भारतीय संविधान में किस राष्ट्र से क्या लिया गया -
संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष एवं संविधान निर्माता डाॅ. भीमराव अंबेडकर ने विश्व के महत्वपूर्ण 60 देशों के संविधानों का अध्ययन कर उनसे महत्वपूर्ण बिंदु ले कर भारतीय संविधान में सम्मिलित किए।
मूल कर्तव्य - रूस
नीति निर्देशक तत्व - आयरलैंड
राष्ट्रपति की शतियां - इंग्लैंड
संसद द्विसदन - इंग्लैंड
मंत्री परिषद एवं प्रधानमंत्री की शक्तियां - इंग्लैंड
प्रत्यक्ष चुनाव - स्विजारलेड
संविधान संशोधन - दक्षिण अफ्रीका
चुनाव आयोग - अमेरिका
न्यायालय - जर्मनी
मौलिक अधिकार - अमेरिका
समवर्ती सूची - ऑस्ट्रेलिया
नागरिक की स्वंतत्रता - जर्मनी
विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया - जापान
स्वतंत्रता, समानता और बंधुता - फ्रांस
व्यापार, वाणिज्य और संभोग की स्वतंत्रता, संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक, सहकारी संघवाद, केंद्र-राज्य संबंध - आस्ट्रेलिया
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय - रूस
आपातकाल में मौलिक अधिकार - जर्मनी
राष्ट्र की संघीय शासन व्यवस्था - कनाडा
संसदीय सरकार, कानून का शासन, विधायी प्रक्रिया, एकल नागरिकता, कैबिनेट प्रणाली, रिट - इंग्लैंड
भारतीय संविधान का मुख पृष्ठ
भारत के संविधान का निर्माण
26 नवंबर 1949 (संविधान दिवस) को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत कर 26 जनवरी 1950 (गणतंत्र दिवस) को लागू किया गया। संविधान में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियों में 145,000 शब्द थे। भारत के संविधान का मूल आधार भारत सरकार अधिनियम (1935) को माना जाता है। वर्तमान में भारतीय संविधान में कुल 251 पृष्ठ हैं।
संविधान दिवस -
26 नवम्बर 1946 के दिन प्रारूप समिति ने कार्य पूर्ण कर संविधान सभा को सौंपा और सदस्यों ने हस्ताक्षर किए। इस दिन को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
26 नवंबर संविधान निर्माण समिति के वरिष्ठ सदस्य डॉ सर हरीसिंह गौड़ का जन्म दिन भी है।
गणतंत्र दिवस -
26 नवंबर 1946 को संविधान दिवस के दिन हस्ताक्षर करते नेहरू जी और अध्य्क्ष को संविधान की प्रति सौंपते भीमराव अम्बेडकर संविधान निर्माण के बाद सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजी कानूनों के स्थान पर भारतीय संविधान के अनुसार शासन व्यवाथा संचालन का कार्य प्रारंभ हुआ। इसी दिन से गणतंत्र दिवस मनाया जाता है।
संविधान की प्रस्तावना -
संविधान की प्रस्तावना 13 दिसम्बर 1946 को जवाहर लाल नेहरू द्वारा सविधान सभा में प्रस्तुत की गई जिसे आमुख भी कहते हैं। के एम मुंशी ने प्रस्तावना को राजनीतिक कुण्डली नाम दिया। 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद, पंथनिरपेक्ष व अखण्डता शब्द जोड़े गए।
संविधान के उद्देश्यों को प्रकट करने हेतु प्राय: उनसे पहले एक प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इस में संविधान का सार, अपेक्षाएँ, उद्देश्य, लक्ष्य एवं दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तावना के अनुसार संविधान शक्ति जनता से प्राप्त करता है। प्रथम वाक्य हम भारत के लोग से यह शुरू होता है।
- प्रस्तावना -
संशोधित प्रस्तावना 1976
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी , पंथनिरपेक्ष,लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को -
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा
इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
संविधान -
मानव सभ्यता के विकास के साथ ही राज्य की अवधारणा प्रारंभ हुई। राज्य के साथ हीं सत्ता द्वारा जनता पर नियंत्रण के प्रत्यक्ष या परोक्ष नियम बने। राज्य के यही नियम संविधान कहलाए। धर्म के विकास के बाद विभिन्न नियम बने और समय - समय पर पुनः र्परिभाषित होते रहे। सनातन धर्म में विभिन्न संहिताओं तथा इस्लाम धर्म में कुरान और हदीश संविधान का ही रूप हैं। किसी देश या राज्य की व्यवस्था के संचालन हेतु नियम और कानूनों की आवश्यकता होती है। यह लिखित में भी हो सकते हैं या अलिखित भी। शासन, न्याय, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, राजस्व, नागरिक एवं नागरता, पुलिस, सामान्य प्रशासन, दण्ड प्रक्रिया सहित मानव व्यवहार को व्यवस्थित करने की प्रक्रिया का लिपीकरण ही संविधान कहलाता है। संविधान कानून का सर्वोच्च लिखित दस्तावेज जो सरकार, संगठन और नागरिकों के बुनियादी संहिताओं, संरचना, प्रक्रियाओं, शक्तियों और कर्तव्यों और नागरिकों के अधिकार और कर्तव्यों का निर्धारण करने वाले ढांचे को निर्धारित करता है।
संविधान किसी राष्ट्र के नागरिकों, सरकार और तंत्र को संयोजित करने का सूत्र है। संविधान/ विधान का अर्थ है विधि का ग्रंथ।
संविधान न्याय प्रक्रिया संहिता से पृथक है (सीआरपीसी/सीपीसी) को संविधान के अनुसार लागू किया जाता है। दंड प्रक्रिया संहिता न्यायालयों और पुलिस द्वारा संविधान के एक अध्याय न्याय को लागू करने हेतु नागरिकों के राजस्व/दीवानी/फोजदारी प्रकरणों को लागू करने का साधन है। इस लेख के माध्यम से हम संविधान निर्माण और अंगीकरण के संबंध में चर्चा करेंगे।
विश्व में एक मात्र देश जिसका संविधान लिखित नहीं है उसका नाम है The Great Britain जहां व्यवस्थाएं महारानी (The Crown) में समाहित हैं।
भारत में संविधान -
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई 1945 में ब्रिटेन ने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा के अनुसार भारत में संविधान सभा के निर्माण हेतु 3 मंत्रियों के समूह के साथ कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया।
साम्राज्यों/रियासतों/सल्तनतों का अपना पृथक संविधान था जिस से पूरे देश में कानूनी एकरूपता नहीं थी। आधिकांश सत्ताधीश की इच्छा ही कानून हुआ करती थी.
"कानून मेरी छड़ी की नोक पर है।" महाराजा गंगा सिंह (बीकानेर रियासत)
अंग्रेज सरकार के बनते ही 1757 से आधुनिक कानून बनने शुरू हुए। इसे दो प्रकार से विभाजित किया जा सकता है
1. क्राउन पूर्व नियमावली (चार्टर) 1757 से 1858 तक
2. क्राउन कालीन संविधान 1858 से 1947 तक
(क) ईस्ट इंडिया कंपनी शासन काल में चार्टर एवं नियम - (1757 से 1753)
केबिनेट मिशन 1757 -
संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन के आधार पर किया गया। 1757 की बंगाल विजय के बाद वहां का शासन गवर्नर जनरल (वारेन हेस्टिंग्स) तथा चार सदस्यीय परिषद् (क्लैवरिंग, मॉनसन, बरवैल तथा फिलिप फ्रांसिस) द्वारा किया गया। जिसमें निर्णय बहुमत के आधार पर करने की व्यवस्था की गयी।इनका कार्यकाल 05 वर्ष रखा गया परंतु ब्रिटिश निर्देशक मंडल की सिफारिश के आधार पर इन्हें हटाया जा सकता था। बाद। में मद्रास और मुंबई प्रेसीडेंसी को भी इसके अधीन कर दिया गया। इस परिषद को अधीनस्थ क्षेत्रों के बारे में कानून बनाने का अधिकार मिला। कलकत्ता में न्याय व्यवस्था (दीवानी, फोजदरी, धर्म, सेना, श्रम से संबंधित वाद निस्तारण) हेतु एक न्यायालय की स्थापना की गई जिसमें सर एलिजा इम्पे प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इस न्यायालय के निर्णय से असहमत होने की स्थिति में प्रिवी काउंसिल (लंदन) में अपील की जा सकती है। इसका कार्यकाल 04 वर्ष रखा गया। कंपनी में 1000 पौंड के शेयर धारकों को संचालक मंडल चुनने का अधिकार मिला। 1773 का यह संविधान पहली बार भारत का लिखित संविधान बना।
सन 1781 का संशोधन अधिनियम -
1773 के अधिनियम में संशोधन कर कलकत्ता की सरकार को बंगाल के साथ - साथ बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार प्रदान किया गया। न्यायालय को कम्पनी कर्मचारियों के विरुद्ध (ब्रिटिश सरकार के हित में किए गए कार्य के विरुद्ध) कार्यवाही करने पर रोक लगा दी गई। न्यायालय को कानून बनाने, क्रियान्वयन के समय भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाजों का सम्मान करने हेतु निर्देशित किया गया।
पिट्स इंडिया अधिनियम 1784 -
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की गिरती साख को बचाने और उस पर नियंत्रण हेतु पारित अधिनियम पिट्स इंडिया एक्ट कहलाता है। इसके अंर्तगत
1. कंपनी अधिकृत क्षेत्र को ब्रिटिश टेरिटरी कहा गया।
2. गर्वनर जनरल परिषद सदस्य संख्या घटा कर 04 के स्थान पर 03 कर दी गई।
3. परिषद को युद्ध, संधि, राजस्व, सैन्य शक्ति, देशी रियासतों से संबंधित मामलों पर निदेशक मंडल की सलाह से निर्णय की शक्ति दी गई।
4. लंदन में सम्राट द्वारा नियुक्त 6 सदस्यीय बोर्ड ऑफ कंट्रोल (कमिश्नर) की स्थापना की गई जिसमें एक ब्रिटिश अर्धमंत्री, दूसरा विदेश सचिव तथा चार अन्य सम्राट द्वारा प्रिवी कौंसिल के सदस्यों के माध्यम से चुने जाते थे। (राज्य सभा की तरह) बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ को कंपनी के भारत सरकार के नाम आदेशों एवं निर्देशों को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करने का अधिकार प्रदान किया गया।
5. बम्बई तथा मद्रास (प्रांतीय परिषद) के गवर्नर पूर्णरूपेण गवर्नर जनरल के अधीन कर दिये गये। तथा सदस्य संख्या 04 से कम कर 03 कर दी गई।
6.कम्पनी कार्मिकों पर उपहार लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
7. अंग्रेज अधिकारियों से संबंधित परिवाद निस्तारण हेतु लंदन में कोर्ट की स्थापना की गयी।
8.. चाय और अफीम के व्यापार के अलावा कंपनी के सभी एकाधिकार समाप्त कर दिए गए।
1786 का अधिनियम
इस अधिनियम से गवर्नर जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियां प्रदान करते हुए विशेष परिस्थितियों में परिषद के निर्णयों को रद्द करने या स्वयं के निर्णय लागू करने का अधिकार मिल गया।
1793 का राजपत्र -
ईस्ट इंडिया कम्पनी के कार्यों एवं संगठन में सुधार हेतु जारी राजपत्र (चार्टर) विशेषताएं निम्न थीं -
1. ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारिक अधिकार आगामी 20 वर्ष तक बढ़ा दिया गया।
2. रियासतों के व्यक्तिगत कानूनों के स्थान पर ब्रिटिश सम्राट के अधीन लिखित कानूनों के माध्यम से शासन कार्य संचालित करने की व्यवस्था की गई। द्वारा प्रशासन की आधारशिला रखी गयी।
3. गवर्नर जनरल व परिषद सदस्यता की योग्यता में भारत में काम करने का 12 वर्ष का अनुभव अनिवार्य किया गया।
4. नियंत्रक मंडल सदस्यों का वेतन भुगतान भारतीय कोष से किया जाने लगा।
1813 का राजपत्र
मिशनरियों को ईसाई धर्म के प्रचार हेतु सुविधाएं देने और ईस्ट इंडिया कंपनी पर लगाम लगाने हेतु 1813 में एक राजपत्र जारी किया गया जिसमें -
1.ईस्ट इंडिया कम्पनी का चीन से चाय के व्यापार के अलावा सभी प्रकार का एकाधिकार समाप्त।
2. मिशनरियों को भारत में ईसाई धर्म के प्रचार की अनुमति।
3. शिक्षा व्यवस्था हेतु वार्षिक बजट 01 लाख निर्धारित।
4. आगामी 20 वर्ष हेतु राजस्व पर कंपनी का नियंत्रण।
5. बोर्ड ऑफ कंट्रोल लंदन को परिभाषित कर उसका विस्तार किया गया।
1833 का राजपत्र
1833 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने महाराष्ट्र, मध्य भारत, पंजाब, सिन्ध, ग्वालियर, इंदौर आदि पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस पर नियंत्रण हेतु -
1. दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर 1843 तक सम्पूर्ण उन्मूलन की घोषणा।
2. ईस्ट इंडिया कम्पनी के सभी एकाधिकार समाप्त कर प्रशासनिक एवं राजनीतिक संस्था बना दिया गया।
3. गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक बंगाल के स्थान पर सम्पूर्ण भारत का गर्वनर जनरल बन गया।
4. प्रांतों के निरीक्षण और नियंत्रण का अधिकार गवर्नर जनरल को दे कर गवर्नर जनरल परिषद् द्वारा पारित कानूनों को अधिनियम की संज्ञा दी गई।
5. ब्रिटिश नियंत्रण के प्रदेशों में रहने वाले नागरिक को धर्म, वंश, रंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव से मुक्ति
5. विधि संहिताकरण (केंद्रीय सत्ता) आयोग के गठन का प्रावधान किया गया जिसका अध्यक्ष लार्ड मैकाले को बनाया गया।
6. अन्य प्रांतीय परिषद के स्थान पर केवल गवर्नर जनरल परिषद को सम्पूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
1853 का राजपत्र -
लार्ड डलहौजी की रिर्पोट पर आधारित सन 1853 का राजपत्र ब्रिटिश काल का अंतिम चार्टर जिसमें भारतीय नागरिकों द्वारा कम्पनी शासन की समाप्ति की मांग के अनुसार था जिसमें -
1. संसद को ईस्ट इंडिया कम्पनी को किसी भी समय सत्ता से बेदखल करने का अधिकार दिया गया।
2. कार्यकारिणी परिषद सदस्य को कानून परिषद के पूर्ण सदस्य का दर्जा दिया गया।
3. बंगाल हेतु अलग से गवर्नर की नियुक्ति की गई।
4. गवर्नर जनरल परिषद में उपाध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार गवर्नर जनरल को दिया गया।
5. न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था को अलग - अलग किया गया।
6. निदेशक मंडल सदस्यों संख्या घटा कर 24 से 18 की गई।
7. कर्मचारियों की नियुक्ति हेतु प्रतियोगी परीक्षा द्वारा।
8. भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट पर विचार करने हेतु इंग्लैंड में विधि आयोग का गठन।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज समाप्त और भारत की सत्ता सीधे क्राउन के नाम पर हस्तांतरित काल में अधिनियम सन 1858 से 1947
1858 का अधिनियम
सन 1853 के अंतिम चार्टर में किए गए प्रावधान अनुसार ईस्ट इंडिया कम्पनी को किसी भी समय सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटिश क्राउन को संसद के माध्यम से किया जा सकता था। 1857 की क्रांति एवं असंतोष के फलस्वरुप संसद को कम्पनी से सत्ता छीनने का अवसर मिल गया और सत्ता ब्रिटिश क्राउन को हस्तगत हो गई। पारित अधिनियम के अनुसार -
1. भारत का शासन ब्रिटिश संसद को सौंप दिया गया।
2. भारत को इंग्लैंड का राज्य घोषित कर क्राउन (महारानी) की ओर से राज्य सचिव नियुक्त कर शासन व्यवस्था का संचालन।
3. राज्य सचिव की सहायता हेतु 15 सदस्यीय भारत परिषद का गठन का शासन से संबंधित सभी कानूनों एवं कार्यवाहियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य की गई।
4. गवर्नर जनरल का पदनाम ‘वायसराय’ (क्राउन का प्रतिनिधि) (प्रथम वायसराय लार्ड केनिंग) बना कर भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार कार्य करने हेतु आबद्ध किया गया।
5. ब्रिटिश संसद में भारत मंत्री को वायसराय से गुप्त पत्र व्यवहार तथा ब्रिटिश संसद में प्रतिवर्ष भारतीय बजट प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया।
6. नवम्बर 01, 1858 के दिन महारानी विक्टोरिया ने भारत के संबंध में नीतिगत घोषणाऐं कीं जिनमें -
(क) भारतीय के लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य भागों में रहने वाली प्रजा के समान माना जायेगा।
(ख) भारतीयों के साथ लोक सेवाओं में भेदभाव नहीं कर शिक्षा, योग्यता तथा विश्वसनीयता के आधार पर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष भर्ती हेतु योग्य माना जायेगा।
(ग) भारतयों के भौतिक व नैतिक विकास हेतु प्रयास किये जायेंगे।
भारतीय परिषद अधिनियम 1861
यह अधिनियम कई मुख्य कारणों से भारत के संवैधानिक इतिहास में कानून की युगांतकारी घटना है
1. वायसराय को विस्तारित परिषद में भारतीय नागरिकों के प्रतिनिधियों को नामजद कर विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार दिया।
2. वायसराय की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीकरण कर बंबई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गई।
3. विधान परिषद सद्स्ययों की संख्या में वृद्धि कर इसमें न्यूनतम 6 व अधिकतम 12 सदस्य संख्या निर्धारित की गई, जिसमें न्यूनतम आधे सदस्यों का गैर-सरकारी होना आवश्यक था।
4. विधायी कार्यों हेतु नये प्रांत निर्माण एवं नव-निर्मित प्रांत में गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार वायसराय को दिया गया।
5. वायसराय को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया।
भारतीय अधिनियम 1865 -
1865 के अधिनियम के द्वारा वायसराय को प्रेसीडेन्सियों व प्रांतों की सीमाओं के निर्धारण एवं परिवर्तन का का अधिकार दिया गया।
भारतीय अधिनियम 1869 -
1869 के अधिनियम द्वारा वायसराय को विदेश में रहने वाले भारतीयों के संबंध में कानून बनाने का अधिकार दिया गया।
1873 का अधिनियम -
1. इस अधिनियम के प्रावधान (किसी भी समय ईस्ट इंडिया कंपनी को भंग करने का अधिकार) के अनुसार 1 जनवरी, 1874 को ईस्ट इंडिया कम्पनी को भंग कर दिया गया।
शाही उपाधि अधिनियम, 1876 -
इस अधिनियम के अनुसार -
1. भारत का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर महारानी विक्टोरिया भारत की साम्राज्ञी घोषित (28 अप्रैल, 1876 से)
2. कार्यकारिणी परिषद मे छ्ठे सदस्य की नियुक्ति कर लोक निर्माण कार्य सौपा गया।
भारतीय परिषद अधिनियम 1892 -
परिषद सदस्य गैर सरकारी (1861) बड़े जमींदार/ रिटायर्ड अधिकारी/राज परिवार सदस्य में से होते थे जिस से आम आदमी को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा आम जन को अधिक प्रतिनिधित्व देने की मांग की जाती रही।
उधर यूरोपीय व्यापारियों द्वारा इंग्लैंड में स्थित इंडिया हाउस से अधिक स्वतंत्रता की मांग की जाती रही। इस हेतु सर जॉर्ज चिजनी की अध्यक्षता में कमेटी बनी। इसके सुझावों के अनुसार 1892 के अधिनियम का अधिनियम पारित किया गया जिसमें -
1. केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषद् में सदस्यों’ संख्या बढ़ाई गई।
2. सदस्यों के सीमित चुनाव की व्यवस्था हुई जो मुख्य सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व करते थे।
3. परिषद के अधिकारों में भी वृद्धि कर बजट परिषद में प्रस्तुत करना आवश्यक हुआ।
4. सदस्यों को कार्यपालिका के काम के बारे में प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।
अनेक कमियों के कारण इसकी आलोचना तीव्र हो गई। कांग्रेस के अनुसार स्थानीय निकायों का चुनाव मंडल बनाना एक प्रकार से इनके द्वारा मनोनीत करना ही है। विधान मंडलों की शक्तियां सीमित थीं। सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। किसी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार किया जा सकता था। इसके अलावा वर्गों का प्रतिनिधित्व भी पक्षपातपूर्ण था।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1909 (मार्ले - मिंटो सुधार)
कांग्रेस की मांग और आंदोलन के कारण भारत राज्य सचिव
लॉर्ड मार्ले तथा वायसराय
लॉर्ड मिन्टो ने सुधार हेतु
सर अरुण्डेल बनाई जिसके आधार पर फरवरी 1909 में भारतीय परिषद् अधिनियम अधिनियम पारित किया गया। इसे ‘
मार्ले-मिन्टो सुधार’ के नाम से जाना गया के अनुसार -
1. केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर गैर-सरकारी बहुमत स्थापित किया गया।
2. (अप्रत्यक्ष प्रतिनिधि प्रणाली) द्वारा स्थानीय निकायों की निर्वाचन परिषद द्वारा प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्य, प्रांतीय विधान परिषद के सदस्य केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्यों का चुनाव करते थे। में बदलाव कर पृथक निर्वाचन व्यवस्था प्रारंभ की गई।
3. मुसलमानों को अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रदान कर केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में जनसंख्या के अनुपात के अनुसार प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया।
4. वायसराय की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को नियुक्त करने की व्यवस्था की गई।
(प्रथम भारतीय सदस्य सत्येन्द्र सिन्हा की नियुक्ति हुई)
5. विधायिका के कार्यक्षेत्र में विस्तार कर सदस्यों को बजट प्रस्ताव बनाने एवं जनहित मुद्दों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।
6. सशस्त्र सेना, विदेश संबंध और देशी रियासतें आदि विषय विधायिका के कार्य क्षेत्र से पृथक रखे गए।
निवार्पृचन का पृथक अथवा साम्प्रदायिक आधार एवं जटिल व अष्पष्ट चुनाव पद्धति इसकी आलोचना के कारण बने। कांग्रेस के अनुसार भारत को संसदीय प्रणाली तो दी गई, परंतु उत्तरदायित्व नहीं दिया गया।
लखनउ समझौता 1916 -
भारत में संघीय व्यवस्था को कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा 29 दिसंबर 1916 कांग्रेस द्वारा और 31 दिसंबर 1916 के लखनऊ समझौते में स्वीकार किया गया। भारत सरकार में हिन्दू - मुस्लिम समुदायों के बीच निर्वाचन संबंधी प्रावधान थे। जिन्ना और बाल गंगाधर तिलक इस समझौते के कर्णधार थे। इस बैठक में काँग्रेस के उदारवादी और अनुदारवादी गुटों का मिलन हुआ। जिन्ना ने मुस्लिम लीग अध्यक्ष के रूप में संवैधानिक सुधार हेतु कांग्रेस लीग - योजना के समझौते के अनुसार मुसलमानों हेतु पृथक निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रान्तों में वे अल्पसंख्यक थे, वहाँ उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। इसी समझौते को लखनऊ समझौता कहते हैं।
तिलक प्रस्ताव के अनुसार प्रांतीय और केंद्रीय विधायिकाओं का तीन-चौथाई भाग व्यापक मताधिकार द्वारा चुना जाये और केंद्रीय कार्यकारी परिषद के सदस्यों सहित कार्यकारी परिषदों के आधे सदस्य परिषदों द्वारा ही चुने जाएं जो भारतीय हों। केंद्रीय कार्यकारी के प्रावधान को छोडकर ये प्रस्ताव आमतौर पर 1919 के भारत सरकार अधिनियम में शामिल हुए। काँग्रेस प्रांतीय परिषद चुनाव में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल तथा पंजाब एवं बंगाल को छोडकर, जहां उन्होने हिन्दू और सिख अल्पसंख्यकों को कुछ रियायतें दी सभी प्रान्तों में उन्हें रियायत (जनसंख्या के अनुपात से अधिक) देने पर भी सहमत हो गई। यह सम्झौता कुछ इलाकों और विशेष समूहों को पसंद नहीं था, लेकिन इसने 1920 से महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन एवं खिलाफत आन्दोलन के लिए हिन्दू-मुस्लिम सहयोग का रास्ता साफ किया।
यदि हिन्दू-मुस्लिम एकता वाले लखनऊ समझौते को संविधान में मान लिया गया होता तो न देश का बंटवारा होता और न ही जिन्ना की कोई गलत तस्वीर हमारे मन में होती।
—प्रणव मुखर्जी, भारत के राष्ट्रपति
समझौते का विखंडन

अक्टूबर 1937 लखनऊ समझौते से मोह भंग होने के बाद मुस्लिम लीग कार्यकारिणी के बैठक
प्रारंभ में जिन्ना कांग्रेस समर्थक थे, महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के बाद इस ग़लत फ़हमी के कारण कि हिन्दू बहुल क्षेत्रों में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिल सकेगा। इसके बाद वो नये राष्ट्र (पाकिस्तान) की स्थापना समर्थक और प्रचारक बन गए।
अंग्रेज़ लोग जब भी सत्ता का हस्तांतरण करें, उन्हें उसे हिन्दुओं के हाथ में न सौंपें, हालाँकि वह बहुमत में हैं। ऐसा करने से भारतीय मुसलमानों को हिन्दुओं की अधीनता में रहना पड़ेगा।
- जिन्ना
जिन्ना ने लीग का पुनर्गठन कर 1940 में धार्मिक आधार पर भारत विभाजन कर मुस्लिम बहुल प्रान्तों को मिलाकर पाकिस्तान बनाने की मांग की।
भारतीय परिषद अधिनियम, 1919 -
भारत के राज्य सचिव लार्ड मॉटेग्यु ने हाउस ऑफ कॉमंस मे घोषणा की कि -
भारतीयों को सरकार के सभी अंगों में सम्मिलित कर स्वायत्तशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास किया जाएगा। इस हेतु मोंटफोर्ड आयोग (1918 में प्रकशित) की अनुशंसा के आधार पर रिपोर्ट-1918’ पर 1919 का अधिनियम पारित किया गया। इसमें -
1. केन्द्रीय विधान परिषद का स्थान राज्य परिषद (उच्च सदन) तथा विधान सभा (निम्न सदन) वाले द्विसदनीय विधान मंडल बनाया गया एवं प्रत्येक सदन में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत अनिवार्य किया गया।
2. सदन में सदस्यों के मनोनयन की शक्ति वायसराय के अधीन सुरक्षित किया गया।
3. निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन कर प्रत्यक्ष मताधिकार का विस्तार किया गया।
4. निर्वाचक मंडल की योग्यताएं धार्मिक समूह, निवास और संपत्ति पर आधारित थीं।
5. आठ प्रांतों (गर्वनर के प्रांत') में द्वैध शासन की एक नई पद्धति शुरू की गयी।
6. प्रांतीय सूची को सुरक्षित विषय और हस्तांतरित विषय के नाम से दो भागों में बांटा गया। सुरक्षित सूची गवर्नर के अधिकार क्षेत्र में हस्तांतरित सूची स्थानीय सरकार के मंत्रियों के अधिकार में आ गई।
7. 1927 में साइमन कमीशन इसी अधिनियम के प्रावधान (दस वर्ष बाद द्वैध शासन प्रणाली तथा संवैधानिक सुधारों की व्यवहारिकता की जांच हेतु आयोग का गठन किया जायेगा) के अनुसार रिर्पोट हेतु भारत आया। जिसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं होने के कारण कांग्रेस ने इसका विरोध किया और साइमन गो बैक के नारे लगे।
1919 के अधिनियम से कांग्रेस की उत्तरदायी शासन एवं सभी विषयों पर बहस की सतंत्रता की मांग पूरी नहीं हुई। केन्द्र तथा प्रांतों के मध्य शक्तियों के बंटवारे के बाद भी भारत का संविधान एकात्मक राज्य का संविधान ही बना रहा। गर्वनर के पूर्ण वचस्व, वित्तिय शक्तियों के अभाव, मंत्रियों की विधान मण्डल के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण द्वैध शासन पूर्णतया विफल रहा।
नेहरू रिपोर्ट -
कांग्रेस ने राज्य सचिव लॉर्ड वर्कनहेड चुनौती "एक ऐसे संविधान की रचना की जाये, जो भारत के हर दल को स्वीकार हो" को स्वीकार कर 28 फरवरी, 1928 को दिल्ली में सर्वदलीय बैठक बुलाई। संविधान एवं उसके प्रारूप निर्माण हेतु पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति बनाई, समिति द्वारा प्रस्तुत प्रारूप को नेहरू रिपोर्ट कहा जाता है। इसे लखनऊ के सर्वदलीय सम्मेलन में स्वीकार किया गया। दिसम्बर 1928 के सर्वदलीय सम्मेलन कलकत्ता में ‘साम्प्रदायिक समझौता’ में सभी समुदायों के संयुक्त निर्वाचक समूह के प्रस्ताव पर मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा आपत्ति दर्ज की गई।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन, 1930
साइमन कमीशन की रिपोर्ट को प्रकाशित करने से पूर्व लॉर्ड इर्विन की घोषणा "रिपोर्ट को गोलमेज सम्मेलन में विचार हेतु रखा जायेगा" के अनुसार प्रथम सम्मेलन 12 नवम्बर, 1930 को लंदन में हुआ। विभिन्न खामियों के करण कमीशन की रिपोर्ट पर सहमति नहीं हो पाई। इस सम्मेलन का कांग्रेस ने बहिष्कार किया।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 1932 -
फरवरी 1931 के गांधी-इर्विन समझौते के बाद दूसरे गोलमेज सम्मेलन लंदन में 7 सितंबर 1931 से 1 दिसंबर 1931 तक आयोजित किया गया, में कांग्रेस ने भाग लिया। इसमें महात्मा गांधी कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। श्रीमती सरोजिनी नायडू और पंडित मदन मोहन मालवीय (ब्रिटिश सरकार के मनोनीत सदस्य) सहित मुस्लिम लीग ने भी भाग लिया। इस सम्मेलन के बाद ही साम्प्रदायिक अधिकार और पूना समझौता (पूना पेक्ट) हुआ। जिनके द्वारा धार्मिक समूहों और सनातन धर्म के विभिन्न वर्ण समूहों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया। कांग्रेस ने इसका विरोध किया
पूना समझौता (पूना पेक्ट) -
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श के बाद कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई। जिसके तहत भीमराव आंबेडकर द्वारा उठाई गयी राजनीतिक प्रतिनिधित्व की माँग को मानते हुए दलित वर्ग को दोहरे मतदान का अधिकार मिला। एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुनेंगे तथा दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनेंगे। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों के ही वोट से चुना जाना था। दूसरे शब्दों में उम्मीदवार भी दलित वर्ग का तथा मतदाता भी केवल दलित वर्ग के होंगे। 16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्मजे मैक्डोनल्ड ने साम्र्पदायिक पंचाट की घोषणा की जिसमें दलितो सहित 11 समुदायों को पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान किया गया। दलितों के लिए की गई पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था का गांधीजी ने विरोध किया। 20 सितंबर 1932 को गांधी जी ने अनशन प्रारंभ कर दिया 24 सितंबर 1932 को राजेंद्र प्रसाद व मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से गांधी जी और अंबेडकर के मध्य पूना समझौता हुआ जिसमें संयुक्त हिंदू निर्वाचन व्यवस्था के अंतर्गत दलितों के लिए स्थान आरक्षित रखने पर सहमति बनी जिसे पूना पैक्ट कहा जाता है। दलित प्रतिनिधि को चुनने में गैर दलित वर्ग अर्थात सामान्य वर्ग का कोई दखल ना रहा। परन्तु दूसरो ओर दलित वर्ग दूसरे वोट से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने में भी भूमिका निभा सकता था। गाँधी इस समय पूना की येरवडा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही पहले तो उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने का प्रयास किया, परंतु जब उन्होंने देखा के यह निर्णय बदला नहीं जा रहा, तो उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा कर दी।24 सितम्बर 1932 को साय पांच बजे यरवदा जेल पूना में गाँधी और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के मध्य समझौता हुआ। इस समझौते में आम्बेडकर ने कम्युनल अवॉर्ड के पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़कर संयुक्त निर्वाचन पद्धति को स्वीकार कर कम्युनल अवार्ड से मिली 71 आरक्षित सीटों के स्थान पर पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली और दलितों हेतु प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि नियत करवाईं। साथ ही सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित करने की मांग को मनवाया। आम्बेडकर इस समझौते से संतुष्ट नहीं थे।
गांधी ने अनशन से अछूतों को उनके राजनीतिक हक से वंचित करने और उनको माँग से पीछे हटाने का दवाब डालने हेतु खेल खेलने का नाटक किया। - डॉक्टर भीमराव अंबेडकर
1942 में आम्बेडकर ने इस समझौते को एक षड्यंत्र बताया। अपनी पुस्तक स्टेट ऑफ मायनॉरिटी में पूना पैक्ट के संबंध में नाराजगी व्यक्त की।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन 1332 -
तीसरा और अंतिम गोलमेज सम्मेलन नवम्बर 1932 में हुआ जिसमें एक श्वेतपत्र जारी किया गया। इस श्वेत पत्र पर ब्रिटिश संसद की संयुक्त प्रवर समिति ने विचार किया। प्रवर समिति की रिपोर्ट के आधार पर भारत सरकार अधिनियम 1935 बनाया गया।
भारत सरकार अधिनियम 1935 -
1935 में पारित भारत सरकार अधिनियम में 321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूचियां थीं। इस अधिनियम के अनुसार -
1. अखिल भारतीय संघ का निर्माण कर इसमें ब्रिटिश प्रांतों को शामिल किया गया। साइमन कमीशन ने संघीय व्यवस्था पर बल दिया और 1935 के अधिनिमय ने संघीय व्यवस्था की स्थापना की, जिसमें प्रांतों के अधिकार ब्रिटेन के क्राउन द्वारा प्राप्त हुए थे।
2. देशी रियासतों का संघ में शामिल होना राजाओं की इच्छा पर निर्भर रखा गया।
3. संघ तथा केन्द्र के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया। विभिन्न विषयों की तीन सूचियां बनायी गईं
क. संघीय सूची,
ख. प्रांतीय सूची
ग. समवर्ती सूची
4. 1919 के अधिनियम द्वारा द्वैध शासन प्रणाली जो प्रांतों में लागू थी को केन्द्र में लागू किया गया।
5. केन्द्र सरकार के विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया-
क. संरक्षित विषय (वायसराय के अधिकार क्षेत्र में)
ख. हस्तांतरित विषय (मंत्रिपरिषद के अधिकार क्षेत्र मे)
6. केन्द्र में द्विसदनात्मक व्यव्स्था की स्थापना की गई
क. राज्य परिषद (उच्च सदन)
ख. केन्द्रीय विधान सभा (निम्न सदन)
7. प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया।
8. प्रांतीय विधायिका को प्रांतीय सूची तथा समवर्ती सूची पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया।
9. प्रांतीय विधान मंडल को अनेक शक्तियां प्रदान कर मंत्रिपरिषद को विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बनाया गया। विधानमंडल को अविश्वास प्रस्ताव पारित कर मंत्रिमंडल को सत्ता से बाहर करने का अधिकार दिया गया।
10. विधान मंडल को प्रश्न तथा अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दे कर प्रशासन पर नियंत्रण की व्यवस्था की गई।
11. बर्मा को भारत से पृथक किया गया।
12. भारत में उड़ीसा तथा सिन्ध नाम से दो नये प्रांत बनाये गये।
14. भारत में एक संघीय बैंक (भारतीय रिजर्व बैंक) और एक संघीय न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) की स्थापना का प्रावधान किया गया।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 -
लार्ड माउंटबेटन योजना के अनुसार ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार -
1. भारत का विभाजन कर भारत तथा पाकिस्तान नामक दो देशों की स्थापना हेतु 15 अगस्त, 1947 का दिन निश्चित किया गया।
2. विभाजन के बाद बंगाल एवं पंजाब को विभाजित कर एक भाग भारत को एक भाग पाकिस्तान को दिया गया।
3. इन दोनों देशों में 15.08.1947 से संप्रभु एवं स्वतन्त्र सरकार का नियंत्रण होगा एवं ब्रिटिश नियंत्रण पूर्णतया समाप्त हो जायेगा।
4. रियासतें को इन दोनों देशों में से किसी में या स्वतन्त्र अस्तित्व का अधिकार दिया गया।
5. सरकार के गठन तक दोनों देशों के महामहीम द्पृधारा नियुक्त पृथक गवर्नर जरनल होंगे।
6. दोनों देशों का पृथक विधानमंडल होगा, जिसे विधियां बनाने का पूरा प्राधिकार होगा
7. सरकार के अस्थायी संचालन हेतु दोनों संविधान सभाओं को संसद का दर्जा प्रदान कर विधानमंडल की पूर्ण शक्तियां प्रदान की गई।
8. आवश्यकता होने पर गवर्नर जनरल को एक्ट के प्रभावी प्रवर्तन हेतु व्यवस्था बाबत अस्थायी आदेश जारी करने हेतु अधिकृत किया गया।
9. भारत राज्य सचिव की सेवाओं तथा भारतीय सशस्त्र बल, ब्रिटिश स्थल सेना, नौसेना और वायु सेना पर महामहिम की सरकार का अधिकार क्षेत्र, प्राधिकार अनवरत रहने की शर्तें निर्दिष्ट की गईं।
स्वतन्त्र भारत में संविधान का निर्माण -
वर्तमान भारतीय संविधान के अधिकांश प्रावधानों का विकास ब्रिटिश काल में हो चुका था। संघीय व्यवस्था, राज्य सरकार , न्यायालय l, राष्ट्रपति, राज्यपाल, विधनसभा, संसद, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका संबंधित आधिकांश प्रावधान हो चुके थे। संविधान की आउट लाइन 1757 से 1947 तक के चार्टर और अधिनियम के माध्यम से तैयार हो चुकी थी। अब इसे और प्रभावी बनाने हेतु कार्य करना था। इस कार्य हेतु संविधान सभा का गठन किया गया।
भारतीय संविधान सभा का निर्माण -
इस संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने गए। जवाहरलाल नेहरू, डॉ भीमराव अम्बेडकर, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। संविधान सभा के 12 अधिवेशन में 166 दिन बैठक हुई। इन बैठकों में प्रेस और जनता भाग ले सकती थी। अंतिम दिन 274 सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किये। भारत के संविधान के निर्माण में संविधान सभा के सभी 389 सदस्यो ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के स्थान पर संविधान सभा का गठन हुआ।
संविधान सभा (अस्थाई संसद) (389 सदस्यों हेतु जुलाई 1946 में चुनाव, सभा का गठन नवंबर 1946 और प्रथम बैठक दिसंबर 1946 में हुई। जून 1947 में भारत विभाजन मसौदे के अंतर्गत संविधान सभा का भी विभाजन हुआ जिसमें भारतीय संविधान सभा में 299 सदस्य रहे जिनका कार्यकाल जून 1947 से 24 जनवरी 1950 तक रहा। इस सभा के सदस्य ही स्वतंत्र भारत के प्रथम सांसद बने जिसका कार्य था संविधान का निर्माण। संविधान निर्माण के बाद 24 जनवरी 1950 को इसे भंग कर दिया गया जिसका स्थान भारतीय संसद ने लिया। संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष सच्चिदानन्द सिन्हा, अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद, उपाध्यक्ष हरेन्द्र कुमार मुखर्जी, वी टी कृष्णमचारी, डॉ हरी सिंह गौड़ ,भीमराव आम्बेडकर (अध्यक्ष प्रारूप समिति), बी एन राव सलाहकार पद पर चुने गए। संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 के दिन कुल 02 वर्ष 11 माह और 18 दिन कार्य पूर्ण कर रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
24 जनवरी 1950 को संविधान सभा भंग कर दी गई।
भारत का संविधान -
मूल संविधान में कुल 08 अनुसूचियां (बाद में चार जोड़ कर अब 12 अनुसूचियां) 395 (अनुच्छेद और 22 भागों में) थी। भारतीय संविधान के अनुसार सरकार संसदीय स्वरूप में संचालित होना तय किया गया। कुछ विषयों में अलावा संघीय व्यवस्था की गई। भारतीय संविधान के अनुसार भारत विभिन्न राज्यों का संघ है। सांविधानिक प्रमुख राष्ट्रपति है जो दो सदन की सहायता व लोकसभा सदन के नेता प्रधानमंत्री की मंत्री परिषद (वास्तविक सरकार) की सलाह से सरकार का संचालन करते हैं (धारा 79)। प्रत्येक राज्य में संघ द्वारा नामित राज्यपाल राज्य की मंत्रिपरिषद के मुखिया मुख्यमंत्री की सलाह सरकार का संचालन करता है जिस सदन का नाम विधानसभा (सदस्य का पद विधायक) होता है। राज्य सभा की तरह कई राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश और तेलंगाना में ऊपरी सदन है जिसे विधानपरिषद कहा जाता है सदस्य का पदनाम MLC होता है। सातवीं अनुसूची में संघ सूची,राज्य सूची और समवर्ती सूची के अन्तर्गत संसद और विधानसभा के मध्य के संबंध, विधायी शक्तियां, कराधान का वितरण किया गया है। इसके अंतर्गत तीन सूचियां हैं। कुछ भूभाग जो सीधे संघ के कार्यक्षेत्र में आते हैं को केंद्र शासित प्रदेश कहा जाता है।
भारतीय संविधान में संघ सरकार का केंद्रीय स्वरूप संसदीय कार्यप्रणाली लागू की गई जो मूल रूप से (अपवादों के अतिरिक्त) संघीय है।
संविधान संशोधन -
अब तक 127 संविधान संशोधन विधेयक संसद में लाये गये हैं जिनमें से 105 संविधान संशोधन विधेयक पारित हो कर संविधान संशोधन अधिनियम का रूप ले चुके हैं।
संविधान की 22 भाग -
भारतीय संविधान 22 भागों में विभजित है तथा इसमे 395 अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियाँ हैं।
भाग अनुसूची। अनुच्छेद
01. संघ और उसके क्षेत्र - अनुच्छेद 01 से 04
02. नागरिकता - अनुच्छेद 05 से 11
03. मूलभूत अधिकार - अनुच्छेद 12 से 35
04. राज्य नीति निदेशक तत्त्व - अनुच्छेद 36 से 51
04.A मूल कर्तव्य। - अनुच्छेद 51 A
(यह भाग बाद में जोड़ा गया)
05. संघ - अनुच्छेद 52 से 151
06. राज्य - अनुच्छेद 152 से 237
07. - - अनु़चछेद 238
सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 द्वारा निरसित
08. केंद्र शासित प्रदेश - अनुच्छेद 239 से 242
09. पंचायत - अनुच्छेद 243 से 243 ओ
9A नगरपालिका। - अनुच्छेद 243P से 243ZG
10. अजा एवं ज.जाति क्षेत्र - अनुच्छेद 244 से 244A
11. संघ व राज्यों सम्बन्ध - अनुच्छेद 245 से 263
12. वित्त, सम्पत्ति, संविदाएँ और वाद - अनुच्छेद 264 से 300A
13. भारत राज्य क्षेत्र में व्यापार, वाणिज्य और समागम - अनुच्छेद 301 से 307
14. संघ और राज्यों के अधीन सेवाएँ - अनुच्छेद 308 से 323
14.A अधिकरण - अनुच्छेद 323A से 323B
15. निर्वाचन। - अनुच्छेद 324 से 329A
16. विशेष उपबन्ध (वर्ग विशेष)-अनुच्छेद 330 से 342
17. राजभाषा - अनुच्छेद 343 से 351
18. आपात उपबन्ध - अनुच्छेद 352 से 360
19. प्रकीर्ण - अनुच्छेद 361 से 367
20. संविधान संशोधन - अनुच्छेद 368
21. अस्थाई संक्रमणकालीन और विशेष उपबन्ध - अनुच्छेद 369 से 392
22. संक्षिप्त नाम, प्रारम्भ, हिन्दी में प्राधिकृत पाठ और निरसन - अनुच्छेद 393 से 395
संविधान की अनुसूचियां -
मूल संविधान में आठ अनुसूचियाँ थीं, विभिन्न संशोधनों द्वारा चार और अनुसूचियां जोड़ी गई, वर्तमान में बारह अनुसूचियाँ हैं। , 10वीं अनुसूची 52वें संविधान संशोधन 1985, 11वीं अनुसूची 73वें संविधान संशोधन 1992 एवं बाहरवीं अनुसूची 74वें संविधान संशोधन 1992 द्वारा सम्मिलित किया गया।
मूल आठ अनुसूचियां
1. इस अनुसूची में (अनुच्छेद 1 व 4) हैं जिनमें राज्य और संघ राज्य क्षेत्र से संबंधित प्रावधान हैं।
2. इस अनुसूची में अनुच्छेद 59(3), 65(3), 75(6),97, 125,148(3), 158(3),164(5),186 तथा 221 सम्मिलित हैं जिनमें मुख्य पद, उनके कार्य, शक्तियां और बंधन सहित वेतन-भत्ते दिए जाने संबंधी प्रावधान हैं।
2क :में राष्ट्रपति और राज्यपाल के वेतन-भत्ते
2ख में लोकसभा तथा विधानसभा के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, राज्यसभा/विधान परिषद् सभापति तथा उपसभापति के वेतन-भत्ते
2ग में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन भत्ते
2घ में भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के वेतन भत्ते।
3. इस अनुसूची में अनुच्छेद 75(4),99, 124(6), 148(2), 164(3), 188 और 219) विधायिका सदस्य, मंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीशों आदि हेतु शपथ लिए जाने वाले प्रतिज्ञान के प्रारूप दिए हैं।
4. इस अनुसूची में अनुच्छेद 4(1),80(2) राज्यसभा में स्थानों का आबंटन राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों हेतु का प्रावधान है।
5. इस अनुसूची में अनुच्छेद 244(1) अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जन-जातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित प्रावधान हैं।
6. इस अनुसूची में अनुच्छेद 244(2), 275(1) असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन संबंधी प्रावधान हैं।
7. इस अनुसूची में अनुच्छेद 246 के विषयों के वितरण से संबंधित सूची
A. संघ सूची, सूची
B. राज्य सूची, सूची
C. समवर्ती सूची से संबंधित उपबंध है।
8. इस अनुसूची में अनुच्छेद 344(1), 351 के विषय भाषाएँ में 22 भाषाओं का उल्लेख किया गया है।
संविधान संशोधन द्वारा जोड़ी गई 04 अनुसूचियां -
9. प्रथम संविधान संशोधन 1951 द्वारा इस अनुसूची में अनुच्छेद 31 ख के अनुसार भूमि सुधार संबंधी अधिनियमों विधिमान्यकरण किया गया है।
10. 52वें संविधान संशोधन (1985) द्वारा जोड़ी गई इस अनुसूची में अनुच्छेद 102(2), 191(2)] - दल बदल संबंधित प्रावधान हैं।
11. 73वें संवैधानिक संशोधन (1992) द्वारा जोड़ी गई इस अनुसूची में अनुच्छेद 243 छ पंचायती राज/ जिला पंचायत से सम्बन्धित प्रावधान हैं।
12. 74वें संवैधानिक संशोधन (1993) द्वारा जोड़ी गई इस अनुसूची में नगरपालिका संबंधित उपबंध हैं।
आधारभूत विशेषताएँ -
भारत सरकार का संघात्मक स्वरूप -
संविधान प्रारूप समिति तथा सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान को संघात्मक संविधान माना है संविधान का संघात्मक होना उसमें निहित संघात्मक लक्षणों पर निर्भर करता है। भारत राज्यों का समूह है।
भारत एक सम्प्रभु राष्ट्र
सम्प्रभुता शब्द का अर्थ है स्वतन्त्र (राज्य के निर्णय बिना किसी दबाव के स्वयं कर सकने की शक्ति) होना। भारत किसी भी विदेशी और आन्तरिक शक्ति के नियन्त्रण से पूर्णतः मुक्त सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र है। यह सीधे लोगों द्वारा चुनी गई सरकार द्वारा शासित है तथा यही सरकार कानून बनाकर लोगों पर शासन करती है। राज्य की शक्तियां केंद्रीय तथा राज्य सरकारों में विभाजित होती हैं। दोनों सत्ताएँ एक-दूसरे के अधीन नहीं होती है जो संविधान से उत्पन्न एवं नियंत्रित होती हैं।
भारत एक समाजवादी राष्ट्र
यह शब्द 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा नागरिकों को सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करने हेतु प्रस्तावना में जोड़ा गया। भारत सरकार जाति, रंग, नस्ल, लिंग, धर्म या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना सभी को समान अवसर देती है। अस्पृश्यता उन्मूलन, जमींदारी अधिनियम, समान वेतन अधिनियम और बाल श्रम निषेध अधिनियम आदि बनाये गए। कुछ लोगों के हाथों में धन जमा होने से रोकने एवं सभी नागरिकों को एक अच्छा जीवन स्तर प्रदान करने का प्रयत्न करती है। सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई।
भारत एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र -
यह शब्द भी 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया के अनुसार भारत सरकार सभी पन्थों की समानता और पंथिय सहिष्णुता सुनिश्चित करेगी एवं भारत का कोई आधिकारिक पंथ नहीं होगा। सरकार ना तो किसी पन्थ को बढ़ावा देगी और ना ही किसी से भेदभाव करेगी। प्रत्येक नागरिक को स्वयं की इच्छा अनुसार उपासना, धर्म के पालन और प्रचार का अधिकार होगा। सभी नागरिकों कानून की दृष्टि में सामान हैं। सरकारी या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों में कोई धार्मिक अनुदेश लागू नहीं होगा।
भारत एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र -
जनता का जनता के द्वारा जनता पर शासन लोकतंत्र कहलाता है।
- अब्राहम लिंकन
राजशाही, जिसमें राज्य प्रमुख वंशानुगत आजीवन या पदत्याग तक नियुक्त किया जाता है, के विपरीत गणतान्त्रिक राष्ट्र का प्रमुख एक निश्चित अवधि के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित होता है। भारत के राष्ट्रपति पाँच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं।
भारत के नागरिक को अपना प्रतिनिधि चुनने हेतु एक निर्वाचन में किसी एक स्थान से मत देने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। सामाजिक उपेक्षित सामाजिक वर्गों (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) हेतु संस्थाओं में विशिष्ट सीटें आरक्षित की गई है। स्थानीय निकाय चुनाव में महिलाओं हेतु निश्चित अनुपात में सीटें आरक्षित की जाती हैं। भारत का निर्वाचन आयोग एक स्वतन्त्र संस्था है और यह स्वतन्त्र और निष्पक्ष निर्वाचन करने के लिए सदैव तत्पर है।
सरकार की शक्तियों का विभाजन -
भारत के संविधान का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है कि राज्य की शक्तियां केंद्र तथा राज्य सरकारों में विभाजित हैं। दोनों सरकारें परस्पर अधीन न हो कर संविधान से उत्पन्न तथा नियंत्रित होती हैं।
विश्व का कठोरतम संविधान -
भारतीय संविधान के कठोर होना इस से इंगित है कि इस संविधान के कुछ ऐसे प्रावधान भी हैं, जिन्हें संशोधित करना भारतीय संसद के लिए आसान नहीं है। इन प्रावधानों के लिए न सिर्फ संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, बल्कि देश के आधे राज्यों के विधान मंडल के समर्थन की आवश्यकता भी होती है।
विश्व का सब से बड़ा लिखित संविधान -
भारत का संविधान विश्व के किसी भी सम्प्रभु देश का सबसे लम्बा लिखित संविधान है। संविधान के अंग्रेज़ी संस्करण में 117369 शब्द के साथ, 25 भागों( 22 + 4A, 9A, 14A) में 395 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ और 106 (1951 to 2024) तक संशोधन हैं, जबकि शब्दों के आधार पर मोनाको का संविधान सबसे छोटा लिखित संविधान है, जिसमें 97 अनुच्छेदों हैं।
भारत के संविधान का लचीलापन -
भारतीय संविधान का संशोधन भारत के संविधान में संसद द्वारा परिवर्तन की प्रक्रिया को बिल के रूप में पटल पर रखा जाता है। बहस के बाद इसे बहुमत से स्वीकार या अस्वीकार कर दिया जाता है। संविधान संशोधन हेतु प्रस्तुत 127 में से 106 (1951 से 2024 तक) संशोधन हो चुके हैं।
सरकार पर भारत के संविधान की सर्वोच्चता
संविधान के उपबंध संघ तथा राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते हैं। केन्द्र तथा राज्य सरकार की शक्तियों को विभाजित करने वाले अनुच्छेद 54, 55, 73, 162, 241 एवं भाग -5 में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय राज्य तथा केन्द्र के मध्य वैधानिक संबंधों हेतु बाध्यकारी प्रावधान हैं। अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची व राज्यो का संसद के ऊपरी सदन में प्रतिनिधित्व परस्पर हितों का संरक्षण करता है। संविधान संशोधन हेतु अनुच्छेद 368 के अनुसार संसद अकेले अनुच्छेद 54, 55, 73, 162, 241 में संशोधन नहीं कर सकती, इस हेतु उसे राज्यों की सहमति लेनी अनिवार्य है।
भारतीय संविधान की विशेषताएँ -
1. यह संघ राज्यों के परस्पर समझौते से नहीं बना है
2. राज्य अपना पृथक संविधान नहीं रख सकते।
3. भारत में केवल एक ही नागरिकता भारतीय नागरिकता है।
4. अनुच्छेद 356 के अनुसार आपातकाल लागू होने पर उपबन्ध 352 अनुच्छेद के लागू होने पर राज्य-केन्द्र शक्ति पृथक्करण समाप्त हो जायेगा व एकात्मक शासन व्यवस्था लागू होगी। इस स्थिति में केन्द्र-राज्यों पर पूर्ण सम्प्रभु हो जायेगा।
5. अनुच्छेद 3 के अनुसार राज्य भारतीय संघ के अनिवार्य घटक नहीं हैं, बिना राज्यों की सहमति के केंद्र राज्यों के नाम, क्षेत्र तथा सीमा में कभी भी परिवर्तन कर सकता है। केन्द्र संघ को पुर्ननिर्मित कर सकता है। वर्ष 2020 में जम्मू कश्मीर राज्य का विगठन किया गया।
6. संविधान की 7वीं अनुसूची की तीन सूचियों
A. संघीय सरकार सूची - संघीय सूची में सेना, डाक, प्रसारण, अंतरराष्ट्रीय संबंध आदि सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय हैं
B. राज्य सूची - पुलिस, न्याय,राजस्व आदि विषय
विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची पर संसद विधि निर्माण कर सकती है किंतु किसी एक भी परिस्थिति में राज्य, केन्द्र हेतु विधि निर्माण नहीं कर सकते-
क1. अनु 249—राज्य सभा यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्र हित हेतु यह आवश्यक है [2/3 बहुमत से] किंतु यह बन्धन मात्र 1 वर्ष हेतु लागू होता है
क2. अनु 250— राष्ट्र आपातकाल लागू होने पर संसद को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार स्वत: मिल जाता है
क3. अनु 252—दो या अधिक राज्यों की विधायिका प्रस्ताव पास कर राज्य सभा को यह अधिकार दे सकती है [केवल संबंधित राज्यों पर]
क4. अनु 253--- अंतराष्ट्रीय समझौते के अनुपालन के लिए संसद राज्य सूची विषय पर विधि निर्माण कर सकती है
क5. अनु 356—जब किसी राज्य में [राष्ट्रपति शासन] लागू होता है, उस स्थिति में संसद उस राज्य हेतु विधि निर्माण कर सकती है
C.समवर्ती सूची (के विषयों का वितरण केन्द्र के पक्ष में है, केंद्र सरकार द्वारा इस विषय पर स्थापित विधि राज्यों को मानने हेतु प्राथमिकता दी जायेगी)
7. अनुच्छेद 155 – राज्यपालों की नियुक्ति पूर्णत: केन्द्र की इच्छा से होती है इस प्रकार केन्द्र राज्यों पर नियंत्रण रख सकता है
8. अनु 360 – वित्तीय आपातकाल की दशा में राज्यों के वित्त पर भी केन्द्र का नियंत्रण हो जाता है। इस दशा में केन्द्र राज्यों को धन व्यय करने हेतु निर्देश दे सकता है
9. प्रशासनिक निर्देश [अनु 256-257] -केन्द्र राज्यों को राज्यों की संचार व्यवस्था किस प्रकार लागू की जाये, के बारे में निर्देश दे सकता है, ये निर्देश किसी भी समय दिये जा सकते है, राज्य इनका पालन करने हेतु बाध्य है। यदि राज्य इन निर्देशों का पालन न करे तो राज्य में संवैधानिक तंत्र असफल होने का अनुमान लगाया जा सकता है
10. अनु 312 में अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान है ये सेवक नियुक्ति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक क्षेत्रों में पूर्णतः: केन्द्र के अधीन है जबकि ये सेवा राज्यों में देते है राज्य सरकारों का इन पर कोई नियंत्रण नहीं है
11. एकीकृत न्यायपालिका
12. राज्यों की कार्यपालिक शक्तियाँ संघीय कार्यपालिक शक्तियों पर प्रभावी नहीं हो सकती है।
संविधान के भाग 3 व 4 में नीति निर्देशक तत्त्व
संविधान के विकास के साथ ही विकसित हुए तत्वों का कार्य जन कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। इस हेतु आयरलैंड के संविधान से लिए गए मौलिक अधिकार एवं नीति निर्देशक तत्व भारतीय संविधान के भाग 3 व 4 में अंकित संविधान की आत्मा तथा चेतना कहलाते हैं। स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों व सरकार के मौलिक अधिकार एवं नीति-निर्देश तत्व राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नीति निर्देशक तत्त्व जनतांत्रिक संवैधानिक विकास के नवीनतम तत्त्व हैं। भारतीय संविधान के इस भाग में नीति निर्देशक तत्वों का रूप व आकार निश्चित किया गया है। मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्त्व में भेद बताया गया है और नीति निदेशक तत्वों के महत्त्व को समझाया गया है।
भाग 4 क ग्यारह मूल कर्तव्य -
यह मूल सविधान में नहीं थे, 42वें संविधान संशोधन में रूस के संविधान से प्रेरित हो कर दस मूल कर्तव्य ग्यारहवां मूल कर्तव्य 86 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग 4(क) के अनुच्छेद 51 - अ में जोड़े गये। तथा वर्तमान में ये 11 हैं।
मूल कर्तव्य यह हैं - भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि -
01. संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान का आदर करे।
02. स्वतन्त्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे।
03. भारत की प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे।
04. देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे।
05. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है।
06. हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझे और उस का परिरक्षण करे।
07. प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अन्तर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे।
08. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे।
09. सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे।
10. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले।
11. यदि माता-पिता या संरक्षक हैं, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।
इस प्रकार से भारत का अपना लिखित संविधान 1757 से अपने स्वरूप में आना प्रारंभ हुआ जो कई संशोधनों के साथ आज विश्व के श्रेष्ठ संविधान के रूप में विकसित हुआ। आने वाले समय में इसमें ससंद की अनुमति से प्रावधान अनुसार सुधार और जुड़ाव होते रहेंगे।
आशा है हम भारत के संविधान की प्रस्तावना की मूल भावना को समझ कर अंगीकृत, आत्मर्पित व स्वयं पर शासित करेंगे।
जय संविधान, जय भारत, जय भारत की संप्रभुता
शमशेर भालू खान
9587243963
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