शरियत - इस्लाम धर्म में ग्रंथ कुरआन और हदीश (मौहम्मद साहब द्वारा जारी वक्तव्य/ शिक्षाएं/ संदर्भ) को शरीयत (शरीया कानून/ इस्लामी कानून) कहते हैं। कानून बनाने की प्रक्रिया को फ़िक़्ह (मुस्लिम न्यायशास्त्र) कहा जाता है। शरीयत कानून जीवन के लगभग प्रत्येक विषय पर प्रकाश डालते हैं। आज से 1400 साल पहले की सामाजिक व्यवस्था को मानवीय मूल्यों के आधार पर संयमित करने हेतु निर्मित संविधान ही शरिया कानून हैं। संपूर्ण संसार में समय परिस्थिति और काल के अनुसार नियम/कानून बदलते रहे हैं परंतु शरीयत के प्रति कट्टर विचारधारा के कारण वर्तमान समय में इसके कुछ अंश असंगत होते जा रहे हैं जेसे गुलाम (दास) को खरीदने, बेचने, वसीयत (उत्तराधिकार) में लेने, उपहार में देने और उस से कोई भी कार्य करवाने का अधिकार उसके मालिक को होता है जो आज के लोकतांत्रिक दौर में पूर्णतया असंगत है। हालांकि मौहम्मद साहब ने यह आदेश भी दिया है कि गुलामों को स्वतंत्र करवाना सब से बड़ा पुण्य कर्म है। उन्होंने कई गुलाम आजाद भी करवाए जैसे बिलाल हब्शी। स्त्री अधिकार और स्वतंत्रता के प्रति भी शरिया में असंगत नियम हैं। इस्लाम धर्म के अनुसार शरीयत ईश्वर प्रदत कानून हैं। सुन्नी और शिया मुस्लिम में शरियत कानूनो में भिन्नता पाई जाती है। न्यायाधीशों को काज़ी कहा जाता है। कुछ स्थानों पर इमाम न्यायाधीशों का काम करते हैं परंतु अन्य जगहों पर उनका काम केवल अध्ययन करना - कराना और धार्मिक क्रियाएं संचालित करवाना होता है। मुसलमानो में शरीयत मुस्लिम समाज में रहने के तौर-तरीकों, नियमों के रूप में कानून की भूमिका निभाता है। पूरा समाज इन्हीं शरीयत कानूनो के अनुसार चलता है।
ईश्वर और उसके प्रति विश्वास
मोमिन/मुस्लिम - शरिया कानून के अनुसार जो व्यक्ति एक ईश्वर, उसके दूतों, चार पवित्र ग्रंथ, जन्नत (स्वर्ग) जहन्नम (नरक), फरिश्ते,(यमदूत) अच्छी बुरी किस्मत, अंतिम दिन (कयामत) पर विश्वास रखता है मोमिन कहलाता है।मुस्लिम (मानने वाला) /मोमिन (विश्वास करने वाला) - वह व्यक्ति जो एक ईश्वर और उसके दूत मौहम्मद साहब के प्रति अटूट विश्वास रखता है और हदीश और कुरआन की शिक्षाओं के अनुसार जीवन व्यतीत करता है मुस्लिम/मोमिन कहलाता है।
मुर्तद (बदलने वाला) - जो व्यक्ति पहले/जन्मजात मुस्लिम था परंतु अब इस्लाम धर्म से बदल गया और अन्य धर्म अपना लिया मुर्तद कहलाता है।
मुनाफिक - वो व्यक्ति जो भौतिक रूप से (दिखावे) में मुस्लिम हो और व्यवहार में विधर्मी मूनाफिक कहलाता है।
काफिर (मना करने वाला)- ईश्वर को नहीं मानने वाला व्यक्ति काफिर कहलाता है।
धिम्मी (बहुदेव वादी) - एक ईश्वर से अधिक ईश्वर को नहीं मानने वाला व्यक्ति धिम्मी कहलाता है।
संबंध (कबीला,परिवार,मित्र,रिश्तेदार,पड़ोस) संतान और माता - पिता के दायित्व एवं अधिकार इस्लाम धर्म में शरियत कानून के अनुसार माता - पिता बच्चे के उत्तम विधि से पालन पोषण और तरबियत के लिए आबंधित हैं। उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना और उत्तम शिक्षा और संस्कार प्रदान करना माता और पिता दोनो की संयुक्त जिम्मेदारी है। इस्लाम में पारिवारिक व्यवस्था पितृ सत्तात्मक होती है परंतु आदमी की पहचान की पुष्टि मां से ही होती है। यहां हर कोई निर्धारित संबधों के बंधा हुआ है। आदर्शात्मक स्थिति और पारिवारिक व्यवस्था के लिए नियम कानून बने हुए हैं। हालांकि इस्लाम में बेटी की शादी के बाद वह अपने पति की जिम्मेदारी हो जाती है और माता - पिता पर कोई विशेष जिम्मेदारी नहीं होती है। इसी प्रकार विवाहित पुत्र विवाह के तुरंत बाद पत्नी के साथ पृथक घर ले कर रहने लगता है। पिता के घर पर नहीं रहते हैं। संतान के लिए माता - पिता की सेवा करना अनिवार्य है। हदीश के अनुसार माता के कदमों में जन्नत है और पिता जन्नत का दरवाजा है। पड़ोसी से उत्तम व्यवहार और उसके प्रति आदर भावना रखना अनिवार्य है।
विवाह और पति पत्नी संबंध - कुरआन मजीद की सुराह ए निशा (स्त्री का अध्याय) के अनुसार पति - पत्नी दोनों एक दूसरे के वस्त्र (लिबास) हैं।
अल निकाह मिन सुन्नति फामन रगिबा (बेशक निकाह मेरी प्रिय सुन्नत में से एक है) - हजरत मोहम्मद साहब
निकाह : निकाह का शाब्दिक अर्थ है जमा करना, मिलाना, गांठ बांधना और परस्पर संबंध बनाना हैं। शरीयत के अनुसार वर और वधू के बीच अनुबंध (अकद) जिससे वती (सोहबत/ शारिरिक संबंध बनाना) हलाल (मान्य) हो जाता है। इस्लाम धर्म में निकाह शादी का क़ानूनी अनुबंध है। अरबी भाषा में इसे अक़्द अल-क़िरान अर्थात विबाह का अनुबंध और फारसी और उर्दू में इसे निकाह कहा जाता है। वर और वधु के बीच शरिया के अनुसार एक अनुबंध (करार नामा) है। निकाह के लिये दोनों पक्षों की अनुमती होना आवश्यक है। वर को निकाह के एवज में मेहर (स्त्रीधन) का भुगतान करना होता है। इस्लाम में निकाह एक संस्कार के स्थान पर पारस्परिक अनुबंध है जिसके अनुसार पत्नी का पति एवं पति का पत्नी के शरीर पर अधिकार होता है। शरीयत कानून के अनुसार निकाह के चार प्रकार होते हैं - सहीह, बातिल, फ़ासिद और मुता।इन विवाहों में निर्धारित शर्तों और उपबंधों का पालन करना आवश्यक है। विवाह के लिए दोनों पक्षों में क्षमता होनी चाहिए कि वे मानसिक रूप से स्वस्थ, वयस्क तथा स्वतंत्र सहमति देने में सक्षम हों। पागल/अक्षम/अवयस्क वर/वधु की स्थिति में अभिभावकों द्वारा सहमति प्रदान की जाती है।
सहीह निकाह (वैध विवाह) - यह विवाह का सबसे वैध और मान्य रूप है जो शरीयत के मानक अनुसार होता है। सहीह विवाह में दोनों पक्ष एक स्थायी और मजबूत संबंध स्थापित करते हैं जिसका उद्देश्य आजीवन पति - पत्नी के रूप में साथ रहना है। एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव रखा जाता है जिसे दूसरे पक्ष द्वारा स्वीकार किया जाता है।
बातिल (झूठा/अमान्य विवाह)निकाह - , वह विवाह जो वैध विवाह के लिए आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं करता बातिल निकाह कहलाता है। ऐसे विवाह में कोई कानूनी अधिकार या दायित्व मान्यता प्राप्त नहीं होते हैं। निम्न प्रकार के विवाह अमान्य माने जाते हैं। इसमें रक्त संबंधियों, मां, बहन, बेटी, मौसी (खाला), बुआ (फूफी), भतीजी, भांजी, धाय माँ, धाय मां की बेटी, एक मां का दूध पीने वाली संतान, पांचवीं पत्नी या किसी अन्य की पत्नी से निकाह नहीं किया जा सकता। शिया कानून के तहत इद्दत (तलाक या पति की मृत्यु के बाद प्रतीक्षा की अवधि) से गुजर रही महिला से विवाह बातिल निकाह में शामिल हैं। शून्य (बातिल) विवाह में शामिल पक्षों को कोई कानूनी दायित्व या अधिकार नहीं मिलते। पत्नी को दहेज या भरण-पोषण की कोई हक नहीं होता और इस विवाह से पैदा हुई संतान नाजायज हाेगी एवं उसे संपत्ति का उत्तराधिकार पाने का कोई अधिकार नहीं होगा। विवाह विच्छेद हेतु तलाक प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती।
फ़ासिद निकाह (अनियमित विवाह) - सुन्नी मतानुसार यह वैध विवाह हेतु आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं करने वाला विवाह। इस तरह के विवाह की अनियमितताओं को दूर कर वैध विवाह में बदला जा सकता है। शिया कानून वैध और अमान्य विवाहों के बीच कोई मध्य मार्ग प्रदान नहीं करता है। बिना गवाहों के विवाह (गवाह बना कर वैधता), पांचवीं पत्नी से विवाह (पूर्व की चार में से एक को तलाक दे कर वैधता), इद्दत अवधि विवाह (इद्दत अवधि की समाप्ति के बाद पुनः विवाह की वैधता) अनियमित विवाह की स्थिति में पत्नी मेहर की हकदार है और उसे इस्लामी कानून के तहत इद्दत से गुजरना होगा। ऐसी शादी से पैदा हुए बच्चे वैध हैं।
अस्थायी विवाह (मुता निकाह) - शिया संप्रदाय में प्रचलित विवाह जो पूर्णतया अस्थाई होता है मुता विवाह अनुबंध है। इसे सुन्नी मुसलमानों द्वारा मान्यता नहीं दी जाती है। इस तरह का विवाह एक निश्चित अवधि का विवाह अनुबंध है जो विवाह की अवधि (कुछ घंटों से वर्षो तक) को निर्दिष्ट करता है। अनुबंध की अवधि समाप्त होने पर बिना तलाक की औपचारिकता के विवाह स्वतः ही समाप्त हो जाता है। मुता विवाह व्यक्तियों को इस्लामी कानून का उल्लंघन किए बिना अस्थायी वैवाहिक संबंध स्थापित करने का अवसर प्रदान करता है। पुरुष का घर से दूर होने पर (व्यवसायिक कार्य या यात्रा) या महिला को धन की आवश्यकता होने पर अस्थायी विवाह एक समाधान हो सकता है। मुता विवाह को स्थायी विवाह के समान नहीं माना जा डाकता है और इसमें पक्षकारों के अधिकार और दायित्व स्थायी विवाह से भिन्न होते हैं।
निकाह के बाद विवाह प्रमाण पत्र का नमूनाआवश्यक प्रक्रिया - निकाह हेतु एक वकील (मध्यस्थ) दो गवाह (अनुबंध के साक्षी) और वर वधु पक्ष की अनुमति आवशयक है। दोनो पक्षों की स्वतंत्र सहमति विवाह सभा में एक वकील और दो गवाहों के सामने होनी चाहिए। वकील और गवाह वयस्क एवं स्वस्थ चित्त होने चाहिए। शिया कानून में किसी गवाह की आवश्यकता नहीं है। दोनो पक्षों के हां कहने के बाद अंगूठा निशानी/हस्ताक्षर के बाद विवाह प्रमाण पत्र के रूप में निकाह नामा दिया जाता है।
मेहर - मेहर के प्रकार 1. मेहर ए मोअज्जल तत्काल अदायगी) 2. मेहर ए मिसल ऋण मेहर(अनुपातिक आधार पर उधार रखी गई मेहर)
न्यूनतम मेहर (मेहर मुअज्जल) सात तौला चांदी की कीमत के बराबर/चांदी या प्रचलित मुद्रा (सिक्का रायजुल वक्त), इसके अलावा वधु द्वारा चाही गई राशि/संपत्ति/वस्तु/जानवर/भूमि आदि जो वर पक्ष को स्वीकार्य हो। वधु की अनुमति से मेहर उधार भी रखा जा सकता है जो वधु के चाहने पर तत्काल देय होता है। मुस्लिम न्यायशास्त्र के अनुसार विवाह में निकाह हेतु मेहर धनराशि/संपत्ति जो विवाह के समय वर पक्ष द्वारा वधु पक्ष को देय होता है। यह प्रचलित स्थानीय मुद्रा, आभूषण, सामग्री, या जमीन, पशु आदि के रूप में हो सकती है। इस धन पर केवल महिला का अधिकार होता है जिसे वह स्वतंत्रता पूर्वक इच्छा अनुसार व्यय कर सकती है। मोहम्मद साहब के पहले अरब में वधू मूल्य (उदक) लड़की के अभिभावकों को देय था जो इस्लाम के बाद स्त्रीधन (मेहर) हो गया। यह धन स्त्री के बूरे दिनों (तलाक, वैधव्य) की स्थिति में उसका सहारा होता है। पति द्वारा तलाक की स्थिति उल्लेखित मेहर यदि उधार है तो तुरंत देनी होगी। तय मेहर विवाह के पहले, विवाह के अवसर पर या उसके बाद दिया जा सकता है और वैवाहिक जीवन के अंतर्गत इसमें वृद्धि/कमी की जा सकती है। यदि पति अवयस्क हो तो मेहर उसके पिता द्वारा निश्चित किया जा सकता है जिसका भुगतान पति द्वारा किया जाता है। शिया संप्रदाय में यदि वर मेहर देने में असमर्थ रहा तो पिता व्यक्तिगत रूप से भुगतान का उत्तरदायी होगा। मेहर राशि निश्चित नहीं होने पर पत्नी को (महर ए मिसल/उचित मेहर) का भुगतान होगा जो उसके परिवार में वर की बहनों को प्राप्त मेहर के अनुपात एवं रीति या दोनों पक्ष की स्थिति के आधार पर निर्धारित किया जायेगा। पत्नी स्वेच्छा से पूरी मेहर या मेहर का कोई भाग, पति या उत्तराधिकारियों के पक्ष में छोड़/परित्याग कर सकती है। जिसे मेहर बक्शना कहते हैं। तात्कालिक मेहर का भुगतान ना करने पर पत्नी पति से संभोग के लिए मना कर सकती है। मेहर के भुगतान नहीं करने की स्थिति में पत्नी की मृत्यु होने पर उसके उत्तराधिकारी इस हेतु उस तिथि से जब तात्कालिक मेहर की माँग की गई हो या तलाक के कारण वैवाहिक संबंध विच्छेद हुआ हो, उसके तीन वर्ष की अवधि के भीतर वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। मेहर भुगतान से पूर्व पति की मृत्यु की स्थिति में उसकी संपत्ति में से पहले मेहर का भुगतान कर शेष संपत्ति का उत्तराधिकारी वसीयत अनुसार बंटवारा करेंगे। यदि उसके अधिकार में पति की संपत्ति हो जिसे उसने वैध रूप से बिना धोखे के या दबाव के मेहर के बदले में हस्तगत किया हो कि वह किराए और मुनाफे से स्वयं की संतुष्टि कर सके, तो वह अपने पति के दूसरे हकदारों के विरुद्ध उस पर काबिज होगी।
तलाक मेरी दृष्टि में सब से घटिया शब्द है। - हजरत मोहम्मद साहब
तलाक में पुरुष अपनी बीवी से अलग होने का फैसला करता है, और खुला में पत्नी अपने पति से अलग होने का फैसला करती है।
तलाक (पुरुष) - एक भ्रांति के अनुसार मुस्लिम समाज में तीन बार तलाक-तलाक-तलाक बोलने से विवाह विच्छेद हो जाता है जो एकदम गलत है। इस्लाम में शरियत के अनुसार इस प्रकार से तलाक नहीं हो सकता। इस्लामी कानून के अनुसार तलाक कई प्रकार से लिया जा सकता है। तलाक की प्रक्रिया पति शुरू करता है और यदि शुरुआत पत्नी सरती है तो वह खुला है। फस्ख - दारुल कजात (धार्मिक अदालत) में उपस्थित हो कर विवाह विच्छेद की अर्जी देने की प्रक्रिया को फस्ख कहते हैं। तलाक के नियम शरिया के माध्यम से लागू होते हैं जो शिया और सुन्नी मुसलमानों में थोड़ी भिन्नता के साथ लगभग समान ही हैं। इस्लाम में पति और पत्नी दोनों को कई तरह के अधिकार मिले हुए हैं जिसमें तलाक का अधिकार भी शामिल है। तलाक तीन प्रकार के होते हैं, 01. तलाक-ए-हसन, 02. तलाक-ए-अहसन और 03. तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक)।
तलाक-ए-हसन (विवाह विच्छेद की उत्तम विधि) - तलाक-ए-हसन में पति अपनी पत्नी को 3 महीने में तलाक देता है। वह पत्नी को हर एक महीने के अंतराल पर एक बार तलाक कहता है। इसमें ये शर्त भी शामिल है कि जब पति पहली बार पत्नी को तलाक बोलता है तब बीवी का मासिक धर्म नहीं चल रहा हो। फिर दूसरी बार तलाक बोलने से पहले और उसके बाद तक दोनों के बीच सुलह कराने की कोशिशें की जाती हैं। अगर पति - पत्नी के बीच फिर भी सुलह नहीं होती है तो पति तीसरे महीने तीसरा तलाक भी बोल देता है। यदि पति-पत्नी ने इन 3 महीनों में एक बार भी संबंध बना लिए तो उनका तलाक नहीं होगा।
तलाक-ए-अहसन - इस प्रक्रिया में पति सिर्फ एक बार तलाक शब्द बोलता है इसके बाद दोनों अगले 3 महीने तक एक ही छत के नीचे साथ - साथ रहते हैं पर दोनों को-दूसरे से दूरी बनाए रखना होगी। तलाक शब्द बोल कर पति शब्द वापस लेना चाहता है तो 3 महीने में कभी ले सकता है। अगर वह ऐसा नहीं करता है तो 3 महीने पूरे होने पर दोनों का विवाह विच्छेद हो जाता है।
तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) विवाह विच्छेद का सबसे ख़राब तरीका- तलाक-ए-बिद्दत में पति, पत्नी को एक बार में ही तीन बार तलाक बोल देता है। तलाक के हसन में भी तलाक शब्द तीन बार बोला जाता है परंतु इसमें तीन माह का अंतराल होता है जिसमें सुलह की गुंजाइश रहती है। इसमें एक साथ तीन बार तलाक बोलने के तुरंत बाद विवाह विच्छेद हो जाता है और सुलह की कई गुंजाइश नहीं रहती। भारत में तीन तलाक को गैर कानूनी माना गया है।
खुला (महिला) खुला में पत्नी पति से तलाक की प्रक्रिया शुरू करती है। खुला महिलाओं को पुरुषों से विवाह विच्छेद का कानूनी अधिकार है। खुला के माध्यम से पत्नी अपने पति से वैवाहिक संबंध विच्छेद हेतु धार्मिक न्यायालय में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करती है। उसे खुला लेने की स्थिति में पति से प्राप्त सम्पत्ति का कुछ भाग लौटाना होगा। इस हेतु पति की रजामंदी होनी जरूरी है।
तलाक-ए-तफवीज- यह एक शरिया कानून है जिसमें निकाह के समय ही वधु को तलाक का हक दे दिया जाता है। इसका जिक्र निकाह नामे में होता है साथ ही इमाम को इस मामले की पूरी जानकारी होती है। अगर पत्नी को लगता है कि वह पति के साथ खुश नहीं है तो वो उस हक़ का प्रयोग कर तलाक ले सकती है।
हलाला (उसी पति से पुनः विवाह की स्थिति में) - यदि तलाक के बाद पति और पत्नी दोबारा साथ होना चाहते हैं तो हलाला की प्रक्रिया अपनानी होगी। हलाला में तलाकशुदा पत्नी को पहले किसी दूसरे व्यक्ति से निकाह करनी होगी, फिर दूसरे पति से तलाक लेना होगा, इसके बाद इद्दत पूरी होने के बाद वह पहले पति के निकाह कर सकती है।
इद्दत (रुकना) (पवित्रता प्राप्त करना) पति की मृत्यु अथवा तलाक/खुला के बाद 04 महीने 10 दिन अथवा संतान यदि पूर्व में गर्भ में है तो संतान होने तक की स्थिति तक स्त्री किसी से निकाह नहीं कर सकती। उस अवधि को इद्दत कहते हैं। इद्दत पूर्व पति से पत्नी को संतान होने की संभावना का पता लगाने की प्रक्रिया है। भ्रूण को ठहरने से आकार लेने तक 130 दिन अथवा सवा चार माह लगते हैं। यदि भ्रूण ठहरा हुआ है तो पता चल जाता है कि उक्त संतान किस व्यक्ति की है। इस अवधि में स्त्री जिन लोगों से विवाह नहीं किया जा सकता (पिता, भाई, बेटा, भतीजा, भांजा, दूध के रिश्तेदार आदि के अलावा किसी अन्य (गैर मेहरम) से नहीं मिल सकती। अवधि पूर्ण होने पर वह पुनः विवाह कर सकती है।
पुनर्विवाह - विधवा या तलाकशुदा मुस्लिम महिला किसी भी व्यक्ति महरम (जिन से निकाह करना वर्जित हो) के अलावा किसी से भी विवाह कर सकती है। उसे पूरी छूट है चाहे जहां जाए और अपना जीवन व्यतीत करे।
गोद (अडॉप्शन) - गोद प्रथा द्वारा (बेटे/बेटी को जन्म के परिवार से दूसरे परिवार में स्थानांतरित करना) प्राकृतिक माता-पिता अन्य दत्तक माता-पिता को संतान उपहार स्वरूप प्रदान करते है। इस्लाम धर्म में गोद प्रथा निषिद्ध है। इस्लाम में धर्म का बेटा या अन्य कोई रिश्ता नहीं बनाया जा सकता। अर्थात जो ईश्वर प्रदत्त रिश्ते हैं वही शरीयत में मान्य हैं इसके अलावा अन्य कोई नातेदारी मान्य नहीं है।
व्यवसाय/धन संपत्ति अर्जन - प्रत्येक मुसलमान हलाल (शरीयत के अनुसार) धनार्जन (कमाई) कर सकता है। इस्लाम धर्म में व्यापार और पशुपालन को अधिक महत्व दिया जाता है। साथ ही कृषि को व्यापार का दर्जा दिया गया है। अमान्य साधनों (चोरी, लूट ,डकैती, गबन, रिश्वत, कब्जा, धोखाधड़ी आदि) से कमाया गया धन हराम (वर्जित) है। व्यापार में निश्चित सीमा तक लाभ ले कर ही खरीद बिक्री की जा सकती है। इसी प्रकार से मिलावट आदि के कर सामान बेचना कानूनन अपराध है।
हराम (वर्जित)- वो कार्य जो शरीयत में करना मना है उसे हराम (वर्जित) कहते हैं। भोजन में पहले से मरा हुआ जानवर (समुद्री जीव जो पानी से बाहर निकलते ही मर जाते हैं को छोड़ कर), सुअर का मांस, गलत तरीके से कमाए गए धन से खरीदा गया भोजन, खून, पंजे के नीचे दबा कर भोजन करने वाले जानवर (शेर, कव्वा, गिद्ध, बाज आदि) (भूख से जान जाने के खतरे की स्थिति को छोड़ कर जिसमें इतना ही खाया जाए कि जान बच जाए) हराम हैं। इसी प्रकार मां (सौतेली मां सहित), बहन, बेटी, भतीजी, भांजी, पोती, नातिन, बुआ, मौसी, दूध के रिश्ते की बहन, धाय मां, इद्दत पूरी होने से पूर्व अन्य स्त्री, पांचवीं पत्नी आदि से विवाह हराम है। बिना कीमत (हदिया,उपहार,भेंट के अलावा) किसी वस्तु को ग्रहण/प्राप्त/कब्जा करना हराम है। इस्लाम धर्म में ब्याज लेना (ब्याज लेना अपनी मां से निकाह करने के बराबर है) हराम है। मिलावट, अधिक मुनाफा, जान - बूझ कर किसी सामान की कमी पैदा करना भी हराम है। अमान्य साधनों (चोरी, लूट ,डकैती, गबन, रिश्वत, कब्जा, धोखाधड़ी आदि) (युद्ध में जितने के बाद पराजित सेना/राजा के धन (माल ए गनीमत को छोड़ कर) कमाया गया धन हराम (वर्जित) है। जिना (अपनी पत्नी/पति के अलावा अन्य स्त्री से संभोग) हराम है। शराब या इस जैसे नशे का सेवन हराम है। रोजे की हालत में खाना (नफली रोजे को छोड़ कर) हराम है। इसी प्रकार से मर्द को सोने के गहने,(इतनी चांदी पहनना जिस से व्यक्ति की कहीं भी मृत्यु की स्थिति में कफन खरीदा जा सके पहनने को छोड़ कर), रेशम के वस्त्र, और ऐसे वस्त्र जिन से नाभि से नीचे व मोटी पिंडली के ऊपर का भाग दिखाई दे पहनना हराम है। स्त्री हेतु शरीर की बनावट दिखाई दे इतनी तंग और झीनी पोशाक पहनना हराम है। कार्यालयों में काम करने वाले व्यक्तियों को मासिक वेतन शुरू किया गया और खलीफा हजरत अली द्वारा पूर्व कार्मिकों को पेंशन की शुरुआत की गई।
हलाल - हराम काम के अलावा अन्य सभी कार्य हलाल हैं।
ममनू - कुछ ऐसे कार्य हैं जो हराम और हलाल के बीच की स्थिति के हैं जैसे तंबाकू सेवन ममनु (मना) है। ना हराम है और ना ही हलाल। अधिक चटकीले वस्त्र पहनना ममनू है।
वसीयत द्वारा संपत्ति हस्तांतरण/उतराधिकार - किसी मुस्लिम व्यक्ति के मरने पर उसके धन का हस्तांतरण दो प्रकार से किया जाता है। 01. वसीयत के अनुसार जो लिखित भी हो सकत्ती है या किसी को बता कर वसीयत की जा सकती है। यदि किसी व्यक्ति ने वसीयत नहीं की है तो उसकी संपत्ति को शरीयत के अनुसार विभाजित किया जायेगा। इसमें वसीयत या बिना वसीयत धन/संपत्ति का बंटवारा मृतक की देयता के चुकारे के बाद ही किया जायेगा। इस कानून के अनुसार किसी व्यक्ति की मौत के बाद उसके उत्तराधिकारी उसके सारे कर्जे चुकाएं और तब जाकर संपत्ति की कीमत या वसीयत तय होती है. इस्लामी कानून के मुताबिक, मुस्लिम व्यक्ति अपनी संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा किसी को भी दे सकता है और शेष हिस्सा उसके परिवार के सदस्यों में नियमानुसार बंटता है। शरीयत कानून के अनुसार मृतक मुसलमान की संपत्ति के वारिस निर्धारित क्रम में तय किए जाते हैं और यह हर मुसलमान पर लागू होते हैं। इसके अलावा एक मुसलमान को अपनी संपत्ति केवल कुछ चुनिंदा वारिसों में बांटने की अनुमति नहीं है प्रत्येक वारिस और उसका हिस्सा तय होता है।
प्राथमिक या निश्चित उत्तराधिकारी (अशब-उल-फ़ुरुद) प्रथम छह प्राथमिक उत्तराधिकारी - कुरान में उन उत्तराधिकारियों का स्पष्ट उल्लेख है जो हर मामले में पात्र उत्तराधिकारी हैं जो निम्न अनुसार हैं - 1. माता 2. पिता 3. पत्नी। 4. पति 5. पुत्री और। 6. पुत्र माता-पिता को अपनी मृतक संतान से विरासत में मिलने वाले धन का आमतौर पर 1/6 भाग होती है जो यह कुछ मामलों में अलग हो सकती है।
पति या पत्नी - इस्लाम धर्म में यदि पत्नी के कोई संतान नहीं है तो पति के गुजर जाने पर पत्नी को उसकी संपत्ति का 1/4 भाग प्राप्त होगा। यदि संतान है तो 1/8 भाग प्राप्त होगा। पत्नी की मृत्यु पर पति को मृतक पत्नी की संपत्ति का 1/2 भाग मिलेगा। यदि कोई संतान नहीं है तो उसे 1/4 भाग मिलेगा।
संतान (पुत्र और पुत्रियाँ) - शरीयत कानून के अंतर्गत बेटियों को बेटे के हिस्से का 1/2 भाग मिलता है। इसके कई कारण हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कानून विरासत में उसके अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है।
दादा - दादी - शरीयत में मृतक के पिता की अनुपस्थिति में उसके दादा को संपत्ति का अधिकार प्राप्त हो सकता है, लेकिन नाना को नहीं। दादा को निम्नलिखित उत्तराधिकारियों की उपस्थिति में 1/6 भाग प्राप्त होगा। बेटों (पुरुष वंशज) (पुत्र - पुत्रियों) का हक - पुरुष वंशज और पुत्री/पुरुष और महिला वंशज निम्नलिखित की उपस्थिति में, दादा को 1/6 + शेष भाग प्राप्त होगा। बेटी(बेटियाँ) महिला वंशज पुत्री(पुत्रियों) और महिला वंशज(वंशजों) का हक देय होगा।
अन्य प्राथमिक उत्तराधिकारी - इसमें पोते-पोतियां, सौतेले भाई-बहन शामिल हैं जो उस स्थिति में उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं, जब मृतक का कोई रिश्तेदार प्रथम और द्वितीय श्रेणी में न हो।
दायित्व और वसीयतें - यद्यपि उत्तराधिकार से संबंधित नियम पहले से ही शरिया द्वारा निर्धारित हैं, फिर भी उपहार छोड़ना (जिसे वसीयत भी कहा जाता है) के बाद उत्तराधिकार की गणना की जायेगी। शरिया में व्यक्ति अपनी संपत्ति का 1/3 भाग किसी को भी दे सकता है। शेष 2/3 हिस्सा शरिया के अनुसार विभाजित किया जाता है। ।
मौत से पहले नुज़्रियाह - नुज़्रिया या नज़र किसी व्यक्ति द्वारा जीवनकाल में ली गई प्रतिज्ञा कि वह मृत्यु से पहले अपनी संपत्ति का कुछ या पूरा हिस्सा किसी अन्य व्यक्ति को दे देगा। इसका एक उदाहरण यह है कि एक पति जीवित रहते हुए अपनी पत्नी को उपहार स्वरूप दिए जाने वाले मकान के लिए नजर करता है, इस इरादे से कि इसे बेचा नहीं जाएगा और कानूनी लाभार्थियों के बीच वितरित किया जाएगा।
उत्तराधिकार-पूर्व दायित्व - किसी की संपत्ति के बंटवारे से पहले निम्नलिखित खर्चों को ध्यान में रखना आवश्यक है -
1. यह सुनिश्चित करना कि मृतक पर शेष कर्ज चुकाया जाए।
2. यह सुनिश्चित करना कि कफ़्फ़ारा अदा किया जाए (छूटे हुए रोज़े/जुर्माना भुगतान)
3. यह सुनिश्चित करना कि अंतिम संस्कार की लागत का भुगतान किया जाए।
पति और पत्नी के बीच संपत्ति का बंटवारा -
पति के निधन पर - पत्नी - 12.50% या 1/8 भाग, बेटा - 36.11% या 13/36 भाग, बेटी - 18.06% या 13/72 भाग, माता - 16.67% या 1/6 भाग, पिता - 16.67% या 1/6 भाग
पत्नी के निधन पर - पति - 25.00% या 1/4, बेटा - 20.83% या 5/24, बेटी 20.83% या 5/24, माता - 16.67% या 1/6, पिता - 16.67% या 1/6 भाग
जेहाद - जेहाद अरबी भाषा के जहद शब्द से बना है जिस का अर्थ है संघर्ष। इसमें सर्वाधिक महत्व व्यक्ति को आंतरिक दुर्भावनों को मारने (इंद्रिय निग्रह) पर दिया जाता है। आम बोल चाल में इसे धर्म युद्ध कह दिया जाता है जो प्रचलित अर्थ से विपरीत है।
मानव अधिकार एवं महिला सशक्तिकरण - इस्लाम धर्म का आविर्भाव ऐसे समय हुआ जब पूरी मानव सभ्यता अमानवीय कृत्यों से शर्मसार हो रही थी। जेसे बेटी को जन्म के साथ ही मार डालना, नवजात मां के स्थान पर आया का दूध पिलवाना, लड़की जवान होने पर घर पर सफेद झंडा लगा कर अधिकतम कीमत लगाने वाले व्यक्ति से बिना समानता देखे विवाह करना, मार - काट, लूट मार, हत्या, मानव खरीद - बिक्री (गुलाम प्रथा) अपने पूरे सबाब पर थे। इसी समय इस्लाम का उदय हुआ और जीवन के हर मसले पर नियम (शरीयत) बनाई गई। बद्दू लोगों को सामाजिक जीवन यापन का तरीका सिखाया गया। यही नियम शेष विश्व में इस्लाम के प्रसार साथ लागू होते गए। दास प्रथा बंद तो नहीं की गई पर दास को मुक्त करने को असीम पुण्य (सबाब) से जोड़ा गया। इस से इस्लाम के उदय के लगभग 200 साल बाद अरब से दास प्रथा समाप्त हो गई। लड़कियों को जिंदा मारने के स्थान पर उनको जन्म दिया जाने लगा। बेटियों को बेचने के स्थान पर निकाह द्वारा उनका विवाह किया जाने लगा। लूट मार समाप्त करने के प्रयास किए गए। मानव तश्करी और मानव विक्रय पर प्रतिबंध लगा। इस प्रकार से इस्लाम धर्म ने सम्पूर्ण सृष्टि में मानवाधिकार को सुरक्षित किया गया। इस्लाम का सब से बड़ा कार्य ऊंच - नीच की खाई और नस्लीय भेदभाव को समाप्त करना रहा। मोहम्मद साहब ने एक पूर्व गुलाम बिलाल हब्शी (कुरूप,काले और तोतले) से सर्व प्रथम अजान लगा कर, ओर अपने चाचा की बेटी का विवाह एक दास से करवा कर स्वयं उदाहरण प्रस्तुत किया। पुनर्विवाह, विधवा विवाह आदि स्त्रीयोचित कार्य प्रारंभ किए गए। विधवा, तलाक शुदा और अनाथों हेतु आर्थिक सहायता शुरू की गई।
राजकार्य - इस्लाम धर्म में राजा को ईश्वर की ओर से नियुक्त कार्यकारी (गवर्नर) माना गया है जिसे खलीफा कहा जाता है। लगभग राजा/बादशाह/खलीफा स्वयं कार्य कर जीविकोपार्जन करते थे। राजकोष से धन केवल जनहित हेतु ही व्यय किया जाता। मुख्य खलीफा द्वारा दारुल हर्ब (वो क्षेत्र जहां मुस्लिम शासक ना हो) ओर दारुल इस्लाम (जहां मुस्लिम शासक हो) इस्लामिक नियमानुसार संचालित किया जाता था। प्रत्येक मुस्लिम को राजज्ञा (चाहे गैर मुस्लिम ही हो) की पालना आवश्यक की गई। दारुल इस्लाम में बादशाह द्वारा सुबाई (क्षेत्रीय) गवर्नर नियुक्त किए जाते थे। सेना, पुलिस, राजकीय मुंशी, सामंत वर्ग का निर्धारण किया गया। शासक और प्रशासक वर्ग को राजकीय सहायता प्रदान की जाती थी। खलीफा अबू बक्र को राज कार्य करने की एवज में एक मजदूर जितना दैनिक भत्ता दिया जाता था।
कर व्यवस्था - इस्लाम धर्म में राजकार्य ओर जनता के हित हेतु योजनाओं के संचालन हेतु कर व्यवस्था की गई। व्यापार में सामग्री बिक्री का अधिकतम 5% (मुस्लिम) 10% (गैर मुस्लिम) सेल्स टैक्स लिया जाता था। इस टैक्स से राजकार्य में लगने वाला खर्च पूरा किया जाता था। इसके साथ ही गैर मुस्लिम नागरिकों से 5% जजिया कर भी लिया जाता था। मुस्लिम नागरिक से 2.5% जकात टैक्स लिया जाता था (आज भी प्रत्येक मुस्लिम कुल कमाई और संपत्ति का जकात टैक्स भुगतान करता है जो)
जजिया - गैर मुस्लिम नागरिक को दारुल इस्लाम में रहने के एवज में एक टैक्स देना होता था जिसे जजिया टैक्स कहते हैं। इसके बदले में सरकार उनको अपने क्षेत्र में सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करती थी।
जकात - इस्लामिक अर्थव्यवस्था मुस्लिम नागरिक से आय और कुल संपत्ति का 40 वाँ भाग टैक्स के रूप में देना होता है। यह धन निर्धन और असहाय लोगों की सहायता और शिक्षण संस्थानों के संचालन पर ही खर्च किया जा सकता है। इस धन को सीधा किसी पात्र असहाय या शिक्षण संस्थान को भुगतान कर दिया जाता है। अथवा बेतुल माल (धार्मिक कोषागार) में जमा करवा दिया जाता है। विरासत पर ज़कात - एक बार जब किसी को अपनी विरासत प्राप्त हो जाती है, तो वह सम्भवतः ज़कात योग्य हो जाती है, और इसका मूल्य किसी अन्य ज़कात योग्य संपत्ति के साथ देखा जाना चाहिए।
सदका - यह ऐच्छिक टैक्स व्यवस्था है जो धनाढ्य व्यक्ति द्वारा असहाय व्यक्ति को दिया जाता है। यह भी सीधे भुगतान किया जा सकता है या बेतुल माल में जमा करवाया जा सकता है।
खैरात - असहाय व्यक्तियों की सहायता हेतु ऐच्छिक सहायता हेतु भुगतान की जाने वाली राशि को सदका कहा जाता है। यह राशि ईश्वर से किसी की जान माल की सुरक्षा हेतु (दुआ लेने बाबत) भुगतान की जाती है।
इमदाद - (मदद का बहु वचन) सहायता - इस्लाम धर्म में जकात,सदका और खैरात के रूप में प्राप्त धन से मस्जिद आदि का निर्माण नहीं करवाया जा सकता। इस हेतु संस्थानों के भवन निर्माण और उनके संचालन हेतु मुस्लिम नागरिकों द्वारा प्रदान की जाने वाली आर्थिक सहायता को इमदाद कहा जाता है।
कोषागार (बेतुल माल) - इस्लाम धर्म में धार्मिक क्रियाकलाप के संचालन, नागरिक सहायतार्थ संग्रहित धन को रखने की जगह को बेतुल माल कहा जाता है। इसका संचालन क्षेत्रीय धार्मिक संगठन द्वारा किया जाता है।
अपराध की प्रकृति और दंड प्रक्रिया - शरिया कानून में दो तरह के अपराध होते हैं. इसमें पहले प्रकार को हद (गंभीर अपराध) कहते हैं जिसमें सीधे सजा का प्रावधान होता है और दूसरे प्रकार को तज़ीर कहा जाता है जिसमें जज के फैसले के आधार पर सजा दी जाती है। यदि हद अपराधों की बात करें तो इसमें चोरी आदि शामिल हैं और इसकी सजा और भी खतरनाक होती है।ऐसे में हद के अपराधियों को सजा देने के लिए उनके हाथ तक काट दिए जाते हैं। कई अपराधों में पत्थर मारकर मौत की सजा देने का भी प्रावधान है। शरीयत में अपराध की प्रवृति के आधार पर दंड दिया जाता है। यौन अपराधों के लिए कठोर दंड दिया जाता है, जिसमें पत्थर मारकर मौत की सजा देना शामिल है।
लूट/डकैती/चोरी की सजा - दोनो हाथ काट देना
हत्या की सजा - मौत या खून बहा (फिदया) - हत्यारे को सरेआम मौत के घाट उतार देना या मृतक के परिवार द्वारा चाहा गया धन (मौत के बदले में) दिया जाए।
जिना (व्यभिचार) की सजा - अविवाहित पुरुष /स्त्री को कोड़े मारना और विवाहित द्वारा व्यभिचार करने पर आमरण पत्थर मारना (संगसार करना)।
मुस्लिम पर्सनल लॉ 1937 -
मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937
भारत संघ
भारत
मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937
1937 का अधिनियम 26
7 अक्टूबर 1937 को गजट 26 में प्रकाशित
7 अक्टूबर 1937 को स्वीकृति दी गई
7 अक्टूबर 1937 को प्रारंभ हुआ
[यह इस दस्तावेज़ का 7 अक्टूबर 1937 का संस्करण है।]
[नोट: मूल प्रकाशन दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है और इस सामग्री को सत्यापित नहीं किया जा सका।]
मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937
(1937 का अधिनियम सं. XXVI)
[7 अक्टूबर, 1937]
मुसलमानों पर मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) लागू करने का प्रावधान करने के लिए एक अधिनियम
चूँकि मुसलमानों पर मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) लागू करने का प्रावधान करना समीचीन है;
1. संक्षिप्त शीर्षक और विस्तार.—
(1)
इस अधिनियम को मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937 कहा जा सकता है।
(2)
इसका विस्तार जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर है।
2. मुसलमानों पर पर्सनल लॉ का लागू होना।
इसके विपरीत किसी प्रथा या प्रयोग के होते हुए भी, बिना वसीयत के उत्तराधिकार, महिलाओं की विशेष संपत्ति, जिसमें विरासत में मिली या अनुबंध या उपहार या पर्सनल लॉ के किसी अन्य प्रावधान के तहत प्राप्त की गई निजी संपत्ति शामिल है, विवाह, तलाक, इला, जिहार, लियान, खुला और मुबारत सहित विवाह विच्छेद, भरण-पोषण, मेहर, संरक्षकता, उपहार, ट्रस्ट और ट्रस्ट संपत्तियां, तथा वक्फ (दान और धर्मार्थ संस्थाओं और धर्मार्थ और धार्मिक बंदोबस्तों को छोड़कर) से संबंधित सभी प्रश्नों (कृषि भूमि से संबंधित प्रश्नों को छोड़कर) में, उन मामलों में जहां पक्षकार मुस्लिम हैं, निर्णय का नियम मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) होगा।
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[ट्रिपल तलाक - शायरा बानो बनाम भारत संघ। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि तलाक-ए-बिद्दत या तुरंत तीन तलाक की प्रथा असंवैधानिक है। 30 मार्च, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के लिए 5 जजों की एक संविधान पीठ बनाई। पीठ में मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहर और जस्टिस कुरियन जोसेफ, आरएफ नरीमन, यूयू ललित और अब्दुल नजीर शामिल थे। 3:2 के बंटवारे में बहुमत ने माना कि तलाक-ए-बिद्दत की प्रथा 'स्पष्ट रूप से मनमानी' और असंवैधानिक है। मुख्य न्यायाधीश खेहर और जस्टिस नजीर ने असहमति जताते हुए कहा कि तलाक-ए-बिद्दत को धर्म के अधिकार द्वारा संरक्षित किया गया है और इस प्रथा को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाना संसद का काम है। इसलिए, तलाक के इस रूप को भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निहित मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना जाना चाहिए। इसलिए, हमारी राय में, 1937 का अधिनियम, जहां तक यह ट्रिपल तलाक को मान्यता देने और लागू करने का प्रयास करता है, अनुच्छेद 13(1) में "प्रचलित कानूनों" की अभिव्यक्ति के अर्थ में है और इसे उस सीमा तक शून्य घोषित किया जाना चाहिए जहां तक यह ट्रिपल तलाक को मान्यता देता है और लागू करता है। अदालत ने मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 की धारा 2 को स्पष्ट रूप से मनमाना होने के संकीर्ण आधार पर ऊपर बताई गई सीमा तक शून्य घोषित किया है। संसद ने मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 को अधिनियमित किया, जिसने तलाक-ए-बिद्दत की प्रथा को एक आपराधिक कृत्य बना दिया, जिसमें तीन साल तक की कैद का प्रावधान है। जमीयत उलमा-ए-हिंद, समस्त केरल जमीयतुल उलेमा और राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष ने अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग याचिकाओं में इस अधिनियम को चुनौती दी।
3. घोषणा करने की शक्ति.-
(1)
कोई भी व्यक्ति जो निर्धारित प्राधिकारी को संतुष्ट करता है-
(ए)
कि वह मुसलमान है; और
(बी)
वह भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 11 के अर्थान्तर्गत संविदा करने के लिए सक्षम है; तथा
(सी)
वह उन राज्यक्षेत्रों का निवासी है जिन पर यह अधिनियम लागू होता है,
निर्धारित प्राधिकारी के समक्ष निर्धारित प्ररूप में घोषणा दाखिल करके यह घोषित कर सकेगा कि वह इस धारा के उपबंधों का लाभ प्राप्त करना चाहता है, और उसके पश्चात् धारा 2 के उपबंध घोषणाकर्ता और उसके सभी अवयस्क बच्चों और उनके वंशजों पर इस प्रकार लागू होंगे मानो उसमें उल्लिखित विषयों के अतिरिक्त दत्तक ग्रहण, वसीयत और वसीयत भी विनिर्दिष्ट हों।
(2)
जहां विहित प्राधिकारी उपधारा (1) के अधीन घोषणा स्वीकार करने से इंकार करता है, वहां घोषणा करने का इच्छुक व्यक्ति ऐसे अधिकारी को अपील कर सकेगा जिसे राज्य सरकार, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, इस निमित्त नियुक्त करे और ऐसा अधिकारी, यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि अपीलकर्ता घोषणा करने का हकदार है, तो विहित प्राधिकारी को उसे स्वीकार करने का आदेश दे सकेगा।
4. नियम बनाने की शक्ति.—
(1)
राज्य सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम बना सकेगी।
(2)
विशिष्टतया तथा पूर्वगामी शक्तियों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, ऐसे नियम निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों के लिए उपबंध कर सकेंगे, अर्थात्:-
(ए)
वह प्राधिकारी विहित करने के लिए जिसके समक्ष और वह प्ररूप जिसमें इस अधिनियम के अधीन घोषणाएं की जाएंगी;
(बी)
इस अधिनियम के अधीन अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किसी व्यक्ति द्वारा घोषणाएं दाखिल करने तथा उसके निजी निवास पर उपस्थिति के लिए देय फीस विहित करने के लिए; तथा ऐसे समय विहित करने के लिए, जब ऐसी फीसें देय होंगी तथा वह रीति विहित करने के लिए, जिससे उन्हें उद्गृहीत किया जाएगा।
(3)
इस धारा के उपबंधों के अधीन बनाए गए नियम राजपत्र में प्रकाशित किए जाएंगे और तत्पश्चात् वे इस प्रकार प्रभावी होंगे मानो वे इस अधिनियम में अधिनियमित किए गए हों।
(4)
इस अधिनियम के अधीन राज्य सरकार द्वारा बनाया गया प्रत्येक नियम, बनते ही, राज्य विधान-मंडल के समक्ष रखा जाएगा।
5. कुछ परिस्थितियों में न्यायालय द्वारा विवाह विच्छेद -
मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 (1939 का 8) की धारा 6 (17-3-1939) द्वारा निरसित।
6. निरसन
नीचे उल्लिखित अधिनियमों और विनियमों के निम्नलिखित प्रावधान निरस्त कर दिए जाएंगे जहां तक वे इस अधिनियम के प्रावधानों के साथ असंगत हैं, अर्थात -
(1)1827 के बॉम्बे रेगुलेशन IV धारा 26
(2)मद्रास सिविल न्यायालय अधिनियम, 1873 (1873 का 3) धारा 16
(4)अवध कानून अधिनियम, 1876 (1876 का 18) धारा 3
(5)पंजाब कानून अधिनियम, 1872 (1872 का 4) की धारा 5;
(6)मध्य प्रांत कानून अधिनियम, 1875 (1875 का 20) की धारा 5; और
(7)अजमेर कानून विनियमन, 1877 की धारा 4 (1877 का विनियम 3)।
शमशेर भालू खान
9587243963
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