शब्द शिया का अर्थ है -
टोली,गिरोह,टुकड़ी,साथी
शब्द राफजी का अर्थ है - वो लोग जो मोहम्मद साहब के साथियों (सहाबियों) और खुल्फा ए राशिदून (अबू बकर,उस्मान और उमर) के बारे में गलत विचार रखते हैं और उन्हें अली विरोधी मानकर बहिष्कृत करते हैं।
शिया मुस्लिम सम्प्रदाय है। सुन्नी सम्प्रदाय के बाद यह इस्लाम का दूसरा सबसे बड़ा सम्प्रदाय है जो पूरी मुस्लिम आबादी के 15% के लगभग है। ईस्वी सन 632 में हजरत मुहम्मद (स.) के देहांत के बाद जिन लोगों ने मोहम्मद साहब की वसीयतानुसार अपनी भावना से हज़रत अली को ख़लीफा (नेता) चुना वो लोग शियाने अली (अली की टोली वाले) कहलाये वही आज शिया मुस्लिम कहलाते हैं। बहुत से सुन्नी मुस्लिम इन्हें "शिया" या शियाने अली नहीं कहकर राफज़ी (अस्वीकृत लोग) के नाम से संबोधित करते हैं। शिया सम्प्रदाय के लोग प्रसिद्ध हदीस (हज़रत मोहम्मद के द्वारा कहे गये वाक्य) अकमलतू लकुम दिनुकुम (आज दीन पूरा हुआ) (दीन अर्थात सही रास्ता या धर्म ) के आधार पर उन लोगों को पथभ्रष्ट और अल्लाह का नाफरमान मानते हैं जो पैग़म्बर मुहम्मद के तुरंत बाद अली को खलीफा(धर्म प्रमुख) नहीं मानते।
शिया सम्प्रदाय मोहम्मद साहब व अली को एक ही मानते हैं। मोहम्मद - अली अरबी में लिखा गया शब्द के अनुसार विश्वास जताते हैं कि मुहम्मद और अली के लिए दिल में निष्ठा दिखाना आवश्यक है। इसको उलटा घुमा देने पर यह अली मुहम्मद बन जाता है। इस धार्मिक विचारधारा के अनुसार अली जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई और दामाद दोनों थे, मुहम्मद साहब की विरासत के एक मात्र हकदार थे और उन्हें ही पहला ख़लीफ़ा (धार्मिक, राजनैतिक प्रमुख) बनाया जाना चाहिये था पर ऐसा नहीं किया गया।
यहीं से इस विवाद की शुरुआत होती है।
अली को प्रथम खलीफा न मान कर तीन और लोगों के बाद ख़लीफ़ा ( धर्म प्रधान नेता) बनाया गया। अली और उनके बाद उनके वंशजों को इस्लाम का प्रमुख बनना चाहिए था, ऐसा मत रखने वाले शिया मुसलमान हैं। सुन्नी मुसलमान मानते हैं कि हज़रत अली सहित पहले चार खलीफ़ा (अबुबक्र, उमर, उस्मान तथा अली) सतपंथी (खलीफा ए राशिदुन) थे जबकि शिया मुसलमान पहले तीन खलीफ़ाओं को पूर्णतया अवैध मानते हैं।
शियाओं के अनुसार इस्लाम के प्रथम तीन खलीफा अवैध तरीके से चुने गये थे इसलिये खलीफा की गिनती अली से शुरू की गई और उन्हें प्रथम इमाम (धर्माधिकारी, नेता) स्वीकार किया गया।
शिया मुसलमान ख़लीफ़ा शब्द की जगह इमाम शब्द का प्रयोग करते हैं।
शिया और सुन्नी में महत्वपूर्ण अंतर यही है कि - सुन्नी मुस्लिम अली को (चौथा) ख़लीफ़ा भी मानते हैं और उनके पुत्र हुसैन को मरवाने वाले यज़ीद को कई जगहों पर पथभ्रष्ट मुस्लिम कहते हैं पर शिया प्रथम, द्वितीय व तृतीय ख़लीफ़ा को सीरे से नकारते हुये अली को प्रथम इमाम मानते हैं।
शिया समुदाय -
इरान, इराक़, बहरीन, सऊदी,अरब, कुवैत, पाकिस्तान, तुर्की, अफगानिस्तान, सीरिया, यमन, ओमान, बंग्लादेश, भारत और अज़रबैजान में अधिक पाये जाते हैं।
शिया मुस्लिम भी तीन भागों में विभक्त हैं:-
1 बारहवारी
2 इस्माइली
3 ज़ैदी।
शिया समुदाय मोहम्मद साहब की एक मशहूर हदीष(मोहम्मद साहब के द्वारा कहे गये शब्द) जो ग़दीर के खुम में हज अल विदा (632 मोहम्मद साहब का आखिरी हज) के समय अली को बुला कर कही गई थी। उन्होंने आदेश दिया कि जो आगे निकल गये उनको वापस बुलाओ जो पीछे रह गये उनको आने दो। इस तरह एक लाख से अधिक लोग एक स्थान पर एकत्रित हुये और वहाँ ऊंटों पर चढ़ कर अली का हाथ पकड़ कर कहा कि मनकुनतू मौला फ़ हाजा अली उन मौला (जिनका स्वामी मैं हूँ उनका स्वामी अली है।) इसके बाद मोहम्मद साहब ने कहा (हदीष) अकमलतु लकुम दिनुकुम अर्थात आज धर्म पूर्ण हो गया अर्थात धर्म पूरी तरह से समझा दिया गया।इसी समय एक व्यक्ति (सहाबी) (मोहम्मद साहब के साथ रहने वाले व्यक्ति) ने नबी से पूछा कि क्या यह अल्लाह का पैगाम है ?
नबी ने जवाब दिया हाँ, यह अल्लाह की आज्ञा है जो मुझसे कहते हैं कि अगर ये (अली के उत्तराधिकार की घोषणा) ना पहुंचाई गई तो जैसे मैने कोई पैग़म्बरी का कार्य ही नहीं किया। शिया विश्वास के अनुसार इस हदीष के अनुसार मोहम्मद साहब ने अली को अपना वारिस बनाया पर सुन्नी इस घटना को अली की प्रशंसा मात्र मानते हैं। सुन्नी मत के अनुसार इस हदीष में अली को ख़लीफ़ा नियुक्त करने का कोई जिक्र नहीं है। धीरे-धीरे दोनो पक्षों सुन्नी (अबु बक्र, उस्मान व उमर व शियाने अली) में मतभेद प्रारम्भ हुआ जो आगे चलकर अधिक गहरा होता गया।
हज के बाद मुहम्मद साहब बीमार रहने लगे। उन्होंने सभी बड़े सहाबियों (साथियों) को बुला कर नविश्ता (दस्तावेज) के लिये कलम व दवात मांगी और कहा मैं कुछ लिख दूँ कि तुम आपस में झगड़ो नहीं न ही भटको। द्वितीय ख़लीफ़ा उमर (खिताब के पुत्र) ने हालते हिजयान (बीमारी की हालत में बहकना ) कह कर बात को टाल दिया।
शिया इतिहासकारों के अनुसार नबी की मृत्यु के बाद अली एवं अन्य कुटुम्बी बनी हाशिम उनकी अंत्येष्टि का प्रबंध कर रहे थे पर उमर, अबूबक्र और उनके अन्य साथी सकिफा (एक जगह का नाम) में सभा कर आगामी योजना बना रहे थे। अली कुछ सहाबी व बनू हासीम नबी के मदफ़न (कब्र में उतारने की क्रिया) कर रहे थे उस समय अबुबक्र मदीना में जाकर ख़लीफ़ा के चयन के लिये विचार-विमर्श कर रहे थे। मदीना के कई कबीले (मुख्यत: बनी ओमैया, बनी असद) अबु बकर को खलीफा बनाने पर सहमत हो गये। शिया मान्यताओं के अनुसार मोहम्मद साहब व अली के कबीले वाले यानि बनी हाशिम अली को ही खलीफा बनाना चाहते थे। पर इस्लाम संपूर्ण अरबी प्रायद्वीप में विस्तृत विशाल इस्लामिक साम्राज्य में नबी के वारिस के लिये मुसलमानों में एकजुटता के स्थान पर फूट नज़र आ रही थी। अली जो मोहम्मद साहब के चचेरे भाई और फ़ातिमा के पति ही एक मात्र असली वारिस थे। परन्तु अबुबक्र, सुरा के फैसले के अनुसार (सुरा - धर्माधिकारी परिषद) पहले खलीफा बने।
अबुबक्र की मौत के बाद उमर को ख़लीफ़ा बना दिया गया। इससे अली के समर्थकों में रोष व्याप्त हुआ पर अली मुसलमानों की एकता व भलाई के लिये चुप ही रहे। यहाँ इस बात को गौर से देखा जाना चाहिये कि उमर के पुत्र अब्दुल्लाह ने अपने बाप की बजाय अली को ही पैग़म्बर का वारिस माना और अबुबक्र के बेटे मुहम्मद भी अपने दादा यानी कहाफ़ा (अबूबक्र के पिता) की तरह अली के साथ थे। इसके बाद उमर के बाद तीसरे खलीफ़ा उस्मान बने। उस्मान ने नबी के समय के बद्र की लड़ाई और कई अन्य कई युद्धों पर घायल,अनाथ व बेवाओं की मदद के लिये दी जाने वाली राशि (वज़ीफ़े, इमदाद) बन्द कर दिया और सरकारी खजाने (बैतूल माल) से अपनी इच्छा अनुसार अत्यधिक खर्च करना शुरू कर दिया साथ ही बड़े पदों पर स्वयं के निकट संबंधियों को गवर्नर नियुक्त कर दिया (माविया भी इनके निकट संबन्धी थे जिन्हें सीरिया का गवर्नर बनाया गया)। (माविया/मआविया मोहम्मद साहब की पत्नी उम्मे हबीबी के सौतेले भाई थे व अबु सुफियान के बेटे थे) (अबु सुफियान खन्दक की लड़ाई में इस्लामी सेना से हार गये थे)। इन हालात में उस्मान ग़नी के खिलाफ बग़ावत शुरू हो गई उन्हें नासिल अल गया (गबन करने वाला) घोषित कर जंग छेड़ दी गई। उस्मान ने बगावत को दबाने के बहुत प्रयत्न किये लेकिन मिस्र तथा इराक़ व अन्य स्थानों से आकर बागियों ने मदीना में आकर उस्मान के घर (दारुल अमरा अर्थात ख़लीफ़ा का घर) को घेर लिया जो 40 दिन तक चला। उस्मान ने अली से सुरक्षा की गुहार लगाई तो अली, हसन व हुसैन ने उनके घर के आगे खड़े हो कर दारूल अमरा की रक्षा की व रसद भी पहुंचाई। विद्रोही अली व उसके पुत्रों से उलझने की बजाय पीछे से उस्मान के घर में घुस गये और सर में बार - बार वार कर के 79 साल की उम्र में उस्मान को शहीद कर दिया। उस्मान (अफ्फान के बेटे) की पत्नी जो बचाव कर रही थीं भी घायल हो गईं। अब फिर से ख़लीफा का पद खाली था और इस्लामी साम्राज्य बड़ा हो रहा था। मुसलमानों को हज़रत अली के अलावा कोई न दिखाई दे रहा था पर अली खलीफ़ा बनने को तैयार नहीं थे। जब लम्बे समय तक सुरा के लोग खलीफा के पद को न भर सके तो अन्त में अली को विवश किया गया। अली ने एक शर्त पर ख़लीफ़ा का पद स्वीकार किया कि मेरे खिलाफत में इलाही निजाम (ईश्वर का शासन) चलेगा। यह शर्त मानकर उन्हें चौथे खलीफ़ा के रूप में नियुक्त कर दिया गया। अली अपने इन्साफ़, ताक़त व हिकमत के लिये प्रसिद्ध थे से खलीफा बनने पर पूर्व खलीफा उस्मान के कातिलों का बदला लेने और विद्रोहियों को सजा देने की मांग जोर पकड़ने लगी। तत्कालीन हालात देख कर अली ने उस समय कोई कदम उठाना मुनासिब नहीं समझा। उस्मान के समर्थकों को यह रास नहीं आया और उन्होंने उस्मान के कातिलों को सजा दिलवाने के लिये फौज़ इक्कठी करनी शुरू कर दी। वास्तव में यह फौज शाम (शीरिया) के शासक (गवर्नर) उस्मान के रिश्तेदार माविया के भड़काने पर एकत्र हुई थी। असल में उस्मान के बाद माविया खलीफा बनना चाहता था पर मुसलमानों का बहुमत व सुरा उसके विपक्ष और अली के पक्ष में थी। अली ने सबको समझाया कि उस्मान के कतिलों को सजा जरुर मिलेगी पर सही हालात होने के बाद। माविया व उसकी फ़ौज़ के असली मकसद का पता अली को चला गया जो बिना उनकी (ख़लीफ़ा) की आज्ञा के अवैध रूप से विद्रोह के लिये और अली को पद से हटाने के लिए एकत्र हुई और आगे बढ़ रही थी को मदीने से पहले ही रोक दिया गया। यहीं पर जमल (ऊंटों की लड़ाई) नामक जंग हुई जिसमें माविया व विद्रोही बुरी तरह से हारे। मुआविया (माविया) सीरिया की तरफ वापस भाग गया। पैग़म्बर की पत्नी आयशा को अली ने अपनी रक्षा में ले लिया ! कुछ समय बाद सीरिया के सूबेदार मुआविया ने फिर अली का विरोध किया व सिफ्फीन में जंग हुई जिसमें अली की जीत हुई। इस जंग के दौरान ख़्वारेज नामक फ़ितने (सम्प्रदाय) का जन्म हुआ। लड़ाई जीतने के बावजूद विद्रोह की वजह से अली को काफी दुःख हुआ और वह कूफ़ा (इराक की एक जगह का नाम) चले गये।
मुआविया बार बार अली से उलझता रहा और उनके शासित प्रदेशों में लूट मार करता रहा। सन् 661 में कूफ़ा में एक मस्जिद में अली को ज़हर लगी तलवार से धोके से एक ख़ारजी द्वारा (अरब से अलग क्षेत्र के लोगों का गिरोह जो पहले अली के साथ थे पर बाद में किसी अनबन के कारण अलग हो गये) शहीद कर दिया।
इसके बाद मुआविया ने खुद को ख़लीफ़ा घोषित कर दिया। जबकि मदीने के लोग और अली के समर्थकों ने अली के ज्येष्ठ पुत्र हसन के हाथ पर बैयत की (नेता चुना) और उन्हें खलीफा बनाया। यहां सैद्धांतिक रूप से मुहम्मद साहब के रिश्तेदारों के समर्थकों ने उनके पुत्र हसन के प्रति निष्ठा दिखाई, लेकिन कुछ उनका साथ छोड़ कर माविया की तरफ हो गये। हसन ने जंग की बजाय मुआविया के साथ सन्धि की। असल में अली के समय में सिफ्फीन की लड़ाई के पश्चात माविया ने खुद को बिना किसी सूरा के निर्णय के (अवैधानिक रूप से) खलीफा घोषित कर दमिश्क को अपनी राजधानी बना लिया और एक बड़ी सेना तैयार करने में लग गया। माविया ने हसन के सामने प्रस्ताव रखा या तो युद्ध या फिर अधीनता। हसन ने अधीनता तो स्वीकार नहीं की परन्तु वो आमजन का खून भी नहीं बहाना चाहते थे इस कारण वो युद्ध से दूर रहे और मुआविया भी किसी भी तरह सत्ता चाहता था तो इमाम हसन से सन्धि करने पर मजबूर हो गया व हुदैबिया की सन्धि की गई। हसन से सीधे उलझना या उनका खून बहाना कितना मंहगा साबित हो सकता है ये मुआविया भांप गया था।
असल में हसन इमाम का पद अपने पिता के पश्चात पहले ही पा चुके थे और इस पद के अंतर्गत वो धार्मिक कार्यों के सर्वोच्च अधिकारी थे, जिसे किसी तरह जंग से बदला नही जा सकता था बल्कि शास्त्रार्थ (हदीस, शरीयत , क़ुरआन एवं परमेश्वर के विधान की सम्पूर्ण व्याख्या ) के माध्यम से ही पाया जा सकता था। मुआविया धर्म और विधि का इतना ज्ञानी नहीं था कि वो शास्त्रार्थ करके इमाम हसन को हरा सके, वहीं इमाम हसन पैग़म्बर की एकमात्र पुत्री फातिमा के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते आले रसूलल्लाह (पैग़म्बर के वारिस) कहलाए।
मुआविया का मकसद केवल अपने पिता अबूसूफियान की बद्र व खंदक और अन्य कई जंगों की हार का बदला मुहम्मद और अली के वंशजों से लेना मात्र था। इमाम हसन ने अपनी शर्तो पर उसको सिर्फ सत्ता सौंपी जो इस प्रकार से थीं -
1 वो सिर्फ सत्ता के कामों तक सीमित रहेगा व धर्म में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा।
2 वह अपने जीवन काल तक ही सत्ता में रहेगा मरने से पहले किसी को उत्तराधिकारी न बना सकेगा।
3 वह सिर्फ इस्लाम के कानूनों का पालन करेगा।
इस सुलहनामे के हुदैबिया नामक स्थान पर होने के कारण हुदैबिया की संधि के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार की शर्तो के द्वारा मुआविया नाम मात्र का शासक रह गया। वो इस्लामी मुल्कों से भारी मात्रा में टैक्स वसूलकर उसे मनमाने तरीके से खर्च करता रहा। इस्लामी शिक्षा का केंद्र हसन और उनके बाद उनके भाई हुसैन और बाद के वंशजों के ही पास बना रहा। इसी कारण सूफी विचारधारा पूर्णरूप से अहले अल बैअत (अर्थात अल्लाह , मुहम्मद और इसके पश्चात अली और उनके वंशज) को ही मानती है। और उनकी विचारधारा में अन्य किसी विचारधारा का कोई स्थान नहीं है। मुआविया के वंश का शासन 750 इस्वी तक रहा और उन्हें उमय्यद कहा जाता है।
12 इमाम:-
शिया मुसलमानों की सभी तहरीक हजरत मुहम्मद साहब के बाद अली के छोटे पुत्र व उनके 11 पुत्रों को सिलसिलेवार सन्तानों को इस्लाम का उत्तराधिकारी मानते हैं।
यह हैं -
1 इमाम अली इब्ने तालिब
2 इमाम हसन (इमाम अली बाद 47 साल की आयु में इमामत सम्भाली जो केवल ख़लीफ़ा 6 माह तक ही रहे। जिसके पाश्चात आपने माविया से हुदैबिया की सन्धि के कारण राजनैतिक शासन से त्याग पत्र दे दिया मगर अपने अनुयाइयों का मार्ग दर्शन इमाम के सम्मानित पद के अन्तर्गत करते रहे जो आपके पास इमाम अली के पश्चात आया था। शिया इतिहासकारों के अनुसार हसन को माविया ने साजिश करके (हसन को उनकी पत्नी द्वारा ज़हर दे कर मार दिया गया।) शहीद कर दिया।
3. हुसैन के बड़े भाई व इमाम हसन की वसीयत के अनुसार इमाम हुसैन ने भाई की मृत्यु के बाद इमाम का पद सम्भाला व यज़ीद बिन माविया इब्ने अबूसुफ़यान के साथ कर्बला की जंग लड़ी। माविया ने हुदेबिया की सन्धि को तोड़ कर अपने पुत्र यज़ीद को ख़लीफ़ा बनाया तो हुसैन ने इसका विरोध किया और यज़ीद को ख़लीफ़ा मानने व उसका समर्थन करने से स्पष्ट रूप से मना कर दिया। यजीद ने अहले अल बैअत एवं मित्रों सहित, कुल 72 लोगों को 30 हज़ार या अधिक यजीदी फौज द्वारा घेर कर शहीद कर दिया गया। उनके लिये पीने का पानी 3 दिन पहले से ही बन्द कर दिया गया था। यौमे अशूरा (40 दिन का शोक) जिलहिज़्ज़ की 1 तारीख से मोहर्रम की 10 तारीख तक इन्हीं की याद में हर साल धर्म सभायें एवं शोक सभा इत्यादि का अयोजन कर ताजियादारी करते हैं दुःख प्रकट करते हुए मनाया जाता हैं। इन चालीस दिन अल्म्सद्दा के माध्यम से रंज व गम का इज़हार किया जाता है। सभी शिया काले कपड़े पहनते हैं।
इसके बाद शिया सम्प्रदाय के इमामो के नाम क्रमवार निम्न लिखित हैं -
4 इमाम - हजरत अली इब्ने हुसैन (अल जैनुल आबेदीन्, अल्- सज्जाद)
5 इमाम - हजरत मोहम्मद इब्ने अली (अल्- बाकिर)
6 इमाम - हजरत जाफर इब्ने मोहम्मद (अल्-सादिक)
7 इमाम - हजरत मूसा इब्ने जाफर (अल्-काजिम)
8 इमाम - हजरत अली इब्ने मुसा (अल्-रजा, अल्-जामिन ओ सामिन्)
9 इमाम - हजरत् मोहम्मद इब्ने अली (अल्-तकी)
10 इमाम - हजरत अली इब्ने मोहम्मद (अल्-नकी)
11 इमाम - हजरत हसन इब्ने अली (अल्-अस्करी)
12 इमाम - हजरत मोहम्मद इब्ने हसन (अल्-महदी, अल्-कायम, इमाम ए वक्त्, अल्-हुज्जत्) (अन्तिम एवम जीवित इमाम)
3 शिया उपसंप्रदाय :-
1 बारहवारी:-
शिया सम्प्रदाय के इस उप सम्प्रदाय के अनुयायी 12वें इमाम को जीवित एवम वर्तमान समय के इमाम मानते हैं। इस विश्वास के अनुसार ये अल्लाह की आज्ञा से अन्तर्धयान हैं और एक निश्चित समय पर प्रकट होंगे।
2 ज़ैदी या ज़ैदिय्या :-
शिया सम्प्रदाय का उप संप्रदाय जो यमन, ईराक, ईरान, भारत, पाकिस्तान में रहते हैं।
ये सम्प्रदाय चौथे इमाम जै़नुल आबेदीन के पुत्र ज़ैद की औलाद में से हैं।
3 इस्माइली :-
इस्माइली शिया उप सम्प्रदाय 12 इमामों के स्थान पर केवल सात इमामों को मानते हैं।इनके अंतिम इमाम मोहम्मद बिन इस्माइल हैं जिसकी वजह से उन्हें इस्माइली शिया मुस्लिम कहा जाता है।
इस्ना अशरी शिया समुदाय से इनका विवाद इस बात पर हुआ कि इमाम जाफ़र सादिक़ के बाद उनके बड़े बेटे इस्माइल बिन जाफ़र इमाम होंगे या फिर दूसरे बेटे इमाम होंगे।
बोहरा -
यह शिया सम्प्रदाय का उप संप्रदाय है।
भारत में शिया :-
सल्तनत काल में शिया ईरान, इराक़ व तुर्की से भारत में आये।
शिया मुख्यत ईराक के वास्त शहर से सल्तनत काल के दौरान भारत आये थे।
कुछ ज़ैदी शिया ईरान से मेरठ, मुजफ्फरनगर आए और वहा से फिर बाराबंकी आये। इसी काफिले के कुछ लोग सेथल भी गए, सेथल में भी ज़ैदी शिया समाज पाया जाता है। मेरठ से जो काफिला बाराबंकी तक आया वो एक जगह रुक जाता है जिसे सैय्यद वाडा बोला जाता है, आज ये सैय्यद वाडा नाम की जगह है जहां पर ज़ैदी शिया समुदाय के लोग आबादी बसा के रहने लगे जिससे ज़ैदी शिया की आबादी बढ़ती गई धीरे धीरे 52 गांव बस गए जो सैय्यद वाडा में पाए जाते हैं। जिसमे आलमपुर (सैय्यद आलम द्वारा बसाया गया), मुस्तफाबाद और मोतिकपुर (सैय्यद अलीमुद्दीन द्वारा बसाया गया) देवरा, असंद्रा (सैय्यद फूल द्वारा बसाया गया) उक्त पूर्वजों की कब्रें भी सही सलामत हैं जहां आज भी इनकी आल औलाद जुमेरात के दिन फतेहा पढ़ने जाती है। इसी तरह ऐसे और भी बड़े आबादी वाले शिया समुदाय के गांव सैय्यद वाडा बाराबंकी में पाए जाते हैं। जिनकी तादाद बाराबंकी में बढ़ती जा रही है।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, कश्मीर, आसाम, बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, कर्नाटक सहित कई राज्यों में कम-ज्यादा इनकी आबादी पाई जाती है। रियासत काल में रामपुर व लखनऊ, बहमनी रियासत (दक्षिण भारत गोलकुंडा आदि सहित कई रियासत शिया सम्प्रदाय की हुआ करती थीं। इसके अलावा भारत मे शिया मुख्यतः उत्तरप्रदेश के मुजफरपुर जिले के आस पास सादात ए बाहरा के गांवों, हैदराबाद, जयपुर, उदयपुर, माउंट आबू (सिरोही) में अधिक संख्या में पाये जाते हैं।
अरबी में मोहम्मद अली लिखा हुआ जिसे उल्टा घुमाने पर अली मोहम्मद बन जाता है।
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