Friday, 19 July 2024

भारत में घोषित इमरजेंसी एक कहानी

स्वतंत्र भारत में आपातकाल 
भारत के इतिहास में लोकतंत्र के उठा पटक की कई घटनाएं हुई हैं, इन में से एक है इमरजेंसी। जयप्रकाश नारायण ने इसे भारतीय इतिहास का सर्वाधिक काला काल कहा । हाल में नरेन्द्र मोदी की सरकार ने घोषणा की कि 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।

             आपातकाल 1975

1967 से 1975 तक इंदिरा शक्ति के चरम पर थीं उन्हें भारत की साम्राज्ञी, आयरन लेडी और दुर्गा के नाम से पुकारने लगे।
25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने तक भारत में आपातकाल घोषित किया गया। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने देश को आन्तरिक व वाह्य सुरक्षा सम्बन्धी चुनौती का कारण दे कर प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर संविधान के अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा की जो विवादास्पद और अलोकतांत्रिक निर्णय था। 
आपातकाल की घोषणा के साथ ही प्रधानमन्त्री को असीमित अधिकार मिल गए। सभी चुनाव निरस्त कर दिये गये। नागरिकों के मूल अधिकार छीन लिये गये। विपक्ष के लगभग सभी राजनैतिक विरोधियों को (मीसा बंदी) जेल में डाल दिया गया। प्रेस पर प्रतिबंधित लगा दिया गया। संजय गांधी ने इसी समय बड़े पैमाने पर लोगों की नसबन्दी करवाई।
      द हिंदू
     इंडियन हेराल्ड
    दैनिक जागरण 
इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इस इंदिरा - 
आम चुनाव 1967 और 1971 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकार और कांग्रेस पार्टी को पूर्ण नियंत्रण में कर लिया। सरकार केंद्रीय मंत्रिमंडल के स्थान पर प्रधानमंत्री सचिवालय से (सचिव परमेश्वर नारायण हकसर, इंदिरा गांधी के मुख्य सलाहकार व इंदिरा गांधी के पार्टी वफादार अफसरों) द्वारा संचालित होने लगी। इंदिरा गांधी के इस व्यवहार से 1969 में कांग्रेस, पुराने लोग जो इंदिरा विरोधी थे कांग्रेस (ओ) सिंडीकेट और इंदिरा कांग्रेस (आर) के रूप में दो भागों में विभाजित हो गई। कांग्रेस कमेटी और  सांसद में से अधिकांश इन्दिरा गांधी के साथ रहे। इंदिरा गांधी का प्रभाव इतना बढ़ गया कि वह कांग्रेस विधायक दल द्वारा निर्वाचित सदस्यों के स्थान पर राज्यों में चयनित विधायक के स्थान पर वफादारों को मुख्यमंत्री मनोनित करना शुरू कर दिया।
    इन्दिरा गांधी

इंदिरा गांधी की शक्ति का राज उनका करिश्माई नेतृत्व और जुलाई 1969 में  बैंकों का राष्ट्रीयकरण व सितम्बर 1970 में राजभत्ते (प्रिवी पर्स) समाप्ति का निर्णय थे जो अध्यादेश के माध्यम से लागू किए गए। सिंडीकेट के भारी विरोध के बावजूद इंदिरा गरीब समर्थक, धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी  नेता के रूप में छवि बनाने में कामयाब रहीं। उन्हें किसान, वंचित, गरीब, दलित, महिला और अल्पसंख्यक वर्ग का खुल कर साथ मिला। लोग उन्हें इंदिरा अम्मा कहते थे।
सन 1971 के लोक सभा चुनावों में गरीबी हटाओ का नारा जादू की तरह चला और कुल 518 में से 352 सीटें जीत कर सरकार बनाई। दिसंबर 1971 के युद्ध में पाकिस्तान से बांग्लादेश को स्वतंत्रता दिलवाई। अगले महीने ही उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। 

इंदिरा गांधी की जीत और देश के आंतरिक हालात 
मीसा लागू होने से पहले देश का राजनीतिक माहौल कैसा था, यह जान लेना जरूरी है। इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीकरण किए जाने और राजा- महाराजाओं का प्रिवी पर्स बंद किए जाने से पूंजीपति वर्ग और राज घराने इंदिरा गांधी से खार खाए बैठे थे। देश में असंतोष का माहौल पैदा करने और भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। जयप्रकाश नारायण जिन्होंने कभी लोकनीति और सम्पूर्ण क्रांति के नारे से लोकप्रियता हासिल की। उनके आन्दोलन ने भी देश के युवाओं को विचलित कर रखा था। बिहार, गुजरात में कांग्रेस के खिलाफ छात्रों का आंदोलन भी उग्र हो रहा था। बिहार में इस आंदोलन को और हवा दे रहे थे जेपी।
वह अपने भाषणों में सेना और पुलिस को सरकार के अनैतिक आदेश नहीं मानने का आह्वान कर रहे थे। कौनसे आदेश अनैतिक हैं, इसका कोई खुलासा वे नहीं कर रहे थे। कुल मिलाकर देश अराजकता के दौर से गुजर रहा था। जेपी के पक्ष में देश का प्रचारतंत्र और पूंजीपति वर्ग विरुदावली गाने में लगा था जैसा कि साल 2010 से 2013 तक मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाने वाले अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के मामले में देखा है। 

इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय और इंदिरा - 
1971 के चुनाव इंदिरा ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया। चुनाव परिणाम के चार वर्ष बाद राज नारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में वाद दायर किया कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसे खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने हेतु अनुचित संसाधनों का प्रयोग किय सहित 14 आरोप लगाए। न्यायालय ने आरोप सही मानते हुए इंडिया की सदस्यता बर्खास्त कर दी। राजनरायण के वकील शांतिभूषण ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग सिद्ध करने के लिए यह उदाहरण दिया कि प्रधानमंत्री के सचिव यशपाल कपूर ने राष्ट्रपति द्वारा उनका इस्तीफा मंजूर होने से पहले ही इंदिरा गांधी के लिए चुनाव में काम करना शुरू कर दिया जो सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का पुख्ता सबूत माना गया। 
12 जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन साल सिन्हा ने 14 में से 12 आरोप खारिज कर निर्णय दिया। इस निर्णय से देश की राजनीति की दिशा बदल गई, जिसमें इंदिरा गांधी को दोषी मानते हुए छह वर्षों किसी भी पद को संभालने का प्रतिबंध लगा दिया। इंदिरा गांधी इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय जाने का फैसला करती हैं उस समय सप्रीम कोर्ट में गर्मियों की छुट्टियां थीं। अतः इस केस की सुनवाई अवकाशकालीन जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने की थी और अपने फैसले में कहा कि वे इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दी परंतु कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं
25 जून 1977 को रेडियो पर प्रसारित संदेश में कहा जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी। और आपातकाल लागू कर करवा देती हैं।

इसके विरोध में जेपी की रामलीला मैदान में सभा - 
मुझे इसका डर नहीं है और मैं आज इस रैली में भी अपने उस आह्वान को दोहराता हूं ताकि कुछ दूर, संसद में बैठे लोग भी सुन लें। मैं आज फिर सभी पुलिस कर्मियों और जवानों का आह्वान करता हूं कि इस सरकार के आदेश नहीं मानें क्योंकि इस सरकार ने शासन करने की अपनी वैधता खो दी है।" जेपी 
       रामलीला मैदान दिल्ली की सभा में जेपी 

एमरजेंसी संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत - 
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि संविधान के अनुच्छेद 352 को लागू करके आपातकाल की घोषणा की गई थी, जो राष्ट्रीय आपातकाल लगाने का एक निर्धारित तरीका है। यानी आपातकाल लगाते हु्ए भी संविधान को नकारा नहीं गया। उसकी वैधता से इनकार नहीं किया गया। आपातकाल की घोषणा एक निर्वाचित कार्यकारिणी द्वारा की गई।

घटनाक्रम 
- जन 1975 राजनारायण द्वारा 14 सूत्री वाद दायर
- 12 जून 1975 को न्यायाधीश जगमोहन का निर्णय
- 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश बरकरार रखा, पर इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की अनुमति दी।
- 25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण ने इस्तीफा देने तक आंदोलन का आह्वान किया।
- 25 जून 1975 को राष्ट्रपति के अध्यादेश पास
- 26 जून से आपातकाल लागू
- मीसा के अंतर्गत विरोधी गिरफ्तार, Rss प्रतिबंधित
- संजय गांधी के पास असीमित शक्तियां
- 1976 में नसबंदी अभियान शुरू
- 18 जनवरी  लोकसभा भंग, मार्च में चुनाव की घोषणा
- सभी राजनैतिक बन्दी रिहा
- 21 मार्च - आपातकाल समाप्त
- 16 से 20 मार्च - 6th लोकसभा चुनाव सम्पन्न। 
- जनता पार्टी भारी बहुमत कांग्रेस153 पर सिमट गई और आजादी के बाद केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार
- इंदिरा गांधी रायबरेली और संजय गांधी अमेठी से हारे 
- 12 जुलाई 2024 केन्द्र सरकार 25 जून को 'संविधान हत्या दिवस' के नाम से मनाने की घोषणा की।

मीसा (आंतरिक सुरक्षा क़ानून) -  
मीसा के तहत सरकार किसी भी व्यक्ति को राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा हेतु खतरा बता कर गिरफ्तार किया जा सकता था। इंदिरा गांधी ने राजनीतिक विरोधियों को इस कानून के अधीन गिरफ़्तार किया गया। जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फ़र्नांडिस, घनश्याम तिवाड़ी और अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। हजारों कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। इस प्रतिबंध को चुनौती दी गई और स्वयंसेवक प्रतिबंध के खिलाफ सत्याग्रह में कूद पड़े। आपातकाल की घोषणा के बाद सिख नेताओ ने अमृतसर में बैठकों बुलाकर इसे इंदिरा की फासीवादी प्रवृत्ति का नाम दिया। देश में पहले अमृतसर से 9 जुलाई 1975 से जन विरोध का आयोजन अकाली दल ने  शुरू किया जिसे लोकतंत्र की रक्षा का अभियान नाम दिया।

संजय गांधी और आपतकाल में उनकी भूमिका - 
सितम्बर 1976 में संजय गाँधी ने बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने की मंशा से पूरे देश में अनिवार्य पुरुष नसबंदी का आदेश जारी किया। लोगों की बलात नसबंदी की गई। अघोषित रूप से संजय गांधी ने पूरे कार्यक्रम का संचालन किया। अधिकारियों को निश्चित टार्गेट दिया गया जिस से कुछ कुंवारे लोगों की नसबंदी भी की गई।

आम चुनाव 1977 ओर जनता पार्टी की जीत - 
आपातकाल के दो वर्ष पश्चात भरी विरोध के कारण लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश की गई। आपतकाल लागू करने का परिणाम कांग्रेस के लिए घटक सिद्ध हुआ और इंदिरा गांधी कांग्रेस के गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं और 153 सीट ही जीत पाई। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रथम गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली।

आपतकाल के निर्णय की जांच हेतु शाह आयोग का गठन - 
नई सरकार ने आपातकाल में लिए गए फ़ैसलों की जाँच हेतु शाह आयोग गठित किया। नई सरकार केवल दो वर्ष ही टिक पाई और अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण 1979 में सरकार गिर गई। उप प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह मंत्रियों की दोहरी सदस्यता (जन संघ की सदस्यता और मंत्री पद) का विरोध किया समर्थन वापस ले लिया। चरण सिंह  ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई जो पाँच महीने चली। चरण सिंह के नाम कभी संसद नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड दर्ज हो गया

मीसा संशोधन विधेयक 
7 दिसंबर 1978 को जनता पार्टी सरकार ने 44वाँ संविधान संशोधन विधेयक पेश कर आपातकाल लागू करने के लिए आंतरिक अशांति को आधार के रूप में हटा दिया, जिसका अर्थ है कि अब युद्ध और बाहरी आक्रमण के अलावा केवल सशस्त्र विद्रोह आपतकाल का आधार होगा। कांग्रेस ने दोनो सदनों में इस विधेयक का समर्थन किया। 

इंदिरा गांधी का 20- सूत्री कार्यक्रम - 
इमरजेंसी लगाने के बाद इंदिरा गांधी ने 1 जुलाई 1975 को कृषि, औद्योगिक उत्पादन, जन सुविधाओं के सुधार, गरीबी और अशिक्षा से लड़ने तथा आमजन की बेहतरी के लिए 20- सूत्री आर्थिक कार्यक्रम घोषित किया जो एक क्रांतिकारी कदम था। इंदिरा की मंशा थी देश में प्रगतिशील सामाजिक, आर्थिक रूपांतरण सुनिश्चित करना। इस 20- सूत्री कार्यक्रम का मूल मक़सद भूमि सुधार कार्यक्रम तेज करना, खेतीहर मज़दूरों की स्थिति में सुधार करना, ऋणदासता आदि का उन्मूलन करना था। इंदिरा गांधी ने बाद में इस कार्यक्रम को 1980, 1982 में और बाद में राजीव गांधी ने 1986 में इसे बदलते समय की आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधित किया और इसे 1 अप्रैल 1987 से नए रूप में लागू किया गया। 20- सूत्री कार्यक्रम ने भारत में सामाजिक -आर्थिक बदलाव लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

फखरुद्दीन अली अहमद तत्कालीन राष्ट्रपति 
तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद खान

आलोचना - 
इमरजेंसी लगाने के फ़ैसले और इसके लागू करने से पहले की प्रक्रियागत ख़ामियों की आलोचना की जा सकती है, लेकिन इमरजेंसी को संविधान की ‘हत्या’ कहना तकनीकी रूप से पूरी तरह ग़लत है। इमरजेंसी संविधान के प्रावधान के तहत लगाई गई थी। संविधान निर्माण के समय संविधान सभा में काफ़ी बहस के बाद सरकार को बाहरी या गंभीर आंतरिक ख़तरे को देखते हुए आपातकाल लगाने का अधिकार दिया गया था। 

इमरजेंसी - तब और अब का कच्चा-चिट्ठा
हाल ही में केंद्र सरकार की ओर से अधिसूचना जारी कर 25 जून को संविधान हत्या दिवस घोषित किया गया है। 
विगत दस वर्षों से सत्तासीन मोदी सरकार ने तीसरे कार्यकाल का पहला संसदीय सत्र बीत जाने के बाद ऐलान किया है कि हर साल 25 जून को इमरजेंसी लगाये जाने की याद में संविधान हत्या दिवस मनाया जाएगा। क़रीब आधी सदी के बाद इमरजेंसी की याद को ‘सरकारी’ बनाने की क़वायद की जा रही है।
परंतु अल्पसंख्यक,दलित और किसान वर्ग के साथ होने वाले अन्याय की घटनाएं और सरकार प्रायोजित अनदेखी ने उस आपातकाल के दंश को कुछ कम ही किया। वो इमरजेंसी संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत थी जिसमें संभव है कुछ मनमानी या दुरुपयोग किया गया हो परंतु संविधान की हत्या नहीं थी। हत्या तो अंत होता है। क्या हत्या के बाद कुछ पुनर्जीवित हो सकता है ? उसी संविधान की देख-रेख में 1977 का चुनाव हुआ। इंदिरा गांधी पराजित हुईं। इमरजेंसी हटा कर ही इंदिरा गाँधी ने सरकार से इस्तीफा दिया तो संविधान की हत्या कैसे हुई। इसके बाद 1980 में इंदिरा प्रबल बहुमत से सरकार में आई और 1989 तक कांग्रेस सरकार में रही। वर्तमान सरकार में मोदी जी के हरेक चुनाव प्रचार में सरकारी मशीनरी का जमकर दुरुपयोग हो रहा है। सरकारी मशीनरी ही नहीं बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएँ भी जिस तरह चुनाव में बीजेपी के लिए काम करती नज़र आती हैं, उसकी तुलना करें तो प्रशासन द्वारा प्रधानमंत्री के लिए मंच बनवाना तो एकदम मामूली मामला लगता है।

समालोचना - 
देश में कांग्रेस का शासन उखाड़ फेंकने के बाद लोकनीति का शासन स्थापित करने का जेपी का दावा और उनका सम्पूर्ण क्रांति का मनभावन नारा लोगों को ख़ूब लुभा रहा था। इस वादे और नारे का कमाल था कि जेपी को लोकनायक कहा जाने लगा। यह बात जरूर है कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनते ही उनका वादा और नारा फ्लॉप हो गया था। उनके जीते जी पार्टी में सिर-फुटव्वल का दौर चला। दो साल में ही गैर- कांग्रेसी सरकार एक्सपोज हो गई थी। भानुमती का ऐसा कुनबा था जो एक ही झटके में धराशायी हो गया।
आपतकाल से पहले के दौर के अख़बार पत्र पत्रिकाएं पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि देश में उच्छृंखलता और अराजकता का माहौल पैदा किया जा रहा था। यह सिर्फ़ इंदिरा गाँधी का ही मानना नहीं था। टाइम्स ऑफ इंडिया के तत्कालीन संपादक शाम लाल ने लिखा कि “जो राजनीतिक माहौल जेपी पैदा कर रहे हैं वह क्रांति के लिए नहीं बल्कि अराजकता के लिए अनुकूल है।” 
द हिंदू ने लिखा, “राजनीति की मुख्यधारा से बाहर रहने और उसको मज़बूत आधार पर नया आकार देने से कतराने के बाद अब श्री नारायण इसी घर में ग़लत रास्ते से घुसने की कोशिश कर रहे हैं और इस घर को ही हर एक व्यक्ति के सर पर गिरा देना चाहते हैं।”

जनसामान्य के लिए आपातकाल था कानून का राज 
हर घटना, हर मसले के दो पहलू होते हैं, एक उजला और दूसरा स्याह पक्ष। सुनी-सुनाई बातों के आधार पर इमरजेंसी की आलोचना करने से पूर्व युवा पीढ़ी को इसकी पृष्ठभूमि और उस समय राष्ट्रीय परिदृश्य पर पसरे अराजकता के माहौल से वाकिफ़ होना चाहिए। 
:युवा पीढ़ी आपातकाल के दौरान क़ायम हुए क़ानून के राज से अनभिज्ञ है क्योंकि उस बारे में चर्चा कोई नहीं करता। मैंने अपने अनुभव और उस दौरान राज-काज़ में आए बदलाव को उस समय के लोगों से सुनने के बाद कहता हूं कि जनसामान्य के लिए आपातकाल सुशासन का काल रहा। कानून का पालन करने वाले आम आदमी, ग़रीब, दबे -कुचले वर्ग के लिए आपातकाल भारत में अब तक के शासन का सबसे बेहतरीन काल था। यही वो जमाना था जब लम्पट/ उच्छृंखल जनसमूह कानून की मर्यादा को समझकर क़ानून के दायरे में रहना सीखा। क़ानून की क़दर करना सब जान गए। सार्वजनिक स्थलों और दफ़्तरों में लोग अनुशासन में रहना सीख गए थे। यह सच है कि पुरस्कृत होने के चक्कर में अति उत्साही अधिकारियों द्वारा नसबंदी के मामले में कई जगह ज्यादतियां की गईं। प्रेस पर सेंसरशिप थोपी गई। राजनीतिक आंदोलनों की अगुवाई करने और उनमें प्रमुख भागीदारी निभाने वाले राजनेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। आज के हालात से कार्यपालिका,व्यवस्थापिका निम्न्तर स्तर के हो गए थे और जन सामान्य के हालात खराब थे। दो साल के आपातकाल ने वास्तविक शासन की झलक दिखाई।

शमशेर भालू खान 
9587243963

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