बौद्ध धर्म मान्यता एवं इतिहास
बौद्ध धर्म विश्व का ईसाई व इस्लाम धर्म के बाद तीसरा सब से बड़ा धर्म है जिसका उदय भारत में हुआ।
श्रमण परम्परा एवं बौद्ध धर्म
श्रमण परम्परा (पालि भाषा में समण) भारत में प्राचीन काल से जैन,आजीविक,चार्वाक, तथा बौद्ध दर्शनों में पायी जाती है।
इसे नास्तिक दर्शन भी कहते हैं। भिक्षु या साधु को श्रमण कहते हैं जो सर्वविरत कहलाता है।
श्रमण हेतु पाँच महाव्रत :-
1 सर्वप्राणपात
2 सर्वमृष्षावाद
3 सर्वअदत्तादान
4 सर्वमैथुन
5 सर्वपरिग्रह
श्रमण को तन,मन व कर्म से इन पाँच महाव्रतों का पालन करना पड़ता है।
संस्कृत एवं प्राकृत में 'श्रमण' शब्द के निकटतम तीन रूप हैं :-
1 श्रमण
2 समन
3 शमन
श्रमण परम्परा का आधार इन्हीं तीन शब्दों पर है। श्रमण शब्द श्रम धातु से बना है, इसका अर्थ है परिश्रम करना।
श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद में श्रमणोऽश्रमणस के रूप में हुआ जिसका अर्थ इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है। सुख–दुःख या उत्थान-पतन के लिये मनुष्य स्वयं उत्तरदायी है।
समन का अर्थ है, समताभाव अर्थात सभी को आत्मवत कर सभी के प्रति समभाव रखना। जो बात खुद को बुरी लगती है वह दूसरों के लिये भी अप्रिय है। इसका स्पष्टीकरण आचारांगसूत्र व उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है।
शमन का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना उनका निरोध करना (इन्द्रिय निग्रह) यानि जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है वह महाश्रमण है।
इस प्रकार श्रमण परम्परा का मूल आधार श्रम, सम, शम इन तीन तत्त्वों पर आश्रित है एवं इसी में इस नाम की सार्थकता है।
श्रमण परम्परा प्राचीन,उन्नत और गरिमामय है। भारतीय इतिहास में आदिकाल से ही श्रमण परम्परा के संकेत मिलते होते हैं। मोहनजोदड़ो को भी श्रमण धर्म से जोड़ा जाता है जिसके साक्ष्यों के आधार वृषभ (बैल) के चिह्न के साथ आदि तीर्थंकर वृषभदेव (जैन धर्म) की मूर्ति का मिलना दिया जाता है। भारत में तप साधना (तपस्या) के प्रवर्तक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव थे ऐसा माना गया है।
ब्राह्मण और श्रमण
ब्राह्मण(ब्रह्मा का उपासक,अंश) वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता हो और वेदों को ही ब्रह्म वाक्य मानता हो। ब्राह्मण धर्म मानता है कि ब्रह्म और ब्रह्माण्ड को जानना आवश्यक है तभी ब्रह्मलीन (ब्रह्म में समा जाना)(मोक्ष) का मार्ग खुलता है।
श्रमण वह जो श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता हो और जिसके लिए व्यक्ति के जीवन में ईश्वर की नहीं श्रम की आवश्यकता है। श्रमण परम्परा तथा सम्प्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्ध तथा जैन धर्मग्रन्थों में मिलता है जबकि वेद,स्मृति, व उपनिषद ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थ हैं।
ये दोनों परम्परायें ही भारतीय धर्म में बड़ी मानी जाती हैं पर दोनों की चिन्तन पद्धति अलग-अलग है।
ब्राह्मण परम्परा का मूल आधार वेद रहे हैं जिस की धुरी परब्रह्म (ईश्वर) है। वेदों में जो कुछ भी आदेश एवं उपदेश लिखित हैं जैसे यज्ञ,तप आराधना स्तुति (आरती) उन्हीं परम्परा के अनुसार जीवन पद्धति का निर्माण किया जाता है जो ब्राह्मण परम्परा कहलाती है और दूसरी तरफ जिस परम्परा में वेदों को प्रमाणित न मानकर आत्म ज्ञान व आत्म-साक्षात्कार पर विशेष बल दिया गया वह श्रमण परम्परा कहलाई।
ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्परा में कौन सी अधिक पुरानी है यह बता पाना मुश्किल है।
जैन धर्म में श्रावक शब्द का प्रयोग गृहस्थ के लिये भी किया गया है। श्रावक अहिंसा व्रत को संपूर्ण रूप से स्वीकार करने में असमर्थ होता है पर त्याग वृत्ति के साथ गृहस्थ मर्यादा में रह कर इन व्रतों में से कुछ का पालन करता है। श्रावक शब्द का मूल 'श्रवण' है जिसका मूल अर्थ है "वह व्यक्ति जो संतों के प्रवचन सुनता है।"
श्रावक के लिये छ: आवयशक कार्य -
1 देव पूजा
2 गुरूपास्ति
3 स्वाध्याय
4 संयम
5 तप
6 दान
बौद्ध सन्यासियों (साधुओं) या गुरूओं को संस्कृत में भिक्षु व पाल भाषा में भिक्खु कहते हैं।
सनातन शब्द के प्रयोग पर बौद्ध धर्म प्रचारकों की आपत्ति -
बोद्ध मतावलंबियों के अनुसार सनातन शब्द पाली भाषा का शब्द है जो बौद्ध धर्म से संबंधित है।
ओसो के "अनुसार एस धम्मो सनातनम।"
बौद्ध धर्म संस्थापक तथागत गौतम बुद्ध
तथागत शब्द का अर्थ :-
वे व्यक्ति "जो कहते हैं वही करते हैं, उसी रास्ते पर चलते हैं और जो करते हैं वही कहते हैं। यही तथागत शब्द का अर्थ है।"
एक महाश्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ।
नाम - गौतम बुद्ध
पदनाम - तथागत बुद्ध
जन्म का नाम - सिद्धार्थ गौतम (राजकुमार)
(सिद्धार्थ का अर्थ - जन्मजात सिद्धि प्राप्त)
प्रचलित नाम - तथागत बुद्ध, गौतम बुद्ध, भगवान बुद्ध। (सनातन धर्मानुसार गौतम बुद्ध को विष्णु के 23 वें अवतार थे।)
जन्म - 563 ईसा पूर्व
मृत्यु (निर्वाण) - 483 ईसा पूर्व
मृत्यु (निर्वाण के समय आयु - 80 वर्ष लगभग (कुंडा लुहार द्वारा दिये गये भोजन के बाद बीमार पड़ गये)
जन्मस्थान - लुम्बिनी (वर्तमान नेपाल में) (महामाया के कपिलवस्तु से देवदह (पीहर) जाते समय रास्ते मे रुम्मिनदेई के वन में सिद्धार्थ का जन्म हुआ।)
वंश - इक्ष्वाकु (क्षत्रिय)
कुल - शाक्य
गौत्र - गौतम
पिता का नाम - शुद्दोधन (कपिलवस्तु के राजा)
माता का नाम - महा माया (देवदह के कोलिये वंश से), माता का निधन सिद्धार्थ के जन्म के कुछ दिन बाद हो गया।
पालन - पोषण - सगी मौसी व सुधोधन की दूसरी पत्नी महा प्रजापति गौतमी ने किया।
शिक्षा-दीक्षा - गुरु विश्वामित्र से वेद व उपनिषद का ज्ञान लिया।
विवाह - 547 ईस्वी पूर्व 16 वर्ष की आयु में यशोधरा के साथ
सन्तान - राहुल (पुत्र)
व्यक्तित्व - दया,करुणा व अहिंसा वादी
भाषा - पालि (पाल)
सन्यासी जीवन (महाभिनिष्क्रमण) - 29 वर्ष की आयु 528 ईस्वी पूर्व बैसाख मास में लोगों के दुःख व विभिन्न दसाओं को देख कर विलासिता पूर्ण जीवन त्याग कर लम्बे समय तक लगभग नहीं के समान (थोड़े से तिल व चावल खाकर) तपस्या की।
ज्ञान की प्राप्ति - 35 वर्ष की आयु मे वैशाखी पूर्णिमा (बुद्ध पूर्णिमा) के दिन बौद्ध गया (निरंजना नदी के किनारे) (बिहार) में बोधि वृक्ष (पीपल का पेड़) के नीचे सुजाता के हाथों की खीर खा कर उपवास तोड़ने के दूसरे दिन ज्ञान की प्राप्ति हुई और सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गए।
सन्यासी जीवन में गुरू - अलार कलाम व उद्दक
कठोर तप का त्याग - छः वर्ष की कठोर तपस्या के बाद एक दिन कुछ स्त्रियों के स्थानीय गीत ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ पर ध्यान गया और वो नियमित आहार लेने लगे। यहीं से मध्यममार्गी सिद्धान्त अपनाना शुरू किया।
बौद्ध प्राप्ति के बाद -
1 सात सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे व आस पास रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश देने निकले।
2 आषाढ़ की पूर्णिमा को काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचकर पहली बार धर्म उपदेश दिया जहाँ उनके पांच अनुयायी बने।
3 पाँच शिष्यों में मौसी महा प्रजापति गौतमी व आनंद मुख्य हैं। (आनंद,बुद्ध के प्रियतम शिष्य थे जिन्हें संबोधित कर के अपने बुद्ध उपदेश देते थे।)
बौद्ध धर्म का वाक्य
बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मं शरणम गच्छामि
(बर्मा के व्यपारियो द्वारा किया गया उद्बोधन)
तथागत बुद्ध के उपदेश
जीवन को न ज्यादा कठोर न ही सरलतम जीना चाहिये, इस हेतु मध्यम मार्ग उत्तम है।
दुःख, दुःख के कारण और निवारण के लिये अष्टांगिक मार्ग बताया और यज्ञ व बलि को त्याग कर अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया।
बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ का मार्ग अपनाने का संदेश दिया।
तथागत बुद्ध ने सनातन धर्म के कुछ तत्वों का भी प्रचार किया
1 अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र बोलना
2 ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि
3 मध्यमार्ग का अनुसरण
4 चार आर्य सत्य
5 अष्टांग मार्ग
बौद्ध धर्म एवं धर्म संघ
जैसे जैसे बुद्ध ने धर्म प्रचार किया उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी और बहुत सारे भिक्षु व राजा-महा राजा उनके शिष्य बनने लगे।
भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई व स्त्रियों को भी संघ में शामिल किया गय जिसमे प्रथन स्त्री उनकी मौसी (महा प्रजापति) थी।
बाद में बोध धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिये कई भिक्षु विदेशों में गये। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र-पुत्री को बोध धर्म के प्रचार प्रसार हेतु अन्यंत्र भेजा। अन्य सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम भूमिका निभाई।
मौर्यकाल तक यह धर्म भारत की सीमा पार कर चीन,जापान,कोरिया,मंगोलिया,बर्मा,थाईलैंड, तिब्बत,श्रीलंका जैसे देशों में फैल चुका था।
आज इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।
बोध धर्म के तीर्थ स्थान
1 लुंबिनी
सम्राट अशोक द्वारा स्थापित अशोक स्तम्भ में ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म स्थान होने का वर्णन किया हुआ शिलालेखों के अनुसार नेपाल में स्थित लुंबिनी भगवान बुद्ध का जन्मस्थान है जो विश्व के सभी बौद्ध सम्प्रदाय (महायान, बज्रयान, थेरवाद व नवबौद्ध) के लिये तीर्थ स्थल है।
बुद्ध धर्म सम्पदाओं ने अपनी-अपनी संस्कृति के अनुसार मठ, गुम्बद, विहार का निर्माण करवाया।
2 कपिलवस्तु
लुंबिनी के निकट ही कपिलवस्तु, शाक्य गण की राजधानी थी गौतम बुद्ध के प्रारंभिक जीवन का स्थान है।
पुरातात्विक खुदाई और प्राचीन यात्रीयों के लेखों के अनुसार अधिकतर विद्वान कपिलवस्तु नेपाल के तिलौराकोट को मानते हैं जो नेपाल की तराई के नगर तौलिहवा के नज़दीक हैं।
गौतम बुद्ध बुद्धत्व प्राप्ति के दूसरे वर्ष शुद्धोदन के निमंत्रण पर कपिलवस्तु आये व कुछ समय (चतुर्मास) न्यग्रोधाराम स्थान में बिताया।
यहाँ रहते हुए उन्होंने अनेक सूत्रों का उपदेश किया व बहुत सारे शाक्यों के साथ अपने पुत्र राहुल और वैमात्र (मौसेरे)(सौतेले) भाई नंद को प्रवज्जा(शिक्षा) दी व शाक्यों (स्व्वंश) और कोलियों (माता का वंश,ननिहाल) का झगड़ा निपटाया।
बुद्ध से घनिष्ठ संबंध होने के कारण इस नगर का बौद्ध साहित्य और कला में चित्रण प्रचुरता से हुआ है। इसे बुद्धचरित काव्य में कपिलस्य - वस्तु तथा ललितविस्तर और त्रिपिटक में कपिलपुर भी कहा है।
इस नगर की चारों दिशाओं में चार द्वार बने थे। नगर सात परकोटों से घिरा हुआ था। यहां वन, आरामगाह, उद्यान और बगीचे बने हुये थे। इस नगर में अनेक चौराहे, सड़कें, बाजार, तोरणद्वार, हर्म्य, अन्नागार तथा महल बने थे।
यहाँ के अमात्य (शिक्षक) मेधावी थे। पालि त्रिपिटक के अनुसार शाक्य क्षत्रिय थे और राजकार्य संचालन संथागार (सभागृह) में एकत्र हो कर करते थे। उनकी शिक्षा और संस्कृति का स्तर ऊँचा था। भिक्षुणीसंघ की स्थापना का श्रेय कपिलवस्तु की शाक्य स्त्रियों को ही जाता है।
फ़ाह्यान के समय तक कपिलवस्तु में थोड़ी आबादी रही और युआन्च्वाङ के समय तक यह नगर वीरान और खँडहर हो गया।
यहां किंतु बुद्ध के जीवन के घटनाओं जे जुड़े 1000 चैत्य, विहार और स्तूप आज भी अवस्थित हैं।
3 पिपरहवा का स्तूप
यहाँ अशोक का एक शिलालेख मिला है जिसका आशय है कि भगवान् बुद्ध के इस जन्मस्थान पर आ कर अशोक ने पूजा की और स्तंभ स्थापित कर लुम्बिनी की जनता के कर कम किये।
4 दीक्षा-भूमि नागपुर (महाराष्ट्र)
भारत में बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र दीक्षा भूमि भारत में नवबौद्ध धर्म का एक प्रमुख केन्द्र बना। यहाँ बौद्ध धर्म का पुनरूत्थान हुआ।
महाराष्ट्र राज्य में स्थित नागपुर शहर में स्थित इस पवित्र स्थान पर बोधिसत्त्व डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1953 को
1 त्रिशरण
2 पंचशील
3 बाईस प्रतिज्ञाएँ
दे कर पहले महा- स्थविर चंद्रमणी से पाँच लाख साथियों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा ली। दूसरे दिन 15 अक्टूबर को पाँच लाख अनुयायियों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी और स्वयं भी फिर से दीक्षीत हुये। तीसरे दिन फिर एक लाख लोगों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी।
यहां देश तथा विदेश से वर्षपर्यंत बौद्ध धर्मावलम्बी, भिक्षु व आंबेडकरवादी नवबौद्ध आते रहते हैं। प्रतिवर्ष 14 अक्टूबर को यहाँ हजारों की संख्या में लोग बौद्ध धर्म अपनाते हैं।
5 सारनाथ
सारनाथ वाराणसी (काशी) के निकट प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था जिसे धर्म चक्र प्रवर्तन का नाम दे कर बौद्ध मत का प्रचार-प्रसार शुरू किया।
बौद्ध धर्म के साथ-साथ सारनाथ को जैन व सनातन धर्म में भी महत्व प्राप्त है। जैन ग्रन्थों में इसे सिंहपुर कहा गया है और माना जाता है कि जैन धर्म के ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म सारनाथ के निकट हुआ था।
यहां पर सारंगनाथ महादेव का मन्दिर भी है जहां सावन के महीने में सनातनियों का मेला लगता है।
सारनाथ में अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तम्भ (भारत का राष्ट्रीय प्रतीक) बौद्ध मठ,धामेख स्तूप, चौखन्डी स्तूप,राजकीय संग्राहलय,जैन मन्दिर, चीनी मन्दिर, मूलंगधकुटी और नवीन विहार जैसे धार्मिक स्थान हैं।
सन 1905 में पुरातत्व विभाग ने यहां खुदाई कार्य प्रारम्भ किया जिससे बौद्ध धर्म के अनुयायों और इतिहासकारों का ध्यान इस ओर गया। अनेक आक्रांताओं ने इस सभ्यता को नष्ट करने के प्रयास किये।
सारनाथ नगर बसने से पहले वन क्षेत्र था जहां खूब हरिण रहते थे जिसका नाम ऋषिपत्तन व मृगदाय था जहां सारंगनाथ महादेव की मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारंगनाथ(मृगों का नाथ अर्थात गौतम बुद्ध) (सारंगनाथ शिव को भी कहते हैं,सांपों के नाथ) पड़ा जो कालान्तर में सारनाथ हो गया।
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद उपदेश यहीं से शुरू किये थे। सम्राट अशोक व अन्य राजाओं ने यहाँ खूब स्थापत्य निर्माण करवाया, अशोक द्वारा निर्मित सिंहों की मूर्ति वाला भारत का राष्ट्रीय प्रतीक सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से लिया गया है। सारनाथ का 'धमेक स्तूप' यहां की प्राचीनता का भव्य बोध कराता है।
विदेशी आक्रमणों और परस्पर की धार्मिक दुर्भवनाओं के कारण आगे चलकर सारनाथ का महत्व कम होता गया। शुंग वंश काल में सारनाथ की अवनति हुई पर बाद में कनिष्क ने खूब विहार बनवाये। कनिष्क के राज्यकाल के तीसरे वर्ष में भिक्षुओं ने यहाँ बोधिसत्व प्रतिमा स्थापित की।
6 बोधगया (बिहार)
भारत के बिहार प्रदेश के गया जिले के गया नगर जो मंदिरों के शहर के नाम जाना जाता है से सटा नगर जिसका बौद्ध धर्म से बहुत गहरा धार्मिक व ऐतिहासिक रिश्ता है। यहाँ महात्मा बुद्ध ने बोधि वृक्ष के नीचे निर्वाण प्राप्त किया अतः यह स्थान बोधगया कहलाता है। सन 2002 में यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत घोषित किया।
पहले यह स्थान उरुवेला, सम्बोधि, वैजरसना व महाबोधि नामों से जाना जाने लगा व बोधगया शब्द का उल्लेख 18 वीं शताब्दी में मिला।
यहां के महाबोधि मठ में स्थापित बुद्ध की मूर्त्ति बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्त्ति है। नालन्दा और विक्रमशिला के मठों में इसी मूर्त्ति की प्रतिकृति को स्थापित किया गया है।
बौद्ध गया का मठ बौद्धों के सबसे बड़े तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है।
विहार में पक्षियों की चहचहाट के बीच बुद्धम्-शरनम्-गच्छामि की हल्की ध्वनि अनोखी शांति प्रदान करती है। सभी बौद्ध सम्प्रदाय के लोग इस मठ में आध्यात्मिक शांति के लिये आते हैं।
गौतम बुद्ध के ज्ञान प्रप्ति के ढाई शताब्दी के बाद सम्राट अशोक ने बोधगया आ कर स्तूपाकार में महाबोधि मठ का निर्माण कराया जो यहां का मुख्य मठ है।बोधगया में भगवान बुद्ध की महान प्रतिमा पदमासन की मुद्रा में है।
इस मठ परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किये। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
मुख्य मठ के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची विराजमान अवस्था मे एक मूर्त्ति है। यहां बुद्ध के पद चिह्न भी बने हैं पास में बुद्ध खड़ी अवस्था मे मूर्त्ति बनी है जिसे अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है।
मुख्य मठ का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है।
महाबोधि मठ के पश्चिमोत्तर भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रतनाघरा के नाम से जाना जाता है।
लोकमान्यता अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे, उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली जिसके रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां अपनी-अपनी ध्वजा लगाई गई है। मुख्य मठ के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष स्थान व दायीं ओर मूचालिंडा तालाब है। जिसके मध्य बुद्ध प्रतिमा है। मठ परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है जहां बुद्ध ने बर्मा निवासी दो व्यापारियों को शरण दी उन्होंने अलाप किया बुद्धमं शरणम गच्छामि।
इसके साथ ही तिब्बतियन मठ 1934 में, म्यामार मठ व विहार 1936 में, थाईलैंड के राजाओं द्वारा निर्मित महाबोध थाई मठ, लकड़ी का ईंडोसन-निप्पन-जापानी मठ(1972), सोने की मूर्ति वाला चीनी मठ (1945),भूटानी मठ व हाल ही में बना वियतनामी मठ दर्शनीय स्थान हैं।
7 राजगीर
राजगीर का गिरधर कूट पहाड़ी पर बना विश्व शांति स्तूप व वेणु वन देखने में काफी आकर्षक है। राजगीर में ही तल से 1000 सीढ़ियों पर सप्तपर्णी गुफा है जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह गुफा पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से 1000 सीढियों की चढाई पर है।
राजगीर में जरासंध का अखाड़ा, स्वर्णभंडार (दोनों स्थल महाभारत काल से संबंधित है) का धार्मिक महत्व है।
8 नालन्दा
नालन्दा राजगीर से 13 किलोमीटर की दूरी पर है जहां विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। अब इस विश्वविद्यालय के अवशेष ही शेष हैं। यहां एक संग्रहालय है जहां खुदाई में प्राप्त पुरातात्विक सामग्री सहेजी हुई है।
9 बामियान
अफगानिस्तान के बामियान में भी बुद्ध की विशाल प्रतिमा थी जिसे तालिबानियों ने तोड़ दिया।
भगवान बुद्ध के गुरु व शिष्य
1 आनन्द
सर्वोत्तम आनंद पीड़ा की अनुपस्थिति है, आनंद का तात्पर्य, "दैहिक पीड़ा से मुक्ति एवं आत्मा की अशांति से मुक्ति है।
यह बुद्ध और देवदत्त के भाई थे और बुद्ध के दस सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक। यह लगातार बीस वर्षों तक बुद्ध की संगत में रहे। आनंद को बुद्ध के निर्वाण के पश्चात प्रबोधन(ज्ञान) प्राप्त हुआ। आनंद बेहतरीन स्मरण शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे।
आनंद गौतम के प्रिय अनुयायी थे,बुद्ध ने सभी उपदेश आनंद को संबोधित प्रसारित किये।
आनंद व्यापक मानसिक स्थितियों सुख, ख़ुशी मनोरंजन,परमानंद,उल्लास व उन्माद जिसका अनुभव मनुष्य व अन्य जंतु सकारात्मक, मनोरंजक व खोज की स्थिति के रूप में करते हैं। मनोविज्ञान में आनंद सिद्धांत के तहत आनंद का वर्णन सकारात्मक पुर्नभरण क्रियाविधि के रूप में किया गया है जो जीव को भविष्य में ठीक वैसी स्थिति निर्माण करने के लिए उत्साहित करती है जिसे उसने अभी आनंदमय अनुभव किया। इस सिद्धांत के अनुसार इस प्रकार जीव उन स्थितियों की पुनरावृत्ति नहीं करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं जिससे उन्हें भूतकाल में किसी प्रकार का संताप हुआ हो।
आनंद का अनुभव व्यक्तिपरक है और प्रत्येक व्यक्ति एक ही स्थिति में भिन्न प्रकार एवं परिमाण के सुख का अनुभव करते हैं। अनेक आनंदमय अनुभव, बुनियादी जैविक क्रियाओं के तृप्ती से संलग्न है जैसे भोजन, व्यायाम, काम और शौच। अन्य आनंदमय अनुभव सामाजिक अनुभवों एवं सामाजिक क्रियाओं से संलग्न हैं जैसे कार्य सिद्धि मान्यता एवं सेवा, प्रशंसा एवं कला संगीत और साहित्य अक्सर आनंदमय होते हैं।
नशीली दवाओं का प्रयोग भी सुख (नकारात्मक) देता है पर वे सीधे दिमाग में उल्लास व उन्माद पैदा करती हैं। मन की स्वाभाविक प्रवृतिनुसार (जैसा कि आनंद के सिद्धांत में वर्णन किया गया है) ऐसी अनुभूति की तलब ही अधीनता एवं व्यसन की ओर ले जाती है।
आनंद दर्शन
1 उपयोगितावाद व प्रेमवाद
यह वह दर्शन हैं जो आनंद की अधिकतम वृद्धि और पीड़ा को कम से कम करने पर समर्थन करते हैं।
2 तंत्रिका जीव विज्ञान
सुख की अनुभूति का केंद्र मस्तिष्क संरचना में एक समुच्चय है, मुख्यतः यह नाभिकीय अकुम्बेंस है जो सिद्धांत के अनुसार विद्युत्तीय तरंगो द्वारा उत्तेजित होने पर अत्याधिक सुख उत्पन्न करता है।
3 अद्वितीय मानव अनुभव
मानव व पशु में फर्क इतना है कि मानव सुख की अनुभूति व उसका प्रदर्शन जिस प्रकार से कर सकता है जानवर के लिये संभव नहीं है व पशु अधिकांश रूप से सुख के स्थान पर उत्तेजना की अनुभूति करते हैं।
4 स्वपीड़ासक्ति
स्वपीड़ासक्त वह लोग हैं जो पीड़ा से सुख की अनुभूति प्राप्त करते हैं। स्वपीड़ासक्ति का अस्तित्व उस सार्वभौमिक दृष्टी को पेचीदा बना कर नकार देता है जिसके तहत आनंद को एक सकारात्न्मक अनुभव माना जाता है, मूलतः पीड़ा के विरुद्ध यह एक नकारात्मक अनुभव है। स्वपीड़ासक्ति संदर्भ पर निर्भर है।
स्वपीड़ासक्त कुछ स्थितियों में कुछ प्रकार के दर्द का आनंद लेते हैं।
2 अलारा कलम ( बुद्ध के सन्यासी जीवन के गुरु)
और : ज्ञान की तलाश में सिद्धार्थ घर से निकल कर घूमते-घूमते अलारा कलम और उनसे उन्होंने योग-साधना सीखी।
3 उद्दाका रामापुत्त
उद्दाका रामापुत्त अलारा कलाम के साथी ही थे।
4 महाकश्यप
महाकश्यप मगध के ब्राह्मण थे, जो तथागत के नजदीकी शिष्य बन गए थे। इन्होंने प्रथम बौद्ध अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।
5 रानी खेमा
रानी खेमा सम्राट बिंबिसार की रानी थीं जो बहुत सुन्दर थीं। आगे चलकर खेमा बौद्ध धर्म की अच्छी शिक्षिका बनीं।
6 महाप्रजापति गौतमी
महाप्रजापति बुद्ध की माता महामाया की बहन थीं। इन दोनों ने राजा शुद्धोदन से विवाह किया था। गौतम बुद्ध के जन्म के सात दिन पश्चात महामाया की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात महाप्रजापति ने उनका अपने पुत्र जैसे पालन-पोषण किया। राजा शुद्धोदन की मृत्यु के बाद बौद्ध मठ में पहली महिला सदस्य के रूप में महाप्रजापिता को स्थान मिला था।
बुद्धकालीन भाषाएँ व लिपियाँ
लिपि ब्रह्मी भाषा पालि व प्राकृत
ब्रह्म लिपि (बम्भी, बम्भिये)
भारत की प्राचीन लिपि ब्राह्मी लिपि को सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप ने सन् 1833 ई. को पढने में सफलता हासिल की। इस लिपि की उत्पत्ति के विषय मे अनेक सिद्धान्त हैं जिनमे से दो मुख्य हैं :-
1 विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त
2 स्वदेशी उत्पति का सिद्धान्त
1 विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त
विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त के दो भाग हैं :-
A - यूनानी मूल से ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति हुई के सिद्धान्त के पोषक अल्फ्रेड म्यूलर हैं।
B - विलियम जोन्स के अनुसार ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति सेमेटिक लिपि से हुई ने भी तीन प्रकार के विचार हैं :-
(क) फिनीशीयान मूल
(ख) दक्षिण सेमेटिक मूल
(ग) उत्तर सेमेटिक मूल
2 स्वदेशी उत्पति का सिद्धान्त
ब्राह्मी लिपि के उद्भभव के स्वदेशी उत्पत्ति के सिद्धान्त को दो भागों में विभक्त किया जाता है:-
A दक्षिण मूल में उत्पत्ति
B आर्य मूल में उत्पत्ति
माना जाता था कि ब्राह्मी लिपि का विकास चौथी से तीसरी सदी ईसा पूर्व में मौर्यों ने किया था पर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के ताजा उत्खनन से पता चला है कि तमिलनाडु और श्रीलंका में यह छठी सदी ईसा पूर्व से ही विद्यमान थी।
देशी उत्पत्ति का सिद्धान्त
कई विद्वानों का मत है कि यह लिपि प्राचीन (सिन्धु लिपि) से निकली, अतः यह पूर्ववर्ती रूप में भारत में पहले से प्रयोग में थी व सिन्धु लिपि के प्रचलन से हट जाने के बाद प्राकृत भाषा लिखने के लिये ब्रह्मी लिपि प्रचलन मे आई।
ब्रह्मी लिपि में संस्कृत में कुछ ज्यादा नहीं लिखा गया। प्राकृत/पालि भाषा मे लिखे गये मौर्य सम्राट अशोक के बौद्ध उपदेश आज भी सुरक्षित हैं जिससे सिद्ध होता है कि ब्रह्म लिपि का विकास मौर्य काल में हुआ।
ब्रह्म लिपि बायें से दायें लिखी जाती थी जैसे देवनागरी व इससे निकली नवीन लिपियाँ। बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर (चीनी भाषा में अनुवाद 308 ईस्वी पूर्व) में 64 लिपियों के नाम हैं उनमें ब्रह्मलिपि का नाम भी मिलता है। इस लिपि का सबसे पुराना रूप सम्राट अशोक के शिलालेखों में ही मिला है।
सम्राट अशोक द्वारा लिखवाये गये ब्रह्म लिपि के शिलालेख :-
1 रुम्मिनदेई - स्तम्भलेख
2 गिरनार - शिलालेख
3 बराबर - गृहालेख
4 मानसेहरा - शिलालेख (खरोष्टि लिपि)
5 शाहबाजगढ़ - शिलालेख (खरोष्टि लिपि)
6 दिल्ली - स्तम्भलेख
7 गुजरर - लघु-शिलालेख
8 मस्को- शिलालेख
9 कान्धार (अफगानिस्तान) - द्विभाषी शिलालेख
जैन धर्म के पन्नवणा सूत्र और समवायांग सूत्र में 18 लिपियों के नाम हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है। जैन धर्म भगवतीसूत्र का आरंभ ही नमो बंभीए लिबिए (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है। जैन ग्रन्थ प्रज्ञापना सूत्र में लिखा है कि अर्धमागधी भाषा (पटना(पाटलिपुत्र) व मथुरा के आस-पास की भाषा जिस से हिंदी भाषा उत्पन्न हुई) की लिपि ब्राह्म लिपि ही है।
भारत मे अब तक की खोज के अनुसार सबसे प्राचीन लिपि सम्राट अशोक काल की लिपि है जो सिंधु पार प्रदेशों (अफगानिस्तान,गांधार) के अलावा लगभग एक रूप की मिलती है।
जिस लिपि में अशोक के लेख हैं वो प्राचीन आर्यो या ब्राह्मणों द्वारा निकाली हुई ब्राह्मी लिपि है। अतः कहा जा सकता है कि ब्राह्मी लिपि मध्य आर्यावर्त (भारत) की लिपि है जिससे क्रमशः उस लिपि का विकास हुआ जो आज की देवनागरी है। मगध के राजा आदित्यसेन के समय (सातवीं शताब्दी) के कुटिल मागधी अक्षरों में नागरी का वर्तमान रूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है। 9वीं व 10वीं शताब्दी में नागरी अपने पूर्ण रूप में आ गई।
भाषाविद पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने पुस्तक प्राचीन लिपिमाला में प्रयुक्त खाके के द्वारा स्पष्ट किया है कि किस प्रकार सम्राट अशोक के समय के अक्षरों से नागरी अक्षर क्रमशः रूपांतरित हो कर बने हैं।
2 विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त
पश्चिमी भाषाविदों के अनुसार मूल भारत के निवासियों को अक्षर लिखना विदेशी लोगों ने सिखाया।
ब्राह्मीलिपि की उत्पत्ति प्राचीन फिनीशियन लिपि से व्युत्पन्न हुई है जैसे अरबी,यूनानी,रोमन व अन्य लिपियाँ परन्तु पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा व अन्य कई भारतीय विद्वानों ने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि ब्राह्मी लिपि का विकास भारत में ही हुआ है।
ब्राह्मी लिपि की विशेषतायें :-
1 यह बाँये से दाँये लिखी जाती है।
2 मात्रात्मक लिपि है
(व्यंजनों पर मात्रा लगाकर शब्द,वाक्य निर्माण करती है)
3 कुछ व्यंजनों के संयुक्त होने पर उनके लिये 'संयुक्ताक्षर' का प्रयोग (जैसे प्र= प् + र,त्र, ज्ञ,श्र)
वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय लिपियों में है।
ब्राह्मी परिवार की लिपियाँ :-
ब्राह्मी लिपि से उद्गम हुई कुछ लिपियाँ और उनकी आकृति एवं ध्वनि में मामूली अंतर के साथ समानतायें स्पष्ट देखी जा सकती हैं जिनमे :-
1 देवनागरी
2 बांग्ला लिपि
3 उड़िया लिपि
4 गुजराती लिपि
5 गुरुमुखी
6 तमिल लिपि
7 मलयालम लिपि
8 सिंहल लिपि
9 कन्नड़ लिपि
10 तेलुगु लिपि
11 तिब्बती लिपि
11 रंजना
12 नेपाली लिपि
13 भुंजिमोल लिपि
14 कोरियाई लिपि
15 थाई लिपि
16 बर्मीयन लिपि
17 लाओ लिपि
18 ख़मेर लिपि
19 जापानी लिपि व
20 खुदाबादी लिपि।
विश्व में बौद्ध समुदाय
संपूर्ण विश्व में लगभग 2 अरब लोग बौद्ध हैं। इनमें से सर्वाधिक महायानी बौद्ध शेष थेरावादी, नवयानी (भारतीय) और वज्रयानी बौद्ध हैं। महायान और थेरवाद (हीनयान), नवयान, वज्रयान के अतिरिक्त बौद्ध धर्म में इनके अन्य कई उपसंप्रदाय या उपवर्ग भी हैं परन्तु इन का प्रभाव बहुत कम है।
सर्वाधिक बौद्ध पूर्वी एवं दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में निवास करते हैं। दक्षिण एशिया के दो देशों (श्रीलंका व थाईलैंड) में बौद्ध धर्म के लोग बहुसंख्यक हैं।
शेष विश्व मे लगभग हर देश मे कम-ज्यादा बौद्ध समुदाय के लोग रहते हैं।
बर्मा,भूटान,चीन,जापान, कोरिया, माले,ताईवान, फिजी सहित कई देश बोध बहुल हैं।
कम्बोडिया,भूटान,थाईलैण्ड, म्यानमार (बर्मा) व श्रीलंका राजधर्म (राष्ट्रधर्म ) बौद्ध धर्म है।
बौद्धसंघ
बौद्ध धर्म तीन अवयव (त्रिरत्न) से बना है
1 बुद्ध,
2 धम्म
3 संघ
बौद्ध संघ के चार अवयव
1 भिक्षु
2 भिक्षुणी
3 उपसका
4 उपसिका
संघ के नियम के बारे में गौतम बुद्ध ने कहा था कि छोटे नियम भिक्षुगण परिवर्तन कर सकते है। उन के महापरिनिर्वाण(मृत्यु) के बाद संघ के आकार में व्यापक वृद्धि हुई।
विभिन्न क्षेत्र,संस्कृति,सामाजिक अवस्था व दीक्षा के आधार पर भिन्न-भिन्न लोग बुद्ध धर्म से जुड़े और संघ के नियमों में धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा। बुद्ध ने अंगुत्तर निकाय के कालाम सुत्त में स्वयं के अनुभव के आधार पर धर्म की पालन करने की स्वतन्त्रता दी। अतः बौद्ध धम्म नियमों की लचिलता, परिमार्जन, परिवर्तन, स्थानीय सांस्कृतिक ,भाषाई पक्ष, व्यक्तिगत धर्म की स्वतन्त्रता, धर्म के निश्चित पक्ष में ज्यादा या कम जोड आदि कारण से बोध धर्म में कई परिमार्जन व परिवर्तन हुये।
वर्तमान में बौद्ध संघ में प्रमुख सम्प्रदाय या पंथ थेरवाद, महायान और वज्रयान है। भारत में बौद्ध धर्म का नवयान संप्रदाय है जो भीमराव आम्बेडकर द्वारा निर्मित है।
थेरवाद संघ
श्रावकयान,प्रत्येकबुद्धयान में थेरवाद बुद्ध के मौलिक उपदेश ही मानता है। श्रीलंका, थाईलैंड, म्यान्मार, कम्बोडिया, लाओस, बांग्लादेश, नेपाल आदी देशों में थेरवाद बौद्ध संघ का प्रभाव हैं।
महायान संघ
महायान बुद्ध की वास्तविक शिक्षाओं का पालन नही करता यह संघ बुद्ध के अलावा हजारों बोधिसत्व की पूजा करता है। बोधिसत्त्वयान, बोधिसत्त्वसुत्रयान,बोधिसत्त्वतन्त्रयान (वज्रयान)
महायान में बुद्ध की पूजा होती है।
चीन, जापान, उत्तर कोरिया, वियतनाम, दक्षिण कोरिया आदी देशों में प्रभाव हैं। बौद्ध धर्म का 70% महायान संघ है।
वज्रयान
वज्रयान को तिब्बती तांत्रिक धर्म भी कहां जाता हैं। यह भूटान का राष्ट्रधर्म है। भूटान, तिब्बत और मंगोलिया में इसका प्रभाव अधिक है।
नवयान (अम्बेडकर वाद)
भारतीय दलित चिंतक डॉ.भीमराव आम्बेडकर के सिद्धांतों का अनुसरण किया जाता है जिसमे उनकी 22 प्रतिज्ञाओं का स्मरण किया जाता है।
महायान, वज्रयान, थेरवाद से भिन्न सिद्धांत भारत में प्रभावी है।
बौद्ध दर्शन एवं सिद्धान्त
तथागत गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद बौद्ध धर्म के अलग-अलग संप्रदाय हो गये परन्तु सबके मूल सिद्धान्त लगभग समान ही हैं।
प्रतीत्यसमुत्पाद (कार्य कारण का नियम)
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है (घटना का कारण है) इसका अर्थ है कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र। क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्मं (बिना आत्मा के) होता है, कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है(जन्म मरण घटनायें है जिन से मुक्ति ही सुख है)।
हर घटना मूलतः शुन्य होती है। पर मानव जिनके पास ज्ञान की शक्ति है तृष्णा को जो दुःख का कारण है, त्यागकर तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर निर्वाण(मोक्ष) प्राप्त कर सकते हैं।तृष्णा शून्य जीवन केवल विपश्यना (तप) से ही संभव है।
आज के युग मे प्रतीत्यसमुत्पाद अधिक प्रभावी नहीँ है व लुप्त प्रायः है।
क्षणिकवाद
इस दुनिया में सब कुछ क्षणिक और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं।
परन्तु वैदिक मत से भिन्न है जो ब्रह्मा व ब्रह्मत्व को चिरस्थाई मानता है।
अनात्मवाद
इस सिद्धांत के अनुसार आत्मा का अर्थ 'मै' होता है। किन्तु, प्राणी शरीर और मन से बने है, जिसमे स्थायित्व नही है। क्षण-क्षण बदलाव होता है। इसलये मैं अर्थात आत्मा नाम की कोई स्थायी चीज़ नहीं होती है। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है।
आत्मा का स्थान मन ने लिया है।
अनीश्वरवाद
बुद्ध के अनुसार (ब्रह्म-जाल सूत्) सृष्टि व सृष्टि के अवयवों का निर्माण व संहार सतत क्रिया है।
बुद्ध ने सृष्टि का निर्माण कैसा हुआ यह भी बताया कि ईश्वर या महाब्रह्मा सृष्टि का निर्माण नहीं करते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद (कार्यकरण-भाव) के नियम पर चलती है।
गौतम बुद्ध के अनुसार मनुष्यों के दू:ख और सुख के लिए कर्म जिम्मेदार है, ईश्वर या महाब्रह्मा नहीं। परन्तु कई जगह बुद्ध ने सर्वोच्च सत्य को (गूढ़) अवर्णनीय कहा है।
शून्यतावाद
शून्यता महायान बौद्ध सम्प्रदाय का प्रधान दर्शन है।
यथार्थवाद
बौद्ध धर्म का मतलब निराशावाद नहीं है। दुख का मतलब निराशा नहीं है बल्कि सापेक्षवाद और यथार्थवाद है।
बोधिसत्व
दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है।
बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों
1 मुदिता
2 विमला
3 दीप्ति
4 अर्चिष्मती
5 सुदुर्जया
6 अभिमुखी
7 दूरंगमा
8 अचल
9 साधुमती
10 धम्म-मेघा
बोधिसत्व जब इन बलों को प्राप्त कर लेते हैं तब "बुद्ध" कहलाते हैं। बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों (भूमियों) को प्राप्त करे बौद्ध कहलाये।
बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत।
"मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)।
बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर न के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण (मोक्ष) पाने की कोशिश करते हैं।
बौद्धग्रन्थ त्रिपिटक (संस्कृत) तिपिटक (पालि)
त्रिपिटक (तिपिटक) (अर्थ -तीन टोकरी) बुद्ध धर्म का मुख्य ग्रन्थ है। यह पालिभाषा में लिखा गया है। यह ग्रन्थ बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात बुद्ध के द्वारा दिये गये उपदेशों का संकलन है।
इसके भाग हैं
1 त्रिपिटक ग्रन्थ को सूत्र (पालिसुत्त) के रूप में प्रस्तुत किया गया है
2 सूत्रों को वर्ग (वग्ग) में बांधा गया है।
3 वग्ग को निकाय (सुत्तपिटक) व खण्ड में समाहित किया गया है।
4 निकायों को पिटक में एकिकृत किया गया है। बुद्ध के सन्देशों के कुल तीन पिटक निर्मित हुये जिनको एक साथ कर त्रि-पिटक कहा जाता है।
बुद्ध की शिक्षाएँ (देशनायें)
भगवान् बुद्ध की मूल देशना (शिक्षा) क्या थी इसपर प्रचुर विवाद है। स्वयं बौद्धों में कालान्तर में नाना सम्प्रदायों का जन्म और विकास हुआ और वे सभी अपने को बुद्ध से अनुप्राणित मानते हैं।
अधिकांश आधुनिक विद्वान् पालि त्रिपिटक के अन्तर्गत विनयपिटक और सुत्तपिटक में संगृहीत सिद्धान्तों को मूल बुद्धदेशना मानते हैं। कुछ विद्वान् सर्वास्तिवाद अथवा महायान के सारांश को मूल देशना मानते हैं।
अन्य विद्वान मूल ग्रंथों के ऐतिहासिक विश्लेषण से प्रारंभिक और उत्तरकालीन सिद्धांतों में अधिकाधिक विवेचना कर बुद्ध की शिक्षाओं की खोज मेँ आज भी लीन हैं।
बुद्ध की शिक्षाओं (देशना) में शामिल हैं :-
1 चार आर्यसत्य
2 अष्टांगिक मार्ग
3 दस पारमिता
4 पंचशील
1 चार आर्य सत्य
तथागत बुद्ध का पहला धर्मोपदेश जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया इन चार आर्य सत्यों के बारे में था। बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताये हैं।
A दुःख
इस दुनिया में दुःख है। जन्म में,बुढापे में,बीमारी में,मौत में,प्रियतम से दूर होने में, नपसंद चीज़ों के साथ में, चाहत को न पाने में दुःख है।
B दुःख कारण
तृष्णा(चाहत) दुःख का कारण है और फ़िर से सशरीर कर के (जन्म -मरण का चक्र) संसार को जारी रखती है। तृष्णा समाप्त दुःख समाप्त और दुःख समाप्त जीवन चक्र समाप्त।
C दुःख निरोध (दुःख का समापन)
दुःख-निरोध के आठ साधन बताये गये हैं जिन्हें अष्टांगिक मार्ग कहा गया है। तृष्णा से मुक्ति प्राप्त करना ही मोक्ष है जो संभव है।
D दुःख निरोध का मार्ग
तृष्णा से मुक्ति अष्टांगिक मार्ग के अनुसार जीवन जी कर दुःख से मुक्ति पाई जा सकती है।
2 अष्टांगिक मार्ग
बौद्ध धर्म के अनुसार, चौथे आर्य सत्य का आर्य अष्टांग मार्ग है दुःख निरोध (मुक्ति) पाने का रस्ता। गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए :-
(अ) सम्यक् दृष्टि-
वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि है।
(ब) सम्यक् संकल्प-
तृष्णा,आसक्ति,द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना ही सम्यक् संकल्प है।
(स)सम्यक् वाक्-
सदा सत्य तथा मृदु वाणी का प्रयोग करना ही सम्यक् वाक् है।
(द) सम्यक् कर्मान्त-
इसका आशय अच्छे कर्मों में संलग्न होने तथा बुरे कर्मों के परित्याग से है।
(य) सम्यक् जीवन (आजीव)-
विशुद्ध रूप से सदाचरण से जीवन-यापन करना ही सम्यक् आजीव है।
(र) सम्यक् व्यायाम-
अकुशल धर्मों (कार्य) का त्याग तथा कुशल धर्मों का अनुसरण ही सम्यक् व्यायाम है।
(ल) सम्यक् स्मृति-
इसका आशय वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप के संबंध में सदैव जागरूक रहना है।
(व) सम्यक् समाधि -
चित्त की समुचित एकाग्रता ही सम्यक् समाधि है।
समाधि के तीन वय हैं
i प्रज्ञा
ii शील
iii समाधि
3 पंचशील
भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायिओं को पांच शीलों का पालन करने की शिक्षा दी है।
(क) अहिंसा
पालि में – पाणातिपाता वेरमनी सीक्खापदम् सम्मादीयामी का अर्थ है "मैं प्राणि-हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।"
(ख) अस्तेय
पालि में – आदिन्नादाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी का अर्थ है "मैं चोरी से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।"
(ग) अपरिग्रह
पालि में – कामेसूमीच्छाचारा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी का अर्थ है "मैं व्यभिचार से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।"
(घ) सत्य
पालि नें – मुसावादा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी का अर्थ है "मैं झूठ बोलने से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।"
(च) सभी नशा से विरत
पालि में – सुरामेरय मज्जपमादठटाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी का अर्थ है "मैं पक्की शराब (सुरा) कच्ची शराब (मेरय), नशीली चीजों (मज्जपमादठटाना) के सेवन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।"
बोधि
गौतम बुद्ध ने जिस ज्ञान की प्राप्ति की थी उसे 'बोधि' कहते हैं। माना जाता है कि बोधि पाने के बाद ही संसार से छुटकारा पाया जा सकता है। सारी पारमिताओं (पूर्णताओं) की निष्पत्ति, चार आर्य सत्यों की पूरी समझ और कर्म के निरोध से ही बोधि पाई जा सकती है।
बोधि प्राप्ति के बाद व्यक्ति बुद्ध बनता है जिसके लोभ, दोष, मोह, अविद्या, तृष्णा और आत्मां में विश्वास सब वहम समाप्त हो जाते हैं।
बोधि के तीन स्तर होते हैं :
1 श्रावकबोधि,
2 प्रत्येकबोधि और
3 सम्यकसंबोधि :- सम्यकसंबोधि बौध धर्म की सबसे उन्नत आदर्श मानी जाती है जो अंतिम सिद्धि है व बुद्ध ने प्राप्त की थी।
बौद्ध धर्म में अंतिम संस्कार
बोध धर्म में अंतिम संस्कार में शव को जलाते हैं पर भारत में मूल निवासी दफनाते हैं।
मृतक के मस्तक पर सिक्का लगाना,,गुलाल या नील लगाना वर्जित हैं व सबके सामने नहीं नहलाना,चस्मा लाठी पेन,पुस्तक व कपड़े याद दिलाने वाले स्मृति चिन्ह नहीं जलाना घर की आग बहर नहीं ले जाना,किसी को दान में नये कपड़े नहीं देना व नही मृतक के कपड़े जलाना ,कपड़े आदि किसी जरूरतमंद को दान करना, बाहरवीं-तेरहवीं नहीं करना, दस क्रिया नहीं करना , मुंडन नहीं करना, मृतक भोज नहीं करना, राख नदी में नहीं डाल कर एक गड्ढा खोदकर उस में गाड़ना (इस पर चाहें तो स्मृति चिन्ह के रूप में पेड़ लगाना) तीन दिन या पांच दिन बाद परित्राण पाठ कर पुण्यानुमोदन के अवसर पर शोक सभा का आयोजन करना।
विवाह
बौद्ध रीति-रिवाजों में कुंडली मिलान, कर्मकांड, फेरे व अन्य कार्यों के स्थान पर वर व वधू पक्ष की सहमति ली जाती है। इस पद्धति में तिलकोत्सव , ओली, तेल भराई, मंडप व कन्यादान आदि रस्में नहीं होती।
द्वारचार के बाद गौतम बुद्ध की प्रतिमा के सामने मोमबत्ती जताई जाती है।
मठ -
बुद्ध की पूजा करने का स्थान
विहार -
विपश्यना (तपस्या) करने का स्थान
आलय -
शिक्षा-दीक्षा का स्थान (नालन्दा, तक्षशिला)
बौद्ध धर्म ध्वज के रंग व उनका महत्व
ध्वज की छः ऊर्ध्वाधर पट्टी आभा के छह रंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो बुद्ध के शरीर से उत्पन्न हुए जब उन्होंने ज्ञान प्राप्ति की थी, ऐसा बौद्धों द्वारा मानना है।
1 नीला :-
प्यार, दया, शांति और सार्वभौमिक दया का प्रतीक है।
2 पीला :-
ध्वज के मध्य में - पथ खालीपन और चरम सीमाओं से परहेज है।
3 लाल :-
अभ्यास का आशीर्वाद - उपलब्धि, ज्ञान, सदाचार, भाग्य और गरिमा।
4 सफेद :-
धर्म की पवित्रता - मुक्ति के लिए अग्रणी, समय या स्थान के बाहर
5 केसरिया :-
बुद्ध की शिक्षा - ज्ञान
6 नीले रंग से मिलता हुआ रंग जो ऊर्ध्वाधर दण्ड ध्वज पर पांच रंग के आयताकार ध्वज की आभा के स्पेक्ट्रम में अन्य पांच रंगों में से एक यौगिक का प्रतिनिधित्व करता है। इस यौगिक रंग को (प्रकाश का सार) प्रभासार के रूप में जाना जाता है।
एक विवाद तथागत गौतम बुद्ध विष्णु जी के 23वें अवतार हैं या नहीं -
हम जानते हैं बौद्ध धर्म में अवतारवाद का कोई सिद्धांत नही है और ना ही बुद्ध को अवतार रूप में बौद्ध धर्म ने प्रचारित किया है।
सनातन साहित्य में बुद्ध को महात्मा बुद्ध/भगवान बुद्ध के नाम से विष्णु जी का 23 वा अवतार लिखा और प्रचारित किया गया है।
इस विवाद के निस्तारण हेतु
काम कोंची शक्ति पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती जी और विपश्यना आचार्य सत्यनारायण गोयनका जी के मध्य सारनाथ वाराणसी में महाबोधी सोसाइटी कार्यालय में दिनांक संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति—
12 नवंबर 1999 को एक समझौता हुआ और संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई।
दोनों इस बात से सहमत हैं और चाहते हैं कि दोनों प्राचीन परंपराओं में अत्यंत स्नेह पूर्वक वातावरण स्थापित रहे।
1) किसी भी कारण से पहले के समय में आपसी मतभेदों को लेकर जो भी साहित्य निर्माण हुआ, जिसमें भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार बता कर जो कुछ लिखा गया, वह पड़ोसी देश के बंधुओं को अप्रिय लगा, इसे हम समझते हैं। इसलिए दोनों समुदायों के पारस्परिक संबंधों को पुनः स्नेह पूर्वक बनाने के लिए हम निर्णय करते हैं। कि भूतकाल में जो हुआ, उसे भुला कर अब हमें इस प्रकार की किसी मान्यता को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। और आगे से भगवान बुद्ध को विष्णु जी के अवतार रूप में प्रचारित प्रसारित नहीं किया जायेगा।
2) पड़ोसी देशों में यह भ्रांति फैली कि भारत का सनातन समुदाय बुद्ध के अनुयायिओं पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इन कार्यशालाओं का आयोजन कर रहा है। यह बात उनके मन से हमेशा के लिए निकल जाय, इसलिए हम यह प्रज्ञापित करते हैं। वैदिक और बुद्ध - श्रमण की परंपरा भारत की अत्यंत प्राचीन मान्य परंपराओं में से हैं। दोनों का अपना-अपना गौरवपूर्ण स्वतंत्र अस्तित्व है। किसी एक परंपरा द्वारा अपने आपको ऊंचा और दूसरे को नीचा दिखाने का काम परस्पर द्वेष, वैमनस्य बढ़ाने का ही कारण बनता है। इसलिए भविष्य में कभी ऐसा न हो। दोनों परंपराओं को समान आदर एवं गौरव का भाव दिया जायेगा।
3) सत्कर्म के द्वारा कोई भी व्यक्ति समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त कर सकता है और दुष्कर्म के द्वारा नीचा,पतित, हीन स्थान को प्राप्त करता है। इसलिए हर व्यक्ति सत्कर्म करके तथा काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, मात्सर्य, अहंकार इत्यादि अशुभ दुर्गुणों को निकाल कर अपने आप को समाज में उच्च स्थान पर स्थापित करके सुख-शांति का अनुभव कर सकता है।
(श्री नन्दलाल बौद्ध निवासी रतननगर चुरू के बताए अनुसार)
चीन में बौद्ध धर्म -
हान चीनी बौद्ध धर्म
हान राजवंश के दौरान पहली बार चीन में प्रवेशित किया गया और तब से कई सम्राटों द्वारा प्रचारित किया गया। हान या चीनी बौद्ध धर्म महायान बौद्ध धर्म का एक चीनी रूप है जो चीनी बौद्ध सिद्धांत के साथ-साथ कई चीनी परंपराओं पर आधारित है। चीनी बौद्ध धर्म महायान सूत्रों और महायान ग्रंथों के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करता है और इन स्रोतों से अपने मुख्य सिद्धांत प्राप्त करता है। चीनी बौद्ध धर्म के कुछ सबसे महत्वपूर्ण शास्त्रों में - लोटस सूत्र, पुष्प अलंकरण सूत्र, विमलकीर्ति सूत्र, निर्वाण सूत्र और अमिताभ सूत्र। चीनी बौद्ध धर्म मुख्य भूमि चीन में सबसे बड़ा संस्थागत धर्म है। वर्तमान में, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना में अनुमानित 185 से 150 मिलियन चीनी बौद्ध हैं।
तिब्बती बौद्ध धर्म
तिब्बती बौद्ध धर्म बौद्ध धर्म के बाद के चरणों (जिसमें कई वज्रयान तत्व शामिल थे) से उत्पन्न महायान बौद्ध धर्म के रूप में विकसित हुआ। इस प्रकार यह गुप्तोत्तर प्रारंभिक मध्ययुगीन काल (500-1200 ई.) की कई नेपाली बौद्ध और भारतीय बौद्ध तांत्रिक प्रथाओं के साथ-साथ कई देशी तिब्बती विकास को संरक्षित करता है। पूर्व-आधुनिक युग में, तिब्बती बौद्ध धर्म मुख्य रूप से मंगोल युआन राजवंश (1271-1368) के प्रभाव के कारण तिब्बत के बाहर फैल गया, जिसकी स्थापना कुबलई खान ने की थी , जिन्होंने चीन, मंगोलिया और साइबेरिया के कुछ हिस्सों पर शासन किया। आधुनिक युग में, तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुयायी तिब्बती पठार के आसपास के क्षेत्रों के अलावा, इनर मंगोलिया और झिंजियांग के स्वायत्त क्षेत्रों में पाए जाते हैं ।
थेरवाद बौद्ध धर्म
थेरवाद बौद्ध धर्म बौद्ध धर्म का सबसे पुराना मौजूदा दर्शन है, जो मुख्य रूप से चीन के युन्नान क्षेत्र में, ताई भाषी दाई लोगों जैसे जातीय अल्पसंख्यकों में पाया जाता है । ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार, थेरवाद बौद्ध धर्म को 7वीं शताब्दी के मध्य में म्यांमार से युन्नान लाया गया था। सबसे पहले, शास्त्रीय ग्रंथों को केवल मौखिक रूप से प्रसारित किया जाता था। 11वीं शताब्दी के आसपास, बौद्ध सूत्रों को बर्मा के माध्यम से शिशुआंगबन्ना में पेश किया गया था । वर्तमान में, युन्नान में थेरवाद बौद्ध धर्म को चार शाखाओं में विभाजित किया जा सकता है: रन, बाओझुआंग, डुओली और ज़ुओझी।
बौद्ध धर्म के अन्य रूप
तिब्बती बौद्ध धर्म और चीनी बौद्ध धर्म में पाई जाने वाली वज्रयान धाराओं के अलावा, वज्रयान बौद्ध धर्म का चीन में कुछ अन्य रूपों में भी पालन किया जाता है। उदाहरण के लिए, अज़्हालीवाद एक वज्रयान बौद्ध धर्म है जिसका पालन बाई लोगों द्वारा किया जाता है। चीनी बौद्ध धर्म की वज्रयान धारा को तांगमी के रूप में जाना जाता है, क्योंकि यह चीन में तांग राजवंश (618-907) के दौरान शाही निर्णय द्वारा बौद्ध धर्म के महान दमन से ठीक पहले फली-फूली थी। परंपराओं के इस समूह का दूसरा नाम (हान चीनी संचरण ऑफ़ द एसोटेरिक ट्रेडिशन) जहाँ मिज़ोंग वज्रयान के लिए चीनी है। तांगमी, तंत्रवाद की व्यापक धार्मिक परंपरा निभाते हैं।
1980 के दशक से बौद्ध धर्म के समग्र पुनरुद्धार के साथ पुनरोद्धार से गुजरा है।
शमशेर भालू खान
जिगर चुरूवी
9587243963
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