धर्म का प्रारंभ व धर्म विधान का निर्माण
विश्व में प्रथम जोड़े से संतान उत्पत्ति हुई इसमें लगातार वृद्धि होती गई जो पूरे संसार के कोने-कोने में फैल गई। एक समय था जब सभी महाद्वीप जुड़े हुए थे पृथ्वी कई क्यूब (प्लेट) से बनी हुई है जो क्रोड के तरल लावा पर तैर रही है।
कुछ प्लेट एक दूसरे से दूर तो कुछ नजदीक होती रहीती हैं महासागर,द्वीप या महाद्वीप के बनने का यही मुख्य कारण है।
लाखों वर्ष पहले मानव संतति में वृद्धि दर तेजी से बढ़ी होगी और वह आवास व भोजन की तलाश में एक दूसरे से दूर होते चले गए होंगे, कालांतर में यह दूरी महाद्वीपों के रूप में स्थापित होकर विभिन्न संस्कृतियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती चली गई।
स्थान, खानपान ,उच्चावच व भौगोलिक परिस्थितियों ने नइन-नक्श ,लंबाई, रंग के साथ गठीलापन आदि को प्रभावित किया जिसे हम विभिन्न महाद्वीपों,द्वीपों और प्रायद्वीपों में भली प्रकार से आज भी पहचान सकते हैं। जैसे-जैसे जनसंख्या वृद्धि होती गई वैसे-वैसे व्यक्तियों का सामाजिक व्यवहार परंपरा रीति-रिवाज आदि का चलन हुआ व्यक्तियों के कार्यों का विभाजन किया जाने लगा।
मानव एक संवेदनशील प्राणी है और उसे उसके जैसे किसी अन्य मानव के द्वारा कोई आदेश दिया जाना अच्छा नहीं लगता जो शाश्वत सत्य है और व्यवस्था बनाने के लिये कोई न कोई किसी न किसी को आदेश तो देगा ही जिसे मानना अनिवार्य किया जाना भी ज़रूरी था, बस इसीलिये धर्म की स्थापना हुई।
जब स्थान विशेष पर कई बस्तियां बस गई होंगी व जनसंख्या बढ़ गई होगी साथ ही मानव बुद्धि का विकास हुआ तो वह अच्छे या बुरे दो प्रकार के कार्य करने लगा।
सरल अर्थ में हम कह सकते हैं कि अच्छे (गृह्य) कार्य को धर्म और बुरे (अग्रह्य) कार्य को अधर्म के रूप में जाना जाने लगा।
जब बस्तियां बड़ी होती गई तो शासक की आवश्यकता महसूस की गई होगी कई धर्म ग्रंथों में शासक को ही ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर या ईश्वर का अवतार मानकर उनके आदेशों की पालना ईश्वरीय आदेश मानकर की जाने लगी। सामाजिक व्यवस्था का संचालन इस प्रकार से किया जाने लगा विश्व के बहुत सारे धर्मों में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया राज की आज्ञा की अवहेलना ईश्वरीय आदेश की अवहेलना समझी जाने लगी।
कई स्थानों पर समय-समय पर मानव समाज में फैली गलत नीतियों और रिवाजों को धर्म सुधारकों ने ईश्वर के आदेश के रूप में नई नीतियों का निर्माण कर प्रतिस्थापित किया।
कालांतर में यह नीतियां धर्म का अनिवार्य हिस्सा बन गईं।
प्राथमिक काल में मानव ईश्वर में विश्वास तो करता था पर मूर्तिकला चित्रकारी आदि से अनभिज्ञ था आज भी कहीं भी हम ईश्वर का चित्र या मूर्ति नहीं देख सकते।
ज्ञान के विकास व कलाओं के जन्म लेने पर राजा जिनको ईश्वर का प्रतिनिधि या अवतार के रूप में पुकारा गया जाना पहचाना गया जिनको मनुष्य ने देखा उनके चित्र बनाये गये और शनै-शनै उनकी मूर्तियां भी बन गईं। बाद में महिमामंडन के साथ उनकी पूजा-अर्चना प्रारंभ हो गई।
यह संसार एक दिन में निर्मित नहीं हुआ न ही क्षण भर में सभ्यताओं का जन्म हुआ। सर्वप्रथम किसी ने किसी मनुष्य की हत्या की होगी या कोई अमानवीय कृत्य किया होगा।
हम जानते हैं पशुवध मानव प्रारंभ काल से ही करता आ रहा है और पशुओं को मारकर खाता आ रहा है जिसे पाप की श्रेणी में नहीं लाया गया है परंतु मनुष्य की हत्या या आपस में झगड़े करना मानव के लिए कष्टदायक था और इसे पाप की श्रेणी में रखा गया।
प्रथम हत्यारे या अमानवीय कार्य करने वाले को कोई सजा दी गई होगी और यहीं से धर्म दण्ड की शुरूआत हुई।
इस प्रकार से धर्म में ईश्वरिय आदेशों को मानना व सदाचार की पालना को पुण्य और आदेशों की अवहेलना करना या उस समय विशेष के नियम को न मानना पाप कहलाया।
पुण्य करने वालों को समाज शासक व्यवस्था द्वारा पुरस्कार किए जाने लगे और उन्हें समझाया गया ईश्वर ने अगले जन्म में या परलोक में भी उनके लिए बहुत अच्छी व्यवस्था कर रखी है जिन्हें स्वर्ग कहते हैं।
दूसरी ओर पाप करने वालों को समाज,शासन व व्यवस्था द्वारा दंड का विधान किया गया इसके साथ ही उसे परलोक में भी भयंकर सजा का प्रावधान होने की चेतावनी दी गई जिसे नर्क कहा जाने लगा।
स्वर्ग और नरक के सिद्धांत ने मनुष्य को सामाजिक व्यवस्था के अनुसार जीवन जीने के लिए बाध्य किया।
विश्व का कोई भी धर्म हो उसमें स्वर्ग या नरक का सिद्धांत अवश्य ही पाया जाता है विभिन्न भाषाओं में उनके नाम अलग-अलग हो सकते हैं।
मनुष्य एक उत्श्रींखल जीव है वह स्वतंत्रता प्रेमी है मानव की स्वच्छंद जीवन शैली (क्योंकि वह प्रारंभ से ही पशुओं में रहा अथवा उसका विकास विज्ञान के अनुसार पशु से हुआ जिनके गुण आना निश्चित संभव है ) पर प्रतिबंध दंड (नरक) और पुरस्कार (स्वर्ग) के सिद्धांतों से लगाया गया।
धीरे-धीरे ज्ञान की विकास के आधार पर धर्म विधान का निर्माण कर ईश्वर, दूत, फरिश्ते व मानव जैसे अन्य जीवों की परिकल्पना कर व्याख्या सहित समझाया गया और पुराने नियमों में समयानुसार परिवर्तन किया गया।
यहां जो मानव के लिए उपयोगी थे उनकी पूजा प्रारंभ की गई जैसे नदी, नाले पेड़ व पशुओं आदि आप जानते हैं कि विश्व में गाय की पूजा सर्वप्रथम मिस्र देश में शुरू की गई।
आज के काबे में हज़रत मोहम्मद साहब के जन्म से पहले सैकड़ों की संख्या में मूर्तियां स्थापित थीं और उन मूर्तियों की पूजा की जाती थी।
समय-समय पर धर्म विधान व पूर्व निर्मित धर्म विधान में परिवर्तन द्वारा मानव समाज में व्याप्त गलत नीतियों में सुधार किया गया, जिन्हें ईश्वर के आदेश का रूप दिया गया।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि धर्म के दो सिद्धांत हैं
(1) दंड संसार में भी और परलोक में भी अर्थात अवाँछित पर प्रतिबंध लगाने के लिये भय का सिद्धांत
(2) पुरस्कार अर्थात संसार में सभ्य व्यवहार की प्रतिपुष्टि कर उसे अच्छे कार्य करने और उसकी निरंतरता बनाये रखने के लिए प्रेरणा जो सम्मान के लायक थी और परलोक में भी उसे फलित होने का लालच दिया गया।
धर्म,धर्म आदेश, स्वर्ग व नरक की व्यवस्था हेतु धर्म ग्रंथ आदि का विकास होता गया और मानवता फलीभूत होती गई।
कालांतर में यह धर्म दो भागों में विभक्त हो गया:-
(1) साकार पूजा पद्धति
(2) निराकार पूजा पद्धति विश्व के अधिकांश धर्म सिद्धांत रूप से ईश्वर को निराकार स्वीकार करते हैं परंतु कुछ धर्मों में धर्म आदेश देने वाले लोगों (अवतारों, ईश्वर के पुत्रों व ईश्वर के दूतों, तत्कालीन राजाओं )की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा प्रारंभ कर दी गई।
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