Saturday, 24 August 2024

शाहबानो तलाक प्रकरण

                     शाहबानो
शाहबानो प्रकरण एवं मुस्लिम महिला विवाह सुरक्षा कानून
वर्ष 1932 में मध्य प्रदेश के इंदौर की शाह बानो का विवाह इंदौर के एडवोकेट अहमद खान के साथ हुआ। संपन्न परिवार में पांच संतानों का खुशी - खुशी पालन पोषण कर रही थी कि विवाह के 14 साल बाद अहमद खान ने एक ओर विवाह कर लिया। वर्षों तक साथ रहने के बाद अहमद खान ने शाह बानो को 62 वर्ष की आयु में 200 रूपए प्रति महीना गुजारा भत्ता की शर्त पर अलग कर दिया। अप्रैल 1978 में खान ने यह भत्ता देना बंद कर दिया। शाहबानो ने इस के विरुद्ध इंदौर कोर्ट में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत वाद प्रस्तुत किया। IPC की धारा 125 के अन्तर्गत सभी भारतीय महिलाओं को भरण-पोषण का दावा करने का अधिकार है क्योंकि यह संहिता एक आपराधिक कानून है न कि सिविल कानून।
नवंबर 1978 में अहमद खान ने शाहबानो को अपरिवर्तनीय तलाक (शरीयत के अनुसार तलाक ए बिद्दत) दे दिया। खान ने बचाव में दलील दी कि शाह बानो अब मेरी पत्नी नहीं रही इसलिए शरीयत के अनुसार इद्दत (सवा चार माह की अवधि) व मेहर (विवाह के समय स्त्री पक्ष द्वारा निर्धारित स्त्री धन) (दोनो को मिलाकर कुल 5400 रुपए) के अलावा गुजारे भत्ते का भुगतान करने हेतु वह बाध्य नहीं है। अगस्त 1979 में सेशन न्यायालय इंदौर ने खान को 25 रूपए प्रति माह शाहबानो के पक्ष में देने का आदेश दिया। शाहबानो ने इसके विरूद्ध भत्ते की राशि बढ़ाने हेतु 1 जुलाई 1980 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील की जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार करते हुए भत्ता राशि 25 रूपए से बढ़ा कर 179.20 प्रति माह कर दी। उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध खान ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी। 3 फरवरी 1981 को न्यायमूर्ति मुर्तजा फज़ल अली और A. वरदराजन की पीठ ने सुनवाई करते हुए न्याय प्रक्रिया संहिता की धारा 125 जो मुसलमानों सहित सभी नागरिकों पर लागू है, खान की अपील को उच्च पीठ को सुनवाई हेतु स्थानांतरित कर दिया। इस के बाद मामले में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद भी कूद पड़े। पांच न्यायाधीशों चंद्रचूड़, रंगनाथ मिश्रा, D.A. देसाई, O. चिन्नप्पा रेड्डी और E.S. वेंकटरमैया की खण्ड पीठ ने सुनवाई शुरू की। 23 अप्रैल 1985 को सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से निर्णय कर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश को यथावत रखा। शाह बानो के वकील डेनियल लतीफी ने इसका स्वागत किया। सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ ने CRPC की धारा 320/1979 के अधीन मामले की सुनवाई की। CRPC की धारा 320 की उपधारा 01 के अन्तर्गत न्यायालय या राज्य तालिका के कालम 03 में दिए गए व्यक्तियों के अलावा अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों पर कार्यवाही नहीं कर सकता।  इस की उपधारा (3) में के अनुसार तालिका अनुसार अपराधों के संबंध में अपराध हेतु उकसाना/ प्रयास करना भी CRPC की धारा 34 और 149 के अन्तर्गत दंडनीय है। इस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि "तलाक शुदा पत्नी जो स्वयं गुजारा करने में असमर्थ हो, को गुजारा भत्ता देने की जिम्मेदारी में CRPC की धारा 125 और शरीयत के प्रावधानों में कोई टकराव नहीं है। कुरान में भी पत्नी को गुजारा भत्ता देने का आदेश है।" शाह बानो को इस हेतु सात वर्ष तक सड़क पर चप्पल घिसनी पड़ी और अदालतों के चक्कर काटने पड़े। कहने को तो यह एक मुकदमा था जिसे शाह बानो ने जीत लिया परंतु यह मुद्दा आने वाले समय में कांग्रेस पर तुष्टिकरण के आरोप के साथ घोर विरोध  का कारण बना। ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड समेत सभी भारतीयों ने तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार को पूर्ण बनाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का समर्थन किया। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमात ए इस्लामी, जमियत उलमा ए हिंद ने कुरान का हवाला देते हुए इस फैसले को शरीयत पर अतिक्रमण बता कर विरोध किया। राजीव गांधी के सहयोगी आरिफ मोहम्मद खान जो कांग्रेस के सदस्य और गांधी मंत्रिमंडल में मंत्री थे, ने विरोध में पद और पार्टी से इस्तीफा दे दिया।
इस विरोध के कारण प्रेस, भाजपा, RSS और विश्व हिंदू परिषद ने सभी धर्मों के लिए समान नागरिक संहिता की मांग शुरू कर दी। भारत में 1985 के आम चुनाव निकट थे, राजीव गांधी इस समस्या का समाधान चाहते थे। उन्होंने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986  संसद में प्रस्तुत किया जो पूर्ण बहुमत से पारित हुआ। इस अधिनियम का विवादास्पद भाग यह था कि महिला को तलाक के बाद इद्दत की अवधि का भरण - पोषण प्राप्त करने का अधिकार होगा जिस का उसके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड द्वारा उठाया जायेगा। 
इस अधिनियम के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का फैसला शून्य हो गया एवं तलाक के बाद महिला को पूर्व पति द्वारा एक मुश्त भुगतान  एवं 117 दिन इद्दत अवधि के लिए गुजारा भत्ता देना होगा। मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को पूर्व पति से मासिक गुजारा भत्ता पाने के अधिकार को सीमित कर दिया।
विपक्ष ने इसे भेदभावपूर्ण मानते हुए विरोध किया कि इसने भारतीय कानून के अन्तर्गत मुस्लिम महिलाओं को गुजारे भत्ते के बुनियादी अधिकार से वंचित कर दिया। 

शाह बानो प्रकरण को विवाद का विषय बनाने में प्रेस का सब से बड़ा हाथ रहा। प्रेस द्वारा इस मामले को तूल देते हुए 1986 के अधिनियम की खूब आलोचना की गई।

माननीय सुप्रीम कोर्ट  द्वारा अधिनियम की व्याख्या -
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के अंतर्गत डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ 2001 और शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान केस में अधिनियम की व्याख्या की और शाह बानो प्रकरण पर अपने निर्णय को यथावत रखा। 
न्यायालय ने कहा कि अधिनियम वास्तव में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए गुजारे भत्ते को रोकता नहीं है, और मुस्लिम पुरुषों को तलाकशुदा पूर्व पत्नी का पुनर्विवाह होने तक भरण-पोषण करना चाहिए। हालांकि न्यायालय ने माना कि यदि अधिनियम मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत धर्मनिरपेक्ष कानून के प्रावधानों की तुलना में पति-पत्नी के पत्नी को गुजारा भत्ते से रोकता तो 1986 का यह कानून असंवैधानिक होता। परंतु यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के अनुसार है जोदंड प्रक्रिया संहिता का उल्लंघन नहीं करता। इस अधिनियम मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3(1)(ए) के अनुसार "उचित रीति यही है कि तलाकशुदा महिला को भरण-पोषण राशि का तलाक देने वाले पुरुष द्वारा इद्दत अवधि के भीतर भुगतान किया जाना चाहिए"। न्यायालय ने माना कि इस प्रावधान का अर्थ है कि उचित और निष्पक्ष प्रावधान और भरण-पोषण इद्दत अवधि तक सीमित नहीं है (जैसा कि "के लिए" के बजाय "भीतर" शब्द के उपयोग से स्पष्ट है)। यह तलाकशुदा पत्नी के पूरे जीवन तक लागू रहता है जब तक कि वह दोबारा शादी नहीं कर लेती।

भाजपा सरकार द्वारा नया अधिनियम 2019 - 
2014 में केन्द्र में भाजपा की सरकार बनते ही उसने कई संशोधन किए। अगस्त 2017 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया, जो मुस्लिम पुरुषों को अपनी पत्नियों को तुरंत तलाक देने में सक्षम बनाता है। भारत सरकार द्वारा किए गए संशोधन जिनमें - 
1. दिसंबर 2017 में भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले और भारत में ट्रिपल तलाक के मामलों का हवाला देते हुए मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2017 पेश किया। विधेयक में किसी भी रूप में- मौखिक, लिखित या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से- ट्रिपल तलाक को अवैध और शून्य बनाने का प्रस्ताव है। कानून के उल्लंघन की सजा में ट्रिपल तलाक का उच्चारण करने वाले पति के लिए तीन साल तक की कैद की सजा देय की गई।  27 दिसंबर 2018 को लोक सभा द्वारा पारित अधिनियम राज्य सभा में पारित नहीं हो सका। सरकार ने अधिसूचना के रूप में अधिनियम को19 सितंबर 2018 से प्रभावित्त कर दिया।
01. 10 जनवरी 2019 को मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 के नाम से व्याखित विधेयक 21 जून 2019 को लोकसभा में प्रस्तुत कर जुलाई 2019 में बहस हेतु रखा गया। लोक सभा ने 25 जुलाई 2019 व राज्य सभा 30 जुलाई 2019 को इसे पारित कर दिया। राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने 31 जुलाई 2019 को मंजूरी दी। इसी दिन 31 जुलाई 2019 से भारत के राजपत्र में अधिसूचित कर अधिनियम 2019 को अधिसूचना सितंबर 2018 के स्थान पर प्रतिस्थापित कर प्रभावी कर दिया गया।
अब भारत में ट्रिपल तलाक अपराध माना गया। यह अधिनियम पीड़ित महिला आश्रित बच्चों हेतु गुजरा भत्ता की मांग करने की अधिकारी होगी। इस अधिनियम के अनुसार नियमानुसार मुस्लिम पुरुषों को बहु विवाह की अनुमति है।
इस अधिनियम का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), राष्ट्रीय जनता दल, ऑल इंडिया मजलिस- ए -इत्तेहादुल मुस्लिमीन, बीजू जनता दल, ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग सहित लगभग सम्पूर्ण भारत में विरोध हुआ।
इस अधिनियम में 8 धाराएँ हैं - 
02. मुस्लिम पति द्वारा पत्नी को मौखिक/ लिखित या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या किसी भी अन्य रूप से तलाक देना अमान्य और अवैध होगा।
2.ऐसा करने पर पति को तीन वर्ष तक कारावास की सजा भुगतनी होगी और जुर्माना भी देना होगा।
3. तलाक शुदा महिला पति से उसके आश्रित बच्चों हेतु मजिस्ट्रेट द्वारा निर्धारित निर्वाह भत्ता प्राप्त करने की अधिकारी होगी।
4. तलाक शुदा मुस्लिम महिला मजिस्ट्रेट के माध्यम से नियमानुसार नाबालिग बच्चों की अभिरक्षा पाने की अधिकारी होगी।
5. तलाक शुदा मुस्लिम महिला/रक्त संबंधी/किसी व्यक्ति द्वारा पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी सूचना देने पर संज्ञान लेना होगा।
6. वाद की स्थिति में न्यायलय के माध्यम से तलाक पर निर्धारित नियमों और शर्तों के आधार पर मामला समझौते के योग्य होगा।
7. तलाक शुदा महिला और प्रतिवादी की सुनवाई कर न्यायालय के संतुष्ट होने तक आरोपी जमानत पर रिहा नहीं किया जा सकेगा।
8. दंड प्रक्रिया संहिता का पूर्ण पालन करना मैजिस्ट्रेट का कर्तव्य है।
वास्तव में इस्लाम धर्म में तीन तलाक जैसा कोई उपबंध है ही नही। तलाक की निर्धारित प्रक्रिया है जिसका पालन करना अनिवार्य है। सरकार के इस अधिनियम का शरीयत कानून पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। 

देश भर में हुआ तीन तलाक कानून का विरोध

इस प्रकार से वर्ष 1985 में उठा विवाद आज भी समान नागरिक संहिता की मांग पर अनवरत है।

शमशेर भालू खान 
9587243963

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