राजाराम मोहनराय -
सती प्रथा (सहमरण) (जौहर)
तत्कालीन संदर्भ एवं कुरीति
510 ईस्वी गोपराज का एरण शिलालेख (भारत में ज्ञात प्रथम सती शिला लेख) में लिखा है कि "स्वर्ग गया, देवताओं में सर्वश्रेष्ठ इंद्र के बराबर हो गया, उसकी समर्पित, आसक्त, प्रिय और सुंदर पत्नी उस से चिपकी हुई अग्नि पिंड (चिता) में प्रवेश कर गई।
सती शब्द और अर्थ -
सती शब्द सत्यवती से बना है, जिसका अर्थ होता है सत्य के मार्ग पर चलने वाली स्त्री जो पतिव्रता होने के साथ ही स्वयं को अन्य पुरुष के संसर्ग से बचाती है। इसका एक अन्य नाम है सहमरण। राजपूत समाज में इस प्रकार की घटनाओं को जौहर करना नाम दिया गया।
सती और जौहर में अंतर -
सती एक विधवा का अपने पति की चिता पर बैठ कर सहमरण करने की प्रथा थी। युद्ध में महिलाओं द्वारा आक्रमणकारियों द्वारा पकड़े जाने और गुलाम होने से बचने हेतु हार निश्चित होने की स्थिति में सामूहिक आत्मदाह की प्रथा को जौहर कहा जाता था।
भारत में सती प्रथा का अंत 1829 के सती प्रथा निषेध कानून के बाद हुआ।यह कानून राजा राम मोहन राय के आंदोलन पर वायसराय जनरल लोर्ड विलियम बेन्टीक के काल में लार्ड मैकाले द्वारा बनाया गया।
सती की कहानी -
सनातन ग्रंथों के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री सती ने पिता द्वारा महादेव शिव के अपमान से व्यथित होकर यज्ञ की अग्नि में कूदकर आत्मदाह किया। इसके बाद पति के नाम पर पत्नी द्वारा स्वयं के जीवन को अग्नि या अन्य माध्यम से समाप्त करने के रिवाज को प्रथा के रूप में अपनाया गया और इसे नाम दिया गया सती प्रथा।
आनंद ए. यंग के अनुसार ऋग्वेद में ऐसे एक समारोह का उल्लेख है जिसमें विधवा अपने पति की चिता पर लेट जाती है जिसका या तो पति के साथ अंतिम संस्कार कर दिया जाता है या मृतक के किसी पुरुष संबंधी द्वारा उठा कर अपना लिया जाता। शब्द अग्रे "आगे बढ़ना" का अर्थ (16वीं शताब्दी में) सती के लिए वैदिक स्वीकृति देने हेतु अग्नेह "आग में बैठना" से गलत अनुवाद किया गया।
उदाहरण -
01. उदयसिंह द्वितीय ने मालवा के शासक राजबहादुर को शरण दी थी। यह साका जयमल और फत्ता सिसोदिया के पराक्रम और बलिदान के लिए प्रसिद्ध है। इसमें फत्ता सिसोदिया की पत्नी फूलकँवर व जयमल मेड़तिया की धर्मपत्नी के नेतृत्व में 700 रानियों ने जौहर किया।
02. रणथंभौर का साक - वर्ष 1301 में अलाउद्दीन खिलजी के ऐतिहासिक आक्रमण के समय हुआ। राजा, हम्मीर देव चौहान के विश्वासघात के कारण वीरगति को प्राप्त हुए और उनकी पत्नी रंगदेवी ने जौहर किया। इसे राजस्थान के गौरवशाली इतिहास का प्रथम सका माना जाता है।
03. महाराणा प्रताप यहां के राजा थे। इसे महाराणा प्रताप का गढ़ तथा जौहर का गढ़ भी कहा जाता है। यहाँ 3 जौहर हुए।
04. चित्तौड़ का पहला जौहर 1303 ईस्वी में हुआ। दिल्ली के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी ने वर्ष 1303 में मेवाड़ के शासक रतन सिंह के खिलाफ सैनिक अभियान चलाया।
प्रथा के रूप में -
सती प्रथा/सहमरण प्रथा को पुरातत्वविद् एलेना इफिमोव्ना कुजमीना ने 1400 से 1500 ईस्वी पूर्व प्राचीन एशियाई स्टेपी एंड्रोनोवो व वैदिक काल की अंतिम संस्कार परंपराओं के रूप में सूचीबद्ध किया है। सामान्य मान्यताओं के अनुसार यह रीति गुप्त काल से 500 ईस्वी पूर्व प्रचलित हुई। पुराने समय में स्त्रियों की दशा अत्यंत गंभीर रही। जन्म के समय शिशु बालिका को मार दिया जाता था। यही कारण रहा कि लैंगिक विषमता अत्यधिक थी। अधिकांश पुरुष अविवाहित रह जाते। स्त्री व्यापार और देव दासी प्रथा के कारण यह स्थिति और गंभीर हो गई। स्त्रियों की किसी भी प्रकार से प्राप्ति की डाह से बचाव के उपाय सती प्रथा के प्रचालन का कारण रहा।
तत्कालीन परिस्थितियां - (प्राचीन काल)
परिस्थिति एक -
पुराने समय में अधिकांश युद्ध स्त्रियों के कारण हुए हैं, रामायण काल और महाभारत काल के युद्ध की पृष्ठभूमि स्त्रियों के अपहरण अथवा बलात संबंध के कारण ही हुए। दूसरी ओर युद्ध में विजेता पराजित क्षेत्र की स्त्रियों को अपने कब्जे में ले कर उन्हें युद्ध में जीत के सामान की तरह बांट लिया करते और उनका शोषण करते। इस तरह की स्थिति से बचाव हेतु युद्ध क्षेत्र में ही रनिवास के निकट एक खाई खोद कर बड़ी आग सुलगाई जाती थी। संभावित पराजय की आहट के साथ ही उपस्थित सभी महिलाएं उस आग में कूद कर स्वयं को नष्ट कर देती।
परिस्थिति दो -
विदेशी अथवा शत्रु शासक आक्रांता के रूप में गढ़ या महल पर कब्जा करने के साथ ही वहां स्थित महिलाओं विशेषकर रानियों को अपने कब्जे में लेने हेतु विशेष प्रयास करते थे। गुप्त काल के बाद भी उन्नीसवीं सदी तक यह स्थिति बनी रही। सभी महिलाओं को बंदी बना कर बाजार में बेच दिया जाता। सुंदर स्त्रियों को विजेता अपनी दासी (रखैल) बना कर रख लेते। इस अपमानजनक और घृणित कृत्य से बचाव के रूप में स्त्रियां सामूहिक अथवा रानियां अपने आप को जला कर बचने के प्रयास करती थीं।
तत्कालीन परिस्थितियों का कुप्रथा में बदलना -
तत्कालीन परिस्थितियां अलग थीं जिसमें अधिकांशतः मर्यादा और मान की रक्षा हेतु रनिवास की सभी स्त्रियां सामूहिक आत्मदाह करती थीं। आगे चल कर यह प्रथा कुप्रथा में बदल गई और एकल स्त्री जिसके पति का किसी भी कारण देहांत हो गया, को पति के साथ ही जिंदा जलाया जाने लगा। यह प्रथा ईस्वी 1000 के आसपास प्रारंभ हुई। सनातन धर्म में यह प्रथा अब कुप्रथा के रूप में विकराल रूप लेने लगी। भारत में सती प्रथा निषेध कानून के बाद भी कई बार सती होने की घटनाएं हुई हैं।
पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा को एक कटोरा भांग और धतूरा पिलाकर नशा दिया जाता है। फिर उसका सुहागन की तरह श्रृंगार किया जाता है। देवी की उपमा दे कर आरती और पूजा की जाती है। भांग और धतुरे के नशे के कारण पति की अर्थी के साथ चलते हुए वह कभी हँसती है और कभी रोती है, कभी रस्ते पर सो जाती है। विधवा के इस आचरण को सहमरण हेतु विलाप कहा जाता है। श्मशान में जीवित पत्नी की गोद में मृत पति का सर रख कर अत्यधिक सूखे नारियल और लकड़ियों पर बैठा दिया जाता है। इस पर बहुत सारा घी और तीव्र ज्वलनशील पदार्थ डाल दिए जाते हैं। स्त्री, आग से जलने पर भाग नहीं पाए इस हेतु बांस की मजबूत बल्लियों से बांधा जाता है। इसके बाद बड़े और भारी लक्कड़ से दबा दिया जाता है। चिता पर सिंदूर, राल और धूप डाल कर इतना अधिक धुआँ किया जाता है जलती चिता दिखाई ना दे। जिंदा जलने के दर्द और यंत्रणा को देखकर कोई डर न जाए और जलने वाली स्त्री की कराहना कोई सुन नहीं पाए इसलिए अत्यधिक तेज आवाज में ढोल, नगाड़े, करताल और शंख बजाए जाते हैं।
सती प्रथा (सहमरण) का इतिहास -
मुगल काल में यह प्रथा अधिक परवान चढ़ी। भारत के राजपूत योद्धाओं के युद्ध में कालकवलित हो जाने पर उनकी पत्नियों और दासियों द्वारा सामूहिक सहमरण (सती) होने की परंपरा आयोजित की जाती। इसे एक अन्य नाम जौहर करना के रूप में भी जाना जाता है। मुगलों ने इस प्रथा पर रोक लगाने की कोशिश की परंतु नाकाम रहे। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में शासन बढ़ाने लगी और कंपनी ने इस प्रथा को रोकने के प्रयास किये। कलकत्ता क्षेत्र में सती प्रथा पर प्रतिबंध के बावजूद ईसाई मिशनरी प्रचारक विलियम कैरी ने वर्ष 1803 में कलकत्ता के पचास किलोमीटर दायरे में साढ़े चार सौ से अधिक सती होने की घटनाओं का उल्लेख किया है। यह आंकड़े वर्ष 1815 से 1818 के मध्य बंगाल प्रेसीडेंसी क्षेत्र में इस प्रकार की घटनाएं बढ़ कर साढ़े आठ सौ हो गई।
विलियम कैरी (मिशनरी प्रचारक) और राजा राम मोहन रॉय (समाज सुधारक) द्वारा सती प्रथा का विरोध करने के फलस्वरूप गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने बंगाल सती अधिनियम, 1829, के द्वारा विधवाओं को जिंदा जलाने या दफन (सहमरण/सती) प्रथा को आपराधिक एवं दंडनीय अपराध घोषित किया। इसके पश्चात कई और कानून बनाए गए जो महिलाओं के विरुद्ध हिंसा से जुड़े मामलों पर निषेध किए गए। राजा राम मोहन राय के सहयोग से सनातन (हिन्दू) विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856, कन्या भ्रूण हत्या रोकथाम अधिनियम 1870, और सहमति की आयु अधिनियम 1891 पारित किए गए।
20वीं सदी के अंत तक इस प्रकार की घटनाओं पर काफी अंकुश लगा। फिर भी ऐसी छुटपुट घटनाएँ होती रहीं। इन घटनाओं को रोकने हेतु भारत सरकार ने सती (रोकथाम) अधिनियम 1987 लागू कर सती प्रथा में सहायता करना/ महिमामंडन करना अपराध घोषित कर दिया। इन कानूनों का समर्थन भी हुआ और विरोध भी। पूरे भारत में लगभग 250 से अधिक सती मंदिर मौजूद हैं। इन मंदिरों में सती को देवी माँ के अवतार के रूप में मान्यता दी जाती है। उनका महिमा मंडन करने हेतु आरती और पूजा की जाती है।
सती प्रथा से जुड़ी विशेष बातें -
1. ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन 1829 में सती प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया।
2. राजा राममोहन राय ने कोलकाता से प्रकाशित बंगाली साप्ताहिक समाचार पत्र संवाद कौमुदी में सती प्रथा की समाप्ति हेतु आंदोलन किया।
3. वर्ष 1837 में बेंटिंक ने सती प्रथा निषेध क़ानून लागू किया। यह कानून थॉमस मैकाले द्वारा भारतीय दंड संहिता में हल्की धराओं के उपयोग के कारण कमजोर पड़ गया।
4. भारतीय सती प्रथा (रोकथाम) आयोग अधिनियम, 1987 भाग I, धारा 2 (सी) सती प्रथा को एक घोर अन्याय के कृत्य के रूप में परिभाषित करता है।
सम्वाद कौमुदी
19वीं शताब्दी के अंत में राजा राममोहन राय द्वारा कोलकाता से प्रकाशित एक बंगाली साप्ताहिक समाचार पत्र का नाम संवाद कौमुदी था। यह एक सुधारवादी पत्र था जिसमें सती प्रथा की समाप्ति के लिये अभियान चलाया गया। यह अखबार 1821 में प्रकाशित किया गया यह किसी भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र था। पहला हिंदी भाषी समाचार पत्र उदंड मार्तंड 1826 में प्रकाशित किया गया था। पहला भारतीय अखबार अंग्रेजी भाषा में हिक्की ने प्रकाशित किया।
राजा राममोहन रॉय भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और आधुनिक भारत के जनक के नाम से जाना जाता है। इनके पिता का नाम रमाकांत तथा माता का नाम तारिणी देवी था।भारतीय सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान है।
जघन्य दिवराला सती कांड, राजस्थान
राजस्थान के सीकर ज़िले के दिवराला गांव में 4 सितंबर, 1987 को सहमरण (सती प्रथा) से जुड़ा एक प्रकरण हुआ। रूपकंवर का पति मालसिंह शेखावत BSc की पढ़ाई कर रहा था और ससुर सुमेर सिंह शिक्षक थे। रूप कंवर के पिता ट्रक ड्राइवर थे।
इस घटना में लगभग 18 साल की रूप कंवर को उसके पति मालसिंह शेखावत की मृत्यु के बाद चिता में पति के साथ ज़िंदा जला दिया गया। रूप कंवर मायके गई हुई थी और उनके पति की गंभीर बीमारी के कारण मृत्यु हो गई। लोगों ने यह अफवाह फैला दी कि पति की मृत्यु के बाद रूपकंवर सती होना चाहती हैं। इसके साथ ही रूप कंवर को नारियल देकर सोलह शृंगार करते हुए पति के साथ चिता में बैठा कर जला डाला गया।
यह विभत्स घटना पूरे भारत में सार्वजनिक आक्रोश का कारण बनी। इस घटना के बाद सती प्रथा और महिमामंडन को रोकने हेतु राज्यों ने अपने स्तर पर कानून बनाए और फिर 1988 में केंद्र सरकार ने सती आयोग (रोकथाम) अधिनियम लागू किया।
भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अंतर्गत पूरे गांव पर केस दर्ज किया गया।
22 सितंबर 1988 को सती की फोटो के साथ ट्रक पर जुलूस निकालने और इस प्रथा का महिमा मंडन करने के आरोप में सीकर के थोई थाने में 45 आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया।
दिवराला सतीकांड घटना का महिमा मंडन करने के 08 आरोपियों को सती निवारण मामलों की विशेष कोर्ट ने बरी कर दिया।
अदालत ने संदेह का लाभ देते हुए बुधवार को सभी को बरी कर दिया। वकील अमन चैन सिंह शेखावत के अनुसार जयपुर में सती निवारण विशेष कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए सती प्रथा का महिमा मंडन करने के आठ आरोपियों को बरी कर दिया। विशेष अदालत ने वर्ष 2004 में 25 आरोपियों को दोषमुक्त करार दे दिया। चार आरोपी अब भी फरार हैं और कुछ की मृत्यु हो चुकी है।
आज शायद ही कहीं सती होने की घटना का वर्णन मिलता है। लगभग शून्य।
स्त्रोत -
विभिन्न अखबार और पत्रिकाओं के लेख
विभिन्न साइट्स पर उल्लेखित उद्धरण
कोर्ट मेटर
राजा राम मोहन राय की जीवनी
शमशेर भालू खां
जिगर चुरूवी
9587243963
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