Thursday, 10 July 2025

✅भारत में इस्लाम एवं इस्लामी चिंतक

भारत में इस्लाम एवं इस्लामिक चिंतक 
भारत में इस्लाम धर्म का उदय - 
अरब व्यापारियों का भारत और यूरोप में आना - जाना इस्लाम धर्म के उदय के पहले से था। अरब व्यापारी समुद्री रास्ते से भारत में खजूर और सुगंधित जड़ी-बूटियां लाते और यहां से मलमल, रेशम एवं अन्य कलात्मक सामग्री ले जाते थे। भारत के पश्चिमी तट पर रहने वाले लोग हर वर्ष मानसून ऋतु में अरब व्यापारियों के आगमन की इतनी प्रतिक्षा करते थे जितनी बारिश और मानसूनी पक्षियों के आने की करते थे। कालांतर में कुछ व्यापारी यहीं विवाह कर भारत में बस गए। उनके अरब मूल का होने के प्रमाण आज भी स्थानीय संस्कृति में स्पष्ट दिखाई देते हैं। समुद्री यात्रा करने वाले मुस्लिम अरब व्यापारियों ने भारत के बरवाड़ा, घोघा गुजरात में वर्ष 623 में, केरल के मेथला में चेरामन जुमा मस्जिद वर्ष 629 में और तमिलनाडु के किलाकराई में पलैया जुम्मा पल्ली वर्ष 630 में बनाई।  
यहां चेरामन पेरुमल की किंवदंती के अनुसार पहली भारतीय मस्जिद वर्ष 624  में केरल के कोडुंगल्लूर में चेरा वंश के अंतिम शासक ताजुद्दीन चेरामन पेरुमल ने बनवाई जिन्होंने मोहम्मद साहब के समय  में इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था। इसी तरह, पूर्वी तटों पर तमिल मुसलमानों का भी दावा है कि उन्होंने मुहम्मद के जीवनकाल में ही इस्लाम धर्म अपना लिया था। स्थानीय मस्जिदें 700 के दशक के शुरुआत की हैं। भारतीयों द्वारा विकसित अंक प्रणाली को अरब व्यापारियों ने मध्य पूर्व और यूरोप तक पहुँचाया। 8वीं शताब्दी की शुरुआत में कई संस्कृत पुस्तकों का अरबी में अनुवाद हो चुका था। विधिवत रूप से यह कार्य दूसरे अब्बासिद खलीफा अल-मंसूर (शासन काल 754-775) में शुरू हुआ। अरब लेखकों ने व्यक्तिगत रूप से भारतीय तर्कशास्त्र के ग्रंथों का अनुवाद फारसी एवं अरबी भाषा में इससे पहले शुरू कर दिया था। कबीलों और विभिन्न मान्यताओं में बिखरा अरब मोहम्मद साहब के आने के बाद एक राष्ट्र के रूप में उभरा। तीव्र राष्ट्रवाद के कारण यह कबीले इस्लाम धर्म के संदेश को फैलाने हेतु साझा प्रतिबद्धता के साथ सम्पूर्ण विश्व में फैल गए। अरब व्यापारी अब खजूर और सुगंध के साथ नया मानव धर्म भी साथ ले कर आए। एकेश्वरवादी समतामूलक इस नवीन धर्म का भारत में स्वागत किया गया एवं जातीय असमानता के शिकार उपेक्षित लोगों ने इसे स्वागत के साथ अपनाया। भारत में मस्जिदों का निर्माण करने के साथ ही अरबों और भारतीयों के बीच अंतर्जातीय अंतरराष्ट्रीय विवाह होने लगे। इससे सुदृढ़  व्यापारिक संबंधों के साथ सांस्कृतिक एकीकरण परवान चढ़ा। अब भारत में भारतीय-अरब मुस्लिम समुदाय बन चुका था। 9वीं शताब्दी के प्रारंभ में मालाबार के राजा के इस्लाम धर्म ग्रहण करने के साथ ही यहां मुस्लिम अनुयाइयों की संख्या में विस्फोटक वृद्धि दर्ज की गई। सन 636 ईस्वी को खलीफा उमर जल मार्ग से भारत के पुणे शहर में आए।
स्थलीय भाग में खलीफा अली के समय में हकीम इब्न जबला अल-अब्दी ईस्वी 649 में भारत के सिंध प्रांत के मकरान शहर में आए। उन्होंने जाट बहुल क्षेत्र में इस्लाम का प्रचार किया और उन्हें इस्लाम धर्म की दीक्षा दी। ऊंटों की लड़ाई में कई जाट मुस्लिम अली के साथ लड़े भी थे। 
कवि हकीम इब्न जबला अल-अब्दी अली समर्थक थे। अली के समर्थन में लिखे उनके कुछ कसीदे चचानामा में दर्ज हैं। उनकी ऊंटों की लड़ाई में मृत्यु हो गई। (डेरिल एन. मैकलीन, इतिहासकार)
अली के सैन्य कमांडर हरीथ इब्न मुर्रा अल-अब्दी और सैफी इब्न फ़िल अल-शायबानी जैसे लोगों से प्रभावित थे। सन 658 में इन्होंने सिंधी डाकुओं के विरुद्ध अभियान छेड़ कर अल-क़िकान (क्वेटा) से पीछे धकेल दिया। बाद में सैफी को सन 660 में दमिश्क के पास अली के सात वफादार साथियों में से हुज्र इब्न अदी अल - किंदी के साथ सिर कलम कर दिया गया।
मुहम्मद बिन कासिम (672 ई), 17 वर्ष की आयु में, भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण करने वाला पहला मुस्लिम जनरल था, जो सिंध तक पहुंचने में कामयाब रहा। 8वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उमय्यद खिलाफत और भारतीय राज्यों के बीच कई लड़ाइयाँ हुईं। 901 में तुर्क सैनिक मध्य एशियाई घुमंतू गजनवी कबीले के सुबुतगिन ने गज़नाह शहर में अफगान साम्राज्य की स्थापना की। उसके पुत्र महमूद गजनवी ने सन 1027 में महमूद गजनवी के कमांडर (गवर्नर) मुईजुद्दीन घूरी ने भारत पर आक्रमण किया। गजनवी शक्तिशाली सेना के साथ दक्षिण एशिया के उत्तर - पश्चिमी मैदानों पर पहले ही कब्जा कर चुका था। उसने पंजाब तक राज्य विस्तार किया। पंजाब से प्राप्त संसाधन और धन के बल पर उसने उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में राज्य का और विस्तार किया। इस राज्य विस्तार के साथ  सूफी विद्वान भारत की अंतिम सीमाओं तक पहुंचे। अब भारत में सल्तनत काल का उदय हुआ। इसके बाद मोहम्मद गौरी भारत आया। गौरी ने उत्तर भारत के कुछ भागों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। 
वर्ष 1204 तक गौरी वंश ने भारत के बनारस (वाराणसी), कन्नौज, राजस्थान और बिहार (बंगाल क्षेत्र) में मुस्लिम शासन की शुरुआत की। 
सन 1206 - 1526 तक सल्तनत पांच राजवंशों में विभाजित रही - 
1. मामलुक (गुलाम)
2. खिलजी
3. तुगलक
4. सैय्यद
5. लोधी
लोधी वंश के इब्राहिम लोधी को हराकर बाबर दिल्ली का शासक बना और मुगल सल्तनत की नींव रखी। मुगलों ने अफगानिस्तान से बंगाल और कश्मीर से दौलताबाद तक शासन स्थापित किया।  1206 और 1294 के बीच एशिया में  मंगोल आतंक रहा। इन्होंने दिल्ली पर भी आक्रमण किये। मंगोल आक्रमण से भयभीत लोग शांत क्षेत्र भारत में आ कर बसने लगे। आंतरिक कलह के कारण दिल्ली सल्तनत का पतन हो गया और बंगाल सल्तनत, गोलकुंडा ,बीजापुर, विजयनगर, मैसूर, के बहमनी उर्दू भाषी मुस्लिम रियासतों का उदय हुआ। सन् 1339 शाह मीर राजवंश की सल्तनत सलातिन-ए-कश्मीर के संस्थापक शाह मीर कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक बना। अब मुस्लिम जनसंख्या (अधिकांश सनातन या अन्य धर्म से मुस्लिम बने) की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी। मुगल काल तक यह संख्या 44% तक पहुंच गई थी। मुगल काल के बाद अंग्रेज राज्य में सामूहिक नर संहार के कारण मुस्लिम जनसंख्या में बड़ी गिरावट आई। लेकिन अब भारत में लगभग नौ सौ साल से अपनी जड़ें जमा चुका इस्लाम धर्म सुदृढ़ हो चुका था। अंग्रेज शासन ने जाते समय भारत के मुस्लिम समाज को बांट कर उसे पंगु बना दिया। भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के रूप में भारत का मुसलमान तीन भागों में विभाजित हो गया। बुद्धिजीवी वर्ग का सत्ता संघर्ष के रूप में सफाया कर दिया गया। कुछ लोग विभाजन की त्रासदी नहीं झेल सके और कुछ लोग दंगों में मार दिए गए। भारत में इस्लाम के प्रचार व प्रसार में सूफियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।इस्लाम के प्रसार में उन्हें काफी सफलता प्राप्त हुई क्योंकि सूफि विचारधारा, साहित्य एवं प्रचलित संस्कृति सनातन दर्शन एवं साहित्य के समान थी। विशेष रूप से अंहिंसा और अद्वैतवाद। इस्लाम के प्रति सूफीवादी दृष्टिकोण ने भारतीयों के तौर तरीकों को अपना कर इस्लाम धर्म को और अधिक सुगम एवं सरल बनाया। सूफी ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती,  कुतबुद्दीन बख्तियार काकी, निजामुद्दीन औलिया, शाह जलालुदीन सियुती, अमीर खुसरो, साबिर शाह, शेख अब्दुल दहेल्‍वी, अशरफ जहांगीर सेमनानी, वारिस अली शाह, अता हुसैन फनी चिश्ती जैसे अनेक सूफियों ने भारत के विभिन्न भागों में घूम - घूम कर इस्लाम का प्रचार किया। इस्लामी साम्राज्य के भारत में स्थापित हो जाने के बाद सूफियों ने स्पष्ट रूप से प्रेम और सुंदरता का स्पर्श प्रदान करते हुए आम भारतीय तक इस्लाम का संदेश पहुंचाया और सरकार पर आम आदमी के प्रति नरम रुख रखने हेतु दबाव बनाए रखा। सूफी संतों ने कामगार और अछूत वर्ग को अधिक आकर्षित किया। उन्होंने इस्लाम और भारतीय परंपराओं के मध्य की खाई को पाटने के लिए भारतीय संगीत एवं दर्शन को धर्म प्रचार का माध्यम बनाया। नक्शबंदी सूफी के एक प्रमुख सदस्य अहमद सरहिंदी ने इस्लाम धर्म में अन्य समुदायों के शांतिपूर्ण रूपांतरण की वकालत की।

मुस्लिमों के भारत आगमन से भारतीय सभ्यता पर प्रभाव - 
विश्व में दिल्ली सल्तनत के अधीन इस्लामी सभ्यता प्रसार के साथ - साथ भारतीय सभ्यता का संश्लेषण हुआ और भारत के लोग भारत से बाहर विश्व पटल पर एफ्रो-यूरेशिया के लोगों के संपर्क में आए। अंतरराष्ट्रीय एकीकरण के कारण भारत में विभिन्न समाज सुधार आंदोलनों का जन्म हुआ।
इस से पूर्व दो युक्तियां भारतीय समाज को समझने में काफी मददगार साबित हो सकती हैं - 
1. भारतीय को समुद्र पार यात्रा नहीं करनी चाहिए, समुद्र पार यात्रा से  धर्म भ्रष्ट हो जाता है।
2. ढोल गंवार शूद्र पशु और नारी
    यह सब ताड़न के अधिकारी
3. शूद्र के कान में यदि वेद मंत्र पड़ जाए 
    तो उसमें पिघला हुआ शीशा भर देना 
    चाहिए।
इसके साथ ही इस्लाम धर्म में ऊंच - नीच, छूत - अछूत की भावना नहीं के बराबर रही। 
1. महमूद गजनवी के दास अयाज और महमूद को एक साथ खाते व एक साथ खड़े हो कर नमाज पढ़ते देख कर किसी कवि ने कहा था कि - 
एक ही सफ में खड़े हो गए महमूदो अयाज
ना कोई बंदा रहा ना कोई बंदा नवाज।
2. मोहम्मद साहब का आदेश कि शिक्षा प्राप्त करने हेतु यदि तुम्हें चीन भी जाना लड़े तो जाओ, और सीखो।
3. मुस्लिमों द्वारा किसी भी क्षेत्र में जा कर वहां पारिवारिक संबंध स्थापित किए गए। इससे उनके प्रति आम जन में विश्वास का संचार हुआ।
मुस्लिम शासन काल में इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का जन्म हुआ। भारत की आर्थिक वृद्धि दर 27% रही। इसी समय को  भारत का स्वर्ण काल कहा जाता है, एवं भारत को सोने की चिड़िया। भारतीय संस्कृत, पाल, प्रकृत भाषाओं का फारसी एवं अरबी भाषाओं से मेल हुआ और नई भाषा हिंदवी व उर्दू का जन्म हुआ।
जनसंख्या और अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर में वृद्धि हुई। और हिंदुस्तानी भाषा का उदय हुआ। तेरहवीं शताब्दी में भारत में यांत्रिक शक्ति का उपयोग बढ़ा। यहां के लोगों ने इस्लामी दुनिया की यांत्रिक तकनीकों को व्यापक रूप से अपनाना शुरू किया, इसमें गियर और पुली, पहिये , कैम और क्रैंक वाली मशीन, कागज बनाने की तकनीक, और चरखा शामिल है। 16वीं शताब्दी की शुरुआत में भारत में मुगल काल की स्थापना हुई। मुगलों ने भारत को लूटने के स्थान पर संवारना शुरू किया। बिखरे प्रशासनिक ढांचे, दम तोड़ती अर्थव्यवस्था एवं तार - तार हो चुके सामाजिक प्रबंधन को एक सूत्र में पिरो कर नए भारत के निर्माण का कार्य शुरू किया। अब भारत की ख्याति संपूर्ण विश्व में फैल चुकी थी। समुद्री एवं थल मार्गों से उत्तम व महंगी वस्तुएं विश्व व्यापार केंद्रों में जाने लगीं तो सभी अचरज में डूब जाते। सेना, दरबार एवं हरम में सामाजिक एवं जातीय संतुलन मुगलों की अति उत्तम कार्यशैली थी। उस समय राजा अकबर को जनता द्वारा महान राजा की उपाधि दी गई। आदिवासियो से सामाजिक एवं मित्रता के बंधन अकबर को वास्तविक महान राजा बनाते हैं। सड़क, सराय, पानी, सुरक्षा एवं न्यायपूर्ण कर व्यवस्था के कारण यह काल तीव्र आर्थिक - सामाजिक विकास का काल रहा। मुद्रा का शासकीय चलन एवं मूल्यांकन सापेक्षिक आर्थिक गति का द्योतक रही। तीव्र आर्थिक विकास, शांति एवं सौहार्द के कारण चित्रकला, साहित्य, वस्त्रों उद्योग, वास्तुकला, जन जागृति आंदोलनों ने गति पकड़ी। तुलसीदास ने राम चरित मानस मस्जिद में बैठ कर लिखी। वहीं मीरा बाई की भक्ति का धन्यवाद करने स्वयं बादशाह उनसे  मिलने आता है। रहीम, रसखान एवं बिहारी को एक समान योग्यतानुसार राजकीय संरक्षण प्राप्त होता है। महल में रजिया बेगम के स्थान पर जोधा बाई मलिकाउज्जमानी बनती हैं। वित्त मंत्री टोडरमल, सेना अध्यक्ष मान सिंह, मुख्य सलाहकार बीरबल, मुख्य गायकार तानसेन से सजा है मुगल दरबार। 17वीं शताब्दी में मुगल अर्थव्यवस्था चीन व यूरोप को पछाड़कर विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनी। उत्पादन एवं आपूर्ति में विश्व का चौथाई हिस्सा भारत का रहा। 18वीं शताब्दी के मध्य मध्य तक मुगल शासन कमजोर पड़ता गया। यहां मराठा, राजपूत एवं स्थानीय रियासतें स्वतंत्र होनी शुरू हो गईं। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में बंगाल और फिर 18 वीं शताब्दी के अंत में मैसूर पर और 1857 में दिल्ली पर विजय प्राप्त की। भारत कमजोर हुआ और अब भारत पर अंग्रेज सरकार का अधिकार हो गया। अंग्रेजों ने मुगलों एवं अन्य शासकों द्वारा सजाए गए भारत को लूटना आरंभ किया। पूरे दो सौ वर्ष तक लुट कर अर्थियों रूप से कमजोर बंटा हुआ निर्धन भारत हमें सौंप कर चले गए। अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह द्वितीय का अधिकार केवल पुरानी दिल्ली (शाहजहानाबाद) शहर तक था।
एक कहावत चली 
शहंशाह शाह आलम
राज्य दिल्ली से पालम
भारत में मुस्लिम - 
भारत में नस्लीय रूप से दो प्रकार के मुसलमान रहते हैं। 
01. भारतीय कन्वर्टेड मुस्लिम।
02. विदेशी मुस्लिम को भारत में बस गए।
भारत में अधिकांश मुसलमान दक्षिण एशियाई जातीय समूहों से संबंधित हैं। भारतीय संस्कृति के प्रभाव से मुसलमानों में भी उच्च एवं निम्न जाति वर्ग का उदय हुआ यह दो प्रकार की थीं -
1. अशरफ(उच्च दर्जा) - विदेशी अरब, तुर्क, फारसी लोगों की जातियां।  
2. अजलाफ (निम्न वर्ग) - भारतीय/अफ्रीकी मूल के धर्मांतरित समूह। 
इस्लाम धर्म में (कुल्लू मुस्लिमीन इख्वातुन) (सभी मुस्लिम भाई हैं) का नारा भारत में कुछ कमजोर हुआ। पृथ्वी पर किसी भी स्थान पर कोई भी मुस्लिम रहता है तो वो मुस्लिम उम्माह (राष्ट्र) का सदस्य है। 
कोई भी अरब किसी गैर-अरब से श्रेष्ठ नहीं है (अरबी को अजमी पर फोकियत नहीं) और न ही कोई श्वेत किसी काले से श्रेष्ठ है, न ही कोई काला किसी श्वेत से श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ वही है जिसके कर्म एवं ईश भक्ति उत्तम है। मुसलमानों के बीच समानता के सिद्धांत पर जोर देते हैं।
- नबी मुहम्मद साहब का अंतिम उपदेश
मोहम्मद साहब के इसी संदेश को संपूर्ण भारत में सूफियों ने फैलाया।

भारत में इस्लामिक चिंतन के पांच बड़े क्षेत्र हैं - 
(क) सूफ़ी विचारक
(ख) तब्लीक जमात (देवबंद)
(ग) अहले सुन्नत वल जमात (बरेली)
(घ) वहाबी विचारक
(च) बोहरा विचारक

(क)सूफ़ी विचारक
मुस्लिमों ने 711 ईस्वी में अरब कमांडर मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सिंध और मुल्तान के क्षेत्रों को जीत कर भारत में प्रवेश किया। इस ऐतिहासिक उपलब्धि ने दक्षिण एशिया को मुस्लिम साम्राज्य से जुड़ा। इसके साथ ही, अरब मुसलमानों का स्वागत व्यापार के साथ सामाजिक मेलजोल हेतु बंदरगाह क्षेत्रों में किया गया। यहां आने वाले हर सूफी ने अपने ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) स्थानीय स्तर पर फैला दिए। 
सूफीवाद बगदाद (इराक) से फारस (ईरान) होते हुए भारत पहुंचा।  सूफियों ने
अरबी और फ़ारसी ग्रंथों का स्थानीय भाषाओं में एवं स्थानीय भाषा के ग्रंथों का अनुवाद अरबी/फारसी भाषाओं में किया। इस से लोगों में समझ बढ़ी और इस से भारत में इस्लामीकरण की गति तेजी से बढ़ी। सूफियों ने पिछड़े एवं ग्रामीण क्षेत्रों में में जहां उच्च वर्ग निम्न वर्ग को निकट नहीं आने दे रहा था एवं उनकी छाया से घृणा करता था उन निम्न वर्ग के लोगों के साथ बैठ कर खाना खा कर तर्कसंगत एकैश्वरवाद का प्रचार किया। सूफी के रूप में राजवंश के सुल्तानों के सलाहकार मुस्लिम धार्मिक विद्वान (उलमा) और विशेष रूप से, मुस्लिम रहस्यवादी (मशाइक़) शामिल थे जिनके व्यवहार में राजनीतिक आकांक्षाएं नहीं थीं।
भारत में सूफ़ीवाद - 
भारत में सूफीवाद का इतिहास लगभग है जो 1,000 वर्षों से विकसित हुआ। 8वीं सदी की शुरुआत में इस्लाम के प्रवेश के बाद, सूफ़ी सूफ़ी परंपराएं 10वीं से 11वीं सदी तक शेष भारत में प्रसारित हुई। सूफीयों ने समकालिक मूल्यों, साहित्य, शिक्षा और मनोरंजन के माध्यम से आज के भारत में इस्लाम के प्रसार को प्रभावी बनाया। सूफी प्रचारक, व्यापारी और मिशनरी भी समुद्री यात्राओं और व्यापार के माध्यम से तटीय क्षेत्र बंगाल और गुजरात में बस गए। सूफियों के दिव्य आध्यात्मिकता प्रभाव, लौकिक सद्भाव, प्रेम, और मानवता की भावनाओं ने इस्लाम की गूंज सम्पूर्ण भारत में फैलाई। भारत में सूफ़ी संस्कृति की समकालीन आयाम बनाए - 
1. सिलसिले - भारत में सूफियों ने तेरहवीं सदी तक 12 सिलसिले स्थापित किए।
2. ख़ानक़ाऐं - इन ख़ानक़ाहों में सूफ़ी संतों का आशीर्वाद लेने हेतु मुजावर आते थे।
3.समा-संगीत -  नृत्य जिसे समा कहा जाता है।

सूफीवादी शिक्षा प्रणाली - 
सन 901 से 1151 तक गजनवियों ने कई स्थानों पर मकतब एवं मदरसों की स्थापना शुरू की जो कि मस्जिदों से जुड़े हुए थे।  इन संथानों में कार्यरत उस्तादों ने कुरान व हदीस के अध्ययन को बढ़ावा दिया। दिल्ली सल्तनत में मंगोल आक्रमणों से विद्वान दिल्ली से अन्य जगहों पर निर्वासित हुए और वहां खानकाहों की स्थापना कर दिल्ली से बाहर इस्लामिक सांस्कृति और साहित्यि से आम जीवन को समृद्ध करना शुरू किया। सूफीवाद की तरह एक अन्य समूह की उत्पत्ति हुईं जिसे फकीर कहा जाता था। फकीर सूफियों से अधिक सहिष्णु थे जो गैर-मुस्लिम परंपराओं को आत्मसात कर उनकी मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए धीरे - धीरे इस्लाम का प्रचार किया। फकीरों ने एक साथ शरीयत के कानून भारतीयों पर थोपने की बजाय भारतीय संस्कृति के साथ ही इस्लामिक शिक्षाओं को आगे बढ़ाया। सूफियों ने सेवा कार्यों के माध्यम गरीबों की मदद करने पर ध्यान केंद्रित किया। दिल्ली सल्तनत के सहयोग से मदरसा शिक्षा को बढ़ावा दिया गया।
खानगाह एवं सूफीवाद - 
खानकाह धर्मशाला, लॉज, सामुदायिक केंद्र, जमात खाना के रूप में स्थापित की गई। इसमें आपसी विमर्श हेतु बड़े सभा हॉल बनाए गए जिनका वित्त पोषण (फंडिंग) व पोषण, संरक्षण वक़्फ़ के माध्यम से किया जाता था। सूफी खानकाहों का कार्य सूफीयों एवं फकीरों को आश्रय उपलब्ध करवाना था। हर एक खानकाह में एक शेख (मुख्य शिक्षक) होता था जो छात्रों से घनिष्ठ संबंध बनाकर स्थानीय जनता की सेवा कार्य करते थे। खानकाहों में छात्र प्रार्थना (इबादत) और अध्ययन एक साथ काम करते थे। सूफी साहित्य में न्यायशास्त्रीय और धर्मशास्त्र की शिक्षा महत्वपूर्ण थी। खानकाहों में तीन प्रकार कार्य हुए -
1. भौगोलिक लेखन
2. शेख के प्रवचन
3. गुरु के छात्रों के नाम पत्र। 
सूफियों ने अदब का गहन अध्ययन किया। फारसी नजमुद्दीन रिज़वी के मुरीदों (शिष्यों) ने उनके लेखन को पूरे भारत में फैलाया।

खानकाह का अन्य प्रमुख कार्य
खानकाह सामुदायिक आश्रय स्थल बन गए। इन सुविधाओं का निर्माण निम्न जाति, ग्रामीण, अभिजात वर्ग क्षेत में किया गया। भारत में चिश्ती सूफ़ियों ने आतिथ्य और उदारता के साथ खानकाहों को रोशन किया। यहां आगंतुकों का स्वागत आध्यात्मिक मार्गदर्शन, मनोवैज्ञानिक समर्थन और परामर्श दिया जाने लगा। आध्यात्मिक रूप से उपेक्षित एवं निराश जातियों को मुफ्त भोजन के साथ बुनियादी शिक्षा प्रदान की गई। सूफियों ने प्रेम, आध्यात्म और सद्भाव से इस्लाम की शिक्षाओं को फैलाया। यह सूफी भाईचारे और समानता से लोगों को इस्लाम की ओर आकर्षित किया। जल्द ही यह खानकाह सभी जाति और धर्म की पृष्ठभूमि के लोगों और लिंगों हेतु सामाजिक, सांस्कृतिक सद्भाव के केंद्र बन गए। खानकाह की सेवाओं से, सूफियों ने इस्लाम का समानता का रूप प्रस्तुत किया, जिसने निचले स्तर के भारतीयों का बड़े पैमाने पर स्वैच्छिक धर्मांतरण हुआ।
(क) सूफी विचारधारा के चिंतक -
1. हजरत निजामुद्दीन औलिया 
2. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती
3. हमीदुद्दीन नागौरी

4. सईद बदीउद्दीन जिंदा शाह मदार  
मदारिया सिलसिला
मदारिया सिलसिला उत्तर भारत विशेष कर उत्तर प्रदेश, मेवात, बिहार और बंगाल के साथ-साथ नेपाल और बांग्लादेश में लोकप्रिय हुआ। इस क्षेत्र में इस्लाम धर्म के व्यापक प्रचार में मदारिया सिलसिले का बस रोल रहा है। धार्मिक कर्मकांड पर जोर देते हुए आंतरिक धीरज पर अधिक ध्यान केंद्रित करना इस सिलसिले की बड़ी पहचान है जिसे सूफी संत सईद बदीउद्दीन जिंदा शाह मदार द्वारा शुरू किया गया जिन्हें कुतब-उल-मदार भी कहा जाता था। उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के मकनपुर में इनकी दरगाह है।

5. शेख अबुबकर मिस्कीन सद्दाम और मदुरै के शेख मीर अहमद इब्राहिम का संजिलिया सिलसिला - 
संज़िलिया सिलसिले की स्थापना इमाम नूरुद्दीन अबू अल हसन अली संदली (संजली) द्वारा की गई थी। सूफीवाद की फासिया शाखा को कुसबुल उज़ूद इमाम फसी ने मस्जिद अल हरम मक्का में अपना आधार बनाया था और भारत के कायलीपटनम के शेख अबूककर मिस्कीन सद्दाम और मदुरै के शेख मीर अहमद इब्राहिम द्वारा भारत लाया गया। मीर अहमद इब्राहिम की दरगाह तमिलनाडु के मदुरई के तीन सूफी संतों में से एक है। इनकी 70 से अधिक शाखाएँ हैं जिनमें से फसिआतुश शादिलिआ सर्वाधिक प्रचलित शाखा है।

6. अबु इशाक शमी (अफगानिस्तान) का चिश्तिया सिलसिला - 
चिश्तिया परंपरा (तरीक़ ए चिश्तिया) मध्य एशिया और फारस से उभरा। इसके पहले संत अबू इशाक शमी ने अफगानिस्तान के चिश्ती-ए-शरीफ में चिश्ती सिलसिले की स्थापना की। इसके उल्लेखनीय संत मोइनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर में अपना स्थान बनाया जो भारत उपमहाद्वीप का सब से बड़ा सिलसिला है। मोइनुद्दीन चिश्ती अबू नजीब सुहरावर्दी के शिष्य थे। ख्वाजा मोईउद्दीन चिश्ती मूल रूप से सिस्तान (पूर्वी ईरान, दक्षिण पश्चिम अफगानिस्तान) के रहने वाले थे और मध्य एशिया, मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया की यात्रा करने के बाद सन 1193 में भारत आए। मोइनुद्दीन चिश्ती की सूफी और सामाजिक कल्याण गतिविधियों ने अजमेर को भारत का सूफीवाद का केंद्र बना दिया। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने स्थानीय लोगों तक पहुंच बनाने हेतु अजमेर में खानकाह का निर्माण करवाया जहां दान एवं समानता की भावना के साथ इस्लाम को फैलाया। इस समूह ने आसपास के क्षेत्र में निम्न और उच्च जातियों को इस्लाम की ओर आकर्षित किया। जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने अजमेर को तीर्थ स्थान के रूप में विकसित किया। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के उत्तराधिकारियों में आठ सूफी सम्मिलित हैं। मध्ययुगीन चिश्तीय सिलसिले के सूफी संत
1.मोइनुद्दीन चिश्ती (1233 अजमेर)
2. कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी (1336, दिल्ली)
3. फ़रीदुद्दीन गंजशकर (1265 पाकपट्टन, पाकिस्तान)
4. निजामुद्दीन औलिया (1335, दिल्ली)
5. शाह अब्दुल्ला करमानी (खुस्तीगिरी, बीरभूम, पश्चिम बंगाल)
6. अशरफ जहाँगीर सेमनानी (1313, किचौछा भारत)
7. हमीदुद्दीन नागौरी (नागौर राजस्थान)

7. सोहरावर्दी सिलसिला - 
सुहरावर्दी परंपरा के संस्थापक अब्दुल-वाहिद अबू नजीब, अहमद ग़ज़ाली (अबू हामिद ग़ज़ाली के छोटे भाई) के शिष्य (1168) थे। मंगोलियाई आक्रमण के समय भारत में फारसी संतों के प्रवास से पहले ईरान में यह सिलसिला अधिक प्रचलित था। अबू हफ़्स उमर सुहरावर्दी (1243) ने सूफी सिद्धांतों पर कई किताबें लिखीं जिनमें आवा-अल-मारिफ़ (दीप ज्ञान का उपहार) मदरसों में शिक्षण की मानक पुस्तक बन गई। अबू हफ़्स अपने समय के वैश्विक विद्वान थे। बगदाद में पढ़ाने से लेकर मिस्र और सीरिया में अय्यूबी शासकों के मध्य कूटनीति तक, अबू हफ्स राजनीतिक रूप से शामिल सूफी संत थे। इस्लामिक साम्राज्य के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखते हुए अबू हफ्स के भारतीय अनुयायियों ने उनके विचारों को प्रसारित किया।

8. कुबरिया सिलसिला - 
कुबरिया सिलसिला की स्थापना अबू अहमद (नजमुद्दीन कुबरा, 1221) द्वारा की गई जो उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान सीमा में रहते थे। इन्होंने तुर्की, ईरान और कश्मीर की यात्रा की। उनकी शिक्षा ने उन छात्रों को भी बढ़ावा दिया जो स्वयं सूफी संत विचार धारा में विश्वास रखते थे। 14वीं सदी के अंत में वो कश्मीर प्रवास पर रहे। कुबरा और उनके छात्रों ने सूफी साहित्य में मनोविज्ञान और नीति साहित्य अल-उसुल अल-अशारा और मीरसाद उल इबाद के साथ इस्लाम धर्म के प्रचार में अहम योगदान दिया। यह सिलसिला भारत के कश्मीर एवं चीन के हुआय कबीले में प्रचलित हुआ।

9. नक्शबंदी सिलसिला
इस परंपरा के संस्थापक ईरान निवासी ख्वाजा याक़ूब यूसुफ अल-हमदानी (1390) थे जिसे बाद में ताजिकिस्तान और तुर्किस्तान पृष्ठभूमि के बहाउद्दीन नक्शबंदी ने आगे बढ़ाया। ख्वाजा मुहम्मद अल-बकी बिलह बेरंग (1603) ने भारत में नक्सबन्दी सिलसिले की शुरुआत की। यह सिलसिला मुगल वंश के साथ भारत आया। बाबर इसी सिलसिले का मुरीद था।

10. कादरिया सिलसिला
क़ादिरिया सिलसिले की स्थापना अब्दुल क़ादिर जीलानी ((1166, बगदादी) ने की जो मूल रूप से ईरान के रहने वाले थे। 

11. मुजददिया सिलसिला - 
यह परंपरा कादरिया नक्शबंदिया सिलसिले की सम्मिलित शाखा है। यह शेख अहमद मुजदाद अल्फ सानी सिरहिंदी से संबंधित है जिनका जन्म सरहिंद पंजाब में हुआ था और यहीं इनकी दरगाह है।

12. सरवरी सिलसिला 
सरवरी कादरी सिलसिले की शुरुआत सुल्तान बहाउद्दीन द्वारा की गई। सरवरी सिलसिला अन्य सिलसिलों के विपरीत विशिष्ट ड्रेस कोड, एकांत, या अन्य लंबे चिल्लो के रूप में विख्यात है। सरवरी सिलसिला दर्शन अल्लाह (ईश्वर) का सीधे दिल से जुड़ाव करता है।

हजरत निजामुद्दीन औलिया 
हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की पैदाइश उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में हुई। पांच साल की उम्र में पिता सैयद अब्दुल्ला बिन अहमद अल हुसैनी बदायुनी की वफ़ात के बाद वह अपनी मां बीबी जुलेखा के साथ दिल्ली आ गए थे। अबुल-फ़ज़ल ने आइन-ए-अकबरी में उनका वर्णन किया है।
बीस साल की उम्र में, निजामुद्दीन औलिया अजोधन (मौजूदा पाकिस्तान में पाकपट्टन शरीफ) गए और सूफी संत फरीदुद्दीन गंजशकर के शागिर्द बन गए, जिन्हें आमतौर पर बाबा फरीद के नाम से जाना जाता है। निजामुद्दीन औलिया ने अजोधन से दिल्ली आ गए। वहां पढ़ाई (तालीम) को जारी रखते हुए सूफी अकीदत का आगाज किया। वह हर साल रमजान के महीने में बाबा फरीद के पास अजोधन जाते रहे। अजोधन का उनका तीसरा दौरा था, जब बाबा फरीद ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया। इसके कुछ अरसे बाद निजामुद्दीन औलिया दिल्ली आये तो उन्हें खबर मिली की बाबा फरीद का देहांत (इंतकाल) हो गया है। निज़ामुद्दीन औलिया दिल्ली में कई स्थानों पर रहे, आखिरकार गयासपुर में आबाद हो गए। गयासपुर में शहर से दूर खानकाह का निर्माण करवाया जहां  हर तबके के लोगों को खाना खिलाया जाता था। यहां वो लोगों को रूहानी तालीम भी देते थे। बहुत जल्द ये खानकाह एक ऐसी जगह बन गयी जहां अमीर-गरीब हर तरह के लोगों का हुजूम रहने लगा। उनके कई शागिर्दों ने रूहानी उरूज हासिल किया जिनमे शेख नसीरुद्दीन चिराग देहलवी और अमीर खुसरो (एक नामवर आलिम, गायक और दिल्ली सल्तनत के शाही शायर) शामिल हैं। 3 अप्रैल 1325 की सुबह उनकी मृत्यु (वफ़ात) हुई। उनकी मजार निजामुद्दीन दरगाह दिल्ली में मौजूद है। उनकी दरगाह के सफेद गुंबद व मरकजी ढांचे की तामीर मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने करवाई। फ़िरोज़ शाह तुगलक ने बाद में इस ढांचे की मरम्मत करवाई। हैदराबाद के खुर्शीद शाह ने कब्र के चारों ओर संगमरमर लगवाया। मौजूदा गुम्बद फरीदुन खान ने 1562 में बनवाया।

भारत में सूफीवाद का प्रभाव - 
विशाल भारत में इस्लाम का फैलाव सूफीयों की अथक मेहनत का नतीजा है।
दक्षिण एशिया सहित भारत में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन पर सूफियों का व्यापक प्रभाव है। एशिया महाद्वीपीय की यात्रा करने वाले सूफी संतों ने भारत के सामाजिक, आर्थिक और दार्शनिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रमुख शहरों और बौद्धिक विचारों के केंद्रों में प्रचार करने के अलावा, सूफ़ी गरीब और हाशिए के ग्रामीण समुदायों तक पहुंचे और स्थानीय बोलियों जैसे उर्दू, सिंधी, पंजाबी व खड़ी बोली में इस्लाम का प्रचार किया। सूफीवाद एक नैतिक सामाजिक एवं धार्मिक शक्ति के रूप में उभरा, जिसने यहां के अन्य धर्मों के अनुयायियों को इस्लाम धर्म में शामिल किया। सूफीवाद के परिणाम स्वरुप यहां  भक्ति एवं समाज सुधार आंदोलन चला। भारत में प्रचलित जीवन शैली व परंपराओं में अत्यधिक बदलाव आया। मानवता, भक्ति, ईश्वर से प्रेम और पैगंबर मोहम्मद साहब की शिक्षाओं को कहानियों और लोक गीतों के माध्यम से सुदूर क्षेत्र में फैलाया। सूफी धार्मिक और सांप्रदायिक संघर्ष से दूर रहते थे और शांतिपूर्ण सभ्य समाज के निर्माण के प्रयास करते रहे। सूफियों ने खानकाह (आवास), धर्मनिष्ठा, चिकित्सा, स्थानीय परिवेश में ढलकर प्रचार, दरगाह, लंगर, साहित्य एवं सहित के साथ करिश्माई  व्यक्तित्व का प्रदर्शन कर आम जन तक पहुंच बनाई।

सुन्नी इस्लाम में इस्लामी क़ानून के चार प्रमुख स्कूल हैं -
इन चारों स्कूलों के चार इमाम (मुख्य प्रतिपदक) हैं - 
1. इमाम अबू हनीफ़ा (699-767 ईस्वी)
2. इमाम शाफ़ई (767-820 ईस्वी)
3. इमाम हंबल (780-855 ईस्वी)
4. इमाम मालिक (711-795 ईस्वी)

हनफ़ी सम्प्रदाय - 
इमाम अबू हनीफ़ा के मानने वाले हनफ़ी कहलाते हैं। इस फ़िक़ह या इस्लामिक क़ानून के मानने वाले मुसलमान दो गुटों में बंटे हुए हैं - 
1. देवबंदी (तब्लीगी जमात)
2. बरेलवी (अहले सुन्नत वल जमात)

देवबंदी और बरेलवी प्रचारक
दोनों ही नाम उत्तर प्रदेश के दो ज़िलों देवबंद और बरेली के नाम पर हैं। दोनों आंदोलन 20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेताओं 
1. मौलाना अशरफ़ अली थानवी (1863-1943) और 
2. मौलाना अहमद रज़ा ख़ां (1856-1921) 
की इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्याओं के आधार पर बने संगठन देवबंदी और बरेलवी कहलाए।
अशरफ़ अली थानवी का संबंध मदरसा दारुल-उलूम देवबंद मदरसा से था, जबकि आला हज़रत अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी का संबंध बरेली से था। दोनों की मान्यताओं में ज़्यादा अंतर नहीं है। बरेलवी मानते हैं कि मोहम्मद साहब सब कुछ जानते हैं जो दिखता है वो भी और जो नहीं दिखता है वो भी और वो हर जगह मौजूद हैं और सब कुछ देख रहे हैं। जबकि देवबंदी मोहम्मद साहब को पैगम्बर मानते हैं सर्वज्ञाता एवं सर्वव्यापक नहीं। देवबंदी अल्लाह के बाद नबी को इंसान मानते हुए दूसरे स्थान पर रखते हैं। बरेलवी सूफ़ीवाद के समर्थक एवं मजारों के उपासक हैं जबकि देवबंदियों के पास इन मज़ारों की कोई अहमियत नहीं है।

(ख) तब्लीक जमात (देवबंद) -
देवबंद नगर का इतिहास - 
देवबंद एक प्रागैतिकहासिक नगर है, जिसकी कहानी मानव सभ्यता के अतीत से शुरु होती है। देवबंद में राधावल्लभ त्रिपुर बाला सुंदरी देवी का मंदिर है माँ त्रिपुरा सुंदरी देवी मंदिर के द्वार पर लगा शिलालेख अज्ञात काल का कहा जाता है जिसे आज तक नहीं पढ़ा जा सका। देवबंद के बारे में यह प्रसिद्ध है कि यहाँ घने जंगल थे और छोटी छोटी झोपड़िया थीं।
सन् 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना क़ासिम ननोतवी ने 1866 में मदरसा दारुल उलूम देवबंद की स्थापना की। विभाजन के बाद पंजाबी सिक्ख समुदाय के लोग यहां आकर बसे एवं रेलवे स्टेशन रोड पर गुरूद्वारा बनाया। यहां कम संख्या में ही सही ईसाईयों संप्रदाय के मानने वाले भी निवास करते हैं।
तब्लीकी जमात - 
तब्लीगी जमात की शुरुआत भारत की राजधानी दिल्ली के निजामुद्दीन क्षेत्र से 1926 में हुई। मुहम्मद इलियास अल कंधलवी ने पश्चिमोत्तर भारत के मेवात क्षेत्र (राजस्थान, हरियाणा व उत्तर प्रदेश) में इस्लाम का उपदेश देने के साथ इसकी शुरुआत की। वास्तव में इसकी नींव हजरत निजामुद्दीन में रखी गई। तब्लीक जमात का उद्देश्य मुसलमानों को इस्लाम के मूल सिद्धांतों के अनुसार चलने और इसके नियमों का पालन करने के लिए प्रेरित करना है। सूफियों द्वारा फैलाए गए इस्लाम धर्म के मानने वालों में व्याप्त सनातन धर्म के रीति-रिवाज छोड़ कर शुद्ध इस्लाम को अपनाने हेतु शुरू किया गया आंदोलन तब्लीक जमात कहलाता है। कुरान और हदीश के अनुसार भलाई को बढ़ावा देने और बुराई पर रोक लगाने हेतु मदरसा शिक्षक रशीद अहमद गंगोही की 1926 में दूसरी हज यात्रा के बाद मिली प्रेरणा से शुरू किया गया। मुसलमानों में धार्मिक रिवाज, पहनावा, वैयक्तिक गतिविधियों को शुद्ध अरबी ढंग से अपनाने पर ज़ोर देता है। तब्लीक जमात के छ: उसूल (मूल्य) हैं -
1. कलमा, 
2. नमाज़, 
3. इल्म, 
4. इक्राम-ए-मुस्लिम, 
5. इख्लास-ए-निय्यत, 
6. दावत ए दीन (तबलीग) 
इस हेतु सर्वप्रथम मेवाती मुसलमानों को वास्तविक मुस्लिम बनाने हेतु शिक्षित करने के लिए मस्जिद-आधारित धार्मिक स्कूल (मदरसा) नेटवर्क स्थापित करने के प्रयास किये। मौलाना इलियास ने सहारनपुर मदरसा मजाहिर उलूम में शिक्षक पद से संन्यास ले कर हजरत निजामुद्दीन से सुधारवादी आंदोलन की शुरुआत की। 
मेवात क्षेत्र दिल्ली के निकट मेव (यादव/राजपूत) से मुस्लिम बने लोगों का जातीय समूह का निवास क्षेत्र है जो कहने को तो मुस्लिम थे पर कर्म एवं व्यवहार में नहीं।
दिसम्बर 2021 में सउदी अरब ने तबलीगी जमात पर आतंकवाद को बढ़ावा देने के आरोप में प्रतिबंध लगा दिए।
तब्लीकी जमात के सकारात्मक कार्य - 
तब्लीगी जमात एक अनौपचारिक संगठन  है जो मीडिया से दूरी रखते हुए अधिक प्रचार-प्रसार से बचता है। इसकी गतिविधियों के संचालन का नेतृत्व एक अमीर (प्रमुख) करता है जिसकी नियुक्ति शूरा (केंद्रीय परामर्श समिति) द्वारा की जाती है। पहला अमीर इलियास कांधलवी को बनाया गया, बाद में इलियास के बेटे मौलाना यूसुफ और फिर पोते मौलाना साद को यह जिम्मेदारी दी गई। विवादों से बचने के लिए जमात ने राजनीतिक मामलों से दूर रहने का फैसला किया।
तब्लीकी जमात की आलोचना - 
तब्लीगी जमात की रूढ़िवादी प्रकृति के कारण आलोचना की जाती है। आंदोलन में शामिल महिलाएं हिजाब पहनती हैं। 
चरमपंथी एवं कट्टर विचारधारा के कारण कुछ मध्य एशियाई देशों उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान और कजाकिस्तान में प्रतिबंधित कर दिया गया है। वर्ष 2011 के ट्विन टावर आतंकी हमले के बाद यह संगठन अमेरिका की निगरानी सूची में रहा है। पाकिस्तानी और भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार हरकत उल मुजाहिदीन के संस्थापक तब्लीगी जमात के सदस्य हैं। वर्ष 2015 में अमेरिका के सैन बर्नाडिनो आतंकी हमले के कार्यकर्ता  रिजवान फारूक पर जमात से जुड़े होने के आरोप लगे। तब्लीक जमात ने इन आरोपों का खंडन किया है।
तब्लीगी जमात का विश्वव्यापी प्रभाव - 
तब्लीगी जमात ने वर्ष 1946 में विस्तार करते हुए पाकिस्तान में सबसे बड़ा केंद्र खोला। 1971 के बाद बांग्लादेश में भी केंद्र स्थापित किया। वर्ष 1991 में सोवियत संघ टूटने के बाद इसका प्रसार मध्य एशिया के देशों में भी हुआ।
सऊदी अरब और ब्रिटेन में स्थापना के बीस वर्ष में ही इसका फैलाव दक्षिणपूर्व और दक्षिण पश्चिम एशिया, अफ्रीका, यूरोप और उत्तरी अमेरिका तक हो गया। 1946 में जमात ने सऊदी अरब और ब्रिटेन में अपने मिशन भेजने शुरू किए। इसके बाद अमेरिका और 1970 से 1980 के बीच यूरोप में इसने काम कारण शुरू किया।
फ्रांस में जमात ने 1960 में प्रवेश किया और 1980 तक वहां उल्लेखनीय विस्तार किया। हालांकि इसके बाद वहां इसका प्रभाव कम हुआ। नई सदी में जमात ने वापसी की और 2006 तक फ्रांस में उसके एक लाख से अधिक सदस्य हो गए। 2007 तक यूनाइटेड किंगडम की 1,350 मस्जिदों में से 600 तब्लीगी जमात के केंद्र हैं। भारत, अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान में किसी समय बरेलवी विचारधारा के लोग अधिक थे जो अब धीरे - धीरे देवबंदी में परिवर्तित हो रहे हैं।
तब्लीक जमात की कार्यपद्धति - 
तब्लीकी जमात इज्तेमा - 
तब्लीगी जमात दो गज जमीन के नीचे ओर आसमान की बात करता है। यह संगठन कट्टर विचारधारा एवं विशेष पहनावे की आलोचना के बाद अत्यंत प्रभावी प्रचारक संगठन (मिशनरी) है।

(ग) अहले सुन्नत वल जमात (बरेलवी सुन्नी) विचारधारा - 
बरेलवी आंदोलन का नाम भारत के बरेली शहर के नाम पर रखा गया है, जहाँ से इस आंदोलन की उत्पत्ति हुई थी। यह संगठन  अहले सुन्नत वल जमात के नाम से जाना जाता है। यह संगठन देवबंदी, अहल-ए हदीस, सलाफि और दारुल उलूम नदवतुल उलमा के अनुयायियों का विरोध करता है।
बरेलवी आंदोलन अहमद रज़ा खान ने 1904 में मंज़र-ए-इस्लाम स्कूल (मदरसा) की स्थापना के साथ शुरू किया। यह संगठन पारंपरिक सूफीवादी आंदोलन का समर्थन करते हुए इस्लाम धर्म का प्रचार करता है। दारुल उलूम नदवातुल उलमा की स्थापना 1893 में मुस्लिम संगठनों में मतभेदों को मिटाने हेतु किया गया। कुछ मतभेदों के कारण बरेलवी आंदोलन कर्ताओं ने नदवातुल उलमा से अपना समर्थन वापस ले लिया। देवबंदी भारत विभाजन में विरुद्ध एवं बरेलवी पाकिस्तान समर्थक रहे। वर्ष 1948 में विभाजन के बाद बरेलवियों ने पाकिस्तान में जामियत उलमा ए पाकिस्तान का गठन किया।
भारत और पाकिस्तान में पहले बरेलवी समर्थक अधिक थे जो अब कम हो रहे हैं। 
बरेलवी ईश्वर और पैग़म्बर मुहम्मद साहब के प्रति निजी आस्था सूफ़ी मान्यताओं के अनुसार रखने पर ज़ोर देते हैं।
बरेलवी आंदोलन का प्रभाव - 
पहले उपमहाद्वीप की अधिकांश आबादी (विशेष रूप से यहां के धर्मांतरित लोग) बरेलवी (सूफी) विचारधारा के थे जो धीरे - धीरे अब कम होते जा रहे हैं।
बरेलवी आंदोलन और सूफीवाद का समर्थन - 
तसव्वुफ़ या सूफीवाद बरेलवी आंदोलन का एक बुनियादी पहलू है। अहमद रज़ा ख़ान बरेलवी खुद क़ादरी सूफ़ी तरिक़ के मानने वाले थे। वो परंपरागत सूफी आचरण से प्रभावित मुहम्मद साहब के प्रति अनन्य लगाव से आशक्त रहे। यह संगठन सूफीवाद के प्रभाव से कट्टर विचारधारा के स्थान पर पैगंबर मुहम्मद साहब के जन्म का उत्सव, उर्स, कब्रों की जियारत और तवस्सुल में विश्वास रखते हैं। बरेलवी ने पारंपरिक सूफी मान्यताओं और प्रथाओं को बरकरार रखते हुए उसे अनवरत समर्थन जारी रखा है। बरेलवी इस्लामी धर्मशास्त्र के किसी भी अशअरी या मातुरिदी स्कूल में से एक का अनुसरण कर सकते हैं जो नक़्शबन्दी, क़ादरी, चिश्ती, सोहरवर्दी, रिफाई और संजली सूफ़ी परंपराओं में से किसी एक को चुनने के अलावा फ़िक़्ह के हनफ़ी, मालिकी, शाफ़ई और हंबली में से एक पंथ को चुन सकते हैं।
बरेलवी आंदोलन और नूर ए मोहम्मदिया - 
कई मान्यताओं और प्रथाएं हैं जो कुछ अन्य लोगों, विशेष रूप से देवबंदी, वहाबी और सलाफी से बरेलवी आंदोलन को अलग करती हैं। इनमें नूर मुहम्मदिया (मुहम्मद साहब की रोशनी), हजीर-ओ-नाज़ीर (मुहम्मद के अभी भी जीवित एवं सर्वत्र उपस्थिति), मुहम्मद साहब के ज्ञान और मध्यस्थता में विश्वास रखते हैं।
बरेलवी आंदोलन का केंद्रीय सिद्धांत यह है कि मुहम्मद साहब मानव और प्रकाश दोनों हैं अर्थात् शारीरिक जन्म से पहले उनका अस्तित्व प्रकाश के रूप में था। इस सिद्धांत के अनुसार मुहम्मद साहब की प्राथमिक वास्तविकता सृजन से पहले अस्तित्व में थी और अल्लाह ने मुहम्मद साहब के लिए सृष्टि का सृजन किया। इस सिद्धांत के समर्थकों का मानना है कि कुरान की  में सुरह ए नूर की आयत 5:15 में  मुहम्मद साहब को (प्रकाश) का संदर्भ दिया गया है। कुरान की तफसीर लेखक सूफी सहल अल-तस्तारी ने मुहम्मद साहब  के आदिम प्रकाश के निर्माण का वर्णन किया है। उनके छात्र मंसूर अल-हज्जाज इस सिद्धांत की पुष्टि अपनी पुस्तक तहसिन अल-सिराज में करते हैं।

देवबंदी और बरेलवी आंदोलन में समानताएं - 
1. देवबंदी और बरेलवी दोनों ही इस्लाम के सुन्नी समूह हैं।
2. दोनों ही समूह इमाम अबु हनीफ़ा के तौर-तरीके का पालन करते हैं। 
3. इस्लाम के मूलभूत पांच सिद्धांतों को लेकर इन दोनों समूहों में कोई मतभेद नहीं है।
4. दोनों समूह स्थानीय संस्कृति की उन प्रथाओं के विरोधी हैं जिनका धार्मिक महत्व या न्यायिक दृष्टिकोण इस्लाम के अनुरूप नहीं है।
5. दोनों समूहों के अपने-अपने विशिष्ट विचार और प्रथाएं हैं।
6. दोनों समूहों का उद्देश्य एक नई 'इस्लामिक' राजनीति पर हावी होना है।

देवबंदी और बरेलवी आंदोलन में असमानताएं - 
देवबंदी और बरेलवी, इस्लाम के दो प्रमुख सुन्नी समूह हैं इन दोनों समूहों के अपने-अपने विचार और प्रथाएं हैं. इनके बीच स्थायी मतभेदों के कारण, इन दोनो उप संप्रदायों के मध्य समय - समय पर टकराव की स्थिति बनी रहती है।
1. देवबंदी समूह कुरान और सुन्नत की शिक्षाओं पर आधारित है जबकि बरेलवी सूफ़ी परंपराओं का पालन करते हैं।
2. देवबंदी मोहम्मद साहब को अदृश्य का कोई ज्ञाता नहीं मानते हैं जबकि बरेलवी मानते हैं कि मोहम्मद साहब सर्वव्यापक, सर्वज्ञाता एवं सार्वभौमिक हैं।
3. देवबंदी मज़ार और चादरपोशी को मूर्ति पूजा (बुत परस्ती) मानते हैं जबकि बरेलवी मज़ार की जियारत एवं चादर चढ़ाने को जायज़ मानते हैं।
4. देवबंदी समूह सिर्फ़ ईद और बकरीद को ही त्यौहार के रूप में मनाते हैं जबकि बरेलवी इनके साथ-साथ शब्बे बरात, ईद-उल-मिलादुन-नबी, उर्स और मुहर्रम भी मनाते हैं।

सल्फ़ी, वहाबी और अहले हदीस
सुन्नियों में एक समूह ऐसा भी है जो किसी एक ख़ास इमाम के अनुसरण की बात नहीं मानता और उनका कहना है कि शरीयत को समझकर उसका सही ढंग से पालन करने हेतु सीधे क़ुरान और हदीस का अध्ययन करना चाहिए। इन समुदायों को सल्फ़ी, अहले-हदीस और वहाबी नामों से जाना जाता है। इन के अनुसार किसी भी विवादास्पद चीज़ में अंतिम फ़ैसला क़ुरान और हदीस के अनुसार होना चाहिए ।

(ग) वहाबी आंदोलन - 
वहाबी/सलफ़ी आंदोलन एक अतिवादी इस्लामी विचारधारा है जिसका श्रेय इमाम मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब (1820-1822) को दिया जाता है। इमाम वहाब के अनुसार बिदअतों (गलत या गैर इस्लामिक रीति रिवाजों) को मिटाने तथा इस्लाम को उसकी असल हालत में लाना (मोहम्मद साहब के समय जैसा) ही वास्तविक इस्लाम है। यह सम्प्रदाय अहले हदीस, सलफी या मुवह्हिद कहलाते हैैं। 
हम महविद् हैं हमारा केश है तर्क ए रूसुम 
मिल्लतें जब मिट गईं अजां ए ईमां हो गए।
वहाबी आंदोलन अनुसार तौहीद (एकेश्वरवाद) की धुरी पर घूमता है। फ़िकह के स्कूल के रूप में यह आंदोलन इब्न तैमियाह और इमाम अहमद इब्न हन्बल की शिक्षाओं पर ज्यादा जोर देता है। हन्बली उलेमा मुहम्मद इब्न अब्दुल वहाब की मान्यताओं का समर्थन करता है। मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब न्यायशास्त्र और अक़िदों में इब्न तैमियाह से बहुत प्रभावित थे, और इब्न तैमियाह कुछ मामलों में हन्बली सोच से भिन्न थे जिसमें उन्होंने अपनी राय और अंतर्दृष्टि के अनुसार फतवे जारी किए और वह कुछ मामलों में किसी के भी अनुकरण करने वाले नहीं थे। इब्न अब्दुल वहाब और आले सऊद के बीच संबंध इस अतिवादी आंदोलन के लिए लंबे समय तक चलने और उपयोगी साबित हुए। आले सऊद ने आंदोलन के साथ राजनीतिक और धार्मिक संबंधों को बनाए रखा, जिसने अगले 150 वर्षों तक सऊदी अरब में आंदोलन का पोषण किया, जो आज भी जारी है। वहाबी आंदोलन धार्मिक पुनरुत्थानवादी रूढ़िवादी आंदोलन है जिसका उद्देश्य मूल, शुद्ध एवं सादगी वाला वही इस्लाम फैलाना है जो मुहम्मद साहब के समय था।
वहाबी आंदोलन की विशेषताएं - 
इस आंदोलन का नाम 18वीं सदी के हनबली विद्वान मुहम्मद इब्न अब्द अल-वहाब के नाम पर रखा गया जो नज्द (मध्य अरब) क्षेत्र में स्थापित हुआ
1. अधिकांश वहाबी अनुयाई सऊदी अरब और कतर में निवास करते हैं। 
2. वहाबियों ने भारत में ब्रिटिश शासन का विरोध किया।
3. इस आंदोलन ने गैर-इस्लामिक प्रथाओं का विरोध करते हुए सख्त एकेश्वरवाद पर जोर दिया।
4. इस आंदोलन ने नवाचारों (बिद्दत) को अस्वीकार किया।
5। इस आंदोलन ने शरिया कानून द्वारा शासित इस्लामी राज्य की स्थापना की जिसमें सऊदी अरब सरकार शामिल है।
वहाबी आंदोलन के सिद्धांत - 
1. तौहीद - 
एकेशवरवाद इसका मुख्य सिद्धांत है। जिसे तौहीद कहा जाता है।
2. औलिया या संत या पैगम्बर (अल्लाह के मध्यस्थ) नहीं हैं। इनको मध्यस्थ के रूप में मानना गलत है।

(घ) अहले हदीश आंदोलन - 
भारत में अहल-ए-हदीस आंदोलन एक धार्मिक आंदोलन है, जिसकी शुरुआत 19वीं सदी में उत्तरी भारत में हुई। इस आंदोलन के लोग कुरान, सुन्नत, और हदीस को धार्मिक व्याख्या का एकमात्र स्रोत मानते हैं। 
अहल-ए-हदीस आंदोलन की विशेषताएं - 
सैय्यद अहमद शाहिद , सैय्यद नज़ीर हुसैन और नवाब सिद्दीक हसन खान की शिक्षाओं से प्रभावित अहल-ए-हदीस आंदोलन भारत में तरिक-ए-मुहम्मदिया आंदोलन की शाखा है जो दिल्ली के शाह वली अल्लाह के विचारों से प्रेरित, वहाबियत से पृथक आंदोलन है। इस सम्प्रदाय के अनुयाई शुरुआती इस्लाम के बाद में जोड़ी गई हर बात का विरोध करते हैं। यह कलाम (अटकलबाजी धर्मशास्त्र) और इसके विभिन्न स्कूलों जैसे अशरिज्म और मुताज़िलिज्म के सिद्धांतों की कड़ी निंदा करते हुए शरिया (इस्लामी कानून) के प्रभावी कार्यान्वयन का समर्थन करते हैं।
यह संगठन एक बार में तीन तलाक़ और हलाला जैसे मान्यताओ को नकारता है। इन्हें सलफ़ी सुन्नी भी कहा जाता है इस आंदोलन के लोग तकलीद (कानूनी मिसाल का पालन करना) को खारिज करते हैं और शास्त्रों के आधार पर इज्तिहाद (स्वतंत्र कानूनी तर्क) का पक्ष लेते हैं। आजकल सलाफी और अहल-ए-हदीस शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची शब्दों के रूप में काम में लिया जाते हैं। यह आंदोलन अरब प्रायद्वीप में प्रचलित हनबली स्कूल के सिद्धांतों पर आधारित है। दक्षिण एशिया के शहरी इस्लामी क्षेत्रों में यह संप्रदाय अधिक प्रभावी रहा है। अहले हदीस ने 1906 में अखिल भारतीय अहल-ए-हदीस सम्मेलन आयोजित किया। इसने पाकिस्तान में 1986 में जमीयत अहले हदीस नाम से राजनीतिक दल का गठन किया। इस आंदोलन को सऊदी अरब से समर्थन और धन प्राप्त हुआ है।
भारत में अहले हदीश आंदोलन - 
इमाम शाह वलीउल्लाह देहलवी (1703 - 1762 ई.) को भारत में अहल-ए-हदीस का बौद्धिक पूर्वज माना जाता है। हज के बाद शाह वलीउल्लाह देहलवी ने मदीना में 14 महीने बिताए और कुरान, हदीस व इब्राहिम अल-कुरानी के बेटे हदीस विद्वान मुहम्मद ताहिर अल-कुरानी के सानिध्य में  इब्न तैमिया के साहित्य का अध्ययन कर भारत लौटे। भारत में उन्होंने तौहीद और सुन्नत की ओर वापसी का प्रचार शुरू करते हुए इब्न तैमिया की तरह इज्तिहाद का दावा किया। शाह का मानना था कि इज्तिहाद सभी युगों के मुस्लिम विद्वानों के लिए आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक युग के नए मुद्दों से संबंधित ईश्वरीय आदेशों का ज्ञान अनिवार्य है। उन्होंने कब्रों की जियारत एवं उर्स आदि का विरोध करते हुए  बिदत (धार्मिक नवाचारों) के विरुद्ध इज्तिहाद पर जोर दिया। वो खुलफा अल-रशीदुन के अनुसार इस्लामी खिलाफत को पुनर्जीवित करना चाहते थे। उनके उपदेश इज़ालत अल खलीफा , कुर्रत अल-अयनेन जैसे ग्रंथों में संरक्षित हैं जो इब्न तैमिया के सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं।वलीउल्लाह के कार्यों को उनके बेटे शाह अब्दुल अजीज ने जारी रखा। शाह अजीज एक मुहद्दिश थे जिन्होंने पूरे उपमहाद्वीप में छात्रों के साथ हदीस के महत्व को प्रकाशित किया। एक शिक्षक, उपदेशक और सामाजिक धार्मिक सुधारक के रूप में, शाह अब्दुल अजीज भारत उपमहाद्वीप में धार्मिक नेतृत्व के साथ - साथ राजनीतिक गतिविधियों पर भी बारीकी से नजर रखी। भारत में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की सत्ता पर कब्जा कर वर्ष 1799 में चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध में मैसूर साम्राज्य की हार और वर्ष 1803 में ब्रिटिश सेनाओं के दिल्ली में प्रवेश पर शाह अब्दुल अजीज ने फतवा जारी भारत को दारुल हर्ब घोषित किया। यह औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध पहला फतवा था जिसमें भारतीय मुसलमानों को औपनिवेशवाद से लड़ने और देश को आजाद कराने का अप्रत्यक्ष आह्वान किया गया जिसे उनके छात्र सैय्यद अहमद शाहिद ने आगे बढ़ाया।  सैयद अहमद ने शाह इस्माईल के साथ 17 अप्रैल 1831 को कश्मीर पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से बालाकोट के लिए 10,000 की सेना लेकर निकले। ज़बरदस्त खान (पश्तून पठान) व शेर सिंह (सिख कमांडर, 12000 की सेना) से 6 मई 1831 को हुए युद्ध में सैयद अहमद, शाह इस्माइल और वहाबी आंदोलन के प्रमुख नेता मारे गए। इस हार ने वहाबी आंदोलन को कमजोर किया पर उनके कई अनुयायियों ने शाह मुहम्मद इसहाक (1778-1846 ई.) शाह अब्दुल अजीज के पोते और दिल्ली के मदरसा रहीमिया के प्रमुख के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध आंदोलन जारी रखा। भारत में शाह इस्हाक ने शिष्यों के साथ अहले हदीस आंदोलन की स्थापना की। ब्रिटिश सरकार ने अहले हदीस विद्वान मुहम्मद हुसैन बटालवी की याचिका पर 1886 की अधिसूचना जारी कर आधिकारिक पत्राचार में वहाबी शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगा कर अहले हदीश किया गया। वर्ष 1920 में अहले हदीस ने श्रीनगर में अपना मुख्यालय स्थापित किया। यहां के हनफ़ी स्कूल ऑफ़ लॉ के अनुयायियों ने अहले हदीस का सामाजिक बहिष्कार किया। अहले हदीश को इस्लाम से बाहर मानकर उनका हंनफी मस्जिदों में नमाज़ पढ़ना वर्जित कर दिया गया। वर्ष 1930 में यह संगठन पाकिस्तान में राजनैतिक रूप से सक्रिय रहा है। वर्ष 1970 में एहसान इलाही ज़हीर ने यहां कई मस्जिदों और इस्लामी स्कूलों का जाल बिछाया।
अहले हदीश आंदोलन के सिद्धांत - 
इसके अनुयायी तकलीद का विरोध करते हैं । वे चार मुख्यधारा के इस्लामी न्यायशास्त्रीय स्कूलों और चार इमामों से बंधे रहने को अस्वीकार करते हैं । इसलिए उन्हें ग़ैर मुक़ल्लिदीन (गैर-अनुरूपतावादी) के रूप में जाना जाता है। वे न्यायशास्त्र के स्कूलों की परंपराओं को अस्वीकार करते हैं और कुरान और प्रामाणिक हदीस से सीधे मार्गदर्शन लेने को जायज़ मानते हैं। इसने उन्हें के सूफी संप्रदायों के विरोध में खड़ा किया जिनके साथ उनकी अक्सर बहस होती है। और वे न्यायशास्त्रीय मतभेदों के कारण हनफ़ी विचारधारा के अनुयायियों से असहमत हैं। हनबली धर्मशास्त्री अहमद इब्न तैमिया के शास्त्रीय ग्रंथ अहले हदीस के सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक संदर्भों में से एक हैं। ये कार्य उन्हें प्रमुख यमनी परंपरावादी विद्वान मुहम्मद अल शौकानी (शेखुल इस्लाम) के प्रभाव में मिले हैं। शाह इस्माइल देहलवी की किताब तक्वियात उल ईमान को अहले हदीस का घोषणा पत्र माना जाता है। अहले हदीस मुसलमानों की शुरुआती पीढ़ियों के इज्मा (आम सहमति) के सिद्धांतों पर काम करना पसंद करते हैं। 
जमीयत अहले हदीस का प्रतिनिधित्व अखिल भारतीय आज़ाद मुस्लिम सम्मेलन में किया गया जिसने भारत के विभाजन का विरोध किया। अखिल भारतीय अहले हदीस सम्मेलन का सदस्य संगठन अंजुमन हदीस है, जिसका गठन सैय्यद मियाँ नादिर हुसैन के छात्रों द्वारा किया गया जिसकी शाखाएं बंगाल और असम में हैं । वर्ष 1947 में भारत और पाकिस्तान के अलग होने के बाद, पाकिस्तानी अहले हदीस केंद्र कराची में स्थापित किया गया।
वर्ष 1930 में भारत में अहले हदीस की राजनैतिक जमीयत अहले हदीस की स्थापना की गई। इसकी पाकिस्तान शाखा ने आजादी के बाद शरिया कानून में सरकारी दखल का विरोध किया। बाद में अहले हदीस के नेता एहसान इलाही ज़हीर की 1987 में हत्या कर दी गई थी।
अहले हदीश का प्रभाव - 
अन्य इस्लामी सुधार आंदोलनों की तरह अहल-ए-हदीस कुछ सामान्य विशेषताओं और मान्यताओं से अलग हैं। 
अहले हदीस - 
1. इस सम्प्रदाय के पुरुषों दाढ़ी नहीं मुंडवाते। 
2. इबादाह (नमाज) हेतु अव्वल वक्त (हनफ़ी से भिन्न) (पहले अज़ान पहले नमाज) है।
3. सफ में पांव फैला कर (एक दूसरे से सटाकर) खड़े होते हैं।
4. रफादेन (हर रकात में (सजदे में जाने से पहले) हाथ कानों तक उठाना) करते हैं।
5. हाथों नाभि के ऊपर सीने पर रखते हैं। 
6. सना/हम्द के आखिर में जोर से आमीन कहते हैं।
7. मुस्लिम महिलाओं को मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने की इजाज़त देते हैं।
8. लोगों को स्थानीय भाषाओं में खुतबा (शुक्रवार का उपदेश) देते हैं।
9. महिलाओं हेतु तलाक़ (खुला) की प्रक्रिया को आसान और सुलभ बनाया गया है।
10. तीन तलाक़ को नकारते हैं।
11. कड़ी मेहनत कर पवित्र व अनुशासित जीवन जीने पर जोर देते हैं।
12.भलाई (पुण्य कर्म) के माध्यम से अल्लाह की रज़ा (निकटता) प्राप्त करने पर जोर देते हैं।

(च) शिया (बोहरा) आंदोलन - 
भारत के बोहरा शिया इस्लाम के इस्माइली संप्रदाय के लोग हैं जो अधिकांशतः पश्चिमी भारत में रहते हैं। बोहरा शब्द गुजराती भाषा के वाहौरौ शब्द से बना है जिसका अर्थ है व्यापार करने वाला।
बोहरा शिया की स्थापना 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुजरात में हुई थी। इस समुदाय की आस्था प्रणाली यमन में जो फ़ातिमी लोगों से विकसित हुई। जिन्हें फ़ातिमी शिया इस्लाम के पालन के कारण वहां उन्हें सताया गया जिसके कारण दाऊदी बोहरा भारत चले आए। बोहरा 21वें फ़ातिमी इमाम तैयब के लापता होने के बाद वे इमाम के प्रतिनिधि के रूप में दाई का अनुसरण करते हैं जो आज भी अनवरत है। दाई ज़ोएब ने मौलई याकूब (मौलई अब्दुल्ला की मृत्यु के बाद) को नियुक्त किया, जो फ़ातिमी दावत के दूसरे वली अल हिंद थे। मौलई याकूब दाई के अधीन यह सम्मान पाने वाले भारतीय मूल के पहले व्यक्ति थे। वे राजपूत सोलंकी राजा जयसिंह सिद्धराज (अनहलवाड़ा, पाटन) के मंत्री मौलई भारमल के पुत्र थे। मंत्री मौलई तरमल के साथ, उन्होंने मौलई अब्दुल्ला के आह्वान पर फ़ातिमी दावत पर मुस्लिम बने। मौलई तरमल के बेटे सैयद फ़ख़रुद्दीन को पश्चिमी राजस्थान, भारत भेजा गया और मौलई नूरुद्दीन दक्कन चले गए (मृत्यु जमादि उल उला 11 को सोम, औरंगाबाद, महाराष्ट्र)। यमन में 23वें दाई तक एक दाई दूसरे के उत्तराधिकारी बने। भारत में भी वली अल हिंद को वलीउल हिंद मौलाई कासिम खान बिन हसन (11वें और अंतिम वली उल हिंद (मृत्यु 950 हिजरी, अहमदाबाद ) तक एक के बाद एक नियुक्त किया गया। यमन में स्थानीय  शिया शासक द्वारा उत्पीड़न के कारण, 24वें दाई, यूसुफ़ नजमुद्दीन इब्न सुलेमान (मृत्यु 1567 ई.) ने दावत (मिशन) का पूरा प्रशासन भारत में स्थानांतरित कर दिया। 25वें दाई जलाल शमशुद्दीन (मृत्यु 1567 ई.) भारत में मरने वाले पहले दाई थे। उनका मकबरा अहमदाबाद, भारत में है। इसके बाद दावत अहमदाबाद से जामनगर मांडवी, बुरहानपुर, सूरत और अंत में मुंबई चली गई और आज भी वहीं पर है जिसका नेतृत्व वर्तमान में 53वें दाई कर रहे हैं।20वीं सदी में इस्लाम के आधुनिकीकरण और उदारीकरण को बढ़ावा देने वाले विद्वान आसफ अली असगर फैजी बोहरा थे। उन्होंने तर्क दिया कि बदलते समय के साथ इस्लाम में आधुनिक सुधार आवश्यक हैं बिना इस्लाम की मूल भावना से समझौता किए।
भारत में बोहरा समुदाय में सुधार के लिए कई आंदोलन हुए - 
बोहरा समाज सुधारवादी आंदोलन -
इस आंदोलन की शुरुआत नौमान अली कॉन्ट्रैक्टर (मृत्यु 1980) ने की जिसे बाद में डॉ. असगर अली इंजीनियर ने आगे बढ़ाया।
अल दाई अल मुतलक कार्यालय का पुनर्गठन - 
बोहरा नेता ताहिर सैफ़ुद्दीन ने अल दाई अल मुतलक कार्यालय का पुनर्गठन के तहत कार्यालय सूरत से मुंबई स्थानांतरित कर बोहरा समुदाय को पुनर्जीवित किया।
बोहरा पर्यावरण संरक्षण अभियान - 
बोहरा समुदाय ने पर्यावरण संरक्षण हेतु बुरहानी फ़ाउंडेशन की स्थापना की।
बोहरा समाज टर्निंग द टाइड अभियान बोहरा समुदाय ने एकल उपयोग प्लास्टिक को खत्म करने के लिए टर्निंग ध टाइड अभियान चलाया।
दाऊदी बोहरा प्रोजेक्ट राइज़ - 
दाउदी बोहरा समुदाय ने ग़रीबी में रहने वाले लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने हेतु प्रोजेक्ट राइज़ शुरू किया।

भारत में मुसलमानों की वर्तमान स्थिति 
जनसंख्या - 
भारत की स्वतंत्रता और 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के बाद विभाजन के कारण मुस्लिम आबादी 1941 में 42,400,000 (13.3%) से घटकर 1951 की जनगणना में 35,400,000 (9.8%) हो गई। पाकिस्तान की जनगणना, 1951 के अनुसार वहां पर विस्थापितों की संख्या 7226600 (भारत के विभिन्न क्षेत्रों से पाकिस्तान गए मुस्लिम शरणार्थी) थी। विभाजन के बाद लगभग 35 मिलियन मुसलमान यहीं रहे। वर्ष 1941 की जनगणना के अनुसार अविभाजित भारत (पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित) में 94.5 मिलियन मुसलमान रहते थे, जो कुल आबादी का 24 प्रतिशत था। भारत विभाजन के बाद इसका 60% भाग या तो समाप्त हो गया या विस्थापित हो गया।
भारत के पूर्व विधि एवं न्याय मंत्री भीमराव रामजी अंबेडकर ने विभाजन के दौरान दोनों नवगठित राष्ट्रों में कानून, व्यवस्था और शांति बनाए रखने के लिए भारत और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों के बीच पूर्ण जनसंख्या विनिमय की वकालत की थी, जिसके लिए उन्होंने अपनी पुस्तक पाकिस्तान या भारत का विभाजन में कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि अल्पसंख्यकों का स्थानांतरण सांप्रदायिक शांति के लिए एक मात्र स्थाई समाधान है।
जनसंख्या विनिमय वर्ष 1950 में लियाकत अली - नेहरू समझौते के कारण नहीं हुआ जिसके अंतर्गत दोनों देशों की सीमाओं के पूरी तरह से सील होने के कारण विस्थापितों का प्रवास बंद कर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप, भारत में बड़ी संख्या में मुसलमान, पाकिस्तान में  सनातनी वहीं रह गए। भारत के पूर्वी व पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब में विभाजन पश्चात अल्पसंख्यकों का पूर्ण जनसंख्या विनिमय हुआ। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, इस्लाम भारत का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है जो देश की 14.2% (172.2 मिलियन) आबादी के साथ यहां निवास करते हैं। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा मुस्लिम आबादी वाला देश है। भारत में 85% सुन्नी एवं 15% शिया मुस्लिम निवास करते हैं। वर्ष 2025 में अनुमान के अनुसार यह आबादी 20% के आसपास है।
विश्व में मुस्लिम जनसंख्या वाले देश -
1. इंडोनेशिया 231,070,000
2.  पाकिस्तान 233,046,950
3. भारत 207,000,000
4. बांग्लादेश 153,700,000
5. नाइजीरिया 110,263,500

भारतe लक्षद्वीप की आबादी का 96.2% और जम्मू और कश्मीर की आबादी का 68.3% में मुस्लिम जनसंख्या है। भारत के तीन राज्यों  47%, मुस्लिम आबादी रहती है जो हैं - 
1. उत्तर प्रदेश
2.पश्चिम बंगाल
3.बिहार
इसके बाद आंध्र प्रदेश, असम, दिल्ली, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और उत्तराखंड राज्यों में मुस्लिम आबादी पाई जाती है। 
भारत के मुस्लिमों की वर्तमान दशा - संख्यात्मक रूप से लगभग 20% आबादी होने के बावजूद भारत में मुस्लिम समाज की आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति अत्यंत दयनीय है। राजेंद्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार भारत के मुसलमानों को स्थिति दलितों से भी बद्तर है। मुस्लिम समाजa वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर ना नेता है और ना ही कोई खुल कर समर्थन करने वाला दल। राजनैतिक रूप से केरल की मुस्लिम लीग, कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी कुछ क्षेत्रीय प्रभाव वाली पार्टियां हैं। बिखराव के कारण यहां इनके राजनैतिक हित गौण होते जा रहे हैं। वर्तमान में केंद्र सरकार मुस्लिम हित को कानूनी रूप से अपेक्षित कर सीमित करना चाहती है। मोबलिंचिन एवं खुलेआम सरकार एवं अन्य दक्षिण पंथी शक्तियों द्वारा बहिष्कार, मारपीट एवं सरकारी अत्याचार बढ़ता जा रहा है। वास्तविक रूप से यदि गहन विचार किया जाए तो स्वयं भारत का बिखरा हुआ मुसलमान इसके लिए जिम्मेदार है।

अंत में यही कहना चाहूंगा कि 
यूं असलाफ की खातिर रखने वालो
ढके सर नंगे पैर  खुले  टखने वालो
अपने ही खून का मजा चखने वालो
एक हो जाओ एक खुदा रखने वालो।

दस्तानों की बात इकबाल ने कही थी
हस्ती  की  बात  अहवाल ने कही थी
गिराँ हालात जाते हर साल ने कही थी
घिरे मुसीबत में सरे पमाल ने कही थी।

आजीज हो क्यों जब सब तुम्हारा है
कायनात को वास्ते तुम्हारे संवारा है
खिलाफत   तुम्हें  नहीं  जो गवारा है
तू दर  दर की खा ठोकर का मारा है

जिगर क्यों तुझ पर अहसान कोई
पराया बने क्यों तेरा मेहमान कोई
बवक्त संभल ना ले तेरी जान कोई
ईमान बचाने का कर सामान कोई।
- जिगर चुरूवी 


शमशेर भालू खां 
9587243963

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