Thursday, 5 June 2025

✍️कायम वंश और कायमखानी सिलसिला सामान्य इतिहास की टूटी कड़ियाँ

कायमखानी समाज कुछ कही कुछ अनकही👇 - शमशेर भालू खां 
अनुक्रमणिका - 
01. राजपूत समाज एवं चौहान वंश सामान्य परिचय
02. कायम वंश और कायमखानी
03. कायमखानी कौन एक बहस
04. पुस्तक समीक्षा - कायम रासो 
05. कायम वंश गोत्र एवं रियासतें
06. चायल वंश रियासतें एवं गोत्र
07. जोईया वंश स्थापना एवं इतिहास
08. मोयल वंश का इतिहास
09. खोखर वंश का परिचय
10. टाक वंश का इतिहास एवं परिचय 
11. नारू वंश का इतिहास
12 जाटू तंवर वंश का इतिहास
13.
14.भाटी वंश का इतिहास
15 सरखेल वंश का इतिहास 
16. सर्वा वंश का इतिहास
17. बेहलीम वंश का इतिहास 
18. चावड़ा वंश का इतिहास
19. राठौड़ वंश का इतिहास 
20. चौहान वंश का इतिहास 
21. कायमखानी समाज वर्तमान स्थिति
22. आभार, संदर्भ एवं स्त्रोत

कायम वंश और कायमखानी समाज टूटी हुई कड़ियां
दादा नवाब (वली अल्लाह) हजरत कायम खां साहब
  नारनौल का कायमखानीयों का महल

   नारनौल में कायमखानियों का किला


मकबरा नवाब कायम खा साहब हांसी,हरियाणा
                कायमखानी वारियर

 कायम वंश की स्थापना इतिहास व सामान्य जानकारी
राजपूत समाज सामान्य परिचय :-
कायमखानी वंश को जानने से पहले अग्निहोत्री ब्राह्मण व चौहान राजपूत समाज का इतिहास समझना आवश्यक है।
चार हुतासन सों भये कुल छत्तिस वंश प्रमाण
भौमवंश से धाकरे टांक नाग उनमान
चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण."
इस साखी के अनुसार मूल क्षत्रिय 36 वंश हैं।
1 दस सूर्यवंशी, 
2 दस चन्द्रवंशी,
3  बारह ऋषिवंशी व 
4 चार अग्निवंशी
भौमवंश,नागवंश व चौहान वंश (चौबीस नख)  क्षत्रियों को सम्मिलित करने पर क्षत्रियों के बासठ वंश बताये गये हैं।

सूर्यवंशी क्षत्रिय :-
1. कछवाह(कुशवाहा)
2. राठौड (कन्नौज से)
3. बड़गूजर
4. सिकरवार
5. सिसोदिया 
6.गहलोत (गेहलोत)
7.गौर (गौड़)
8.गहलबार (गलबार)
9.रेकबार 
10.जुनने

चन्द्रवंशीय क्षत्रिय :-
1 जादौन
2 भाटी
3 तोमर
4 चन्देल
5 छोंकर
6 होंड
7 पुण्डीर
8 कटैरिया
9 स्वांगवंश 
10 वैस

ऋषिवंशिय क्षत्रिय :-
1.सेंगर
2.दीक्षित
3.दायमा
4.गौतम
5.अनवार (जनक के वंशज)
6.करछुल
8.हय
9.अबकू-तबकू 
10.कठोक्स 
11. दलेला 
12.बुन्देला
13.शौनक

अग्निवंश की चार शाखायें:- (आबू पर्वत पर यज्ञ के बाद उत्पत्ति)
1.चौहान
2.सोलंकी
3.परिहार 
4.पमार

चौहानवंशिय (24 नख) क्षत्रिय :-
1.हाडा 
2.खींची 
3.सोनीगारा 
4.पाविया 
5.पुरबिया 
6.संचौरा 
7.मेलवाल
8.भदौरिया 
9.निर्वाण 
10.मलानी 
11.धुरा 
12.मडरेवा 
13.सनीखेची
14.वारेछा 
15.पसेरिया
16.बालेछा
17.रूसिया 
18.चांदा
19.निकूम 
20.भावर 
21.छछेरिया 
22.उजवानिया 
23.देवडा 
24.बनकर

158 क्षत्रिय वंशों की जातियाँ :-
क्रमांक नाम गोत्र वंश स्थान और जिला
1.सूर्यवंशी (भारद्वाज)
2.शौनक (शौन भ्रृगुवंशी)
3.सिसोदिया - (उदयपुर रियासत)
4.कछवाहा (कुशवाहा) - (जयपुर रियासत)
5.राठोड (कश्यप) - जोधपुर बीकानेर रियासत
6.सोमवंशी(अत्रय,अत्रि)
7.यदुवंशी (अत्रय) - करौली रियासत
8.भाटी (अत्रय जादौन) - जैसलमेर रियासत
9. जाडेचा (अत्रय यदुवंशी )
10.जादवा (अत्रय जादौन) 
11.तोमर (व्याघ्र) पाटन
12.कटियार-तोंवर (व्याघ्र)
13.पालीवार-तोंवर (व्याघ्र)
14.परिहार/(बरगाही कौशल्य अग्नि)
15.तखी (कौशल्य परिहार-पड़िहार-पडिहार)
16.पंवार (वशिष्ठ अग्नि) - मेवाड व धौलपुर राज
17.सोलंकी (भारद्वाज अग्नि)
18.चौहान (वत्स अग्नि) आबू से अजमेर राज
19. हाडा (वत्स चौहान) हाडौती रियासत
20.खींची (वत्स चौहान) खींचीवाडा रियासत
21.भदौरिया (वत्स चौहान)
22.देवडा (वत्स चौहान) - सिरोही रियासत
23.शम्भरी (वत्स चौहान) नीमराणा रियासत
24.बच्छगोत्री (वत्स चौहान)
25.राजकुमार (वत्स चौहान)
26.पवैया (वत्स चौहान)
27.गौर/गौड/(भारद्वाज सूर्य)
28.वैस (भारद्वाज चन्द्र)
29.गेहरवार (कश्यप सूर्य)
30.सेंगर (गौतम ब्रह्मक्षत्रिय)
31.कनपुरिया (भारद्वाज ब्रह्मक्षत्रिय)
32.बिसैन (वत्स सूर्य)
33.निकुम्भ (वशिष्ठ सूर्य)
34.सिरसेत (भारद्वाज सूर्य)
35.कटहरिया (वशिष्ठ भारद्वाज सूर्य)
36.वाच्छिल (अत्रयवच्छिल चन्द्र)
37.बड़गूजर (वशिष्ठ सूर्य)
38.झाला (मरीच कश्यप चंद्र) झालावाड राज
39.गौतम (गौतम ब्रह्म)
40.रैकवार (भारद्वाज सूर्य)
41.करचुल (हैहय कृष्णात्रेय चन्द्र)
42.चन्देल (चान्द्रायन चन्द्र)
43.जनवार (कौशल्य सोलंकी)
44.बहरेलिया (भारद्वाज वैस)
45.दीत्तत (कश्यप सूर्यवंश)
46.सिलार (शौनिक चन्द्र)
47.सिकरवार (भारद्वाज बढगूजर)
48.सुरवार (गर्ग सूर्य)
49.सुर्वैया (वशिष्ठ यदुवंश)
50.मोरी (ब्रह्म गौतम सूर्य)
51.टांक (तत्तक)
52.गुप्त (गार्ग्य चन्द्र)
53.कौशिक (चन्द्र)
54.भृगुवंशी (भार्गव चन्द्र)
55.गर्गवंशी (गर्ग ब्रह्म क्षत्रिय)
56.पडियारिया,देवल(सांकृतसाम ब्रह्म क्षत्रिय)
57.ननवग (कौशल्य चन्द्र)
58.वनाफ़र (पाराशर,कश्यप चन्द्र)
59.जैसवार (कश्यप यदुवंशी)
60.चौलवंश (भारद्वाज सूर्य)
61.निमवंशी (कश्यप सूर्य)
62.वैनवंशी (वैन्य सोमवंशी)
63.दाहिमा (गार्गेय ब्रह्म क्षत्रिय)
64.पुण्डीर (कपिल ब्रह्म क्षत्रिय)
65.तुलवा (आत्रेय चन्द्र)
66.कटोच (कश्यप भूमिवंश)
67.चावडा (पंवार,चोहान,वशिष्ठ पंवार की शाख)
68.अहवन (वशिष्ठ चावडा कुमावत)
69.डौडिया (वशिष्ठ पंवार शाखा)
70.गोहिल (बैजबापेण गहलोत शाखा)
71.बुन्देला (कश्यप गहरवार शाखा)
72.काठी (कश्यप गहरवार शाखा)
73.जोहिया/जोइया (पाराशर चन्द्र)
74.गढावंशी (कांवायन चन्द्र)
75.मौखरी (अत्रय चन्द्र) लुप्त
76.लिच्छिवी (कश्यप सूर्य) लुप्त
77.बाकाटक (विष्णुवर्धन सूर्य) लुप्त
78.पाल (कश्यप सूर्य) मिश्रित हो गया
79.सैन (अत्रय ब्रह्म क्षत्रिय)
80.कदम्ब (मान्डग्य ब्रह्म क्षत्रिय)
81.पोलच (भारद्वाज ब्रह्म क्षत्रिय)
82.बाणवंश (कश्यप असुरवंश)
83.काकुतीय (भारद्वाज चन्द्र) लुप्त
84.सुणग वंश (भारद्वाज चन्द्र) लुप्त
85.दहिया (कश्यप राठौड शाखा) - मारवाड़
86.जेठवा (कश्यप हनुमान वंशी)
87.मोहिल/मोयल (वत्स चौहान शाखा)
88.बल्ला (भारद्वाज सूर्य)
89.डाबी (वशिष्ठ यदुवंश)
90.खरवड (वशिष्ठ यदुवंश) मेवाड
91.सुकेत (भारद्वाज गौड)
92.पांड्य (अत्रय चन्द) लुप्त
93.पठानिया (पाराशर वनाफ़र शाखा)
94.बमटेला शां(डल्य विसेन शाखा)
95.बारहगैया (वत्स चौहान)
96.भैंसोलिया (वत्स चौहान)
97. चन्दोसिया (भारद्वाज वैस)
98. चौपटखम्ब (कश्यप ब्रह्म क्षत्रिय)
99. धाकरे (भारद्वाज(भृगु) ब्रह्म क्षत्रिय)
100.धन्वस्त (यमदाग्नि ब्रह्म क्षत्रिय)
101.धेकाहा (कश्यप पंवार की शाख)
102.दोबर(दोनवर) (वत्स/कश्यप ब्रह्म क्षत्रिय)
103.हरद्वार (भार्गव चन्द्र शाखा)
104.जायस (कश्यप राठौड की शाखा)
105.जरोलिया व्याघ्रपद चन्द्र बुलन्दशहर
106.जसावत (मानव्य कछवाह)
107.जोतियाना(भुटियाना) (मानव्य कश्यप)
108.घोडेवाहा (मानव्य कछवाह शाखा)
109.कछनिया (शान्डिल्य ब्रह्म क्षत्रिय)
110.काकन (भृगु ब्रह्म क्षत्रिय)
111.कासिब (कश्यप कछवाह शाखा)
112.किनवार (कश्यप सेंगर की शाखा)
113.बरहिया (गौतम सेंगर की शाखा)
114.लौतमिया )भारद्वाज बढगूजर शाखा)
115.मौनस (मानव्य कछवाह शाखा)
116.नगबक (मानव्य कछवाह शाख)
117.पलवार (व्याघ्र सोमवंशी शाखा)
118.रायजादे (पाराशर चन्द्र) पाली
119.सिंहेल (कश्यप सूर्य)
120.तरकड (कश्यप दीक्षित शाखा)
121.तिसहिया (कौशल्य परिहार)
122.तिरोता (कश्यप तंवर की शाख)
123.उदमतिया (वत्स ब्रह्म क्षत्रिय)
124.भाले (वशिष्ठ पंवार)
125.भाले सुल्तान (भारद्वाज वैस की शाखा)
126.जैवार (व्याघ्र तंवर की शाखा)
127.सरगैयां (व्याघ्र सोमवंश)
128.किसनातिल (अत्रय तोमर शाखा)
129.टडैया (भारद्वाज सोलंकी शाख)
130.खागर (अत्रय यदुवंश शाखा)
131.पिपरिया (भारद्वाज गौडों की शाख)
132.सिरसवार (अत्रय चन्द्र शाखा)
133.खींचर (वत्स चौहान शाखा)
134.खाती (कश्यप दीक्षित शाखा)(बढ़ई)
135.आहडिया (बैजवापेण गहलोत)
136.उदावत (बैजवापेण गहलोत)
137.उजैने (वशिष्ठ पंवार)
138.अमेठिया (भारद्वाज गौड) अमेठी
139.दुर्गवंशी (कश्यप दीक्षित)
140.बिलखरिया (कश्यप दीक्षित)
141.डोमरा (कश्यप सूर्य कश्मीर)
142.निर्वाण (वत्स चौहान) राजस्थान
143.जाटू (व्याघ्र तोमर) राजस्थान
144.नरौनी (मानव्य कछवाहा)
145.भनवग (भारद्वाज कनपुरिया)
146.गिदवरिया (वशिष्ठ पंवार)
147.रक्षेल (कश्यप सूर्य)
148. कटारिया (भारद्वाज सोलंकी)j
149. रजवार व(त्स चौहान)
150. द्वार (व्याघ्र तोमर)
151. इन्दौरिया (व्याघ्र तोमर)
152. छोकर (अत्रय यदुवंश)
153. जांगडा (वत्स चौहान)
154. गहलोत (बैजवापेण सूर्य)
155 चोहिल (वत्स चौहान)  राजस्थान
156 कायमखानी(वत्स चौहान) राजस्थान
157 टाक -(वत्स चौहान)  राजस्थान
158 रावल (सूर्यवंशी) राजस्थान

राव/राणा/रांघड़ राजपूत :-
शब्द "रांघड़" आमतौर पर हरयाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश के मुस्लिम राजपूतों को रांघड़ कहा जाता है। रांघड़ शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है। रण+घड़ जिसमे रण का मतलब जंग का मैदान घड़ का मतलब घड़ने वाला या जितने वाला से है। तो रांघड़ शब्द का अर्थ है जंग का मैदान जितने वाला।
इसके अलावा सप्तसिंधु और प्राचीन किताबों में रांघड़ शब्द के जो शाब्दिक अर्थ मिलते हैं, उनमे रांघड़, वीभत्स राजपूत योद्धा को कहा जाता है, 
कुल मिला कर जितनी भी ऐतिहासिक किताब हैं उनमें रांघड़ शब्द को वीर राजपूत का पर्यायवाची बताया गया है।
रॉघड़ों का धर्म परिवर्तन :-
मध्यकालीन भारत में सूफ़ीवाद का बहुत गहरा प्रभाव रहा, और दिल्ली के सुल्तान राजपूतों की बहादुरी से बहुत प्रभावित भी थे। जैसे राजपूत क़ौम खुदमुख्तार और आज़ाद ख़्यालात की मालिक होती है। और बुजुर्गों का एहतराम करती है। राजपूतों ने जगह जगह सूफी औलियाओं से दर्स हासिल किये और उनसे प्रभावित होकर इस्लाम क़ुबूल कर लिया। 
जिनमें हज़रत बू अली शाह, हज़रत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हज़रत शम्स रहमतुल्लाह जैसे औलिया थे।
जिसके बाद दिल्ली सल्तनत में मुस्लिम राजपूत जागीरदार, रियासतदार, मंसबदार हुए और दिल्ली सल्तनत को अपनी सेवाएं दीं। दिल्ली के चारों और के जो राजपूत थे वो सब मुसलमान हो गए थे और एक वक्त तो मुस्लिम राजपूतों को दिल्ली की दीवार भी कहा जाता था। क्योंकि दिल्ली पर होने वाले हमलों को सबसे पहले रांघड़ ही रोका करते थे।

मुग़ल और मुस्लिम राजपूत :-
रांघड़ सल्तनत के समय में मुसलमान हुए और सल्तनत के वफ़ादार भी रहे, लेकिन जब मुग़लों ने सल्तनत को हराकर दिल्ली पर सत्ता हासिल की तो मुस्लिम राजपूतों ने मुग़लों की मुख़ालफ़त की, सिर्फ रंघड़ो ही ने नहीं बल्कि सभी मुस्लिम राजपूतों ने। 
इसमें बहुत से मशहूर बागी राजा हुए जो मुग़लों की ऑर्ज़ोर मुख़ालफ़त करते थे, जिनमे राय अब्दुल्लाह खाँ भाटी, राजा इस खान बैस, राजा जादौन हसन खाँ मेवाती, गुजरात सल्तनत के मुस्लिम राजपूत भी शामिल थे। यही वजह रही, जो मुग़लों ने मुस्लिम राजपूतों को तवज्जो देने के बजाए, हिन्दू राजपूतों को अपने साथ रिश्तेदारी कर के मिला लिया। और पूरे मुग़ल काल मुस्लिम राजपूत मुग़लों के विरोधी रहे और हिन्दू राजपूत मुग़लों के हिमायती।

अंग्रेज शासन और रांघड़ :-
जब दिल्ली से मुग़ल सल्तनत ख़त्म हो कर अँगरेज़ हुकूमत में आये तो अंग्रेज़ों ने मार्शल क़ौम की लिस्ट बनाई जिनमे रांघड़ो को शामिल किया गया और बड़ी तादाद में रांघड़ो को फ़ौज में शामिल किया।
रांघड़ राजपूतों को फ़ौज में सिर्फ़ इस बिनाह पर भर्ती दे दी जाती कि ये रांघड़ क़ौम से तअल्लुक़ रखता है।
कई जगह लिखा गया है कि हरयाणा में बहुत से रांघड़ जागीरदार अंग्रेज़ों को लगान नहीं दिया करते थे। 
1857 में अंग्रेज़ों की ज़्यादती बढ़ दी तो हरयाणा उत्त्तर प्रदेश के रांघड़ो ने ग़दर में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। जिसमें रोहतक, सहारनपुर और बुलंदशहर के रांघड़ सबसे मुखर थे। जिन्होंने बहुत से अंग्रेज़ों को मौत के घाट उतारा और सरकारी संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया था। जिसके बाद अंग्रेज़ों ने लातादाद रांघड़ो को सजा ए मौत दीं, ज़मींदारी जब्त की और उनके गाँव के गाँव उजाड़ दिए।

रांघड और सिंगापुर विद्रोह :-
1915 में रांघड़ो ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सिंगापुर विद्रोह को अंजाम दिया, जिसमे बहुत से अंग्रेज़ों को मौत के घाट उतार दिया गया लेकिन आखिर में अंग्रजी, जापानी, जोहारे सुल्तान की सेनाओं ने मिल कर रांघड़ो को पकड़ लिया और आउट्राम जेल के बहार 43 रांघड़ो को हज़ारों भीड़ के सामने गोलियों से भून दिया।

आजाद भारत और रांघड़ :-
1947 में देश की आज़ादी के साथ ही रांघड़ दो हिस्सों में बंट गये, दिल्ली, हरयाणा वाले पाकिस्तान हिजरत कर गए और उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड हिमाचल वाले यहीं रह गये। हरयाणवी रांघड़ो की बहादुरी, दरियादिली और इंसाफ के चर्चे आज भी हरयाणा के लोगों की ज़बान पर रहते हैं।

रांघड़ो की गौत्र :-
रांघड़ो में जो गोत्र पायी जाती है वो इस तरह है, पंवार, चौहान, भाटी, तंवर/तौमर, गौड़, मधाड़, जाट्टू, निर्बान, कुशवाह, सोम, पुंडीर, गहलोत,सिसोदिया, खोखर, तोन्नी, राठौड़ आदि।
भारत व पाकिस्तान के रांघड़ राजपूत, राव, राणा, कुँवर, चौधरी, रावल, ठाकुर जैसे लक़ब का इस्तेमाल अपने नाम के साथ करते हैं।

रांघड़ो की मशहूर शख्सियत :- 
राव अब्दुल हफ़ीज़ पंवार (विक्टोरिया क्रॉस)
रिसालदार बशारत अली राव (ग़दर के लीडर रोहतक)
राव साबर अली (रोहतक में क्रांती के सूत्रधार)
राव बाबर अली (रोहतक में बागियों के लीडर)
चौधरी पीर बख़्श भाटी (बुलंदशर बग़ावत के लीडर)
नवाब कोकब हमीद (नवाब बाघपत)
कुंवर महमूद अली (पंवार राजपूत, गवर्नर मध्य प्रदेश)
कुँवर दानिश अली (सांसद अमरोहा)
कुँवर अब्दुल रब (पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश)
कुँवर गुलाम मुहम्मद (विधायक, सिवाल)
राव अब्दुल वारिस (पूर्व विधायक)
असलम चौधरी (विधायक धौलाना)
राव हामिद अली (IFS अधिकारी, सऊदी में भारतीय दूत)
बन्दा मीर महमी (रांघड़ी ज़बाँ के शायर)
राव फरमान अली (मेजर जेनरल पाकिस्तान आर्मी)
राव अब्दुल सत्तार (पहले स्पीकर पाकिस्तान नेशनल असेंबली)
राव अब्दुल रशीद (IG पंजाब पुलिस पाकिस्तान)

चौहान राजपूत
चौहान शब्द का अर्थ :-
चौ = चारों
हान = दिशा
अर्थात चारों दिशाओं की रक्षा करने वाला।

चौहानों की उत्पत्ति :-
गुज्जर (अग्निकुला)  (अग्निहोत्रि) (अग्निगोत्री ब्राह्मणों) का क्षत्रिय धर्म स्वीकार करना :- 
श्री चाहुमान-वंश्‍येन पृथ्‍वीराजेन भूभुजा |
परमर्दी-नरेन्‍द्रस्‍य देशोयमुदवास्‍यत ||
अर्णोराजस्‍य पौत्रेण श्रीसोमेश्‍वरसुनुना |
जैजाकभुक्तिदेशोयं पृथ्‍वीराजेन लूनित: ||
-दशरथ शर्मा

नागवंशी चौहान वंश के दोहा 
चौहान को वंश उजागर है,जिन जन्म लियो धरि के भुज चारी,
बौद्ध मतों को विनास कियो और विप्रन को दिये वेद सुचारी॥

राजस्थान के नागवंशी चौहान वंश :-
भारत के इतिहास में रघुकुल समय में क्षत्रियों के शत्रु एक क्रोधि ब्राह्मण परसुराम हुआ करते थे उनके हाथ में सदैव फरसा रहता था।
समय-समय पर उन्होंने आबू व गुज्जर क्षेत्र के बहुत से क्षत्रियों का वध कर इसे लगभग क्षत्रिय विहीन कर दिया। राज्य संचालन व व्यवस्था के लिये क्षत्रियों की आवश्यकता हुई इसलिये गुजरात क्षेत्र के गुज्जरों (मूल रूप से अग्निहोत्री ब्राह्मणों) को आबू पर्वत (तब गुजरात का हिस्सा) पर यज्ञ कर क्षत्रिय धर्म में परिवर्तित किया गया व 1.नाग (चौहान) 2.सोलंकी 3.परिहार  एवं 4.परमार वंश का उद्भव हुआ। इतिहास में इसीलिये चौहानों का निकाश अग्नि कुंड से माना गया है। गुजरात से बढ़ कर चौहान आबू,सांभर (शाकम्भरी), पुष्कर,आमेर (जयपुर) पट्टी में रहने लगे और बाद में पूरे उत्तर भारत में फैले। कुल देवी शाकम्भरी,आशापूरा व जीण के उपासक चौहानों का उदय जांगल (सदापलक्ष) क्षेत्र में हुआ जो कन्नौज के प्रतिहारों के सामंत थे। वंश संस्थापक का नाम वासुदेव है व प्रारंभिक राजधानी अहीच्छत्रपुर(नागौर) थी। चौथी पाँचवीं शताब्दी के आस-पास अनंत गौचर क्षेत्र (उत्तरी - पश्चिमी  राजस्थान, पंजाब, कश्मीर तक) में प्राचीन नागवंशी क्षत्रिय अनंतनाग( इस नाम से कश्मीर का एक शहर बसा हुआ है जो जिला भी है) का शासन था। अनन्तनाग के वंशज नागवंशी हुये जो चौहान राजपूत बने। अहिछत्रपुर (नागौर) इनकी राजधानी थी। आज जहां नागौर का किला है उस जगह नागोवंशियों द्वारा चौथी सदी में धूलकोट (रेत का दुर्ग) का निर्माण करवाया गया जिसका नाम नागदुर्ग रखा गया। कालान्तर में नागदुर्ग अप भ्रंश होते-होते नागौर नाम बन गया। नागदुर्ग का पुनःनिर्माण सन 1053 में गोविन्ददेव तृतीय के समय करवाया गया व गोविंद राज तृतीय ने ही विदेशी आक्रांताओं से बचने के लिये सन 1055 में राजधानी (नागौर) अहिक्षत्रपुर से शाकंभरी (सांभर) में स्थापित की।
सन 551 तक वासुदेव नाग यहाँ के शासक थे। इस वंश के उदीयमान शासक सातवीं शताब्दी में नरदेव हुये।  लगभग आठवीं शताब्दी में नागवंश का नाम बदल कर  चौहान चौहान हो गया। उनके कई वंश बाद माणिकदेव हुये जिन्होने सांभर झील बनवाई, माणिक देव जी उर्फ़ लाखन देव जी के चौबीस पुत्र हुये और इन्ही नामो से 24 चौहान वंश की नख बनी। ईसा की दसवीं सदी में प्रतिहारों के कमजोर पड़ने पर प्राचीन क्षत्रिय नागवंश की चौहान शाखा शक्तिशाली बनकर उभरी व लगभग 200 वर्ष तक एकछत्र राज किया। 
नरदेव के बाद विग्रहराज द्वितीय ने 997 ई. में आक्रमणकारी सुबुक्तगीन को हराया। बाद में दुर्लभराज तृतीय उसके बाद विग्रहराज तृतीय तथा बाद में पृथ्वीराज प्रथम राजा हुये। इन्हीं शासकों को चौहान वंश का नेतृत्व मिला। 
इस समय ये प्रतिहरों के सहायक थे। सन 738 में चौहानों ने प्रतिहरों से मिलकर राजस्थान की लड़ाई लड़ी थी। बाद में अजयराज के समय सन 1123 में अजमेर राजधानी बनाई गई एवं नया नगर अजयमेर बसाया। यह नाम अजमेर से दिबेर (ब्यावर से राजसमन्द मार्ग पर) के बीच का पहाड़ी क्षेत्र मेर जाति का मूल स्थान था व मेरवाड़ा कहलाता था। राजा अजयराज खुद के नाम का अजयमेर जाति का नाम जोड़ कर अजयमेर (अपभ्रंश स्वरूप अजमेर) नाम रखा। (कुछ स्थानों पर अजय+मेरु शब्द भी आता है। अजयराज ने यहाँ में पृथ्वी तल से 15 मील ऊंचा तारागढ किला (तारागढ़ की पहाड़ी पर) बनाया जिसकी वर्तमान में 10 मील ऊंचाई है।  अजयपाल ने मुसलमानों से नागौर पुनः छीन कर अपने पुत्र अरनोराज (1133-1153 ई.) को वहाँ का शासन सौंपा व खुद सन्यास ले कर पुष्कर की घाटियों में तपस्या करने लगे जहाँ अजयपाल बाबा के नाम से उनकी मूर्ति स्थापित है।  अरनौराज ने पुष्कर को लूटने वाले आक्रांताओ को हराने के उपलक्ष में अरनो-सागर झील (अपभ्रंश आना-सागर अब अनासगर) का निर्माण करवाया।
विग्रहराज चतुर्थ (बिसलदेव) (1153-1164 ई) इस वंश का अत्यंत पराक्रमी शासक हुआ। दिल्ली के लौह स्तम्भ के लेखानुसार उन्होंने आक्रांताओं को खदेड़ कर राज्य की स्थापना की। राजा बीसलदेव ने बीसलपुर झील के साथ -  साथ  सरस्वती कथंभरण संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया।
जगदेव, पृथ्वीराज द्वितीय, सोमेश्वर चौहानों के अगले शासक हुये। सोमेश्वर का पुत्र पृथ्वीराज तृतीय (1176-1192 ई) ही पृथ्वीराज चौहान के नाम से विख्यात हैं जिन्होंने अजमेर व दिल्ली पर शासन किया व 1192 में शहीद हो गये।

चौहान वंश प्रसिद्ध शासक :-
1 अजयराज चौहान
2 अर्णोराज (लगभग 1133 से 1153 ई.)
3 विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) (लगभग 1153 से 1163 ई.)
4 पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192 ई.)

राजस्थान में 4 चौहान वंश :-
1 सांभर के चौहान (अजमेर के चौहान)
2 रणथम्भौर के चौहान (डाँग क्षेत्र के चौहान)
3 जालौर के चौहान
4 हाड़ा (हाड़ौती के चौहान)

चौहान वंश का पतन व विभिन्न खाँपों में बंटना :-
चौहान वंश के महान व अंतिम सम्राट पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद राजस्थान ही नहीं लगभग समस्त भारत की राजपूत रियासतों की मजबूत नींव हिलने लगी।
सन 1250 के बाद चाहिल,मोहिल,जोइया,जाटू, सोलंकी,निर्वाण, अहमदान, जेनान, जबवान, एलमान,खानजादा,चौहान जेसी कई उपगोत्र सनातन धर्म से इस्लाम धर्म स्वीकार कर चुकी, कुछ कृषि कार्य (भाखर,बुरड़क व मोटसरा) करने लगे व जाट समुदाय में शामिल हो गये।  आज कई जातियों द्वारा चौहान वंशज होने के दावे (जग्गा,राव व भाट) की बही (वंशावली) के आधार पर) किये जा रहे हैं।
चौहान राजपूतों की वंशावली लेखक व इतिहासकार संत कान्हाराम व दशरथ शर्मा की की पुस्तकें सन्दर्भ रूप में ली जा सकती हैं।
चौहान सरदार पृथक रियासत पाने के लिये सम्पूर्ण भारत में फैल गये। समुदाय बिखर गया। उन में से घँघराय चौहान  ने सांभर से चूरू (23 किलोमीटर दूर) डेरा डाला व घांघू गांव बसाया।
उनके कुल से हर्ष व जीण (भाई-बहन) ने जन्म लिया। जीण सती हुई उनका देवरा जीण माता का मंदिर सीकर जिले में है व पास की ही पहाड़ी पर भाई हर्ष सन्यासी बनकर रहने लगे जिसे हर्ष का पहाड़ कहा जाता है जो आज हर्ष भैरुँ के नाम से जाने जाते हैं व उनका मेला लगता है।
घँघराय के लगभग साथ ही चौहानों की एक टोली ने चूरू जिले की तहसील राजगढ़(सादुलपुर)  (तारानगर - राजगढ़ के लगभग मध्य) गांव ददरेवा बसाया।चौहनों की ददरेवा (चुरू) शाखा के शासक राजा जीवराज चौहान (झेवर) व रानी बाछल के पुत्र गोगा ने नवीं सदी के अंत में महमूद गजनवी की सेना को युद्ध कौशल से हराया। 
स्वयं महमूद गजनवी ने गोगा जी की वीरता के सम्मान में जाहरपीर (अचानक गायब और प्रकट होने वाला) की उपाधि दी। मौसेरे भाइयों के दगे के कारण गोगाजी भाद्रपद कृष्ण पक्ष की गोगा नवमी  सन 1024 में महमूद गजनवी से युद्ध करते हुए शहीद हो गये।
बलिदान दिवस को घर-घर में लोकदेवता (साँपो के देवता) के रूप में गोगाजी की पूजा की जाती है और मेले भरते हैं। मुस्लिम समुदाय उनको गोगा पीर के रूप में मानता है।
गोगा देव के पौत्र  केसरोजी की 7वीं पीढ़ी में ईस्वी सन 1315  राजा मोटेराव चौहान हुये।

अध्याय 02
कायम वंश और कायमखानी समाज/सिलसिला में अंतर - 
कायम वंश और कायमखानी सिलसिला में अंतर है। कायमखानी वंश के आधार पर यदि बात की जावे तो केवल कायम खां साहब की ओलाद जिसमें ताज खान, मोहम्मद खान और मोईन खान साहब की आल औलाद ही शामिल होगी जिसमें खानजादा, एलमान और अहमदान को ही शामिल किया जा सकता है। इसमें जैनदीन खान (कायम खां के बड़े भाई एक ही मां के बेटे और साडू भाई ) और जबर दीन खां साहब (कायम खां साहब के छोटे भाई और दूसरी मां की संतान) की औलाद कायम वंश में शामिल नहीं हैं। यह कायम सिलसिले में शामिल हैं।
यहां हम कायम वंश और कायमखानी सिलसिले के बारे में विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे।

03 कायमखानी कौन -
किवदंती और अधूरे इतिहास के अनुसार - (यह इतिहास केवल कायमखानी वंश का है ना कि कायमखानी सिलसिले (समाज) का साथ ही इसमें सभी तथ्य सही नहीं है।)
ददरेवा (चूरू, राजगढ़) का कुँवर कर्मचंद एक बार शिकार खेलते हुए भटक कर दूर जा निकला। वह थक कर एक वृक्ष की छाया में सो गया। अन्य वृक्षों की छाया ढल गई पर उस वृक्ष की छाया यथावत बनी रही। उसी समय सुल्तान फ़िरोजशाह तुग़लक शिकार खेलते हुए उधर आ निकला। वह यह करामत देखकर कर्मचंद को करामाती पुरुष मान कर साथ ले गया। कालांतर में उसे इस्लाम की शिक्षा देकर इस्लाम धर्म में दीक्षित किया और बड़ा सरदार बनाया।
पुस्तक में जान कवि आदम से लेकर मनुष्य पीढ़ियों का वर्णन करते हुए राहु-रावण-धुँधमार-मारीच-जमदग्नि-परशुराम-बच्छ-चाइ-चौहान की पिता- पुत्र श्रृंखला बताते हुए चौहान गोत्र की उत्पत्ति के बारे में बताता है। इसके पश्चात चौहान गोत्र को कल्पवृक्ष के समान बताते हुए उसकी दर्जनों शाखाओं की गिनती की जाती है, यथा देवड़े, चाहिल, मोहिल, गोधे, गूंदल, सिसोदिये, हाले, झाले, उमट, खीची, छोकर आदि आदि।
राजा जेवर चौहान के चार पुत्र हुए- गोगा, वैरसी, सेस और धरह। गोगा के पुत्र का नाम नानिग था। उधर वैरसी की शाखा से उदयराज-जसराज-केशोराय- बीजैराज- पदमसी की पीढ़ियों से होते हुए पदमसी का बेटा पृथ्वीराज हुआ।
इस प्रकार से गुगा से करीब 15-16 पीढीयों के बाद मोटेराव हुआ जिसके चार पुत्र थे, जिनमें से करमचंद का मुस्लिम नाम कायम खाँ हो गया। एक पुत्र जगमाल को छोड़ के बाकी दो पुत्र जैनदी और सदरदी भी मुसलमान हो गए थे।
सैयद नासिर ने कायम खाँ को अपने 12 पुत्रों के साथ पढ़ाया और उसकी क्षमता देखते हुए अपना वारिस घोषित किया। उसकी मृत्यु के बाद सुल्तान फिरोजशाह ने कायम खाँ को मनसब दी और जब सुल्तान लड़ने के लिए ठट्ठा गया तो पीछे से राजकाज की बागडोर कायम खाँ को संभालने को कहा गया। इसी दौरान कायम खाँ ने मंगोलों के आक्रमण का कड़ा मुकाबला करते हुए उन्हें हराया। फिरोजशाह की तीसरी पीढ़ी से सुल्तान नसीर खाँ निःसंतान मरा तो एक ग़ुलाम मल्लू खाँ ने कायम खाँ के विरोध के बावजूद राजकाज संभाला। इसी समय कायम खाँ ने हिसार – हांसी के नवाब के नाते दूनपुर, रिणी, भटनेर, भादरा, गरानो, कोठी, बजवारा, कालपी, इटावा, उज्जैन, धार, और इनके बीच के छोटे शासकों पर विजय प्राप्त कर ली थी।
सन 1398 में तैमूर ने दिल्ली पर हमला किया और मल्लू खाँ को मारके ख़िज़्र खाँ को सुल्तान बना दिया गया। ख़िज़्र खाँ ने झज्जर में पैदा हुए लाहौर के फौजदार मोजदीन को कायम खाँ से बड़ी फौज लेकर लड़ने को भेजा। उस भयंकर लड़ाई में कायम खाँ की जीत हुई। मुल्तान में ख़िज़्र खाँ और कायम खाँ में सुलह हुई और उन्होंने मिलकर राठौड़ राव चूड़ा को मार कर नागौर को अधीन कर लिया। कायम खाँ ने ख़िज़्र खाँ को फिर से दिल्ली पर कब्ज़ा करने में विशेष मदद की परन्तु आपसी मन मुटाव बना रहा। पिचानवे साल की उम्र में कायम खाँ की नहर में डूबा कर हत्या हो गई। उसके पाँच पुत्र थे। इसी बीच दिल्ली में अनेकों सुल्तान थोड़े थोड़े समय के लिए आए और गए लेकिन कायमखानी अपना स्वतन्त्र वजूद रखते हुए अनेक इलाकों में फैलते गए।
आखिर बहलोल लोदी (1451-1489) से उनके मधुर सम्बंध बने और उन्होंने मिल कर रणथम्भौर पर जीत हासिल की। उसके बाद से लेकर लगातार वे मुग़ल बादशाहों के खासमखास रहे।
दिल्ली के सुल्तानों से अनबन रहते उन्होंने हिसार छोड़कर फतेहपुर (शेखावाटी) बसाया। सन 1441 में एक ही दिन में फतेहखाँ ने फतेहपुर में छः किलों की नीवं रखी थी। कायमखाँ के बेटे इख़्तियार खाँ ने हरियाणा-राजस्थान सीमा पर ढोसी के पहाड़ पर किला बनाया और आमेर तथा अमरसर के राजा उसे कर देते थे।
कायमखानियों के पास झाड़ौद पट्टी की नवाबी सन 1395 से 1725 तक,
झुंझनु की सन 1444 से 1729 तक,
बड़वासी की सन 1420 से 1729 तक,
केड़ की सन 1441 से 1721 तक,
चरखी दादरी की सन 1351 से 1440 तक। हांसी- हिसार में 1448 तक रहने के बाद सन 1449 से 1730 तक फतेहपुर (शेखावाटी) की इनके पास एक बड़ी नवाबी थी।
बहलोल लोदी की बेटी झुंझनू के नवाब से ब्याही गई थी और इसी प्रकार राजपूतों और कायमखानियों के बीच विवाह संबधों के अनेक दृष्टांत इस पुस्तक में वर्णित हैं।
सुल्तान बहलोल लोदी के साथ रणथम्भोर की जीत, उससे पहले राजस्थान के भिन्न भिन्न राजाओं से लड़ाई में जीतना, मुग़ल बादशाहों की तरफ़ से कभी दक्कन में, पहाड़ी राजाओं से, मेवाड़, भिवानी, नागौर, मेवात, पेशावर, बल्ख, काबुल, कसूर, ठट्ठा आदि इलाक़ों पर बहादुरी दिखाने और मौत को गले लगाने में कायमखानियों ने अपना नाम कमाया। नवाब अलफ खाँ ने पहाड़ी राजाओं से लड़ते हुए अपनी जान गँवाई और उसका वारिस दौलतखाँ चौदह सालों तक नगरकोट (कांगड़ा) का शाहजहाँ की तरफ़ से दीवान रहा।
आज एक अच्छी खासी संख्या में कायमखानी परिवार राजस्थान में रहते हैं। वे अपने आप को कायमखानी चौहान कहलाने में गर्व महसूस करते हैं और उनके रीति रिवाज आज भी हिन्दू राजपूतों जैसे हैं। उनके गोत्र और उपगोत्र की व्यवस्था अत्यन्त दिलचस्प है। उदाहरण के लिए झाड़ौद पट्टी वालों का मुख्य गोत्र जैनाण है (नवाब जैनुदिन खाँ के नाम पर) और उपगोत्र मलवाण, मिठवाण, जलवाण, मलकान, पहाड़ियांन, गौरान आदि हैं। फतेहपुर वालों का मुख्य गोत्र खानी है (नवाब कायमखाँ के नाम पर) और उपगोत्र उमरखानी, समरथखानी, हाथीखानी, लालखानी आदि हैं। 
झूंझनू वालों का मुख्य गोत्र खानजादा और उपगोत्र कबीरखानी, मीरखानी, हथियारखानी, जमालखानी आदि है। बड़वासी वालों का मुख्य गोत्र एलमाण, मुन्याण, अहमदाण और उपगोत्र निवाई के, बप्पेरे के, चेलासी के, कोलसी के आदि। केड़ वालों का मुख्य गोत्र जबवाण है(नवाब जबरुद्दीन खाँ के नाम पर) और उपगोत्र मुज्जफरखानी, हमीदखानी, फतनाण आदि है।

वास्तविकता - 
हम जानते हैं भारत में इस्लाम ओलिया अल्लाह की मेहनत से फैला।
इसमें ईरान,इराक और सऊदी अरब से आने वाले ओलिया इकराम के साथ - साथ भारत में भी बहुत से ओलिया हुए।
भारत में अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह आलैय से पहले बहुत से लोग आ चुके हैं। सन 636 में हजरत उमर फारुख खुद समुद्री लुटेरों को तबाह करने बाबत पुना आ चुके हैं।
हम यह भी जानते हैं पीरो - मुर्शीद के सिलसिले में बेअत करने वाला अपना खुद का सिलसिला पीर से जोड़ लेता है। और उन पीर साहब के मानने वाले अपने आपको पीर भाई कहते हैं।
एक दृष्टिकोण से देखा जाए तो बही भाट ने पिरानी वाले नजरिए से कभी कायमखानी को परिभाषित करने का दायित्व नहीं उठाया।
यह गहन सोच और अनुसंधान का विषय है जिस पर इस नजरिए से कम करने की जरूरत है।
यहां यह बात गलत नहीं होगी के अगर मोटेराव जी की संतान ही कायमखानी होते तो जैनदी खान जी और जबरदी खां जी की ओलाद कायमखानियों में शुमार नहीं की जा सकती।
उनकी अलग से पहचान जैनदीखानी और जबरदीखानी होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दोनो भाइयों के अलावा जिस जिस ने दादा नवाब कायम खां साहब के यहां बेअत की ठीक जैनदी खां और जबरदी खां साहब की औलाद की तरह वो भी कायमखानी कहलाए।
हम कई बार सुनते हैं उत्तरप्रदेश,हरियाणा और दिल्ली के आसपास के लोग जिन्हे रांगड़ा/राव/राणा कहा जाता है वो भी अक्सर दावा करते हैं कि वे कायमखानी हैं।
राजपूत कोम में से खोखर, भाटी, जोईया, सर्वा, सरकेल, मोयल, चायल,टाक,राठौड़,गौरी,जाटू,बेहलीम,चौहान और बहुत सी जातियां थीं जिन से कायम खां जी के रिश्ते थे। इन्हीं रिश्तों के कारण और कायम खां साहब के पीरो मुर्शीद बाने से मुतफ्फिक होकर इस्लाम कबूल किया और जो पहले इस्लाम कुबूल कर चुके उन्होंने कायम खां साहब को अपना मुर्शीद मान लिया और सब ने अपना लकब कायमखानी लगाना शुरू कर दिया।
शब्द खां, ख़ान और ख़ानी का अर्थ -
तुर्की भाषा में ख़ान का अर्थ -
ख़ान होने का गर्व
ख़ान की उपाधि रखना, राजशाही सम्मान, मध्य एशिया के शासकों और अधिकारियों आदि की उपाधि
छोटा हौज़
फारसी में अर्थ -
एक ही घर में रहने वाले लोग
कुतुबखाना, जनान खाना
ख़ान (ख़ाना का लघु) से संबंधित, ऐसा बाज़ जो एक साल से ज़्यादा समय तक घर में रखा जाये, सोने की, सुनहरी रंगत को भी ख़ान कहते हैं। खानी शब्द ख्वानी का रूप है जिसे के अरबी में माअनी हैं पढ़ना।
शब्द मीमांसा के अनुसार ख़ान एक उपाधि है। खां फारसी में सभ्य आदमी को भी कहते हैं। दूसरा यह की उस वक्त में दूसरे मजहब के कलमा पढ़ने वाले लोग भी खानी (पढ़ने वाले) बने।
इसी तरह कायम खां की बेअत कर कलमा पढ़ने वाले या कलमा पढ़ चुके बेअत करने वाले कायमखानी (कायम खां के कलमा पढ़ने वाले साथी) कहलाए।
अब बात करते हैं कायमखानी कौन -
हम जानते हैं दादा नवाब कायम खां साहब का पालन पोषण हांसी के कुतुब की सरपस्ती में हुई।
कर्नल नासिर साहब खुद एक वली सिफ्त इंसान थे जो अक्सर उनकी तरबियत के बारे में मुफक्किर रहते थे।
जिस बच्चे की परवरसिश वली करने वाले हों तो उस बच्चे की खुद की क्या होगी हम आसानी से अंदाज लगा सकते हैं।
यहां यह बात निकल कर आती है कि इस्लाम मजहब में पीर मुर्शीद का चलन भी है। यहां तक कहा जाता है के इंसान के घर के पास नीर और दीन सीखाने वाला पीर जरूरी है।
पीर के लकब को अपना लक़ब बनाना पीर के चाहने वालों का चलन काफी अरसे से रहा है।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह के मुरीद जो इस्लाम में दाखिल हुए (बेअत की) ने भी अपने नाम के साथ चिश्ती लगाना शुरू किया।
इस के उदाहरण अजमेर और अजमेर के आसपास देखने को मिलते हैं, जो लोग दूसरी जाति और मजहब से थे ने ख्वाजा साहब की इसलाह से इस्लाम में दाखिला लिया और चिश्ती कहलाए।
इसी तरह और भी बहुत से औलिया हुए हैं जिन के मुरीद अपने मुर्शीद का लकब लगाते हैं।
जैसे ओलाइ,संजरी,सैफी,कलंदर, नोमानी, हासमी, फैजी,बस्तानवी, शहीदी, अजीजी,नजमी, काजमी आरिफी, अशरफी, कुद्दूसी वगैरह सब लकब मुर्शीद के नाम से ही हैं।
इसी तरह से आगे चल कर दादा कायम खां साहब की सिफ्त पीरो मुर्शीद वाली हुई।
आपके पहनावे के बारे में भी कहा जाता है कि लंबी दाढ़ी सर पर इमामा और तकरीबन कपड़ों पर लबादा इख्तियार किया है, जो जाफरानी या हरे रंग का हुआ करता था।
शक्ल ओ सूरत से पिरानी झलकती थी। उन के संपर्क में आने से बहुत से लोग मुस्लिम बने जिन में से पहले उन के दो भाई थे। उन्होंने अपना लक़ब चौहान बदल कर भाई के लकब को इख्तियार किया और एक पिरानी सिलसिला चल पड़ा जिस का नाम हुआ कायमखानी।
हो सकता है अधिक गहनता से हमने इस दृष्टिकोण की ओर ध्यान ही नहीं दिया और मान लिया कि सिर्फ मोटेराव जी की ओलाद जो इस्लाम में दाखिल हुए सिर्फ वो ही कायमखानी हैं।
दादा नवाब कायम खां साहब का वली शिफ्त चित्र जहां शेर और हिरण एक साथ रहते है। जिस से स्पष्ट है कायम खां साहब एक वली थे। पीर मुसर्शिदी के सिलसिले को आगे बढ़ाया और यह सिलसिला चला दादा हजरत कमरूद्दीन खां साहब झुंझुनूं जिनका जन्म 1784 में हुआ। 

कमरुद्दीन शाह बाबा की दरगाह झुंझुनू, राजस्थान - 
19वीं सदी के मध्य में बनी यह दरगाह काना पहाड़ के नीचे स्थित है। दरगाह का प्रवेश 1841 में मेजर फोर्स्टर ने अपने नवजात पुत्र के निधन पर उसकी याद में बनवाया था। यहां दोनों समुदायों के बीच सौहार्द की निशानी स्वास्तिक चिन्ह के रूप में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
पीर कमरुद्दीन शाह और बाबा चंचल नाथ के बीच रिश्तेदारी की किंवदंतियाँ झुंझुनू में व्यापक रूप से बोली जाती हैं।
हजरत कमरूद्दीन शाह दरगाह का सालाना उर्स 24 सितंबर से शुरू होता है। 25, 26 व 27 सितंबर की रात को महफिले कव्वाली और 27 की सुबह दस बजे फातेहाखानी होती है।
पीर मुसर्शिदी के काम को आगे बढ़ाया और यह सिलसिला चला दादा हजरत कमरूद्दीन खां साहब झुंझुनूं जिनका जन्म 1784 में हुआ। 
कमरुद्दीन शाह बाबा की दरगाह झुंझुनू, राजस्थान - 
19वीं सदी के मध्य में बनी यह दरगाह काना पहाड़ के नीचे स्थित है। दरगाह का प्रवेश 1841 में मेजर फोर्स्टर ने अपने नवजात पुत्र के निधन पर उसकी याद में बनवाया था। यहां दोनों समुदायों के बीच सौहार्द की निशानी स्वास्तिक चिन्ह के रूप में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
पीर कमरुद्दीन शाह और बाबा चंचल नाथ के बीच रिश्तेदारी की किंवदंतियाँ झुंझुनू में व्यापक रूप से बोली जाती हैं।
हजरत कमरूद्दीन शाह दरगाह का सालाना उर्स 24 सितंबर से शुरू होता है। 25, 26 व 27 सितंबर की रात को महफिले कव्वाली और 27 की सुबह दस बजे फातेहाखानी होती है। कमरूद्दीन खां ने अपना लकब शाह शुरू किया और उनकी संतान आज भी शाह लकब इख्तियार कर रही है।
दादा हमद खां जी बेरी छोटी - 
पर्यावरण प्रेम में जान देने वाले पीर हमद खां साहब बेरी छोटी डीडवाना,
कुछ दिन पहले पैतृक गांव बेरी जतनपुरा (बेरी छोटी) डीडवाना जाना हुआ। यहां रास्ते पर ही एक दरगाह बनी हुई है जहां लोग अकीदत का मुजाहिरा करते हैं।
सरपंच इकबाल खां भोमिया साहब साथ थे तो उन से ही पूछ लिया, दरगाह किस की है और इसका इतिहास क्या है?
सरपंच साहब के बताए अनुसार आज से तकरीबन 130 साल पहले यह खालसे की भूमि थी,ओर निकट ही हमद खां जी का निवास था। जागीरदार को किसी कार्य हेतु लकड़ी की आवश्यकता हुई तो इस भूमि से नौकरों को लकड़ी काटने हेतु भेजा। हमद खां जी ने कहा लकड़ी काट लो पर पेड़ नहीं करना। नौकरों ने जबरदस्ती पेड़ काटने शुरू कर दिए। हमद खां जी ने मार कर नौकरों को भगा दिया। जागीरदार को पता चला तो वो करिंदों सहित आ पहुंचे और लड़ाई शुरू हो गई। हमद खां ने एक भी पेड़ नहीं काटने दिया। आखिर पेड़ों की रक्षा करते हुए हमद खां जी शहीद हो गए। उनके शव को गढ़ (थाने) में ले जाना चाहा तो ईश्वर की कृपा से अवरोध बढ़ता गया। तत्कालीन थानेदार ने वहीं दफनाया और आने वाले समय में गांव के लोगों ने उनकी दरगाह बनवाई। आज भी इस दरगाह परिसर में बंबूल का पेड़ नहीं पाया जाता है।  ऐसे पर्यावरण प्रेमी दादा हमद खां साहब को अकीदत के नजराने पेश किए।
दादा हमद खां जी की दरगाह बेरी छोटी डीडवाना
साहब अली शाह जसरासर, चूरू - 
दादा साहब अली शाह की दरगाह जसरासर, चूरु
आप बिसाऊ झुनझुन के रहने वाले थे। जो लंबे समय से जसरासर में रहते थे और वसीयत के मुताबिक उन्हें जसरासर में ही दफन किया गया।
इस से साबित होता है कायम वंश है जो अलग अलग वंश से मिलकर कायमखानी सिलसिला/समाज बना।

अध्याय 05
कायम वंशी
मोटराव चौहान :-
चौहुमान (चहुमुनि)
 -|---------------|-------------|--------|
मुनि       अरिमुनि        मानक  अजयपाल
  |
कलहनदेव 
-|-------------------|-------------------|
भोपालराव     कहकालंगा        घंघराय 
(घनघराय ने चूरू से 23 किलोमीटर दूर घांघू रियासत ईस्वी सन 902 में कायम की)
नागवंशी सांभर चौहान (घांघू व ददरेवा) :-
घांघू :- 902 के लगभग
कलहंणजी के पुत्र घँघराय ने 902 ईस्वी सन में घांघू गांव बसाया।
घँघराय की सन्तान हर्ष,हरकरन व जीण (ईस्वी सन 933)
घँघराय के पांच पुत्र थे में से दो नम्बर पत्नी से पुत्र कान्होजी को घांघू नरेश बनाया। इससे क्षुब्ध हो कर बड़े बेटे हर्ष सन्यास ले कर सीकर की पहाड़ियों में (हर्ष की पहाड़ी) पर चले गये जिन के साथ सगी बहन जीण भी चली गई। जीण को जीण माता व हर्ष को हर्ष भैरव के रूप में प्रशिद्ध मिली
घनघराय की पहली पत्नी से
-|---------------------|--------------------|
हर्षदेव            जीण कंवर          हरकरण
हर्ष के।              जीण भवानी    लोहगर जी
भेरू
सीकर    रिंगस   सीकर            लोहागर जी
वैराग्य  933      वैराग्य             वैराग्य
(तीनों भाई बहन पिता के द्वारा रियासत न मिलने पर ईस्वी सन् 933 में संत बन गए।)
दूसरी पत्नी से
--------|------------------|-------------|-------
कान्हहरण देव       चंद्रदेव        इन्द्रदेव
(कान्हो देव)
(कान्हो देव घांघु के राजा बने ईस्वी सन् 934)
-----|-----------------|-------------|-----------------|
अमरदेव           अजरदेव     सिंघराय     बछराय
--|-----------------|-------------|-----------------|
जेवरादेव
झेवरा देव
(झेवरा देव उर्फ जीवराज ने घांघू रियासत से अलग हो कर नई रियासत जो चूरू के राजगढ़ व तारानगर (तत्कालीन रिनी) के मध्य ददरेवा जिस का पहले नाम दद्दरपुर था में रियासत कायम की ईस्वी सन् 943, क्षेत्र बीकानेर।
ददरेवा के निकट कायमखानियों के गांव मोडावासी 8 किलोमीटर,राजपुरा 15 किलोमीटर व राजगढ़/सादुलपुर 20 किलोमीटर है। यहां कायमखानियो ने घासी खान तजनान के सहयोग से राजस्थान सरकार से (तत्कालीन मंत्री यूनुस खान दिलावरखानी, गनेड़ी  के सहयोग से) कायमखानी स्मारक बनाया है।)
इनका एक बेटा ननगादेव जिसे कई इतिहासकारों ने नगीना लिखा है निःसंतान था)
--|----------------|-------------|-------------|-----------|
गोगा देव   बेरसीराज    शेषराज   घहरराज   ननगादेव                  (बेरासी)
(जेवरादेव के पुत्र गोगा देव मां का नाम बाछल (जन्म 946 से 1024 AD महमूद गजनवी से युद्ध में शहीद हो गए जिन्हे मुस्लिम समाज गोगा पीर और सनातन समाज गोगा जी महाराज के नाम से जानते है,मानते हैं इनकी समाधि हनुमानगढ़ जिले के गोगामेड़ी में बनी हुई है जहां मुस्लिम कायमखानी चायल आज भी पीर के रूप में आने वाला चढ़ावा लेते है और मेडी की सेवा करते हैं)
बैरासि (बेरसिराज)
      |
  उदयराज
       |
  जसराज
       |
 केसोराज (केशवराय)
       |
 विजयराज
       |
 पद्मासी (पद्मराज)
       |
 पृथ्वीराज
       |
 लालचंद्जी (लालचंदराव)
       |
 गोपालराव
      |
 जैतासी 
(1213 इश्वी विक्रमी संवत 1270 शिलालेख  में ददरेवा का कुंआ खुदवाया। जैतसी के शिलालेख से एक निश्चित तिथि ज्ञात होती है. जैतसी गोपाल का पुत्र था ) 
     |
 पुहनपाल
      |
  रूपाजी (रापाराव)
      |
 रावनपाल
      |
तिहुपाल
    |
 मोटराव 
(1315 AD) (इस समय दिल्ली की गद्दी पर फिरोज तुगलक 1309 से 1388 मोटरेव जी के चार रानियां थीं जिनसे 06 पुत्र हुए) इनका विवरण आगे वंश वृक्ष में दिया जा रहा है।
कायम वंश की स्थापना :-
मत (1)
मुंहता (मेहता) नेणसी (राजस्थानी इतिहास के लेखक) की ख्यात(पुस्तक) (नेणसी री ख्यात)में उल्लेखित किया है कि हिसार के फौजदार सैयद नासिर ने ददरेवा को लुटा व वहां से दो बालक एक चौहान दूसरा जाट साथ ले गया व उन्हें हांसी के शेख के पास छोड़ दिया। 
सैयद की (वफात) मृत्यु के बाद दोनो को बहलोल लोदी को सुपुर्द कर दिया गया लोदी ने चौहान का नाम कायम खां तथा जाट का नाम जैनू रखा। जैनू के वंशज (जैनदोत) झुंझुनु फतेहपुर में हैं। कायमखां हिसार का फौजदार बना।
जुझारसिंह चौधरी से मिलकर कायमखां के पुत्र मोहम्मद खान ने शेखावाटी क्षेत्र पर कब्ज़ा किया व झुंझुनूं क़स्बा बसाया।
कायमखां ददरेवा के मोटेराव चौहान के पुत्र थे। कायमखां के वंशज कायम वंशी कहलाते हैं।
इस मत से सिर्फ यह स्पष्ट होता है कि सिर्फ कर्म सिंह (कायम खान) ही मोटेराव जी के पुत्र थे।
ऐतिहासिक तथ्यों से इस बात की पुष्टी होती है। महाकवि जान ने कायम रासो में कायमखां को मोटेराव चौहान का पुत्र होना वददरेवा निवासी होने का उल्लेख किया है। 
एक शिलालेख विक्रमी संवत 1496 (1439 ई.) का है है में ददरेवा के चौहान वंश का उल्लेख है।
जैतसी ददरेवा के शासक का शिलालेख मिला है जो विक्रमी संवत 1270/1273 (1213/1216 ईस्वी सन।) का है  
मत भिन्नता :-
(1) मत से भिन्नता यह है कि जेनु (जेनदी खान) व जबरदी (जबरदी खान) जब मोटेराव की सन्तान ही नहीं थे तो उनको कायमखानी कैसे माना गया। दो अलग जाति के व्यक्ति एक जाति में कैसे हो सकते हैं। यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है कि जबरदी खान कौन थे व उनकी पहचान क्या है।
इसी प्रकार से तत्कालीन समय ददरेवा के चौहानों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया उसी के आसपास उनके रिश्तेदार चोहिल (चायल),मोहिल (मोयल) जोहिया (जोईया), जाटू, टाक वगैरह ने भी इस्लाम धर्म स्वीकार किया।
(2) जेनान व जबवान कायमखानी हैं और वे मोटेराव की सन्तान नहीं हैं को कायमखानी माना गया है तो  चोहिल (चायल),मोहिल (मोयल) जोहिया (जोईया), जाटू, टाक यह तो उनके निकटतम रिश्तेदार या खून के रिश्तेदार हैं कायमखानी क्यों नहीं हो सकते।
अतः नेणसी री ख्यात के तथ्य स्वीकार करने योग्य नहीं हो सकते।
इसके अलावा कवि जान ने कायम खाँ रासो लिखा है न कि कायमखानी रासो। उनकी पुस्तक में अधिकांश उद्धरण कायम खान जी के बारे में ही मिलेंगे।
कायमखानी वंश का इतिहास देखने हेतु सब से उत्तम साधन वंश की धरोहर की रक्षा करने वाले राव जी (भाट राजा) हैं जो गोत्र वार तथ्यों सहित सम्पूर्ण विवरण आज भी सँजोये हुये हैं व उनके लेखों पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है।

तथ्य 3 बहलोल खान लोदी को कर्मसिंह को व जेनु को सौंपना :-
अफगान व्यवसायी परिवार के जो सैय्यद वंश काल में पंजाब का गवर्नर बहलोल खान लोदी ने 19 अप्रेल 1451 को दिल्ली में लोदी सल्तनत की स्थापना सैयद वंश के अंतिम शासक को हटा कर की। इसका जन्म 1401 में एवं मृत्यु जुलाई 12, 1489, दिल्ली में हुई।
जबकि सन 1335 में कर्मसिंह की आयु 8 से 10 वर्ष (जन्म लगभग 1325 से 28) को हुआ। इस से साबित होता है कि बहलोल लोदी कर्मसिंह से 74 से 76 वर्ष बाद पैदा हुये।
इसलिये नासिर द्वारा कर्मसिंह को बहलोल लोदी को सौंपना तथ्यहीन व मनगढ़ंत है।

तथ्य 4 :- चायल,मोयल,जोइया,सर्वा, सरकेल, बेहलीम,जाटू,टाक, चौहान, देवड़ा,खोखर,नारू कायमखानी हैं :-
मोटेराव जी के तीन पुत्रों ने धर्म परिवर्तन कर लिया पर मूल क्षत्रिय समाज से रिश्ते बनाये रखे। मोटेराव जी की सन्तान के लगभग समय में ही हाँसी कुतुब की बैअत पर चायल, मोयल, जोइया, सर्वा, सरकेल, बेहलीम,जाटू, टाक,चौहान, देवड़ा, खोखर, नारू सहित समकक्ष जागीरदारों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया व नवाबी भी हासिल की। मोटेराव जी के 2 बेटे जैनुद्दीन खान  क़ायम खां डीडवाना के पास निम्बी टाकान में ब्याहे गये थे व तीसरा बेटा ज़बरद्दी खां भी भाटियों के यहाँ ब्याहे गये थे। समकक्ष पद, मान व मर्यादा के जागीरदार व कुतुब हाँसी की सरपस्ति में बैअत करने वाले पूर्व में व आगामी रिश्तेदारी लगातार रखने वाले कायमखानी कैसे नहीं हो सकते।
इसलिये वर्तमान में उठाया जा रहा विवाद जो कुछ लोगों द्वारा प्रायोजित है पूर्णतया असत्य है कि सिर्फ कायमखां जी की सन्तान या सिर्फ जेनद्दीन खां, कायमखां व ज़बरद्दी खां की औलाद ही कायमखानी है। जिस-जिस ने हाँसी कुतुब की बैअत कर इस्लाम धर्म स्वीकार किया और पीर की बात व वादे पर कायम रहे वो तत्कालीन नव मुस्लिम कायमखानी हैं व रहेंगे। साबित होता है कि सिर्फ तीन भाइयों या सिर्फ कायम खा जी की सन्तान नहीं उक्त करार कुतुब हाँसी पर कायम रहने वाले सभी सरदार कायमखानी हैं।
नोट :- पहले इन गोत्रों द्वारा राव/राणा लक़ब धारण किया जाता था जो बाद में खां में बदल गया।
तथ्य 5 (विभिन्न जनगणना 1881 से 2011) के अनुसार जातियों का विवरण भी तैयार किया गया जिसके अनुसार उक्त सभी गोत्र चायल, मोयल, जोइया,सर्वा, सरकेल, बेहलीम,जाटू,टाक, चौहान, देवड़ा,खोखर,नारू कायमखानी वंश से ही हैं।
तथ्य 6 अंग्रेजी हुकूमत द्वारा कायमखानी मानना :-
अंगेजों ने बिना किसी राग द्वेष के तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर राज्य किया है। उनके द्वारा ही दादा मोटेराव जी के तीन पुत्रों की सन्तान के अलावा  चायल, मोयल,सर्वा, जोइया,सरकेल, बेहलीम, जाटू, टाक, चौहान, देवड़ा ,खोखर, नारू को कायमखानी मान कर सेना में भर्ती किया गया है।
तथ्य (7) (राव जी की बहियों के अनुसार)
मोटेराव जी के 4 रानियों से छः पुत्र हुये :-
1 जसवंत राव जी
2 कर्म चंद जी
3 जबर राव जी
4 जगमाल राव जी
5 भोजराज जी
6 जय चंद जी
क्रम संख्या 1 से 3 ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया।
मोटेराव जी की 3 सन्तान ने इस्लाम धर्म क्यों स्वीकार किया उस समय की क्या परिस्थितियां रहीं उनका विवरण विभिन्न पुस्तक व सन्दर्भों से प्राप्त होता है। यहां कायमखानी क्यों व कब बने 
इस तथ्य की विवेचना करने से पहले हमे तब के तत्कालीन राजनीतिक परिपेक्ष्य का अवलोकन करना होगा।
तथ्य (8) प्रचलित मत
उपरोक्त तथ्यों में से कुछ (मुणोत नेणसी री ख्यात जातीय घृणा) कुछ इतिहास को तोड़ मरोड़ कर कुछ राव-भाट द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर लिये गये हैं।
कायमखानी वंश के इतिहास विभिन्न लेखकों और विचार व पुस्तकें आदि पढ़कर राव भाट आदि से जानकारी लेने के बाद वास्तविकता यह लगती है कि रजवाड़े या जागीर खत्म होने पर चौहान जागीरदारों की आजीविका लगभग समाप्त हो गई। मुस्लिम शासन काल में छिन्न -भिन्न हो गई। जब आजीविका पर संकट आ गया तो अधिकांश ने धाड़ेती (डाका डालना) का कार्य शुरू कर दिया। धाड़े के साथ-साथ एक ओर काम किया करते थे एक माल या लूट दूसरा पूंची (लूट का माल बरामद करवाने की एवज में ली जाने वाली राशि) धाड़ा थोड़ा मुश्किल कार्य था लेकिन आने और जाने वाले काफी लोगों को ढूंढ कर धाड़ा डाला जाता था दूसरी प्रकार की होती थी जो किसी अन्य से चोरी करवा कर (गाय भैंस या अन्य सामग्री) को अपने पास रख लेते थे उसको ढूंढ कर देने के नाम पर कुछ राशि लिया करते थे उसी को पूंची कहते थे यही कार्य मोटे राव जी की संतान जिसमें जसवंत जी करमचंद जी और चार अन्य शामिल थे किया करते थे, मोटो जी स्वयं एक बड़े धाड़ेती थे और डाका डालने का काम करते थे।
इसके साथ ही नासिर (चिराग देहलवी भी कहा जाता है) जो ददरेवा के निकट की रियासत हिसार-फिरोजा (तुर्की भाषा में हिसार किले/गढ़ को कहा जाता था) के फौजदार थे ,काफी समय से मोटेराव व उनके पुत्रों को पकड़ने के प्रयास कर रहै थे। एक बार नासिर की फ़ौज़ कहीं से जा रही थी जिसे जसवंत व करमचंद ने लूट लिया। इस लूट के सामान को ज़ब्त करने व लुटेरों को गिरफ्तार करने के लिए फौजदार नासिर ने सेना भेजी सेना से जब बात नहीं बनी तो वह स्वयं ददरेवा की तरफ रवाना हुआ वहां पर उसे कहीं करमचंद व उनके साथी मिल गये।करमचंद सुंदर व वीर व्यक्ति थे नासिर को वह बहुत अच्छे लगे और मोटे राव की इजाजत से उन्हें अपने साथ हिसार ले गये।
हिसार में फौजदार नासिर जो एक सूफी किस्म के इंसान थे ने क़ुतुब हाँसी की सरपरस्ती में करमचंद को 1353 में (उस समय दिल्ली का सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुगलक था) इस्लाम धर्म ग्रहण करवा दिया।  करमचंद के इस्लाम धर्म ग्रहण करने के 2 साल बाद 1355 में उनके भाई जसवंत जी वह जबर जी भी हॉंसी आये और इस्लाम धर्म ग्रहण किया।
करमचंद जी का नाम कयामुद्दीन रखा गया जसवंत जी का नाम जैनुद्दीन रखा गया व जबर जी का नाम जुबेरउद्दीन रखा गया जो बाद में अंग्रेजी काल में खा (खनेजहाँ की पदवी ) में परिवर्तित हो गया और तीनों  जेनद्दीन खां, क़ायम खां व जुबेरु द्दीन खां (जबरद्दीन खां) के नाम से प्रसिद्ध हुये। कायम खा को हिसार फौजदार नासिर की विरासत में मिला क्योंकि नासिर की कोई संतान नहीं थी उन्होंने कायम खान को अपना पुत्र मान लिया इसके साथ ही बड़े भाई जेनद्दीन खां ने नारनौल और छोटे भाई जुबेरउद्दीन खा ने चरखी दादरी पर कब्जा कर नवाबी कायम की।
समय बीतता गया इसके साथ ही तुगलक वंश 1413 में समाप्त हो गया और खिज्र खा ने सैयद वंश की स्थापना 1414 में की।
खिज्र खां व कायम वंश का पतन :-
ख़िज़्र ख़ाँ सैय्यद वंश का संस्थापक था जो अत्यंत महत्वकांक्षी व्यक्ति था। ख़िज़्र ख़ाँ ने 1414 ई. में दिल्ली की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। ख़िज़्र ख़ाँ ने सुल्तान के स्थान पर रैयत -ए- आला की उपाधि धारण की। सुल्तान फ़िरोज़ तुगलक द्वारा उसे मुल्तान का गवर्नर बनाया गया था। 1398 में तैमूर लंग ने दिल्ली पर आक्रमण किया व ख़िज़्र ख़ाँ को मुल्तान के साथ-साथ लाहौर एवं दीपालपुर का भी गवर्नर नियुक्त किया। ख़िज़्र खां तैमूर के बेटे शाहरुख़ लंग का प्रतिनिधि बनकर रह व तैमूर को नियमित रूप से कर भिजवाता रहा। पंजाब व अन्य प्रदेश तुगलक काल मे न्यायप्रिय एवं उदार सुल्तान को राजस्व वसूलने के लिए भी प्रतिवर्ष सैनिक अभियान का सहारा लेना पड़ता था। उसने अपने सिक्कों पर तुग़लक़ सुल्तानों का नाम खुदवाया। फ़रिश्ता ने ख़िज़्र ख़ाँ को एक न्यायप्रिय एवं उदार शासक बताया है। मृत्यु 20 मई, 1421 को ख़िज़्र ख़ाँ की मृत्यु हो गई। सन 1393 से 1413 तक दिल्ली के अधीन कई रियासतें अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर चुकी थी और दिल्ली से नाता तोड़ चुकी थी इसी कड़ी में हिसार चरखी दादरी नारनौल की कायमखानी रियासतों ने भी स्वतंत्रता की घोषणा की। इन्होंने दिल्ली को कर देने से मना कर दिया। सन 1414 में खिज्र खां खान दिल्ली का शासक बना और उसने इन सभी रियासतों को अधीनता स्वीकार कर करने हेतु आदेशित किया, कई रियासतों ने अधीनता स्वीकार कर ली परंतु हिसार नारनौल व चरखी दादरी ने अधीनता स्वीकार नहीं की जिस पर यह दोहा प्रचलित है :-
कौन किसी को देते हैं सबको दे करतार 
तुझको दई दिल्ली  हमको  दई  हिसार।
यह सब अल्लाह का दिया हुआ है और हम दिल्ली की अधीनता स्वीकार नहीं करते। खिज्र खां बहुत ही चालाक चतुर व्यक्ति था उसने हिसार नारनौल व चरखी दादरी से शत्रुता करने की बजाय मित्रता का रास्ता अपनाया हिसार नवाब कायम खा के ही साथियों के माध्यम से उनको नदी में डुबोकर मारने की योजना बनाई और 14 जून 1419 (8 रब्बी उल अव्वल हिज़री 822 )को कायम खान शहीद हो गये। यहां यह बात ध्यान करने वाली है कुछ लोग कहते हैं की कायम खान नदी में डूबकर नहीं मरे और उनके साथियों ने मदद की वहां से बचकर हाँसी चले आये, वहीं पर रहे हॉंसी में दो मकबरे बने हुए हैं जो अभी भी एक खंडहर के रूप में एक ठीक-ठाक रूप में स्थापित है दोनों ही मकबरे कायम खा के बताये जाते हैं परंतु विचारको के अनुसार सत्य यही है कि 8 रबनिउलव्वल 822  हिजरी, तदनुसार दिनांक 14 जून 1419 को शाम के वक्त कायम खान को खिज्र खां के द्वारा यमुना नदी में डुबोकर शहीद कर दिया गया।
नारनौल के नवाब जैनुद्दीन खान के 04 पुत्र थे और उनका मृत्यु कायम खां से पहले नारनौल में हो चुकी थी उनका नारनोल में जैनुद्दीन खां का मकबरा आज भी स्थापित है। जैनुद्दीन खां के पुत्रों व जबरद्दीन खा द्वारा खिज्र खा की अधीनता स्वीकार न कर वह क्षेत्र छोड़ देना ही बेहतर समझा गया इस प्रकार से कायम खान के 2 पुत्र ताज खान, मोहम्मद खान जिनका ननिहाल निंबी टाक डीडवाना नागौर में था वहां चले गए और व बाकी दो भाइयों की संतान इधर उधर रियासत पाने के लिए भटकती रही। कुछ समय बाद जुझार सिंह चौधरी के साथ मिलकर झुंझुनू की रियासत पर कब्जा किया व वहां का नवाब कायम खान के बड़े बेटे मोहम्मद खान को बनाकर फतेहपुर क्षेत्र पर कब्जा कर वहां का नवाब ताज खां को बनाकर जैनुद्दीन खां की औलाद बुरहानुद्दीन खां को छोड़ कर )(पिथूसर,निराधनु) जिला नागौर चली गई।
यह सत्य है किसी भी समय 1393 से 1413 के बाद कायमखानी वंश की कोई स्वतंत्र रियासत नहीं थी न ही उनकी स्वतंत्र नवाबी थी। सत्तावनी महाराजा जोधपुर, झुंझुनू महाराजा जयपुर फतेहपुर - सीकर के महाराजा के अधीन कार्य कर रही थी।
इस दौरान ही महाराजा सीकर व खण्डेला के मध्य खंडेला नामक स्थान पर युद्ध हुआ जिसमें सत्तावनी के व फतेहपुर रियासत के कायमखानी आपस में लड़े। 
साखी :-
लागी फ़ौज़ खण्डेले की
सीकर होगी धेले की।
यहां कायमखानी वंश के बारे में अन्य तथ्य यह है कि कायमखानी रियासतें या जागीरे जो स्वतंत्र ना होकर अधीन ही थी और उनके नाम इस प्रकार से हैं जिसका विवरण अभी तक नहीं मिला है ।
मत भिन्नता :-
प्रचलित दन्तकथा अनुसार जैनुद्दीन खां व कायम खा साडू थे जो निम्बी टाका में ब्याहे थे से ताज़ खा व मोहम्मद खां पैदा हुये पर उक्त 7 रानियों में निम्बी का कहीं नाम नहीं है। ज़रूरत है बिना लाग-पाट के तथ्यात्मक इतिहास लेखन की।
तथ्य (9) तेरहवीं सदी में भारत का राजनीतिक परिपेक्ष्य :-
ईस्वी सन 1330 में गयासुद्दीन तुगलक ने खिलजी वंश को हराकर तुगलक सल्तनत की स्थापना की जिसकी मृत्यु 1325 में हो गई। इसके बाद मोहम्मद बिन तुगलक सुल्तान बने। मोहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के बाद 1351में फ़िरोज़ शाह तुगलक सुल्तान बने। इसका विवरण तारीख़े फीरोजशाही में मिलता है। कि बंगाल से लौटने के बाद बंगाल की लड़ाई के दूसरे वर्ष सन 1354 के लगभग फ़िरोज़ शाह तुगलक ने हिसार फीरोजा (मूल हिसार का नाम पहले शिंक था जिसे बदल कर हिसार फ़िरोज़ा किया गया)। नगर में एक दुर्ग बनवाया। इस शिंक (उस समय का छोटा गांव) का नाम हिसार फीरोजा कर हांसी, अग्रोहा, फतेहाबाद, सरसुती, सालारुह, और खिज्राबाद जिले हिसार-फ़िरोज़ा में मिला दिये। हिसार के लगता दक्षिण-पश्चिम में एक क्षेत्र शेखावाटी था। फ़िरोज़ शाह ने मुल्तान का गवर्नर खिज्र खान को बनाया था जो अत्यंत महत्वाकांक्षी था व दिल्ली के निकट मोटेराव जी के तीनों पुत्रों को जागीरें दी।
नसीरुद्दीन तुगलक 1394 में फ़िरोज़ शाह की मृत्यु के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठे। 1413 में नसीरुद्दीन तुगलक की मृत्यु हो गई व दौलत खां लोदी (एक मतानुसार फ़िरोज़ शाह के दामाद) दिल्ली की गद्दी पर बैठाये गये जिससे खिज्र खान ने नाराज हो कर दिल्ली पर हमला कर दिया व खुद शासन करने लगा । खिज्र खान ने सैय्यद वंश की सल्तनत की स्थापना की जो 1451 तक कायम रही।
मोहम्मद बिन तुगलक/उलूग खां/ (जूना खां) :- (1325-1351)
(रक्त पिपासु , भारतीय इतिहास का सनकी बादशाह) मोहम्मद बिन तुगलक पिता गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के बाद 1325 ईस्वी सन में ) दिल्ली के सुल्तान बने। मोहम्मद बिन तुगलक शासन के दैवीय सिद्धांत के अनुसार मानते थे कि उनकी बादशाहत ईश्वर की इच्छा है। 
मोहम्मद बिन तुगलक कुछ तथ्य :-
1 वह पहले बादशाह थे जिन्होंने उत्तरी व दक्षिणी भारत की प्रशासनिक और सांस्कृतिक एकता को बनाने प्रयास किये। इसी प्रयास के अनुसार सन् 1326-27 में राजधानी दिल्ली से दौलताबाद (1500 किलोमीटर से अधिक दूर) (देवगिरी) के लिये (दिल्ली पर लगातार विदेशी आक्रमणो से बचने व दक्षिण भारत पर नियंत्रण करने के लिये सेना व नागरिकों सहित परिवर्तित की व देवगिरी का नाम बदल के दौलताबाद रखा।
(मुगल बादशाह अकबर के समय देवगिरी को मुगलों ने जीत लिया और इसे मुगल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया. 1707 ईस्वी में औरंगजेब की मौत तक इस किले पर मुगल शासन का ही नियंत्रण रहा)
राजधानी परिवर्तन का कारण :- 
1 दौलताबाद दिल्ली और अन्य महत्वपूर्ण शहरों से समान दूरी पर केंद्रीय रूप से स्थित नगर था।
2 राजधानी दिल्ली मंगोलों की पहुंच के भीतर थी दौलताबाद भविष्य के मंगोल हमलों से सुरक्षित समझी गई।
3 मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली से दौलताबाद तक एक सड़क का निर्माण किया, यात्रियों की सहायता के लिए जगह-जगह विश्राम स्थलों की स्थापना की।
4 मुद्रा नीति में परिवर्तन कर चमड़े,कांसे व अन्य धातु के सिक्के चलाये।
(दोनों ही निर्णय दूरदर्शिता पूर्ण थे पर किन्हीं कारणों से सफल नहीं हो पाये।)
परिणाम :-
1 जनता व सामन्तगण नाराज़ हो गये।
2 यात्रा की कठोरता और गर्मी के परिणामस्वरूप कई लोगों की मृत्यु हो गई।
3 दिल्ली में अराजकता फैल गई।
4 नतीजतन कुछ ही वर्षों के बाद मुहम्मद बिन तुगलक को दौलताबाद छोड़ने का फैसला करना पड़ा।
यही स्थिति वापस लौटते हुये हुई। 


दिये गये नक्से में आप दिल्ली से दौलताबाद मार्ग देख सकते हैं।
यहाँ से कायमखानी वंश की शुरूआत की कहानी रब्त होती है। दिल्ली से दौलताबाद व पुनः दौलताबाद से दिल्ली का मार्ग एक ही था जो राजस्थान के चूरू जिले से होकर गुजरा। इसी रास्ते मे ददरेवा गांव पड़ता है।  मोहम्मद बिन तुगलक के हिसार प्रदेश के फौजदार दिल्ली की ओर लौटते  समय सेना के साथ ही थे। नासिर ने एक सुंदर बालक (नाम कर्मसिंह) को देखा ऒर मोहित हो गया। बादशाह की आज्ञा से उस बालक को सन लगभग 1335 में (उम्र लगभग 8 से 10 वर्ष) को अपने साथ ले लिया व बेहतरीन शिक्षण के लिये कुतुब हाँसी के संरक्षण में छोड़ दिया।
कुछ समय बीत जाने पर बालक ने भाइयों से मिलने की इच्छा जाहिर की फलस्वरूप उनके दो भाई (एक बड़ा,एक छोटा) को भी हाँसी बुला लिया गया। तीनों भाई समय के साथ युवा होते गये औऱ सैय्यद नासिर बूढ़े। नासिर उनको अपनी सन्तान की तरह प्यार करते थे। बादशाह फ़िरोज़ तुगलक ने सन 1351-52 में  तीनों भाइयों को शिक्षा पूर्ण होने पर चार कुतुब हाँसी की बैअत करवा कर इस्लाम धर्म में दीक्षित किया गया व खां (राजा,बड़ा आदमी) की उपाधि दे कर उनके नाम रखे :-
1 जसवंतराव -जैनुद्दीनखां (उम्र 29 से 30 साल)
2 कर्मचंद - कायम खां (उम्र 26 से 28 साल)
3 जबरराव जुबेरूदीन खां (उम्र 24 से 26 साल)
जसवंतराव सिंह व कर्मचंद सगे भाई एक माँ से व जबरराव दूसरी माँ से थे।
कुतुब हाँसी से बैअत के समय बादशाह व सभी 53 खांप जिसमें मेटेराव जी के बेटे भी शामिल थे में एक करार हुआ व कहा गया कि इस करार पर जो कायम रहे वो कायमखानी होगा।
खानी(ख़्वानी) शब्द का अर्थ है पढ़ कर समझना। कालान्तर में अन्य चौहान खांप ने भी इसी आधार पर इस्लाम धर्म स्वीकार किया वो भी कायमखानी कहलाये।
विशेष :-
बुजुर्गों से सुनी कहावत के अनुसार कहा जाता है कि हाँसी के चार कुतुब ने उनको दुआ दी कि जब तब तुम्हारी सन्तान में बड़ा मांस(बड़े जानवर का मीट) कोई नहीं खायेगा तब तक उनकी सन्तान में कोई खोजा (नपुंसक) जन्म नहीं लेगा। जिसकी आज भी अधिकांश कायमखानी घराने पालना करते हैं।
रियासतों का आवंटन :-
मोटेराव की सन्तान व कायमखानी :- 
तीनों भाइयों की रियासतें दिल्ली के आसपास ही थीं जिसका कारण था उनकी वीरता। बादशाह विदेशी आक्रांताओं से टक्कर लेने के लिये व उनको खदेड़ने हेतु इन तीनों भाइयों को बुलाते रहते थे जिसे उन्होंने बखूबी निभाया भी।
1 नारनोल रियासत :- 
जेनद्दीन खां को नारनोल (वर्तमान में हरियाणा राज्य में हिसार के निकट) रियासत का नवाब बनाया गया।
2 हिसार-फ़िरोज़ा :-
कायम खान को हीसार फिरोज़ा की जागीर दी गई व नवाबी पद से अलंकृत किया।
3 चरखी -दादरी :-
जबरद्दी खां को चरखी दादरी का नवाब बनाया गया।
विशेष :- तत्कालीन समकक्ष चायल चौहान (सनातन से मुस्लिम धर्म में परिवर्तन के बाद) मेड़ी(हनुमानगढ़) टांक (निम्म्बी) आदि क्षेत्रों की रियासतों के नवाब बने।
इन रियासतों की नवाबी 1337 से बादशाह फ़िरोज़ तुगलक तक चलती रही व कायमखानी वंश फ़लता-फुलता रहा। 1394 तक (फ़िरोज़ सतुगलक वंश होता चला गया। मुल्तान के गवर्नर खिज्र खां की नज़र दिल्ली की गद्दी पर थी जिसे वो तैमूर लंग की मदद से हासिल करना चाहता था।
मत भिन्नता :-
1 मोहम्मद बिन तुगलक 1325 में दिल्ली से दौलताबाद गया व 1335 में वापस आया। करमचंद जी का जन्म 1336- 37 में हुआ।
इसलिये यह मत स्वीकार्य नहीं है।
2 हिसार रियासत नासिर के उत्तराधिकारी के रूप में व नारनोल,चरखी दादरी लड़ाई लड़ कर हासिल की गई। इसलिये यह तथ्य स्विकार योग्य नहीं है।
अध्याय 05
पुस्तक समीक्षा - कायम रासो
पुस्तक कायम रासो का मुख्य पृष्ठ 
यह किताब अधिकांश ऐतिहासिक काव्य रूप में है जिसे नियामत अली खान कायमखानी  (जानकवि) ने लिखा है। ।कवि का रचनाकाल सत्रहवीं सदी का उत्तरार्द्ध तथा अट्ठारहवीं सदी का पूर्वार्द्ध है। जानकवि द्वारा लिखित 76 रचनाएँ उपलब्ध हैं  जिनमें रत्नावली, लैला मजनू, कामलता ,बारहमासा, षटऋतुबरवा, वियोगसागर आदि मुक्तक श्रृंगार वर्णन काव्य, सीखग्रंथ, वर्णनामा आदि उपदेशात्मक काव्य और कवि वल्लभ, रसमंजरी आदि अनेकों अन्य रचनाएँ हैं। कायमरासो का हिंदी में अनुवाद इतिहासकार रतन लाल मिश्र ने किया।
कायम रासो में कायम खां के बड़े भाई जो सहोदर हैं को जाट बताया गया है जो ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर पूर्णतया निराधार और कपोल कल्पना है।
सिर्फ इसी एक वाक्य के आधार पर हम कह सकते हैं कि कायम रासो में वर्णित घटनाओं को सत्य की कसौटी पर खरा नहीं पाया गया है। बहुत सी घटनाओं को बढ़ा - चढ़ा कर वर्णित किया गया है और बहुत से महत्वपूर्ण तथ्यों को अनदेखा भी किया गया है। रासो एक कवि द्वारा शब्दों को काट - छांट कर प्रस्तुत किया गया कविता संग्रह है जो इतिहास के अनुसार सत्य हो सही नहीं है।
हां कायम रासो के कुछ तथ्यों को साक्ष्यों के रूप में काम में लिया जा सकता है और कुछ संदर्भ भी लिए जा सकते हैं।
कायम रासो में 
कहा गया है कि -
कौन किसी को देत है सब को दे करतार
तुझ को दई दिल्ली हम को दई हिसार।
यह साखी दिल्ली दरबार और कायम खां के मध्य लगान वसूली के समय कायम खां के लगान देने से मना करने से संबंधित है जबकि इतिहास के पन्नों में यह घटना कहीं भी दर्ज नहीं है। इसी तरह और भी बहुत सी साखियां कवि ने अपने अंदाज में कहीं है।
कायम रासो में आगे एक साखी है -
मानस भये जहांन मैं, ने सगरे कहीं जांन।
आदम पाछै आदमी हेंदु मुसलमांन।
(स्त्रोत : कायम खाँ रासा)
यह राजपूतों और कायमखानियोंं की सम्मिलित परंपरा का बोध कराती है।
कायम रासा में नवाब कायम खां की संतान (नवाबों)  का इतिहास वर्णित है। इसके अतिरिक्त इस काव्य में दिल्ली से सम्बंधित सल्तनत काल व मुग़ल काल के अनेक अज्ञात तथ्यों का उद्घाटन किया गया है।
कायमखाँ रासा में तुग़लक़, सैयद, लोदी, और सूरी सुल्तानों और मुग़ल बादशाहों पर पर्याप्त सामग्री है। कायमखानी परिवार के वैवाहिक संबंध लोदी, सूरी, मुग़ल, राजपूत  खानदानों से रहे हैं। इस काव्य में अनेक अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन होने के बावजूद अनेक दिलचस्प ऐतिहासिक घटनाओं का ज़िक्र है जो अन्यथा उपलब्ध नहीं हैं।
पुस्तक में जानकवि आदम से लेकर मनुष्य पीढ़ियों का वर्णन करते हुए राहु - रावण -धुँधमार - मारीच - जमदग्नि -परशुराम -बच्छ -चाइ -चौहान की पिता- पुत्र श्रृंखला बताते हुए चौहान गोत्र की उत्पत्ति के बारे में बताता है। इसके पश्चात इस प्रकार से गोगा जी से करीब 15-16 पीढीयों के बाद मोटेराव जी हुए जिनके चार पुत्र थे (यहां यह गलत तथ्य है ऊपर बताया जा चुका है कि मोटेराव जी के छः पुत्र हुए। जिनमें से करमचंद का मुस्लिम नाम कायम खाँ हो गया। एक पुत्र जगमाल को छोड़ के बाकी दो पुत्र जैनदी और सदर दी भी मुसलमान हो गए थे। सैयद नासिर ने कायम खाँ को अपने 12 पुत्रों के साथ पढ़ाया और उसकी लियाकत देखते हुए उसे ही अपना वारिस घोषित किया। उसकी मृत्यु के बाद सुल्तान फिरोजशाह ने कायम खाँ को मनसब दी और जब सुल्तान लड़ने के लिए ठट्ठा गया तो पीछे से राजकाज की बागडोर कायम खाँ को संभालने को कहा गया। इसी दौरान कायम खाँ ने मंगोलों के आक्रमण का कड़ा मुकाबला करते हुए उन्हें हराया।फिरोजशाह की तीसरी पीढ़ी से सुल्तान नसीर खाँ निःसंतान मरा तो एक ग़ुलाम मल्लू खाँ ने कायम खाँ के विरोध के बावजूद राजकाज संभाला। इसी समय कायम खाँ ने हिसार - हांसी के नवाब के नाते दूनपुर, रिणी, भटनेर, भादरा, गरानो, कोठी, बजवारा, कालपी, इटावा, उज्जैन, धार, और इनके बीच के छोटे शासकों पर विजय प्राप्त कर ली थी। सन 1398 में तैमूर ने दिल्ली पर हमला किया और मल्लू खाँ को मार कर ख़िज़्र खाँ को सुल्तान बना दिया। ख़िज़्र खाँ ने झज्जर में पैदा हुए लाहौर के फौजदार मोजदी खां को कायम खाँ से बड़ी फौज लेकर लड़ने को भेजा। उस भयंकर लड़ाई में कायम खाँ की जीत हुई। आखिर मुल्तान में ख़िज़्र खाँ और कायम खाँ में सुलह हुई और उन्होंने मिलकर राठौड़ राव चूड़ा को मार कर नागौर को अपने अधीन कर लिया। कायम खाँ ने ख़िज़्र खाँ को फिर से दिल्ली पर कब्ज़ा करने में विशेष मदद की लेकिन आपसी मन मुटाव बना रहा। पिचानवे साल की उम्र में कायम खाँ की मृत्यु हुई। उनके पाँच पुत्र थे। इसी बीच दिल्ली में अनेकों सुल्तान थोड़े - थोड़े समय के लिए आए और गए लेकिन कायमखानी अपना स्वतन्त्र वजूद रखते हुए अनेक इलाकों में फैलते गए। आखिर बहलोल लोदी (1451-1489) से उनके मधुर सम्बंध बने और उन्होंने मिल कर रणथम्भौर पर जीत हासिल की। उसके बाद से लेकर लगातार वे मुग़ल बादशाहों के खासमखास रहे। दिल्ली के सुल्तानों से अनबन रहते उन्होंने हिसार छोड़ कर फतेहपुर (शेखावाटी) बसाया। सन 1441 में एक ही दिन में फतेह खाँ ने फतेहपुर में छः किलों की नीवं रखी थी। कायम खाँ के बेटे इख़्तियार खाँ ने हरियाणा - राजस्थान सीमा पर ढोसी के पहाड़ पर किला बनाया और आमेर तथा अमरसर के राजा उसे कर देते थे। कायम वंश के पास झाड़ौद पट्टी की नवाबी सन 1395 से 1725 तक, झुंझनु की सन 1444 से 1729 तक, बड़वासी की सन 1420 से 1729 तक, केड़ की सन 1441 से 1721 तक, चरखी दादरी की सन 1351 से 1440 तक और हांसी - हिसार में 1448 तक रहने के बाद सन 1449 से 1730 तक फतेहपुर (शेखावाटी) की इनके पास एक बड़ी नवाबी थी।
बहलोल लोदी की बेटी झुंझनू के नवाब से ब्याही गई और इसी प्रकार राजपूतों और कायमखानियों के बीच विवाह संबधों के अनेक दृष्टांत  इस पुस्तक में वर्णित हैं।
सुल्तान बहलोल लोदी के साथ रणथम्भोर की जीत उससे पहले राजस्थान के भिन्न भिन्न राजाओं से लड़ाई में जीतना मुग़ल बादशाहों की तरफ़ से कभी दक्कन में पहाड़ी राजाओं से, मेवाड़, भिवानी,  नागौर, मेवात, पेशावर, बल्ख, काबुल, कसूर, ठट्ठा आदि इलाक़ों पर बहादुरी दिखाने और मौत को गले लगाने में कायमखानियों ने अपना नाम कमाया। नवाब अलफ खाँ ने पहाड़ी राजाओं से लड़ते हुए अपनी जान गँवाई और उसका वारिस दौलत खाँ चौदह सालों तक नगरकोट (कांगड़ा) का शाहजहाँ की तरफ़ से दीवान रहा। कायमखानियों के रीति रिवाज राजपूतों जैसे ही हैं। उनके गोत्र और उपगोत्र की व्यवस्था अत्यन्त दिलचस्प है। उदाहरण के लिए झाड़ौद पट्टी वालों का मुख्य गोत्र जैनाण है (नवाब जैनुदिन खाँ के नाम पर) और उपगोत्र मलकान, मलवाण, मिठवाण, जलवाण, चायनान आदि हैं। फतेहपुर वालों का मुख्य गोत्र (अहमदान) खानी है (नवाब कायम खाँ के नाम पर) और उपगोत्र उमरखानी, समरथखानी, हाथीखानी, लालखानी आदि हैं। झूंझनू वालों का मुख्य गोत्र खानजादा और उपगोत्र कबीरखानी, मीरखानी, हथियारखानी, जमालखानी, मुन्याण आदि है। बड़वासी वालों का मुख्य गोत्र एलमाण उपगोत्र निवाई के, बप्पेरे के, चेलासी के, कोलसिया के आदि। केड़ वालों का मुख्य गोत्र जबवाण है (नवाब जबरुद्दीन खाँ के नाम पर) और उपगोत्र मुज्जफरखानी, हमीदखानी, फतनाणखानी आदि हैं जो क्रमानुसार पूर्ण नहीं हैं।
इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि कायम रासो एक संदर्भ के रूप में काम में लिया जा सकता है परंतु कायमखानियों के बारे में पूर्ण जानकारी इस के माध्यम से संभव नहीं है और ना ही ऐतिहासिक रूप से पुष्ट।
कहीं - कहीं अति महिमा मंडन कर दिया गया है जो इतिहास लेखन में वर्जित है।
अन्य लोगों के विचार -
हिन्दल वली ग़रीब नवाज़’ शीर्षक से एक पुस्तिका में पृथ्वीराज चौहान के वंशजों के बारे कुछ लिखा हुआ मिला, जो इस प्रकार से है - अब सुल्तान (मुहम्मद गौरी) ने अजमेर का रुख किया। रास्ते में कोई मुकाबला नहीं हुआ बल्कि मारे गए राजाओं के बेटों ने सुल्तान का शानदार इस्तक़बाल किया और उसकी शरण में आ गए। सुल्तान ने अजमेर पहुंच कर यहाँ की हुकूमत पृथ्वीराज के एक बेटे कोला को दी और उससे वफ़ादारी का हलफ़ लिया। एक राजा हरिराज ने अजमेर से पृथ्वीराज के बेटे को निकाल बाहर किया। उसने कुतुबुद्दीन ऐबक से फ़रियाद की। कुतुबुद्दीन ने राजा हरिराज पर चढ़ाई करके उसको मार कर कोला को पुनः अजमेर का राजा बना दिया। उसके कुछ वंशज चूरू के घांघू और घांघू से ददरेवा चले गए।
श्री एच ए बरार सन 198 8- 90 में हरियाणा के राज्यपाल रहे हैं। उन्ही दिनों उन्होंने पूरे राज्य का व्यापक भ्रमण करते हुए अलग अलग स्थानों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करते हुए कुछ नोट्स बनाए और उनको संकलित करते हुए एक पुस्तक का रूप दिया गया जिसका शीर्षक है हिसार के गवर्नर के बारे में इस रोचक पुस्तक में हिसार के इतिहास का जिक्र किया है जिसका हिंदी में अनुवाद इस प्रकार से है - एक फौजदार सैयद नासिर ने जो हिसार का नवाब था पृथ्वीराज चौहान के एक वंशज को पकड़ कर उसे मुसलमान बनाया और उसका नाम कायम खाँ रख दिया गया। सैयद नासिर की मृत्यु के बाद कायम खाँ हिसार का नवाब बना और दिल्ली के सुल्तान के दरबार में ऊँचा रुतबा हासिल किया। कायम खाँ के उत्तराधिकारी कायमखानी कहलाए जाने लगे, जो मुसलमान थे लेकिन पहले राजपूत थे और पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे। बगल के राजस्थान में अनेकों कायमखानी हैं। कायमखानी पूर्व में चौहान राजपूत थे और मुसलमान बनने के बाद भी उनके अधिकांश रीति रिवाज राजपूतों वाले ही थे तथा धर्मपरिवर्तन के बाद भी उनके विवाह सम्बन्ध राजपूत जाति में होते रहे। कायमखानी वंश के प्रवर्तक कायमखाँ की सातों पत्नियाँ राजपूत थी। उनकी अधिकतर प्रजा सनातनी थी जिनकी भावनाओं का आदर करते रहे यही कारण है कि उनके राज्य में गौ हत्या निषिद्ध थी। चौहान गोत्र को कल्पवृक्ष के समान बताते हुए उसकी दर्जनों शाखाओं की गिनती की जाती है, यथा देवड़े, चाहिल, मोहिल, गोधे, गूंदल सिसोदिये, हाले, झाले, उमट, खीची, खोखर आदि। राजा जेवर चौहान के चार पुत्र हुए 
1. गुगा
2. वैरसी
3. सेस
4. धरह
गुगा के पुत्र का नाम नानिग था। उधर वैरसी की शाखा से उदयराज-जसराज-केशोराय- बीजैराज- पदमसी की पीढ़ियों से होते हुए पदमसी का बेटा पृथ्वीराज हुआ।
निष्कर्ष - 
तथ्य 1 से 9 की कड़ियाँ कहीं न कहीं से कायमखानी वंश से जुड़ी हुई हैं।आवश्यकता है इनके तथ्यों की सही पड़ताल कर सटीक जानकारी उपलब्ध करवाई जावे। 
वर्तमान में फलां कायमखानी है फलां नहीं है एक बड़ा षड्यंत्र कायमखानी समाज के विरुद्ध खेला जा रहा है। इतिहास की सही तथ्यपरक जानकारी कर सही फैसला करना हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है।
आओ तोड़ें नहीं - जोड़ें
समाज की एकता - देश की एकता

कायम वंश की रियासतें व जागिरों  :- 
मोटेराव जी :-
जन्म - 1315 ददरेवा
मृत्यु - --- ददरेवा
विवाह -
मोटेराव चौहान की रानियां :-
कंवल दे कंवर राजपुर गोत्र कछावा(कच्छी) पिता का नाम नरहर दास जायल नागौर 
रानी कंवल दे के दो पुत्र हुए ज्येष्ठ पुत्र जवसवंत (जयचंद) और दूसरा पुत्र कर्मचंद
सूखदे कंवर राजपूत गोत्र पंवार पिता का नाम अहिरण मल निवासी धार 
सुख दे कंवर से एक संतान हुई विजयचंद (जब्बर)
3 कान दे कंवर राजपूत गोत्र गौड़ पिता का नाम सोहवर जी हाला निवासी घाटवा नागौर
इस रानी से दो संतान हुई जगमाल और जयराज
लाल दे कंवर राजपूत गोत्र तंवर पिता का नाम भोजराज निवासी बड़वर जिला नागौर। लालदे कंवर से एक पुत्र भोजराज ने जन्म लिया।
राणा मेटेराव चौहान के 3 पुत्रों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के पीछे कई कहानियां और किवदंतियां है जिन में से कुछ का वर्णन आवश्यक होने के कारण करना जरूरी है।
1 जयचंद (जसवंत)
2 कर्मचंद
3 विजयचंद (जब्बर) 
- कुल आल और वंशवृक्ष
कायमखानी वंश:-
A - जयचंद (जसवंत)  - जैनुद्दीन खां की संतान 
जन्म - 1334
मृत्यु - 1414 नारनोल
जैनुद्दीन खां व उनकी सन्तान ने नरहड़, बड़वासी व झाड़ोद की जागीरें हासिल कीं।
गोत्र जेनान (जेनदोत -मुंहंता नेनसी)
(1) शेरुल्लेह खान (कांट) झुंझुनूं
1. मिठू खान मिठवान (डुमरा) 
2. पहाड़ खान पहाड़ियांन (झाड़ोद) नागौर
3. माले खान मलवान (सुद्रासन,पायली) नागौर
4. फत्तुल्लेह खान फयन्यांन (दाऊद सर, मावा) नागौर
5. अखनखान अखन्यान (ढोसी) हरियाणा
6. लाडम खान लाडवान (मावा)  नागौर
7. गोहर अली खान गोरयान (छापरी) नागौर
8. चांद खान चायनान (पायली) नागौर
09. अखान झुंझुनूं
10. दफू खान दफन्यान 
11. लावदी खान मलकान (राजास, बेरी, मायडड, मगलुना) नागौर
12. करीम खान दो बेटे जाट (कटेवा,शोबान) झुंझुनूं
13 जालू खान - जलवान 
14 मातु खान - मातवान झुंझुनूं
(2) अजर खान अजवानिया (बिल्यूं)
(3) बजर खान भानरूंटीया जेनान (करूं, बजीना)
(4) बुरहान खान भुर्न्यान (पिथुसर, निराधनु)

(B)करचंद जी - कायम खान 
जन्म -1337 ददरेवा
मृत्यु - 14 जून 1419 यमुना नदी में डुबोकर हत्या (हिसार के निकट)
कर्मचंद जी के सात रानियां थीं 
1 दाडूदे कंवर दादरी के गांव सावड रघुनाथ सिंह पंवार की पुत्री
2 उम्मेद कंवर सिवनी हरियाणा के रतन सिंह जाटू की 
   पुत्री
3 जीत कंवर मारोठ के शिवराजसिंह गौड़ की पुत्री
4 सुजान कंवर खंडेला के ओलुराय निर्वाण की पुत्री
5 सज्जन कंवर जैसलमेर के राजपाल सिंह भाटी की पुत्री या उनके पुत्र किरत सिंह भाटी की पुत्री
6 रतन कंवर निम्बी टाकां नागौर के द्वारकादास टांक की पुत्री
7 चांद कंवर होद के भगवानदास बदगुर्जर की पुत्री
इन रानियों से हुई संतान निम्नानुसार है :-
1 ताज खान मां का नाम  
2 मोहम्मद खान  मां का नाम 
(खानजादा) झुंझुनूं, नरहड़ 
3 इख्तियार खान (अखन खां) मां का नाम
4 कुतुब खान मां का नाम 
5 मोहन खान (मून खां, मौन खां) मां का नाम
6 वाहिद खान (बचपन में ही मृत्यु) मां का नाम
(B)कर्म चंद जी (कयामुद्दीन) क़ायम खां :-
कायमखां जी की सन्तान
(झुंझुनू नवाब की सूचि ):-
1 मोहम्मद खां 
2 समस खां 
3 फ़तेह खां
4 मुबारक शाह 
5 कमाल खां 
6 भीकम खां
7 मोहबत खां 
8 खिजर खां 
9 बहादुर खां
10 समस खां सनी 
11 सुल्तान खां 
12 वाहिद खां
13 साद खां 
14 फज़ल खां 
15 रोहिल्ला खां 
1 मोहम्मद खां
जन्म - हिसार
मृत्यु  - हिसार
(पिता की मृत्यु के बाद हाँसी के नवाब बने जिन्हें बहलोल लोदी द्वारा सत्ता से हटा दिया गया। (खानजादा) झुंझुनूं 
मोहम्मद खां द्वारा महाराणा कुम्भा के नागौर आक्रमण पर मदद :-
महाराणा कुम्भा ने दिल्ली (फीरोज खान -नागौर का स्थानीय शासक) पर चढ़ाई की और लीला के युद्ध में मोहम्मद खां के सहयोग से जीते।
शिलालेख, 1428 ईस्वी ,समशीश्वर मंदिर (मोकल चित्तोड़)  
महाराणा ने पीरोजा (फीरोज) को अहमद के साथ हराया
श्रृंगी ऋषि शिलालेख ईस्वी सन 1428 
आलोडयासु सपादलक्षमखिलं जालान्धरान् कम्पयन ढिल्ली शंकितनायकां व्यरचयन्नादाय शाकम्भरी । पीरोजं स महामदं शरशतैरापात्य य: प्रोल्लसत्कुं। तव्रात निपात दीर्ण ह्रदयां तस्यवधीद् दंतिन:। 
कुम्भलगढ़ शिलालेख ,1460 ईस्वी सन
नरैना में गौरी शंकर तालाब के लेख 1437 ई
सन्तान :-
(1) शम्स खां :- 
जन्म - हाँसी
मृत्यु -  झुंझुनू
फतेह खां के साथ शेखावाटी आये व झुंझुनूं रियासत स्थापित की।
स्वस्ति संवत 1516 आषाढ़ सुदी पांच भोमवासरे झुंझुनूं शुभ स्थाने शाकी भूपति प्रजापालक समस्खान विजय राज्ये|
(त्रैलोक्य दीपक प्रशस्ति ईस्वी सन 1449)
20 वर्ग मील क्षेत्र में गोचर बीहड़ छोड़ा, बावड़ी व कुएं बनवाये,शमस खां की बावड़ी प्रसिद्ध है। शम्सपुर गांव आबाद किया।
शमस खां द्वारा झुंझुनू बसाना :-
(त्रिलोक दीपक प्रशस्ति के अनुसार शम्स खान ने झुंझुनूं बसाया।)
संवत 1516 आषाढ़ सुदी पांच भोमवासरे झुंझुनूं शुभ स्थाने शाकी भूपति प्रजापालक समस्खान विजय राज्ये 
मोहम्मद खां द्वारा झुंझुनूं बसाना :- 
मोहम्मद खां द्वारा झुंझुनूं बसाने की बात झुंझार सिंह जाट के प्रसंग से कही गयी है।
वाकयात कौम कायमखानी के अनुसार :- 
झुंझुनूं शहर 1444  विक्रमी संवत सावन माह बदी 14 शनिवार तदनुसार 1387 ईस्वी सन बताया गया है।
झुंझुनूं रियासत कायमखानी वंश ने बसाया के विपक्ष में उदाहरण :-
कायमखनियों के झुंझुनूं आने से पहले इस नगर के बसे होने के  प्रमाण 
- जैन ग्रंथ सर्वतीर्थमाला (लेखक सिद्ध सेन सूरी) (1066 के आसपास) के अनुसार  झुंझुनूं का वर्णन इस प्रकार किया गया है -
खंडिल्ल झिन्झुयाणय नराण हरसउर खट्टउएसु । नायउर सुद्ध देही सु सभरि देसेसु वंदामि ।
इसी प्रकार वरदा में प्रकाशित जानकारी से संवत 1300 में झुंझुनूं का उल्लेख इस प्रकारकिया गया है- नवहा झुंझुणु वास्तव्य संवत 1300 (1243) के अनुसार 
संवत 1300 तदनंतरं खाटू वास्तव्य साह गोपाल प्रमुख नाना नगर ग्रामे वास्ताव्यानेक श्रावका: श्री नवहा झुंझुणु वास्तव्य।

2 ताज़ खां  (कायमखां के दूसरे पुत्र)
जन्म -
मृत्यु - 1503 हाँसी
1420 से 1446 (अहमदान) फतेहपुर-
(पिता की मृत्यु के बाद हीसार के नवाब बने)
सन्तान 
(1) फतेह खां - ताज खां की मृत्यु के बाद 1446 में हिसार के नवाब बने व  बहलोल लोदी द्वारा सत्ता से हटा दिया गया। फतेह खां शेखावाटी में चाचा मोहम्मद खां के पुत्र शम्स खान के साथ आये व फतेहपुर (सीकर) रियासत स्थापित की। सन 1446 ईस्वी सन में एक साथ छः किलों की नींव रखी (फतेहपुर का किला बनने तक रिनाउ में रहे)।
छः किले :-
1 पल्लू -(गंगानगर जिले में सरदार शहर के पास)
2 भादरा (हनुमानगढ़ जिले में)
3 भाडंग (चूरू जिले में)
4 बाइला (चूरू जिले की सरदारशहर तहसील में)
5 फतेहपुर  (सीकर जिले की तहसील)
फतेहपुर में सरावगियों के प्राचीन मंदिर के  शिलालेख के अनुसार उक्त मंदिर की नींव संवत 1508 फाल्गुन सुदी 2 (1451 ईस्वी सन) को सेठ तुहिन मल द्वारा रखी गई।  फतेहपुर किले के स्थान पर गंगा राम चौधरी नामक सन्त रहते थे जो बाद में थोड़ी दूर पर रहने लगे। यहां गंगादास का मंदिर स्थापित है।
6 साहवा - चूरू जिले की तारानगर तहसील में)
3 क़ुतुब खां - 
(पिता की मृत्यु के बाद तोशाम पंजाब की जागीर) बारुआ झुंझुनूं
4 मोइनुद्दीन खां (मोहन खां) (मोन खां) (एलम खान)- (एलमान ) नरहड़ व बगड़

5 इक़्तेदार खां - फतेहाबाद
6 वाहिद खां - ढोसी

जबर जी (जुबेरुद्दीन खां) -जबरदी खां :-
जबरद्दीन खां ने कायड़ की जागीर पर कब्ज़ा किया।
जन्म - 1438 ददरेवा
मृत्यु   -
विवाह
1
2
3
4
सन्तान
1
2
3
नवाबी (जागीर)

1 हिसार -
कब जीती - नासिर सैय्यद से कायमखां को 1353 में उत्तराधिकार के रूप में 
किस को हराया -किसी को नही
कब हारी - 1446 
किस से हारे - बहलोल लोदी से 
कौन हारा -फतेह खां

2 नारनोल 
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

3 चरखी दादरी
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

4 झुंझुनूं
कब जीती - 1446 
किस को हराया - शेखावत राजपूत
कब हारी - 1703
किस से हारे शार्दूल सिंह शेखावत से 
कौन हारा - रोहिल्ला खां

4 फतेहपुर
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

5 केड-भाटिवाड
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

6 झुम्पा
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

7 सतावनीं
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

8 पिथूसर-निराधनु
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

9 डुमरा
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

10 नरहड़
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

11 ढोसी 
कब जीती 
किस को हराया
कब हारी
किस से हारे

कायमखानी स्वतंत्र ररियासत
 कहाँ 
 कब से
 कब तक रही
इन सवालों के सही व तथ्यात्मक जवाब अभी तक नहीं मिले हैं।

अध्याय 05
कायमखानी वंश वंशावली (गौत्र एवं उप गौत्र)
(A-) जैनूदीन खां 
नवाबत - झाड़ोद पट्टी
मुख्य गौत्र- जैनाण (कुल=1)
(A-1)झाड़ौद के जैनाण के उप गौत्र कुल =17)
1-पहाड़ाण
2-मलवाण
 3-मलकाण
4-गौराण
5-चायनाण
6-मातवाण
7-सैबाण
8-घुवाली जैनाण
9-भरुटिया जैनाण
10- मुरनाण
11- जलवाण
12-अखाण
13-मीठवाण
14-दफराण
15-लाडवाण
16-तुगनाण 
17-अजवाण
(B). नवाब कायम खां
 नवाबत - फतेहपुर (ताज खान)
 मुख्य गौत्र= खानी/अहमदान (कुल 1)
(B-1) फतेहपुर के खानी/अहमदान के
 कुल उप गौत्र=(37)
1- उमरखानी
2- दायमखानी
3- अलफखानी
4- सादे खानी
5- ताहरखानी
6- निजामखानी
7- समरथखानी
8- लालखानी
8- एंदलखानी
9- बहादुरखानी
10- पीरमोहम्मदखानी
11- ताजखानी
12- जलालखानी
13- शेरुखानी
14- दौलतखानी
15- रियाखानी
16- हाथीखानी
17- हाशमखानी
18- दुलेखानी
19- ताजनाण
20- फतनाण
21- अहमदाण
22- फतेहखानी
23- लाडवाण
24- रूकनखानी
25- दिलावरखानी
26- नाहरखानी
27- मुज्जफरखानी
28- नसवाण
29- मूनखानी
30- हुसैनखानी
31- सलेमखानी
32- राजूखानी
33- फतेहखानी
34- इसेखानी 
35- सामदखानी
36- हबीबखानी
37- हेतबखानी
(C) नवाबत= झुन्झुनू 
मुख्य गौत्र खानजादा( कुल =1) (मोहम्मद खान)
(C-1)झुन्झुनू के खानजादा के 
कुल  उप गौत्र=( 21)
1- भुवाण
2- आलमाण
3- जमालखानी
4- नाहरखानी
5- कबीरखानी
6- साहबखानी
7- इस्माईलखानी
8- हेबतखानी
9- मोहम्मदखानी
10- इसेखानी
11- हसनखानी
12- महमूदखानी
13- दराबखानी
14- हथियारखानी 
15- फतेहखानी
16- मुजाहिदखानी
17- दीनदारखानी
18- उमरावखानी
19- वाजिदखानी
20- राजतखानी
21- अमीरखानी
नोट - झुंझुनू के ख़ानजादों द्वारा अहमदान में से पीर मोहम्मदखानी से वैवाहिक संबंध रखे जाते हैं एवं खानजादा भुवान, कबीरखानी, आलमण, नाहरखानी आदि से वैवाहिक संबंध नहीं रखे जाते हैं। 
(अर्थात पीर मोहम्मदखानी को खानजादा में और भुवान, कबीरखानी, आलमण, नाहरखानी को खानजादा में नहीं नहीं गिना गया है।)
(D) नवाबत बढ़वासी (एलम खान,मून खान,अहमद अली खान)
 मुख्य गौत्र:-(कुल =3)
1- एलमाण
2- मून्याण

(D)-बढ़वासी के (एलमाण) के कुल उप गौत्र=( 11)
1- हमीखानी
2- मना के
3- माजवाण
4- सईदखानी
5- निवाई के 
6- बप्पेरे के
6- रोहिले के 
7- बड़वासी के
8- तोगड़ा के
9- चेलासी के
10- बाप के
11- कोलसीया के 
कायमखानी कौम के मुख्य गौत्र- 
A-) जैनूदीन खां नवाबत-झाड़ोद पट्टी
 मुख्य गौत्र-जैनाण (कुल=1)
B). नवाब कायम खां
 नवाबत फतेहपुर,
 मुख्य गौत्र= खानी (कुल 1)
C) नवाबत= झुन्झुनू 
मुख्य गौत्र=
 खानजादा( कुल =1)
D) नवाबत बढ़वासी,
 मुख्य गौत्र:-(कुल =3)
कायमखानी कौम के  कुल मुख्य गौत्रों की संख्या=1+1+1+1=4
कुल उपगौत्र=
(A-1)झाड़ौद के जैनाण के उप गौत्र कुल =17)
(B-1) फतेहपुर के खानी के कुल उप गौत्र=( 37 )
(C-1)झुन्झुनू के खानजादा के कुल  उप गौत्र=(  21)
(D)-बढ़वासी के (एलमान) के कुल उप गौत्र=( 11)
कायमखानी कौम के कुल मुख्य गौत्रों की संख्या=1+1+1+1=4
कुल चार मुख्य गौत्र के कुल उपगौत्रों का  कुल जोड़=
17+37+21+11= 86

नवाब जेनदी खान की झाड़ोद पट्टी व सतावनी - 
सतावनी के कायमखानी रियासत के गांवों की सूची(1891)
1.झाड़ोद पटी
2.अलखपुरा
3.आसलसर
4. बांसा
5.भदलिया
6. बेड़वा
7 .बेगसर
8. बरांगना
9. बरड़वा
10. बनवासा
11. बेरी छोटी
12. बेरी बड़ी
13. बेमोट
14. बुखावास
15. भाडासर
16. बावड़ी
17.चुगनी
18.छापरी कलां
19.छापरी खुर्द
20.चोलुखां
21.ढिगाल
22.डिकावा
23.डाबड़ा
24.धनकोली
25.दाऊद सर
26.दयाल पुरा
27.फोगड़ी
28.गेलासर
29.कुडली
30.ख़ातिया बासनी
31.खुडी
32.किचक
33.खाखोली
34.खारिया
35.क्यामसर
36.खानड़ी
37.लादड़िया
38.
39.मौलासर
40.मोड़ियावट
41.मावा
42.नोसर
43.निमोद
44.निम्बी कलां
45.निम्बी खुर्द
46.निनावटा
47.नुवा
48.पायली
49.पावटा
50.रसीद पुरा
51.सरदार पुरा कलां
52.सरदार पुरा खुर्द
53.सदवास
54.सेवा
55.सूपका
56.सुदरासन
57.तोलियासर

अध्याय 06
चायल वंश - 
ढोलकी चायलान हनुमानगढ़ की मस्जिद
         दुर्ग भटनेर की एक  सनद 
    चायलों का किला नोहर के निकट

चौहुमान (चहुमुनि) {चौहान}
 -|------------|------------|--------|-----l
मुनि अरिमुनि मानक अजयपाल कलहनदेव 
-|-------------------|-------------------|
भोपालराव   कहकालंगा        घंघराय 
(घांघराय ने चूरू से 23 किलोमीटर दूर घांघू रियासत ईस्वी सन 902 में कायम की)
सांभर के चौहान (घांघू  ) :-
घांघू - 902 के लगभग - 
कलहंणजी के पुत्र घँघराय ने 902 ईस्वी में घांघू गांव बसाया। घँघराय की सन्तान हर्ष, हरकरन व जीण (ईस्वी 933) घँघराय के पांच पुत्र थे में से दो नम्बर पत्नी से पुत्र कान्होजी को घांघू नरेश बनाया। इससे क्षुब्ध हो कर बड़े बेटे हर्ष सन्यास ले कर सीकर की पहाड़ियों में (हर्ष की पहाड़ी) पर चले गये जिन के साथ सगी बहन जीण भी चली गई। जीण को जीण माता व हर्ष को हर्ष भैरव के रूप में प्रशिद्ध मिली
घंघराय की पहली पत्नी से
-|---------------------|--------------------|
हर्षदेव            जीण कंवर          हरकरण
हर्ष के          जीण भवानी     लोहगर जी
भेरू सीकर   रिंगस सीकर   लोहागर जी
वैराग्य  933   वैराग्य           वैराग्य
(तीनों भाई बहन पिता के द्वारा रियासत न मिलने पर ईस्वी सन् 933 में संत बन गए।)
दूसरी पत्नी से
--------|------------------|-------------|-------
कान्हहरण देव       चंद्रदेव        इन्द्रदेव-इसके पुत्तर (जोड़ चौहान) 
(कान्हो देव)
(कान्हो देव घांघु के राजा बने ईस्वी सन् 934)
-----|----------|---------|-----------------|-
अमरदेव अजरदेव सिंघराय  बछराय
--|-----   ---|--------------|- ------------|
जेवर    चायल
मोयल  वंश(प्रारंभ) 
वंश                           
नोट - सर्वप्रथम चौहानों में राणा की उपाधि चायल और मोयलों ​​को मिली।
चायल वंश - 
अजरदेव (अज़रा) के वंशज चायल कहलाये. जिस तरह मोयलों ​​को (लाडनूं अन्य)और जवेर को (ददरेवा) मिला उसी तरह सिंहराय को (घाघू मिला) और अज़रा जिस के पुत्रों ने (ढांढन )को अपना ठिकाना बनाया चायल कहलाये।(समकालीन समय में चूरू वजूद में नहीं था)
जेवर के वंशज  - चौहानों का राज ददरेवा तक ही सिमित रहा।
सिंह राय के वंशज -  झुंझुनूं से घांघू तक
बछराज के वंशज - मोहिलों ने अपने आप को वर्तमान चूरू के दक्षिण भाग में स्थापित कर लिया।
अज़रा के वंशज - चायलो ने चूरू के उत्तर और उत्तर -पूर्व भाग की अपने राज्य का विस्तार किया और  ढांढन से अपना ठिकाना रिणी (तारानगर के आस-पास का क्षेत्र) स्थापित किया जिसकी राजधानी संभवतः गोगा मेडी रही। चायलो के इस राज्य का प्रथम शासक राणा रणकपाल चायल था।
विशेष - चौहानों की एक और शाखा जोडों ने झुंझुनू के आस पास नरहर  और बगड़ पर अपना अधिकार जमा रखा था जिसको बाद में नागड़ पठाणों ने अपने अधिकार में कर लिया।
कान्हादेव के वंशजों मे केवल चायलो व मोयलो ने अपने स्वतंत्र रियासतें स्थापित की। राजस्थान की स्थानीय बोली में राज्य के लिए वाड़ा या वाटी शब्द का उपयोग किया जाता हैं (किसी जाति विशेष के जमघट को वाड़ा या वाटी बोला जाता हैं) उर्दू में रियासत बोला जाता है। 
1.मोयलवाटी - 
चौहानों की शाखा मोयलों ने छापर द्रोणपुर इलाके में खुद को स्थापित किया। वर्तमान चुरू जिले का दक्षिणी -पूर्वी और दक्षिण- पश्चिमी भाग इन्हीं मोहिलो के नाम से  मोयलवाटी कहलाए। आज के सुजानगढ़, छापर, लाडनूू, इन्हीं मोहिलो के कब्जे में थे। कुल गांव=(140) 
2.चायलवाड़ा - 
चुरू जिले का उत्तरी और उत्तरी पूर्व हिस्सा जिसमें तारानगर और राजगढ़ आदि शामिल है, चायल चौहानों के कब्जें में रहा। इस पूरे इलाके को चायलों के प्रभुत्व के कारण चायलवाड़ा कहा जाता था। इसमें 440 गांव थे इन गांव में चायल सरदारों ने जागीर के हिसाब से गांव को अपने अपने हिस्से में बांट रखा था। जिसका सरदार पूना खा चायल था।
सनातन से इस्लाम में प्रवेश - 
ऐतिहासिक शहर हांसी कई राजाओं - महाराजाओं सूफी संतों के आश्रय स्थल रहा है। इन्हीं में से एक थे कुतुब जमालुद्दीन, जो करीब 76 वर्ष तक हांसी में रहे। कुतुब जमालुद्दीन बाबा फरीद के शिष्य थे। फरीद की दुआ पर जमालुद्दीन के घर चार कुतुब हुए, जो हांसी की जमीन पर दफन हैं। कहा जाता है कि इस मस्जिद का निर्माण फिराेजशाह तुगलक ने 14वीं शताब्दी में कराया था।
विशेष - बाबा फरीद ने जोइया राजपूतो को इस्लाम धर्म की शिक्षा दी थी|
चूरू, शेखावाटी, नागोर झुंझुनू, बीकानेर व हिसार के आस-पास के स्थानीय वंश नवाब कायम खा के समय में ही हाँसी के कुतुब जमालुद्दीन की बैअत पर चायल, मोयल,  सर्वा, सरकेल, ,जाटू, टाक,चौहान, देवड़ा, भाटी, नारू,निर्वाण,पंवार और भी कई अन्य  समकक्ष जागीरदारों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया। 
(यह तथ्य हे की इन सभी जागरदारो ने फिरोज़ शाह तुगलक के काल में इस्लाम कबूल किया।) 
मुखयतः नागोर ,शेखावाटी , बीकानेर व हिसार के आस पास का क्षेत्र जब से मुस्लिम शासको के अधीन आया तब से लेकर मुगलों ने इन इलाको में भलिम/बेहलीम - नागौर, खोकर/खोखर - नागौर, पठान, गोरी आदि को इन इलाको में गवर्नर नियुक्त किया जो बाद में इन्ही में घुल-मिल गये। यह शाही वंश पहले से मुस्लिम थे, जब कायम खा को (हिसार) की नवाबी मिली तब चायल, मोयल और जोईया को छोड़ कर बेहलीम, सर्वा, सरकेल, जाटू, टाक,चौहान, देवड़ा, भाटी, नारू, निर्वाण, पंवार, गोरी, पठान, बडगुजर, खींची, दायमा, खोखर सभी सरदार कायम खा के अधीन हो गए।
चायलों के राज्य का टूटना और चायलों का भटनेर पर हमला -
सन् 1512 में बीकानेर के शासक राव लूणकरण ने चायलवाड़ा पर आक्रमण कर चायलों को खदेड़ दिया।कुछ चायल जो सत्ता में नही थे वो सनातन धर्म में ही रहे और पंजाब और हरियाणा की ओर चले गए और जो सत्ता में थे उनमे चायलवाडा का शासक पूना खां चायल अपने चायल सरदारों के साथ भटनेर की और बढ़ा ओर सन् 1512 में उस पर अपना कब्जा जमा लिया। सन 1512 से 1527 तक भटनेर पर चायलों का प्रभुत्व रहा 1527 में राव जैती सिंह ने पूना खां के बेटे सादात खां चायल को हरा कर भटनेर अपने अधिकार में कर लिया खेतसी कांधल को गवर्नर नियुक्त कर दिया। सन 1534 में बाबर के बेटे कामरान लाहौर का गवर्नर बना जिस ने मारवाड़ की तरफ अपनी सेना भेजी और खेतसी कांधल को हरा कर भटनेर पर अधिकार जमा लिया इसके बाद शेर शाह सूरी के शासन काल सन 1529 से 1540 में अहमद खां चायल ने भटनेर पर फिर से अधिकार कर लिया। सन 1549 तक अहमद खां चायल ने यहां शासन किया। नोट - यह किस्से चायलों के भाटों और बुजर्गो द्वारा आज भी सुनाए जाते हैं।
बीकानेर के शासक राव कल्याणमल के भाई ठाकुर सिंह ने एक रणनीति द्वारा एक तेली जो बीकानेर का जमाई था की सहायता से भाटनेर के क़िले में प्रवेश किया। इस समय अहमद खां चायल अपने बेटे की बरात लेकर किले से बाहर गया हुआ था तब बीकानेर की सेना ने भटनेर पर पुनः अपना अधिकार जमा लिया। 
चायल सरदारों की भटनेर युद्ध के बाद की स्थिति और वंश विस्तार - 
भटनेर युद्ध के बाद चायलों ने राठौड़ रियासत की अधिनता स्वीकार कर ली। और वर्तमान चूरू के आस पास के गांव की जमींदारी मिली । ओर साथ ही साथ रियासत के सैन्य बल का हिस्सा भी बने। चूरु के निकट खांसोली (खान साहब वाली) चायलों द्वारा बसाया गांव है।
चायलों का वंश विस्तार एवं निकास - 
चायलों वंश में चार गोत्र हैं - 
1. गोविंदसोत - (खांसोली) - खांसोली, कालूसर, गोविंदपुरा, चुरू
2. वुणसिंगोत - (निराधून) निराधून, कांट, राजपुरा, चुरू
3. सुरजनोत - (रुकनसर, रूकनखानियों द्वारा बसाया गया गांव, जहां आज ना रूकनखानी आबाद हैं और ना ही चायल) रुकनसर से पिथिसर, चूरू, सरदारशहर, महनसर, भादरा, हनुमानगढ़।
4. चुंडावत नख - (कर्णपूरा, गोगामेड़ी) यह चायल गोगा जी की मेडी में रहते हैं, जो वहीं रहे और आज भी गोगा मेडी में चढ़ावा लेते हैं। अन्य गांवों में चायल सरदार हैं वो इन्हीं ठिकानों से प्रवास करके चले गए।

अध्याय 07
जोइया वंश का इतिहास - 
जोहिया (जिसे , जोइया, जोया, जोइया, और जोया के नाम से भी जाना जाता है, उत्तरी भारत और पाकिस्तान में चंद्रवंशी राजपूत कबीला होने का दावा करता है।
जाट समाज में भी जोहिया नाम का एक कबीला है।
जोइया या जोइया उत्तरी भारत और पूर्वी पाकिस्तान का एक राजपूत वंश है।
जोइया चौबीस अविभाजित राजपूत कुलों या 'एका' में से एक हैं। प्राचीन इतिहास में उन्हें "जंगलदेश के स्वामी" (बीकानेर) के रूप में वर्णित किया गया है, जो कि हरियाणा (तत्कालीन पंजाब), भट्टियाना, भटनेर और नागोर को समाहित करता है। दहिया (जाट समाज की एक खांप) के साथ, जिनके साथ उनका नाम हमेशा जोड़ा जाता है, उन्होंने सिंधु और सतलज के तटों को भी अपने प्रभाव में रखा।
जोइया वंश मूल - 
जोइया की पहचान यौधेय या यौधेयगण से की जाती है जो गंगा नदी से सिंधु नदी के बीच के क्षेत्र में रहने वाला प्राचीन आदिवासी संघ था। इनका उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी और गणपाठ में मिलता है। इनके अन्य उल्लेख महाभारत, महामयूरी, वृहत-संहिता, पुराण, चंद्रव्याकरण और काशिका में भी हैं। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के लेखन और 500 ईसा पूर्व से 1200 ईस्वी तक यौधेय के कालक्रम का संदर्भ मिलता है। ईसा पूर्व 200 से ईस्वी सन् 400 तक इनकी शक्ति चरम पर थी।
मध्य साम्राज्यों के दौरान जोइया - 
यौधेय लोग सताद्रु (सतलज) नदी के तट पर बसे क्षेत्रों में रहते थे, जो बाद में आज के पंजाब प्रांत (पाकिस्तान) में बहावलपुर रियासत का हिस्सा बन गया। यौधेय वंश के सिक्के भारत के हरियाणा राज्य में सोनीपत के किले, सतलुज और यमुना नदियों के बीच के क्षेत्रों में भी पाए गए हैं। इन सिक्कों पर संस्कृत में "यौधेय गणेश्य जय" अंकित है। यौधेय वंश महाभारत काल में भी अस्तित्व में था। यौधेय या जोइया अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते थे। उन्होंने गुप्त, मौर्य और कुषाण शासकों से युद्ध किया। उन्होंने मारवाड़, जोधपुर और जैसलमेर जैसे प्राचीन क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया। राजस्थान में रंग  महल उनकी राजधानी रही। (रंग महल राजस्थान में गंगानगर के पास बर्बाद शहर है जिसकी संस्कृति घग्गर घाटी में फैली हुई है और इसके चित्रित बर्तन हड़प्पा काल से काफी अलग हैं।)
जोइया और राठौड़ राजपूत - 
जंगलदेश (बीकानेर) में उनके राज्य पर राठौड़ों द्वारा कब्ज़ा करने से पहले, जोइयाओं के शासन में छह सौ गाँव थे। शेर सिंह उनका शासक था और भूरूपल उनकी राजधानी थी। शेर सिंह एक महान योद्धा था। उन्होंने राठौड़ों को कड़ी टक्कर दी। राठौड़ शासक राव बीका ने तब खुद को गोदारा जाटों के साथ जोड़ लिया।
जंगलदेश पर शासन करने वाले जाटों के छह कुलों में गोदारा जाट सबसे शक्तिशाली थे। बीका ने गोदाराओं के साथ मिलकर जोइयों पर आक्रमण किया और उन्हें हरा दिया। राठौड़ों और जोइयों के बीच सबसे बड़ा युद्ध सिधमुख के पास ढाका गाँव में लड़ा गया था। 16वीं शताब्दी के मध्य में मुगल सम्राट अकबर की मदद से राठौड़ शासकों ने उन्हें बीकानेर की राजधानी जोइया से निष्कासित कर दिया। आईन-ए-अकबरी, खंड (उपखंड 195) के अनुसार जोइया सिरसा के महलों (जिलों) में हिसार फिरोजा सरकार में और बेट जालंधर दोआब की सरकार में राजपुर, शेरगढ़, फतहपुर और कहारोर में प्रमुख जाति थीं जहां वे अर्ध स्वतंत्र थे। फतहपुर (वेहारी) राज्य की स्थापना राजा फतेह खान जोइया ने की थी। बाद में दौलत खान जोइया और उनके वंशजों (दौलताना) ने 1754 तक इस क्षेत्र और कहरोर पर शासन किया। अमीर मुबारिक खान अब्बासी ने विजय प्राप्त की और इस क्षेत्र को भावलालपुर राज्य का हिस्सा बना दिया। सिरसा में जोइयाओं ने शासन किया और राठौड़ों से भटनैर को जीतने में भट्टियों की सहायता की। भटनैर का इतिहास बताता है कि इस किले पर जोइया, चायल, भाटी (मुस्लिम राजपूत) और राठौड़ों का शासन रहा है। हालाँकि 1783 के भीषण अकाल के बाद, इस रिक्तता को ब्रिटिश साहसी थॉमस कुक ने भरा था जिन्होंने कुछ वर्षों तक इस क्षेत्र पर शासन किया था और बाद में मराठों ने इसे अपने कब्जे में ले लिया और अंततः अंग्रेजों ने इसे अपने कब्जे में ले लिया। 
जोईया वंश का इस्लाम धर्म कबूल करना - 
जोहियों को 12वीं शताब्दी में प्रसिद्ध सूफी संत हजरत बाबा फरीद शकर गंज द्वारा इस्लाम में प्रवेशित किया, जिनका मजार अजुधुन में है और जिनके नाम पर इस स्थान का आधुनिक नाम है पाकपट्टन (पाकिस्तान, पंजाब का एक जिला) है, जिसका अर्थ है 'नौका' शुद्ध लोगों की''।
बाबा फरीद ने तीन जोइया भाइयों, लूनान, बेर और वासुल को इस्लाम में प्रवेशित किया और लूनान को आशीर्वाद देते हुए कहा, लूनान, डुनान, चौनान अर्थात लूनान की वंशावली कई गुना बढ़ सकती है। इन भाइयों ने दिल्ली के गुलाम राजाओं से भटिंडा का किला छीन लिया और इसके क्षेत्र पर स्वतंत्र रूप से शासन किया, जिसमें सिरसा और भटनेर भी शामिल थे।
जोइया वंश में गोत्र - 
जोईया वंश में अनेक गोत्र  हैं जिनकी कुल संख्या लगभग 46 है। इनमें से भदेरा, लखवेरा, दौलताना, निहालका, गाजी खानान और जलवाना अधिक महत्वपूर्ण हैं, उनके पूर्वज को एक मुस्लिम संत अब्दुल्ला जहानियन द्वारा नाइक-ओ-कार भाई या सदाचारी भाई नामित किया गया था। जोइया गोत्र के अधिकांश नाम -का या -एरा के साथ समाप्त होते हैं।
01. लखवारा
02. सौका
03. दौलताना
04. लालिका
05. लुखोका
06. अकोका
07. मोमोका
08. सलदारा
09. गतारा
10. गाजीखानाना
11 अकोके
12. भलाना
13. भट्टी
14. फ़िरोज़के
15. हसनके
16. जमलेरा
17. झगडेके
18. जुगेके
19. लखुके
20. लंगाहके
21. लालेके
22. मिह्रुके
23. मुम्मुनके
24. पंजेरा
25. रानूके
26 साबुके
27. शेखुके
28. सनाथेके
29. शाहबाके
30. अदमेरा
31. मलकेरा
32. सहुका
33. सालदेरा
जोइया (राजवंश) - 
जोहिया (जिसे , जोइया, जोया, के नाम से भी जाना जाता है, उत्तरी भारत और पाकिस्तान में चंद्रवंशी राजपूत कबीला होने का दावा करता है। जाटों का भी जोहिया नाम का एक कबीला है। जोइया या जोया उत्तरी भारत और पाकिस्तान का एक राजपूत वंश है। जोइया चौबीस अविभाजित राजपूत कुलों या एका में से एक हैं। प्राचीन इतिहास में उन्हें जंगलदेश के स्वामी (बीकानेर)के रूप में वर्णित किया गया है, जो कि हरियाना, भट्टियाना, भटनेर और नागोर को समाहित करता है। दहिया के साथ, जिनके साथ उनका नाम हमेशा जोड़ा जाता है, उन्होंने सिंधु और सतलज के तटों को भी अपने प्रभाव में रखा।
जोईया गौत्र का मूल - 
जोइया की पहचान यौद्धेय गण से की जाती है जो एक प्राचीन कबीलों का संघ था जो सिंधु नदी और गंगा नदी के बीच के क्षेत्र में रहते थे। इनका उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी और गणपाठ में मिलता है। इनके अन्य उल्लेख महाभारत, महामयूरी, बृहत्-संहिता, पुराण, चंद्रव्याकरण और काशिका में भी हैं। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल के लेखन और 500 ईसा पूर्व से 1200 ईस्वी तक यौधेय के कालक्रम का संदर्भ मिलता है। वे लगभग 200 ईसा पूर्व से 400 ईस्वी तक अपनी शक्ति के चरम पर थे। यौधेयस या यौधेय प्राचीन भारत का एक बहुत प्रसिद्ध कबीला था। वे प्राचीन गणतंत्रीय जातियाँ जो समुद्र तट के क्षेत्र में निवास करती थीं सिंधु नदी और यह गंगा नदी . इनका उल्लेख पाणिनि की अष्टाध्यायी एवं गणपाठ में किया गया है।
यौधेय वंश वृक्ष
   ,|
नहुष
   |
ययाति
   |
अनु
   |
महामना
     |
उशीनर
   |
नृग
  |
यौधेय
राजा ययाति का चौथा बेटा था अनु, अनु के पुत्र महाराजा महामना थे। उशीनर महामना के पुत्र थे और वे पंजाब के सबसे बड़े शासक थे। पंजाब में आने के बाद अनावी राजा उशीनर ने संभावित मुल्तान में अपना शासन स्थापित किया था। हमें बताया गया है कि उशीनर की मृत्यु के बाद उनका अनावी साम्राज्य उनके पांच बेटों में विभाजित हो गया था। उनके आधुनिक प्रतिनिधि जोयस की पंजाबी जनजाति, अभी भी प्रांत के इस हिस्से में रहते हैं। वे मैसेडोनियन आक्रमणकारी अलेक्जेंडर ग्रेट के समय के ग्रीक धर्मगुरुओं के लिए गए थे। उशीनर का पुत्र नृग, नृग का पुत्र यौधेय था। यौधेय वंश की उत्पत्ति एक ही हुई है। यौधेयों का सबसे पहला उल्लेख पाणिनि (लगभग 500 ई.पु.) की अष्टाध्यायी (वि.3.116-17 और चतुर्थ.1.178) में मिलता है, जहाँ यौधेयों का उल्लेख आयुधजीवी संघ में किया गया है। बाद में, जूनागढ़ किले (लगभग 150 ई.) में यौधेयों का उल्लेख मिलता है।यौधेयों की सैन्य शक्ति को स्वीकार करते हैं जो समर्पण नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें क्षत्रियों के बीच नायक की अपनी उपाधि पर गर्व था, हालांकि दार्शनिकों का कहना है कि वे अंततः रुद्रदामन को पराजित कर चुके थे। [रोसेनफील्ड, कुषाणों की राजवंशीय कला, पृष्ठ 132, रैपसन, ब्रिटिश संग्रहालय में भारतीय राजवंशीय कला, पृष्ठ 10}
उनके क्षेत्र में पश्चिम शामिल था - 
सतलुज, देपालपुर, सतगढ़ा, अजुंधन, कहारोर, मुल्तान, पूर्व में - भटनेर, अभोर, सीआ, हांसी, रेस्तरां और सोनापत तथा उत्तर में की खोज की धारणाओं को आधार पर सूचीबद्ध किया गया था।
यौधेय दक्षिण - पूर्वी पंजाब और राजस्थान के शासक थे। आज भी इन इलाक़ों में जोइया लोग रहते हैं। ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल मिनचिन का कहना है कि राज्य के सुदूर उत्तर-पूर्वी भाग बोस्टन और विवरण के एक भाग में यौधेय जाति के निवासी थे जिनमें जनरल कनिंघम एक अन्य इतिहासकार अजुधन या अयोध्या नामक शहर की स्थापना का श्रेय दिया गया है जो युद्ध का मैदान था। स्पष्ट रूप से समुद्रगुप्त के यौधेय या अजुधिया शिलाखंड और रुद्रदामा के जूनागढ़ शिलाखंड में पाणिनि द्वारा लिखी गई शिलाखंड से अंकित हुआ है। अब वे महान व्याकरणविद निश्चित रूप से चंद्रगुप्त मौर्य से पहले के थे उनके यौधों के उल्लेख से यह साबित होता है कि सिकंदर के समय से पहले वे एक मान्यता प्राप्त वंश रहे थे। अल-इदरीसी, नुजहत - उल-मुश्ताक (11वीं शताब्दी के अंत में ) के लेखक, रंगमहल बारे में निम्नलिखित विवरण दिए गए हैं कि रंगमहल मुल्तान से तीन दिन की यात्रा दक्षिण में स्थित है। यह भारत है का एक भाग माना जाता है और यह एक नदी के तट पर स्थित है जो मिहरान में गिरती है। मुल्तान से लेकर मानसरा तक देश में एक लड़ाकू जाति का कब्ज़ा है जिसे नाधा (संभवतः यधा, यौध्य का अधिक सही अर्थ, जोइया) कहा जाता है। जनरल कनिंघम ने उन्हें जोइया के स्थिर धर्म के साथ पहचानते हुए कहा कि इस जाति के लोग दहिया या दहेरों के समान ही हैं। यौधेय लोग सताद्रु (सतलज) नदी के तट पर बसे क्षेत्रों में रहते थे, जो बाद में आज के पंजाब प्रांत (पाकिस्तान) में बहावलपुर रियासत का हिस्सा बन गया।
यौधेय वंश के सिक्के भारत के हरियाणा राज्य में सोनीपत के किले, सतलुज और यमुना नदियों के बीच के क्षेत्रों में भी पाए गए हैं। इन सिक्कों पर संस्कृत में यौधेय गणेश्य जय अंकित है। यौधेय वंश महाभारत काल में भी अस्तित्व में था।
यौधेय या जोइया अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते थे। उन्होंने गुप्तों, मौर्यों और कुषाणों से युद्ध किया। उन्होंने मारवाड़, जोधपुर और जैसलमेर जैसे प्राचीन क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया। राजस्थान में रंग महल उनकी राजधानी थी (राजस्थान के गंगानगर के पास बर्बाद शहर)। रंग महल संस्कृति घग्गर घाटी में फैली हुई है और इसके चित्रित बर्तन हड़प्पा काल से काफी अलग हैं।
जाईया की उत्पत्ति के संबंध में मत- 
1. एच.आर रोज. जोइया के बारे में विस्तृत विवरण इस प्रकार देते हैं - 
जोइया (जोइया) राजपूतों की 36 शाही जातियों में से एक है और प्राचीन इतिहास में इसे जंगल-देस के स्वामी के रूप में वर्णित किया गया है। जिसमें हरियाणा, भट्टियाना, भटनेर और नागोर शामिल हैं। वे देहिया के साथ भी समान रूप से थे जिनके साथ उनका नाम हमेशा जोड़ा जाता है। उनके संगम के पास सिंधु और सतलुज के तट पर लगभग सात शताब्दियों पहले उन्हें सिंधु क्षेत्र से बाहर निकाल दिया गया था और आंशिक रूप से भट्टियों द्वारा बागर देश में अधीन कर लिया गया और 16 वीं शताब्दी के मध्य में उन्हें अपनी स्वतंत्रता हासिल करने के प्रयास करने पर राठौर शासकों द्वारा बीकानेर के जोइया कैंटन से निष्कासित कर दिया गया था। टॉड टिप्पणी करते हैं कि राजपूत इस देश में आग और तलवार लेकर आए जिसे उन्होंने रेगिस्तान बना दिया। तब से यह उजाड़ पड़ा है और जोइया का नाम ही खो गया हालांकि काफी शहरों के अवशेष दूर की पुरातनता की गवाही देते हैं। हालांकि जोइया गायब नहीं हुए वे अभी भी वट्टू सीमा से लेकर सिंधु के साथ इसके संगम तक सतलुज के सभी किनारों पर कब्जा करते हैं। भट्टियों ने उन्हें कहरोर से बाहर निकाल दिया और जब उनकी संपत्ति बहावलपुर राज्य का हिस्सा बन गई तो उन्होंने अपनी अर्ध-स्वतंत्रता खो दी। वे अपने प्राचीन निवास भटनेर के ठीक नीचे पुरानी घग्गर की तलहटी में बीकानेर में एक भूभाग रखते हैं। लाहौर व फिरोजपुर के मध्य सतलुज और डेराजात और मुजफ्फरगढ़ के निचले सिंधु पर काफी संख्या में पाए जाते हैं। उनकी कुल संख्या का लगभग एक तिहाई जाट के रूप में वापस आ गया है। मुल्तान आज भी जाना जाता है जोइया क्षेत्र के रूप में। सतलुज और हिसार के जोइया भटनेर से अपनी उत्पत्ति का पता लगाते हैं जो स्पष्ट रूप से हिसार से मोंटगोमरी तक विद्यमान है। इस आशय की कि वे पिता की ओर से वंश में अपने राजपूत अंश का पता नहीं लगा सकते। हिसार जोइया खुद को सेजा ओर समेजा की महिला वंश के वंशज मानते हैं जो भट्टी के पूर्वज के साथ मुत्तरा से भटनेर तक आई थीं। इसका शायद यह मतलब है कि जोइया यदु वंश का दावा करते हैं। जोइया के अनुसार जोसेफ के भाई बेंजामिन के वंशज बीकानेर आए एक राजा की बेटी से शादी की उनके पूर्वज को जन्म दिया और फिर फकीर बनकर गायब हो गए। परंपरा शायद जोई शब्द से सुझाई गई है जिसका अर्थ है पत्नी। मोंटगोमरी जोइया कहते हैं कि उन्होंने 14वीं शताब्दी के मध्य में बीकानेर छोड़ दिया और बहावलपुर में बस गए जहाँ वे मुल्तान के लंगा राजवंश के सहयोगी बन गए। लेकिन नादिर शाह के समय में दाउदपोत्रा द्वारा अधीन कर लिए गए। मुल्तान जोइया कहते हैं कि वे बीकानेर से सिंध और फिर मुल्तान गए थे। यह संभवतः इस तथ्य के कारण है कि सिंधु पर उनके पुराने अधिकार जनजातीय स्मृति से समाप्त हो गए थे और उनकी जगह बीकानेर में उनके बाद के अधिकार ने ले ली थी। कैप्टन एल्फिस्टोन ने उन्हें महान रावी जनजातियों की तुलना में छोटे कद का बताया है, और उन गुणों के संबंध में उनसे कमतर माना जाता है जिन पर बाद वाले विशेष रूप से गर्व करते हैं। बहावलपुर में जोइया के मीरासियों ने उनके लिए एक वंशावली - तालिका संकलित की है जो उन्हें और महारों को मूल रूप से कुरैशी बनाती है और महमूद गजनवी के वंशज इयास के वंशज बताती है। लेकिन जोइया के प्रत्येक भाट ने मीरासियों की इयास वंश से अलग वंशावली दी है। एक तथ्य जो यह दर्शाता है कि जोइया अपने मूल में योद्धा कुलों का एक संघ थे। लखवेरा सेप्ट और अन्य निम्नलिखित कहानी सुनाते हैं कि बकर का बेटा इयास एक फकीर के वेश में राजा चुहर समेजा की राजधानी चुहरहर (अब अनूपगढ़) आया और राजा की सबसे बड़ी बेटी नल से शादी की जिससे पुत्र जोइया का जन्म 400 हिजरी में हुआ। जोइया का पालन - पोषण नाना के घर में सनातन पुरुष के रूप में हुआ।
2. जोइया जाति के लोगों के अनुसार एक संत हज़रत अलयास सेरी (र.) बगदाद में रहा करते थे। हलकुखान के हमले के दौरान वे बगदाद से बलूचिस्तान चले गए लेकिन अत्यधिक ठंड के मौसम के कारण उन्होंने बलूचिस्तान में केवल कुछ महीने ही बिताए और वे फिर से भारत के पश्चिमी इलाकों में चले गए। उन्होंने वहाँ इस्लाम का प्रचार करना शुरू किया और राजा चुआर सिंह नामक राजपूत शासक उनसे प्रभावित होकर इस्लाम में परिवर्तित हो गया। उस समय राजा ने अपनी बड़ी बेटी रानी नाहल का विवाह उनके साथ किया और उन्हें अपने साम्राज्य के 8 महल भी उपहार के रूप में दिए। हज़रत अलयास सेरी से एक बेटे को जन्म दिया और उसका नाम जोइया खान रखा।
जोइया खान एक महान योद्धा थे और उनके कबीले का नाम उनके नाम पर रखा गया था। एक शक्तिशाली कबीले के रूप में उन्होंने आस-पास के इलाकों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया और राजस्थान के कई इलाकों पर विजय प्राप्त की। एक अन्य संदर्भ के अनुसार जोइया कबीले ने राजस्थान, भटनेर, सतलुज, बीकानेर, वेहारी, मुल्तान, सिंधु नदी के इलाकों और भारत के कई पश्चिमी और उत्तरी इलाकों पर शासन किया। लखवेरा, भदेरा, गाजी खानाना, कुलहेरा, दौलताना, कामेरा और मंघेर सेप्ट और कुछ अन्य वीर एक समारोह में दो मेढ़ों (घट्टा) का मांस पुलाव (चावल को घी में पकाकर) बना कर खाते हैं जो उनके पूर्वज अल्लाहदित्ता के नाम पर दान में दिया जाता है जिन्होंने अकेले ही 50 बलूचों के एक दल का विरोध किया था जिन्होंने उनके मवेशियों पर चोलिस्तान में हमला करने की कोशिश की थी। अल्लाहदित्ता मारा गया लेकिन उसकी बहादुरी का स्मरण नायक के रूप में किया जाता है और ताज - सरवर में उसकी कब्र पर जनजाति के लोग अक्सर आते हैं। 
वीर पुरुष (लुनान) उर्फ़ लूणा का नाम भी वीरों में उल्लेखित होता है, क्योंकि वह बीकानेर के खरबरा में जय सुंग के वंशज लाहर जोइया के साथ इस बंधन में बंध गया था, जहां उसकी कब्र अभी भी मौजूद है। बंसी से ऊपर की वंशावली - तालिका में दिखाए गए जोइया के वंशज केवल लुनान की विनायक का पालन करते हैं,अल्लाह दित्ता का नहीं। 
विशेष - आज उत्तर राजस्थान में जोईया सरदार हैं वो लूणा के वंशज हैं जिनका बिखराव फतेहपुर, बीकानेर, चूरू, हनुमानगढ़, झुंझुनूं आदि जगह है।
जोइया लोग बहादुर होते हैं, लखवेरा गौत्र सामाजिक पैमाने पर सबसे ऊंची है और साहस के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यह जनजाति घोड़ों और भैंसों की भक्त है। कोई भी जोइया अपने हाथों से हल चलाना अपमानजनक नहीं समझता, लेकिन अगर कोई व्यक्ति खेती छोड़कर व्यापार या हस्तकला करने लगता है तो जोइया लोग उससे किसी भी तरह का रिश्ता नहीं रखते। कहा जाता है कि साहनपाल ने भटनेर में अपनी मुद्रा बनाई जो इस बात का प्रमाण है कि उसने संप्रभु शक्ति का प्रयोग किया था।
3. शकरगंज के बावा फरीद उद दीन ने लूनन (लूणा) बेर और विसुल को इस्लाम में परिवर्तित किया और लूनन को आशीर्वाद देते हुए कहा लूनन दुनन चौनन (लूनन की संतानें बढ़ें।) इन तीनों भाइयों ने दिल्ली के गुलाम राजाओं से भटिंडा का किला छीन लिया लूणन के पुत्र लाख्खो ने बीकानेर के संस्थापकों विकास या विकास के खिलाफ जोइया, भट्टी, राठौर और वारिया के एक संघ का नेतृत्व किया, जिनके क्षेत्र को उन्होंने तब तक तबाह कर दिया जब तक कि उनके राजा, राजा अजरस ने अपनी बेटी केसर का विवाह लाख्खो से नहीं कर दिया और उस समय से बीकानेर के राजपूतों ने पिछले 50 वर्षों के भीतर एक स्थापित प्रथा के रूप में मुसलमान जोइया को बेटियां दीं, जब तक यह प्रथा बंद नहीं हो गई। लाख्खो के बाद औरंगजेब के समय में सलीम खान सत्ता में आया। उन्होंने सलीमगढ़ की स्थापना की जिसे उन्होंने पीर शौक शाह को दिया। यहां से इसे मारीशौक शाह कहा जाने लगा और उन्होंने एक दूसरा सलीमगढ़ स्थापित किया जिसे औरंगजेब के आदेश से नष्ट कर दिया गया जिसके खंडहरों पर उनके बेटे फरीद खान प्रथम ने बहावलपुर में शहर फरीद की स्थापना की। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद लखवेरा प्रमुखों ने कुछ समय तक मुल्तान में शासन करना जारी रखा ।और इसके गवर्नर नवाब वली मुहम्मद खान ख़ाकवानी ने एक जोइया लड़की एहसान बीबी से शादी की और इस तरह उनकी अधीनता सुनिश्चित की जिससे उन्हें अदमेरा और सलदेरा जोइया के बीच शरण मिल गई। मराठों ने सन 1757 में मुल्तान पर कब्जा कर लिया। इसके बाद फ़रीद खान द्वितीय के नेतृत्व में जोइया ने सलीह मुहम्मद खान के खिलाफ विद्रोह कर दिया जिसे मराठों ने मुल्तान का गवर्नर नियुक्त किया था। उसके इलाके को लूट लिया लेकिन सन 1772 में जब अहमद शाह अब्दाली ने मुल्तान से मराठों को खदेड़ दिया। सम्राट ज़मान खान के अधीन जोइया फिर से विद्रोह में उठ खड़े हुए और मुल्तान के गवर्नर नवाब मुबारक खान के कहने पर बहावलपुर मे फ़रीद खान द्वितीय के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया।
जोइया और राठौड़ राजपूत - 
राठौरों के आक्रमण से पूर्व (जांगल देश) बीकानेर से बावलपुर तक जोईया, खींची , भाटी का शासन था,जोइयों के शासन में छह सौ गांव थे। (जेम्स टॉड ने अपने इतिहास पुस्तक में लिखा है कि जोहियों के छावनी में छह सौ गांव थे, और राजधानी भूरपुल थी फिर भी एक अन्य पृष्ठ पर उन्होंने लिखा है कि राव बीका ने गोदारा जाटों( छह छावनी) और अन्य जाटों को एकजुट किया और जोहियों पर आक्रमण किया। राठौड़ों और जोइया के बीच सबसे बड़ा युद्ध ढाका (सिद्धमुख) गांव के पास लड़ा गया। बीकानेर के इतिहास में उल्लेख है कि जोहियों और खीचियों के पास सिंघाना में 140 गांव थे जो 1488 में राव बीकाजी द्वारा जब्त कर लिए गए। शेरसिंह उनके शासक थे और भूरूपल उनकी राजधानी थी। शेरसिंह जोइया एक महान योद्धा थे। 16वीं शताब्दी के मध्य में मुगल सम्राट अकबर की मदद से राठौड़ शासकों ने उन्हें बीकानेर की राजधानी से निष्कासित कर दिया। आइन-ए-अकबरी खंड II पृष्ठ 195 के अनुसार जोइया सिरसा के महलों (जिलों) में हिसार फिरोजा सरकार में और बेट जालंधर दोआब की सरकार में राजपुर, शेरगढ़, फतहपुर और कहारोर में प्रमुख जाति थीं। जहां अर्ध स्वतंत्र थे फतहपुर (वेहारी) राज्य की स्थापना राजा फतेह खान जोइया ने की थी। बाद में दौलत खान जोइया और उनके वंशजों (दौलाताना) ने 1754 तक इस क्षेत्र और कहरोर पर शासन किया। जब अमीर मुबारिक खान अब्बासी ने विजय प्राप्त की और इस क्षेत्र को भावलालपुर राज्य का हिस्सा बना दिया। सिरसा में जोइयाओं ने शासन किया और राठौड़ों से भटनैर को जीतने में भट्टियों की मदद की।
(मुल्तान गजेटियर) में लिखा है कि (फतेह खान जोईया शेर शाह सूरी के खिलाफ विद्रोह में थे। मुल्तान के गवर्नर हैबत खान नियाज़ी को उनके खिलाफ भेजा गया और उन्हें पाकपटन छोड़ने और फतेहपुर भागने के लिए मजबूर किया। स्थानीय किंवदंती के अनुसार फतेहपुर के प्रमुख मलिक फतेह खान जोईया ने शिताबगढ़ में रहने वाले खाईअली हुसैन के सूबेदार को राजस्व देने से इनकार कर दिया हुसैन मारा गया। उसी अवधि में राय जलाल-उद-दीन और राय कमाल-उद-दीन जोइया दो भाइयों को दिल्ली दरबार द्वारा कहरोर में विद्रोह कर रहे खार भट्टी के खिलाफ भेजा गया। उसे हराने के बाद उन्होंने दिल्ली के शासक से उसकी जमीन ले ली। राय जलाल खान के वंशजों द्वारा सलीमगढ़ (शहर फ़रीद) एक अर्ध स्वतंत्र राज्य का गठन किया गया था। शहर फ़रीद राज्य सम्राट औरंगजेब के शासनकाल में विद्रोह का केंद्र रहा। सम्राट जमान खान के कहने पर अमीर मुबारक खान द्वारा इसे मिला लिया गया जिसे शहर फ़रीद का इलाका और शहर फ़रीद के नवाब की उपाधि दी गई। इस समय चार भाइयों- 
1. लगन
2. मंगन
3. लुड्डन
4. लाल 
ने लुड्डन के आसपास के क्षेत्र में विरासत  स्थापित की। दौलतानास ने इस क्षेत्र और कहरोड़ पर सन 1744 तक शासन किया। अमीर मुबारिक खान अब्बासी ने विजय प्राप्त कर इस क्षेत्र को भावलालपुर राज्य का हिस्सा लिया। सिरसा में जोया ने शासन किया और भट्टियों की राठौड़ों से भटनैर जीतने में मदद की। भटनैर का इतिहास बताता है कि इस किले पर जोया, चायल, भाटी (मुस्लिम राजपूत) और राठौड़ों का शासन रहा। सन 1783 के अकाल के बाद यह क्षेत्र निर्जन हो गया। जहां से बड़ी संख्या में पलायन हुआ। गढ पर ब्रिटिश थॉमस कुक ने अधिकार कर लिया, बाद में मराठों ने इसे ले लिया। बाद में अंग्रेजों ने इसे वापस अपने कब्जे में ले लिया।
इस्लाम धर्म ग्रहण करना - (सन 1200 से 1500)
जोहियों को 12वीं शताब्दी में प्रसिद्ध सूफी संत हजरत बाबा फरीद शकरगंज द्वारा इस्लाम में परिवर्तित किया गया। जिनका मकबरा अजुधुन (पाकपट्टन,पंजाब  पाकिस्तान) में है जिसका अर्थ है। शब्द पाकपटन का अर्थ है शुद्ध लोगों की नौका। बाबा फरीद ने तीन जोइया भाइयों 
1. लूनान (लूणा)
2.  बेर
3. वासुल 
को इस्लाम में परिवर्तित कर किया। इन भाइयों ने दिल्ली के गुलाम राजाओं से भटिंडा का किला छीन लिया और इस क्षेत्र पर स्वतंत्र शासन किया। जिसमें सिरसा और भटनेर भी शामिल किए गए।
18वीं - 19वीं शताब्दी में मुस्लिम जोहिया सरदारों (बीकानेर राज्य के जागीरदार) ने उत्तर-पूर्वी राजस्थान (हनुमानगढ़) और उत्तर-पश्चिमी हरियाणा (सिरसा, फतेहाबाद, रानिया और हिसार) पर नियंत्रण हेतु भट्टी, रांघड़ और पटियाला व जींद के जट सिख शासकों से संघर्ष किया।
सन 1768 में जोहिया के सरदार कमरुद्दीन खां (बीकानेर राज्य का जागीरदार) ने रानिया, फतेहाबाद और सिरसा पर अधिकार कर लिया।
जोईया गौत्र - 
वहाँ अनेक जोइया हैं जिनकी कुल संख्या लगभग 46 है। इनमें से भदेरा, लखवेरा, दौलताना, निहालका, गाजी खानान और जलवाना अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनके पूर्वजों को संत अब्दुल्ला जहानियन द्वारा नाइक-ओ-कार भाई (सदाचारी भाई)  नामित किया गया था। जोइया गोत्र के की उपाधि दी गई। इनके अधिकांश नाम का या एरा के साथ समाप्त होते हैं।
1. अको का
2. भलाना का
3. भट्टी का
4. फ़िरोज़ का 
5. हसन का
6. जमलेरा 
7. झगडे का
8. जुगे का 
9. लखु का  
10. लंगाह का  
11. लाले का 
12. मिह्रु का 
13. मुम्मुन का 
14. पंजेरा
15. रानू का 
16. साबु का 
17. शेखु का 
18. सनाथे का 
19. शाहबा का 
19. अदमेरा 
20. मलकेरा
21. सहुका
22. सालदेरा
अन्य जोइया गोत्र - 
22. लखवारा का
23. सौका का
24. दौलताना का
25. लालि का
26. लुखो का
27. अको का
28. मोमो का
29. सलदारा का
30.गतारा का
31. गाजीखान का
1857 की क्रांति और हिंदुस्तान के लुकमान खां जोईया - 
 जोइया वंश उत्तर भारत का राजपूत कबीला है। 12वीं शताब्दी में सूफी संत हजरत बाबा फरीद शंकरगंज के प्रभाव में आकर जोइया लोगों ने इस्लाम धर्म अपनाया। जोइया जाति गोगरिया जिले के पाकपट्टन के पास लाखो का गांव में रहती थी। इसका नेता लुकमान खां था। जब 1857 के विद्रोह की शुरुआत की खबर इन तक पहुंची तो लुकमान खां के नेतृत्व में जनजाति के लोग ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए और सरकार को किसी भी तरह का कर देने से इनकार कर दिया। उन्होंने राजस्व संग्रहकर्ताओं को वापस भेज दिया, ब्रिटिश डाकघरों को लूट लिया गया और अपने सीमा क्षेत्र में ब्रिटिश अधिकारियों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। सूचना मिलने पर डिप्टी कमिश्नर ने कैप्टन डेविस के नेतृत्व में पुलिसकर्मियों और घुड़सवारों को गांव में भेजा। पुलिस ने जोइया परिवार के प्रमुख सदस्यों को महिलाओं और बच्चों सहित गिरफ्तार कर गोगरिया भेज दिया। अहमद खान खर्राल के हस्तक्षेप से डिप्टी कमिश्नर ने उनमें से कुछ को रिहा कर दिया। इस घटना के बाद उन्होंने बैठकें करना शुरू कर दिया और ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या की योजना बनाई। लुकमान खा जोइया के नेतृत्व में उन्होंने रावी नदी के किनारे लेफ्टिनेंट नेविल और उसके साथियों को मार डाला। बदला लेने के लिए ब्रिटिश सरकार ने लुखो का गांव पर हमला कर कई लोगों को मार कर गांव को आग लगा दी। कई लोगों को फांसी पर लटका दिया गया और कई लोगों को तोपों से उड़ा दिया गया। लुकमान खां जोइया की जलने से मृत्यु हो गई। 
इतिहास में दर्ज़ प्रमुख राजपूत जोइया सरदार- 
1. राजा फतेह खान जोइया (अकबर के शासनकाल में फतेहपुर शहर और राज्य के संस्थापक)
2. राय जलालुद्दीन खां जोइया (सम्राट अकबर के शासनकाल में कहरोड़ और राजपुर के शासक)
3. अल्लाह दित्ता खां (जिन्होंने अकेले ही 50 बलूचों के दल का प्रतिरोध कर सामना किया। उनकी कब्र ताज सरवर में है)।
4. नवाब सलीम खान लखवेरा सलीम गढ़ और शहर फरीद राज्य के संस्थापक (सम्राट शाहजहाँ के शासन काल में )
5. नवाब फरीद खान लखवेरा (सम्राट औरंगजेब शासनकाल में शहर फरीद राज्य के संस्थापक)
6. नवाब फरीद खान लखवेरा (जिनसे अमीर मुबारक खान ने 1732 में शहर फरीद का इलाक़ा छीन लिया)
7. मलिक चिराग खान जोइया (रणजीत सिंह युग में ऐनू खुशब के प्रमुख जोइया सरदार)
8. इकन्दर खान भदेरा (दुल्ला भदेरा के प्रमुख जोइया सरदार और बहावलपुर राज्य में उनकी देखरेख में सबसे बड़े ज़ैलदार)
9. जनरल बखत खान (स्वतंत्रता संग्राम के नायक 1857)
10. लुकमान खां जोइया (स्वतंत्रता संग्राम के नायक और अहमद खान खराल के साथी)
11. अब्दुल सत्तार खान लाले का (पाकिस्तान सरकार में कई बार केंद्रीय मंत्री)
12. तहमीना दौलताना‎ केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री पाकिस्तान 
13. शाह अफरीन (फर्रुखसियर के दरबारी कवि सन 1713 से 1719)

संदर्भ;
1. रोज़, एच.ए. उत्तर-पश्चिमी भारत और पाकिस्तान की कम ज्ञात जातियाँ। दिल्ली 1890
2. ठाकुर देशराज: जाट इतिहास (हिंदी), महाराजा सूरजमल स्मारक शिक्षा संस्थान, दिल्ली, 1934
3. दासगुप्ता, के.के. प्राचीन भारत का जनजातीय इतिहास: एक मुद्राशास्त्रीय दृष्टिकोण, कलकत्ता, 1974
4. लाहिड़ी, बेला उत्तरी भारत के स्वदेशी राज्य (लगभग 200 ई.पू. - 320 ई.), कलकत्ता विश्वविद्यालय, 1974
5. बहावलपुर गजेटियर।
6. वैदिक और आर्यन भारत - एच.एस. भाटिया
7. इंपीरियल गजेटियर सिरसा, जिला वेहारी
8. संदल बार - अहमद ग़ज़ाली
9. दास्तान-ए-दौलताना - वकील अंजाम
10. भटनेर का इतिहास - हरि सिंह भट्टी
11. मुल्तान गजेटियर

अध्याय 08
मोहिल वंश का इतिहास 
मोयलवाटी - 
चौहानों की शाखा मोयलों ने छापर द्रोणपुर इलाके में खुद को स्थापित किया। वर्तमान चुरू जिले का दक्षिणी पूर्वी और दक्षिण-पश्चिमी भाग इन्हीं मोहिलो के नाम से मोयलवाटी कहलाए। आज के सुजानगढ़, छापर, लाडनू, इन्हीं मोहिलो के कब्जे में थे।
गांव - 140 (नेनसी के अनुसार 1400 गांव)
मोयल वंश का इतिहास - 
राठ (अरिमुनि की संतान), चायल, जोड़, मोयल ओर कायम वंश का इतिहास घंघराय की संतान तक एक ही है। चौहानों की कुल चौबीस शाखाओं का इतिहास के अनुसार इनका वर्णन पहले ही किया जा चुका है। मोयल/मोहित वंश चौहानों की एक शाखा है।
बछराय/बच्छराज जी की संतान मोयल वंश कहलाई। तथ्य 01 - नेनसी के अनुसार चौहान से पुत्र चाह,चाह से राणा, राणा से गंग (घंघ),गंग से इंद्रवीर, इंद्रवीर से अर्जुन, अर्जुन से सुरजन से राणा, और राणा ही मोहिल हुआ। उसके अनुसार द्रोणपुर पर शिशुपाल वंशी डाहलियों का अधिकार था जिसे उनके कट्टर शत्रु बागड़ियों ने हरा कर कब्जे किया। आगे चल कर बागड़ियो ने यह क्षेत्र सुरजन के पुत्र मोहील के हवाले कर दिया।
तथ्य 02 - कायम रासा के अनुसार कन्हन के पुत्र बच्छराज की संतान मोहिल कहलाई।
तथ्य 03 - चंपा सामोर के अनुसार घनासुर, इंद्र राव, अजानबहू, और सुरजन का नाम दिया गया है।
तथ्य 04 - डॉक्टर ओझा ने बीकानेर के इतिहास में लिखा है श्री मोर (दौसा और लालसोट के मध्य भंडारेज के पास गांव गढ़ मोरा का पुराना नाम) क्षेत्र के शासक सजन (सुरजन) के ज्येष्ठ पुत्र का नाम मोहिल था, इसी नाम से चौहानों की नई खांप मोयल वंश की स्थापना हुई।
तथ्य  05 - नेनसी और बही भाट के मतों में भिन्नता है, नेनसी के अनुसार मोहिल पिता से लड़कर छापर आए और बही भाट के अनुसार हरदत्त पिता मोहिल से लड़कर छापर आए। सेठ और कसूम्बी की घटना में अंतर नहीं है। नेनसी की बात का चंपा सामोर ने समर्थन किया है।
तथ्य 06 - मोहिल वंश के जग्गा/भाट के अनुसार अन्नराज के पुत्र घंघराय, घंघराय से सुरजन और 
सुरजन (सुरजन का राज्य श्रीमोर, दौसा 1110 से 1130)  के पुत्र मोहील से मोयल वंश की शुरुआत हुई।
                  |^|
भाटों के अनुसार राव सुरजन के दो पत्नियां थीं - 
01. पुष्पावती (तंवर राजा की पुत्री)
02. दूसरी पत्नी चंदेल वंश से थी।
------------------------------------
    |            |            |                 |
मोयल जी  वरसलजी  जड़जी आदल जी
(पत्नी खीवसंध सांखला की पुत्री ओमवती)
    (1130 से 1150)
             |^|
           हरदत्त 
(पिता से रूठ कर श्री मोर से छापर के स्थानीय शासक सरदार पलू को सन 950 (यह तिथि सही नहीं है) (संभवतः सही तिथि 1150 है) हराया और छापर पर अधिकार कर लिया, सन 1170 तक यही राजा रहे, धर्म की बहन कसुंबी के नाम से कसूम्बी गांव बसाया,  यह गांव सेठ सनातन बोहरा को 05 गांव सहित 21 किलोमीटर क्षेत्र में (03 लाख रुपए कर्ज के बदले जागीर में दिया गया ) यहां सनातन बोहरा की बावड़ी आज भी मौजूद है।
(बही भाट से यहां गलती हुई, छापर हरदत्त जी नहीं मोहिल जी आए।
हरदत्त जी के तीन रानियां थीं - (1150 से 1170)
01 - मानसिंह की पुत्री कपूरदे
02 - उदय पाल सांखाला की पुत्री रतन कंवर
03. उदयपाल यादव की पुत्री कान कंवर
      |^|
 बेरीसाल जी  चंदरसाल जी  छत्रसाल जी
(पत्नी रावल जी भाटी की पुत्री जीत कंवर)
      |^|
  (1170 विसं से 1190 अनुमानित)
      |^|
 बुधराव जी
पत्नी राव रत्न सिंह सिसोदिया चित्तौड़ की पुत्री राजमती 
         |^|
    कुंवरसंघ 
(पत्नी सुरतान जी पंवार की पुत्री अमरवती)
        |^|
राणा पीतल जी
(पत्नी चंद्रभान जादौन करोली की पुत्री दमयंती)
    |^|
 महकरण जी
(पत्नी हनुतजी कच्छवाहा की पुत्री मानकंवर)
     |^|
बालकरन जी
(राव रत्न सिंह सिसोदिया की पुत्री मालकदे कंवर)
 ---|----|----|------|-----|----|-----
कुतकरण जोग  तग  कतल  सिग दलजी 
     |^|
(पत्नी 
1.राव चुंडाचावड़ा की पुत्री मंदोद कंवर  
2.बेरीसलजी राठौड़ की पुत्री अजंकनवर)
       |^|
बालहर (बालूराव)
(पत्नी बिकम सिंह तंवर की पुत्री लालमदे )
     |^|
(1190 से 1220 विस अनुमानित)
----|-----|------|----|------|---------|--------|--आसल कुंपाल शंभू खड़ग रतन रामचंद्र बिरग
(पत्नी 
01. सोनगजी राठौड़ की पुत्री माल कंवर 
02. चंदगीरजी सोलंकी की पुत्री सारंगदे कंवर 
03. बनवीरजी दाहिमा की पुत्री चांद कंवर )
-----|-----
अहड जी  
(पत्नी लुकसी पंवार की पुत्री दमयंती)
 -----|---------|-------------|-------------|------
सोनपालजी  लूणकरण  भगवानदास  चर
( पत्नी राव लोकहर भाटी की पुत्री पेमावती)
(1220 से 1240 विस अनुमानित)
-----|---------------|----------------|--------
शेखजी    राणा शमशु      देपालदेव 
(पत्नी 
01. रावलखुतलजी भाटी की पुत्री चांद कंवर 
02. श्योलजी कच्छवा की पुत्री चमन कंवर )
-----|------|------|-----|-----|-----|-----|----|---
सुजो महकर्ण दहकर्ण खेतसी कुतकर्ण लालचंद जेमलजी चाहड़देव
(चाडवास गांव बसाया संवत 1253)
(पत्नी कल्याणसी पड़िहार की पुत्री सागर दे)
 ---|--------
सहणमल 
(पत्नी तेजसी सांखला की पुत्री सूरजकंवर)
---|-------
(पत्नी विक्रमसी जडेजा की पुत्री बालाकंवर)
 ---|--------
 रण बाब जी 
(पत्नी जालिमसी सिसोदिया की पुत्री चांद कंवर) 
   ---|---
 राणा बाघोजी
(पत्नी सुगनाजी कच्छवाह की पुत्री रतन दे )
--|---------|---------- --|---------| 
बखतसी नाढराव रुघनासी मानकराव
राणापुर   छापर पड़िहारा    छापर
गद्दी        गद्दी     गद्दी        गद्दी
पत्नी 
1. बिजराज भाटी की पुत्री अमनकंवर भटनेर
2. उदयराव तंवर की पुत्री जतन कंवर
3. कुचर ग्रावदल गहलोत की पुत्री केसरकांवर
        कुल 15 विवाह किए।
---|-----|------|----|-- --|-----|- - - 
गोविंददास सागजी रघुदास नारायणदास अखेराज
- --|----|---|-----|-- -------|-----
बेरीसाल गंगासध भुरड़जी  सांवत   आसल
-----|-----|-----|---|-- --|-----|- - -
रावलसी साहबजी  खड़गजी सुरतानजी कोडमदे पुत्री
(कोडमदे की सगाई जोधपुर के रिडमल राठौड़ से हुई पर काला होने के कारण कोडमदे ने मना कर दिया। भटनेर के सार्दुलसी भाटी से प्रेम हो गया और राठोड़ों ओर भाटियों में खूनी जंग हुई। सार्दुल भाटी काम आए और कोडमदे वहीं सती हो गई।
(पत्नी गोड राव रायमल की पुत्री कान कंवर)
   -|- - -
बछुराना जी 
(छामर गढ़)
(पत्नी कल्याण देव सोढा की पुत्री रायकंवर)
  -|- - -
मेघाराना 
(पत्नी साग जी सिसोदिया की पुत्री जीतकंवर)
 -|- - -
लोहट जी 
(पत्नी राव जसलदेव पंवार की पुत्री फूलकंवर)
----|-------|- - ---------|----- 
खींवराज     बाब जी    जगमाल जी (छापर)
(खिनपाल जी जादन की पुत्री सजन कंवर)
--|----------|-------------|--- 
अरकडमल अजीतसी   कानड़देव
(पत्नी अरकडमल - लोचनसी भाटी की पुत्री जसकंवर)
(पत्नी अजीतसी - राव जोधा की पुत्री रामकंवर)
- राव जोधा ने दामाद अजीतसी की हत्या के प्रयास किए और आडिट की लड़ाई में शहीद हो गए। पत्नी रामकवर सती हुई।
(अरकडमल - छापर से उठ कर लाडनूं चढ़ाई की, जीते)
 --- | -----|-- ---|---|----|-----|---- 
भोजराज रतनसी भींवसी मालदेव सुरतान चंद्रभान 
पत्नी 
01. रामसध भाटी की पुत्री रतन कंवर
02.वनपालसी पंवार की पुत्री सागर दे
03. धनराज तंवर की पुत्री नील कंवर
  -|-------
जयसी (जय सिंह जी ने इस्लाम धर्म अपनाया)
पत्नियां - 13
01. कुंभकरणसी भाटी जैसेलमेर की पुत्री खेमकवर
02. बुधसी राठौड़ की पुत्री रॉय कंवर 
03. भंवरसी सोलंकी की पुत्री चंदर कंवर 
04. सादुलसी पंवार की पुत्री जसकंवर
05. गोपालसी गौड़ मारोठ की पुत्री पेमावती 
06. संग्रामसी राणावत की पुत्री जतनकंवर 
07. लखधर चंद्रावत रामपुरा गढ़ की पुत्री अमान कंवर 
08. चुंडा जी जाटू की पुत्री नोगरदे कंवर
09. भोलसधजी कच्छावा कोलपा की पोत्री मेहकंवर 
10 दूसासी पुत्र जीवाजी टाक टाकवासी की पुत्री चंदर कंवर 
11. भोदे खां पुत्र फिरोज खां जोइया (लूणे खां की पड़पोती सिंध ठिकाणा) सुखदे बानू 
सुख दे बानू के पांच पुत्र - 
01. साहर जी का - साह पोता 
02. देवराज जी का - देवराज पोता 
03. सुख दे जी का - सुखावत 
04. हंसराज जी का - हंसावत
05. कालदेव जी का - मालावत (लाडनू गद्दी)
राजपूत रानियों से 12 पुत्र हुए जो अपने नहिहाल चले गए - 
01. हिरसध 
02. हमीरसध 
03. लूणासध 
04. खगारसध 
05. सलबहना 
06. जैतसिंह 
07. मोकलसध 
08. तेज सिंह
09. जस करण 
10. रायकरण 
11. शैतानसध 
12. पहाड़ सिंह (मारवाड़)
सन 1542 के आसपास अकबर की सेना से हुए युद्ध में जय सिंह जी शहीद हों गए।
सन 1550 के बाद लगभग मॉयल शासन का अंत हो गया। इसके पश्चात मॉयल राव बिदा और अन्य राजपूत राजाओं (रियासतों) के अधीन हो गए। 
मोयलों के पतन का मुख्य कारण आपसी फूट और राज गद्दी हथियाना था। दिल्ली सल्तनत ने मोयल सरदारों द्वारा सहायता मंगने पर सेना भेजी गई परंतु दगाबाजी के कारण मॉयल और सल्तनत की सेना हार गई।
वर्तमान में मोयल
लाडनूं, सुजानगढ़,बीदासर, चूरू, सरदार शहर, झुंझुनूं, डीडवाना, नागौर,जोधपुर, जयपुर और पाली में निवास करते हैं। शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से अधिकतर संपन्न हैं। 
मोयलों में गोत्र निम्नानुसार हैं - 
01. देवराज पोता 
02. रसलान 
03. बधावत 
04. विजावत 
05. सिंगावत 
06. नारावत 
07. हंसावत
08. साहू पोता 
09. शेषमलोत

अध्याय 09
खोखर वंश का इतिहास -
खोखर रियासत - 
खोखर शब्द फारसी भाषा के शब्द खूंखार का अपभ्रंश है जिसका हिंदी अर्थ है रक्तपिपासु। 
खोखर जाति का उद्गम तात्कालिक सभी उपलब्ध स्रोतों के आधार पर स्पष्ट होता है कि वे पंजाब की मूल पर्वतीय जाति में से एक थे। जिसका मुख्य व्यवसाय कृषि था। स्थानीय राजनैतिक उथल-पुथल की परिस्थितियों ने उन्हें किसान से सैनिक बनने को मजबूर कर दिया । पोथोहर पठार पंजाब क्षेत्र (वर्तमान पाकिस्तान) के उत्तरी भागों में एक पठार और ऐतिहासिक भौगोलिक क्षेत्र है। पंजाबी इस क्षेत्र के मूल निवासी हैं और कई जनजातियों और कबीलों में विभाजित हैं। टिल्ला जोगियान पोथोहर पठार की दूसरी सबसे ऊंची चोटी है। पंजाब में मध्यकाल में उत्तरी पंजाब की अधिकांश जनजातियाँ इस्लाम में परिवर्तित हो गईं और विभिन्न पंजाबी जनजातियों के साथ-साथ विदेशी शक्तियों ने भी इस क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए लड़ाई लड़ी।
खोखर वंश की उत्पत्ति के तथ्य - 
तथ्य 01 - 
पोथोहर की जनजाति खोखर - 
पोथोहर पठार पर गखर और खोखर जनजातियों का प्रभुत्व रहा है । 
पोथोहर पठार के ज्ञात शासकों की सूची - 
शासक का नाम शासन टिप्पणी
शेखा खोखर   1380 से 1399 - 
जसरत   1405 से 1442 सियालकोट
झंडा खान गखर लगभग 1493 रावलपिंडी
तातार खान गखर लगभग 1519 बाबर से गठबंधन
हाथी खान गखर 1519 से 1526 
सारंग खां गखर 1526 से 1545 रावत में शेरशाह सूरी के खिलाफ लड़ते हुए शहीद।
आदम खां गख़र 1546 से 1555 मुगल साम्राज्य
कमाल खान गखर 1555 – 1566 
सईद खान 1563 से 1597 सैदपुर गांव 
नज़र खान - 500 सैनिकों का कमांडर
अल्लाह कुली खान 1681 से 1705 
सुल्तान मुकर्रब खान 1705 से 1769 पोथोहर का अंतिम प्रभावी शासक
पोथोहर क्षेत्र की प्रमुख बिरादरियों राजपूत, जंजुआ, जट्ट, अवान, अरैन, गुज्जर, खोखर, खराल और गखर शामिल हैं।
खोखर राजस्थान, पंजाब, सिंध, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पायी जाने वाली एक मुख्य राजपूत गोत्र है।मुस्लिम खोखर लोगों को हिंदू जाट और राजपूत समुदायों से धर्मान्तरण किया हुआ माना जाता है। मध्यकाल के फ़ारसी इतिहासकार फ़रिश्ता ने तत्कालीन खोखर (खूंखार) लोगों को धर्म और नैतिकता विहीन बर्बर जनजाति कहा है। हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, हरियाणवी, खड़ीबोली बोलने वाले खोखर सनातन, इस्लाम, सिक्ख पंथ में पाए जाते हैं।
भारत के विभाजन से पहले खत्री, मोहयाल ब्राह्मण और अरोड़ा सहित अन्य बिरादरी भी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में मौजूद थीं। यह क्षेत्र औपनिवेशिक युग में पंजाबियों के मार्शल रेस पदनाम के तहत पुरानी औपनिवेशिक ब्रिटिश भारतीय और पाकिस्तान सेना में भर्ती का एक महत्वपूर्ण स्रोत थे और अभी भी है। 
तथ्य 02 - 
राठौड़ वंश से खोखर वंश के संबंध में -  
दुहड़ जी के 10 पुत्र हुए - 
01 - राव रायपालजी - रायपालोत राठौड़
02 - राव किरतपालजी/खेतपालजी खेतपालोत राठौड़
03 - राव बेहड़जी/ बेहरजी के बेहरड़ राठौड़
04 - राव पीथड़जी के वंसज पीथड़ राठौड़
05 - राव जुगलजी के वंसज जोगवत राठौड़
06 - राव डालू जी [------------------]
07 - राव बेगरजी के बेगड़ राठौड़
08 - उनड़जी के उनड़ राठौड़
09 - सिशपलजी के सीरवी राठौड़
10 - चांदपालजी आईजी माता के दीवान के सीरवी राठौड़]
राव रायपालजी - 1309-1313 ई. - 
राव रायपालजी राव दूहड़जी के पुत्र राव अस्थानजी के पोते और राव सीहाजी [शेओजी] के पड़पोते थे। 
रायपालजी के पंद्रह पुत्र हुए -         
01 - राव कानपालजी -
02 – केलणजी -
03 – थांथीजी - थांथी राठौड़
04 - सुंडाजी - सुंडा राठौड़ 
05– लाखणजी - लखा राठौड़ (जोधपुर के इतिहास में विवरण उपलब्ध नहीं है)
06 - डांगीजी - डांगी या डागिया/डांगी के ढोलि राठौड़
07 - मोहणजी - मुहणोत राठौड़
08 - जांझणजी - जांझणिया राठौड़
09 - जोगोजी - जोगावत राठौड़
10 - महीपालजी/मापाजी - मापावत/महीपाल राठौड़
11 - शिवराजजी - शिवराजोत राठौड़
12 - लूकाजी - लूका राठौड़
13 - हथुड़जी - हथूड़ीया राठौड़ (जोधपुर के इतिहास में विवरण उपलब्ध नहीं)
14 - रांदोंजी/रंधौजी - रांदा राठौड़ (जोधपुर के इतिहास में विवरण उपलब्ध नहीं)
15 - राजोजी/राजगजी - राजग राठौड़ (जोधपुर के इतिहास में विवरण उपलब्ध नहीं)
कानपालजी - 1313 से 1323 ई. राव कानपालजी के तीन पुत्र हुए -   
01 - राव जालणसीजी
02 - राव भीमकरण
03 - राव विजयपाल
राव जालणसीजी -1323 से 1328 ई के तीन पुत्र हुए
01 - राव छाडाजी        
02 - राव भाखरसिंह  
03 - राव डूंगरसिंह  
राव छाडाजी/छाडाजी 1328 से 1344 ई के सात पुत्र हुए
01 - राव तीड़ाजी 
02 - राव खोखरजी 
03 - राव वनरोजी 
04 - राव सिहमलजी  
05 - राव रुद्रपालजी  
06 - राव खीपसजी 
07 - राव कान्हड़जी
         |
राव त्रिभुवनसिंहजी
         |
राव उदौजी
राव खोखरजी - राव छाडा जी दो नंबर पर पुत्र राव खोखर जी के वंशज खोखर राठौड़ कहलाये।
राव खोखर जी - राव जालणसीजी के पोते और राव कानपालजी के पड़पोते थे।
राव खोखरजी ने सांकडा, सनावड़ा आदी गाँवो पर अधिकार किया। और राजस्थान के बाड़मेर के पास खोखर गाँव बसाया।
अलाउद्दीन खिलजी जिसका वास्तविक नाम अली गुरशास्प था, ने 1308 /विक्रम सम्वत 1788 में सिवाना (बाड़मेर) पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया। वहाँ के परमार राजपूत शासक शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया और रण में काम आया, इनके साथ ही राव खोखरजी सातलदे के पक्ष में वीरता के साथ लड़े और युद्ध मे काम आये । खिलजी ने कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया।
तथ्य - 03 
खिजर खां के वंशज हैं खोखर - 
दिल्ली में तैमूर के गवर्नर और दिल्ली सल्तनत के सैय्यद वंश के संस्थापक खिज्र खान की उत्पत्ति के बारे में विवाद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, खिज्र खान एक खोखर सरदार था। जिसने समरकंद की यात्रा की और तैमूर समाज के साथ अपने संपर्कों से लाभ उठाया।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - 
सन 1204 से 1205 में खोखरों ने अपने नेता के नेतृत्व में विद्रोह किया और मुल्तान और लाहौर जीत कर लूटपाट की और पंजाब व गजनी के बीच के मार्ग रोक दिए। तारीख-ए-अल्फी के अनुसार, खोखरों के इस उत्पात के कारण व्यापारियों को एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता। चूंकि कुतुबुद्दीन ऐबक खुद विद्रोह को संभालने में अकक्षम था। 
गौर के मुहम्मद गौरी ने खोखरों के खिलाफ कई अभियान चलाए और झेलम के तट पर लड़ी गई अंतिम लड़ाई में उन्हें हरा कर नरसंहार किया। गजनी वापस लौटते समय, मार्च 1206 में साल्ट रेंज में स्थित धामियाक में इस्माइलियों द्वारा मोहम्मद गौरी की हत्या कर दी। कुछ लेखकाें ने मुहम्मद गौरी की हत्या का श्रेय हिंदू खोखरों को दिया है, परंतु बाद के लेखों की पुष्टि फ़ारसी इतिहासकारों द्वारा नहीं की गई है। फारसी इतिहासकारों के अनुसार मोहम्मद गौरी के हत्यारे शिया मुसलमानों के प्रतिद्वंद्वी इस्माइलिया संप्रदाय से थे। इब्न-ए-असीर के बयान के आधार पर डॉ हबीबुल्लाह का मत है कि यह काम बातिनी और खोखर का संयुक्त मामला था। आगा महदी हुसैन के अनुसार, खोखरों को भी हाल ही में इस्लाम में धर्म परिवर्तन के मद्देनजर मलाहिदा कहा जाता है। मुहम्मद गौरी ने खोखर नागरिकों को बंदी बना लिया जिन्हें बाद में इस्लाम में परिवर्तित कर दिया गया। उसी अभियान के दौरान, उन्होंने गजनी और पंजाब के बीच रहने वाले कई अन्य खोखरों और बौद्धों को भी धर्मांतरित किया । फ़ारसी इतिहासकारों के अनुसार इस अभियान के दौरान पवित्र धागा पहनने वाले लगभग तीन से चार लाख लोगों को मुसलमान बनाया। 
16वीं सदी के इतिहासकार फ़रिश्ता कहते हैं - गजनी और सिंधु के पहाड़ों के बीच रहने वाले अधिकांश लोगों को इस्लाम धर्म में परिवर्तित किया।
शेखा खोखर
तथ्य 04 - कुरेश खानदान से हैं खोखर 
हाल ही में प्रकाशित खोखर वंश का इतिहास लेखक मकबूल खान खोखर प्रकाशक राजस्थान ग्रंथावली जोधपुर में उल्लेख किया गया है कि खोखर पैगंबर मोहम्मद साहब के वंशज हैं। मोहम्मद साहब के दामाद और चचेरे भाई हजरत अली की पत्नी बिण्त खिलवद की संतान में से हैं। इनका मुख्य वंश अल्वी है।
पुस्तक में सजरा भी दिया गया है। शब्बीर खान खोखर जोधपुर के अनुसार बही भाट भी इसी नश्ब से खोखरों को जोड़ते हैं, एवं शोधित और लिखित इतिहास खोखर वंश डॉ० मुहम्मद बुद्धिबाल अवों निवासी जलहरी मोहम्मद साह जिला रावलपिंडी त० गुजरखान के संद्रभानुसार - 
सिजरा में हजरत आदम से कुतुब शाह एक का जिक्र है - पुस्तक के अनुसार 
अध्याय 1
हजरत अली से कुतुबशाह खोखर का इतिहास
इस्लामी वंशावली

01. हजरत आदम अलैहिअस्सलाम 
(शेष सभी में हजरत अलैहिस्सलाम लगाया जाए -)
02. केदार
03. आली
04. हमला
05. अनीस
06. सुलेमान
07. काब्या
08. ईस्हाक
09. महीसल्ला
10. साबुत
10. बरदादी
11. नाकुसुन
12. आदरीक
13. यौरूब
14. ईदरीस
15. हुमै
16. मातीसल्ला
17. आसिया
18. लाम
19. याहया
20. नूहं
21. अदनान
22. सालेह
23. आमर
24. नातो
25. यारकुस
26. साबुर
27. नाखुर
28. मादरीक
29. बीनार
30. मालिक
31. बरदादी
32. हक्कालब
33. लुबी
34. आजर
35. सुनी 
36. इब्राहिम
37. कावा
38.1 ईस्माइल 38.2 ईस्हाक 38.3 आर्यन     l    
39.     नजर
40. कलाबा 
41. कसाना
42.  मुनाफ
43. हासिम
44. अबुलमुतलिब
45. अबू जहल
46. अब्दुल्लाह (बीबी आमना)
47.अबू तालिब
48. अमीर हमजा
49. हजरत मुहम्मद साहब (PBUH)
50. अली (मुहम्मद साहब के दामाद)
51. देवनानी देव की बेटी बरदा मलो अली इलियास (इब्न अली अबी तालिब)
52. गाजी अब्बास इब्न अली
53. अबेदुल्लाह इब्न अब्बास
54. हसन इब्न अब्बेदुल्लाह
55. हमजा इब्न हसन
56. जफर इब्न जाफर
57. अबू कासिम इब्न अली
58. तायार इब्न कासिम
59. कासिम इब्न तायार
60. हमजा इब्न कासिम
61. याला इब्न हमजा
62. ओवान (कुबुबशाह) इब्न आला
63. मुहम्मद इब्न अली इब्न अबी तालिब 64. मुहम्मद इब्न अल हनफियाह (15 हि  से 81हि (सन 637-700)
65. ओवान (कुतुबशाह)
66. जमान अली खोखर
67. नादेर अली
68. मुहम्मद शाह मोब
69. मोहम्मद अली चौहान
70. बहादुर अली
71. अब्दुल्लाह
72. फतेह अली
73. मोजाम्मल अली कलधान
74. गौहर अली
हजरत कुतुबशाह के बारह पुत्र
1. जामान अली उर्फ खोखर (खुखरौन से) राजपूर रानी के पुत्र
2. मोहम्मद अली उर्फ चौहान
3. फतेह अली (खुखरौन से) राजपूर रानी के पुत्र
4. नजफ अली
5. नादेर अली
6. बाधार अली
7. मोजाम्मल अली कलधान
8. फरमान अली
9. करम अली
10. मुहम्मद शाह मुहम्मद
11. अब्दुल्लाह
12. गोहर अली
मेरे मानने के अनुसार यह सही नहीं है। यदि खोखर मोहम्मद साहब के वंशज हैं तो कुरेशी हुए और व्यापारी समाज के निकटतम। 
कायमखानी लकब राजपूत से मुस्लिम बने समूहों को ही मिला है। इन तथ्यों के आधार पर भारत और पाकिस्तान में दो प्रकार के खोखर हैं - 
1. पाथोहर के पंजाबी खोखर 
2. राजस्थान के राठौड़ खोखर
जो खोखर कायमखानी लकब धारित हैं वो राजपूत खोखर हैं और इनका निकास खोखरा गांव बाड़मेर से है।
खीजर खान से राजपूत खोखरो का कोई लेना देना नहीं हैं। खिजर खां खोखरों की तीसरी खांप गुजरात (अहमदाबाद) के खोखरों से संबन्धित है जो मोहम्मद साहब के वंश से थे। खिजर खां शिया मुस्लिम थे। राजस्थान के कायमखानी खोखर सुन्नी मुस्लिम। खिजर खां सैयद वंश का संस्थापक है।
मोहम्मद गौरी खोखर दिल्ली सल्तनत के अधीन - 
सन 1240 ई. में शम्स-उद-दीन इल्तुतमिश की बेटी रजिया सुल्तान और उसके पति अल्तुनिया ने अपने भाई मुइज़ुद्दीन बहराम शाह से गद्दी वापस लेने का प्रयास किया। बताया जाता है कि रजिया ने पंजाब के खोखर सैनिकों के सहयोग से बनी सेना का नेतृत्व किया। सन 1246 से 1247 तक, बलबन ने खोखरों को खत्म करने के लिए साल्ट रेंज तक एक अभियान चलाया। सन 1251 में लाहौर पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण था और लगभग बीस वर्षों तक लाहौर खंडहर बना रहा, मंगोलों और उनके खोखर सहयोगियों द्वारा कई बार हमले हुए। लगभग उसी समय हुलेचू नामक एक मंगोल कमांडर ने लाहौर पर कब्जा कर लिया और मुहम्मद गौरी के पिता के साथी गुल खोखर के साथ गठबंधन किया।
खोखर जो इस्लाम में सबसे पहले धर्मांतरित हुए, बाबा फ़रीद के प्रभाव के कारण आगे भी धर्मांतरित हुए जिन्होंने अपनी बेटियों की शादी दरगाह के मुखिया के परिवारों से कर दी। जवाहर-ए-फ़रीदी के रिकॉर्ड में ऐसी तेईस शादियों में से चौदह खोखर थे, जिनके नाम के आगे मलिक लगा हुआ था (मलिक शब्द का अर्थ - राजनीतिक सत्ता से जुड़ाव)। पाकपट्टन के दरगाह से जुड़े कबीलों के नामों में बीस कबीले शामिल थे, खोखर, खानख्वानी, बहली, अधखान, झाकरवाली, यक्कन, मेहरखान, सियांस, ख्वाली, संख्वाली, सियाल, बाघोटी, बरती, दुधी, जोयेस, नाहरवानी, टोबी और डोगर।
गाजी मलिक ने खोखर जनजातियों के समर्थन से विद्रोह के द्वारा दिल्ली में तुगलक वंश की स्थापना की, जिन्हें सेना के अग्रिम-रक्षक के रूप में रखा गया था। खोखर गुल खोखर के विद्रोह से पहले तुगलक वंश के पक्षधर रहे। मुल्तान के गवर्नर ऐनुल मुल्क मुल्तानी ने अपने परिवार और अपने आश्रितों की अजोधन (पाकपट्टन) से मुल्तान की यात्रा के बारे में चिंता व्यक्त की, क्योंकि खोखरों के विद्रोह ने सड़क को असुरक्षित बना दिया। खोखरों ने मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में 1342 में लाहौर पर विजय प्राप्त की। 
सन 1394 तक सुल्तान महमूद तुगलक के शासनकाल में लाहौर के पूर्व गवर्नर प्रमुख शेख खोखर के नेतृत्व में लाहौर के गवर्नर नुसरत खोखर, सारंग खान, मल्लू इकबाल और मुकर्रब खान के साथ दिल्ली सल्तनत के मुख्य महत्वपूर्ण रईसों में से एक थे जो बाद में धर्मांतरित हो कर मुस्लिम बन गए। दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश द्वारा नियुक्त नागौर, राजस्थान के गवर्नर जलाल खान खोखर थे। जलाल खान खोखर ने मारवाड़ साम्राज्य के शासक राव चूंडा की पत्नी की बहन से विवाह किया।
खोखर स्वतंत्र सरदार - 
मुस्तफा जसरत/दशरथ खोखर शेख खोखर के बेटे थे जो तामेरलेन के यहां जेल में बंद थे। तामरलेन की मृत्यु के साथ ही पिता की मृत्यु हो गई और जसरत जेल से भाग कर खोखरों के नेता बन गए और पंजाब लौट आए। जसरत ने जल्द ही तैमूर सेना में एक जनरल का पद प्राप्त कर लिया तैमूर के बेटे शाहरुख मिर्जा की बेटी से शादी कर ली। 
उन्होंने सैयद वंश के अली शाह के खिलाफ कश्मीर पर नियंत्रण के लिए युद्ध में शाही खानदान का समर्थन किया और जीतने के बाद पुरस्कृत हुए। जसरत खोखर ने खिज्र खां की मृत्यु के बाद दिल्ली पर विजय प्राप्त करने के प्रयास किए। तलवंडी और जालंधर के अभियान में जीतने के बावजूद उन्हें सफलता नहीं मिली और सरहिंद पर कब्ज़ा करने के प्रयास में तेज बारिश ने बाधा उत्पन्न की । 
खोखर जाटों ने मुहम्मद ग़ोरी के ख़िलाफ़ विद्रोह किया था और 1206 में ग़ोरी ने इस विद्रोह का क्रूरतापूर्वक दमन किया। गौरी के वापस लौटते समय नमक मार्ग क्षेत्र के स्थान धम्यक में एक धावे में खोखरों ने मुहम्मद ग़ोरी की हत्या कर दी। जम्मू-काश्मीर के खोखरों की दो जातीय समूह हैं।
01. क़ुतुब शाही खोखर 
02. राजपूत खोखर (बाड़मेर)
क़ुतुब शाह ने एक हिंदू राजा की लड़की से विवाह किया था और उनकी वंश परंपरा के लोग कुतुबशाही खोखर के रूप में जाने जाते हैं। खोखर जाति का उल्लेखनीय राजा जसरथ/ दशरथ) रहा है जिसके नेतृत्व में विद्रोह के कारण सैयद वंश के विनाश हुआ।
खोखर गांव राजस्थान
मध्यकालीन और आधुनिक युग में खोखर - पंजाब में ब्रिटिश राज की भर्ती नीतियों के संदर्भ में ब्रिटिश भारतीय सेना की तुलना में इतिहारकर टैन ताई योंग टिप्पणी करते हैं - खोखर जाटों के उनके पारंपरिक आसन पर निवास के संदर्भ में, पोथेहर पठार में नमक की रेंज से खोखरों को खदेड़ने के बाद, मुहम्मद गौरी ने अगले दिन साल्ट रेंज में आगे मार्च किया, जहाँ एक प्रतिष्ठित खोखर प्रमुख के बेटे के कब्जे में एक मजबूत गढ़ था और ग़ुरिद क्षेत्रों पर छापा मार रहे थे। गौरी ने एक संक्षिप्त घेराबंदी के बाद इसे ग़ुरिदों को सौंप दिया और मुहम्मद गौरी की अधीनता स्वीकार कर ली। गढ़ हारने के बाद, कई खोखर सैनिक जिन्होंने एक दिन पहले भीषण युद्ध मे हार के बाद जंगल में भाग गए जिन्हें मुहम्मद गौरी और उनकी सेना ने बेरहमी से जला दिया। बड़े नरसंहार के बाद मुहम्मद गोरी ने खोखरों को बहुत बर्बरता से वश में किया कई को बंदी बना लिया गया जिन्हें बाद में इस्लाम में परिवर्तित कर दिया गया। इतिहासकार जुजानी के अनुसार - मुहम्मद गौरी ने युद्ध में अपने वीर प्रदर्शन के लिए इल्तुतमिश को सम्मान की पोशाक प्रदान की। बंदियों को दास बना लिया गया। खोखारों के सरदार कुतुबुद्दीन ऐबक को मुक्त नहीं किया गया। खोखरों के विरुद्ध अभियान में मुहम्मद गौरी को भारी मात्रा में दास और लूट का माल प्राप्त हुआ।
लाहौर में खोखर विद्रोह को कुचलने और कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली जाने की अनुमति देने के बाद मुहम्मद गौरी ने ग़ज़नी की ओर वापसी शुरू की। साल्ट रेंज से वापस आते समय शाम की नमाज़ पढ़ रहे मुहम्मद गौरी की धामियाक (वर्तमान पाकिस्तान में) में हत्या कर दी गई। 17वीं शताब्दी के इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार मुहम्मद की हत्या हिंदू खोखरों ने की थी, जिन्होंने हाल ही में समाप्त हुई लड़ाई में अपने रिश्तेदारों की हत्या का बदला लिया था, हालांकि यह जुजानी और अन्य मुस्लिम इतिहासकारों के पहले के खातों से प्रमाणित नहीं होता है, जिन्होंने मुहम्मद की हत्या के लिए इस्माइलियों को जिम्मेदार ठहराया। कुछ विद्वानों ने इब्न अल-असीर के लेखन के आधार पर अनुमान लगाया कि मुहम्मद गौरी की हत्या खोखरों और इस्माइलियों के समझौते द्वारा संयुक्त रूप से की गई थी।
औपनिवेशिक युग (औपनिवेशिक भारत के पंजाब प्रांत) ब्रिटिश राज में - 
मुसलमान, राजपूत और सिख जातियों का चयन केवल शारीरिक उपयुक्तता के आधार पर नहीं बल्कि स्थानीय प्रभुत्व, उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा, प्रभावशाली अभिजात वर्ग, और जमीदारों के प्रति पूर्वाग्रह के अंतर्गत किया गया। अतः खोखर, गक्खर, जंजुआ और अवान जैसी सामाजिक रूप से प्रमुख मुस्लिम, राजपूत और सिक्ख वर्ग को प्राथमिकता दी गई।
खोखरों का निर्वासन - 
खुखरैन की राजधानी मीरा पर आक्रमणकारियों की एक लम्बी श्रृंखला रही है सिकन्दर महान महमूद गजनवी व चंगेज खान ने आक्रमण किए। खोखरों इस स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थानों डेरा डाल दिया। खुखरैन से निवार्सित लोग अपने नाम के पीछे अभी भी खोखर लगाते है। जाट खोखर,राजपूत, विश्नोई, गुर्जर या सिक्ख खोखर समाज में भी खोखर होते हैं। ये आगे चलकर अलग - अलग जातियों में रूपांतरित हुए, पर वंश का नाम खोखर लगाना नहीं भूले। राजा जसरथ खोखर एतिहासिक शख्सियतों में से एक है, उन्होंने जम्मू के रायभीम देव को हराया था। (1400 से 1423)। इतिहासकार रेफ के अनुसार एथेन्स में जौहर से लेकर राजा जयपाल के जौहर तक या1857 की लड़ाई, खोखरों ने कभी हार नहीं मानी। महाराजा रणजीत ने खोखरो के बारे में कहा था - रब तो खोखरान तोर डर लगदा ऐ।
अल्वी खोखर - 
इतिहासकार (शब्बीर खान खोखर, जोधपुर) के अनुसार कायमखानी समाज में सम्मिलित खोखर वंश अल्वी खोखर (हजरत आदम अलैहिस्सलाम से सीजरा ऊपर दिया गया है) हैं।
हजरत मुहम्मद साहब के दामाद हजरत अली की दूसरी शादी देवनानी देव की बेटी हनफियां से हुई। जिनसे मोहम्मद हनफ का जन्म हुआ जिनका विवाह ईरम क्षेत्र की राजकुमारी जैतून से हुई। जिसका विवरण पुस्तक जंगनामा जैतून में मिलता है। जिसके वंशज याला से कुतुबशाह का जन्म हुआ। कुतुबशाह और उनके बेटों ने भीरा (खुखरैन, अब पाकिस्तान में) के राजा बिजीराय पर विजय प्राप्त की। बिजिराय ने अपनी बेटी कलसुम का विवाह क़ुतुबशाह से करवाया। जिससे तीन बेटे व एक बेटी हुई। कलसूम व कुतुबशाह की संताने अल्वी खोखर हुए। कुतुबशाह के बेटे मोहम्मदशाह उर्फ खोखर ने चनाब नदी के आस-पास (तोरी झांझ तिराहा) बस गए।
खोखर दिल्ली सल्लनतकाल में गुलामवंश व खिलजी वंश की सेनाओं में प्रमुख पदों पर रहे। 19वीं सदी की शुरूआत में दिल्ली के शक्तिशाली व्यक्तियों में से एक दुर्रबखान कुतुबशाही खोखर थे। खुखरैन में खुशाब, धुनेखेब, चकवाल, पिण्डदादन खान पेशावर, नौशेरा और लाहोर क्षेत्र शामिल हैं। इकराम चुघताई व बाबा फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर की पुस्तक के अनुसार खुखरेन में सूफी बाबा फरीद ने इन्हें इस्लाम धर्म में दीक्षित किया। 
कुतुवशाह के पुत्र जमान अली उर्फ खोखर खुखरैन जिसकी शाखाएं गुजरात के अहमदावाद में आबाद हुई। 
फतेहशाह व उनकी 18 सन्तानें व गोत्रों में विभाजन - 
फतेह शाह ने तीन राजपूत रानियां - 
1.जैसलमेर की भटियाणी
2.जोधपुर की राही 
3.मेवाड की कच्छवी रानी 
से विवाह किया। जिनसे 18 पुत्रों का जन्म हुआ। तीन पुत्र भाई खा, जफर खा व मेमे खा इनको बाबा समन पीर की खिदमत में दे दिया। बाकी 15 पुत्रों से खोखरों की 15 गोत्र चली इनके विवाह सम्बन्ध कायमखानियों से चल रहे हैं।
1. हाथी खां - हाथीखानी जेवली
2. मौहब्बत खां - मोहब्बत खानी - डुडीवास।
3. हुसैन खां हुसैनखानी - पिथोलाव
4. बांगे खां - बगरावतखानी - हरमाड़ा
5. नारू खां नारखानी - साली सारण
6. बुढ़ेखां - बुडेयाणी - आंवलासर
7. कमुखां - क्यामनाणी - सिरगया
8. राजु खां - राजवाणी - पारासरा
9. सलुखां - सालनोत- बरणगांव, राजास
10. आसुखां - अस्तखानी - छावटा कला
11. मिमेखा - ममरेजखानी - रोहिणा
12. अलीखां- अलीखानी - बलाया, भादरा
13.दौलखां - दौलतखानी - भेणीयाद, सांदू
14. मोडूं खां - मालनोत - अडवड़
15. दफरेखां - दफरखानी डाडोली, सांगरिया
16. भाई खां 
17. जाफर खां
18. मिमेखां
क्रम संख्य 16 से 18 के कोई सन्तान नहीं हुई।
शहर आबाद - 
1. सांगूशाह ने (खोखरापार बसाया) 732 सम्वत
2. अहमदखां (अहमदाबाद बसाया) 977 - 990 संवत
खोखर रियासतें - 
अहमद खां 
दिनुशाह (अहमदाबाद पर राज किया)
जालुशाह (जालोर रियासत) 1110 सम्वत ↓
सामुशाह (जालौर) 
↓ केशरशाह (जालौर)
फतेहशाह (नागौर रियासत) 1200 संवत (इनके 18 बेटों से खोखरों की आल बनी)
कायमवंश व खोखर वंश में रिश्तेदारी - 
अकबर के समय काबुल फतह करने के लिए नवाब अलफ खा,फतेहपुर ने फतेहशाह खोखर व उसकी सेना को अपने साथ लेकर काबुल फतेह किया। नवाब अलफखां ने खोखरों की वीरता एवं बहादुरी को देखते हुए खोखरों को पूर्ण सम्मान तथा दरबार में उच्च स्थान देने का प्रस्ताव दे कर फतेहपुर में आबाद किया। मुगलों ने खोखरों को फतेहपुर रियासत में जागीरे एवं खान की उपाधि दी जिसके बाद फतेहशाह फतेहखान कहलाये। कायमखानी व खोखरों के साथ मार्शल कौम होने कारण रोटी - बेटी के सम्बन्ध स्थापित हए।
खोखरों में सांस्कृतिक परंपराएं-
और कुछ रीति-रिवाज इनके आज भी राजपूती संस्कृति को छाप छोड़ते है जो खुखरैन में उस समय भी चलते थे।
1. सीधे पग से वधु के गृह प्रवेश पर लोटा गुड़ाना।
2. मौत के चालीस दिन तक कब्र के पास लालटेन रखना।
3. शनिवार को परनाला धोना।
4. शादी में तोरण बांधना।
5. बच्चे के पैदा होने के 13 दिन बाद घर में रश्म अदा करना।
6. छोटे बच्चों का मुण्डन संस्कार- जडुला।
7. शादी-ब्याह में बालों में घी व दही डालने की प्रथा।
मोयल एवं खोखर संबंध - 
मोयल/मोहयाल, खुखरायणों/खोखरो के पुरोहित थे जिन्होंने बाद में इस्लाम धर्म स्वीकार किया, तब से खोखर व मोयलों में रोटी व बेटी का संबंध है।
खोखर वंश और कायमखानी समाज - 
जिस प्रकार से जोईया, चायल, मोयल, तंवर, भाटी, चौहान, सर्वा, सर्केल और जाटू वंश के स्थानीय जागीरदारों और राजाओं ने वली कायम खा की बेअत की उसी प्रकार से खोखर वंश के दसरत खोखर ने (शेख फरीद की कयादत में) कायम खां को वली माना और लकब कायमखानी इख्तियार किया।

अध्याय 10. 
टाक वंश का इतिहास एवं परिचय - 
टांक (टॉक, टंक) वंश - 
टांक क्षत्रिय वंश के रूप में शिलालेखों, ताम्रपत्रों में उल्लेखित है।
शासन क्षेत्र - 
टांक वंश का शासन/ प्रभाव राजस्थान, मालवा, पंजाब, और हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में ( विशेष रूप से भीनमाल, आबू, और मालवा के पश्चिमी भाग में) रहा।
स्वर्णिम कालखंड - 
यह वंश 7वीं से 10वीं शताब्दी ईस्वी में भारत के गुर्जर, प्रतिहार, पाल, राष्ट्रकूट वंशों के समकालीन प्रमुख वंश रहा।
राजनीतिक भूमिका - टांक वंश कई बार स्थानीय शासक/ साम्राज्यों के सहयोगी सामंत के रूप में कार्यरत रहे। कुछ क्षेत्रों में टाक स्वतंत्र शासक भी रहे।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक भूमिका - 
टाक मुख्य रूप से सनातन धर्म के शैव संप्रदाय के अनुयायी थे। मंदिरों का निर्माण, तीर्थ स्थलों का संरक्षण एवं धर्मशालाओं की स्थापना करवाई। 
1. एक लोककथा के अनुसार टाक राज ने कसाई को गौ हत्या के कारण दंडित किया इस पर जनता ने उन्हें गौ-रक्षक राजा की उपाधि प्रदान की।
2. रानी नागमती की कहानी - जब युद्ध में उनके पति राजा काम आए तो रानी नग़मती राज्य की रक्षा हेतु स्वयं रणक्षेत्र में कूद पड़ी। युद्ध में हार के बाद उसने जौहर कर लिया।
गीत - नागमती रानी
        टांक कुल रानी    
         धर लीनि
         तलवार सानी…”
 3. राजाओं/ संतों की कथाएँ- 
टांक राजाओं ने कई संतों और तपस्वियों को संरक्षण दिया।
इस पर बने गीत - 
राजा बना सेवक
टाक कुल अभिमान - लोकगीतों में गाया जाता है। राजस्थान, हरियाणा और पंजाब के लोकगीतों में टाकन दे वीर व टाक कुल री रीत नामों से प्रचलित है।
टाक वंश ऐतिहासिक प्रमाण - 
भीनमाल (राजस्थान) और मालवा क्षेत्र में छठी से नवीन शताब्दी तक के शिलालेखों में कई राजकीय फरमान दर्ज हैं। सिक्कों पर टंक शब्द अंकित मिला है जो उनके शासन की पुष्टि करता है।
टाक वंश की वर्तमान पहचान - 
वर्तमान में टाक राजपूत समाज की उपजाति के रूप में दर्ज हैं।
टांक वंश का गौरव इतिहास से उतना ही आता है जितना लोकमानस से। जहाँ शिलालेख और सिक्के उनका अस्तित्व सिद्ध करते हैं, वहीं लोकगीत, लोककथाएँ और परिवार परंपराएँ उनकी आत्मा को ज़िंदा रखती हैं।
गोत्र - 
कश्यप गोत्र (कुछ शाखाएं वशिष्ठ या भारद्वाज भी कहती हैं, लेकिन अधिकतर कश्यप माने जाते हैं)
शाखाएं / उपशाखाएं (आज की स्थिति)
वंशावली का सांस्कृतिक महत्त्व - 
टाक वंश की वंशावली सांस्कृतिक गौरव के रूप में हर प्रमुख राजपूत गोत्र की तरह सहेजी जाती है। आज भी कुछ टांक ठाकुर परिवार अपनी पुरानी वंशावली पोथियाँ रखते हैं, जिनमें 15–20 पीढ़ियों तक के नाम लिखे होते हैं। विवाह संस्कारों में गोत्र वंश पूछना एक परंपरा है वहाँ से भी यह वंश जीवित रहता है।
टाक वंशावली (परंपरागत स्वरूप में)
     चन्द्रवंश (चंद्र से उत्पन्न क्षत्रिय वंश)
                    |
            राजा सोमराज
                    |
            राजा चंद्रकेतु
                    |
        राजा टंकपाल / टंकसेन
                    ┌───────┬─────────┐
राजा वीरसेन राजा धर्मपाल राजा केशवदेव
        |                |                    | 
 महिपाल।      हरिसिंह      विजयपाल
          |             |                  | 
टंकनसिंह  रणपालसिंह  पृथ्वीराजटांक
          |
  (अन्य शाखाएं)
        |
 ┌───────┬────────┐
टंका           टांकनिया                टांकी
गोत्र - 
अधिकतर टांक कश्यप गोत्रीय माने जाते हैं, कुछ में वशिष्ठ/भारद्वाज का दावा भी मिलता है।
भौगोलिक प्रसार - 
राजस्थान के नागौर, भीनमाल, सीकर, झुंझुनू में 
मेवात के पूरे क्षेत्र में टाक राजपूत मुस्लिम मिलते हैं।
हरियाणा के  हिसार, रोहतक, फतेहाबाद
पंजाब के पटियाला, मलेरकोटला
मध्यप्रदेश के उज्जैन, नीमच, रतलाम में बसते हैं।
अफगानिस्तान और बलूचिस्तान क्षेत्र में भी टाक पाए जाते हैं।
विवाह परम्परा - 
पारिवारिक समारोहों और शादी-ब्याह की परंपराओं में आज भी राजपूती व्यवहार और गौरव दिखता है।
स्रोत विवरण - 
1.मलेरकोटला का इतिहास
2. Punjab Castes - by Denzil Ibbetson
3 . देलवाड़ा शिलालेख (1439 ई.)
4. गोठ मांगलोद शिलालेख (608 ई.)
5. राजा साहरण ऑफ थानेसर - यह उल्लेखनीय है कि थानेसर के राजा साहरण, जो टांक या टक राजपूत थे, ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया था। यह घटना टांक वंश के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखी जाती है।
6. इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा और डी. सी. सिरकार जैसे विद्वानों ने इस शिलालेख का संदर्भ अपने कार्यों में दिया है।
7. Indian Epigraphical Reports” (ASI) में इस शिलालेख को सूचीबद्ध किया गया है।

अध्याय 11
नारू राजपूत वंश का इतिहास - 
वंश की उत्पत्ति और नामकरण - 
नारू राजपूत वंश की उत्पत्ति सूर्यवंशी क्षत्रिय परंपरा से मानी जाती है। इनके पूर्वज राजा निपाल चंद थे, जो मथुरा के सूर्यवंशी राजपूत थे और भगवान श्रीराम के वंशज माने जाते हैं। महमूद गजनवी के समय में, राजा निपाल चंद ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया और उनका नाम नारूशाह (नारू खान) रखा गया। इन्हीं के नाम पर इस वंश को नारू कहा जाने लगा।
प्रमुख क्षेत्र और बसावट - 
नारू राजपूतों का प्रमुख प्रभाव पंजाब के जिलों होशियारपुर और जालंधर में था। राजा निपाल चंद के पुत्र रतन पाल ने फिल्लौर नगर की स्थापना की। इसके अतिरिक्त, नारू वंश ने हरियाणा, बजवाड़ा, शाम चौरासी, घोरेवाहा (होशियारपुर में), और बहराम (जालंधर में) जैसे परगनों की स्थापना की।
सामाजिक और धार्मिक पहचान - 
हालांकि नारू राजपूतों ने इस्लाम धर्म अपनाया, उन्होंने अपनी राजपूताना संस्कृति, परंपराओं, और सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखा। इनके प्रमुख व्यक्तियों को आज भी राय की उपाधि से जाना जाता है।
वर्तमान स्थिति - 
वर्तमान में, नारू राजपूतों की उपस्थिति पंजाब, हरियाणा, और राजस्थान में देखी जा सकती है। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में भी इनकी आबादी है। इनमें से कई लोग अब सेना, प्रशासन, और अन्य व्यवसायों में सक्रिय हैं।
मंज को छोड़कर, नारू होशियारपुर राजपूतों में सबसे व्यापक थे, उनका मुख्य क्षेत्र जालंधर और होशियारपुर दोआब का उत्तरी आधा भाग। जनजातियों के विपरीत नारू अपनी उत्पत्ति की कहानी के संबंध में काफी सुसंगत हैं। घोरेवाहा और मंज के साथ, नारू ब्रिटिश पंजाब के जालंधर डिवीजन की अधिकांश राजपूत आबादी का हिस्सा जिन्हें राव/राणा नाम से प्रसिद्ध यह लोग शाम चौरासी (जालंधर और होशियारपुर के बीच की भूमि) के गाँवो के मुखिया थे। अब पूर्वी पंजाब के मुसलमानों की तरह, नारू पूरे पश्चिम पंजाब, राजस्थान और पाकिस्तान फैसलाबाद और सरगोधा में पाए जाते है। पंजाब के नारू दावा है कि उनके पूर्वज मथुरा सूर्यवंशी)राजपूत थे जिनका नाम निपाल चंद था। वो रामचंद्र जी के वंशज थे। 
रोज़ औपनिवेशिक ब्रिटिश नृवंशविज्ञानी ने उनके मूल उत्पति स्थान विवरण दिया है - 
नारू अपने मूल के बारे में अलग - अलग विवरण देते हैं। होशियारपुर के लोग जिनमें से कई या अधिकांश सनातनी हैं कहते हैं कि वे चंद्रवंशी हैं, पहाड़ियों से पंजाब आए। जालंधर के पूर्वी भाग के फिल्लौर जो सभी मुसलमान हैं, कहते हैं कि उनके पूर्वज रघुवंशी राजपूत थे जो अजुधिया (अयोध्या) से आए, शहाबुद्दीन गौरी की सेना में शामिल हुए और फिल्लौर की स्थापना की। तीसरी कहानी के अनुसार उनके पूर्वज जयपुर या जोधपुर के निवासी थे जो महमूद गजनवी के समय में मुस्लिम हो कर होशियारपुर के बजवाड़ा में बस गए। श्री डी.जी.बार्कले के अनुसार होशियारपुर के नारू ज्यादातर मुसलमान थे व गुरदासपुर के सनातनी। बाजवाड़ा के नारू मुसलमान थे जिन्होंने राणा की उपाधि प्राप्त की। बाजवाड़ा की स्थापना विक्रमादित्य और शालवाहन के समय से पहले के राणा ने की थी। महमूद गजनी के समय में वो मुसलमान बन गए। उन्होंने अपनी स्वतंत्रता तब तक बनाए रखी जब तक लोदी और सूर पठानों ने बाजवाड़ा के आसपास के गढ़ों में अफगानो को बसा कर नारू राणाओं को महत्वहीन कर दिया। परंपरा एवं ऐतिहासिक तथ्य उन्हें निपाल चंद से जोड़ते हैं। 
रोज़ लिखते हैं कि यह भिन्न विवरण भ्रमित और विरोधाभासी हैं पर होशियारपुर का विवरण बिल्कुल अलग है। उस जिले के नारू कहते हैं कि उनके पूर्वज मुत्तरा के सूर्यवंशी राजपूत थे जिनका नाम निपाल चंद था और वे राजा रामचंद के वंशज थे। महमूद गजनवी के समय में उनका धर्म परिवर्तन हुआ और उन्होंने नारूशाह नाम अपनाया। नारूशाह जालंधर के मऊ में बस गए जहाँ से उनके बेटे रतनपाल ने फिल्लौर की स्थापना की। वहाँ से चार नारू परगना स्थापित हुए हरियाणा, बजवाड़ा, शाम चौरासी में घोरेवाहा होशियारपुर और जालंधर में बहराम। इन परगनों के मुस्लिम राजपूतों को आज भी राव, रांगड, राय या राणा कहा जाता है। नारू राजपूत सनातन एवं इस्लाम दोनों ही धर्म में हैं। नारू वासुदेव गोत्र के ब्राह्मण भी होते हैं। रोज़ ने एक वंशावली दी है जो नारू वंश को रामचंद्रजी तक ले जाती है। इसके बाद उन्होंने 1849 में पंजाब पर ब्रिटिश विजय तक के उनके हालिया इतिहास का विस्तृत विवरण दिया है।
नारू लोगों ने जालंधर और होशियारपुर की सीमा पर हरियाणा क्षेत्र पर कब्जा जमाए रखा जब तक सिखों ने उन्हें वहां से बेदखल नहीं कर दिया। जालंधर में नारुओं का मूल निवास मऊ रहा। एक ऐसा नाम जो जैसा कि बर्कले ने बताया पूर्वी या मध्य भारत से उत्पन्न होने का तर्क देता है। पुंगा, बडाला और धुत बस्तियों के नारू कहते हैं कि उनके पूर्वज दिल्ली के गढ़ गजनी धुन पेटी से आए थे और अकबर के शासन काल में राजवैरा में बस गए। वे रघुवंशी हैं। एक अन्य विवरण के अनुसार होशियारपुर के मडवारा में रहते थे। वहां से भाननेथु और रमन ने अकबर के समय में चौथला की स्थापना की और वहां से धुत और दौलतपुर की स्थापना की। मडवारा से पांच कोस दूर बुझासन में उन्होंने कटोच लोगों से युद्ध किया कपूरथली नारू कहते हैं कि वे होशियारपुर में हौंभट्टी उनकी पहली रियासत थी वहां से बाघे खान ने बगाना की स्थापना की और उनके भाई कश्मीर खान से वर्तमान नारू वंश की स्थापना की।
जालंधर गजेटियर फर्स्ट के लेखक और 1870 में वहां के कलेक्टर बार्कले ने होशियारपुर गजेटियर से मिलता जुलता लिखा है कि नारू कहते हैं कि उनके पूर्वज मुत्तरा के सूर्यवंशी राजपूत थे जिनका नाम निपाल चंद था और जो राजा रामचंद के वंशज थे। महमूद गजनवी के समय में उनका धर्म परिवर्तन हुआ और उन्होंने नारूशाह नाम अपना लिया। नारूशाह जालंधर में बस गए जहाँ से उनके बेटे रतन पाल ने फिल्लौर की स्थापना की। वहाँ से होशियारपुर में हरियाणा, बैवारा, शाम चौरासी और घोरेवाहा के चार परगने और जालंधर में बहराम की स्थापना की। इन परगने के प्रमुख लोगों को राय या राणा कहा जाता है। हरियाणा के वर्तमान राणा जैलदार राणा मुहम्मद बख्श हैं। नारू सभी मुसलमान हैं लेकिन वासुदेव गोत्र के ब्राह्मणों को साथ रखते हैं।
सामाजिक एवं जातीय परंपराएँ - 
नारू राजपूत आम तौर पर दूसरे विवरण से सहमत हैं कि वे सूर्यवंशी राजपूत हैं और उनका नाम उनके पूर्वज नारू शाह के नाम पर पड़ा है। हालांकि नारू परंपराएं राजस्थान से सीधे प्रवास का उल्लेख करती हैं। सबसे महत्वपूर्ण नारू राजपूत बस्ती शाम चौरासी थी। कहा जाता है कि इस गांव को सूफी संत शमी शाह के नाम पर यह नाम मिला और चौरासी (84) का नाम 84 गांवों के समूह के नाम पर रखा गया था जो एक भू-राजस्व इकाई का गठन करते थे, जिसे परगना भी कहा जाता था। मुगल सम्राट अकबर के काल में अपनी शक्ति के चरम पर नारू राजस्व संग्रहकर्ता के रूप में कार्य करते थे। अन्य नारू परगनों में होशियारपुर में हरियाणा, बैवारा और घोरेवाहा और जालंधर में बहराम शामिल थे। 18वीं शताब्दी में सिखों के उदय तक़ प्रसिद्ध राजा निपाल चंद (नारू शाह): नारू वंश के संस्थापक, जिन्होंने इस्लाम धर्म अपनाया और पंजाब में अपनी उपस्थिति स्थापित की। राजा रतनपाल राजा निपाल चंद के पुत्र, जिन्होंने फिल्लौर नगर की स्थापना की और नारू वंश की शक्ति को बढ़ाया।
नारू राजपूतों के प्रमुख युद्ध और वीरता की कहानियां - 
1. महमूद गजनवी के खिलाफ संघर्ष 
राजा निपाल चंद (नारू वंश के संस्थापक) ने 11वीं सदी में महमूद गजनवी के आक्रमण के समय अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी।
2. पंजाब के क्षेत्रीय सुरक्षा युद्ध - 
नारू राजपूतों ने पंजाब के होशियारपुर, जालंधर और आसपास के इलाकों में अपने राज्यों की रक्षा के लिए अनेक बार युद्ध लड़े। उन्होंने मुग़ल और अफगान आक्रमणकारियों के खिलाफ संघर्ष किया, जिससे उनकी रक्षा और क्षेत्रीय प्रभुता बनी रही। स्थानीय रियासतों के बीच संघर्ष नारू राजपूतों ने हरियाणा, राजस्थान और पंजाब के आसपास के क्षेत्रों में पड़ोसी राजपूत और अन्य समूहों के साथ कई बार युद्ध किया, अपनी स्वतंत्रता और सम्मान बनाए रखने के लिए। इनमें कई छोटी-बड़ी लड़ाइयां शामिल हैं, जो उनकी वीरता और रणनीति का परिचायक हैं।
कहानी- राजा निपाल चंद की - 
राजा निपाल चंद के समय जब महमूद गजनवी ने उनकी धरती पर आक्रमण किया, तब वे अपने सैनिकों के साथ दृढ़ता से लड़ते रहे। भले ही स्थिति कठिन थी, उन्होंने हार नहीं मानी और अपने प्रजा की रक्षा के लिए अंतिम दम तक संघर्ष किया। यह उनकी वीरता और साहस का प्रतीक है, जो आज भी नारू वंश के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
नारू राजपूत साहित्य और लोककथाओं में योगदान - 
नारू राजपूतों ने केवल युद्ध और शासन ही नहीं किया, बल्कि उन्होंने साहित्य, कविता और लोककथाओं को भी समृद्ध किया। उनके क्षेत्र में कई ऐसे लोकगीत, वीर रस की कविताएँ और कहानियाँ प्रचलित हैं जो उनकी बहादुरी, त्याग और आदर्श जीवन को दर्शाती हैं। ये लोककथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई जाती रहीं, जिससे नारू राजपूतों की विरासत जीवित रही। कुछ स्थानों पर उनके शौर्य गाथाएँ महाकाव्यों और लोक नाटकों का रूप भी ले चुकी हैं।
1. लोककथा- रतन पाल की सवारी 
यह कहानी राजा रतन पाल की है, जो नारू वंश के सबसे प्रसिद्ध शासकों में से एक माने जाते हैं। जब एक बार उनके राज्य की सीमाओं पर अफगान लुटेरों ने हमला किया, तो राजा रतन पाल ने अपनी सेना की प्रतीक्षा किए बिना अकेले ही घोड़े पर चढ़कर मुकाबला किया।
लोकगीत की पंक्तियाँ 
रतन चढ़्या काले घोड़े
तलवार लई सज के हो।
सात सौ सवारियाँ रोई
पर रतन ना मुड़ के हो।
भावार्थ - रतन पाल काले घोड़े पर सवार होकर अकेले युद्ध को निकल पड़े। पीछे राजमहल की रानियाँ और सवारियाँ रोती रहीं, लेकिन रतन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
महत्व - यह गीत न केवल उनकी वीरता दर्शाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि नारू राजपूतों में व्यक्तिगत बलिदान और राष्ट्र-धर्म सर्वोपरि थे।
2. लोकगीत - निपाल चंद दी हुंकार
कहानी - राजा निपाल चंद, नारू वंश के संस्थापक माने जाते हैं। जब महमूद गजनवी ने आक्रमण किया, तो निपाल चंद ने अपने धर्म और लोगों की रक्षा के लिए अंतिम दम तक लड़ाई की।
गीत की पंक्तियाँ- 
ना डरे ओ निपाल चंद
जद गजनवी लई तलवार।
खून दे नाल सजा मैदान
राजपूती दी राखी लाज।
भावार्थ - 
निपाल चंद तब भी नहीं डरे जब गजनवी ने तलवार तानी। उन्होंने मैदान को अपने खून से सींच दिया, लेकिन राजपूत आन-बान की रक्षा की।
महत्व - 
यह गीत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक गाया जाता रहा है, और यह नारू राजपूतों की पहचान को जीवित रखने में सहायक रहा। वीरांगना रानी गुलाबी देवी – नारू वंश की छुपी हुई शेरनी थी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - 
रानी गुलाबी देवी नारू राजपूतों की एक साहसी रानी थीं, जिनका नाम अक्सर मौखिक इतिहास और लोकगीतों में आता है, लेकिन लिखित इतिहास में बहुत सीमित रूप में मिलता है। कहा जाता है कि वे राजा रतन पाल की पत्नी थीं, और जब उनके राज्य पर शेरशाह सूरी के दौर में एक बार हमला हुआ, तब राजा रणक्षेत्र से बाहर थे।
नारू रानी का साहस - 
रानी गुलाबी देवी ने युद्ध के मैदान में स्वयं कवच पहनकर नारू सेना का नेतृत्व किया। उन्होंने केवल पुरुषों की तरह युद्ध ही नहीं किया, बल्कि युद्ध नीति और किले की सुरक्षा को भी रणनीति से संभाला। उन्होंने दुश्मन को कई दिनों तक किले में घुसने नहीं दिया।
लोकगीत: गुलाबी रानी दे किले दी चढ़ाई
गुलाबी रानी लेई तलवार 
ना स्याही ना हार
ओ कहंदी 
नारू दी धरती ए मेरी
जिउंगी तां राज करेगी
मरांगी तां इतिहास बनेगी।
भावार्थ:
रानी गुलाबी ने तलवार उठाई और हार नहीं मानी। वह बोली यह नारू वंश की धरती मेरी है ज़िंदा रही तो राज करूंगी मरी तो इतिहास बनूंगी।
स्त्रोत - 
1. क्षेत्रीय इतिहास ग्रंथ- 
राजस्थान और आसपास के क्षेत्रीय इतिहास में नारू राजपूतों का उल्लेख मिलता है, खासकर स्थानीय राजपूत वंशों की विस्तृत सूची में। कई बार ऐसे ग्रंथों में वंशावली, प्रमुख योद्धा, युद्ध, और सामाजिक योगदान के संदर्भ मिलते हैं।
2. राजपूत इतिहासकार - 
राजस्थान के कई इतिहासकार जैसे डॉ. गिरिजा शंकर विद्यार्थी, डॉ. राजेंद्र सिंह भील, डॉ. भीम सिंह शर्मा
3. जालंधर गजेटियर 1870

अध्याय 12
जाटू तंवर/तोमर वंश की उत्पत्ति और इतिहास- 
(जाटू राजपूतों का उदय तंवरों की एक साख से हुआ)
जाटू तंवर वंश चंद्रवंशी राजपूत वंश का एक हिस्सा है, जिसकी उत्पत्ति महाभारत काल के पांडवों से जुड़ी हुई प्रतीत होती है।
शोध सुझाव देता है कि इस वंश की वंशावली अर्जुन, अभिमन्यु, और परिक्षित जैसे पात्रों से जुड़ी है, जो हिंदू पौराणिक कथाओं में महत्वपूर्ण हैं।
यह वंश मुख्य रूप से हरियाणा (भिवानी, हिसार, महेंद्रगढ़) और राजस्थान जैसे क्षेत्रों में फैला हुआ है, जहाँ उनकी कई बस्तियाँ और ऐतिहासिक स्थल हैं।
ऐतिहासिक सबूत दर्शाते हैं कि जाटू तंवरों ने युद्धों में भाग लिया, जैसे खानवा का युद्ध (1527) और क्षेत्रीय शासन में योगदान दिया।
कुछ शाखाओं ने मध्यकाल में इस्लाम धर्म अपनाया, और उनके वंशज आज पाकिस्तान में भी पाए जाते हैं, जो इस वंश की जटिल धार्मिक पहचान को दर्शाता है।
उत्पत्ति और वंशावली
जाटू तंवर वंश की उत्पत्ति चंद्रवंशी परंपरा से जुड़ी हुई है, जो महाभारत के पांडवों से संबंधित है। यह प्रतीत होता है कि उनकी वंशावली सोम (चंद्र) से शुरू होकर अर्जुन, अभिमन्यु, और परिक्षित तक जाती है, और अंततः अनंगपाल तोमर तक पहुँचती है। तोमर ने दिल्ली राज्य की स्थापना की थी। ठाकुर जाटू सिंह, जो तोमर वंश के राजा जैरथ के पुत्र थे, इस शाखा की स्थापना के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं।
क्षेत्रीय विस्तार और ऐतिहासिक योगदान
इस वंश की प्रमुख बस्तियाँ हरियाणा के भिवानी, हिसार, और महेंद्रगढ़ में हैं, जहाँ भिवानी में 1440 गाँव उनके प्रभाव को दर्शाते हैं। राजस्थान में, पाटन (तोमरावती) और रामदेवरा जैसे स्थान उनके ऐतिहासिक महत्व को दिखाते हैं। वे खानवा (1527) और पाटन (1790) जैसे युद्धों में अपनी वीरता के लिए जाने जाते हैं, और सलहदी तंवर जैसे योद्धाओं ने राणा सांगा के नेतृत्व में मुगलों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान
जाटू तंवरों का गोत्र गर्ग्य है, और उनकी कुलदेवी चिल्लासन माता (योगेश्वरी) हैं। वे श्रीकृष्ण और शिवजी को अपने इष्ट देवता मानते हैं, और यजुर्वेद उनका वेद है। कुछ शाखाओं ने इस्लाम धर्म अपनाया, विशेष रूप से हरियाणा और पाकिस्तान में, लेकिन कई ने अपनी पारंपरिक सामाजिक संरचनाएँ बनाए रखीं।
जाटू तंवर वंश की उत्पत्ति और इतिहास
जाटू तंवर वंश प्राचीन और समृद्ध राजपूत वंश है, जो चंद्रवंशी परंपरा से जुड़ा हुआ है और इसका इतिहास महाभारत काल से लेकर मध्यकालीन भारत तक फैला हुआ है। इस वंश की उत्पत्ति, प्रमुख शाखाएँ, ऐतिहासिक योगदान, धार्मिक परंपराएँ, और वर्तमान स्थिति का विस्तृत अध्ययन निम्नलिखित है:
उत्पत्ति और वंशावली
जाटू तंवर वंश चंद्रवंशी राजपूत वंश का हिस्सा है, जिसकी उत्पत्ति हिंदू पौराणिक कथाओं में महाभारत के पांडवों से जोड़ी जाती है। उनकी 
वंशावली 
सोम (चंद्र) से 
l
ययाति
l
पुरु
l
हस्तिन
l
अजमीढ़
l
कुरु
l
शांतनु
l
दुष्यंत, युधिष्ठिर, अर्जुन
l
अभिमन्यु
l
परिक्षित
l
क्षेमक
l
तुंगपाल
l
अनंगपाल तोमर तक जाती है । अनंगपाल तोमर ने 8वीं सदी में दिल्ली (धिल्लिका) की स्थापना और लाल कोट किले के निर्माण किया। जाटू तंवर शाखा की स्थापना विशेष रूप से ठाकुर जाटू सिंह ने की, जो तोमर वंश के राजा जैरथ के पुत्र थे। उनकी माता सांखला राजपूतनी थीं। जाटू सिंह ने सिरसा क्षेत्र में पलात देवी (सिरोहा राजपूत कँवरपाल की पुत्री) से विवाह किया। कँवरपल ने हांसी क्षेत्र जाटू सिंह को सौंपते हुए दो और भाइयों राघू और सतरोल के साथ इस क्षेत्र को तीन भागों में बाँटा - 
1.तप्पा जाटू
2.तप्पा राघू
3.तप्पा सतरोल
जाटू सिंह के दो पुत्र थे 
1. साढ़ौल जिन्होंने राजली गाँव की स्थापना की, और 
2. हरपाल जिन्होंने गुराना गाँव की स्थापना की
जाटू तंवर वंश का क्षेत्रीय विस्तार मुख्य रूप से उत्तर भारत में रहा है विशेष रूप से हरियाणा और राजस्थान। हरियाणा के भिवानी, हिसार, और महेंद्रगढ़ जैसे क्षेत्रों में उनकी प्रमुख बस्तियाँ हैं। भिवानी में उनके प्रभाव का अनुमान 1440 गाँवों से लगाया जा सकता है, जिसमें बपोदा, देवसर, कोहड़, और खुदाना जैसे गाँव शामिल हैं । महेंद्रगढ़ में, खुदाना गाँव की स्थापना राजा हरपाल सिंह तंवर ने की थी। हिसार में, बस अजम शाहपुर और चरणोद जैसे गाँव उनके ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं।
राजस्थान में पाटन (तोमरावती, सीकर जिला) और रामदेवरा (जैसलमेर जिला) उनके प्रमुख ठिकाने रहे हैं। पाटन में राव पीपलराजजी ने वि.सं. 1275 (13वीं सदी) में पाटन किले की स्थापना की। रामदेवरा, बाबा रामदेवजी (अजमल सिंह तंवर के पुत्र) का समाधि स्थल है जिन्हें संत और लोकदेवता के रूप में पूजा जाता है। और हर वर्ष भाद्रपद माह में यहाँ विशाल मेला आयोजित होता है।
इस वंश ने कई ऐतिहासिक युद्धों में भाग लिया, जिसमें खानवा का युद्ध (1527) और पाटन का युद्ध (1790) शामिल हैं। खानवा के युद्ध में सलहदी तंवर ने राणा सांगा के नेतृत्व में 35000 राजपूत सैनिकों का नेतृत्व किया लेकिन बाबर की सेना विजयी रही। पाटन के युद्ध में राव सम्पत सिंह जी ने मराठों और फ्रांसीसियों के खिलाफ राजपूत संघ का नेतृत्व किया लेकिन पराजय हुई। पाटन का खजाना लूट लिया गया। अन्य प्रमुख योद्धाओं में राव पीपलराजजी (13वीं सदी, पाटन के शासक) और ठाकुर जाटू सिंह (हरियाणा के सिरसा क्षेत्र में लड़ाइयों में शामिल) शामिल हैं।
मुगल काल में कई जाटू तंवर राजपूत मुगल सेना में उच्च पदों पर रहे लेकिन उन्होंने अपनी परंपरागत राजपूत स्वतंत्रता बनाए रखी।
धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान
जाटू तंवरों का गोत्र गर्ग्य है, जो गर्ग ऋषि से उत्पन्न माना जाता है। उनकी कुलदेवी चिल्लासन माता (योगेश्वरी) जिन्हें चिलाय माता के नाम से भी जाना जाता है और उनके इष्ट देवता श्रीकृष्ण और शिवजी हैं। वे यजुर्वेद का पालन करते हैं और उनका मूल स्थान हस्तिनापुर माना जाता है।
धार्मिक परंपराओं में वे शिवजी, हनुमानजी, कृष्णजी, रामजी, शक्तिजी, और पार्वतीजी की पूजा करते हैं। ग्राम देवताओं और कुलदेवताओं की भी पूजा करते है। दशहरे पर शस्त्रपूजा और देवताओं के लिए मेलों का आयोजन करते हैं। वर्तमान में इस वंश के लोग मुख्य रूप से कृषि आधारित जीवन जीते हैं वेदिक सनातन धर्म का पालन करते थे।
धर्म परिवर्तन और मुस्लिम शाखाएँ
मध्यकाल में जाटू तंवर वंश की कुछ शाखाओं ने इस्लाम धर्म अपनाया विशेष रूप से हरियाणा के हिसार, सिरसा, रानिया, और जींद क्षेत्रों में। इनके वंशज आज पाकिस्तान के ओकारा और कसूर जिलों में भी पाए जाते हैं। धर्म परिवर्तन के बावजूद कई मुस्लिम जाटू तंवरों ने अपनी पारंपरिक सामाजिक संरचनाएँ जैसे गोत्र और विवाह प्रथाएँ बनाए रखीं। जाटू वीर, मुगल दरबार में सैन्य और प्रशासनिक पदों पर रहे।
वर्तमान स्थिति और सांस्कृतिक संरक्षण
आज भी जाटू तंवर समुदाय के भीतर हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के अनुयायी मिलते हैं। 
प्रमुख अभिलेख और शिलालेख
जाटू तंवर वंश के इतिहास को समझने के लिए कई पुरातात्विक और लिखित स्रोत उपलब्ध हैं। प्रमुख अभिलेख निम्नलिखित हैं इन अभिलेखों के विषय में राजनीतिक, धार्मिक, और सामाजिक पहलुओं को शामिल किया गया है, जैसे शासन व्यवस्था, मंदिर निर्माण, और गोत्र-विवाह प्रथाएँ।
1. पाटन (सीकर, राजस्थान): 12वीं-14वीं सदी के शिलालेखों में तोमर शासकों, युद्धों, और मंदिर निर्माण का उल्लेख।
2. लाल कोट किला (दिल्ली): 8वीं-11वीं सदी के अभिलेख दिल्ली की स्थापना और तोमर शक्ति को दर्शाते हैं।
3. रामदेवरा (जैसलमेर): 14वीं-16वीं सदी के शिलालेखों में बाबा रामदेवजी और धार्मिक परंपराओं का विवरण।
हरियाणा (सिरसा, जींद): 15वीं-18वीं 
4. सदी के अभिलेख सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था को दर्शाते हैं।
क्षेत्रीय उपस्थिति का सारणीबद्ध विवरण
पाटन (तोमरावती),सीकर - तोमर राजपूतों का प्रमुख ठिकाना, पाटन किला
रामदेवरा, जैसलमेर - बाबा रामदेवजी का समाधि स्थल, वार्षिक मेला
लुहारी जाटू, बावनी खेड़ा, देवसर
भिवानी, हरियाणा आदि जाटू तंवरों की प्रमुख बस्तियाँ क्षेत्र रहे हैं।
बस अजम शाहपुर, चरणोद (हिसार) हरियाणा
अंत में -
जाटू तंवर वंश का इतिहास शौर्य, संस्कृति, और सांस्कृतिक योगदान का प्रतीक है। दिल्ली की स्थापना से लेकर पाटन और रामदेवरा जैसे केंद्रों तक, इस वंश ने उत्तर भारत के इतिहास को आकार दिया। युद्धों में उनकी वीरता, धार्मिक परंपराओं में योगदान, और सामाजिक संरचनाएँ उनकी गौरवशाली विरासत को दर्शाती हैं। मुस्लिम और हिंदू जाटू तंवर आज भी अपनी पहचान को बनाए रखते हैं और मुस्लिम राजपूत महासभा जैसे संगठनों के माध्यम से इसे और मजबूत कर रहे हैं।
हमारी विरासत हमारी ताकत है। इसे संजोएँ, इसे फैलाएँ, और इसे अगली पीढ़ियों तक पहुँचाएँ।

अध्याय 14
सरखेल भाटी वंश का इतिहास
भाटी वंश की उत्पाति यदुवंश से हुई है। भाटी वंश में पांचवे वंशज का नाम सोम है, इसलिए ये चन्द्रवंशीय कहलाते हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि श्री कृष्ण के पुत्र प्रधुमन की सन्तान है तथ मथुरा छोड़ने के बाद आगे चलकर अपना ठिकाना भटनेर को बनाया।
महाभारत के युद्ध के बाद मुख्य रूप से पंजाब क्षेत्र में इस जाति के लोग दूर-दूर तक फैल गये, जिसमें गजनीपुर, स्यालकोट, पेशावर आदि हैं। स्लायकोट के पराक्रमी राजा शालीवाह ने बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया जो वर्तमान में स्यालकोट कहलाता है। शालीवाह राजा के दो पुत्र थे। जिनमें एक नाम पूर्णमल और दूसरे का नाम बालंद था। बालन्द के पुत्र का नाम भट्टी था, जिसके कि नाम पर भाटी वंश चला है। राजा भट्टी पर पंजाब में चारों और से युद्ध का दवाब होने से भटनेर को अपना ठिकाना बनाया। वर्तमान भटिण्डा भी भाटियों द्वारा ही आबाद किया गया था। राजा भट्टी के एक पुत्र मंगलराव ने स्यालकोट से निकल कर राजस्थान के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र एवं भागलपुर पर अधिकार कर लिया। राजा मंगलराव के पुत्र केहर ने तन्नोट दुर्ग बनाया था। राजा केहर तन्नोट देवी का उपासक था, इसीलिए दुर्ग का नाम तन्नोट दुर्ग रखा तथा उसने स्वयं का नाम भी तन्नू रख लिया। राजा तन्नू के पुत्र विजय राव ने देरावर एवं लोद्रवा को अपने अधीन कर अपनी राजधानी बनाई। उन्हीं के वंशज जैसलदेव ने सन् 1155 को जसैलमेर बसा कर इतिहास प्रसिद्ध जैसलमेर दुर्ग बनवाया।
इस तरह भाटियों के अधीन बहुत बड़ा क्षेत्र था किन्तु उत्तर-पश्चिम दिशा से मुस्लिम आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब का क्षेत्र इनके हाथ से निकल गया किन्तु जैसलमेर क्षेत्र पर इनका अधिकार अन्त तक बना रहा। अन्य राजपूत जातियों की तरह भाटी वंश के रतनसिंह नामक भटनेर के शासक ने सन् 1365 में इस्लाम धर्म कबूल कर लिया था। वर्तमान में कायमखानी समाज के भाटी इन्हीं रतनसिंहजी भाटी की औलाद हैं। इन कायमखानी भाटियों में एक गौत्र 'सरखैल भाटी' कहलाती है जो बहुगुण के वंशज हैं। बहुगुण जी के दादा कीरत जी फतेहपुर आकर बस गये और फतेहपुर नवाब की सेना में शामिल हो गये। बहुगुण जी बहुत ही बहादुर एवं योग्य व्यक्ति थे। अतः नवाब ने उन्हें सेनापति नियुक्त किया। जब राव कांधल ने नवाब की अनुपस्थिति में फतेहपुर पर हमला किया, उस समय बहुगुण जी ने किले की रक्षा की थी और सर कटने के बाद भी लड़ते रहे थे। इसलिए उन्हें 'सरखैल' कहा जाता है और उनके वंशज सरखैल भाटी कहलाते हैं, जो मुख्य रूप से फतेहपुर, झुन्झुनू एवं सीकर क्षेत्र में आबाद हैं। यह घटना नवाब फतेह खान के शासनकाल (सन् 1449-1474) की है। जिसका वर्णन कविजान ने कायम खां रासा में दोहा सं. 413, 414, 415, 416 एवं 417 में किया है।
 सरखैल भाटियों में भी तीन उप गौत्र हैं।
1.दोस मोहम्मद खान की औलाद देसाणी सरखैल कहलाते हैं 
2. नियामत खान की औलाद नाथाणी सरखैल
3.निजाम खान की औलाद निजाणी सरखैल कहलाते हैं। 
भाटी "सरखेल" की वंशावली भटनेर (हनुमानगढ़)
हदरावजी
(इनके 13 पुत्रों से तीन गोत्रों की निकासी हुई)
समोचाजी
जेसराजजी
पहाड़जी
(गोत समेचा भाटी) (जेसा भाटी)
(पोहड़ भाटी)
खुमाणसिह जी
मानसिहंजी
रतनसिंह जी-भटनेर
(रतनसिंह जी ने बादशाह फिरोजशाह के शासनकाल में सन 1365 में इस्लाम धर्म अपनाया)
राजजी
कीरतसिंह जी (फतेहपुर आए सम्वत् 1520)
गाड़जी
बहुगुण जी (सरखेल )
(एक युद्ध में सर कटने पर भी लड़ते रहे इसलिए इन
के वंशज सरखेल कहलाते है)
रहमानखां - (सरखेल)
नाहरखां
अहमदखां
अलीखां
सले मोहम्मदखां
शहीद सरखेल खां बहुगुणा की मजार;
मजार ऐ मुबारक" शहीद सरखेल खान बहुगुण" अल मआरुफ बोगण बाबा फतेहपुर शेखावाटी । जिनकी शहादत :- 25 अगस्त 1462 वार सोमवार, बमुताबिक चांद जुल कादअ की तारीख 27 हिजरी सन 866, तिथी भाद्रपद कृष्ण पक्ष षष्ठी (छठ) विक्रम संवत 1519, शक संवत 1384, रावत काधंल राठौर जो बिकानेर के संस्थापक बिका जी के चाचा थे, से फतेहपुर की रक्षार्थ युद्ध में बहादुरी से लङते हुए हुई। आपके सर ऐ मुबारक को फतेहपुर से 19 मिल की दुरी पर स्थित गांव अलखपुरा बोगण (रण भुमी) में ही दफन किया गया है, जंहा आपकी दरगाह है। और आपके जिस्म मुबारक को फतेहपुर किले के पश्चिमी बुर्ज के पास इस खेजड़ी के पेङ के निचे दफनाया गया है।
1 सरखेल भाटी 
2 भाटी

अध्याय 13. 
वर्तमान में कायमखानी समाज 

1 अवश्थिति :-
राजस्थान के नागौर, सीकर, चूरू, झुंझुनूं, जयपुर, बीकानेर, जोधपुर, हनुमानगढ़, भीलवाड़ा में बड़ी संख्या में व  गंगानगर, टोंक, चित्तौरगढ़, बारां, कोटा, पाली, उदयपुर, जैसलमेर व दौसा जिले में कम संख्या में निवास करते हैं।
महाराष्ट्र के पुणे, मुंबई व औरंगाबाद, उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ में कर्नाटक के हैदराबाद शहर में कायमखानी वंश के लोग निवास करते हैं। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हैदराबाद (टोंडोअहल्यार,खीपरा) कराची आदि स्थानों पर निवास करते हैं।

1 नागौर जिला :-
नागौर जिले के गाँव जिनमें कायमखानी क़ौम निवास करती हैं।
डीडवाना
1डीडवाना शहर - कायमनगर, अमरपुरा, दीनदरवाजा,चाइनाणो की पोल, बेगाना कोलोनी, फतेहपुरी गेट, रेलवे स्टेशन, मुस्तफ़ा नगर, मोहल्ला सैयदान, कटलाबास)
2 बेरी छोटी
3 धनकोली 
4 दाऊदसर 
5 सुद्रासन 
6 नूवां 
7 पायली 
8 खारिया 
9 खाखोली
10 तारपुरा 
11 भाडासर 
12 बावड़ी 
13 निमोद 
14 भदलिया 
15 नूरपुरा 
16 अलखपुरा 
17 झाड़ोंद 
18 कुड़ली 
19 निंबी कला 
20 निंबी खुर्द 
21 बरांगना 
22 खातियाबासनी
23 दौलतपुरा
24 छापरी खुर्द 
25 छापरी कलां
26 सरदारपुरा
27 चुगनी 
28 दिनदारपुरा 
29 फोगड़ी 
30 चौलूखां, 
31 मावा
32 अमरपुरा 
33 दादूबासनी 
34 पावा
35 खुनखुना
कुचामन :-
36 कुचामन 
37 नावाँ शहर 
38 परबतसर 
मकराना :-
39 मकराना (मकराना तहसील) 
40 बोरावड़
41 मनाणा
रियाँ :-
42 कायमसर (मोरियाणा) (रियाँ पं. स.)
43  सथाणा 
44 डोडियाणा
45 सुरियास
46 जोधङास 
लाडनूं :-
47 लाडनूं शहर ( लाडनूं तहसील ) 
48 जसवंतगढ़
49 धोलिया
50  लेड़ी
51 रोडू
52 मीठड़ी
53 फिरंवासी
मेड़ता :-
54 मेड़ता शहर (मेङता तहसील) 
55 माईदण्ड कलां
56 माईदण्ड खुर्द
57 शुभदण्ड
58 सियास
59 पाण्डुखां
60 लाम्बा जाटान
61 डांगावास
62 मोकलपुरा 
कुचेरा :- 
63 कुचेरा (मुंडवा तहसील )
जायल :- 
64 कसनाऊ(जायल तहसील )
65 छावटा कलां
66 गोठ, 
67 मांगलोद
68 खाटू बड़ी
डेगाना :- 
69 डेगाना स्टेशन ( डेगाना तहसील ) 
70 डेगाना गांव
71 रोहीणा
72 झगड़वास
73 रेवंत
नागौर :- 
74 नागौर शहर (लुहारपुरा, महमूद पूरा दिली दरवाजा, कुमारी दरवाजा, कालूखां की बाड़ी,)
75 मानासर
76 चूंटीसरा
77 मनफरास
78 गोगेलाव
79 अमरपुरा
80 सलाऊ
81 भदवासी
82 दुकोसी
83 फागली
84 डूडीवास
85 सारणवास
86 जोधड़ास

2 कायमखनियों की आजीविका व व्यवसाय :- 
इस समाज का कोई पुश्तैनी व्यवसाय नहीं है। जागीरें जाने के बाद सेना,पुलिस, व सरकारी नॉकरी,बनियों के नॉकरी,रेलवे,phed, व अन्य नॉकरी ही इनका मुख्य व्यवसाय था।
नोकरी कम होने पर ऊंट जोतना (लादा - लकड़ी,ठेपडी) ढांचा (सफेद पत्थर,पत्थर,) भिंटका (छोटी झाड़ियों के लाद),खदानों में पत्थर निकालना,खेती,पशुपालन(रेवड़), बालद (पशुओं की खरीददारी) ही मुख्य कार्य रहा है।
वर्तमान में ज्यादातर ड्राइवरी या विदेश में हमाली का काम करना ज्यादा प्रचलित है।
फिलहाल आजीविका का कोई स्थायी साधन नहीं है।

3 शिक्षा :- 
पहले शिक्षा का चलन कम था जो धीरे- धीरे बढ़ रहा है। बालिका शिक्षा का स्तर भी सुधर रहा है।

सामाजिक स्थिति :-
कायमखानी समाज राजपूत समाज का ही अंग है जिसमे मूंछों की लड़ाई के कारण आपस में ही खींचतान रहती है।
सकारत्मक पहलू -
सकारात्मक पहलू में सब से बड़ी बात है कायमखानी कहीं भी भीख मांगता नज़र नहीं आयेगा। 
कोई भी काम कर लेता है। तकनीकी से लेकर पत्थर तोड़ने तक का काम कर लेता है।
नकारात्मक पहलू :-
ऊंच नीच व छोटे बड़े का भाव इस समाज में बहुत रहा है। 
जैसे चायल,मोयल,जोइया,सर्वा,सरकेल, बेहलीम ,खोखर,चौहान, चावड़ा,जाटू,नारू,टाक,निर्बान या भाटी की बेटी जेनान,अहमदान, खानी, खान जादा, एलमान व जबवान ले तो आते पर देते नहीं थे जो सब से बड़ी परम्परा रही।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि बहलोल लोदी,अकबर व शाहजहां को बेटी दे सकते हैं पर अपने ही समाज के हिस्से व समकक्ष को बेटी देने में तौहीन समझते हैं।
पहले यह चलन भी था कि इन गोत्रों के लोग अपनी बेटी-बहन से मिलने आते तो ड्योढ़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता था। बेटी बाप-भाई से बाहर ही मिल लेती और वो चला जाता।
इसी प्रकार से व्यवहार जेनानो के साथ झुंझुन व फतेहपुर (झुंझुन ज्यादा,फतेहपुर कम) किया करते थे।
बड़े -छोटे का भाव आज भी पुरानी पीढ़ी में मिल जाता है।
नई पीढ़ी में यह लगभग समाप्त होता जा रहा है जो अच्छी बात है पर कुछ लोग इसे बढ़ावा दे रहे हैं।

राजनीतिक भागीदारी :- 
कायमखानी  समाज अधिकांश राजस्थान में है पर राजनीतिक भागीदारी लगभग शून्य है।
200 विधायक हर 5 साल से चुने जाते हैं पर 1978 से लेकर 2022 तक कुल सात व्यक्ति 11 बार विधायक बने हैं जबकि आज की तारीख में राजस्थान में इनकी लगभग 25 लाख आबादी है। इनमें से मंत्री सिर्फ सिर्फ तीन रमजान खान, यूनुस खान व हमीदा बेगम बने।
विधायक - 
1 जनाब अलम अली खान फतेहपुर 1978
2 रमज़ान खान चूरू राज्य मंत्री (पुष्कर) 1978,1990
3 भालू खान चूरू 1980
4 मोहतरमा हमीदा बेगम राज्य मंत्री (खुद कायमखानी नहीं, बोहरा मुस्लिम उदयपुर है व इक़बाल खान एलमान चूरू के साथ विवाह किया)चूरू 1985
5 भँवरु खान फतेहपुर 1998 से 2015
6 यूनुस खान डीडवाना कैबिनेट मंत्री 1904, 2013
7 हाकम अली खान फतेहपुर (वक्फ विकास परिषद राज्य मंत्री दर्जा) 2018 से
इसी प्रकार से राज्यसभा में कोई भी कायमखानी नहीं गया व लोकसभा में कैप्टन अयूब खान एक मात्र व्यक्ति दो बार झुंझुनु से सांसद व एक बार केंद्रीय मंत्री रहे।
अब तक राज्य मंत्री दर्जा - 
1. जनाब हिदायत खान धोलिया (मदरसा बोर्ड चैयरमेन 2007
2. जनाब सलावत खान हज कमेटी चैयरमेन 2015
3. जनाब हबीब खान गोराण लोक सेवा आयोग 2012
4. जनाब लियाकत खान IG वक़्फ़ बोर्ड चैयरमेन
5. जनाब खानु खान बुध्वाली वक़्फ़ बोर्ड चैयरमेन
5. जनाब रफ़ीक़ खान अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग चैयरमेन 
6. हाकम अली खां रोलसाहबसर वक्फ विकास परिषद चेयरमैन 
बने हैं। जो कि बहुत कम प्रतिनिधित्व है। सरपंच, कुछ 
प्रधान
1. मुस्ताक खान म्हरामपुरा
2. यासीन खान रोलसाहबसर
3. मुस्ताक खान भीलवाड़ा
चैयरमेन नगरपालिका/नगरपरिषद रावत खान लाडनू व जीवन खान सीकर बने हैं।
इसके अलावा सरपंच आदि भी बने हैं पर इनकी संख्या नगण्य है।

गुजारिश :-
एक ही सफ़ में खड़े हो गये महमूद ओ अयाज़
न   कोई   बन्दा।  रहा   न  कोई  बन्दा  नवाज़
अतः आवश्यकता है छोटे-छोटे फिरके झगड़े भुला कर समाज हित में अधिक से अधिक कार्य किया जावे।

संस्थाएं:-
1 राजस्थान कायमखानी महासभा मुख्यालय डीडवाना, 1979 (वर्तमान में आपसी मुक़दमे बाज़ी की वजह से 2लगभग 20 साल से राजस्थान कायमखानी महासभा अध्यक्ष व कार्यकारिणी के बिना लंबित पड़ी है।)
2 कायमखानी महासभा मुख्यालय जयपुर 2017
3 कायमखानी वेलफेयर ट्रस्ट जयपुर 2006
(युवा,महिला,बुद्धिजीवी संगठन की कमी)

सलाम - 
आपको यह बताते हुए खुशी हो रही है कि हमारे बच्चों का एक सामाजिक ग्रुप चलता है जिस का नाम है - कायमखानी सेना, आज इन लोगों ने चूरू जिले के 46 गांवों  के नाम लिखे हैं जहां हमारी कौम के लोग रहते हैं।

चूरु जिले के कायमखानी गांव
A चूरु तहसील
1 चूरु शहर
2 पिथीसर
3 झारिया
4 राणासर
5 घांघु 
6 सहजुसर
7 जसरासर
8 ऊंटवालिया
9 सहनाली
10 बिनासर
11 पोटी
12 खांसोली
13 रतननगर
14 थेलासर 
15 मेघसर 
16 आसलू 
17कड़वासर 
कुल 17

B तारानगर
1 राजपुरा
2 तारानगर
3 भालेरी
4 साहवा
कुल 04

C राजगढ़
1 राजगढ़ शहर
2 मोडावासी
3 रावतसर कुंजला
4 नेशल
कुल 04

D सुजानगढ़
1 सुजानगढ़ शहर
2 सोभासर
3 भांगीवाद
4 नोरंगसर
5 छापर
6 बाढ़सर
कुल 06

E बीदासर
1 दाडीबा
कुल 01+

F सरदारशहर
1 कालवासिया
2 कालूसर
3 बरजागसर
4 शिमला
5 कांनडवास
6 मेहरी
7 सरदारशहर
8 आसलसर
9 अजीतसर
10 मेलुसर
11 बायला 
कुल 11

G रतनगढ़
1 रतनगढ़ शहर
2 सैहला
3 मेनासर
4 कंनवारी
5 हामुसर
6 बीरमसर
7 बुधवाली 
8 पड़िहारा
9 सुलखनिया
10 खिलेरियां
कुल 09

कुल 17+04+04+06+01+10 +11
कुल 53 गांव

गांववार आबादी
1 गांव अनुसार आबादी
कायमखानी समाज चूरू
गांव राणासर
कुल घर
1 दौलतखानी  60
2 आलमान   27
3 जैनान   03
4 मलवाण  03
5 दायमखानी 17
6 जमालखानी   48
7 पहाड़ियान  25
8 हाथीखानी 16
9 मुनखानी  189
10 सलेमखानी  01
11 नसवाण  07
कुल कायमखानी घर 396
12 काजी         40
13 मीर            05
कुल मुस्लिम घर 441
आबादी लगभग 2800 कायमखानी
गफ्फार खान दौलतखानी
9950841439

2 गांव सहजुसर
कुल घर
1 दौलतखानी 147
2 फतन्यान 01
3 हाथीखानी 11
4 इसेखानी 04
5 दायमखानी 37
6 मलकान 49
कुल कायमखानी घर 248
7 काजी 13
कुल मुस्लिम घर 262
आबादी 1800
शमशेर भालू खां
9587243963

3 गांव ऊंटवालिया आबादी
कुल घर
1 जैनान ( भुरन्यान) 41
आबादी 450
 आदिल ऊंटवालिया 
8875305020

4 गांव खासोली चूरू
कुल घर
1 खानजादा 01
कुल कायमखानी घर 01
2 काजी 03
कुल मुस्लिम घर 05
आबादी 05
 तालीम हुसैन
9462252262

5 गांव खिलेरियाँ रतनगढ़
कुल 02 घर दायमखानी (सहजूसर वाले)
आबादी 20
अयूब खां दायमखानी 

06 गांव झारिया
कुल घर
1 आलमाण‌ 102
2 हाथीखानी 81
3 मुन्याण ‌. 18 
4 दौलतखानी 16
5 हबीबखानी 09
6 जमालखानी 06
7 दुलेखानी 04
8 मातवान 02
9 रूकनखानी 01
10 भाईखानी 01
कुल कायमखानी घर 240
11 काजी                  18   
12 मणीयार ‌              15    
13 व्यापारी              114
कुल मुस्लिम घर        387
अल्ताफ खा 
76270 40617

07 गांव बीनासर चूरू 
कुल घर
1. हाथीखानी 90
2. दौलतखानी 5
3. अखाण 1
कुल कायमखानी घर। 96
मनियार। 1
कुल मुस्लिम घर 97
मोहम्मद नासिर खान 
9828182878

08 गांव पिथिसर
भुवाण              60
दौलतखानी       55
जेनान भरुटिया  25
चायल              85
सामदखानी       05
हभीबखानी       06
आलमान          04
मोयल              05
इसेखानी          70
नसवान            22
एलमान            02
मलवान            03
मलकान           02
पाहड़ियान        02
जेनान मलकान  55
ताजनान            48
अखनान            10
दायमखानी         01
चौहान               04
दुलेखानी            20
कुल क़ायमखानी  484 
मीर                    50
नाई                    13
व्यापारी               21
काजी                 12
ढाढी मिरासी        08
कुल                  104
कुल मुस्लिम        588
जंगशेर खां भुवान
 97841 75176

कायमखानी शहीद 
शहीद मनवर खां मकराना 

1971 युद्ध में कायमखानी सैनिकों का बलिदान
दिसंबर चौदह और पंद्रह की रात 14 ग्रेनेडियर के 26 कायमखानी सैनिकों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी।
1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध भारतीय सैन्य इतिहास का ऐसा अध्याय है, जिसने भारत को निर्णायक विजय दिलाई और बांग्लादेश के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। इस युद्ध में भारतीय सेना के जवानों ने अद्भुत साहस का परिचय दिया। खासतौर पर राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में तैनात 14 ग्रेनेडियर रेजिमेंट के जवानों ने वीरता की नई मिसाल कायम की। इस रेजिमेंट में शामिल कायमखानी समाज के 62 जवानों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। 14 और 15 दिसंबर 1971 की रात को, लौंगेवाला के रणक्षेत्र में, जहां भारतीय सेना के पास सीमित संसाधन और हल्के हथियार थे, वहीं पाकिस्तान की ओर से भारी टैंकों और आधुनिक हथियारों से लैस सेना ने हमला किया। इसके बावजूद भारतीय सैनिकों, विशेष रूप से कायमखानी जवानों, ने दुश्मन की हर कोशिश को नाकाम करते हुए आखिरी सांस तक युद्ध लड़ा। उनके इस बलिदान ने न केवल दुश्मन की योजना को विफल किया, बल्कि भारतीय वायुसेना को जवाबी कार्रवाई के लिए समय दिया।
कायमखानी समाज, जो अपनी सैन्य परंपरा और देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध है, इस युद्ध में भी अपनी पहचान को और मजबूत कर गया। उनकी बहादुरी और बलिदान ने यह साबित किया कि मातृभूमि की रक्षा के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। लौंगेवाला के इस युद्ध में उनके शौर्य ने यह सुनिश्चित किया कि दुश्मन भारतीय सीमाओं को पार न कर सके। यह बलिदान केवल उनके परिवारों और समुदाय के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए गर्व की बात है। आज भी 14-15 दिसंबर को उनकी स्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है, और उनका बलिदान प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। 1971 का यह युद्ध न केवल भारत की विजय का प्रतीक है, बल्कि कायमखानी समाज के उन वीर जवानों की अमर गाथा भी है, जिन्होंने भारत की सुरक्षा और सम्मान के लिए अपने प्राणों की आहुति  दी। समाज तरफ से सभी शहीदों को खिराजे-अक़ीदत।
          सेना में उच्चतम सम्मान 
सुबेदार मेजर सबदल खान का स्टेचू डीडवाना - 
भारतीय सेना के इन्फंट्री डिवीजन की 4 ग्रनेडियर्स रेजिमेंट के सूबेदार मेजर श्री सबदल खॉं जी (मिलिट्री क्रोस) का डीडवाना सैनिक कल्याण बोर्ड में स्थापित स्टेच्यू। सुबेदार मेजर साब का ताल्लुक डीडवाना जिले में कायमखानियों का गढ कह जाने वाले सतावनी एरिया के ठिकाना निमोद से है।
अध्याय 14.
ऐतिहासिक धरोहर एवं जनकल्याण कार्य
01.नवाब जलाल खान का बीहड़ फतेहपुर, सीकर
नवाब जलाल खान ने 1479 से लेकर 1489 तक फतेहपुर पर शासन किया। पिता नवाब फतेह खान (फतेहपुर के प्रथम कायमखानी शासक एवं संस्थापक) की मृत्यु के बाद उनकी याद को चिरस्थाई बनाए रखने हेतु
यह बीहड़ राजस्थान के फतेहपुर सीकर के शासक नवाब जलाल ने गौ विचरण एवं वन्यजीवों के लिए छोड़ा था।
बीहड़ की सीमा निर्धारण हेतु 12 कोस का क्षेत्रफल की सीमा घोड़े पर चढ़ कर तय की गई थी, जहां जीवन के कई रंग दिखाई देते हैं। यह 36 किलोमीटर परिधि में 3796 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।
फतेहपुर कस्बे के दक्षिण दिशा में लक्ष्मणगढ़ - सीकर (राष्ट्रीय राजमार्ग 11, दिल्ली जैसलमेर) मार्ग के दोनों ओर फैला पक्षी एवं गौ अभ्यारण्य फतेहपुर कस्बे की आभा को दोगुना करता है।
बीहड़ छोड़ने की कहानी -
स्थानीय इतिहासकार प्रदीप पारीक के अनुसार फतेहपुर के दूसरे नवाब जलाल खान ने पिता की याद को चिरस्थाई रखने के लिए अभ्यारण्य छोड़ने की मंशा बनाई। इस हेतु क्षेत्र का नाप कैसे हो, इस समस्या के निदान हेतु एक घोड़ा छोड़ा गया। इसके पीछे सवार भेजे गए। नवाब जलाल खान ने तय किया कि यह घोड़ा जितनी परिधि में घूमकर वापस आएगा वही परिधि बीहड़ की सीमा होगी। यह घोड़ा लगभग 12 कोस की परिधि (36 किलोमीटर घूमकर वापस आया और इस विशाल बीहड़ क्षेत्र की सीमा आज भी वहीं है। 
जोहड़, कुएं ओर बावड़ियों का निर्माण- यहां के सेठ - साहूकारों ने कई कुएं और बावड़ियों का निर्माण करवाया गया।
1899 में अकाल के दौरान मजदूरों को कार्य देने के लिए इस इस जोहड़ का निर्माण करवाया था।
126 साल पुराना ऐतिहासिक जोहड़ा - 
इस अभ्यारण्य क्षेत्र से होते हुए अन्य क्षेत्रों से फतेहपुर आने वालों के लिए सन 1899 के राष्ट्रव्यापी (छप्पनियाँ) अकाल के समय सेठों ने मजदूरों को कार्य देने हेतु यहां एक जोहड़ का निर्माण करवाया। जहां पहुंचकर आमजन अपनी प्यास बुझाते हैं। आज से 125 साल बीत जाने पर भी यह जोहड़ा उसी भव्यता के साथ मनोरम आभा लिए खड़ा है।
बुधगिरी महाराज की मंडी (मंदिर) - 
इस बीहड़ में विशाल आध्यात्मिक केंद्र श्री बुध गिरिमंडी अवस्थित है, जहां भक्तजन दर्शन करने के लिए आते रहते हैं।
अन्य धार्मिक स्थलों में यहां ऐतिहासिक बालाजी धाम एवं जांगिड़ शक्तिपीठ स्वयं अपनी महिमागान करते हैं। यहां आने वाले भक्तजन शांत वातावरण में प्रकृति का आनंद लेते हैं।
वन्यपशु एवं पक्षी विहार - 
इस बीहड़ में चिंकारा, नीलगाय, हरिण, गाय, लोमड़ी, खरगोश, जरख, गीदड़ सहित अन्य पक्षी मोर, तीतर, बटेर, चिड़िया, तोता, कोयल सहित कई पशु - पक्षियों का बसेरा है।
भेड़ प्रजनन केंद्र -
विशाल क्षेत्र में फैले इस भेड़ प्रजनन केंद्र में चोकला एवं अन्य भेड़ की नस्लों के सुधार हेतु अनुसंधान किया जाता है।
बीज उन्नति केंद्र -
इस बीहड़ क्षेत्र में बीज अनुसंधान एवं उन्नति केंद्र भी स्थापित किया गया है, जहां स्थानीय वातावरण में नई किस्म के बीज उत्पादन हेतु अनुसंधान किया जाता है।
स्थानीय रोजगार - 
यह बीहड़ कैर, सांगरी, पीलू, गोंद, लकड़ी एवं जड़ी बूंटियों का गढ़ है।
स्थानीय लोग राजमार्ग पर जगह - जगह इस बीहड़ से प्राप्त सामग्री तोड़ कर बेचते नजर आते हैं।
पर्यावरण संरक्षण - 
आज से लगभग साढ़े पांच सौ साल पहले जीव दया और पर्यावरण संरक्षण स्थानीय शाशको की लंबी सोच का द्योतक यह बीहड़ आज शहरी एवं अन्य पर्यावरणीय समस्याओं का निदान करता है। विश्व पर्यावरण संगठन द्वारा 33% भू - भाग पर वृक्षारोपण की अनिवार्यता आज की गई है जिसे हमारे बुजुर्गों ने सदियों पहले साकार कर दिया था।
बीहड़ क्षेत्र पर बढ़ता अतिक्रमण एक समस्या - 
इस क्षेत्र पर जगह - जगह अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है। भू - माफिया इस बेशकीमती जमीन को धार्मिक अथवा अन्य रंग दे कर हड़पना चाहते हैं। सरकार को चाहिए कि इस बीहड़ को पूर्णतया अतिक्रमण मुक्त कर स्थाई बाड़/दीवार का निर्माण करवाया, जिस से आने वाली पीढ़ियों का भविष्य उज्ज्वल हो सके।


आप अपना कमेंट दे कर सही तथ्य देने हेतु सादर आमंत्रित हैं। जिससे यदि कोई बदलाव है तो किया जा सके।

I Proud to be a kayamkhani 
एक कायमखानी परिवार का शिजरा
संदर्भ एवं साभार - 
1. मोहिल वंश का इतिहास द्वारा रतन लाल मिश्र 
2. राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
3. जनाब बहादुर खान मोहिल लाडनूं 
4. हमीद खान मोयल लाडनूं 
5. रणजीत खां पहाड़ियान जोधपुर
6. सतार खां मोयल चूरू 
7. शब्बीर खान खोखर, जोधपुर लेखक खोखर वंश का इतिहास
8. इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इण्डिया।
9. इतिहासकार फरिश्ता की क्रानिकल रिर्पोट।
10. कायमखानी वंश का शोधपूर्ण इतिहास, महबूब अली खान एलमांन, चूरू
11. कायमखानी कल ओर आज, कुंवर सरवर खान, डीडवाना
12. राजपूत कायमखानी, ताज मोहम्मद खान, तांडोंअहल्यार, पाकिस्तान
13. जाटलैंड
14. पुस्तक पंजाबी अतीत एवं वर्तमान।
15. ब्रिटानिका इन्साइक्लोपोडिया।
16. मुहणोत नेणसी री ख्यात पृष्ठ संख्या 99,196
 17. डॉ. दशरथ शर्मा (कायम रासो पृष्ठ संख्या 1
 18. मरु भारत लेखक - पंडित झाबरमल शर्मा पृष्ठ
 संख्या 1 से 3 
19. सीकर का इतिहास - पंडित झाबरमल शर्मा पृष्ठ संख्या 64
20. एक अधूरी कहानी -श्री सहीराम पेज 4 से 5
21. शेखावाटी का नवीन इतिहास श्री रतन लाल मिश्र निवासी मंडावा झुंझुनूं पृष्ठ संख्या 71,75 से 77,79 से 80, 84 से 87, 89- 91, 93,95 से 96,100
22.  सर्वतीर्थ माला - सिद्धसेन सूरि सन 966 वर्ष 7 अंक 1
23. शिलालेख - चित्तोड़ (5 E.I .II 41)
24. कुंभलगढ़ (विलेख) 1460 - जिल्द 24 पृष्ठ संख्या 278
25. कायमखानी कल ओर आज -कुंवर सरवर खान
26. कायमखानी वंश का शोधपूर्ण इतिहास - महबूब खान एलमान ,चूरू
27. कायमखानी वंश का इतिहास - वाजिद खान जसरासर ,चूरू
28. कायमखानी राजपूत - ताज़ मोहम्मद खान (हैदराबाद, पाकिस्तान)
29. कायम रासो - जान कवि
30. वाक़ियात क़ोम कायमखानी
31. जेनान वंश का इतिहास - रणजीत खान पहाड़ियान,जोधपुर
32. सोहेल महबूब खा चायल, चूरू (इतिहास छात्र)
33. चंगोई गढ़ - तंवर (तोमर) वंश की उत्पत्ति और इतिहास
34. भारतकोश - जाटों का सामान्य इतिहास और उत्पत्ति
35. जटवाड़ा - जाटों की उत्पत्ति और ऐतिहासिक महत्व

लेखक एवं संपादक - 
  जिगर चुरुवी
शमशेर भालू खान 
9587243963

No comments:

Post a Comment