Thursday, 10 July 2025

✅अधार्मिकता (नास्तिकता)

अधार्मिकता (नास्तिकता)
अनैतिकता अर्थ एवं परिभाषा - 
अधार्मिकता को अंग्रेज़ी भाषा में irreligion, अरबी भाषा में कुफ्र कहते हैं। भारत में इसे नास्तिकता, अनीश्वरवाद और अज्ञेयवाद के नाम से जाना जाता है। 
श्रमण परम्परा (प्रमुख रूप से बौद्ध धर्म और जैन धर्म) के रूप में अधार्मिकता उभर कर आई। भारतीय धर्म जैसे जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सनातन धर्म के कुछ वर्ग नास्तिकता को स्वीकार्य मानते हैं। चार्वाक दर्शन मुखर रूप से धार्मिकता का विरोध और नास्तिकता का समर्थन करता है। भारत भूमि पर कई नास्तिक दार्शनिक, समाज सुधारक और समाज-सेवक पैदा हुए हैं।
शब्द नास्तिक का अर्थ है किसी भी प्रकार की दैवीय शक्ति ने विश्वाश नहीं रखना। अरबी भाषा के शब्द कुफ्र का अर्थ है ईश्वर (अल्लाह) के अस्तित्व को नकारना, उसे मानने से इनकार करना।
इस प्रकार से नास्तिक किसी भी धर्म के पूज्य ईश्वर,भगवान,अल्लाह अथवा गॉड में विश्वास नहीं करता।

नास्तिकता का इतिहास - 
मनुष्य जब अस्तित्व में आया तब ईश्वर नाम की किसी शक्ति का प्रचलन नहीं था। लगभग चालीस हजार वर्ष पूर्व आदि मानव ने आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाए। इसके साथ ही संप्रभुता एवं शासन की आवश्यकता हुई। श्रेष्ठ और शक्तिशाली व्यक्ति शेष सभी की गतिविधियों का संचालन करने लगा। 
धीरे - धीरे यह व्यवस्था राजशाही में बदलने लगी। जनता राजा को अन्नदाता भगवान या ईश्वर समझने लगी। लेखन की शुरुआत हुई। सैकड़ों/हजारों वर्ष पूर्व के शक्तिशाली राजाओं की कथाएं लिखी जाने लगीं। आगामी पीढ़ी ने उन्हें शक्तिशाली राजा के स्थान पर अलौकिक शक्ति मानना प्रारंभ कर दिया। अब नए शब्द पनपने लगे जिनमें भगवान, ईश्वर, अल्लाह, गॉड, परमपिता, परमात्मा, परमेश्वर,देवता, फरिश्ते, यम, राक्षस, देव, जिन्न, भुत, देवी (स्थान, राजा की प्रकृति एवं जनता के विश्वास के अनुसार) नाम दिए गए
स्थानीय शासक ने ईश्वर या उसके प्रतिनिधि के रूप स्वयं को प्रचारित किया। अब नया शब्द गढ़ लिया गया "नैतिकता"।
इसी आधार पर नेता की उत्पति हुई। कालांतर में यही नेता स्थानीय लोक देवता के रूप में पूजे जाने लगे।
आगे चलकर राजा ने राज व्यवस्था एवं सैनिक शक्ति के दम पर स्वयं को पूज्य घोषित कर दिया। जिस किसी ने राजा का विरोध किया उसे समाप्त कर दिया गया। स्थान विशेष का राजा दूसरे राज्यों में भी पूजा जाने लगा, और धर्म (विश्वास) का क्षेत्र बढ़ता गया। 
इसलिए कहा जा सकता है कि - 
"मानव नास्तिक पैदा हुआ, राज व्यवस्था एवं सामाजिक बंधनों ने धर्म की उत्पति की।"

धर्म की स्थापना - 
सब से पहले नास्तिकता का जन्म हुआ क्योंकि मानव किसी दैवीय शक्ति से परिचित नहीं था। इसके पश्चात पशुओं की पूजा शुरू हुई। पशुओं की पूजा के समानांतर प्रकृति एवं प्राकृतिक घटनाओं की पूजा प्रारंभ हुई जिसमें मादी, पहाड़, नाले, पेड़, गृह, वर्षा, अमावस्या, 

सनातन पंथ में 
इंद्र (वर्षा के देवता - 
प्राचीन भारत में नास्तिकता - 
सनातन धर्म में, अधिकांश भारतीयों के धर्म, नास्तिकता को आध्यात्मिकता के लिए एक वैध मार्ग माना जाता है, इसके समर्थन में यह तर्क दिया जा सकता है कि भगवान कई रूपों में "कोई रूप" नहीं होने के साथ प्रकट हो सकते हैं। धर्म/पंथ का पालन करना सरल नहीं है। एक व्यक्तिगत निर्माता ईश्वर में विश्वास जैन धर्म और बौद्ध धर्म में आवश्यक नहीं है, जिनमें से दोनों भारतीय उपमहाद्वीप में भी पैदा हुए हैं। नास्तिकता सनातन धर्म में भी मिलती है।
सनातन धर्म में नास्तिकता - 
सनातन स्कूलों को दो दर्शन में बांटा गया है।
1. आस्तिक (आस्थावान, रूढ़िवादी)
2. नास्तिक (अनास्थावान, आधुनिक)
इन स्कूलों को आस्तिका (रूढ़िवादी) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। 
वेदों और नास्तिका (हेटरोडॉक्स) के अनुरूप स्कूल, वेदों को अस्वीकार करते हैं। 
संतान दर्शन के छः स्कूल 
1. साख्य
2. योग
3. न्याय
4. वैश्यिका
5. मिमास
6. वेदांत 
को आस्तिका (रूढ़िवादी) माना जाता है। जैन धर्म, बौद्ध धर्म, 
1. कारवाका और 
2. अंजीविक 
को नास्तिका (हेटरोडॉक्स) माना जाता है।

महर्षि चार्वाक एवं उनका दर्शन
नास्तिक दर्शन (स्कूल) के रूप में चार्वाक दर्शन 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में प्रचलित हुआ। यह प्राचीन भारत में भौतिकवादी आंदोलन के सबूत के रूप में उल्लेखनीय है। इस विद्यालय के अनुयायियों ने केवल वैध प्राणाण (सबूत) के रूप में प्रतिज्ञा (धारणा) को स्वीकार किया। 
चार्वाक ने अन्य प्रमोना जैसे 
1. शब्द (गवाही)
2. उपमाणा (समानता)
3. अनुमाणा (अनुमान)
को अविश्वसनीय माना। चार्वाक आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को खारिज करते हैं। क्योंकि वे धारणा से साबित नहीं हो सका। उन्होंने सब कुछ चार तत्वों से बना माना: पृथ्वी, पानी, वायु और आग। कारवाका ने शारीरिक दर्द और जीवन के आनंद को समाप्त करने का पीछा किया। इसलिए, उन्हें हेडोनिस्टिक माना जा सकता है। सभी मूल कारवाका ग्रंथों को खो दिया जाता है। [14] ब्रुस्पाती द्वारा एक बहुत उद्धृत सूत्रा (बरस्पस्पति सूत्र), जिसे स्कूल के संस्थापक माना जाता है, को खो दिया जाता है। जयराशी भाड़ा (8 वीं शताब्दी सीई) द्वारा तत्त्वोप्लास्सिम्हा और माधवक्रिया (14 वीं शताब्दी) द्वारा सर्वदर्शनसाग्रा को प्राथमिक द्वितीयक कारवाका ग्रंथ माना जाता
धर्म एवं अधर्म है जिससे स्वर्ग की सिद्धि होती है तो यह चार्वाक को स्वीकार्य नहीं है। अलौकिक अदृष्ट का खण्डन करते हुए चार्वाक स्वर्ग आदि परलोक के साधन में अदृष्ट की भूमिका को निरस्त करता है तथा इस प्रकार आस्तिक दर्शन के मूल पर ही कुठाराघात कर देता है। यही कारण है कि अदृष्ट के आधार पर सिद्ध होने वाले स्वर्ग आदि परलोक के निरसन के साथ ही इस अदृष्ट के नियामक या व्यवस्थापक के रूप में ईश्वर का भी निरास चार्वाक मत में अनायास ही हो जाता है।

जीव एवं चैतन्य की अवधारणा
चार्वाक मत में कोई जीव शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर ही जीव या आत्मा है। फलत: शरीर का विनाश जब मृत्यु के उपरान्त दाह संस्कार होने के बाद हो जाता है तब जीव या जीवात्मा भी विनष्ट हो जाता है। शरीर में जो चार या पाँच महाभूतों का समवधान है, यह समवधान ही चैतन्य का कारण है। यह जीव मृत्यु के अनन्तर परलोक जाता है यह मान्यता भी, शरीर को ही चेतन या आत्मा स्वीकार करने से निराधार ही सिद्ध होती है। शास्त्रों में परिभाषित मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ भी चार्वाक नहीं स्वीकार करता है। चेतन शरीर का नाश ही इस मत में मोक्ष है। धर्म एवं अधर्म के न होने से चार्वाक सिद्धान्त में धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप को, कोई अदृश्य स्वर्ग एवं नरक आदि फल भी नहीं है यह अनायास ही सिद्ध हो जाता है।

शरीरात्मवाद में स्मरण का उपपादन
चार्वाक मत में शरीर को ही आत्मा मान लेने पर बाल्यावस्था में अनुभूत कन्दुक क्रीडा आदि का वृद्धावस्था या युवावस्था में स्मरण कैसे होता है? यह एक ज्वलन्त प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि बाल्यावस्था का शरीर, वृद्धावस्था का शरीर एवं युवावस्था का शरीर एक ही है। यदि तीनों अवस्थाओं का शरीर एक ही होता तो इन तीनों अवस्थाओं के शरीरों में इतना बड़ा अन्तर नहीं होता। अन्तर से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि शरीर के अवयव जो मांस पिण्ड आदि हैं इनमें वृद्धि एवं ह्रास होता है। तथा इन ह्रास एवं वृद्धि के कारण ही बाल्यावस्था के शरीर का नाश एवं युवावस्था के शरीर की उत्पत्ति होती है यह भी सिद्ध होता है। यदि यह कहें कि युवावस्था के शरीर में यह वही शरीर है, यह व्यवहार होने के कारण शरीर को एक मान कर उपर्युक्त स्मरण को उत्पन्न किया जा सकता है, तो यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि यह वही शरीर है यह प्रत्यभिज्ञान तो स्वरूप एवं आकृति की समानता के कारण होता है। फलत: दोनों अवस्थाओं के शरीरों को अभिन्न नहीं माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में पूर्व दर्शित बाल्य-काल के स्मरण को सम्पन्न करने के लिए चार्वाक बाल्यकाल के शरीर में उत्पन्न क्रीड़ा से जन्य संस्कार दूसरे युवा-काल के शरीर में अपने जैसे ही नये संस्कार पैदा कर देते हैं। इसी प्रकार युवावस्था के शरीर में विद्यमान संस्कार वृद्धावस्था के शरीर में अपने जैसे संस्कार उत्पन्न कर देते हैं। एतावता इन बाल्यावस्था के संस्कारों के उद्बोधन से चार्वाक मत में स्मरण बिना किसी बाधा के हो जाता है। अन्तत: चार्वाक दर्शन में शरीर ही आत्मा है यह सहज ही सिद्ध होता है।

यदि शरीर ही आत्मा है तो चार्वाक से यह पूछा जा सकता है कि 'मम शरीरम्' यह मेरा शरीर है, ऐसा लोकसिद्ध जो व्यवहार है वह कैसे उत्पन्न होगा? इस व्यवहार से तो यह प्रतीत हो रहा है कि शरीर अलग है एवं शरीर का स्वामी कोई और है, जो शरीर से भिन्न आत्मा ही है। इस प्रश्न का समाधान करते हुए चार्वाक कहता है कि जैसे दानव विशेष के सिर को ही राहू कहा गया है, फिर भी जन-सामान्य 'राहू का सिर' यह व्यवहार बड़े ही सहज रूप में करता है, उसी प्रकार शरीर के ही आत्मा होने पर भी 'मेरा शरीर' यह लोकसिद्ध व्यवहार उपपन्न हो जायेगा। चार्वाकों में कुछ चार्वाक इन्द्रियों को ही आत्मा मानने पर इन्द्रिय के नष्ट होने पर स्मरण की आपत्ति का निरास नहीं हो पाता है। किन्हीं चार्वाकों ने प्राण एवं मन को भी आत्मा के रूप में माना है। शरीर ही आत्मा है यह सिद्ध करने के लिए चार्वाक इस वेद के सन्दर्भ को भी आस्तिकों के सन्तोष के लिए प्रस्तुत करता है। इस वेद वचन का तात्पर्य है कि 'विज्ञान से युक्त आत्मा इन भूतों से उत्पन्न हो कर अन्त में इन भूतों में ही विलीन हो जाता है। यह भूतों में शरीर स्वरूप आत्मा का विलय ही मृत्यु है।'
चार्वाक दर्शन एक प्राचीन भारतीय भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। यह दर्शन वेदबाह्य भी कहा जाता है।

वेदबाह्य दर्शन छ: हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, और आर्हत(जैन)। इन सभी में वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है।

अजित केशकंबली को चार्वाक के अग्रदूत के रूप में श्रेय दिया जाता है, जबकि बृहस्पति को आमतौर पर चार्वाक या लोकायत दर्शन के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। चार्वाक , बृहस्पति सूत्र (600 ईसा पूर्व) के अधिकांश प्राथमिक साहित्य गायब या खो गए हैं। इसकी शिक्षाओं को ऐतिहासिक माध्यमिक साहित्य से संकलित किया गया है जैसे कि शास्त्र, सूत्र, और भारतीय महाकाव्य कविता में और गौतम बुद्ध के संवाद और जैन साहित्य से। चार्वाक प्राचीन भारत के एक अनीश्वरवादी और नास्तिक तार्किक थे। ये नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं। बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है। बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है।

परिचय
चार्वाक का नाम सुनते ही आपको ‘यदा जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा, घृतं पिबेत्’ (जब तक जीओ सुख से जीओ, उधार लो और घी पीयो।) की याद आएगी। प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पत्ति ‘चारु’+’वाक्’ (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। चार्वाक सिद्धांतों के लिए बौद्ध पिटकों में ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब ‘दर्शन की वह प्रणाली है जो जो इस लोक में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती’। चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं।

सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक का मत दिया हुआ मिलता है। पद्मपुराण में लिखा है कि असुरों को बहकाने के लिये बृहस्पति ने वेदविरुद्ध मत प्रकट किया था। नास्तिक मत के संबध में विष्णुपुराण में लिखा है कि जब धर्मबल से दैत्य बहुत प्रबल हुए तब देवताओं ने विष्णु के यहाँ पुकार की। विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह नामक एक पुरुष उत्पन्न किया जिसने नर्मदा तट पर दिगबंर रूप में जाकर तप करते हुए असुरों को बहकाकर धर्ममार्ग में भ्रष्ट किया। मायामोह ने असुरों को जो उपदेश किया वह सर्वदर्शनसंग्रह में दिए हुए चार्वाक मत के श्लोकों से बिलकुल मिलता है। लिंगपुराण में त्रिपुरविनाश के प्रसंग में भी शिवप्रेरित एक दिगंबर मुनि द्वारा असुरों के इसी प्रकार बहकाए जाने की कथा लिखी है जिसका लक्ष्य जैनों पर जान पड़ता है। वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड में महर्षि जावालि ने रामचंद्र को वनवास छोड़ अयोध्या लौट जाने के लिये जो उपदेश दिया है वह भी चार्वाक के मत से बिलकुल मिलता है। इन सब बातों से सिद्ध होता है कि निरीश्वरवादी मत बहुत प्राचीन है। सांख्य दर्शन, जो एक आस्तिक दर्शन हैं, वह भी निरीश्वरवादी मत हैं।
चार्वाक के सिद्धान्त
जिस प्रकार आस्तिक दर्शनों में शंकर दर्शन शिरोमणि के रूप में स्वीकृत है उसी प्रकार नास्तिक दर्शनों में सबसे उत्कृष्ट नास्तिक के रूप में शिरोमणि की तरह चार्वाक दर्शन की प्रतिष्ठा निर्विवाद है। नास्तिक शिरोमणि चार्वाक इसलिए भी माना जाता है कि वह विश्व में विश्वास के आधार पर किसी न किसी रूप में मान्य ईश्वर की अलौकिक सर्वमान्य सत्ता को सिरे से नकार देता है। इनके मतानुसार ईश्वर नाम की कोई वस्तु संसार में नहीं है। नास्तिक शिरोमणि चार्वाक जो कुछ बाहरी इन्द्रियों से दिखाई देता है अनुभूत होता है, उसी की सत्ता को स्वीकार करता है। यही कारण है कि चार्वाक के सिद्धान्त में प्रत्यक्ष प्रमाण को छोड़ कर कोई दूसरा प्रमाण नहीं माना गया है। जिस ईश्वर की कल्पना अन्य दर्शनों में की गई है उसकी सत्ता प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्भव नहीं है। इनके मत से बीज से जो अंकुर का प्रादुर्भाव होता है उसमें ईश्वर की भूमिका को मानना अनावश्यक एवं उपहासास्पद ही है। अंकुर की उत्पत्ति तो मिट्टी एवं जल के संयोग से नितान्त स्वाभाविक एवं सहज प्रक्रिया से सर्वानुभव सिद्ध है। इस स्वभाविक कार्य को सम्पन्न करने के लिए किसी अदृष्ट कर्त्ता की स्वीकृति निरर्थक है।

ईश्वर को न मानने पर जीव सामान्य के शुभ एवं अशुभ कर्मों के फल की व्यवस्था कैसे सम्भव होगी? इस प्रश्न का समाधान करते हुए चार्वाक पूछता है कि किस कर्म फल की व्यवस्था अपेक्षित? संसार में दो प्रकार के कर्म देखे जाते हैं। एक लौकिक तथा दूसरा अलौकिक कर्म। क्या आप लौकिक कर्मों के फल की व्यवस्था के सम्बन्ध में चिन्तित हैं? यदि हाँ, तो यह चिन्ता अनावश्यक है। लौकिक कर्मों का फल विधान तो लोक में सर्व मान्य राजा या प्रशासक ही करता है। यह सर्वानुभव सिद्ध तथ्य, प्रत्यक्ष ही है। हम देखते हैं कि चौर्य कर्म आदि निषिद्ध कार्य करने वाले को उसके दुष्कर्म का समुचित फल, लोक सिद्ध राजा ही दण्ड के रूप में कारागार आदि में भेज कर देता है। इसी प्रकार किसी की प्राण रक्षा आदि शुभ कर्म करने वाले पुरुष को राजा ही पुरस्कार रूप में सुफल अर्थात धन धान्य एवं सम्मान से विभूषित कर देता है।

यदि आप अलौकिक कर्मों के फल की व्यवस्था के सन्दर्भ में सचिन्त हैं तो यह चिन्ता भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पारलौकिक फल की दृष्टि से विहित ये सभी यज्ञ, पूजा, पाठ तपस्या आदि वैदिक कर्म जन सामान्य को ठगने की दृष्टि से तथा अपनी आजीविका एवं उदर के भरण पोषण के लिए कुछ धूर्तों द्वारा कल्पित हुए हैं। वास्तव में अग्निहोत्र, तीन वेद, त्रिदण्ड का धारण तथा शरीर में जगह जगह भस्म का संलेप बुद्धि एवं पुरुषार्थ हीनता के ही परिचायक हैं। इन वैदिक कर्मों का फल आज तक किसी को भी दृष्टि गोचर नहीं हुआ है। यदि वैदिक कर्मों का कोई फल होता तो अवश्य किसी न किसी को इसका प्रत्यक्ष आज तक हुआ होता। अत: आज तक किसी को भी इन वैदिक या वर्णाश्रम-व्यवस्था से सम्बद्ध कर्मों का फल-स्वर्ग, मोक्ष, देवलोक गमन आदि प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं है अत: ये समस्त वैदिक कर्म निष्फल ही हैं, यह स्वत: युक्ति पूर्वक सिद्ध हो जाता है।

अदृष्ट एवं ईश्वर का निषेध
यहाँ यदि आस्तिक दर्शन यह कहे कि परलोक स्वर्ग आदि को सिद्ध करने वाला व्यापार अदृष्ट या धर्म एवं अधर्म है जिससे स्वर्ग की सिद्धि होती है तो यह चार्वाक को स्वीकार्य नहीं है। अलौकिक अदृष्ट का खण्डन करते हुए चार्वाक स्वर्ग आदि परलोक के साधन में अदृष्ट की भूमिका को निरस्त करता है तथा इस प्रकार आस्तिक दर्शन के मूल पर ही कुठाराघात कर देता है। यही कारण है कि अदृष्ट के आधार पर सिद्ध होने वाले स्वर्ग आदि परलोक के निरसन के साथ ही इस अदृष्ट के नियामक या व्यवस्थापक के रूप में ईश्वर का भी निरास चार्वाक मत में अनायास ही हो जाता है।
चार्वाक दर्शन
एक भौतिकवादी नास्तिक दर्शन

चार्वाक दर्शन एक प्राचीन भारतीय भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। यह दर्शन वेदबाह्य भी कहा जाता है।

वेदबाह्य दर्शन छ: हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, और आर्हत(जैन)। इन सभी में वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है।

अजित केशकंबली को चार्वाक के अग्रदूत के रूप में श्रेय दिया जाता है, जबकि बृहस्पति को आमतौर पर चार्वाक या लोकायत दर्शन के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। चार्वाक , बृहस्पति सूत्र (600 ईसा पूर्व) के अधिकांश प्राथमिक साहित्य गायब या खो गए हैं। इसकी शिक्षाओं को ऐतिहासिक माध्यमिक साहित्य से संकलित किया गया है जैसे कि शास्त्र, सूत्र, और भारतीय महाकाव्य कविता में और गौतम बुद्ध के संवाद और जैन साहित्य से। चार्वाक प्राचीन भारत के एक अनीश्वरवादी और नास्तिक तार्किक थे। ये नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं। बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है। बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है।
एक ऐसे बृहस्पति का तैत्तरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णन मिलता है जो गायत्री देवी के मस्तक पर आघात करता है गायत्री देवी को पद्म पुराण के अनुसार समस्त वेदों का मूल माना गया है। इस दृष्टि से यह बृहस्पति वेद का विरोधी माना जा सकता है। सम्भवत: वेद का विरोध प्रति पद करने के कारण इस बृहस्पति को चार्वाक दर्शन का प्रणेता भी माना जाना युक्तियुक्त होगा।

विष्णु पुराण में भी बृहस्पति का प्रसंग प्राप्त होता है। बृहस्पति की इस मान्यता के अनुसार वैदिक कर्मकाण्ड बहुवित्त के व्यय एवं प्रयास से साध्य हे। विविध सुख के साधक ये वैदिक उपाय कुछ अर्थ लोलुप स्वार्थ केन्द्रित धूर्तों का ही विधान है। तार्किक बृहस्पति का भी कहीं कहीं वर्णन मिलता है। ये बृहस्पति वेद के अनुगामी तो अवश्य हैं पर तर्कसम्मत अनुष्ठानों का ही समर्थन करते हैं। इनकी दृष्टि से तत्त्व निर्णय शास्त्र पर आधारित अवश्य होना चाहिए परन्तु यह शास्त्रीय अनुसन्धान तर्क पोषित होना नितान्त आवश्यक है। तर्क विरहित चिन्तन धर्म के निर्धारण में कभी भी सार्थक नहीं हो सकता है।

वात्स्यायन मुनि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ कामसूत्र में अर्थशास्त्र के रचयिता के रूप में बृहस्पति का उल्लेख किया है। बृहस्पति द्वारा विरचित अर्थशास्त्र के एक सूत्र के अनुसार शास्त्र के रूप में मात्र लोकायत को ही मान्यता दी गयी है। फलत: अर्थशास्त्र के प्रणेता बृहस्पति एवं लोकायत शास्त्र के प्रवर्त्तक में अन्तर कर पाना अत्यन्त दुरूह कार्य है। कुछ समालोचकों ने अर्थशास्त्र के एवं लोकायत शास्त्र के निर्माता को अभिन्न मानने के साथ-साथ कामसूत्रों के प्रणेता भी बृहस्पति ही हैं, यह माना है। यदि लौकिक इच्छाओं को पूर्ण करना ही चार्वाक दर्शन का उद्देश्य है तो कामशास्त्र के प्रवर्त्तक मुनि वात्स्यायन ही बृहस्पति हैं, यह मानना उपयुक्त ही है।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लोकायत दर्शन का सहज प्रतिपादन किया है। इस प्रकार अर्थशास्त्र के रचनाकार कौटिल्य एवं लोकायत दर्शन के प्रणेता बृहस्पति एक ही हैं ऐसा माना जा सकता है। कोषकार हेमचन्द्र के अनुसार अर्थशास्त्र, कामसूत्र, न्यायसूत्र-भाष्य, पंचतन्त्र एवं चाणक्य नीति के रचयिता एक ही है।

इतनी विवेचना के बाद जो बृहस्पति वैदिक वाङमय में विभिन्न प्रसंगों में चर्चित हैं उनके यथा क्रम नाम इस प्रकार स्पष्ट होते हैं।

लौक्य बृहस्पति
आंगिरस बृहस्पति
देवगुरु बृहस्पति
अर्थशास्त्र प्रवर्त्तक बृहस्पति
कामसूत्र प्रवर्त्तक बृहस्पति
वेदविनिन्दक बृहस्पति
तार्किक बृहस्पति।
पद्म पुराण के सन्दर्भ में अंगिरा ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। आंगिरस बृहस्पति अंगिरा के पुत्र एवं ब्रह्मा के पौत्र हैं। फलत: इनकी देवों में गणना होती है। इस प्रकार देव गुरु बृहस्पति एवं आंगिरस बृहस्पति में कोई भेद नहीं माना जा सकता। देवों की संरक्षा के लिए देवताओं के गुरु द्वारा असुरों को प्रदत्त उपदेश विभिन्न लोकों में आयत हो गया यह कथन देव गुरु बृहस्पति के सन्दर्भ में विश्वसनीय नहीं हो सकता। असुर अपने गुरु शुक्राचार्य के रहते देवगुरु के उपदेश को क्यों आदर देंगे? अत: देवगुरु से अतिरिक्त कोई चार्वाक दर्शन का प्रवर्त्तक होना अपेक्षित है।

कुछ समालोचकों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि चार्वाक के गुरु बृहस्पति, स्वर्ग के स्वामी इन्द्र के आचार्य विश्वविख्यात बृहस्पति नहीं हैं। ये बृहस्पति किसी राजकुल के गुरु हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से देंखे तो वसिष्ठ, विश्वामित्र, द्रोणाचार्य आदि का किसी राजकुल का गुरु होना इस मान्यता को आधार भी दे रहा है।

चार्वाक लोकायत
चार्वाक दर्शन वह दर्शन है जो जन सामान्य में स्वभावत: प्रिय है। जिस दर्शन के वाक्य चारु अर्थात रुचिकर हों वह चार्वाक दर्शन है। सभी शास्त्रीय गम्भीर विषयों का व्यावहारिक एवं लौकिक पूर्व पक्ष ही चार्वाक दर्शन है। सहज रूप में जो कुछ हम करते हैं वह सब कुछ चार्वाक दर्शन का आधार है। चार्वाक दर्शन जीवन के हर पक्ष को सहज दृष्टि से देखता है। जीवन के प्रति यह सहज दृष्टि ही चार्वाक दर्शन है। वास्तविकता तो यह है कि, विश्व का हर मानव जो जीवन जीता है वह चार्वाक दर्शन ही है। ऐसे वाक्य और सिद्धान्त जो सबको रमणीय लगें लोक में आयत या विश्रुत आवश्य होंगे। सम्भवत: यही कारण है कि हम चार्वाक दर्शन को लोकायत दर्शन के नाम से भी जानते हैं। यह दर्शन बार्हस्पत्य दर्शन के नाम से भी विद्वानों में प्रसिद्ध है। इस नाम से यह प्रतीत होता है कि यह दर्शन बृहस्पति के द्वारा विरचित है।

चार्वाक दर्शन के प्रणेता बृहस्पति
बृहस्पति भारतीय समाज में देवताओं के गुरु के रूप में मान्य हैं। परन्तु भारतीय साहित्य में बृहस्पति एक नहीं हैं। चार्वाक दर्शन के प्रवर्तक आचार्य बृहस्पति कौन हैं, यह निर्णय कर पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। आङिगरस एवं लौक्य रूप में दो बृहस्पतियों का समुल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है। अश्वघोष के अनुसार आङिगरस बृहस्पति राजशास्त्र के प्रणेता हैं। लौक्य बृहस्पति के मत में सत पदार्थ की उत्पत्ति असत से मानी जाती है। इसी प्रकार असत पदार्थ की उत्पत्ति सत से मानी गयी है। जड़ पदार्थों को ही असत कहा जाता है। चेतन पदार्थों को इस मान्यता के अनुसार सत कहा जाता हैं।

एक बृहस्पति का निर्देश महाभारत के वन पर्व में भी प्राप्त होता है। यह बृहस्पति शुक्र का स्वरूप धारण कर इन्द्र का सरंक्षण एवं दानवों का विनाश करने के उद्देश्य से अनात्मवाद या प्रपंच विज्ञान की संरचना करता है। इस प्रपंच विज्ञान के फलस्वरूप शुभ को अशुभ एवं अशुभ को शुभ मानते हुए दानव वेद एवं शास्त्रों की आलोचना एवं निन्दा में संलग्न हो जाते हैं। अन्य प्रसंग में महाभारत में ही एक और बृहस्पति का वर्णन मिलता है जो शुक्राचार्य के साथ मिल कर प्रवंचनाशास्त्र की रचना करते हैं। विभिन्न शास्त्रों के आचार्यों की माने तो चार्वाक मत दर्शन की श्रेणी में नहीं माना जा सकता क्योंकि इस दर्शन में मात्र मधुर वचनों की आड़ में वंचना का ही कार्य किया गया है। यह बात और है कि यदि चार्वाक की सुनें तो वह भी विभिन्न शास्त्रज्ञों को वंचक ही घोषित करता है।
आचार मीमांसा
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष दृश्यमान देह और जगत के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थचतुष्टय को वे लोग पुरुष अर्थात मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं। उनकी दृष्टि में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है। धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है। पाखण्डी धूर्त्तों के द्वारा कपोलकल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने वाली पशु हिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्त्द वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये। जिसमें इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आन्दित हो वही कार्य करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये। शरीर इन्द्रिय मन को अनन्दाप्लावित करने में जो तत्त्व बाधक होते हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना धर्म है। शारीरिक मानसिक कष्ट सहना, विषयानन्द से मन और शरीर को बलात विरत करना अधर्म है। तात्पर्य यह है कि आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में, पुराणों स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का साधक है तो उनका अनुसरण करना चाहिये और यदि वे उसके बाधक होते हैं तो उनका सर्वथा सर्वदा त्याग कर देना चाहिये।

मोक्ष
चार्वाकों की मोक्ष की कल्पना भी उनके तत्त्व मीमांसा एवं ज्ञान मीमांसा के प्रभाव से पूर्ण प्रभावित है। जब तक शरीर है तब तक मनुष्य नाना प्रकार के कष्ट सहता है। यही नरक है। इस कष्ट समूह से मुक्ति तब मिलती है जब देह चैतन्यरहित हो जाता है अर्थात मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव नहीं होता। यद्यपि अन्य दर्शनों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उसी के मुक्त होने की चर्चा की गयी है और मोक्ष का स्वरूप भिन्न-भिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है, तथापि चार्वाक उनकी मान्यता को प्रश्रय नहीं देते। वे न तो मोक्ष को नित्य मानते हुए सन्मात्र मानते हैं, न नित्य मानते हुए सत और चित स्वरूप मानते हैं न ही वे सच्चिदानन्द स्वरूप में उसकी स्थिति को ही मोक्ष स्वीकार करते हैं।
आत्मा
चार्वाकों के अनुसार चार महाभूतों से अतिरिक्त आत्मा नामक कोई अन्य पदार्थ नहीं है। चैतन्य आत्मा का गुण है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अत: चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात यह शरीर ही आत्मा है। इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है- तर्क, अनुभव और आयुर्वेद शास्त्र।

तर्क से आत्मा की सिद्धि के लिये चार्वाक लोग कहते हैं कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न रहने पर चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात आत्मा सिद्ध होता है।

अनुभव 'मैं स्थूल हूँ', 'मैं दुर्बल हूँ', 'मैं गोरा हूँ', 'मैं निष्क्रिय हूँ' इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता इत्यादि शरीर के धर्म हैं और 'मैं' भी वही है। अत: शरीर ही आत्मा है।

आयुर्वेद जिस प्रकार गुड, जौ, महुआ आदि को मिला देने से काल क्रम के अनुसार उस मिश्रण में मदशक्त उत्पन्न होती है, अथवा दही पीली मिट्टी और गोबर के परस्पर मिश्रण से उसमें बिच्छू पैदा हो जाता है अथवा पान, कत्था, सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके मिश्रण से मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। किन्तु इन भूतों के विशिष्ट मात्रा में मिश्रण का कारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाक के पास स्वभाववाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ईश्वर-न्याय आदि शास्त्रों में ईश्वर की सिद्धि अनुमान या आप्त वचन से की जाती है। चूँकि चार्वाक प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है अत: उसके मत में प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही ईश्वर हैं वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली प्रजा का नियन्ता होता है। अत: उसे ही ईश्वर मानना चाहिये।

ज्ञान मीमांसा
प्रमेय अर्थात विषय का यथार्थ ज्ञान अर्थात प्रमा के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है। चार्वाक लोक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है। इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत है। आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा के द्वारा रूप शब्द गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती। बौद्ध, जैन नामक अवैदिक दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं। उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता हैं। दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अत: सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता। जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूप के साथ अग्नि का, पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है। सुख और धर्म का दु:ख और अधर्म का कार्यकारण भाव स्वाभाविक है। जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे के शब्द में कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये। जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता है। यह प्रत्यक्ष ही है। जहाँ तक वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृष्ट और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं अत: उनकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है। साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिंगग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं मांसभक्षण सदृश घृणास्पद कार्य करने से तथा जर्भरी तुर्फरी आदि अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी अप्रामाणिकता स्वयं सिद्ध करते हैं।
परिचय
चार्वाक का नाम सुनते ही आपको ‘यदा जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा, घृतं पिबेत्’ (जब तक जीओ सुख से जीओ, उधार लो और घी पीयो।) की याद आएगी। प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पत्ति ‘चारु’+’वाक्’ (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। चार्वाक सिद्धांतों के लिए बौद्ध पिटकों में ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब ‘दर्शन की वह प्रणाली है जो जो इस लोक में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती’। चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं।

सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक का मत दिया हुआ मिलता है। पद्मपुराण में लिखा है कि असुरों को बहकाने के लिये बृहस्पति ने वेदविरुद्ध मत प्रकट किया था। नास्तिक मत के संबध में विष्णुपुराण में लिखा है कि जब धर्मबल से दैत्य बहुत प्रबल हुए तब देवताओं ने विष्णु के यहाँ पुकार की। विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह नामक एक पुरुष उत्पन्न किया जिसने नर्मदा तट पर दिगबंर रूप में जाकर तप करते हुए असुरों को बहकाकर धर्ममार्ग में भ्रष्ट किया। मायामोह ने असुरों को जो उपदेश किया वह सर्वदर्शनसंग्रह में दिए हुए चार्वाक मत के श्लोकों से बिलकुल मिलता है। लिंगपुराण में त्रिपुरविनाश के प्रसंग में भी शिवप्रेरित एक दिगंबर मुनि द्वारा असुरों के इसी प्रकार बहकाए जाने की कथा लिखी है जिसका लक्ष्य जैनों पर जान पड़ता है। वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड में महर्षि जावालि ने रामचंद्र को वनवास छोड़ अयोध्या लौट जाने के लिये जो उपदेश दिया है वह भी चार्वाक के मत से बिलकुल मिलता है। इन सब बातों से सिद्ध होता है कि निरीश्वरवादी मत बहुत प्राचीन है। सांख्य दर्शन, जो एक आस्तिक दर्शन हैं, वह भी निरीश्वरवादी मत हैं।

चार्वाक ईश्वर और परलोक नहीं मानते। परलोक न मानने के कारण ही इनके दर्शन को लोकायत भी कहते हैं। सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक के मत से सुख ही इस जीवन का प्रधान लक्ष्य है सुखवाद। संसार में दुःख भी है, यह समझकर जो सुख नहीं भोगना चाहते, वे मूर्ख हैं। मछली में काँटे होते हैं तो क्या इससे कोई मछली ही न खाय ? चौपाए खेत पर जायँगे, इस डर से क्या कोई खेत ही न बोवे ? इत्यादि। चार्वाक आत्मा को पृथक् कोई पदार्थ नहीं मानते अनात्मवाद। उनके मत से जिस प्रकार गुड़, तंडुल आदि के संयोग से मद्य में मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के संयोगविशेष से चेतनता उत्पन्न हो जाती हैभूतचैतन्यवाद। इनके विश्लेषण या विनाश से 'मैं' अर्थात् चेतनता का भी नाश हो जाता है। इस चेतन शरीर के नाम के पीछे फिर पुनरागमन आदि नहीं होता। ईश्वर, परलोक आदि विषय अनुमान के आधार पर हैं जिनकी कोइ वस्तुगत अस्तित्व नही है।अनीश्वरवादी और इहलौकिकवादी।

पर चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष को ही एकमात्र प्रमाण मानते है लेकिन अनुमान को प्रमाण नहीं मानते। उनका तर्क है कि अनुमान व्याप्तिज्ञान पर आश्रित है। जो ज्ञान हमें बाहर इंद्रियों के द्वारा होता है उसे भूत और भविष्य तक बढ़ाकर ले जाने का नाम व्याप्तिज्ञान है, जो असंभव है। मन में यह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, यह कोई प्रमाण नहीं क्योंकि मन अपने अनुभव के लिये इंद्रियों पर ही आश्रित है। यदि कहो कि अनुमान के द्वारा व्याप्तिज्ञान होता है तो इतरेतराश्रय दोष आता है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान को लेकर ही तो अनुमान को सिद्ध किया चाहते हो।चार्वाक का मत सर्वदर्शनसंग्रह, सर्वदर्शनशिरोमणि और बृहस्पतिसूत्र में देखना चाहिए। नैषध के १७वें सर्ग में भी इस मत का विस्तृत उल्लेख है।

चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादिता का समर्थन करता है, वह अनुमान आदि प्रमाणों को नहीं मानता है। उसके मत से पृथ्वी जल तेज और वायु ये चार ही तत्व है, जिनसे सब कुछ बना है। उसके मत में आकाश तत्व की स्थिति नहीं है, इन्ही चारों तत्वों के मेल से यह देह बनी है, इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते है। शरीर जब विनष्ट हो जाता है, तो चैतन्य भी खत्म हो जाता है देहात्मवाद। इस प्रकार से जीव इन भूतो से उत्पन्न होकर इन्ही भूतो के नष्ट होते ही समाप्त हो जाता है, आगे पीछे इसका कोई महत्व नहीं है।
उसके मत में आकाश तत्व की स्थिति नहीं है, इन्ही चारों तत्वों के मेल से यह देह बनी है, इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते है। शरीर जब विनष्ट हो जाता है, तो चैतन्य भी खत्म हो जाता है देहात्मवाद। इस प्रकार से जीव इन भूतो से उत्पन्न होकर इन्ही भूतो के नष्ट होते ही समाप्त हो जाता है, आगे पीछे इसका कोई महत्व नहीं है। इसलिये जो चेतन में देह दिखाई देती है वही आत्मा का रूप है, देह से अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण ही नहीं मिलता है। चार्वाक के मत से स्त्री पुत्र और अपने कुटुम्बियों से मिलने और उनके द्वारा दिये जाने वाले सुख ही सुख कहलाते है। उनका आलिन्गन करना ही पुरुषार्थ है, संसार में खाना पीना और सुख से रहना चाहिये। इस दर्शन में कहा गया है, कि:-

यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नहीं है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?

चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु ये चार ही तत्त्व सृष्टि के मूल कारण हैं। जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं। आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता। अत: उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। यह विश्व अकस्मात भिन्न-भिन्न रूपों एवं भिन्न-भिन्न मात्राओं में मिलने वाले चार महाभूतों का संग्रह या संघट्ट मात्र है।

केश कम्बली
भगवान बुद्ध के समकालीन एवं तरह-तरह के मतों का प्रतिपादन करने वाले जो कई धर्माचार्य मंडलियों के साथ घूमा करते थे उनमें अजित केशकंबली भी एक प्रधान आचार्य थे। इनका नाम था अजित और केश का बना कंबल धारण करने के कारण वह केशकंबली नाम से विख्यात हुए। उनका सिद्धान्त घोर उच्छेदवाद का था। भौतिक सत्ता के परे वह किसी तत्व में विश्वास नहीं करते थे। उनके मत में न तो कोई कर्म पुण्य था और न पाप। मृत्यु के बाद शरीर जला दिए जाने पर उसका कुछ शेष नहीं रहता, चार
 महाभूत अपने तत्व में मिल जाते हैं और उसका सर्वथा अंत हो जाता है- यही उनकी शिक्षा थी।

आजीविक
प्राचीन दर्शन परंपरा में नास्तिकवादी और भौतिकवादी सम्प्रदाय

आजीविक या ‘आजीवक’, दुनिया की प्राचीन दर्शन परंपरा में भारतीय जमीन पर विकसित हुआ पहला नास्तिकवादी या भौतिकवादी सम्प्रदाय था। भारतीय दर्शन और इतिहास के अध्येताओं के अनुसार आजीवक संप्रदाय की स्थापना मक्खलि गोसाल (गोशालक) ने की थी। ईसापूर्व 5वीं सदी में 24वें जैन तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध के उभार के पहले यह भारतीय भू-भाग पर प्रचलित सबसे प्रभावशाली दर्शन था।


(बायें) महाकाश्यप एक आजिविक से मिल रहे हैं और परिनिर्वाण के बारे में ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं।
विद्वानों ने आजीवक संप्रदाय के दर्शन को ‘नियतिवाद’ के रूप में चिन्हित किया है। ऐसा माना जाता है कि आजीविक श्रमण नग्न रहते और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। ईश्वर, पुनर्जन्म और कर्म यानी कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं था। आजीवक संप्रदाय का तत्कालीन जनमानस और राज्यसत्ता पर कितना प्रभाव था, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि अशोक और उसके पोते दशरथ ने बिहार के जहानाबाद (पुराना गया जिला) दशरथ ने स्थित बराबर की पहाड़ियों में सात गुफाओं का निर्माण कर उन्हें आजीवकों को समर्पित किया था। तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में किसी भारतीय राजा द्वारा धर्मविशेष के लिए निर्मित किए गए ऐसे किसी दृष्टांत का विवरण इतिहास में नहीं मिलता।

आजीविक शब्द और संप्रदाय की उत्पत्ति
आजीविक शब्द के अर्थ के विषय में विद्वानों में विवाद रहा हैं किंतु आजीविक के विषय में विचार रखनेवाले श्रमणों के वर्ग को यह अर्थ विशेष मान्य रहा है। यह माना जाता है कि वैदिक मान्यताओं के विरोध में जिन अनेक श्रमण संप्रदायों का उत्थान बुद्धपूर्वकाल में हुआ उनमें आजीविक संप्रदाय सबसे लोकप्रिय और प्रमुख था। इतिहासकारों ने निर्विवाद रूप से आजीवक संप्रदाय को दार्शनिक-धार्मिक परंपरा में दुनिया का सबसे पहला संगठित संप्रदाय माना है। क्योंकि आजीवकों से पहले किसी और संगठित दार्शनिक परंपरा का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। महावीर और बुद्ध जरूर मक्खलि गोसाल के समकालीन थे पर उनके जैन और बौद्ध दर्शन का विकास एवं विस्तार आजीवक दर्शन के पश्चात् ही हुआ। चूंकि आजीवक संप्रदाय का प्रमाणिक साहित्य उपलब्ध नहीं है, इसलिए आजीवकों के दर्शन और इतिहास संबंधी जानकारी के लिए इतिहासकार पूरी तरह से बौद्ध और जैन साहित्य तथा मौर्ययुगीन शिलालेखों पर निर्भर रहे हैं। बावजूद इसके इतिहासकारों में इस बात को लेकर कोई मतभेद नहीं है कि इस संप्रदाय का प्रभाव और प्रचलन पहली सदी तक संपूर्ण भारत में व्यापक तौर पर था। विद्वानों का स्पष्ट मत है कि बाद में विकसित और लोकप्रिय हुए जैन और बौद्ध दर्शन दोनों इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हैं। प्रकारांतर से चार्वाक दर्शन भी आजीवक संप्रदाय के नास्तिक और भौतिकवादी परंपरा की देन है। इतिहासकार मानते हैं कि मध्यकाल में इस संप्रदाय ने अपना पार्थक्य खो दिया।

आजीविक मत के अधिष्ठाता मक्खलि गोसाल
जैन और बौद्ध शास्त्रों ने आजीविकों के तीर्थंकर के रूप में मक्खली गोसाल का उल्लेख करते हुए उन्हें बुद्ध और महावीर का प्रबल विरोधी घोषित किया है। जैन-बौद्ध शास्त्रों से ही हमें यह पता चलता है कि आजीवक मत को सुव्यवस्थित व संगठित रूप देने तथा उसे लोकप्रिय बनाने वाले एकमात्र तीर्थंकर मक्खलि गोसाल थे। गोसाल चित्र के जरिए धार्मिक-नैतिक उपदेश देकर जीविका चलाने वाले मंख के पुत्र थे। उनकी माता का नाम भद्रा था। मक्खलि का जन्म गोशाला में हुआ था। इसी से उनके नाम के साथ ‘गोसाल’ (गोशालक) जुड़ा। जैन परंपरा के अनुसार ‘मक्खलि’ ‘मंख’ से बना है। मंख एक ऐसा समुदाय था जिसके सदस्य भाट जैसा जीवन यापन करते थे। जैन साहित्य के अनुसार मक्खलि हाथ में मूर्ति लेकर भटका करते थे। इसीलिए जैनों और बौद्धों ने उन्हें ‘मक्खलिपुत्त गोशाल’ कहा है। प्राचीन ग्रंथों में उन्हें ‘मस्करी गोशाल’ भी कहा गया है क्योंकि आजीवक श्रमण हाथ में ‘मस्करी’ (दंड अथवा डंडा) लिए रहते थे। गोसाल स्वयं को चौबीसवां तीर्थंकर कहते थे। गोसाल श्रमण परंपरा से आए थे क्योंकि जैन-बौद्ध ग्रंथों में उनके पहले के कई आजीविकों का उल्लेख मिलता है। मक्खलि से पूर्व किस्स संकिच्च और नन्दवच्छ नामक दो प्रमुख आजीविकों के नाम मिलते हैं। भगवती सूत्र के आठवें शतक के पांचवें उद्देशक में महावीर ने 12 आजीविकों के नाम भी आए हैं जो इस प्रकार हैं: ताल, तालपलंब, उव्विह, संविह, अवविह, उदय, नामुदय, ण्मुदय, अणुवालय, संखुवालय, अयंपुल और कायरय।

जैनागम भगवती के अनुसार 'गोशालक निमित्त-शास्त्र के भी अभ्यासी थे। हानि-लाभ, सुख-दुख एवं जीवन-मरण विषयक भविष्य बताने में वे कुशल और सिद्धहस्त थे। आजीवक लोग अपनी इस विद्या बल से आजीविका चलाया करते थे। इसीलिए जैन शास्त्रों में इस मत को आजीवक और लिंगजीवी कहा गया है।'

“जैन आगमों में मक्खली गोशाल को गोसाल मंखलिपुत्त कहा है (उवासगदसाओ) । संस्कृत में उसे ही मस्करी गोशालपुत्र कहा गया है। (दिव्यावदान पृ. १४३)। मस्करी या मक्खलि या मंखलि का दर्शन सुविदित था। महाभारत में मंकि ऋषि की कहानी में नियतिवाद का ही प्रतिपादन है। (शुद्धं हि दैवमेवेदं हठे नैवास्ति पौरुषम्, शान्तिपर्व १७७/११-४)। मंकि ऋषि का मूल दृष्टिकोण निर्वेद या जैसा पतंजलि ने कहा है शान्ति परक था, अर्थात् अपने हाथ-पैर से कुछ न करना। यह पाणिनिवाद का ठीक उल्टा था। मंखलि गोसाल के शुद्ध नाम के विषय में कई अनुश्रुतियां थीं। जैन प्राकृत रूप मंखलि था। भगवती सूत्र के अनुसार गोसाल मंख संज्ञक भिक्षु का पुत्र था (भगवती सूत्र १५/१)। शान्ति-पर्व का मंकि निश्चयरूप से मंखलि का ही दूसरा रूप है।"

मक्खलि गोसाल के समय में उनके अलावा पूर्ण कस्सप, अजित केशकंबलि, संजय वेलट्ठिपुत्त और पुकुद कात्यायन चार प्रमुख श्रमण आचार्य थे। पांचवे निगंठ नाथपुत्त अर्थात महावीर और इसी श्रमण परंपरा में छठे दार्शनिक सिद्धार्थ यानी गौतम बुद्ध हुए। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि महावीर के ‘जिन’ अथवा ‘कैवल्य’ और बुद्ध को बोध की प्राप्ति, या उनके प्रसिद्ध होने से बहुत पहले ही उपरोक्त पांचों काफी प्रतिष्ठा, लोकप्रियता और जनसमर्थन बटोर चुके थे।

आजीविकों का दर्शन
दर्शन और इतिहास के विद्वानों ने आजीवक दर्शन को ‘नियतिवाद’ कहा है। आजीविकों के अनुसार संसारचक्र नियत है, वह अपने क्रम में ही पूरा होता है और मुक्तिलाभ करता है। आजीवक पुरुषार्थ और पराक्रम को नहीं मानते थे। उनके अनुसार मनुष्य की सभी अवस्थाएं नियति के अधीन है।

आजीविकों के दर्शन का स्पष्ट उल्लेख हमें ‘दीघ-निकाय’ के ‘समन्न्फल्सुत्र सुत्त’ में मिलता है। जब अशांतचित्त अजातशत्रु अपने संशय को लेकर गौतम बुद्ध से मिलते हैं और छह भौतिकवादी दार्शनिकों के मतों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं। अजातशत्रु गौतम बुद्ध से कहता है, ‘भंते अगले दिन मैं मक्खलि गोसाल के यहां गया। वहां कुशलक्षेम पूछने के पश्चात पूछा, ‘महाराज, જુस प्रकार दूसरे शिल्पों का लाभ व्यक्ति अपने इसी जन्म में प्राप्त करता है, क्या श्रामण्य जीवन का लाभ भी मनुष्य इसी जन्म में प्राप्त कर सकता है?’ मक्खलि गोसाल जवाब में कहते हैं, ‘घटनाएं स्वतः घटती हैं। उनका न तो कोई कारण होता है, न ही कोई पूर्व निर्धारित शर्त। उनके क्लेश और शुद्धि का कोई हेतु नहीं है। प्रत्यय भी नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के सत्व क्लेश और शुद्धि प्राप्त करते हैं। न तो कोई बल है, न ही वीर्य, न ही पराक्रम। सभी भूत जगत, प्राणिमात्र आदि परवश और नियति के अधीन हैं। निर्बल, निर्वीर्य भाग्य और संयोग के फेर से सब छह जातियों में उत्पन्न हो सुख-दुख का भोग करते हैं। संसार में सुख और दुख बराबर हैं। घटना-बढऩा, उठना-गिरना, उत्कर्ष-अपकर्ष जैसा कुछ नहीं होता। जैसे सूत की गेंद फेंकने पर उछलकर गिरती है और फिर शांत हो जाती है। वैसे ही ज्ञानी और मूर्ख सांसारिक कर्मों से गुजरते हुए अपने दुख का अंत करते रहते हैं।’

मज्झिम निकाय के अनुसार आजीविकों का आचार था - ‘एक साथ भोजन करनेवाले युगल से, सगर्भा और दूधमूंहे बच्चे वाली स्त्री से आहार नहीं ग्रहण करते थे। जहां आहार कम हो और घर के बाहर कूत्ता भूखा खड़ा हो, वहां से भी आहार नहीं लेते थे। हमेशा दो घर, तीन घर या सात घर छोड़कर भिक्षा ग्रहण किया करते थे।

‘पाणिनी ने 3 तरह के दार्शनिकों की चर्चा की है- आस्तिक, नास्तिक (नत्थिक दिट्ठि) और दिष्टिवादी (दैष्टिक, नीयतिवादी-प्रकृतिवादी)। मक्खलि गोसाल दिष्टिवादी थे।’ उनका दर्शन ‘दिट्ठी’ था। इस दिट्ठी के आठ चरम थे- ‘1. चरम पान 2. चरम गीत 3. चरम नृत्य 4. चरम अंजलि (अंजली चम्म-हाथ जोड़कर अभिवादन करना) 5. चरम पुष्कल-संवर्त्त महामेघ 6. चरम संचनक गंधहस्ती 7. चरम महाशिला कंटक महासंग्राम 8. मैं इस महासर्पिणी काल के 24 तीर्थंकरों में चरम तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध होऊंगा यानी सब दुःखों का अंत करूंगा।'

भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ ने आजीवक दर्शन के बारे में कई प्रमाणों के आधार पर लिखा है-"अन्य प्रमाण से भी इंगित होता है कि पाणिनि को मस्करी के आजीवक दर्शन का परिचय था। (अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः सूत्र में, ४/४/६०) आस्तिक, नास्तिक, दैष्टिक तीन प्रकार के दार्शनिकों का उल्लेख है। आस्तिक वे थे जिन्हें बौद्ध ग्रंथों में इस्सर करणवादी कहा गया है, जो यह मानते थे कि यह जगतु ईश्वर की रचना है। (अयं लोको इस्सर निमित्तो)। पाली ग्रन्थों के नत्थिक दिठि दार्शनिक पाणिनि के नास्तिक थे। इसमें केशकम्बली के नत्थिक दिठि अनुयायी प्रधान थे। (इतो परलोक गतं नाम नत्थि अयं लोको उच्छिज्जति, जातक ५/२३६) । यही लोकायत दृष्टिकोण था जिसे कठ उपनिषद् में कहा है-अयं लोको न परः इति मानी। पाणिनि के तीसरे दार्शनिक दैष्टिक या मक्खलि के नियतिवादी लोग थे जो पुरुषार्थ या कर्म का खंडन करके दैव की ही स्थापना करते थे।" 

जैनागम भगवती सुत्र के अनुसार आजीवक श्रमण ‘माता-पिता की सेवा करते। गूलर, बड़, बेर, अंजीर एवं पिलंखू फल (पिलखन, पाकड़) का सेवन नहीं करते। बैलों को लांछित नहीं करते। उनके नाक-कान का छेदन नहीं करते और ऐसा कोई व्यापार नहीं करते जिससे जीवों की हिंसा हो।’

आजीविकों का नियतिवाद क्या भाग्यवाद है?
इतिहासकारों ने आजीविकों के दर्शन और इतिहास पर बात करते हुए हमेशा यह कहा है कि आजीवक कौन थे? उनका दर्शन क्या था? यह सब द्वितीयक और विरोधी स्रोतों पर आधारित है। आजीविकों के बारे में हमारे पास प्राथमिक सा्रेत की जानकारी बिल्कुल नहीं है। इसलिए जैन-बौद्ध ग्रंथों के आधार पर आजीविकों के दर्शन को ‘नियतिवाद’ ‘अकर्मण्यवाद’ या ‘भाग्यवाद’ मान लेना गंभीर भूल होगी। आजीविक लोग अपनी जीविका या पेशा करते हुए श्रमण बने हुए थे इसलिए उन्हें किसी भी सूरत में ‘कर्म’ का विरोधी नहीं कहा जा सकता। मध्यकाल के वे सभी नास्तिक संत, जैसे कबीर व रैदास, अपना जातिगत पेशा करते हुए ही अनिश्वरवाद का अलख जगाए हुए थे। चार्वाक भी इसी नास्तिकवादी और भौतिकवादी परंपरा के थे। अतः नियतिवाद भाग्यवाद नहीं है बल्कि वह प्रकृतिवाद है जिसे आदिवासियों के बीच आज भी देखा जा सकता है। आदिवासी दर्शन परंपरा यह मानता है कि सबकुछ प्रकृति-सृष्टि के अधीन है। मनुष्य अपने पराक्रम से उसमें कोई हेर-फेर करने की क्षमता नहीं रखता है। आदिवासी दर्शन की समझ नहीं रखने के कारण दर्शन और इतिहास के अध्येता आजीविकों के दर्शन को नियतिवाद मान बैठे।

वर्तमान में अनास्तिकता - 
वर्तमान में शेष विश्व की भांति भारत में लोगों की धर्म के प्रति दिलचस्पी भी घट रही है। भारत की जनगणना 2011 के अनुसार, 99.76% भारतीय धार्मिक हैं जबकि 0.24% ने अपनी धार्मिक पहचान नहीं दी। 2012 के विन-गैलप ग्लोबल इंडेक्स ऑफ रिलीजन एंड नाथिज़्म रिपोर्ट के अनुसार 81% भारतीय धार्मिक थे, 13% धार्मिक नहीं थे, 3% नास्तिकों थे, और 3% का कोई जवाब नहीं था।

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