भारत के महान सपूत - टीपू सुल्तान
नाम - सुल्तान फतेह अली (टीपू सुल्तान)
जन्म - 1 दिसंबर 1751 /10 नवंबर 1750 को, टीपू की जन्म तिथि के बारे में विरोधाभास है।
जन्म स्थान - वर्तमान कर्नाटक में स्थित बेंगलुरू के निकट कोलार जिले के देवनहल्ली में हुआ।
राज्याभिषेक - 10 दिसंबर 1782
मृत्यु - 4 मई 1799 (मराठा,निजाम हैदराबाद और अंग्रेजों की संयुक्त सेना से युद्ध)
मृत्यु का स्थान - श्री रंगपत्तम (मैसूर)
उपनाम - शेर-ए-मैसूर, भारत का नेपोलियन
विशेष -
1. रॉकेट और तोपखाना से युद्ध
2. महिलाओं को वक्ष स्थल ढकने का अधिकार
3. नवीन राजस्व नीति, ढलाईदार सिक्कों का प्रचलन
4. कैलेंडर का निर्माण
5. रेशम उद्योग नीति
6. चन्नापटना खिलौना निर्माण
7. जमीदारी और सामंत व्यवस्था विरोधी। (किसान के नाम जमीन)
पिता - हैदर अली (मृत्यु सन 1782)
माता - फखरुंनीसा
व्यक्तिगत विशेषता - कुशल योद्धा - सेनापति, कूटनीतिज्ञ, शिक्षित और विकासवादी शासक। सुलेख लेखन में रुचि (सुलेख के नियमों पर रिसाला डार खत-ए-तर्ज़-ए-मुहम्मदी) नामक फारसी में पुस्तक प्रकाशित करवाई)
शेर के जीवन का एक दिन सियार के 100 साल के जीवन से बेहतर होता है - वेंकटरमन श्रीनिवास पुजारी श्री रंगनाथ मन्दिर
कमजोरी - निरंकुश, कट्टर मुस्लिम, युद्ध में फ्रांसिसियों पर अत्यधिक निर्भरता।
टीपू का नाम उर्दू पत्रकारिता के अग्रणी के रूप में भी याद किया जाएगा। उनकी सेना का साप्ताहिक बुलेटिन उर्दू में था जो बाद में जाम-ए-जहाँ नुमा के नाम से 1823 में पहले उर्दू अखबार के रूप में प्रकाशित हुआ।
भाषाओं का ज्ञान - कन्नड़,उर्दू (हिंदुस्तानी), फारसी।
लेखक - जबरकद (ज्योतिष पर किताब लिखी)
लाइब्रेरी की स्थापना - लाइब्रेरी में पैगम्बर मोहम्मद साहब, फातिमा, हसन और हुसैन के नाम मध्य में और चार कोने चार खलीफाओं के नाम से संबंधित थे। इस लाइब्रेरी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, उर्दू और हिन्दी पाण्डुलिपियों के 2,000 से अधिक पुस्तकें, संगीत, हदीस, कानून, सूफीवाद, सनातन धर्म, इतिहास, दर्शन, कविता और गणित से सम्बन्धित पुस्तके आज भी सुरक्षित हैं।
हैदर अली और अंग्रेज - हैदर अली आजीवन अंग्रेज सरकार से लड़ता रहा। हैदर अली मैसूर साम्राज्य के सैनापति थे जो 1761 में मैसूर साम्राज्य के शासक बने। हैदर अली ने सन् 1766 में हुए प्रथम मैसूर युद्ध में अंग्रेजों को हरा दिया और सन् 1782 के द्वितीय मैसूर युद्ध में भी अंग्रेजों को हराने में असफल हुए और मैंगलोर की संधि करनी पड़ी। हैदर अली के पश्चात 1782 में टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर बैठे।
सन 1791 तृतीय मैसूर युद्ध - अंग्रेजों से हैदर अली की कभी नहीं बनी। अंग्रेज उसे अपने लिए खतरा समझते थे। मंगलोर की संन्धि से अंग्रेज - मैसूर युद्ध रुक तो गया परंतु समाप्त नहीं हुआ। दोनों पक्ष इस सन्धि को स्थाई नहीं मानते थे। सन 1786 ई. में लार्ड कार्नवालिस भारत का गवर्नर जनरल बना। वह भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के मामले में समर्थ नहीं था लेकिन उस समय की परिस्थिति को देखते हुए उसे हस्तक्षेप करना पड़ा क्योंकि उस समय टीपू सुल्तान उनका प्रमुख शत्रु था। अंग्रेजों ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए निजाम हैदराबाद और मराठों से सन्धि की तो टीपू ने फ्रांसीसियो से मित्रता की ओर फ्रांसीसियों नेअंग्रेजों के विरुद्ध टीपू की सहायता की। दोनो ही पक्ष दक्षिण में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे। इस तरह तृतीय मैसुर युद्ध प्रारम्भ हुआ यह युद्ध दो साल तक चला और अंग्रेज विजयी रहे। मार्च 1792 में श्री रंगापटय कि सन्धि के साथ युद्ध समाप्त हुआ टीपू ने अपने राज्य का आधा हिस्सा (कृष्णा - ताप्ती नदी के बीच का प्रदेश) निजाम को, तंगभद्रा तक का हिस्सा मराठों को और बंदरगाह क्षेत्र कंपनी को मिला। साथ ही 30 लाख पौंड अर्थ दंड संयुक्त मोर्चे को देना पडा।
सन 1799 चतुर्थ मैसूर युद्ध - टीपु सुल्तान रंगपट्टी की अपमानजनक सन्धि से काफी दुखी थे और बदनामी के कारण वह अंग्रेजो को भगाना चाहता था। भाग्य ने ऐसा मौका भी दिया परंतु दुर्भाग्य ने टीपु का साथ नहीं दिया। इंग्लैण्ड - फ्रांस में युद्ध में विकट अंतरराष्ट्रीय स्थिति से लाभ उठाने हेतु टीपू ने कई देशों में राजदुत भेजे। फ्रांसीसियों को मैसूर में कई सुविधाएं प्रदान कर सैना में फ्रांसीसी अफसर नियुक्त किये। फलत: अंग्रेज और टीपु के बीच संघर्ष आवश्यक हो गया। इसी समय लार्ड वेलेजली बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था। टीपू कि शक्ति को कुचलने का निश्चय किया। 1798 में निजाम के साथ वेलेजली ने सहायक सन्धि की और यह घोषणा कर दी जीते हुए प्रदेशों में कुछ हिस्सा मराठों को भी दिया जाएगा। पुर्ण तैयारी के साथ वेलेजली ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया और एक महीने तक घेरेबंदी की। इस तरह मैसुर का चौथा युद्ध प्रारंभ हुआ। 4 मई 1799 को 48 वर्ष की आयु में कर्नाटक के श्रीरंगपट्टना में टीपू सुल्तान मृत्यु को प्राप्त हुए। जीवित बचे परिवार के सदस्यों को कलकत्ता भेज दिया गया और उन्हें पेंशन दी गई। मैसूर पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया इस प्रकार 33 वर्ष पुर्व मैसुर में जिस मुस्लिम शक्ति का उदय हुआ था सिर्फ उसका अन्त ही नहीं हुआ बल्कि अंग्रेज मैसुर युद्ध का नाटक ही समाप्त हो गया। मैसुर जो 33 वर्षों से लगातार अंग्रेजों कि प्रगति का शत्रु बना था अब वह अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। अंग्रेज और निजाम ने मिल कर मैसुर का बंटवारा कर लिया। मराठों को भी उत्तर पश्चिम में कुछ प्रदेश दिये गये लेकिन उन्होंने लेने से इनकार कर दिया। शेष मैसुर पुराने राजवंश के कृष्णराज तृतीय (नाबालिग राजकुमार) को इस सन्धि के साथ सौंपा गया कि मैसुर की रक्षा का भार अंग्रेजों का होगा और ब्रिटिश सेना सेना का खर्च मैसुर के राजा वहां करेंगे। इस नीति से अंग्रेजों को काफी लाभ पहुँचा मैसुर राज्य बिल्कुल छोटा पड़ गया और दुश्मन का अन्त हो गया। ब्रिटिश कम्पनी की शक्ति में वृद्धि हुई। मैसुर चारों ओर से ब्रिटिश राज्य से घिर गया इसका फायदा उन्होनें भविष्य में उठाया जिससे ब्रिटिश शक्ति के विकास में काफी सहायता मिली और एक दिन उसने सम्पूर्ण भारत पर अधिपत्य कर लिया।
टीपू सुलतान की धार्मिक नीति - 1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के कुछ मराठा सवारों ने शृंगेरी शंकराचार्य के मंदिर और मठ पर छापा मारा। उन्होंने मठ की सभी मूल्यवान सम्पत्ति लूट ली। इस हमले में कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए। शंकराचार्य ने मदद के लिए टीपू सुल्तान को अर्जी दी। शंकराचार्य को लिखी एक चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने आक्रोश और दु:ख व्यक्त किया। इसके बाद टीपू ने बेदनुर के आसफ़ को आदेश दिया कि शंकराचार्य को 200 राहत (फ़नम) नक़द धन और अन्य उपहार दिये जायें। शृंगेरी मन्दिर में टीपू सुल्तान की दिलचस्पी काफ़ी सालों तक जारी रही, और 1790 के दशक में भी वे शंकराचार्य को खत लिखते रहे। टीपू के यह पत्र तीसरे मैसूर युद्ध के बाद लिखे गए थे, जब टीपू को बंधकों के रूप में अपने दो बेटों देने सहित कई अपमानों का सामना करना पड़ा। टीपू सुल्तान ने मन्दिरों को भी उपहार दिए। मेलकोट के मन्दिर में सोने और चाँदी के बर्तन है, जिनके लेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे। कलाले के लक्ष्मीकान्त मन्दिर को चार रजत कप भेंट किए। 1782 और 1799 के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को 34 दानपत्र जारी किए। इनमें से कई को चाँदी और सोने की थाली भेंट किए। ननजनगुड के श्रीकान्तेश्वर मन्दिर में टीपू का दिया हुआ एक रत्न-जड़ित कप है। ननजनगुड के ही ननजुनदेश्वर मन्दिर को टीपू ने एक हरा शिवलिंग भेंट किया। श्रीरंगपटना के रंगनाथ मन्दिर को टीपू ने सात चाँदी के कप और एक रजत कपूर-ज्वालिक भेंट किया। टीपू के साम्राज्य में अधिकांश प्रजा सनातन थे। टीपू सुल्तान धार्मिक सहिष्णुता और आज़ाद ख़्याल के लिए जाना जाता है। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपट्टनम, मैसूर और राज्य के कई अन्य स्थानों में मंदिर बनाए और मंदिरों निर्माण हेतु भूमि,धन और सुरक्षा प्रदान की।
टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपत्तनाम में स्थापित वाराह मंदिर को मूर्ति सहित ध्वस्त किया। यह मंदिर तत्कालीन पूर्व शासक के इष्ट देव का मदिर था जिसमें टीपू के विरोध में क्रियाकलाप संचालित हो रहे थे।राज कार्य की पुरातन परंपरा के अनुसार शत्रु को काबू में करने हेतु उस पर अनेक प्रतिबंध लगाए जाते थे। इसी परम्परा और कृष्णराज द्वितीय पर अंकुश लगाने हेतु यह कार्यवाही की गई। यह भी सत्य है कि टीपू ने सनातन और ईसाइयों पर हमले किए। परंतु ‘यह धार्मिक नीति के अंतर्गत नहीं अनुशासनात्मक सजाओं हेतु किए गए कार्य थे। समुदाय के उपद्रवी लोगों का दामन राजा के द्वारा किए जाता रहा है। महदेवी मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी नहीं बख्शा गया क्योंकि इस वर्ग के मुस्लिमों ने अंग्रेजों का समर्थन शुरू कर दिया था। वे ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में घुड़सवारों के रूप में नौकरी भी करने लगे थे. टीपू का मुख्यमंत्री यहां जिसे टीपू का दाहिना हाथ कहा जाता है, वह सनातनी था। वर्तमान में कुछ टीपू सुल्तान के विरोधी इन दो उदाहरणों के साथ उसे सनातन विरोधी साबित करना चाहते हैं जो एक शुद्ध राजनैतिक बहस है।
टीपू सुल्तान का सैन्य प्रबंधन -
शत्रुओं से मुकाबला करने हेतु रॉकेट एवं तोपखाना सेना का गठन किया। सेना में फ्रांसीसी अधिकारियों को नियुक्त कर बेहतरीन प्रशिक्षण व्यवथा की।
कला और स्थापत्य -
श्रीरंगपट्टनम टीपू की राजधानी थी और यहां जगह-जगह टीपू युग के महल, इमारतें और खंडहर आज भी विद्यमान हैं जहां हजारों पर्यटक श्रीरंगपट्टनम आते हैं।
स्वार्ड ऑफ टीपू सुल्तान -
अरब में मुगल काल के जर्मन लोहे और अरबी डिजाइन का उपयोग से बनी तलवार जिसे 16वीं शताब्दी में भारत लाया गया। तलवार पर नक्कासीदार लेख में लिखा है शासक की तलवार।
खुदाई में मिली आयुध सामग्री -
शमशेर भालू खान
9587243963
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