने के बिंदु पर थी जब अमरत ​​इब्न अल आस ने माविया को अपने सैनिकों को धार्मिक उपदेश देने की की सलाह दी ( अली की सेना में असहमति और भ्रम पैदा करने के लिए या तो अपने भाषणों पर कुरान की आयतों (छंदों) जो उस समय चमड़े के पत्रों पर लिखित थी के माध्यम से संबलन किये जाने की सलाह दी।
आखिर में दोनों सेनाएं इस बात को सुलझाने के लिए सहमत हुईं कि मध्यस्थता से खलीफा चुना जाना चाहिये। 
लड़ने के लिए अली की सेना में सबसे बड़ा गिरोह खारजियों का था जो सन्धि के विरुद्ध युद्ध द्वारा फैसला करने का पक्षधर था,अली से अलग हो गया।
अली की सेना में आगे विभाजन हुआ है। 
अशद इब्न क्युस और कुछ अन्य ने अली के प्रतिनिधि अब्दुल्लाह इब्न अब्बास और मलिक अल- अशतर की जगह अबू मूसा अशरी को प्रतिनिधि चुनने के लिये जोर दिया। अंत में अली को अबू मूसा को स्वीकार करना पड़ा। अमरत ​​इब्न अल- आस को माविया ने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया। 
सात महीने बाद दोनों मध्यस्थों ने फरवरी 658 में जॉर्डन में मान के 10 मील उत्तर पश्चिम में मुलाकात की।अमरत ​​इब्न अल आस व अबू मुसा अशरी ने फैसला किया कि माविया और अली को छोड़ कर किसी तीसरे व्यक्ति को मुसलमान जगत चुनाव द्वारा ख़लीफ़ा चुन लें।
अली व उसके साथियों ने इस फैसले का विरोध इस बात पर किया कि ख़लीफ़ा अली के समान(समकक्ष) विद्रोही माविया को कैसे माना जा सकता है।
अली व माविया के मध्य चर्चा करने के लिये दाऊमित उल जंदल में मध्यस्थों ने दैनिक बैठकों की एक श्रृंखला की व्यवस्था की।
अमरत बिन अल-आस व अबू मुसा अल-अशरी अली और मुवाया दोनों को वंचित कर मुसलमानों द्वारा चुनाव माध्यम से नया ख़लीफ़ा चुनने के फैसले पर बने रहे पर जनवरी 659 में नये खलीफ के चयन पर चर्चा के लिये बैठक हुई तो अमरत ​​ने माविया का समर्थन किया जबकि अबू मूसा अपने दामाद अब्दुल्ला इब्न उमर को ख़लीफ़ा बनाना चाहते थे। अब्दुल्ला इब्ने उमर ने चुनाव लड़ने से मना कर अली का समर्थन किया।
बाद में सूरा को नया ख़लीफ़ा चुनने के लिये सर्वसम्मति से अधिकृत किया गया।
  अल आस व अबू मूसा ने सूरा के फैसले अनुसार माविया को ख़लीफ़ा घोषित कर दिया। अली ने उनके फैसले को मानने से इंकार कर दिया कि यह कुरान और सुन्नत के विपरीत है।
अली ने नई सेना व्यवस्थित करने की कोशिश की पर मलिक अशतर की अगुआई में कुरद,अंसार और उनके कुछ  साथी माविया के वफादार बने रहे। 
इसने अली की स्थिति अपने समर्थकों के बीच कमजोर होती चली गई परिणामस्वरूप अली की सेना का विघटन होता गया और माविया की स्थिति सुदृढ़। इस प्रकार से ख़िलाफ़ते उमय्यद की स्थापना हुई।
अली के सबसे मुखर विरोधियों में वही लोग थे जो पहले उन के कट्टर समर्थक थे।
सिफ़्फ़ीन के युद्धविराम की घटना से नाराज हो कर उन्होंने अली के ही विरुद्ध जंग छेड़ दी।
इस समूह को खारीजियों (जो लोग छोड़ते हैं/बाहरी) के रूप में जाना जाता है।
 659 में अली की सेना और खारीजियों के बीच नहरवन की लड़ाई हुई। खारीजियों ने अली के समर्थकों और अन्य मुस्लिमों की हत्या शुरू कर दी। नहरवन के युद्ध मे अली विजेता हुये पर निरंतर संघर्ष के कारण उनकी स्थिति व पकड़ कमज़ोर होती गई। इराक़ियों व अन्य विद्रोहियों से निपटने के दौरान अनुशासित सेना और प्रभावी राज्य संस्थानों का निर्माण करना मुश्किल होता गया। खारीजियों से लड़ने में काफी समय लगा वो पूर्वी मोर्चे पर राज्य का विस्तार नहीं कर पाये।
लगभग उसी समय, मिस्र में अशांति पैदा हुई राज्यपाल मुहम्मद इब्न अबुबक्र (आइशा के भाई और इस्लाम के पहले खलीफ अबूबक्र के पुत्र) को हटा कर कयूस को राज्यपाल बना दिया। माविया ने मिस्र को जीतने के लिए अमरत इब्न अल आस को भेजा और सफलता प्राप्त की।
अमरत ​​ने रोमनों से अठारह साल पहले मिस्र छीना था किसी कारणवश उस्मान ने उन्हें बर्खास्त कर दिया। मुहम्मद इब्न अबूबक्र मिस्र में समर्थन नहीं जुटा पाये।
अगले वर्षों में माविया ने इराक के कई शहरों पर कब्जा कर लिया जिसे अली के गवर्नर रोकने में असमर्थ रहे। मिस्र,हिजाज,यमन व इराक़ के कई अन्य क्षेत्रों पर माविया का आधिपत्य हो गया। अली की खिलाफत के आखिरी साल में, कुफा और बसरा के लोग भी माविया का समर्थन करने लगे। 
हालांकि अली के प्रति लोगों का दिली लगाव था पर माविया की शासन व्यवस्था ने उन्हें प्रभावित किया।
कुछ ही लोग मानते थे कि अली  मोहम्मद साहब के बाद सबसे अच्छे मुस्लिम थे और केवल उनको ही शासन करने का अधिकार था।
अली को न केवल एक योद्धा और नेता के रूप में सम्मान किया जाता है बल्कि एक लेखक और धार्मिक शासक के रूप में,एक बेहतरीन धर्मशास्त्री और तंत्रिका विज्ञान व अंक विज्ञान,कानून और रहस्यवाद,अरबी व्याकरण और राजनीति विज्ञान के गहन ज्ञाता के रूप में भी जाना जाता है।
एक हदीस के मुताबिक मोहम्मद साहब ने कहा "मैं ज्ञान का शहर हूं और अली उसका द्वार।" मुस्लिम अली को एक प्रमुख प्राधिकरण मानते हैं इस्लाम। शिया के मुताबिक, अली ने खुद ही यह गवाही दी।
अली ने कुरान की आयतों की तफसीर (शाब्दिक स्पष्टीकरण) और ताविल (आध्यात्मिक exegesis ), nasikh, मताशबीह (निश्चित और संदिग्ध) को परिभाषित किया।
मुस्लिम स्कॉलर हुसैन नासिर के अनुसार अली को इस्लामी धर्मशास्त्र स्थापित करने का श्रेय जाता है एकेश्वरवाद के संबंध तर्क संगत सबूतों के साथ परिभाषा दी है।
इब्न अबु अल हदीद के अनुसार सिद्धांत के निर्धारण के लिये और दिव्यता से संबंधित मामलों से निपटने की  कला अली में थी।
ग्रीस व अन्य क्षेत्रों की कला,सभ्यता व संस्कृति को समाहित कर संरक्षित किया एवं ग्रीस-अरबों के बीच व्यापारिक संबंध स्थापित करने वाले प्रथम व्यक्ति अली थे।
बाद में इस्लामिक दर्शन, विशेष रूप से मुल्ला सदरा और उसके अनुयायियों की शिक्षाओं में,आलिम,ताबेईन तबे ताबेईन की तरह अली के ज्ञान की किरणें कहानियों और उपदेशों को आध्यात्मिक ज्ञान के दिव्य दर्शन के केंद्रीय स्रोतों के रूप में तेजी से फैलने लगा। इस्लामिक ज्ञान केंद्र सदरा के सदस्य अली को इस्लाम के सर्वोच्च आध्यात्मिक गुरु व  चिकित्सक की मान्यता देते हैं। हेनरी कॉर्बिन के अनुसार, नहज अल-बलागत को शिया विचारकों द्वारा विशेष रूप से 1500 ईस्वी सन के बाद दिये गये (परिष्कृत किये गये) सिद्धांतों के सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में से एक माना जा सकता है। इसका प्रभाव शब्दों के तार्किक समन्वय व  कटौती के रूप मे महसूस किया जा सकता है। 
निष्कर्षों और अरबी में कुछ तकनीकी शर्तों का निर्माण जो साहित्यिक और दार्शनिक भाषा में स्वतंत्र रूप से यूनानी ग्रंथों का अरबी में अनुवाद करवाया गया।
इसके अलावा कुछ छिपे हुये या गुप्त विज्ञान जैसे जाफर, इस्लामी अंक विज्ञान, और अरबी वर्णमाला के अक्षरों के प्रतीकात्मक महत्व के विज्ञान को अली द्वारा स्थापित किया गया। जिसके माध्यम से उन्होंने अल- जाफर और अल-जामिया की स्थापना की।
अली अरबी साहित्य के एक महान विद्वान,कुशल वक्ता अरबी व्याकरण और राजनीति के प्रकाण्ड ज्ञाता थे। अली की कई छोटी कहानियां सामान्य इस्लामी संस्कृति का हिस्सा बन गई और दैनिक जीवन में उत्साह और कहानियों के रूप में आज भी कही सुनी जाती हैं। साहित्यिक कार्यों का आधार बन गये,कई भाषाओं में काव्य कविता में एकीकृत किए गये हैं।
 8 वीं शताब्दी के साहित्यकारों जैसे 'अब्द अल हामिद इब्न याह्या,अल अमीरी ने अली के उपदेशों और कहानियों के अद्वितीय उच्चारण को पढ़ा अल जहिज़ ने किया था। उमय्यद के दिवान के कर्मचारियों,नेताओं ने भी अपने (भाषा सुधार) के लिये अली के उपदेशों को पढ़ा। अली के शब्दों और लेखन का सबसे प्रसिद्ध चयन 10 वीं शताब्दी के शिया विद्वान, अल-शरीफ अल-रेजीयो द्वारा नहज अल-बलागत (लोकिकता का शिखर) नामक पुस्तक में इकट्ठा किया  है जिन्होंने उन्हें अपने एकवचन रोटोरिकल के लिये चुना है।
अली का अलिफ़ व नुक़्ते के बिना सन्देश पढ़ना।
पुस्तक में उद्धृत उपदेशों के बीच नोट अनदेखा उपदेश के साथ ही अलिफ़ के उपदेश भी हैं, हदीष के मुताबिक मोहम्मद साहब व उनके कुछ साथीयों ने बोलने में अक्षरों की भूमिका पर चर्चा कर निष्कर्ष निकाला कि बोलने में अलिफ़ का सबसे बड़ा योगदान है और बिंदीदार निशान (नुक्ता) भी महत्वपूर्ण थे इस बीच अली ने दो लंबे अचूक उपदेशों को पढ़ा एक शेल लेखक लैंग्रोउडी के मुताबिक, अलिफ वर्ण का उपयोग किए बिना व दूसरे को बिना नुक्ते के उपयोग किये गये अक्षरों के, गहरे और वाक्प्रचार अवधारणाओं के बिना पूर्ण किया।
 एक ईसाई लेखक जॉर्ज जोर्डक ने कहा कि अलिफ़ और नुक़्ते के बिना उपदेश साहित्यिक कृति के रूप में माना जाना चाहिये।
अली को गरीब और अनाथों से गहरी सहानुभूति, सामाजिक न्याय के उद्देश्य से उन्होंने अपने खलीफाकाल के दौरान समान समतावादी नीतियों का पालन किया। उन्हें यह कहते थे कि
यदि ईश्वर किसी भी व्यक्ति को धन और समृद्धि प्रदान करता है तो उसे ज़रूरतमंद व रिश्तेदारों के प्रति दयालुता दिखानी चाहिये। आपदा,परेशानी,दुर्भाग्य और पीड़ा के समय मदद करनी चाहिये और ईमानदार लोगों को अपने ऋण को समाप्त करने में सहायता करनी चाहिये।
एक किस्सा है कि(किताब  अल काफी) में लिखा है कि अली इब्न अबुतालिब को बगदाद के नज़दीक शहद और अंजीर पेश किये किये गये पर, उसने अपने अधिकारियों को अनाथों को लाने का आदेश दिया ताकि कुछ हिस्सा उनमें बाँट कर खाया जा सके।

पेंशन की शुरुआत
रिटायरमेंट के बाद जो पेंशन मिलती है इसकी शुरुआत सबसे पहले इस्लाम के चौथे खलीफा हजरत अली  द्वारा की गई पहली पेंशन एक यहूदी को दी गई।
एक बार अली ने अरब की चिल चिलाती घूप मे एक बूढे इंसान को कहीं जाते देखा औऱ साथी से पूछने पर मालूम हुआ  पूछा वह अजनबी कौन है तो पता चला कि वह एक यहूदी था खिलाफ़ाओं के मालखाने का हिसाब रखा करता था जिसे बाद में  कम दिखने की वजह से बर्खास्त कर दिया गया जो अब ये मजदूरी करने के लिए भटक रहा है।
"कमाल है जब तक इसके अन्दर काम करने की सलाहियत थी तो हुकमरानो ने काम लिया और जब बिनाई मे कमी आई तो निकाल दिया" अली
और उसी दिन से उस की मासिक पेंशन शुरू की गई।
जिगर चूरूवी

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