भैंस से संबंधित कहावतें -
1. गई भैंस पानी में - नुकसान होना।
2. भैंस के आगे बीन बजाना - बेकार में परिश्रम करना।
3. भैंस - काली स्त्री।
4. भैंसा/पाडा - मोटा पुरुष
5. भैंस का गोबर है सूखता सा सूखेगा - धीमी प्रगति।
6. काला अक्षर भैंस बराबर - कोई जानकारी नहीं होना, अनभिज्ञ।
7. भैंस अपना रंग नहीं देखती छाते को देख कर डरती है - खुद की कमियों के स्थान पर दूसरों में कमियां ढूंढना।
8. भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खड़ी पगुरावै - ध्यान नहीं देना।
9. शलू सटे भैंस काटना - स्वयं की स्वार्थपूर्ति करने हेतु अन्य का बड़ा नुकसान करना।
10. खूंटे की भैंस - प्रतिष्ठित
11. गाय की भैंस क्या लगती है - सभी प्रकार के संबंध विच्छेद करना।
भैंस के लिए गांवों में एक लोकोक्ति है -
गाय माता गंवत्री बाछो गणेश
भैंस राँड भूतणी पाडो पलीत।
भैंस के नाम -
भैंस का बच्चा
नर - कटड़ा, पाड़ा
मादा - कटड़ी, पाड़ी
वयस्क -
नर - भैंसा
मादा - भैंस
अंग्रेजी - Buffello
भैंसें का वैज्ञानिक वर्गीकरण -
जगत - जन्तु
संघ - रज्जुकी (कार्डेटा)
वर्ग - स्तनधारी
गण - आर्टियोडक्टाइला
कुल - बोवाइडी
उपकुल - बोवाइनी
वंश समूह - बोविनी
वंश - बुबालस
जाति - बी. बुबालिस
द्विपद नाम - बुबालस बुबालिस
भैंस के विषय में पौराणिक किवदन्ती
दन्त कथा कि राक्षसो के राजा रंभा को एक भैंस से प्रेम हो गया और उसने उस भैंस से शादी कर ली जिससे महिसासुर की उत्पत्ति हुई जिसके सिर में भैंस के सींग थे। वह अधिक शक्तिशाली था। पूजा के बल पर यह वरदान ले रखा था कि उसे कोई पुरुष न मार सके इसलिए उसने देवताओं को मारना शुरु कर दिया। देवताओं ने देवी दुर्गा की उत्पत्ति की जिसने महिसासुर का दशहरे के दिन वध कर दिया। इसलिए देवी दूर्गा को पूजा जाता है। यह घटना 245 ईसवीं पूर्व की है। सम्राट अशोक के राज्य में महिसा मण्डल नामक स्थान पर युद्ध हुआ।
भैंस की उत्पत्ति -
भैंस की उत्पत्ति भारतीय उपमहाद्वीप में हुई। इतिहासकारों के अनुसार भैंस को 2,500 ईसा पूर्व (5000 वर्ष पूर्व) मेसोपोटामिया में पालाना शुरू किया गया। भैंस शाकाहारी जीव है, जो भोजन में घास, पत्ते और अन्य जलीय पौधे लेती हैं। भारत में सिंधु घाटी सभ्यता काल में भैंसों का पालन किया जा रहा है। वर्तमान में दूध,मांस और चमड़े के लिए भैंस पालन भारत, पाकिस्तान, चीन, भूमध्यसागरीय देशों, पूर्वी यूरोप के देशों, और लैटिन अमेरिका के कई देशों में किया जाता है। विश्व की 95% भैंस एशिया महाद्वीप में पाली जाती हैं।
भैंसें कठोर जलवायु परिस्थितियों में भी जीवित रह सकती हैं।
भैंस बोविडे परिवार का हिस्सा हैं, जो सींग द्विखुर वाले स्तनधारियों का वर्ग है।
भैंस दुधारू पशु है। किसान के लिए भैंस एक बहु उपयोगी पशु है। भैंस को मुख्य रूप से दुग्ध उत्पादन तथा नर भैंसों को कृषि कार्य एवं बोझ ढोने हेतु पाला जाता है। वैज्ञानिक भैंस को ब्लेक डायमंड कहते हैं। पशुपालक भैंस की अच्छी नस्ल सम्बंधी उन्नत तकनीकी जानकारी प्राप्त करके ही भैंस पालन को बढ़ावा दे सकते हैं।
भैंस के दूध में गाय के दूध की तुलना में अधिक पोषक तत्व एवं गुण होते हैं। भैंस के दूध में वसा, लैक्टोज, प्रोटीन, कैल्शियम और विटामिन ए और सी का स्तर अधिक होता है, जबकि विटामिन ई, राइबोफ्लेविन और कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम होता है। कैरोटीन नहीं पाया जाता है, और बायोएक्टिव पेंटासेकेराइड और गैंग्लियोसाइड होते हैं जो गाय के दूध में मौजूद नहीं होते हैं। वसा की गोलियाँ बड़ी होती हैं, लेकिन गाय के दूध की तुलना में उनमें कम झिल्ली सामग्री होती है। हालाँकि, भैंस की विशिष्ट नस्ल दूध की संरचना को प्रभावित करती है।
भैंसों की नस्लें -
आम तौर पर भैंस की तीन नस्लें होती हैं: जल भैंस, केप भैंस और एनोआ। भैंस की ये सभी नस्लें अपनी उत्पत्ति और विशेषताओं में अलग-अलग हैं। इन्हीं में से उप नस्ल मुर्रा, टोडा, जाफराबादी व सुरती मुख्य हैं। भारत में मुख्यत भैंस की अप नस्ल में मुर्रा, सुरती, जाफराबादी, मेहसाना, भदावरी, गोदावरी, नागपुरी व सांभलपुरी आदि।
विश्व की समस्त भैंसों को मुख्य रूप से 2 वर्गों में बांटा गया है -
1. अफ्रीकन
2. एशियन
एशियन भैंसों को पुनः दो वर्गों में बांटा गया है -
1. जंगली
2. पालतू
पालतू एशियन भैंस को पुनः दो वर्गों में बांटा गया है -
1. रिवर (नदी) भैंस - रिवर भैंसे मुख्य रूप से अधिक दूध देने वाली होती है रिवर भैंसे भारत पाकिस्तान तथा मध्य पुर्वी एशियाई देश जैसे युनान, दक्षिण पूर्वी यूरोप, इटली तथा सोवियत देशों में पाई जाती हैं।
2. स्वेम्प (दलदल) भैंस - स्वैम्प भैंस मलेशिया, सिंगापुर, बर्मा, लाओस, कंबोडिया, इंडोनेशिया, वियतनाम , थाईलैंड, फिलीपींस, ताईवान, चाइना हांगकांग तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया के काफी भाग में पाई जाती है।
1. जल भैंस -
जल भैंस को एशियाई भैंस के रूप में जाना जाता है जो एशिया, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका और यूरोप सहित चार अलग-अलग महाद्वीपों में पाई जाती हैं। जल भैंस का पसंदीदा निवास स्थान दलदली भूमि है, शरीर के तापमान को नियंत्रित करने हेतु दिन का बड़ा हिस्सा पानी में बिताती है। भैंस के शरीर में पसीने की ग्रंथियाँ नहीं होती हैं। पानी में डूबे रहने से निवास स्थान में मौजूद कीड़ों और अन्य कीटों से भी सुरक्षित रहती हैं। जल भैंस की चमड़ी मोटी होती है एवं रंग भूरा, काला या स्लेटी होता है। इसका वजन लगभग 600 से 1000 किलो होता है और लगभग छह फीट लंबाई होती है। नर के सींग मादा से लंबे होते हैं जिनकी लंबाई लगभग पाँच फीट होती है।
2. केप भैंस (जंगली) -
केप भैंस को अफ्रीकी भैंस भी कहा जाता है जो दक्षिण और पूर्वी अफ्रीका में पाई जाती हैं। इनका मूल निवास स्थान सवाना घास का मैदान है जो उन्हें बहुत लाभ पहुँचाता है। केप भैंस सैकड़ों के झुंड में रहती हैं। वे एक-दूसरे के प्रति बेहद सुरक्षात्मक एवं वफादार होती हैं। झुंड के किसी एक सदस्य को खतरा होता है तो सभी एकजुट हो कर हमला करते हैं। केप भैंस बड़े स्तनधारी होते हैं, जिनका वजन 400 से 600 किलो होता है ऊंचाई लगभग 5.5 फीट तक होती है। केप भैंस का रंग गहरे भूरे या काला होता है। इनकी कुछ प्रजातियाँ लाल रंग की भी हो सकती हैं।
3. एनोआ भैंस -
एनोआ बौने भैंसों की एक नस्ल है जो केवल इंडोनेशिया के द्वीपों पर पाई जंगली जानवर के रूप में पाई जाती है। यह तालाबों व कीचड़ में समय बिताना पसंद करती हैं। भैंसों की अन्य नस्लों के विपरीत, एनोआ ऐसी अकेली नस्ल है जिसके समूह में लगभग पाँच सदस्य होते हैं। यह आकार में बहुत छोटा होता है, जिसकी लंबाई लगभग 2.5 फ़ीट और वजन लगभग 80 से 100 किलो होता है। युवा एनोआ के पास पीले-भूरे रंग का मोटा फर होता है, जो बड़े होने पर भूरा या काला हो जाता है। बौने भैंसों के पास पानी की भैंस और केप भैंसों की तरह बड़े, लंबे सींग नहीं होते हैं। उनके सींग छोटे और खंजर जैसे नुकीले होते हैं।
एशियाई जंगली भैंस -
इनकी संख्या लगातार कम हो रही है, जो घटते हुए 4000 से भी कम रह गई है। एक सदी पहले तक पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में बड़ी संख्या में पाये जाने वाला जंगली भैंसा आज केवल भारत, नेपाल, बर्मा और थाईलैंड में ही पाया जाता है। भारत में काजीरंगा और मानस राष्ट्रीय उद्यान में ये पाया जाता है। मध्य भारत में यह छ्त्तीसगढ़ में रायपुर और बस्तर में पाया जाता है। जंगली भैंस की एक प्रजााति जिसके मस्तक पर सफेद निशान होता है, पहलेे मध्यप्रदेश के वनों में भी पाई जाती थी। छ्त्तीसगढ़ में इनकी संख्या केवल आठ रह गई है, जिन्हे संरक्षित कर प्रजनन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस पर समस्या आई कि आठ में सात नर और एक मादा है। मादा भैंस पर भी स्थानीय ग्रामीण ने दावा किया कि यह उसकी पालतू भैंस है। ग्रामीण को मुआवजा दे कर समस्या का समाधान किया गया। इस पर एक समस्या और आ गई कि मादा ने दो बार में केवल नर भैंस को ही जन्म दिया है। सरकार ने उद्यान में महिला संचालिका की नियुक्ति की है जिससे मादा भैंस को मादा भैंस जन्मने हेतु प्रोत्साहित किया जा सके परन्तु अभी तक ऐसा नहीं हो सका। मादा पूरे जीवन काल में 5 शावकों को जन्म देती है, इनकी जीवन अवधि 9 वर्ष होती है। नर दो वर्ष की उम्र में झुंड छोड़ देते हैं। जंगली भैंस का प्रजनन काल बारिश के मौसम के अंत में होता है। मादा जंगली भैसें और बच्चे झुंड में रहते है। नर झुंड से अलग रहते हैं। यदि झुंड की कोई मादा गर्भ धारण हेतु संसर्ग करने बाबत तैयार होती है तो सबसे ताकतवर नर उसके पास किसी और नर को नहीं आने देता। यह नर आम तौर पर झुंड के आसपास रहता है। बच्चे की मां मर जाने पर दूसरी मादायें उसे अपना लेती हैं। जंगली भैंस का स्वभाविक शत्रु बाघ है। कमजोर बूढ़ा या बीमार होने पर जंगली कुत्तों और तेंदुओं को भी इनका शिकार हो जाते हैं। जंगली भैंस को सबसे बड़ा खतरा पालतू मवेशियों की संक्रमित बीमारियों से होता है जिसमें प्रमुख बीमारी फ़ुट एंड माउथ है। रिडंर्पेस्ट नाम की बीमारी ने एक समय इनकी संख्या में बहुत कमी ला दी थी।
भारत में भैंस -
भारत में प्रति 1,000 मनुष्यों पर 95 भैंसें हैं। भैंस अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनका भारत में कुल दूध उत्पादन का 56% और विश्व के दूध उत्पादन का 64% हिस्सा है। साथ ही मांस, चमड़ा, हड्डी भी औद्योगिक विकास की रीढ़ है। भैंस के गोबर से जलावन (थेपड़ी - छाणा) और खाद तैयार की जाती है।
भारत में भैंसों की आबादी 105 मिलियन है, और 26.1% आबादी उत्तर प्रदेश में रहती है। भारत में फेनोटाइपिक विशेषताओं वाली कुल 20 नस्लों में से नो किस्में -
1. मुर्रा
2. नीली-रावी
3. सुरती
4. जाफराबादी
5. भदावरी
6. मेहसाणा
7. नागपूरी
8. टोडा
9. पंडारपुरी हैं।
राजस्थान में भैंसों की संख्या 12.97 मिलियन है। भारत दुग्ध उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान पर है, हमारे देश में भैंस की तेरह नस्लें पाई जाती है। भैंसों की नस्ल के आकार के अनुसार तीन भाग- भारी, माध्यम और हल्की श्रेणी में विभाजित किया गया है।
भारत में 20वीं पशुगणना के अनुसार भैंसो की कुल संख्या 109.85 मिलियन है। देश में कुल पशुधन आबादी 535.78 मिलियन है जो पशुधन गणना- 2012 की तुलना में 4.6 प्रतिशत अधिक है।
भारत में वर्तमान में पोल्ट्री और पशुओं की कुल 220 देशी नस्लें हैं। पहले, कुल 212 नस्लें पंजीकृत थीं। दिसम्बर 2023 में, 8 नई नस्लों को पंजीकृत किया गया है। जिससे कुल पंजीकृत नस्लों की संख्या 212 से बढ़कर 220 हो गई थीं। पशु गणना 2025 के अनुसार अभी 229 पशु एवं पोल्ट्री नस्लों की गणना की जा रही है।भारत में वर्तमान में भैंसों की कुल पंजीकृत नस्ल 20 है।
भदावरी -
इस नस्ल का मूल स्थान उत्तर प्रदेश के आगरा जिले का भदावर गांव है। इसके अलावा यह यमुना चंबल की घाटी में बसे इटावा ग्वालियर के क्षेत्रों में भी पाई जाती है। इसकी मुख्य विशेषता मध्यम आकार, तांबे जैसी लालिमा लिए बदामी रंग है। गर्दन के निचले हिस्से पर दो सफ़ेद रेखाएँ होती हैं, इन का शरीर मध्यम आकार का व आगे से पतला एवं पीछे से चौड़ा होता है। सींग चपटे मोटे तथा पीछे की ओर मुड़ कर ऊपर अंदर की ओर होते हैं। उस्टी छोटी होती है, जिस पर दूध की शिराएं उभरी रहती हैं। वजन में नर 400 से 500 के किलो तथा मादा 350 से 400 किग्रा. होती हैं। प्रथम ब्यांत की उम्र 48 से 54 माह है। इस नस्ल के मादा पशुओं की दुग्ध क्षमता 900 से 1200 किलो प्रति ब्यांत एवं दूध में वसा की मात्रा 12 से 14% होती है। यह अन्य भैंस की तुलना में बीमारी और गर्मी के प्रभावों के प्रति अधिक प्रतिरोधी होती हैं, जो उन्हें पालतू जानवर के रूप में आदर्श बनाता है।
भदावरी भैंस विशेष रूप से दूध में पाए जाने वाले मक्खन की उच्च मात्रा के लिए प्रसिद्ध है जो 6.0 से लेकर 12.5% तक होती है। इसके दूध में मौजूद मक्खन की अपेक्षाकृत उच्च प्रतिशतता पशु आहार को मक्खन में परिवर्तित करने की क्षमता के कारण है। भदावरी भैंस का पालन लाभप्रद होने के कारण कई विकासशील देशों के किसानों को भैंसों की सबसे अच्छी मांस और दुधारू नस्लों में से एक, मुर्राह नस्ल के साथ उनका प्रजनन कराने के लिए आकर्षित करती है।
बुल्गारिया, फिलीपींस, थाईलैंड, मलेशिया और नेपाल जैसे कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के पशुधन उद्योग में वृद्धि हेतु भदावरी और मुर्राह की परिणामी संकर नस्ल अन्य कम उपज देने वाली नस्लों के दूध उत्पादन को बढ़ाती है।
भदावरी मुख्य रूप से मोटे चारे, भूसे, मकई के उत्पादों, जौ या गेहूं के भूसे, मकई के डंठल, ज्वार और गन्ने के अवशेषों जैसे मोटे चारे पर जीवित रहते हैं। विकट परिस्थितियों में, भदावरी कम गुणवत्ता वाले फसल अवशेषों और हरे चारे पर जीवित रह सकती है।
वर्ष 2002 में झांसी के भारतीय चरागाह और चारा अनुसंधान संस्थान में, भदावरी के झुंड को पोषण संबंधी आवश्यकताओं का गहन अध्ययन किया। जिसमें भैंस की जन्म दर पर जलवायु का प्रभाव संबंधी आंकड़े लिए गए। परिणामों से पता चला कि वर्षा ऋतु (जुलाई-सितंबर) और शरद ऋतु (अक्टूबर-नवंबर) में 70% से अधिक सर्वाधिक प्रजनन हुआ। सर्दियों में यह दर सबसे कम 15.48% और गर्मियों में 4.88% रही। इन परिणामों की तुलना मिस्र के प्रजनन संबंधी आंकड़ों से की गई। भदावरी की प्रजनन दर आहार की तुलना में जलवायु परिवर्तन पर अधिक निर्भर करती है। वर्ष 2008 में चार भारतीय भैंस नस्लों की तुलना में, भदावरी में मुर्रा की तुलना में वसा नहीं बल्कि अधिक ठोस पदार्थ पाए गए, जिसमें वसा, कुल प्रोटीन और कैसिइन तत्व की अधिकता थी।
मुर्रा भैंस -
काले रंग की चमकदार चमड़ी वाली मुर्रा भैंस अविभाजित पंजाब मूल की है। मुर्रा का उत्पत्ति स्थान हिसार से दिल्ली के मध्य माना जाता है जो अब दूसरे राज्यों व देशों (इटली, बुल्गारिया, मिस्र एवं फिलिपिंस) में पाली जाती है। हरियाणा में मुर्रा को काला सोना कहा जाता हैै। मुर्रा के दूध में वसा की मात्रा (7%) भदावरी के बाद सर्वाधिक होती है। इसके सींग छोटे एवं जलेबी आकार में मुड़े होते हैं। इस भैंस का रंग काला व सर छोटा होता है। इसके सर, पूँछ और पैर पर सुनहरे रंग के बाल पाये जाते हैं। इनकी पूँछ लम्बी तथा पिछला भाग सुविकसित होता है। इसकी उस्टी विकसित, थन दूर - दूर तक होते हैं, तथा दूध शिराएँ उभरी होती हैं। यह उत्तरी राजस्थान के जयपुर, बिकानेर, जोधपुर, अजमेर तथा कोटा संभाग में पाई जाती है। इनकी त्वचा मुलायम व शरीर भारी होता है। यह नस्ल विश्व के दूध देने वाली भैंसों में से एक श्रेष्ठ नस्ल है। मादा का वजन 500-550 किलो तथा नर 500 से 600 किलो का होता है। मुर्रा भैंस की गर्भावधि 310 दिन हौती है, प्रथम ब्यांत की उम्र 36 - 48 माह होती है। मुर्रा भैंस एक ब्यात में लगभग 13 से 16 लीटर दूध देती है।
नीली रावी भैंस -
निली - रावी नस्ल भारत और पाकिस्तान में पाई जाने वाली जलीय/नदीय भैंस की नस्ल है। इसका नाम “नीली-रावी” पंजाब क्षेत्र के नीलम और रावी नदियों के नामों से मिलकर बना है। नीली रावी भैंस का जन्म स्थान पंजाब राज्य से माना जाता है। इस नस्ल की मुख्य विशेषता है इसकी उच्च दूध उत्पादन क्षमता पर मुख्य कमी यह है कि इसके दूध में फैट की मात्रा कम होती है।
यह नस्ल पंजाब के अमृतसर के रावी, नीली तथा सतलज नदियों के क्षेत्र में पाई जाती है। सतलज नदी का पानी नीला है इसलिए इस नस्ल का नाम भी नीली रखा है। नीली रावी मुर्रा भैंस का ही रूप है।
नीली रावी भैंस पंजाब, राजस्थान (श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर), हरियाणा (हिसार, रोहतक) दिल्ली आदि राज्यों में पाई जाती है। भारत के अलावा चीन, बांग्लादेश, फिलिपींस, श्रीलंका, ब्राज़िल, और वेनेजुएला में भी पाई जाती है। यह एक प्रसिद्ध डेयरी नस्ल है।
नीली रावी भैंस के शरीर (सिर, पूँछ, मजल, चेहरे और पैरों ) पर 5 सफेद निशान पाए जाते है जो इस नस्ल की मुख्य पहचान है। इसी कारण नीली रावी भैंस को पंचभद्रा या पंचकल्याणी के नाम से जाना जाता है।इसका रंग काला या हल्का भूरा, सींग छोटे व मुड़े हुए, आंख बिल्ली जैसी कजरारी, पूँछ लंबी जिसके अंतिम सिरे पर सफेद बालों का गुच्छा होता है। नीली रावी भैंस
नीली रावी भैंस ब्यांत के 378 दिन में 6538 लीटर दूध उत्पादन क्षमता के कारण भारत और पाकिस्तान के किसानों की प्रथम पसंद है।
नीली रावी भैंस के महत्व को डेयरी फार्मो में उजागर करने के लिए केंद्रीय भैंस अनुसंधान संस्थान हर वर्ष कार्यक्रम और मेलों का आयोजन करता है। यह केंद्र नीली रावी और मुर्रा नस्ल की भैंसों नस्ल के संरक्षण और सुधार हेतु समर्पित है।
जाफराबादी (गिर) भैंस -
जाफराबादी भैंस या गिर भैंस पालतू नदी भैंस है जो भारत के गुजरात में उत्पन्न हुई। यह भारत और पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भैंस नस्लों में से एक है। वर्ष 2017 में भारत द्वारा ब्राजील को निर्यात की जाने वाली यह पहली भैंस नस्ल है। जंतु शास्त्रियों के अनुसार जाफराबादी भैंस अफ्रीकी केप भैंस और भारतीय जल भैंस का संकर रूपांतरण है। यह संकर भैंस जाफराबाद में व्यापक रूप से मौजूद हैं इसलिए इन्हें जाफराबादी भैंस नाम दिया गया। जाफराबादी भैंसों के सिर भारी होते हैं और उनके सींग काफी बड़े, मोटे, सपाट होते हैं, जो गर्दन के किनारों पर गिरते हैं और कानों तक ऊपर की ओर जाते हैं।
यह जल भैंसों की उन नस्लों में से एक है जो गिर वन राष्ट्रीय उद्यान में पाई जाती हैं।
सूरती भैंस -
सुरती भैंस के अन्य नाम दक्कनी, गुजराती, नाडियाडी हैं। भारत के गुजरात (आणंद, खेड़ा और बड़ौदा, नादियाड) जिलों में माही और साबरमती नदियों के बीच व दक्षिणी राजस्थान में पाई जाती हैं। इसका आकार मध्यम, रंग भूरा या हल्का काला रंग, सींग छोटे दरांती की आकृति के व चपटे होते हैं जो नीचे और पीछे की दिशा में और फिर ऊपर की ओर बढ़ते हैं जो हुक बनाते हैं। नर का वजन 450 से 500 किलो व मादा 350 से 400 किलो होता है। इसकी प्रथम ब्यांत अवधि 42 से 48 माह होती है।
इसकी औसत दूध की पैदावार 1,600 से 1,800 लीटर है जिसमें वसा की मात्रा लगभग 8-10% होती है। सुरती भैंस मध्यम आकार की शांत स्वभाव वाली होती है। इस नस्ल का सर चौड़ा और लंबा होता है, जिसके सींगों के बीच ऊपर की ओर एक उत्तल आकृति होती है। सुरती नस्ल की पीठ सीधी होती है। दूध उत्पादन प्रथम ब्यांत में 1500 से 1600 लीटर बाद में 1900 से 2000 लीटर, वसा की मात्रा 7 से 7.5%, एसएनएफ की मात्रा 9 से 9.15% ब्यांत हेतु व्यस्कता 45 से 47 महीने, गर्भकाल 400 से 425 दिन, प्रजनन काल सितंबर से अप्रैल तक होती है।
रोमानियाई भैंस
रोमानियाई भैंस रोमानिया की भूमध्यसागरीय नदी भैंस नस्ल है। इसका अन्य नाम बिवोल रोमन्स है। नर का भार 650 से 680 किलो मादा का भार 530 से 560 किलो एवं ऊंचाई नर 140 से 142 सेमी, मादा 131से 133 सेमी होती है। इसका रंग तांबे जैसा होता है। इसकी पीठ की रेखा घुमावदार होती है। इसके सींग पीठ की ओर होते हैं, जो 50 से 70 सेमी लंबे होते हैं। वर्ष 1960 में बुल्गारियन भैंस से मुर्रा भैंस का संकरण किया गया।
रोमानियाई भैंस की तीन पृथक नस्ल हैं। 1. कार्पेथियन
2. डेन्यूबियन भैंस
3. भारतीय मुर्रा भैंस के माध्यम से सुधारित संकर नस्ल।
कार्पेथियन -
सबसे अधिक रोमानियाई भैंस कार्पेथियन प्रकार की हैं, जो एक मूल्यवान आनुवंशिक संकरण हैं। यह ठंडी जलवायु में भी अनुकूलित हो सकती हैं। इसमें अधिक मात्रा में दूध और मांस उत्पादन के साथ भार वहन करने की अत्यधिक शक्ति होती है। दूध उत्पादन क्षमता 958 से 1455 लीटर होती है। वर्ष में 252 से 285 दिन दूध देती है। गर्भधारण योग्य उम्र 38 से 42 महीने है जो 6 से 9 बार ब्याती है। गर्भधारण के 456 दिन में ब्याती है। दूध में वसा 7.48% और प्रोटीन 3.93% है।
सरकार का कृषि, वन और ग्रामीण विकास मंत्रालय कार्पेथियन भैंस के संवर्धन और संरक्षण हेतु प्रयासरत है।
मेहसाणा भैंस -
मेहसाना भारत के गुजरात राज्य की एक जल भैंस की नस्ल है। यह मुर्रा और सुरती का संकरण है अतः इसमें दोनों के गुण एवं विशेषताएं पाई जाती हैं। यह भारत में सबसे अच्छी दूध देने वाली नस्लों में से एक मानी जाती है। इनका नाम उत्तरी गुजरात के मेहसाना शहर के नाम पर रखा गया है।
नर भैंस का औसत भार 570 किलो व मादा का भार 430 किलो होता है। इसका रंग एकदम काला (जेट ब्लैक) होता है।
नागपुरी भैंस -
नागपुरी भैंस (नदी भैंस) नागपुर क्षेत्र महाराष्ट्र में उत्पन्न हुई। यह भैंसों प्रतिकूल जलवायु परिवर्तन (विदर्भ की कठोर-अर्ध-शुष्क परिस्थिति) पर भी अधिकतम दूध देती है। इसे बेरारी, गौरानी, पुरनथड़ी, वरहाड़ी, गाओलवी, अरवी, गाओलागण, गंगौरी, शाही एवं चंदा नाम से भी जाना जाता है। इसका रंग काला (उप नस्ल पुरनथडी का रंग थोड़ा भूरा), सींग लंबे कंधे तक ऊंचाई लिए, औसत ऊंचाई नर - 145 सेमी, मादा 135 सेमी औसत वजन नर 525 किलो, मादा 425 किलो होता है।
इस नस्ल की भैंस का प्रति ब्यांत औसत दूध उत्पादन 1050 लीटर है। दूध में वसा 7.0 से 8.8% तक होती है।
टोडा भैंस -
तमिलनाडु में नीलगिरी की पहाड़ियों में पाई जाने वाली अर्ध-जंगली भैंस नस्ल का नाम (प्राचीन जनजाति टोडा के नाम पर) टोडा भैंस है।
टोडा भैंस की विशेषताएं -
टोडा भैंस का रंग हल्का/गहरा सलेटी, शरीर छोटा एवं चौड़ा, माथा चौड़ा, सींग लंबे और अर्धचंद्राकार, पूंछ छोटी, पैर छोटे व मज़बूत होते हैं।
यह भैंस प्रति ब्यांत औसत 500 लीटर दूध देती है जिसमें वसा और प्रोटीन अत्यधिक होता है। वर्तमान में टोडा भैंसों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है जिसका कारण है नीलगिरी में घास के मैदानों (चरागाहों) का सिकुड़ता क्षेत्र, जंगल में बाघ/शेर/ अन्य जंगली जानवरों की शिकार बन जाती हैं।
पंढरपुरी भैंस -
भारत के सोलापुर, कोल्हापुर, सतारा और सांगली के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाने वाली नदी भेंस की नस्ल है। सोलापुर के पंढरपुर कस्बे के नाम से यह नस्ल प्रसिद्ध है जिसका अन्य नाम धारवाड़ी भी है। इसका औसत वज़न नर 510 किलो मादा 425 किलो, ऊंचाई नर 135 सेमी मादा 130 सेमी, रंग काला, सींग 60-100 सेंटीमीटर लंबे (घरेलू मवेशि श्रेणी में सबसे लंबे सींग) होते हैं। दूध देने की अवधि 305 दिन, ब्याने का अंतराल 465 दिन व दूध उत्पादन 1400 लीटर। दूध में प्रोटीन और कैल्शियम भरपूर मात्रा में होता है पर वसा की मात्रा कम होती है।
केन्द्रीय भैंस अनुसन्धान संस्थान, हिसार -
हरियाणा सरकार के अन्तर्गत संतान परीक्षण सांड फ़ॉर्म पंजाब सरकार से नीली - रावी भैंस फ़ॉर्म के हस्तांतरण द्वारा दिसम्बर 1987 में बीर दोसांझ, नाभा, जिला पटियाला, पंजाब में एक उप-परिसर की स्थापना की गैइ। मुख्य परिसर ने अत्यधिक अच्छी नस्ल के मुर्रा प्रजनन केंद्र की स्थापना की गई। कृषि कल्याण मंत्रालय भारत सरकार द्वारा दिल्ली से 170 किलोमीटर दूर भैंसों से सम्बन्धित अनुसन्धान करने हेतु स्थापित विश्वविद्यालय जो हिसार में स्थित है की स्थापना 01 जुलाई 1985 को की गई। इस संस्थान की दूसरी शाखा नाभा में स्थापित की गई है। जुलाई 2017 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने इस संस्थान को सन 2016 - 17 का सर्वश्रेष्ठ भैंस अनुसन्धान संस्थान घोषित किया।
यह भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से संबध है। इस संस्थान द्वारा उन्नत भैंसों की नस्ल से अनुसंधान किया जाता है। जिसमें जर्मप्लाज़्म का संरक्षण, सुधार और प्रसार, आहार और चारा प्रणालियों का विकास, प्रजनन क्षमता और दूध, माँस तथा प्रजातियों के सूखे में सर्वाइव क्षमता को बढ़ाने के लिए स्वास्थ्य प्रबंधन के तरीक़ों में वृद्धि के प्रयास समाहित हैं।
भैंस नस्ल सुधार एवं डेयरी व्यवसाय हेतु -
भारत में दूध, मांस एवं दूध उत्पाद की मांग प्रतिदिन बढ़ रही है। हम विश्व में सर्वाधिक भैंस का मांस निर्यात करते हैं। लगातार रिसर्च से पता चला है कि दिनोदिन भैंस एवं पशुओं की संख्या जनसंख्या के अनुपात में नहीं बढ़ पा रही है। यह चिंता का विषय है। सरकार ने भैंस एवं गायों के कृत्रिम गर्भाधान हेतु कार्यक्रम संचालित किए हैं। इससे उत्तम नस्ल के अधिक दूध एवं मांस देने वाली भैंसों का उत्पादन बढ़ेगा। डेयरी उद्योग को बढ़ावा देने हेतु सब्सिडी सहित कम ब्याज दर पर आर्थिक सहायता भी पशु पालकों तक पहुंचाई जा रही है।
भैंसों में बीमारियां एवं उनके उपचार -
- संक्रामक रोग -
संक्रामक रोगों से कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनका कोई उपचार नहीं होता है ऐसी स्थिति में उपचार से बचाव अच्छा का रास्ता ही उचित होता हैं। संक्रामक रोगों से पीड़ित पशु की चिकित्सा भी अत्यंत मंहगी होती है। उपचार के लिए पशु की चिकित्सक भी गाँव में आसानी से नहीं मिल पाते है। इन रोगों से पीड़ित पशु को यदि उपचार करने से भी जीवित बच जाते हैं तो भी उनके उस ब्यात के दूध की मात्रा में अत्यंत कमी हो जाती है। जिससे पशुपालकों को अधिक आर्थिक हानि होती है। संक्रामक रोगों को रोकथाम के लिए आवश्यक है कि पशुओं में रोग रोधक टीके निर्धारित समय के अंतर्गत प्रत्येक वर्ष लगवाए जाएँ।
कुछ संक्रामक रोग -
1. रिंडरपेस्ट (पशु प्लेग)
2. खुरपका - मुहंपका रोग (फुट एंड माउथ डिजीज)
3. चेचक या माता
4. गलघोंटू (एच. एस)
5. गिल्टी रोग (एंथ्रेक्स)
6. लंगड़िया रोग (ब्लैक क्वार्टर)
रिंडरपेस्ट (पशु प्लेग)
इसे पोकानी, पकावेदन, पाकनीमानता, वेदन आदि नामों से गांव में जाना जाता है। रिंडस्केप सभी जुगाली करने वाले पशुओं में विषाणुजनित (वायरस) रोग है जिसके प्रमुख लक्षण तेज बुखार, भूख न लगना, दूध उत्पादन में कमी, जीभ के नीचे तथा मसूड़ों पर छाले पड़ना व आंखों का लाल हो जाना हैं। पशु की आंखों से गाढ़े – पीले रंग का कीचड़ (गीड) बहने लगता है। पतले दस्त में खून आना शुरू हो जाता है एवं कभी – कभी नाक व योनि द्वार पर छाले पड़ जाते हैं। बचाव हेतु तुरंत पशु चिकित्सक से संपर्क कर समय पर टीकाकरण कराना चाहिए।
खुरपका - मुहंपका रोग (फुट एंड माउथ डिजीज) -
विषाणुओं से फैलने वाला यह प्राणघातक रोग सभी जुगाली करने वाले पशुओं में होता है। यह रोग गाय, भैंस, भेंड, बकरी, सुअर आदि पशुओं में वर्ष में कभी भी हो सकता है। संकर गायों में यह बीमारी ज्यादा फैलती है। इस रोग से पीड़ित पशु के पैर से खुर तक तथा मुंह में छाले हो जाते हैं। इससे पशु के मुंह से लगातार लार टपकती रहती है। रोगी की समय पर चिकित्सा न होने पर मृत्यु हो सकती है। इस रोग से बचाव हेतु प्रति छ: माह पर टीकाकरण करवाना आवश्यक है।
चेचक या माता -
चेचक विषाणु जनित संक्रामक रोग है जो अधिकतर गायों में होता है परन्तु कभी – कभी यह भैंसों में भी देखा गया है। इससे मृत्यु दर कम होती है पर पशु की कार्यक्षमता एवं दूध उत्पादन में अत्यधिक कमी हो जाती है। इस रोग से बचाव हेतु प्रति वर्ष नवम्बर - दिसम्बर में टिका अवश्य लगवाना चाहिए।
गलघोंटू (एच. एस) -
गलघोंटू विषाणु जनित प्राणघातक संक्रामक रोग है जिसे अंग्रेजी में हिमोरेजिक सेप्टीसीमिया (H.S) कहते हैं। गलघोंटू के अन्य नाम घुड़का, घोटुआ, घुरेखा, गलघोटु भी हैं। यह गाय एवं भैंसों में बरसात के समय अधिक होता है। इस रोग का विषाणु मल - मूत्र या नाक के स्राव द्वारा अन्य पशुओं में फैलता है।
इस रोग का प्रमुख लक्षण गले व गर्दन में सूजन, शरीर गर्म एवं दर्दयुक्त, सूजन से श्वसन अंगों पर दबाव, तेज बुखार, पेट फूलना, गले में घुटन के कारण श्वांस का रूकना, नाक व मुंह से पानी आना आदि हैं। इस रोग में कुछ ही घंटों में पशु की मौत हो सकती है। इस रोग से बचाव हेतु पशुओं का प्रतिवर्ष टीकाकरण करवाना चाहिए। वर्षा ऋतु से एक महीने पहले से टीकाकरण होना चाहिए।
गिल्टी रोग (एंथ्रेक्स) -
एंथ्रेक्स भयंकर विषाणु जनित प्राणघातक छूत रोग है जिसे जहरी बुखार, प्लीहा बुखार. बाघी आदि नामों से भी जाना जाता है। यह बैसिलस एंथ्रेक्स नामक विषाणुओं से फैलता है। गाय - भैंस, भेड़ - बकरी, घोड़ा आदि में यह रोग फैलता है। पशु के मुहं, नाक, कान, गुदा तथा योनि से खून बहना प्रारंभ हो जाता है। रोग का गंभीर रूप आने पर रोगी पशु कराहता है व पैर पटकता है। रोगी मवेशी के संपर्क में आने से स्वस्थ पशुओं में चारे, बाल, चमड़ा, श्वांस तथा घाव के माध्यम से फैलता है। रोगी पशु के जीवित बचने की संभावना बहुत कम रहती है। विषाणु पशु के शरीर में प्रवेश कर तेजी से खून में फैल कर उसे दूषित कर देते हैं। रोगी पशुओं को गांव के बाहर रखना चाहिए। यह ध्यान रहे कि रोगी पशु को बीमार होने पर कभी भी टीका नहीं लगवाना चाहिए।
लंगड़िया रोग (ब्लैक क्वार्टर) -
बारिश के समय विषाणु जनित संक्रामक रोग ब्लैक क्वार्टर को लंगड़ी, सुजका, जहरवाद आदि नामों से भी जाना जाता है। स्वस्थ पशु में यह बीमारी रोगी पशु के चारे- दाने या पशु के घाव तथा मल द्वारा फैलती है। इसके लक्षण हैं पशु में अचानक तेज बुखार आना. पैरों में लंगड़ाहट है उसमें सूजन आना, भूख नलगना, कब्ज होना, खाल के नीचे कहीं - कहीं चर - चर की आवाज होना तथा दूध का फटना हैं। बचाव हेतु वैक्सीन के टीके प्रतिवर्ष लगवाना चाहिए। बछड़े तथा बछियों को छ: माह की आयु में वर्ष ऋतु से पूर्व ही टीका लगवा देना चाहिए। यह टीका 3 वर्ष की आयु तक ही लगाया जाता है। रोग के लक्षण प्रकट होते ही पशु चिकित्सक की सहायता ली जानी चाहिए।
थनेला -
भैंस का सही तरीके से एवं पूरा दूध नहीं निकालते पर थनेला रोग हो जाता है। इस से भैंस का थन खराब हो सकता है। ऐसी स्थिति में तुरंत चिकित्सकीय उपाय किए जाने चाहिए।
भैंस हेतु चारा -
हरा चारा -
1. चरी
2. बर्सिम
3. बाजरा
4. अजोला
हरा चारा अजोला -
अजोला शैवाल जैसा दिखता है जो एक अस्थायी फर्न है । तेजी से बढ़ने वाला अजोला धान के खेतों में या उथले जल निकायों में उगाया जाता है। इसमें प्रोटीन, एमीनो एसिड, विटामिन (विटामिन ए, विटामिन बी 12 और बीटा कैरोटिन) खनिजों की भरमार होती है। सूखे वजन के आधार पर इसमें 25-35% प्रोटीन, 10-15% खनिज और 7-1-% अमीनों एसिड, जैव सक्रिय पदार्थ और जैव पोलिमर होते हैं। इसमें उच्च प्रोटीन और कम लिगिन्न होने के कारण पशुधन आसानी से पचा सकते हैं। अजोला पशु दाने के साथ मिलाया जा सकता है या पशुओं को सीधा खिलाया जा सकता है। दुधारू पशुओं के साथ-साथ यह भेड़ों, बकरियां, सूअर और खरगोश को भी खिलाया जा सकता है।
अजोला उत्पादन -
उत्पादन वाले क्षेत्र में पहले खतपतवार को हटाकर भूमि को समतल कर 2 X 23 मीटर आकर की क्यारी बनाते है जिस पर प्लास्टिक की चादर लगा देते हैं। 10-15 किलो छनी हुई मिट्टी छिड़क कर 2 किलो गोबर, 30 ग्राम सुपर फास्फेट को 10 किलो पानी के साथ मिश्रित कर घोल अब इस घोल को प्लास्टिक चादर पर डाल दिया जाता है क्यारी में जल स्तर 10 सेमी किया जाता है। 0.5 से 1 किलो शुद्ध अजोला कल्चर बीज को पानी के ऊपर समान रूप से फैलाकर तुरंत पानी का छिड़काव करना चाहिए। दो ग्राम सुपर फास्फेट और 1 किलो गोबर के मिश्रण को 5 दिन में एक बार अजोला क्यारी में डालना चाहिए। जो इसकी वृद्धि को बढ़ाता है।और यह मिश्रण 500 ग्राम तक की उपज प्रतिदिन के हिसाब से दिलवा सकता है। एक सप्ताह के अंदर अजोला पूरे हिस्से में फैलकर एक मोटी चटाई की तरह हो जाता है। अजोला में खनिज सामग्री को बढ़ाने के लिए मैग्नीशियम, लोहा, तांबा तथा सल्फर आदि से युक्त एक सूक्ष्मपोषक मिश्रण का छिड़काव सप्ताहिक किया जाना चाहिए। नाइट्रोजन का निर्माण तथा सूक्ष्म तत्वों की कमी को रोकने के लिए प्रत्येक 30 दिनों में 5 किलो मिट्टी से बदल देना चाहिए। 25-35% पानी प्रत्येक 10 दिनों के अंतराल से ताजा बदलना चाहिए। प्रत्येक छः महीने में एक बार अजोला क्यारी को साफ कर पानी व मिट्टी को बदलना चाहिए। अजोला के तेजी से बढ़ने के कारण 10-15 दिनों में क्यारी भर जाती है जिससे 500 से 600 ग्राम अजोला प्रति दिन काटा जा सकता है।
15वें दिन के बाद प्लास्टिक छलनी या ट्रै कि मदद से इकट्ठा किया जा सकता है।
सूखा चरा -
1. छानी (कुतर) - बाजरे की कड़बी को छोटे टुकड़ों में काट कर बनाया गया चारा।
2. तुड़ी - गेहूं का भूसा
3. लूंग - खेजड़ी की सूखी पत्तियां
4. पाला - झाड़ियों की सूखी पत्तियां
5. तुतड़ा - बाजरे के सिट्टे का भूसा
दाना -
1. जौ का आटा
2. बाजरे, गेहूं का दलिया
3. बिन्दोला - कपास के बीज
4. ग्वार - ग्वार (पका कर दिया जाता है।)
5. खल - कपास, सरसों या अन्य तेलीय पौधों के बीज से तेल निकालने के बाद बचा अपशिष्ट।
भैंस के आरा लगाना -
मेलों या हाट में बेचने हेतु भैंस को आरा लगाया जाता है। सौदागर चीनी और चावल मिलाकर भैंस को खिलाते हैं और लगभग दो से तीन समय दूध नहीं निकालते।
इस से भैंस की उस्टी बड़ी दिखाई देती है और किसान धोखे में आ कर अधिक मूल्य चुका कर भैंस खरीद लेते हैं।
आरा लगाने से भैंस का दूध कम हो जाता है।
शमशेर भालू खां
9587243963
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