Tuesday, 4 March 2025

✅देवबंदी, बरेलवी विचारधारा एवं जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय।

देवबंदी, बरेलवी विचारधारा एवं जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय - 

इस्लाम धर्म में बरेलवी एवं देवबंदी सम्प्रदाय -
अहले सुन्नत वल जमात (बरेलवी) सम्प्रदाय - 

व्यक्तिगत परिचय इमाम अहमद रज़ा खान - 
जन्म नाम - मुहम्मद
नाम - अहमद रज़ा खां 
उपनाम 
1. इमाम
2. आला हज़रत
3. ईमाम ए अहले सुन्नत 
4. हाफिज, अल- कारी अहमद रज़ा खान फाज़िले बरेलवी।
5. स्वयं को अब्दुल मुस्तफा (मोहम्मद साहब का गुलाम) कहते थे।
6. हुवा इमाम-उल-मुहद्दीन (मुहम्मददीन के नेता) यासीन अहमद खैरी अल-मदनी ने इमाम अहमद रज़ा खान की हदीस विज्ञान में महारत देखते हुए यह पदवी दी।
पिता - नाकी अली खान
दादा - रजा अली खान
जाति - बारेच, उत्तरी भारतीय रोहिल्ला पश्तून जनजाति, रुहेलखंड क्षेत्र।
जन्म - 14 जून 1856 (10 शवाल, हिजरी 1272)
जन्म स्थान - मोहाल्ला जसोली, बरेली उत्तर प्रदेश 
मृत्यु - 28 अक्टूबर 1921 (25 सफर, हिजरी 1340)
शांत स्थान - दरगाह आला हजरत बरेली उत्तर प्रदेश।
पूर्वज - पूर्वज सईद उल्लाह खान कंधार के पठान थे जो मुग़लों के समय में पहले लाहौर फिर बरेली आए।
संतान - 3 पुत्री 2 पुत्र
परिवार के सदस्य - 
1. मुस्तफा रज़ा खान  (1931) पुत्र
(मुफ्ती ए आज़म हिन्द)
2. हामिद रज़ा खान (1934) पुत्र 
(हुज्जतुल इस्लाम)  
3. अख़्तर रज़ा खान पौत्र 
4. अज़हर रज़ा खान पौत्र
(अजहरी मियाँ)
धर्म - इस्लाम
न्याय शास्त्र स्कूल - हनफी
न्याय शास्त्र का विषय - अक़ीदा, फ़िक़्ह और तसव्वुफ़।
कार्य
आला हज़रत बहुत बड़े मुफ्ती, आलिम, हाफिज़, लेखक, शायर, धर्मगुरु, भाषाविद, युगपरिवर्तक, तथा समाज सुधारक थे।
1. सूफीवादी विद्वान
2. न्यायवादी
3. धर्मविज्ञानी
4. समाज सुधारक
5. संस्थापक बरलेवी आंदोलन।

शिक्षा - 
13 वर्ष की आयु में मुफ्ती की डिग्री।

मोहम्मद साहब की शान में एक शेअर 
वो सूए लालाज़ार फिरते हैं
तेरे दिन ए बहार फिरते हैं।

‎पुस्तक लेखन -
रज़ा साहब ने 55 विषयों पर 1000 से अधिक पुस्तकें लिखीं और प्रकाशित करवाईं। 
1. अद्दौलतुल मक्किया - तफ्सीर अल हदीस यह पुस्तक 8 घंटों में बिना संदर्भ ग्रंथों के मदद से हरम शरीफ़ में लिखा।
2. फतवा ए रजविया - इस्लामी कानूनो के संबंध में पुस्तक जिसके 2200 पृष्ठ (30 खंडों) में आम जीवन से संबंधित फतवे।
3. कंजुल - ईमान कुरान का उर्दू अनुवाद 1912 में छात्र सदरुश शरिया अमजद अली आज़मी के सहयोग से लिखी जिसकी मूल पांडुलिपि लाइब्रेरी इदारा तहकीक़त-ए-इमाम अहमद रज़ा कराची, में संरक्षित है।
4. अहमद रजा खान साहब की हदीश की पुस्तकों का प्रकाशन मोहम्मद जफरुद्दीन रिज़वी ने किया है।
5. सहिह अल बिहारी नाम से 1992 में हैदराबाद सिंध पाकिस्तान में दूसरा खंड प्रकाशित।
6. हुसमुल हरमैन/हुसम अल हरमैन आला मुनीर कुफ्र व आला मायवन (अविश्वास और झूठों के गले में हरमैन की तलवार) 1906, में प्रकाशित पुस्तक में देवबंदी, अहले हदीस और अहमदीय आंदोलनों की आलोचना की गई है। इस पुस्तक की सत्यता हेतु उस समय के 268 मुस्लिम विद्वानों ने हस्ताक्षर किए।
7. हिदायते बख्शीश - 
मोहम्मद साहब की शान में लिखे गए अशआर, नज़्म, कशीदे, शना
जिसमें सब से महत्वपूर्ण है
सलाम " मुस्तुफ़ा जाने रहमत पे लाखों सलाम, समअ ए बज़्म ए हिदायत पे लाखों सलाम"।

मुस्लिम न्याय शास्त्र के हनफि स्कूल का अनुसरण करने वाले अहमद रज़ा खान (आला हज़रत) बरेली उत्तर प्रदेश द्वारा चलाया गया अहले सुन्नत वल जमात (बरेलवी) आंदोलन के दक्षिण एशिया में 20 करोड़ से अधिक अनुयायि हैं। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बरेलवी मुस्लिम अधिक हैं। बरेलवी आंदोलन उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में स्थित मदरसे के कारण बरेलवी नाम से प्रसिद्ध हुआ। 
यह आंदोलन ईश्वर और मुहम्मद (साहब) के प्रति समर्पण एवं निजी भक्ति का सूफीवादी आचरण है। भारतीय मुस्लिम जो भारत की विभिन्न जातियों से इस्लाम धर्म में आए अपनी पुरानी परम्पराओं को नहीं भूल सके। सदियों से जन्म से वो अपने पूर्वजों को पूजा आदि करते देखते आए थे, जिसे एक झटके में भूल पाना अति दुष्कर रहा। सूफियों की बात मानकर वो मुस्लिम तो बन गए परन्तु पुराने रिवाजों को छोड़ पाने में आशक्त रहे। कुछ लोग मुस्लिम हो कर वापस अपनी मान्यताओं के अनुसार पूजा आदि करने लगे। 
सूफियों द्वारा नव मुस्लिमों को टिके रहने में आ रही इस समस्या का समाधान इस तरह निकाला गया - 
सनातन धर्म के कर्मकांड की तरह - 
1.पंडे/पुजारी के स्थान पर पीर बनाए गए।
2. गाने बजाने के लिए क़व्वाली/तस्सवुफ का चलन किया गया।
3. धर्म धागे/डोरे/कंडे के स्थान पर तावीज का उपयोग किया गया।
4. मंदिरों में चढ़ावे की तरह दरगाहों का प्रचलन किया गया।
5. कब्रों की पूजा शुरू की गई।
6. बलि की प्रवृति हेतु दरगाहों में बलि की व्यवस्था की गई।
यह शुरुआती नव मुसलमान के लिए उसके ठहराव हेतु वैकल्पिक व्यवस्था थी जो भारत उपमहाद्वीप, ईरान, मंगोलिया एवं तुर्की में प्रचलित की गई। इस क्षेत्र में इस्लाम धर्म 99% सूफियों द्वारा ही फैलाया गया। सूफियों को राजदरबार से सहायता मिलती थी। सूफियों के संदेशों के आधार पर बादशाहों ने खानकाहों का निर्माण करवाया। सूफी, बादशाह के राज्य विस्तार हेतु रास्ता तैयार करता था। सूफी इब्नुल अरबी एवं अन्य सहायकों ने उस्मानी सल्तनत के निर्माण में अर्तगुल गाजी एवं उस्मान गाजी की बहुत सहायता की थी। मंगोल (मुगल) सल्तनत की भारत में स्थापना में सूफियों का बड़ा महत्व रहा है। सूफी आम जनता में उनके प्रति प्रचार कर उन्हें प्रसिद्ध करते थे। एक हद तक ठहराव के बाद भी पुनः उसी प्रकार का व्यवहार ठीक नहीं है।
देवबंदी, अहल-ए हदीस, सलाफि और दारुल उलूम नदवातुल उलमा के अनुयायियों द्वारा अहले सुन्नत वल जमात का इसी आधार पर विरोध कर आलोचना की।
वर्ष 1893 में दक्षिण एशिया के मुस्लिम सांप्रदायों में पारस्परिक मतभेद मिटाने हेतु दारुल उलूम नदवातुल उलमा देवबंद की  स्थापना की गई थी। कट्टरवादी विचारधारा के कारण इस से पृथक हो कर आला हज़रत अहमद रजा खान ने 1904 में मंज़र-ए-इस्लाम के नाम से सूफीवादी इस्लामी स्कूलों (मदरसों) की स्थापना की।
भारत में देवबंदी आंदोलन विभाजन के विरुद्ध रहा जबकि बरेलवी आंदोलन के समर्थक विभाजन के पक्षधर रहे। वर्ष 1948 में विभाजन के बाद बरेलवियों ने जमियत उलमा ए पाकिस्तान (JUP) और भारत में जमीयत उलमा ए हिंद (JUH) संगठनों की स्थापना की। बरेलवी आंदोलन अब तब्लीकी जमात के बढ़ते प्रभाव के कारण कमजोर पड़ता जा रहा है। इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए इंग्लैंड के (भारत, पाक मूल के) मुसलमानों द्वारा वित्त पोषण किया जाता है।
अहले सुन्नत वल जमात की धार्मिक मान्यताएं - 
बरेलवी कुरान और सुन्नत पर विश्वास के साथ मुहम्मद साहब की नबुवत को मानने वाले एकेश्वरवादी मुस्लिम हैं। बरेलवी इस्लामी न्यायशास्त्र में अबु हनीफा का अनुसरण करते हैं। इस आधार पर वे नक़्शबन्दी, क़ादरी, चिश्ती, सोहरवर्दी, रिफाई, शाज़ली इत्यादि सूफ़ी आदेशों में से किसी एक को चुनने के अलावा फ़िक़्ह के हनफ़ी स्कूल के अनुसार कार्य करते हैं।
वहाबी/सलाफी/देवबंदी एवं नक्शबंदी/चिश्तिया/कादरी/सोहरावर्दी में अंतर - 
1. नूर मुहम्मदिया
बरेलवी मोहम्मद साहब को जीवित और साक्षात् सम्मुख मानते हैं जबकि देवबंदी नहीं। बरेलवी आंदोलन में अनुसार मोहम्मद साहब प्रकाश का मानव रूप हैं। उनका शरीर प्रकाश रूप में सर्वत्र विद्यमान है। अल तास्तारी के छात्र मनसूर अल-हज्जाज की पुस्तक तहसीन अल-सिराज, कुरान में सुरह ए नूर की आयात 5 व 15 में मुहम्मद साहब को (नूरन फि -मुद अल-नूर)  नूर (प्रकाश) शब्द से संदर्भित किया गया है। इसके अनुसार सृष्टि के निर्माण से पूर्व प्रकाश पुंज में रूप में मोहम्मद साहब की उत्पत्ति की गई। कुरान में इसे सूरा अन नज्म आयत - 13 में फिर से दोहराया गया है। अन्य संप्रदाय इसे स्वीकार करते हैं परन्तु बरेलवियों के अतिवादी व्यवहार का विरोध करते हैं।
2. पहनावा - 
बरेलवी अधिकांश साधुओं जैसे भगवा (जाफरानी, संजरी) रंग के कपड़े पहनते हैं। इसी रंग की या टोपी कढ़ाई की हुई ऊंची गोल विशेष टोपी पहनते हैं। यह पैजामे को बरेलवियों की तरह अधिक ऊंचा नहीं बांधते। बरेलवी सर पर कई रंग कत्थई, जाफरानी, जामुनी रंग के साफे (इमामा) बांधते हैं। लगभग देवबंदी सफेद रंग का इमामा बांधते हैं।
3. सर के बाल एवं दाढ़ी - 
अधिकांश बरेलवी गर्दन और माथे के बाल (नबी के बालों की तरह) बड़े रखते हैं। देवबंदी ऐसा नहीं करते। बरेलवियों की दाढ़ी एक बिलांद से अधिक बड़ी हो सकती है और मूंछें नीचे की ओर तराशी हुई हो सकती हैं। देवबंदी एक बिलांद से बड़ी दाढ़ी बहुत कम संख्या में रखते हैं और मूंछें लगभग नहीं रखते।
4. बयान - 
बरेलवी वक्ता जल्दी - जल्दी, जोर - जोर से बयान करते हैं। वो सांस को सांस में मिलाते हुए लंबे वाक्यों का प्रयोग करते हुए भाषण देते हैं। आरोह - अवरोध यका यक घटता - बढ़ता है। जबकि देवबंदी वक्ता शांतिपूर्ण तरीके से सही शांत स्वभाव में वार्ता करते हैं। बरेलवी वक्ता भाषणों में अन्य संप्रदायों के प्रति नकारात्मक भावनाएं प्रकट करते हैं परन्तु देवबंदी वक्ता अन्य किसी भी संप्रदाय का नाम नहीं लेता है।
5. इबादत - 
I. देवबंदी नमाज़ के समय ईमाम के साथ खड़े हो जाते हैं जबकि बरेलवी हई अलल सला के साथ कड़े होते हैं।
II. देवबंदी अतहियात में शहादत की अंगुली उठा कर अंगुली वहीं रोक देते हैं जबकि बरेलवी शहादत के बाद हाथ को सीधा कर लेते हैं।
III. देवबंदी असर, ईशा और फज्र की नमाज के बाद या तो हदीश सुनते हैं या कुछ पढ़ते हैं। बरेलवी इन तीनों नमाजों के बाद आपस में मुसाफा करते हैं।
IV. फज्र व जुमा की नमाज पढ़ कर देवबंदी गश्त पर निकलते हैं। बरेलवी इसके बाद सलातो सलाम पढ़ते हैं।
V. बरेलवी मोहम्मद साहब का नाम आने पर दोनों हाथ के अंगूठे चूम कर आंखों से लगाते हैं (इसे तस्लीम करना/बोसा देना कहते हैं)। देवबंदी मोहम्मद साहब का नाम आने पर दरूद पढ़ते हैं।
VI. बरेलवी मोहम्मद साहब को इलमे ग़ैब का जानकार मानते हैं जबकि देवबंदी उन्हें उम्मी (अनपढ़) मानते हैं।
VII. बरेलवी मोहम्मद साहब को याद करने हेतु मिलाद, महफिल व अन्य गाने बजाने के साधनों का उपयोग करते हैं जबकि देवबंदी ऐसा नहीं करते।
6. धर्म प्रचार - 
बरेलवी अलग अलग रंग के इमामे (पद एवं डिग्री के अनुसार) पहन कर लगभग जुमेरात के दिन सुन्नी गश्त करते हैं। (तब्लीक जमात की बराबरी करने हेतु)। देवबंदी लगभग एक जैसे सफेद या प्रचलित कपड़े पहन कर गश्त करते हैं।
7. उर्स / इज्तिमा - 
बरेलवी किसी आलिम, औलिया या पीर की याद में उनकी बरसी के दिन उर्स मनाते हैं। जबकि देवबंदी इस्लामिक मान्यताओ के प्रचार हेतु राष्ट्रीय, राज्य जिला या ब्लॉक स्तर पर इज्तेमा करते हैं।
8 मृत व्यक्तियों के प्रति अवधारणा - 
देवबंदी सभी मृत व्यक्तियों के प्रति एक ही धारणा रखते हैं कि वो कयामत तक असहाय मिट्टी में बदल चुके हैं जबकि बरेलवी मानते हैं कि नबी, वली, पीर, शहीद मरने के बाद भी जिंदा हैं। इस हेतु बरेलवी कुरान के दूसरे पारे को प्रथम आयत का हवाला देते हैं जिसमें कहा गया है कि "अल्लाह के रास्ते में शहीद होने वाले कभी मरते नहीं हैं, और वो अल्लाह से रिज्क (भोजन) प्राप्त करते हैं"। अतः मरे हुए व्यक्ति भी हमारी मदद कर सकते हैं।
9. मरे हुए व्यक्ति के घर खाना - 
बरेलवी मृत व्यक्ति के घर, दरगाहों, कब्रिस्तानों में मन्नत के लिए लाए गए जानवरों का मीट, या अन्य भोजन खा लेते हैं जबकि अधिकांश देवबंदी यह नहीं खाते।
10. धार्मिक कट्टरता - 
देवबंदी आंदोलन विदेशी विचारधारा का आंदोलन है। इसमें मुसलमानों पर इस्लामिक नियम अधिक कठोरता से लागू किए जाते हैं जबकि बरेलवी भारतीय उपमहाद्वीपीय विचारधारा है जिसमें कट्टरता कम पाई जाती है।
11. आपसी खींचतान - 
बरेलवी देवबंदियों को अपने क्षेत्र,मदरसे एवं मस्जिद में आने से रोकते हैं। कई बार आपस में बड़े झगड़े हो जाते हैं। कहीं - कहीं बरेलवियों की मस्जिदों में देवबंदियों के प्रवेश पर प्रतिबंध है ऐसा लिखा हुआ देखा गया है।
12.मोहम्मद साहब की बरसी एवं जन्म दिन - 
मोहम्मद साहब का जन्मदिन एवं बरसी 12 रबी उल अव्वल के दिन आती है। इसे किस रूप में मनाएं यह सोच पाना कठिन है। बरेलवी इस दिन ढोल - नगाड़ों के साथ मोहम्मदी जुलूस निकालते हैं। जबकि देवबंदी ऐसा नहीं करते।
13. मोहर्रम की ताजियादारी - 
बरेलवी शियाओं की तरह 10 मोहर्रम के दिन बड़ी संख्या में जुलूस के रूप में हुसैन के प्रतीक स्वरूप ताजिया निकाल कर मातम करते हैं जबकि देवबंदी ऐसा नहीं करते।
14. मरने के बाद के रीति रिवाज - 
बरेलवी मारने के बाद चेहल्लुम, मिठाई, पुलाव, मिलाद, फातेहा आदि रश्म करते हैं जबकि देवबंदी मरने के तीसरे दिन सिर्फ दुआ करवा कर शांति की प्रार्थना करते हैं। देवबंदियों में भोजन की व्यवस्था लगभग करीबी मित्रों या रिश्तेदारों द्वारा की जाती है।
15. कब्रिस्तान में - 
बरेलवी कब्रिस्तान में कब्रों को पक्की करते हैं, उन पर कपड़े लगाते हैं एवं पानी की व्यवस्था करते हैं। रिश्तेदार कब्र पर खड़े हो कर हाथ उठा कर दुआ करते हैं। देवबंदी कब्र को कच्ची रखते हैं। कब्रिस्तान में हाथ उठाने के बजाय हाथ नाफ़ पर बांध कर दुआ करते हैं।
16. ईश्वर के माध्यम (वसिला)
देवबंदी इंसान और ईश्वर (अल्लाह) के मध्यस्थ किसी को नहीं मांगते। उनके अनुसार ईश्वर का प्रत्येक व्यक्ति से सीधा संबंध होता है। बरेलवी प्रत्येक कार्य में ईश्वर और व्यक्ति के मध्य किसी मध्यस्थ के होने का विचार करते हैं। बरेलवियों के अनुसार कोई व्यक्ति जिस प्रकार से सीधा छत पर नहीं चढ़ सकता उसी प्रकार से वह सीधा ईश्वर से नहीं मांग सकता। जिस प्रकार से संसार में न्यायालय में जज और व्यक्ति के मध्य वकील होता ही उसी प्रकार इंसान एवं ईश्वर के मध्य संबंध स्थापना हेतु वकील/मध्यत (वसिले) की आवश्यकता होती है। कयामत के बाद न्याय के दिन मोहम्मद साहब हमारी पैरवी करेंगे ऐसा बरेलवियों का मानना है। अहमद रजा साहब ने सूफी प्रथाओं का समर्थन किया और  वहाबि एवं देवबंदी विचारधारा का विरोध किया। 

देवबंदी एवं बरेलवी एकता के प्रयास  - 
इमाम अहमद रजा खान 1905 में हज हेतु (मक्का और मदीना) जा रहे थे तो उन्होंने अल मोटामद अल मुस्तानाद (विश्वसनीय सबूत) नामक एक मसौदा दस्तावेज तैयार किया। इस काम में, अहमद रजा ने अशरफ अली थानवी, रशीद अहमद गंगोही, और मुहम्मद कासिम नानोत्वी जैसे देवबंदी मौलानाओं को शामिल किया। रजा खां साहब ने हेजाज ,(सऊदी अरब) में विद्वानों की राय एकत्र की और उन्हें हसम अल हरमन (दो अभयारण्यों की तलवार) शीर्षक के साथ एक अरबी भाषा परिशिष्ट में संकलित किया, जिसमें 33 उलमा (20 मक्का और 13 मदीनी) से शहादत ली । इस काम ने वर्तमान में बने बरेलवीयों और देवबंदीयों के मध्य फतवा की श्रृंखला शुरू की। 

पुस्तक फतवा-ए-रज़विया के अनुसार -
1. शरीयत श्रेष्ठ कानून ही जिसका पालन सभी मुस्लिमों के लिए अनिवार्य है।
2. बिदत से बचना आवश्यक है।
3. ज्ञान के बिना सूफी व अमल के बिना शैख शैतान के हाथों का खिलौना हैं।
4. विधर्मी के साथ उनके त्यौहारों/मौकों में भाग लेना या उनकी नकल करना मना है।
5. अल्लामा इकबाल के अनुसार अहमद रज़ा खान के शब्द नपे तुले, कठोर एवं वापस लेने योग्य नहीं होते। वो धर्म की वास्तविक सही व्याख्या करते हैं।
6. मक्का के मुफ्ती अली बिन हसन मलिकी ने खान को सभी धार्मिक विज्ञानों का विश्वकोष कहा।

अहमद रज़ा खान की आलोचना - 
1. अहमद रजा खान ने सीधे ही किसी भी विरोधी विचारधारा को काफिर घोषित कर दिया। देवबंदी, सलाफी, अहमदिया, शिया, सभी को काफिर घोषित कर दिया।
2. देवबंदी व अन्य विचारधाराओं की अच्छी बातों को नजरअंदाज किया। उन्होंने देवबंदी साहित्य के विरुद्ध हशामुल हरमेन पुस्तकों के माध्यम से फतवे जारी कर उन्हें गुस्ताख ए रसूल की उपाधि दी।
3. अहमद रज़ा खान ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महात्मा गांधी या अन्य द्वार नेतृत्व का विरोध किया।
4. भारत को दारुल सलाम के स्थान पर दारुल हर्ब के रूप में स्सुकीमआर करने पर समाज सुधारकों सैयद अहमद खान और उबायदुल्ला उबादी सुहरवर्दीe कठोर आलोचक रहे।
5. अहमद रज़ा खान व साथियों ने वर्ष 1921 के बाद पाकिस्तान निर्माण के समर्थन में मुस्लिम लीग की खुलकर सहायता की।
स्मृतियों में अहमद रज़ा खान - 
1. भारतीय रेल द्वारा उनके नाम से आला हजरत एक्सप्रेस ट्रेन का बरेली से भुज के बीच संचालन किया जाता है।
2. 31 दिसंबर 1995 को भारत सरकार ने अहमद रजा खान के सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया।
3. दरगाह आला हजरत, बरेली

दारुल उलूम देवबन्द, भारत का सबसे बड़ा इस्लामिक विश्वविद्यालय।

अंग्रेज शासन और देवबंद की स्थापना 
मदरसा देवबंद सामान्य परिचय - 
संस्थापक - इमामुल हिन्द शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी, मौलाना मुह़म्मद क़ासिम नानौतवी, व हाजी मुह़म्मद अ़ाबिद और साथियों द्वारा दारुल उलूम देवबन्द की नींव रखी गई।
संस्था का नाम -  मदरसा इस्लामिया अरबिया (दारुल उ़लूम देवबन्द) आज देवबंद विश्वविद्यालय।
स्थान - देवबंद उत्तर प्रदेश, मस्जिद छयता में एक पेड़ के नीचे।
स्थापना का दिन - जुमेरात (बृहस्पतिवार) 31 मई 1866 (15 मुहर्रम 1283 हिजरी)
संस्था का उद्देश्य - मैकाले की शिक्षा नीति अंग्रेज़ों के विरुद्ध इस्लामिक शिक्षा प्रणाली।
शिक्षा व्यवस्था - 
दारुल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुज़रना पड़ता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महादीप पर गहरा है।
संचालक मंडल - मजलिस ए सुरा
प्रथम अधिक्षक- मुफ्ती अब्दुल का़सिम नोमानी

देवबंद मदरसे की स्थापना की पृष्ठभूमि 
दारुल उलूम देवबन्द की स्थापना 1857 में हुई। मुगल मुस्लिम शासक के हटने के पश्चात अनेक मुस्लिम संगठन या तो बन्द हो चुके थे या दिशाहीन हो गए थे। ऐसे में देवबन्द में दारुल उलूम की स्थापना हुई जिसका लक्ष्य भारत के मुसलमानों को इस्लामी शिक्षा प्रदान करना है। इस संस्था को विश्व-भर के मुस्लिम शिक्षा संस्थाओं को विशेष स्थान प्राप्त हुआ।
भारत में मुस्लिम बादशाहों का शासन काल बड़ा शानदार रहा। मुस्लिम शासकों ने भारत की उन्नति और विदेशों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस की साख को मज़बूत करके ऐसे कार्य किये जो भारत वर्ष के इतिहास में सुनहरे शब्दों में लिखे जाने के योग्य हैं। इस्लामी हुकूमत का आरम्भ पहली शताब्दी हिजरी (सातवीं ईसवी शताब्दी) से होता है। और गंगा जमुना की लहरों पर चलकर देश के हर भाग पर लहराती, बलखाती फैलती चली जाती है। बारहवीं हिजरी शताब्दी (18वीं ईसवी शताब्दी) तक पूरी शान के साथ मुस्लिम शासक भारत के दिलों पर शासन करते रहे। यह कहना अनुचित नहीं है कि बादशाह औरंगज़ेब मुस्लिम हुकूमतों के उत्थान व पतन के बीच की सीमा रेखा पर थे। उनकी मृत्यु के पश्चात ही देश खण्डित हो गया, और संयुक्त भारत रजवाड़ों और रियासतों में बंटता चला गया। औरंगजेब के एक सौ पचास वर्षों तक मुग़ल की हुकूमत रही परन्तु कमजोर और निर्जीव। पूरा देश राजनैतिक उथल पुथल और विद्रोह का केंद्र बन चुका था। केन्द्रीय सत्ता की कमज़ोरी का भारत की अन्दरुनी और विदेशी जातियों ने लाभ उठाया। रियासतों के सरदार एक दूसरे को डर/लोभ/लालच को बढ़ावा मिला। केन्द्रीय सरकार को अत्यधिक कमज़ोर करने का पूरा प्रयत्न किया गया जिस में उन को पूरी सफलता मिली।
औरंगज़ेब के बाद डेढ़ सौ साल पतन और विद्रोह का अन्दाज़ा इस बात से भली भांति लगाया जा सकता है कि केवल पचास साल की मुद्दत में 1707 से 1757 ईस्वी तक दिल्ली के तख्त पर दस बादशाह बैठाये और उतारे गये। जिन में केवल चार प्राकृतिक मौत मरे शेष छ को मौत के घाट उतार दिया गया या क़ैदखानों की अंधेरी कोठरी में मरे।
सोलहवी शताब्दी के अन्त में अंग्रेज़ व्यापारी भारत में आने प्रारम्भ हुए। 1600 ईस्वी में महारानी एलिज़बेथ की आज्ञा से ईस्ट इण्डिया कम्पनी स्थापित की गई। डेढ़ सौ साल तक इन लोगों को केवल अपने व्यापार से ही सम्बंध या सम्पर्क रखा परंतु औरंगजेब के बाद मुग़ल परिवार में फूट पड़ने लगी और देश में आन्तरिक युद्ध आरम्भ हो गये। सल्तनत के इस संकट काल का लाभ उठाने हेतु अंग्रेज़ भी मैदान में उतर आये। अंग्रेजों ने चालबाजी से टिड्डी दल फौज के साथ 1757 से 1857 तक दक्षिण बंगाल, मैसूर, पंजाब, सिंध, बर्मा और अवध को जीत लिया। वर्ष 1857 ईस्वी में दिल्ली के लाल किले पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। और मुग़ल परिवार के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फर को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया जहां उनकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी पूरे भारत में छा गई। 1858 में कंपनी को हटा कर इंग्लैण्ड की महारानी ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली।
1857 ईस्वी में भारत स्वतन्त्रता की लडा़ई लड़ी गई, मगर इस युद्ध में असफलता मिली जिस के पश्चात भारतीयों पर अत्यचार आरम्भ हो गये। अत्याचार इतने कठोर थे कि उन को सुन कर हृदय कांप उठता है। अंग्रेजों के अत्यचारों का सीधा निशाना मुसलमान रहे। अंग्रेजों ने सत्ता मुसलमानों से छीनी थी और उन्हीं से प्रत्युत्तर की आशंका थी। अंग्रेज इन्हें इतना कमजोर कर देना चाहते थे कि फिर से सर ना उठा सकें। सन 1857 की क्रांति की असफलता के बाद अंग्रेज़ों ने जी भरकर बदला लिया। इसमें आलिमों, कवियों, लेखकों और नेताओं को चुन-चुन कर मौत के घाट उतारा गया। 18 नवम्बर 1858 ईस्वी को सुबह चैबीस शहज़ादों को दिल्ली में फांसी दे दी गई। झज्जर, बल्लब गढ़, फर्रूख़नगर और फर्रुख़ाबाद के अमीरों और नवाबों ने स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया था, अतः उन में से कुछ को फांसी पर लटका दिया गया और कुछ को काले पानी की सज़ा दी गई।
बग़ावते हिन्द - सर विलयम मूर।
आलिमों के साथ इतना कठोर अत्याचार और ज़ुल्म किया गया कि इतिहासकारों का कलम उन को लिखने से कांपता है। गोया 1857 ईस्वी का स्वतन्त्रता संग्राम पशुता और अत्याचार का न समाप्त होने वाला सिलसिला लेकर आरम्भ हुआ था। हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की, मौलाना रशीद अह़मद गंगोही और मौलाना क़ासिम नानौतवी आदि ने एक इस्लामी फौजी यूनिट स्थापित करके अंग्रेज़ों के विरुद्ध शामली, थानाभवन, और कैराना आदि में युद्ध का मोर्चा खोल दिया। हाजी इमदादुल्ला मौलाना रशीद अह़मद गंगोही वज़ीर लामबन्दी, हाफिज़ ज़ामिन, मौलाना मुह़म्मद क़ासिम नानौतवी कमाण्डर इनचीफ़, मौलाना मुनीर साह़ब ह़ज़रत नानौतवी के फौजी सैक्रेट्री और सय्यद हसन असकरी दिल्ली के क़िले में सियासी मेम्बर चुने गये। शामली के संघर्ष के बाद अंग्रेज़ों ने थाना भवन पर आक्रमण कर दिया और पूरे क़स्बे को जलाकर राख के ढेर में बदल दिया। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले वीरों को फांसी पर लटकाया जाने लगा। हाजी इमदादुल्लाह, मौलाना क़ासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अह़मद गंगोही के वारन्ट जारी कर बन्दी बनाने वालों या पता देने वालों को बड़ा इनाम देने की घोषणा की गई। कुचलने, तबाह व बरबाद करने में विशेष रुप से मौलवियों को क़त्ल करने में तनिक भी झिझक अनुभव नहीं की। वर्ष 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में लगभग दो लाख मुसलमान शहीद हुए जिन में पचपन हज़ार से अधिक उलमा (मोलवी) थे।
अंग्रेज़ अपने बुरे इरादों के अधीन धीरे-धीरे भारत की राजनीतिक, शैक्षिक, और प्रशासनिक गतिविधियों में हस्तक्षेप करने लगे। इस उद्देश्य से स्थान-स्थान पर बाईबिल सोसाइटियाँ स्थापित की गईं। इंजील का अनुवाद देश की समस्त भाषाओं में किया गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उचित या अनुचित साधन अपना कर भारतीयों (विशेष रुप से मुसलमानों को) असहाय और निर्धन बनाना शुरू कर दिया)। अंग्रेजों की इस चाल में सब से बड़ा रोड़ा मुसलमानों की शिक्षा थी। मुस्लिम शिक्षा प्रणाली को रोकने हेतु वर्ष 1835 में मैकाले की शिक्षा नीति लागू की गई । अंग्रेज भारत में ऐसी शिक्षा प्रणाली लागू करना चाहते थे कि देखने में यहां के लोग भारतीय हों पर विचार और व्यवहार से अंग्रेज। मुसलमान भी अंग्रेजों की इस चाल में फंस गए। अंग्रेजों की यह शिक्षा व्यवस्था मुसलमानों के धार्मिक, सामाजिक जीवन, ज्ञान और विज्ञान को बर्बाद करने का काम किया वास्तव में मुस्लिम समाज इसे  स्वीकार करने में बिल्कुल भी तैयार नही थे। वर्ष 1857 के युद्ध की तबाही और बर्बादी ने मुसलमानों को भयभीत कर दिया उनकी आत्मशक्ति क्षीण हो चुकी थी।भारतीय मुसलमानों के लिए यह समय विषाद और दुख के दिन थे। मुसलमान अपनी संस्कृति को मिटते और नेतृत्वहीन देखकर मौलाना मुह़म्मद क़ासिम नानौतवी, व हाजी मुह़म्मद अ़ाबिद और साथियों ने अंग्रेज़ों के उद्देश्यों को असफल करने के लिए जुमेरात (बृहस्पतिवार) 31 मई 1866 (15 मुहर्रम 1283 हिजरी) के दिन मस्जिद छयता में एक पेड़ के नीचे मदरसा इस्लामिया अरबिया (दारुल उ़लूम देवबन्द) स्थापित किया। यह वास्तविक रूप से मदरसे की आड़ में स्वतन्त्रता संग्राम हेतु फौजी छावनी के रूप में काम करती रही। जिसपर शिक्षा का सुनहरा पर्दा डाल दिया गया था। इस वास्तविकता का वर्णन ब्रिटिश सरकार की CID ने अपनी गुप्त रिपोर्ट में इन शब्दों में बयान किया है- रेशमी रूमाल षडयन्त्र में जो मोलवी शामिल हैं वे सभी इसी मदरसे दारुल उ़लूम से शिक्षा प्राप्त किये हुए हैं। बाद में यह मदरसा स्वतंत्रता आंदोलन का गढ़ बन गया। मौलाना महमूद हसन इसके महत्वपूर्ण कर्णधार बने।
दारुल उलूम देवबंद की स्थापना के उद्देश्य - 
दारुल उ़लूम देवबन्द की स्थापना समय विशेष के आवेश के आधार पर नहीं बल्कि इस की नींव एक निश्चित उद्देश्य और एक जमात की सोची समझी स्कीम के तहत रखी गई है। जिस का समर्थन इस घटना से होता है कि दारुल उ़लूम की स्थापना के पश्चात शाह रफ़ीउद्दीन देवबन्दी हज के लिये मक्का मुअज़्ज़मा गये तो वहां हजरत हाजी इमदादुल्ला से कहा कि हमने देवबन्द में एक मदरसा स्थापित किया है, उस के लिये दुआ फरमाइयें, तो हाज़ी साह़ब ने कहा कि सुबहानल्लाह, आप फरमाते हैं कि हमने मदरसा स्थापित किया है, यह ख़बर नहीं कि कितने सर फज्र की नमाज में गिड़गिड़ाते रहे कि ऐ अल्लाह भारत में इस्लाम की सुरक्षा का कोई साधन पैदा कर दे। यह मदरसा उन्हीं की दुआओं का फल है। देवबन्द का भाग्य है कि इस अमूल्य भूमि ले उड़ा।
मौलाना नानौतवी और हाजी मोह़म्मद अ़ाबिद ने दारुल उ़लूम को स्थापित कर यह घोषणा की कि हमारी शिक्षा का उद्येश्य ऐसे नवयुवक तैयार करना है जो रंग व नसल के लिहाज़ से भारतीय हों और दिल दिमाग़ से मुसलमान। इनमें इस्लामी सभ्यता और संस्कृति की भावना जागी हो, वे दीन और सियासत के आधार पर मुस्लिम हों। इस का एक लाभ यह हुआ कि भारत में पाश्चात्य सभ्यता के फैलाव पर रोक लगी। अब भारत में ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था (मगरिबी) के समर्थक और भारतीय शिक्षा व्यवस्था (मशरीकी) के समर्थक दो समूह बन गए। देवबंद मदरसे ने मगरिबी शिक्षा प्रणाली के बहाव के विरुद्ध बांध का काम किया।
ने स्थापित किया था। उसी क्रांति का रक्त दारुल उ़लूम की रगों में अभी तक संचार कर रहा है।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में दारुल उलूम देवबन्द की भूमिका - 
इस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरी दुनिया के मुसलमानों को प्रभावित किया। दारुल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी शिक्षा का विश्वविद्यालय नहीं है अपितु इस्लामिक मूल्यों एवं संस्कृति को मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करने वाली विचारधारा है। इस विचारधारा से जुड़े लोगों को देवबन्दी कहा जाता है। आज देवबन्द इस्लामिक शिक्षा के प्रचार - प्रसार हेतु संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केन्द्र है। दारुल उलूम देवबंद ने न केवल इस्लामी सहित्य के सम्बन्ध में विशेष भूमिका निभाई है, बल्कि भारतीय समाज में इस्लामी सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया। एक प्रश्न चिह्न कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट कैसे किया जाए, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा की टूटती, बिखरती कड़ियों को जोड़ा जाए। विशाल एवं अत्याचारी ब्रिटिश साम्राज्य के मुकाबले के लिए सभी भारतीयों को वर्ग, धर्म व समुदायों के स्थान पर केवल भारतीय होने की भावना जागृत की जानी थी। प्रशिक्षित देशप्रेम के सूत्र में पिरोए गए नौजवानों का समूह तैयार किया जाने लगा। देवबंद मदरसे ने यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई।
दारुल उलूम देवबन्द ने मौलाना महमूद अल-हसन (शेखुल हिंद) जैसे क़लम, ज्ञान, आचार व व्यवहार में माहिर स्वतंत्रता सैनानी दिए। उन्होंने भारत में ही नहीं अपितु विदेशों (अफ़गानिस्तान, ईरान, तुर्की, सऊदी अरब व मिश्र ) में जाकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की भर्त्सना की। और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेजी शासन के आवाज बलंद की। शेखुल हिन्द ने अपने शिष्यों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी के मध्यम से अंग्रेज़ सरकार के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलकारियों को आजादी की लड़ाई में शामिल किया।
सन 1914 में मौलाना उबैदुल्ला सिन्धी ने अफगानिस्तान में अंग्रेजो के विरुद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की स्वंतत्र सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बनाया। अफगानिस्तान में उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की शाखा कायम की जिसे 1922 ई. में मूल इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दिया गया। शेखुल हिन्द महमूद अल हसन ने 1915 के बाद हिजाज़ (सऊदी अरब) में रहते हुए तुर्की से सम्पर्क बना कर सैनिक सहायता की माँग की। सन 1916 ई. में इसी सम्बन्ध में शेखुल हिन्द इस्तानबुल जाना चहते थे। मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब पाशा तैनात था उसने शेखुल हिन्द को इस्तमबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवर पाशा हिजाज़ पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाक़ात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भारतीयों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज़ से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजी, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा। यह गुप्त सिलसिला तहरीक ए रेशमी रूमाल के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी। सर रोलेट
सन 1916 ई. में अंग्रेज़ों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज़ से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथयों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उज़ैर गुल हकीम नुसरत , मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की शख्त सजा दी गयी। सन 1920 में इनको रिहा किया गया। शेखुल हिन्द की अंग्रेजों के विरूद्ध रेशमी रूमाल आन्दोलन (तहरीके-रेशमी रूमाल), मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजै़रगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का माल्टा जेल की पीड़ा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारुल उलूम देवबंद ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संस्था ने ऐसे अनमोल रत्न पैदा किये जिन्होंने भारत को स्वतंत्र करवाने हेतु प्राण दांव पर लगा दिए। दारुल उलूम देवबंद के स्वतंत्रता सैनानी अपनी विचारधारा से टस से मस नहीं हुए। उन्होंने भारत विरोधियों का डट कर विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया। आज भी दारुल उलूम अपने देशप्रेम के के लिए सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
01. - मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज़ चले गये थे, रेशमी ख़तूत की साजिश में जो मौलवी सम्मिलित हैं, वह लगभग सभी देवबन्द स्कूल से संबंधित हैं।
ए. डब्ल्यू मायर सिनीयर पुलिस अधीक्षक (CID राजनैतिक), पंजाब की रिपोर्ट नं. 122  इंडिया आफिस लंदन में सुरक्षित है।
02. - मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हज़रत शेखुल हिन्द अपनी जि़न्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का ख़ाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाममात्र थी।
गुलाम रसूल मेहर पुस्तक सरगुज़स्त ए मुजाहिदीन (उर्दू) के पृष्ठ नं. 552।
03.- दारुल उलूम देवबन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें दिल्ली, दीनापुर, अमरोत, कराची, खेड़ा और चकवाल में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पशिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत यागि़स्तान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था।
श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे उड़ीसा के गवर्नर का लेख।

दारुल उलूम देवबंद और दारुल उलूम बरेली में समानताएं - 
1. दोनों ही मदरसों में  विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। 
2. दोनों ही मदरसे उत्तर प्रदेश में स्थित हैं।3. दोनों ही ने लाखों आलिम, फाजिल, मौलवी, हाफिज, मुफ्ती, कारी पैदा किए हैं।

सामान्य परिचय - 
पूरा नाम - क़ुतुबुद्दीन अहमद वलीउल्लाह इब्न अब्दुर्रहीम इब्न वहीदुद्दीन इब्न मुअज़्ज़म इब्न मन्सूर अल उमरदीन देहलवी।
प्रचलित नाम - शाह वलीउल्लाह देहलवी
पद - इस्लामिक विद्वान, मुहद्दिद, इतिहासकार और मुग़ल साम्राज्य से ग्रंथ सूची के लेखक।
जन्म - 21 फरवरी 1703
जन्म स्थान - फुलत गाँव मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश, भारत।
मृत्यु - 20 अगस्त 1762 (उम्र 59)
शांत स्थान - शाहजहांँनाबाद (पुरानी दिल्ली)
दफन - मुन्हदिया कब्रिस्तान दिल्ली गेट।
पिता - मौलवी अब्दुर रहीम
दादा - शेख वजीहुद्दीन 
(शाहजहाँ की सेना में अधिकारी)
(मदरसा-ए रहीमिया के संस्थापक)
शिक्षा - मौलाना, सात वर्ष की आयु में हिफ़्ज कुरान। सोलह वर्ष की उम्र में हनफ़ी कानून, धर्मशास्त्र, ज्यामिति, अंकगणित और तर्कशास्त्र के पाठ्यक्रम पूर्ण किया।
शिक्षा प्राप्त की - मदरसा
कार्य -
1. फारसी भाषा में कुरान का अनुवाद। 
2. हुज़्ज़तुल्लाह अल-बलीग़ अल-फौजुल कबीर, 
3. अल-अकीदतुल हसनैन, 
4. मजमुआ ए रसूल
5. फतवा-ए-आलमगिरी के संकलन हेतु औरंगजेब द्वारा नियुक्त।
संतान - 
शाह अब्दुल अजीज।
भाषाएं - अरबी एवं फारसी 
विवाह -  चौदह साल की उम्र में। 

सामान्य परिचय महमूद अल-हसन - 
नाम - महमूद अल हसन 
उपनाम - शेखुल हिन्द 
पिता - मौलाना मुहम्मद जुल्फिकार अली
(इंडिया कंपनी में अरबी शिक्षक)
पद
1. देवबंदी सुन्नी मुस्लिम विद्वान
2. संस्थापक दारुल उलूम देवबंद।
3. स्वतंत्रता सैनानी 
जन्म - 1851 बरेली, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु - 30 नवम्बर 1920
दफन - दारुल उलूम देवबंद के कब्रिस्तान
संबध - हनफी न्यायशास्र
कार्य - ब्रिटिशों के साथ असहयोग पर फतवा
मातृ संस्था - दारुल उलूम देवबंद
सुफी क्रम - चिश्तीया सिलसिला - साबरी - इमाददुल्ला
शिष्य -
1. रशीद अहमद गंगोही
2. हाजी इमाददुल्ला

क्रांतिकारी गतिविधिया
मौलाना महमूद अल-हसन ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारत और शेष विश्व में प्रचार किया। प्रथम विश्व युद्ध के समय तुर्क खिलाफत ने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध  लड़ाई शुरू की तब मौलना हसन ने खिलाफत के समर्थन में कार्य किया। मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली ने पूरे देश में विरोध क्रांतिकारी गतिविधिया शुरू की। मौलाना हसन ने भारत के भीतर और बाहर दोनों ओर से ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र क्रांति शुरू करने के प्रयास किए। उन्होंने स्वयंसेवकों को भारत और विदेशों में प्रशिक्षित किया। इनके शिष्य बड़ी संख्या में स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए। उनमें से सबसे प्रसिद्ध मौलाना उबायदुल्ला सिंधी और मौलाना मुहम्मद मियां मंसूर अंसारी थे।
जेल से रिहाई के बाद महमूद अल-हसन रौलट एक्ट के विरुद्ध मैदान में डट गए। हसन ने एक फतवा जारी कर महात्मा गांधी और इंडियन नेशनल के लिए मुस्लिमों का समर्थन किया। इनके साथियों में से हकीम अजमल खान, मुख्तार अहमद अंसारी ने जामिया मिलिया इस्लामिया की नींव रखी। महमूद अल-हसन ने कुरान का एक प्रसिद्ध अनुवाद भी लिखा।

तब्लीक जमात का वो दौर - 
ज्यादा समय नहीं हुआ, मेरी उम्र लगभग 48 वर्ष है। मैं सात साल से कम उम्र में ही अपने गांव के बुजुर्ग के संपर्क में आया और जमात से जुड़ा। उस समय तब्लीक जमात को हेय दृष्टि से देखा जाता था। कई ऐसे गांव थे जहां जमात वाले जाते तो उन्हें पत्थर मार कर भगा दिया जाता था। लेकिन धीरे - धीरे संघर्ष एवं प्रयासों से जमात आगे बढ़ती गई। मैं जब जमात से जुड़ा तो मेरे परिवार ने इसका बहुत विरोध किया। एक दिन शाम का समय था, मगरिब की नमाज के बाद घर वालों ने जमात से अलग होने के लिए बहुत दबाव डाला, मैं इस से रूठ कर घर से भाग गया। तीन दिन बाद लौटा। आज मेरे गांव ही नहीं, हर गांव में जमात का स्वागत होता है। नई पीढ़ी जुड़ी है।

तब्लीक जमात का कार्यकर्ता- 
तब्लीक जमात कार्यकर्ता अधिकतर घुटनों से ऊपर पजामा पहनते हैं। आलोचना करने वाले इन्हें ऊंचे पजामे वाले भी कहते हैं। इनकी मूंछें लगभग साफ और दाढ़ी तराशी हुई लगभग एक बिलांद होती है। इनकी जमात निश्चित समय अवधि के लिए गश्त हेतु निकलती है।

तब्लीक जमात में अनुशासन एवं अमीर एवं सुरा व्यवस्था - 
चाहे अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम हो या घर पर तालीम, तब्लीक जमात में उपस्थित लोगों में से कोई एक को अमीर (मुखिया) बनाया जाता है। उस समूह के सभी लोग अमीर की बात/निर्देशों का अक्षरशः पालन करते हैं। इस हेतु हर स्तर मरकज (केंद्र) की स्थापना की गई है। अमीर सुरा के परामर्श (मशविरे) से कार्यकर्ता है। तब्लीक जमात सात स्तरीय व्यवस्थाओं के अधीन कार्य करती है।
1. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्था - 
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दरगाह हज़रत निजामुद्दीन दिल्ली, को मरकज (केंद्र) बनाया गया है। संपूर्ण विश्व में जमात की गतिविधियां यहीं से शुरू और निर्देशित होती हैं। वर्तमान में मौलाना शाद इसके अमीर (मुखिया) हैं। संपूर्ण संसार में कौन सी जमात कहां के लिए कब निकली है या वर्ष में किस स्थान पर कौन सा कार्यक्रम होना है, सब यहीं से संचालित होता है। यह अंतरराष्ट्रीय शूरा (परिषद) से परामर्श से कार्य करता है।
2. राष्ट्रीय प्रमुख - 
राष्ट्रीय स्तर पर हर देश में एक राष्ट्रीय प्रमुख (अमीर) होता है जो अंतरराष्ट्रीय मरकज से प्राप्त निर्देशों की पालना करता है। राष्ट्रीय स्तर पर आयोज्य कार्यक्रमों का निर्देशन करता है। राष्ट्रीय प्रमुख राष्ट्रीय शूरा के परामर्श से कार्य को अंजाम देता है।
3. राज्य प्रमुख - 
राज्य/प्रांत स्तर पर जमात का मुख्यालय (मरकज) होता है। यहां से जमात संबंधित कार्यवाही को मूर्त रूप दिया जाता है। राजस्थान में मौलाना चिरागुद्दीन इसके राज्य प्रमुख (अमीर) हैं। राज्य स्तर पर गठित शूरा के परामर्श के अनुसार निर्णय किए जाते हैं। राष्ट्रीय या राज्य स्तर के कार्यक्रम इज्तेमा (लगभग तीन दिन) हेतु आवश्यकता अनुसार सामग्री जिला स्तरीय मरकज से एकत्रित कर ली जाती है। प्रति तीन वर्ष में एक बार राज्य स्तरीय इज्तेमा का आयोजन होता है। 
हाल ही में 15 से 17 फरवरी 2025 को राज्य स्तरीय इज्तेमा झुंझुनू में आयोजित किया गया था।
4. जिला स्तर पर मरकज एवं अमीर - 
हर जिले में किसी एक मस्जिद/मदरसे को मरकज के रूप में मान्यता दी गई है। इस जिले का एक जिला प्रमुख होता है। जिला स्तर पर गठित शूरा के परामर्श एवं निर्देशन में कार्य किया जाता है। यहां पर राज्य एवं जिला स्तर के कार्यक्रमों के आयोजन से संबंधित सामग्री का संग्रह किया जाता है। जमात के पास अपना टेंट, टैंकर, दरी, माइक, जनरेटर एवं सभी सुविधाएं होती हैं। आजकल इन्हें लगभग सामग्री किराए या अन्य से मांग कर नहीं लानी पड़ती। हर जिला मरकज पर कम से कम एक लाख लोगों के ठहरने, खाने, और रुकने के लिए आवश्यक सामग्री का संग्रह होता है। वर्ष में एक बार जिला स्तर पर एक इज्तेमा होता है।
5. ब्लॉक स्तरीय मरकज व्यवस्था - 
जिले के संपूर्ण क्षेत्र को विभिन्न स्थानीय ब्लॉक में बांटा जाता है। इसमें किसी भी एक स्थान को मुख्यालय (स्थानीय मरकज) बनाया जाता है। स्थानीय स्तर पर गठित शूरा के परामर्श अनुसार स्थानीय अमीर निर्णय करता है। यहां पर जमात के लिए भोजन पकाने, बिस्तर एवं अन्य सामग्री का संग्रह किया जाता है। स्थानीय स्तर पर प्रति तीन माह में एक सम्मेलन का आयोजन होता है जिसे जोड़ कहा जाता है।
6. वासस्थान स्तरीय मरकज (केंद्र) - 
हर बस्ती में किसी एक स्थान पर मरकज की स्थापना की जाती है। यहां स्थानीय व्यक्ति ही अमीर होता है। हफ्ते में दो स्थानीय शूरा के परामर्श से अमीर के निर्देशन/नेतृत्व में गश्त का कार्यक्रम आयोजित होता है। गश्त से पूर्व ही कहां किस के पास दीन की दावत हेतु जाना है, यह निश्चित कर लिया जाता है। बाहर से कोई जमात आई है तो उसके साथ स्थानीय मरकज से कोई ना कोई साथी अवश्य होता है। स्थानीय मरकज में भोजन एवं बिस्तर आदि की पूर्ण व्यवस्था होती है। पहले जमात के लोग यह सब सामान साथ रखते थे परन्तु अब जमात के बढ़ते प्रभाव के कारण हर जगह सामग्री उपलब्ध हो जाती है। 
7. घर पर तब्लीक कार्यक्रम - 
तबलीग जमात के फैलने का यही मुख्य कारण है। जमात के प्रत्येक कार्यकर्ता को अपने घर पर छोटा कार्यक्रम सप्ताह में कम से कम तीन दिन आयोजित करता है। इसमें वह स्वयं अपने परिवार के साथ बैठ कर इस्लाम धर्म के बारे में चर्चा करता है।

स्त्रियों की जमात - जमात ए नुस्वा - 
घरों में इस्लामिक माहौल तैयार करने में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं प्रभावी होती हैं। महिलाओं की जमात इन सभी सात स्तरीय व्यवस्था के अधीन कार्य करती है।

विशेष - जमात के प्रत्येक कार्य/कार्यक्रम में भागीदारी हेतु खर्च कार्यकर्ता स्वयं को देना होता है।

तब्लीक जमात का प्रशिक्षण कार्यक्रम -
जमात का कार्यकर्ता तैयार करने का प्रशिक्षण कार्यक्रम जमीनी स्तर से शुरू होता है। यह अघोषित प्रशिक्षण कार्यक्रम पूर्ण होने पर एक कट्टर जमाती तैयार कर देता है। अंतिम प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लेने वाला स्वयं सेवक तन, मन और धन से जमात के कामों में जुट जाता है। इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों की सब से विशेष बात यह है कि कार्यकर्ता को - 
1. स्वयं का खर्च
2. न्यूनतम आवश्यकता
3. अधिकतम सीखना (इबादत)
4. अमीर की बात मानना (इताअत)
5. किसी कार्य को करने से पूर्व स्वीकृति लेना (इजाजत)
6. स्वयं को ढालना (प्रशिक्षण)
7. कार्यकर्ता तैयार (कट्टर तब्लीक जमती)
अंतिम बिंदु पर आने में कार्यकर्ता/स्वयंसेवक को लगभग दो वर्ष का समय लग सकता है। एक बार तैयार स्वयंसेवक लोगों में घुलमिल मिलकर 10 नए स्वयं सेवक तैयार कर लेता है। यही कारण है कि तब्लीक जमात का वर्चस्व दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। 
तब्लीक जमात कार्यकर्ता की पहचान - 
1. टखने से ऊंचा पजामा
2. कट वाली सिलाई का चौला, कपड़े लगभग सफेद होते हैं।
3. सफेद इमाम या टोपी
4. जेब में मिशवाक (बबूल की छाल)
5. सर्दियों में चमड़े के मौजे
6. "फरमाया है कि, कहा है कि, एक हदीश का मफहुम है कि" अधिकांश का तकिया कलाम होता है।
7. जमात का स्वयंसेवक अधिकांशतः कम बोलता है।
8. वह एक छोटे मणि वाली पतली तस्बीह (माला) अपने साथ रखता है।
9. अधिकांश की मूंछें मुंडी हुई, दाढ़ी एक बिलांद के आसपास होती है।
10. अधिकांश के माथे पर काला निशान होता है।
11. जमाती कार्यकर्ता रसूल एवं अन्य से अधिक अल्लाह को महत्व देता है।
12. जमाती कार्यकर्ता शादी में बेटी वालों के घर, मरे हुए आदमी के घर एवं अन्य अविश्वास की जगह खाना नहीं खाता।
13. जमाती कार्यकर्ता मिरास एवं शारियत के मामले में कठोर होता है।
14. जमात का कार्यकर्ता किसी भी स्थिति में झूठ नहीं बोल सकता।
15. जमाती कार्यकर्ता की नजर लगभग नीची रहती है। वह आंखों में सुरमा डालता है। 

1. घर में प्रति दिन सुबह या शाम को तालीम का कार्य - 
जमात का कार्यकर्ता सब से पहले अपने घरों में प्रति दिन इस्लामिक शिक्षा का कार्य करता है। इसे दैनिक तालीम कहा जाता है। इसमें हदीश या अन्य शिक्षा संबंधित बातें की जाती हैं। तब्लीकी प्रशिक्षण का यह प्रथम सोपान है।
2. दिन में कुछ घंटे के लिए बयान - 
क्षेत्र में रहने वाले स्थानीय लोग कुछ समय के लिए बस्ती में गश्त के लिए निकलते हैं।पर स्वयं सेवक के लिए आवश्यक है कि हफ्ते में दो दिन अपनी बस्ती में गश्त कर लोगों के घर पर जा कर इस्लाम के बारे में बात करे और उसे नमाज हेतु आमंत्रित करें। यह गश्त फज्र या अस्र की नमाज के बाद की जाती है। इसे बयान कहते हैं।
3. सप्ताह में दो दिन बस्ती का दौरा (गश्त) - 
फज्र या अस्र की नमाज के बाद बस्ती के लोगों से मिलने का कार्य सप्ताह में कम से कम दो दिन आयोजित होता है जिसे गश्त कहते हैं।
4. बेसिक कोर्स 3 दिन की जमात - 
जामत स्वयं सेवक का 3 दिन घर से बाहर जाना। तब्लीक जमात का प्रारंभिक कार्यकर्ता तीन दिन के लिए जमात में जाता है। यहां यह उसका बेसिक कोर्स है। यहां वह साधारण रूप से जमात में धर्म और उसके महत्व को समझता है।
5 तब्लीक जमात 10 दिन का एडवांस कोर्स - 
जामत के स्वयं सेवक (जमाती) को बेसिक कोर्स के बाद दस दिन के लिए जमात में जाना होगा। यह सीखने का एडवांस कोर्स है। इसमें जमाती की नमाज एवं अन्य बेसिक इस्लामिक जानकारी दुरुस्त की जाती है। द्वितीय चरण प्रथम चरण से थोड़ा मुश्किल है। इसमें लंबी इबादत की आदत डाली जाती है।
6. सुपर एडवांस कोर्स 40 दिन की जमात - 
तब्लीक जमात का तीसरा चरण चालीस दिन की जमात होती है। इसे चिल्ला कहा जाता है। इस अवधि में सही प्रकार से नमाज पढ़ना, हदीश एवं सुन्नाह का ज्ञान, कुरान की कुछ आयतों के कंठस्थ करवाना, विभिन्न दुआओं को कंठस्थ करवाने के साथ रात के समय नमाज का प्रशिक्षण दिया जाता है। पूरे दिन वजू से कैसे रहना है एवं काम के साथ - साथ इबादत कैसे करनी है, यह सिखाया जाता है।
यह कोर्स करने के बाद कार्यकर्ता तब्लीक कार्य हेतु तैयार है। 
7. चार माह की जमात - 
तब्लीक जमात का अंतिम कार्यकर्ता प्रशिक्षण कार्यक्रम जिसमें चिल्ला किया हुआ कार्यकर्ता भाग लेता है। इसमें स्वयं सेवक को फिकह (न्याय शास्त्र), शरीयत एवं अन्य इस्लामी कानून/ गतिविधियों का सूक्ष्म ज्ञान दिया जाता है। चार माह की जमात में निकला कर वापस आया व्यक्ति लगभग सभी इस्लामिक गतिविधियों में पारंगत हो जाता है। अब वह जामत की मुख्य शूरा में प्रवेश करता है। इसके बाद प्रशिक्षण कोर्स समाप्त हो जाता है। इन प्रशिक्षण प्राप्त स्वयं सेवकों के नेतृत्व में नवीन जुड़े कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण अनवरत चलता रहता है।

तब्लीक जमात की विशेषताएं - 
1. विश्व के 195 देशों में अपनी शांव स्तर से शाखाओं के साथ यह सब से बड़ा संगठन है।
2. तब्लीक जमात के पास संसार के हर कौने में मदरसे और मरकज उपलब्ध हैं।
3. तब्लीक जमात सोशल मीडिया से दूरी रखता है।
4. तब्लीक जमात की हजारों टोलियां वर्ष के 365 दिन x 7X 24 घंटे सम्पूर्ण विश्व में घूमती रहती हैं।
5. तब्लीक जमात आर्थिक लेनदेन कम से कम करती है।
6. तब्लीक जमात का स्वयं सेवक स्वयं के खर्च पर टोलियों में शामिल होता है।
7. तब्लीक जमात किसी भी सरकारी एजेंसी से कम समय में विश्व के किसी भी क्षेत्र में संपर्क स्थापित कर सकते हैं।
8. यह केवल आखिरत (हिसाब के दिन) की बात करते हैं।
9. तब्लीक जमात का कार्यकर्ता स्थान विशेष के सरकारी नियमों का पूर्ण पालन करते हैं।
10. जमात शुरू से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का अंग रही। जमात का राष्ट्रवादी स्वरूप स्वागत योग्य है।

तब्लीक जमात की आलोचना - 
1. तब्लीक जमात जमीन के नीचे कब्र और ऊपर आसमान की बात करती है। मारने के बाद की चर्चा पर अधिक जोर।
2. यह आम आदमी को जीवन में जी ते जी क्या करना है, रोजगार एवं परिवार का पालन पोषण, शिक्षा, संस्कार से संबंधित कोई चर्चा नहीं करते।
3. मारने के बाद सजा और इनाम के विषय में अधिक चर्चा।
4. जमात में पढ़ने वाले बच्चों को शामिल कर लेते हैं, इस से उनकी पढ़ाई प्रभावित होती है।
5. तब्लीक जमात कार्यकर्ता मस्जिदों में सो जाते हैं। इस से मस्जिदों में सफाई संबंधि समस्या आती है।
6. जमात के कार्यकर्ता कहते हैं उस प्रकार का व्यवहार नहीं करते हैं। कथनी और करनी में अंतर होता है।
7. अधिकांश जमाती छिपी राजनीति करते हैं। पारिवारिक,एवं समाजिक व्यवस्थाओं में कलह का कारण बनते हैं।
8. जमाती अंदरूनी रूप से जमात के उद्देश्यों की पूर्ति करने में असफल रहे हैं।
9. जमात की स्थापना मैकाले की शिक्षा पद्धति के विरोध में हुई। परन्तु इसके विकल्प के रूप में अन्य व्यवस्था देने में यह नाकामयाब रही।
10. जमात भारत के आम मुसलमानों में आमूलचूल परिवर्तन लाने में असफल रही। सफाई, शिक्षा एवं रोजगार के संबंध में जमात कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई।

मुख्तार अहमद अंसारी सामान्य परिचय
नाम - मुख्तार अंसारी 
जन्म - 25 दिसम्बर 1880
जन्म स्थान - युसुफ़पुर, मोहम्मदाबाद, ग़ाज़ीपुर, भारत
बाद में निवास - हैदराबाद
मृत्यु - 1936 (आयु: 56वर्ष)
मृत्यु का स्थान - मसूरी-दिल्ली (ट्रेन में दिल का दौरा पड़ने से)
दफन - जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली।
शिक्षा
1.विक्टोरिया हाई स्कूल
2. मद्रास मेडिकल कॉलेज, एम.एस.
3. लंडन लॉक हास्पिटल, एम.डी (छात्रवृति)
व्यवसाय - 
1.चैरिंग क्रॉस हॉस्पिटल
2. चिकित्सक, दिल्ली
3. स्वतंत्रता सेनानी 
पद
1.पूर्व अध्यक्ष (1927) एवं महासचिव भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
2. स्वतंत्रता सैनानी
3. पूर्व अध्यक्ष मुस्लिम लीग
4. संस्थापक - जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय 
5.कुलपति JMIU - 1928 से 1936 तक
स्मृतियों में - 
मुख़्तार अहमद अंसारी के सम्मान में  भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट।

राष्ट्रवादी गतिविधियां
डॉक्टर अंसारी इंग्लैंड में अपने प्रवास के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए। दिल्ली आकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों में शामिल हो गए। 1916 की लखनऊ संधि की बातचीत में उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1918 से 1920 के बीच लीग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। वे खिलाफत आंदोलन के एक मुखर समर्थक थे और उन्होंने इस्लाम के खलीफा, तुर्की के सुलतान को हटाने के मुस्तफा कमाल के निर्णय के खिलाफ मुद्दे पर खिलाफत आंदोलन में भाग लिया। 1920 में लीग की अंदरूनी लड़ाई और राजनीतिक विभाजन के बाद जिन्ना अलगाववादी विचारों के कारण अंसारी महात्मा गांधी और कांग्रेस के करीब आए। अंसारी, जामिया मिलिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति के संस्थापकों में से एक थे और 1927 में इसके संस्थापक, हकीम अजमल खान की मौत के बाद उन्होंने दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के रूप में भी काम किया।

निजी राजनैतिक जीवन और धारणाएं
डॉ. अंसारी की पत्नी अत्यंत धार्मिक महिला थीं जिन्होंने उनके साथ दिल्ली की मुस्लिम महिलाओं के उत्थान के लिए काम किया था। अंसारी परिवार एक महलनुमा घर में रहता था जिसे उर्दू में दारुस सलाम या हाउस ऑफ पीस कहा जाता था। महात्मा गांधी जब भी दिल्ली आते, अंसारी परिवार उनका स्वागत करता और यह घर कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों का आधार रहा। राजनीति के साथ - साथ चित्सकीय कार्य जारी रखा। स्वतंत्रता आंदोलन में आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने में अंसारी सब से अग्रणी रहे।
डॉ॰ अंसारी महात्मा गांधी के बहुत करीब थे और उनके अहिंसा तथा अहिंसक नागरिक प्रतिरोध के प्रमुख उपदेशों के साथ गांधीवाद के पक्षधर थे। महात्मा के साथ उनकी अंतरंग दोस्ती रही थी।

जामिया मिलिया इस्लामिया का संक्षिप्त परिचय - 
नाम - जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली
स्थान - ओखला में यमुना के किनारे , नई दिल्ली।
स्थापना दिनांक - 1920
स्तर - राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय दिल्ली
(दिसबर 1988 गजट संख्या 59 के द्वारा भारत का केंद्रीय विश्वविद्यालय) 
भवन का डिजाइन - सर सरवर जंग, दिल्ली।
संस्थापक - अली ब्रदर्स मोहम्मद अली और शौकत अली जौहर।
संरक्षक -  अबुल कलाम आज़ाद, हकीम अजमल खां, डॉक्टर अंसारी।
प्रथम कुलपति - मोहम्मद अली जौहर।
1927 में डाक्टर ज़ाकिर हुसैन ने इसे संभाला। उन्हें विश्वविद्यालय के परिसर में दफनाया गया जहां उनका मकबरा जनता के लिए खुला है। बाद में मुख्तार अहमद अंसारी कुलपति बन गए। विश्वविद्यालय के मुख्य सभागार और स्वास्थ्य केंद्र का नाम उनके नाम पर रखा गया है। 
महमूद अल-हसन, अब्दुल मजीद ख्वाजा
आबिद हुसैन, हकीम अजमल ख़ान, मोहम्मद मुजीब के नेतृत्व में जामिया डीम्ड विश्वविद्यालय बना।
सऊदी अरब सरकार से दान - वर्ष 2006 में सऊदी अरब सुल्तान अब्दुल्ला बिन अल सऊद ने विश्वविद्यालय की यात्रा की और पुस्तकालय के निर्माण के लिए 30 मिलियन डॉलर का दान दिया। यह पुस्तकालय डॉ जाकिर हुसैन सेंट्रल लाइब्रेरी के रूप में जाना जाता है।
कैंपस - हरियाली युक्त परिसर में दस फैकल्टीज के लिए आधुनिक भवन बने हैं। यहां क्रिकेट मैदान (भोपाल ग्राउंड) 
यहां - 
1.अनवर जमाल किदवाई मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर (एमसीआरसी)
2. इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी फैकल्टी
3.  ललित कला फैकल्टी, 
4. सैद्धांतिक भौतिकी केंद्र और 
5. मौलाना मोहम्मद अली जौहर अकादमी
6. थर्ड वर्ल्ड स्टडीज (एटीडब्ल्यूएस)
7. जामिया स्नातक और स्नातकोत्तर सूचना और प्रौद्योगिकी पाठ्यक्रम।
8. कानून फैकल्टी (बी.ए. एल.एल.बी. (ऑनर्स)
9. एलएलएम (डिग्री)
10. इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी संकाय

✍️शमशेर भालू खां 
9587243963

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