सनातन धर्म (अरण्य संस्कृति)
गायत्री मंत्र
ॐ भूर्भुर्वह तत्स्यवितुरवन्यम।
भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनाह प्रचोदयात।।
देवता एवं उनके वाहन -
अग्नि - राम
अयप्पा - बाघ,
भैरव (शिव) - कुत्ता,
ब्रह्मा (निर्माता) - हंस,
बृहस्पति - हाथी,
कैमुंडा ( देवी ) - उल्लू,
कैंडी (देवी) - छिपकली,
चंद्रा (चंद्रमा) - मृग, दस घोड़े,
दुर्गा - शेर, बाघ,
गणेश - चूहा , चूहा,
गंगा (नदी) - मगरमच्छ, मछली,
इंद्र - हाथी ( ऐरावत ) ), कुत्ता ( सरमा ), घोड़ा (उच्चैश्रवा),
जगद्धात्री - बाघ,
काम (प्रेम) - तोता, मगरमच्छ,
कामाख्या (देवी) - मुर्गा,
कार्तिकेय (मुरुगा) - मोर, मुर्गा
केतु - बाज
कुबेर (धन) - नेवला
लक्ष्मी (समृद्धि) - हाथी, उल्लू, मोर
मनसा - हाथी, सांप
पूषन - बकरी
राहु - सिंह
रति - कबूतर
सरस्वती - हंस, मोर
शनि - कौआ, गिद्ध
षष्ठी - बिल्ली
शीतला - गधा
शुक्र - मगरमच्छ
शिव - बैल
यमुना (नदी) - कछुआ
सूर्य - 7 घोड़े
उषा (भोर) - 7 गाय
वरुण - मगरमच्छ, कछुआ, मछली
वायु - मृग
विष्णु - ईगल, सांप
विश्वकर्मा - हाथी
यम - भैंस
शब्द सनातन व हिन्दू में अंतर :-
मैने इस लेख में सनातन शब्द ही काम में लिया है जिस का कारण यहां स्पष्ट करना आवश्यक है। आज की पीढ़ी को धर्मों के नाम व उनकी व्युत्पत्ति के संबंध में जानकारी होना अत्यावश्यक है।
सनातन धर्म के समकक्ष एक शब्द प्रचलन में है हिन्दू धर्म वास्तव में हिन्दू शब्द की उत्पत्ति 720 के आस-पास की है। 636 में फारस,अरब व तुर्की से लोग शासन करने की नीयत से भारत आने शुरू हुये। 720 में मोहम्मद बिन कासिम भारत आया व मुल्तान पर आक्रमण किया। जब वो यहाँ आया तो उसकी व उसकी फ़ौज़ की स्वयं की भाषा थी जो स्थानीय लोगों की भाषा नहीं समझ रहे थे न ही उनकी भाषा कोई स्थानीय समझ रहा था। अरब के लोग समान्यतः स को है बोलते थे। जिस क्षेत्र में अरब आये उसका नाम सिंधु क्षेत्र था। (सिंधु नदी क्षेत्र)। आज भी गुजरात, राजस्थान, पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों में स को है व च को स बोलते हैं जैसे सुरेश को हुरेश,शाम को हाम, सड़क को हड़क, चोर को शोर,चाय को शाय, चार को शार बोलते हैं वैसे ही सिंधु को हिन्दू, सिंधी को हिंदी, सिंध को हिन्द। जैसे सिंध महासागर अब हिन्द महासागर बना वैसे ही इस क्षेत्र को सिन्धुस्तान को हिंदुस्तान कहा गया। इस विवरणानुसार इस क्षेत्र का रहने वाला,वास करने वाला हिन्दू हुआ चाहे उस की धार्मिक मान्यता कोई भी हो।इसलिये हर धर्म को मानने वाला जो हिंदुस्तान में रहता है हिन्दू है।
जैसे भारत का रहने वाला हर व्यक्ति भारतीय है उसी प्रकार से हर हिदुस्तानी हिन्दू है।
मैं भी हिन्दू हूँ पर मेरी धार्मिक मान्यता इस्लाम है।इसलिये हिन्दू धर्म नहीं राष्ट्रीयता है,संस्कृति है हर भारतीय की।
सनातन,मुस्लिम,ईसाई,पारसी,जैनी, सिक्ख,बोध या यहूदी पृथक धार्मिक मान्यता व रीति रिवाज के साथ सब हिन्दू है। अतः हिन्दू धर्म नहीं धर्म का नाम सनातन है।
सनातन धर्म में समय विभाजन व ज्योतिष:-
इस धर्म में समय को चार भागों में विभाजित किया जाता है।
1 सतयुग -ब्रह्मा, ऋषि मुनियों का काल
2 त्रेता युग - राम युग
3 द्वापर युग - कृष्ण युग
4 कलयुग - वर्तमान में संचालित (इसी युग में विष्णु का कल्कि अवतार होगा।
सनातन साहित्य में दर्शन के साथ साथ ज्योतिष को बहुत महत्व दिया गया है। ग्रह नक्षत्र व आकाशीय पिंडों की गति के अनुसार जन्मपत्री बनाई जाती है। जिस के आधार पर आगामी जीवन कैसा होगा की भविष्यवाणी की जाती है।
सनातन धर्म में जीव उत्पत्ति
सनातन धर्म में जीबो की उत्पत्ति चार प्रकार से मानी जाती है :-
1 जरायुज
2 अंडज
3 उद्दज
4 स्वेदज
सनातन धर्म में स्वर्ग-नरक :-
स्वर्ग - देवलोक
नरक - यातनाओं का स्थान
सनातन स्वर्ग-नरक में विश्वास करते हैं व कर्म के आधार पर (पाप-पुण्य) नरक-स्वर्ग की प्राप्ति की कामना करते हैं। कर्मफल के आधर पर स्वर्ग/नरक में स्थान मिलता है। स्वर्ग में अप्सराएं व विभिन्न सुख हैं वहीं नरक में नाना प्रकार की प्रताड़ना।
सनातन धर्म कर्मफल व पुनर्जन्म व मोक्ष :-
पुनर्जन्म अर्थात पुनः जन्म लेना। सनातन परंपरा के अनुसार 84 लाख योनियों से जन्म लेने के बाद मनुष्य जीवन मिलता है। व्यक्ति जब तक संसार व माया से अशक्ति रखेगा तब तक वह कर्मफल के अनुसार जीवन-मरण के जाल में अटका रहेगा। मोक्ष की प्राप्ति सम की स्थिति पाने पर ही की जा सकती है। मोक्ष प्राप्त कर व्यक्ति स्वर्ग के उच्चतम शिखर बैकुंठ पहुंच जाता है और आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है।
सनातन धर्म में युग पाप और आयु -
सनातन धर्म में सम्प्रदाय :-
1 शैव सम्प्रदाय :-
वो सनातनी जो ल शिव को सर्वोपरि समझते है। शिव ही सृष्टि का पालक,संहारक,व जन्मदाता है व ईश्वर है ऐसी मान्यता शैव सम्प्रदाय के मानने वालों की है। यहां यह बताना जरूरी है कि शंकर ( जो नंदी बैल, जटा मे गंगा ,गले में सांप) को देव मानते हैं, अर्थात शिव अलग है शंकर अलग।
शिव एक नाद व आदि रूप है जो निराकार है जबकि शंकर साकार है। शिव समस्त सृष्टि में व शंकर कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं।
अघोरी(श्मशान की सेवा करने वाले) नाथ, गोरक्ष नाथ सम्प्रदाय के लोग आदि शिव के उपासक हैं।
शिव उपासक शैव मांस,मदिरा का भी सेवन करते हैं। शैव अवतार वाद में विश्वास नहीं करते।
2 वैष्णव सम्प्रदाय :-
विष्णु (उपेंद्र) और उनके अवतारों को ईश्वर मानने वाले सनातन पंथी वैष्णव कहलाते हैं। वैष्णव वेदों के स्थान पर आगम मत को सर्वोपरी मानते है जिसके अनुसार विष्णु ही ईश्व है व सृष्टि में विष्णु तत्व ईश्वर रूप में विद्यमान है। जब-जब धरती पर पाप व अधर्म बढ़ता है विष्णु स्वयं अवतार ले कर उसका अंत करते हैं।
आदिनाथ,वाराह अवतार, श्री कृष्ण, श्री राम आदि को विष्णु के अवतार मानकर उनकी पूजा की जाती है। भारत (विशेष रूप से उत्तर भारत में) में वैष्णव मतावलम्बी अधिक है। वैष्णव मांस,मदिरा व अन्य वर्जित खाद्य का उपभोग नहीं करता। गिरी,पूरी,स्वामी,गोस्वामी आदि ठाकुर जी के रूप में विष्णु की पूजा करते हैं।
विष्णु इंद्र के भाई हैं जिनके 24 अवतार माने गये हैं। 23 अवतार हो चुके हैं
गुरु गोविंद सिंह ने दशम ग्रन्थ में विष्णु के 24 अवतारों के नाम इस प्रकार बताये हैं :-
1 सनकादि
2 पृथु
3 वराह (सुअर)
4 यज्ञ (सुयज्ञ)
5 कपिल (ऋषि)
6 दत्तात्रेय (ऋषि)
7 नर-नारायण
8 ऋषभदेव (जेन धर्म तीर्थंकर)
9 हयग्रीव
10 मत्स्य (मछली)
11 कूर्म (कछुआ)
12 धन्वन्तरि (ऋषि, स्वास्थ्य विज्ञान के लेखक)
13 मोहिनी
14 गजेन्द्र- (मोक्षदाता)
15 नृसिंह (आधा इंसान-आधा सिंह)
16 वामन (बोना कद)
17 हंस
18 परशुराम - सृष्टि को क्षत्रिय विहीन करने वाले गुस्सेल ब्राह्मण
19 राम
नाम - राम
उपनाम -
1 मर्यादा पुरुषोत्तम
2 राजा राम
पिता - दशरथ
माता - कौशल्या
जन्मस्थान - अयोध्या
शांत स्थान - सरयू नदी किनारे
वंश -सूर्यवंश
कुल - रघुकुल
पत्नी - सीता (जानकी)
सन्तान -
1 लव
2 कुश
गुरु- महर्षि वशिष्ठ
युग - त्रेता
विशेष -
(1) 14 साल का बनवास
(2) बाली वध
(3) रावण वध
(4) दीपावली (14 वर्ष बाद घर लौटने पर खुशी)
(5) राम राज्य - पूरे राज्य में सुख शांति व समृद्धि
(6) हनुमान जी के परम मित्र
वर्णन -
1 महर्षि बाल्मीकि कृत रामायण
2 तुलसीदास कृत राम चरित मानस(सोहलवीं सदी)
20 वेदव्यास (ऋषि, महाभारत लेखक)
21 नारद(मुनि जो सूचनाएं एक लोक से दूसरे लोक में देते हैं)
22 कृष्ण :-
नाम - केशव
उपनाम -
1 कृष्ण (कला रंग)
2 नटवर -नगर
3 यशोदा नन्दन
4 गजोधर
5 कान्हा(कन्हैया)
6 गोपाल
7 रास रचैया
8 नन्दलाल
पिता - वासुदेव
माता - देवकी
जन्म - द्वारिका (मामा कंश द्वारा मा देवकी व पिता वासुदेव को आकाशवाणी (देवकी का आठवां पुत्र कंश का संहारक होगा) से भयभीत हो कर कारागृह में डाल देता है, वही कृष्ण का जन्म होता है जिसे वासुदेव (चमत्कारी रूप में) नँद गांव में मा यशोदा के पास छोड़ आते हैं जहाँ कृष्ण बड़े होते हैं। बड़े हो कर कंश का वध करते हैं)
भाई - बलराम (बलदाऊ)
पत्नी - सुमित्रा
वंश -यदुवंश
विशेष
1 माखन का शौक
2 बांसुरी वादन
3 सुदर्शन चक्र
4 पांडवो के पक्ष में युद्ध (महाभारत)
5 मामा कंश का वध
6 डिप्लोमेटिक पेरसोनोलिटी
वर्णन -
1 महा भारत
2 श्रीमद्भागवत गीता
23 वेंकटेश्वर
24 कलकी अवतार - अभी यह शेष है जो कलयुग में होना माना जाता है।
कृष्ण को ठाकुर जी के रूप में भी पूजते हैं वो गिरी,पूरी,गुसाईं,स्वामी,गोस्वामी कहलाते हैं।
3 शाक्त सम्प्रदाय :-
वे सनातन पंथी जो महा काली, महा लक्ष्मी और महा सरस्वती के रुप मे नवकोटी दुर्गा को इष्ट देवता के रूप में पूजते हैं व इन तीन देवियों के नो रूपों की आराधना करते हैं शाक्त सम्प्रदाय से हैं।
शाक्त स्वयं को वेदोक्त तो मानते हैं पर शैव एवं वैष्णव से खुद को श्रेष्ठ समझते हैं।
उनके मतानुसार त्रिदेवी ही सृष्टि कारिणी है।
4 सूर्य जगत साक्षी सम्प्रदाय :-
समस्त सृष्टि का निर्माण व पालन सूर्य देव (आदित्य) द्वारा ही किया जा रहा है। सूर्य व उनके विभिन्न अवतारों को ईश्वर रूप में मानते हैं। जगत साक्षी सम्प्रदाय के अनुसार चिरस्थाई, स्थावर और जंगम आत्मा सूर्य ही है।
5 गाणपत्य सम्प्रदाय :-
गणपत्य सम्प्रदाय के अनुसार गणेश ईश्वर ही ईश्वर है जिसकी पूजा स्वयं शिव ने की है। लम्बोदर की पूजा से ही रिद्धि-सिद्धि व लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
6 आर्य समाज सम्प्रदाय : -
उन्नीसवीं शताब्दी में आर्य समाज की स्थापना दयानन्द सरस्वती ने की थी। आर्य निराकार ईश्वर के उपासक व मूर्ति पूजा के विरुद्ध हैं। वेदों द्वारा बताये गये रास्ते पर व्हलने का आह्वान करते हैं। आर्यों के अनुसार वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेद सृष्टि में अग्नि, वायु, आदित्य तथा अङ्गिरा ऋषियों के अन्तस में उत्पन्न हुआ जो अंतिम प्रमाण हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों की ओर लौटो का संदेश दिया।
7 - कबीरपंथी
8 - रैदासी
9 - दादूपंथी
10 - विश्नोई
11 - कौमार
आदि कई सम्प्रदाय सनातन धर्म में कार्यरत हैं।
(वर्तमान मे सभी अन्य सम्प्रदाय लगभग गौण हैं सिर्फ वैष्णव सम्प्रदाय ही दृष्टिगोचर है।)
सनातन (आर्य) धर्म साहित्य :-
1 वेद :- (वेदों में किसी मत,धर्म,सम्प्रदाय की विवेचना नहीं है, वे केवल ज्ञान के भंडार हैं)।
वेद (आम्नाय, अपौरुषेय, श्रुति,संहिता)
सनातन (आर्य) साहित्य को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है :-
1 श्रुति (सुनकर प्राप्त ज्ञान,वेद)
2 स्मृति (सुनकर प्राप्त ज्ञान से प्राप्त ज्ञान)
भारतवर्ष के सबसे प्राचीन साहित्य वेद सनातन धर्म के मूल ग्रन्थ हैं । इनमें सनातन वर्णाश्रम व मोक्ष से संबंधित वर्णन है। सनातन साहित्य की भाषा वैदिक संस्कृत है। वेदों की उत्पत्ति आर्य युग मे हुई। लिपि के आविष्कार से पहले यह मौखिक संचरण द्वारा प्रसारित व संरक्षित रहे।बौद्ध धर्म के आगमन से लगभग 5000 वर्ष पूर्व लेखन साहित्य काल शुरू होता है जो 600 इस्वी पूर्व तक पूर्ण विकसित हो चुका था। मौर्य काल में गृहसूत्र, धर्मसूत्र और वेदांगों, संस्कृत व्याकरण हेतु पाणिनी ने अष्टाध्यायी,चंद्रगुप्त के प्रधानमन्त्री चाणक्य (कौटिल्य) ने अर्थशास्त्र ,कात्यायन और पतञ्जलि ने वेदांग लिखे। वैदिक काल में ग्रन्थ बर्च की छाल या ताड़-पत्रों पर लिखे जाते थे जिन्हें पाण्डुलिपि कहते हैं।
वेद शब्द संस्कृत के विद् से बना है जिसका अर्थ है विद्या/ज्ञान। इनकी रचना किस ने की यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका। सनातन धर्म की मान्यता है कि ईश्वर ने चार महर्षि
1 अग्नि (आग)
2 वायु (हवा)
3 आदित्य (सूर्य)
4 अंगिरा (भूमि)
की सृष्टि कर उन्हे चारों वेदों का ज्ञान दिया महर्षियों द्वारा यह ज्ञान (श्रुति रूप, सुना कर) ब्रह्मा को व ब्रह्मा द्वारा सम्पूर्ण भारत में फैलाये गये। एक मान्यता के अनुसार गुरु ब्रह्मा ने पिप्लाद, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नाम के चार शिष्यों को क्रमशः ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद और अथर्ववेद की शिक्षा दी। इन महर्षियों के शिष्यों द्वारा अपने-अपने अधीन वेदों के प्रचार
1 वैदिक ग्रन्थ,
2 चरण, शाखा,
3 प्रतिशाखा और
4 अनुशाखा
के माध्यम से अनेक रूपों में संरक्षित किया।
दयानन्द सरस्वती के अनुसार वेदों का अवतरण काल वर्तमान सृष्टि के आरंभ के समय का माना है इस हिसाब से वेद को अवतरित हुये को एक करोड़ छियानवे लाख आठ हजार वर्ष हो गये। स्मृति वेदों का रचना काल 6000 वर्ष पूर्व (4000 इस्वी पूर्व) ताम्र युगीय काल माना गया है।
वेदों के मुख्य विषय हैं :-
पदार्थ में - देव,अग्नि,रूद्र,विष्णु,मारुत,सरस्वती
दर्शन में - ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान
लौकिक -अलौकिक में - जीव,ईश्वर, प्रकृति (मध्ययुग भाष्य (व्याख्य) में वेदों में वर्णित चरित्रों को मूर्ति रूपक आराध्य मां लिया गया पर राजा राम मोहन राय व दयानन्द सरस्वती ने इन में वर्णित चरित्र (विष्णु, ब्रह्मा, महेश,चन्द्र,आदित्य) को ईश्वर रूप व नाम माना है जो निराकार है। वैदिक परम्परा दो प्रकार की है : -
1 ब्रह्म परम्परा
2 आदित्य परम्परा
वेदों के अध्ययन से पूर्व :-
(क) छः अंग :-
1 शिक्षा - ध्वनियों का उच्चारण
2 कल्प - यज्ञ हेतु विधि सूत्र का ज्ञान
3 निरुक्त - शब्द-मूल, शब्दावली, और शब्द निरुक्त के विषय
4 व्याकरण - संधि, समास, उपमा, विभक्ति व वाक्य निर्माण का विवरण
5 छन्द - गायन या मंत्रोच्चारण के लिए आघात और लय का ज्ञान
6 ज्योतिष - समय,आकाशीय पिंडों (सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्रों) की गति और स्थिति का ज्ञान
(ख) वेदोपांग ( छः शास्त्र) :-
1 पूर्वमीमांसा,
2वैशेषिक,
3न्याय,
4योग,
5सांख्य, और
6 वेदांत
(ग) दस उपनिषद :-
1 ईश,
2 केन
3 कठ
4 प्रश्न
5 मुण्डक
6 मांडुक्य
7 ऐतरेय
8 तैतिरेय
9 छान्दोग्य
10 बृहदारण्यक
का अध्ययन आवश्यक इनके अध्ययन पश्चात वेदाध्ययन होता है। द्वापर युग की समाप्ति सभी वेद एक यजुर्वेद था जिसे अध्ययन में सरलता हेतु श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने यज्ञानुष्ठान को दृष्टि गत रख एक वेद के वेदत्रयी नामक ऋग्यजुसामके तीन व अंतिम रूप से चार भाग ऋग्यजुसामाथर्व में विभाजित किया गया। शास्त्रानुसार वेदों की 1031 शाखाओं में से वर्तमान में 12 शाखाओं के ही मूल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। ग्रन्थ सिर्फ 2 ही शाखाओं में उपलब्ध हैं:-
1 शाकल शाखा
2 शांखायन शाखा
वेदों के वाक्यों को छंद(श्लोक) कहते हैं।
सनातन धर्म यज्ञ में :-
1 - ऋग्वेद का होता (देवों का आह्नान कर्ता)
2 - सामवेद का उद्गाता (सामगान कर्ता)
3 - यजुर्वेद का अध्वर्यु (देव कोटी कर्म वितान)
4 - अथर्ववेद का ब्रह्म - (यज्ञ कर्म नियंत्रण कर्ता)
वेद के चार अवयव :-
1 मन्त्र - यज्ञानुष्ठान में प्रयोगपरक मन्त्र का व्याख्यायुक्त गद्यभाग में कर्मकाण्ड की विवेचना।
2 ब्राह्मण - विवेचनायुक्त भाग अर्थ के पीछे के उद्देश्य की विवेचना।
आरण्यक - यज्ञानुष्ठान के आध्यात्मपरक
3 आरण्यक
4 उपनिषद - ब्रह्म माया व परमेश्वर, अविद्या जीवात्मा और जगत के स्वभाव और सम्बन्ध का दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन।
आज जो वेद हम पढ़ रहे हैं वे स्मृति ग्रन्थ हैं जिन की संख्या चार है :-
1 ऋग्वेद (पद्य)
2 सामवेद (गद्य)
3 यजुर्वेद (गेय)
4 अथर्ववेद (स्वास्थ्य)
A ऋग्वेद :- (निश्चित अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम वाले वेद-मन्त्रों को ऋक् कहते हैं, सन्धि ऋक+वेद=ऋग्वेद)
1- प्रथम वेद
2- मन्त्रों की संख्या - 10527
3 - मूल विषय - ज्ञान (देवताओं का वर्णन व ईश्वर की स्तुति)
4 - शाखायें - 21 (वर्तमान में एक ही शाखा)
5 - इसको 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में,सूक्त को ऋचाओं (मंत्रों) में बांटा है।
6 अध्याय 64 (आठ-आठ अध्यायों से मिल कर एक अष्टक बनाया गया है)।
7 - कुल वर्ग - 2024
B यजुर्वेद :- (जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं है वे गद्यात्मक मन्त्र यजुः कहलाते हैं, यजु+वेद = यजुर्वेद)
1 - दूसरा वेद
2 - मन्त्रों की संख्या -1975 (गद्यात्मक)
3 -मूल विषय - यज्ञ व कर्मकांड (समर्पण)
4 - शाखायें - 101 (वर्तमान में काठक,कपिष्ठल, मैत्रायणी,तैत्तिरीय व वाजसनेयी (माध्यन्दिन) पांच ही क्रियाशील)
5 भेद -
1 कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता के रूप में संकलन- महर्षि वेदव्यास द्वारा)
2 शुक्ल यजुर्वेद (40 अध्याय व 15 शाखाओं में याज्ञवल्क्य द्वारा संकलित)
C सामवेद :- ( गेय मन्त्र साम कहलाते हैं। साम+वेद=सामवेद)
1 - तीसरा वेद
2 - मन्त्रों की संख्या - 1875 (पद्यात्मक)
3 - मूल विषय - उपासना व संगीत
4 - शाखायें - 1001 (वर्तमान में तीन कोथुमीय, जैमिनीय और राणायनीय)।
5 भाग -
1 पूर्वार्चिक (इसके छः पाठों में चार काण्ड 1 आग्नेय काण्ड 2 ऐन्द्र काण्ड, 3 पवमान काण्ड और 4 आरण्य काण्ड। चारों काण्डों में कुल 640 मंत्र हैं में महानाम्न्यार्चिक के 10 मंत्र मिलाकर पूर्वार्चिक में कुल 650 मंत्र हैं।)
2 उत्तरार्चिक - उत्तरार्चिक को 21 अध्यायों में बांटा गया। नौ प्रपाठक हैं। इसमें कुल 1225 मंत्र हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल 1875 मंत्र हैं। इसमें अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से लिये गये हैं। इसे उपासना का प्रवर्तक भी कहा जाता है।
D अथर्ववेद (ब्रह्म वेद) :-
(गुरु ब्रह्मा जी से रुष्ट हो कर महर्षि याज्ञवल्क्य ने गुरु आदित्य से चार वेद सीखे जिन्हें अपनी स्मृति मे वेदत्रयी व पुराणों के आगे अथर्व वेद को सम्मिलित किया,अथर्वण और आंगिरस ऋषि के मंत्र सम्मिलित।
1 चतुर्थ वेद
2 कुल मन्त्रों की संख्या - 5977 (पद्यात्मक)
3 मूल विषय - स्वास्थ्य,धर्म,गणित,विज्ञान, आयुर्वेद,समाज-शास्त्र,कृषि विज्ञान व मोक्ष
4 - शाखायें - 9
5 भाग - 20 (कांड)
6 शाखायें -
1 शौणिक
2 पिप्पलाद
कात्यापन के अनुसार उपवेद :-
1 स्थापत्यवेद - वास्तु कला
2 धनुर्वेद - युद्ध कला
3 गन्धर्वेद - गायन कला
4 आयुर्वेद - स्वास्थ्य विज्ञान
वेदों के भाष्य (अनुवाद) व भाष्यकार :-
वेद शिव - से ब्रह्मा से - मरीचि से - अत्रि से - कश्यप से - जैमिनी,याज्ञवल्क्य,वशिष्ठ,मनु पराशर,कणाद,पतंजलि, वात्स्यायन, कपिल, कणाद (तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम् ,बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे) वेदव्यास (महाभारत) आदि मुनियों को वेदों का ज्ञान हुआ जिन्होंने (ऋषियों ने) वेद भाष्य लिखे।
आचार्य सायण वेदों के नामी भाष्यकार हुये हैं ने वेदों के आअनुवाद में देवी-देवता,इतिहास और कथा लेखन किया जिसके आधार पर महीधर व उव्वट ने भाष्य ने लिखे। बौद्ध व जेन धर्म के उदय ने सनातन साहित्य को लगभग भूल दिया।
सत्रहवीं सदी में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के भाई दारा शिकोह ने कुछ उपनिषदों का फ़ारसी में (सिर्र ए अकबर महान रहस्य) अनुवाद किया जो पहले फ्रांसिसी और बाद में अन्य भाषाओं में अनूदित हुईं।
अठारहवी-उन्नीसवीं सदी में राजा राममोहन राय (ब्रह्म समाज) दयानन्द सरस्वती (आर्य समाज) ने वेदों की ओर लौटो का नारा दे कर इन्हें पुनर्जीवित किया। बालकृष्ण दीक्षित ने सन् 1877 ई० में कोलकाता से सामवेद का भाष्य, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ओरायन और द आर्कटिक होम इन वेदाज़ नामक दो ग्रंथ,श्रीपद दामोदर सातवलेकर ने सतारा में चारों वेदों की संहिता का तिलक विद्या पीठ ने पुणे में ऋग्वेद का पाँच प्रकाशनों में, शंकर पाण्डुरंग ने सायण भाष्य के अलावा अथर्ववेद का चार भागों में प्रकाशन करवाया।
वेद व उनके स्वर भेद :-
कुल 7 स्वर हैं जिन्हें आपस में मिलने से स्वरों में भेद उत्पन्न होता है जिससे स्वर चिह्नों में बादलाव आता है। देवनागरी लिपि में वेद की संहिताओं में अक्षरों पर खड़ी या आड़ी रेखा द्वारा उच्च,मध्यम, या मन्द संगीत स्वर संकेत दिये जाते हैं जिन्हें
1 उदात्त -(उदात्त -उदात्ततर)
2 अनुदात्त - (अनुदात्त-अनुदात्ततर) ((अक्षर के नीचे आड़ी रेखा खींच कर उच्चारण संकेत)
3 स्वारित - (स्वरित-स्वरितोदात्त)((अक्षर के ऊपर खड़ी रेखा खींच कर उच्चारण संकेत)
4 श्रुति - उदात्त,अनुदात्त व स्वारित के मेल का स्वर।
वेदों के अनुसार आश्रम व्यवस्था :-
मानव जीवन को औसत 100 वर्ष लगभग मानकर चार आश्रम बताये गये हैं प्रत्येक 25 वर्ष की आयु तक :-
1 ब्रह्मचर्य आश्रम (0 से 25) (05 से 25 वर्ष तक गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करना।)
2 गृहस्थ आश्रम (26 से 50 वर्ष आयु में विवाह व सन्तान उत्पत्ति)
3 सन्यास आश्रम (गृहस्थ आश्रम से विरक्त हो कर अध्यात्म व ईश्वर की सेवा में लगना)
4 वानप्रस्थ आश्रम - सब कुछ छोड़ कर मृत्यु तक वनों में रहकर तपस्या करना।
वेदों के अनुसार वर्ण व्यवस्था :-
1 ब्राह्मण:-
सर्वोच्च वर्ग जिस का कार्य ज्ञान लेना,ज्ञान देने, भिक्षा लेना व यज्ञ करवाना।
2 क्षत्रिय :-
रक्षा करना ,युद्ध लड़ना (राजकार्य,सेना कार्य)
3 वैश्य :-
व्यापार कर सेवा करना।
4 शुद्र :-
निम्नतम वर्ग जिस का कार्य उपरोक्त तीनो वर्ग की सेवा करना। शुद्र की छाया उक्त तीनों वर्ग के लोगों पर पड़ना वर्जित होता है। यह बस्ती से बाहर रहते थे जिनको बस्ती में आने पर पीठ पर झाड़ू व गले में हांडी(थूकने के लिये) रखनी होती थी। शुद्र महिलाओं के लिये स्तन ढकना,गहने पहनना व मुख्य बस्ती में चप्पल पहन कर जाना वर्जित था। मुख्य बात यह थी कि शुद्र व महिलाओं के लिये शिक्षा वर्जित थी (कुछ हृषियों की पत्नियों ने शिक्षा ग्रहण की थी।)
"ढोल गंवार पशु शुद्र और नारी
यह सब ताड़न के अधिकारी।"
तुलसीदास जी
"शुद्र के कान में यदि वेदों का श्लोक चला जाये तो उनके कानों में शीशा भर देना चाहिये।"
मनुस्मृति
शूद्रों के सम्बन्ध में श्रुति का यह स्पष्ट निर्णय है कि वे मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं परन्तु उपनिषदों ने शूद्रों के ऊपर से यह बन्धन हटा दिया एवं उनके मोक्ष प्राप्ति की मान्यता स्वीकार कर ली गई।
जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।
मनुस्मृति
अर्थात मनुष्य जन्म से शूद्र पैदा होते हैं जो योग्यता व कर्म के आधार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है।
वेदों को याद करने की बिधियाँ :-
वेदों को याद करने के लिये लगभग ग्यारह तरह से उनका पाठ करने की प्रथा थी। याद करने के लिये पाठ की कुछ प्रमुख विधियाँ इस प्रकार थीं-
1 जटा-पाठ
2 ध्वजा-पाठ
3 घन-पाठ
सनातन धर्म में उपनिषद :- (ज्ञान से ब्रह्मा की प्राप्ति संभव)
उपनिषद शब्द का अर्थ है समीप बैठना जो उप+नि (उपसर्ग)+सद(जानना) = पास बैठ कर जानना। इनका मूल विषय आत्म विद्या/आत्म ज्ञान है। सनातन दर्शन व चिन्तन का मूल स्रोत उपनिषद है। कर्मकांड को अवर की परिभाषा देने वाले परमेश्वर, परमात्मा, ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव व सम्बन्ध दार्शनिक ज्ञान सँजोये उपनिषद श्रुति ग्रन्थ के अंतर्गत आते हैं। जिनकी कुल संख्या लगभग 108 +(4 अन्य) =112 है पर मुख्य उपनिषद 13 ही हैं जो किसी न किसी वेद से जुड़े हैं। दृष्टि से ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग, विद्या और अविद्या, संभूति और असंभूति के समन्वय का उपदेश हैं। उपनिषद एकात्मवाद का प्रबल समर्थन करते हैं। उपनिषदों में ज्ञान को अधिक महत्व दिया गया है। ज्ञान ही स्थूल (जगत और पदार्थ) से सूक्ष्म (मन और आत्मा) की ओर ले जाता है। श्रीमत भगवत गीता, ब्रह्म सूत्र व उपनिषदों का मेल वेदान्त की प्रस्थान त्रयी कहलाती है।
उपनिषद दर्शन की शाखाओं को वेदान्त दर्शन या अद्वैत दर्शन मुख्य है। उपनिषद जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर व ज्ञान चर्चाओं का सार,अज्ञात की खोज के प्रयास, ईश्वर (निराकार,निर्विकार, असीम, अपार) को अन्तर दृष्टि से समझने का साधन हैं।
वेदों के कठिन सन्दर्भों की व्याख्या के उद्देश्य से उपनिषदों में देव-दानव, ऋषि-राजा, पशु-पक्षी, पृथ्वी, प्रकृति, चर-अचर, सभी को माध्यम बना कर रोचक और प्रेरणादायक कथाओं की रचना की गयी है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अग्नि, सूर्य, इन्द्र आदि देवताओं से लेकर नदी, समुद्र, पर्वत, वृक्ष तक उपनिषद के कथा पात्र हैं। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चितता नहीं है पर उपनिषदों का काल 3000 ईसा पूर्व से 3500 ईसा पूर्व माना गया है।
किस उपनिषद का किस वेद से संबन्ध है इस आधार पर 108 उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
(1) ऋग्वेदीय -10 उपनिषद
(2) शुक्ल यजुर्वेदीय -19 उपनिषद
(3) कृष्ण यजुर्वेदीय - 32 उपनिषद
(4) सामवेदीय - 16 उपनिषद
(5) अथर्ववेदीय - 31 उपनिषद
चार अन्य उपनिषद
1 नारायण (अवान्तर गद्य)
2 नृसिंह
3 रामतापनी
4 गोपाल
उपनिषद के प्रकार :-
उपनिषद दो प्रकार के होते हैं
1 तांत्रिक उपनिषद ( संख्या 95)(देव विषयक) (अथ वर्ण-कर्म कांडी)
2 अतांत्रिक उपनिषद (संख्या 13)
अतांत्रिक उपनिषद :-
(1) ईश,(पद्य)(प्राचीनतम)
(2) ऐतरेय (गद्य) (प्राचीनतम)
(3) कठ (पद्य) (प्राचीन)
(4) केन (गद्य) (प्राचीन)
(5) छान्दोग्य (गद्य) (प्राचीनतम)
(6) प्रश्न (अवान्तर गद्य) (प्राचीनतम)
(7) तैत्तिरीय (गद्य) (प्राचीनतम)
(8) बृहदारण्यक (गद्य) (प्राचीनतम)
(9) मांडूक्य (अवान्तर गद्य) (प्राचीनतम)
(10) मुण्डक (पद्य) (प्राचीनतम)
(11) श्वेताश्वतर (पद्य) (अवान्तरकालीन)
(12) कौषीतकि (गद्य) (अवान्तरकालीन)
(13) मैत्रायणी (पद्य) (अवान्तरकालीन)
सनातन धर्म में आरण्यक :-
आरण्यक वेदों का गद्य खण्ड है जो वेद वाङ्मय का तीसरा हिस्सा है और वैदिक संहिताओं के भाष्यों का दूसरा स्तर। कर्मकांड के स्थान पर आरण्यक में ज्ञान व दर्शन का ही वर्णन है।
सनातन धर्म मे स्मृति :-
इनके अलावा अन्य ग्रंथों को स्मृति माना गया है जिनका अर्थ है मनुष्यों के स्मरण और बुद्धि से बने ग्रंथ जो वस्तुतः श्रुति के ही मानवीय विवरण और व्याख्या माने जाते हैं। श्रुति और स्मृति में कोई भी विवाद होने पर श्रुति को ही मान्यता मिलती है, स्मृति को नहीं।
श्रुति में चार वेद ऋग्वेद,सामवेद,यजुर्वेद और अथर्ववेद आते हैं। हर वेद के चार भाग होते हैं
1 संहिता
2 ब्राह्मण ग्रन्थ
3 आरण्यक
4 उपनिषद
इनके अलावा बाकी सभी धर्मग्रन्थ स्मृति हैं।
स्मृति का शाब्दिक अर्थ है - याद किया हुआ। वेदों को समझना बहुत कठिन है और स्मृतियों में आसान कहानियाँ और नैतिक उपदेश हैं। इसकी सीमा में विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों—गीता, महाभारत, विष्णुसहस्रनाम की भी गणना की जाती है।
मनु ने श्रुति तथा स्मृति की महत्ता को समान ही माना है। स्मृतियों की रचना वेदों की रचना के बाद लगभग 500 ईसा पूर्व माना जाता है के पहले सामाजिक धर्म वेद एवं वैदिक व्यवहार व परम्पराओं पर आधारित था। आपस्तम्ब के अनुसार धर्म शास्त्रों की रचना लगभग 3500 वर्ष पूर्व अर्थात 1000 से अधिक ईपू.के बाद हुई।
ऋषियों द्वारा मौखिक ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाया जा रहा था अब स्मृतियों के माध्यम से संकलित इन परम्पराओं के पुस्तकी कृत किया जाने लगा जिसे स्मृति कहा गया।
यह वेदों से सरल, नियम, समय वतत्कालीन परिस्थितियों कर अनुसार थीं जिससे यह अधिक जन ग्राह्य एवं समाज के अनुकूल बने।
यदि कोई वेद में पूर्ण पारंगत हो स्मृति को घृणा की दृष्टि से देखता हो तो इक्कीस बार पशु योनि में उसका जन्म होगा।
वृहस्पति
वेद व स्मृति में विरोधाभास भी है जैसे दत्तक पुत्र की परम्परा का वेदों में जहाँ विरोध हैं वहीं स्मृतियों में इसकी स्वीकृति दी गई है।
सनातन धर्म की मुख्य स्मृतियाँ :-
1 मनुस्मृति
2 याज्ञवल्क्य स्मृति
3 अत्रि स्मृति
4 विष्णु स्मृति
5 हारीत स्मृति
6 औशनस स्मृति
7 अंगिरा स्मृति
8 यम स्मृति
9 कात्यायन स्मृति
10 बृहस्पति स्मृति
11 पराशर स्मृति
12 व्यास स्मृति
13 दक्ष स्मृति
14 गौतम स्मृति
15 वशिष्ठ स्मृति
16 आपस्तम्ब स्मृति
17 संवर्त स्मृति
18 शंख स्मृति
19 लिखित स्मृति
20 देवल स्मृति
21 शतातप स्मृति
मनुस्मृति :-
मनुस्मृति का अंग्रेज लेखक सर विलियम जोंस द्वारा 1776 संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद किया गया। इस आधार पर सनातन (हिन्दू) कानून बनाये गये। इसके 12 अध्यायों में 2964 श्लोक हैं। यह स्मृति वैयक्तिक आचरण और समाज रचना के लिए प्रेरणा स्त्रोत है। मानव जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति व आपसी सहयोग का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
यवन, शक, कंबोज, चीन आदि जातियों के नाम दर्ज होने के कारण अनुमान है कि यह स्मृति ईसा पूर्व दो सौ वर्ष पूर्व लिखी गई।
मनुस्मृति के अनुसार धर्म के 10 लक्षण हैं :-
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥
1 धैर्य
2 क्षमा
3 संयम
4 चोरी न करना
5 स्वच्छता
6 इन्द्रियों को वश में रखना
7 बुद्धि
8 विद्या
9 सत्य
10 क्रोध न करना
इसके 12 अध्यायों में सृष्टि की उत्पत्ति, संस्कार, नित्य, नैमित्तिक कर्म, आश्रम धर्म, वर्ण धर्म, राज धर्म व प्रायश्चित के विषयों पर लिखा गया है।
(1) जगत की उत्पत्ति
(2) संस्कार विधि, व्रत, उपचार
(3) स्नान, दाराघि गमन, विवाह लक्षण,यज्ञ, श्राद्ध
तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि।
तावद्भवति चांडाल: यावद् स्नानं न समाचरेत्
अर्थात तेल मालिश, चिता का धूंआ लगने पर, मिथुन (संभोग) व केश-मुण्डन के बाद व्यक्ति अपवित्र रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता।
(4) वृत्ति लक्षण,स्नातक व्रत
(5) भक्ष्या भक्ष्य, शौच, अशुद्धि, स्त्री धर्म
(6) गृहस्थ-वानप्रस्थ आश्रम,संन्यास,मोक्ष
(7) राजधर्म
राजा के गुण -राजा इन्द्र/ विद्युत के समान एश्वर्यकर्ता, पवन के समान सबके प्राणावत(प्रिय), हृदय की बात जानने वाला, यम के समान पक्षपात रहित न्यायधीश, सूर्य के समान न्याय, धर्म तथा विद्या का प्रकाश, अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाला, वरूण के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधने वाला, चन्द्र के समान श्रेष्ठ पुरूषों को आनन्द देने वाला तथा कुबेर के समान कोष भरने वाला होना चाहिए।
(राज्य के सात अंग)
(1) स्वामी (राजा की उत्पत्ति ईश्वर से हुई है)
(2) मंत्री,
(3) पुर (दुर्ग)
(4) राष्ट्र
(5) कोष
(6) दण्ड
(7) मित्र
मनु स्मृति में राजा के लिये मुख्य निर्देश निम्न हैं
1. राजा शस्त्र,धन,धान्य,सेना,जल से परिपूर्ण पर्वतीय दुर्ग में सुरक्षित निवास करे।
2. स्वजातीय एवं सर्व गुण सम्पन्न स्त्री से विवाह करे।
3. समय-समय पर यज्ञ आयोजन कर ब्राह्मणों को दान दे ।
4. ईमानदार एवं योग्य कर्मचारियों के द्वारा प्रजा से कर वसूली की जावे।
5. युद्ध के लिये तैयार रहै (युद्ध में मृत्यु से उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी)
6. राजकीय कार्यों हेतु अधिकारियों नियुक्त करे ।
7. उसकी नीति विस्तारवादी हो।
8. राजा को सैन्य बल व बहादुरी का प्रदर्शन करना चाहिये।
9. गोपनीयता रखना व मज़बूत गुप्तचर व्यवस्था रखनी चाहिये।
10. मंत्रियों (सचिव) को विश्वास में रखना। मंत्री बनाने हेतु ब्राह्मणों को विशेष महत्व हो क्योंकि ब्राह्मण ब्रह्मा का ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ पुत्र है।
11. सर्तक रहे, अत्यधिक विश्वास न करे व सब पर नज़र रखे।
12. राज्य की रक्षा व शत्रु के विनाश हेतु तत्पर।
13. कर्मियों के आचरण की जांच करते रहना व गलत होने पर पदच्युत करना।
14. मृदुभाषी हो।
15. आपातकाल में अतिरिक्त कर पाप नहीं है।
16. प्रजा के साथ संबंध पिता-पुत्र की तरह हों।
(8) कार्य, साक्षि प्रश्न विधान
(9) स्त्री पुंस धर्म, विभाग धर्म, धूत, कंटक शोधन, वैश्य शूद्र उपचार
(10) संकीर्ण जाति, आपद धर्म
(11) प्रायश्चित्त
(12) संसार गति, कर्म, कर्म गुणदोष, देश जाति, कुल धर्म, निश्रेयस।
सनातन साहित्य -पुराण :-
पुराण' का शाब्दिक अर्थ है पुराना या प्राचीन वृत्तान्त जिनकी रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गये। सनातन व जैन धर्म वाङ्मय में पुराण महत्वपूर्ण हैं। सनातन पुराणों के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा लगता है कि कई रचनाकारों ने कई शताब्दियों में इनकी रचना की है। इसके विपरीत जैन पुराण हैं। जैन पुराणों का रचनाकाल और रचनाकारों के नाम बताये जा सकते हैं। पुराण धर्म-सम्बन्धी आख्यान ग्रन्थ हैं जिन में जगत ,ऋषियों ,राजाओं के वृत्तान्त वर्णित हैं व सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का वर्णन है। पुराण वेदों के बाद के ग्रन्थ हैं जिनका काल ईसा से 600 वर्ष पूर्व से नवीं शताब्दी तक का माना जाता है। बिष्णु पुराण में गुप्त कालीन राजाओं के वर्णन हैं। वेदव्यास ने पुराण संहिता बना कर शिष्य लोमहर्षण भाट (सुत) (कथाकार) को सौंप दी। लोमहर्षण ने अपने छह शिष्य
1 सुमति
2 अग्निवर्चा
3 मित्रयु
4 शांशपायन
5 अकृतव्रण
6 सावर्णी
में से अकृतव्रण,सावर्णी व शांशपायन ने लोम हर्षण से पढ़ी हुई पुराण संहिता के आधार पर अपनी पृथक संहिता बनाई। वेदव्यास ने जैसे मंत्रों का संग्रह कर संहिताओं के विभाग किया उसी प्रकार पुराण का संग्रह कर पुराण संहिता का संकलन किया। उसी एक संहिता को लेकर सुत के चेलों के तीन और संहीतायें बनाई जिनके आधार पर अट्ठारह पुराण बने ऐसी मान्यता है।
लगभग सभी पुराण शैव, वैष्णव सौर पंथ में से किसी न किसी के पोषक हैं।
पुराण प्राचीन भक्ति-ग्रन्थों के रूप में महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। कुल अट्ठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप-पुण्य,धर्म- अधर्म, कर्म-अकर्म की गाथायें कही गई हैं। पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है।
इसमें ब्रह्माण्ड विद्या, देवी ,देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोक कथाएँ, तीर्थ यात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन भी है। प्राचीन कोष में पुराण के पाँच लक्षण माने गये हैं :-
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
1 सर्ग - पंचमहाभूत,इन्द्रियगण,बुद्धि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन।
2 प्रति सर्ग - ब्रह्मा दिस्थावरान्त संपूर्ण चर अचर जगत के निर्माण का वर्णन।
(3) वंश - क्षत्रियों के सूर्य व चन्द्र वंश का वर्णन।
(4) मन्वन्तर - मनु उनके पुत्र देवता, सप्तर्षि ,इन्द्र व अवतारों का वर्णन।
(5) वंश अनुचरित - हर वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन।
कर्मकाण्ड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) व ज्ञान से पुराणों के माध्यम से भक्ति काल शुरू हुआ जिससे बहुदेववाद और निर्गुण शक्ति के स्थान पर सगुण अवतारवाद या सगुण भक्ति को बढ़ावा मिला।
अठारह पुराण :- (कुछ स्थानों पर पुराणों की संख्या 21 बताई गई है पर वास्तविक संख्या 18 ही है)
1 ब्रह्म पुराण/आदिपुराण :-
कुल श्लोक 13737 अध्याय 245 सौर उपपुराण, मनु,देवता व मनु के वंश का वर्णन।
2 पद्म पुराण :-
कुल श्लोक 55000 कुल अध्याय 641,कुल पांच खण़्ड -(क) सृष्टिखण्ड (ख) भूमिखण्ड (ग) स्वर्गखण्ड (घ) पातालखण्ड व (ङ) उत्तरखण्ड। नैमिषारण्य में सूत उग्रश्रवा के प्रवचन, मूल विषय विष्णु भक्ति।
3 विष्णु पुराण:-
राजाओं की वंशावली, कुल खण्ड 6,अध्याय 123, श्लोक 23000 विष्णु के प्रवचन गरुड को विषय उत्तर भाग में विष्णु धर्मोत्तर वर्णन है।
4 शिव/वायु पुराण :-
कुल श्लोक 24000, राजाओं की वंशावली, (भिन्न मत से - शिव पुराण) इसमें 112 अध्याय, कुल खण्ड चार (क) प्रक्रियापाद (ख) उपोद्घात (ग) अनुषङ्गप (घ) उपसंहारपाद।
इसमें सृष्टि ,भूगोल,खगोल,युग,ऋषि व तीर्थ वर्णन के साथ-साथ राजवंश, ऋषिवंश,वेद शाखा,संगीत शास्त्र से शिव भक्ति का वर्णन है।
5 भागवत पुराण :-
कुल श्लोक 18000 ,राजाओं की वंशावली, भिन्न मत - देवीभागवत पुराण जिसमे कुल खण्ड 12, अध्याय 335, श्रीकृष्ण की भक्ति व देवी (शक्ति) का विस्तृत वर्णन हैं।
6 भविष्य पुराण :-
कुल श्लोक 14500 कुल खण्ड 2 (क) पूर्व खण्ड (ख)उत्तरखंड,कुल अध्याय 107 इसमे ष्णवों के उत्सवों और व्रतों का वर्णन है। पराशर ऋषि के मैत्रेय को प्रवचन।
7 नारद पुराण/बृहन्नारदीय/महापुराण :-
कुल श्लोक 25000, कुल अध्याय 207 मुख्य प्रवचन मोक्ष, धर्म, नक्षत्र, एवं कल्प, व्याकरण , निरुक्त, ज्योतिष, गृहविचार, मन्त्रसिद्धि,वर्ण आश्रम श्राद्ध, प्रायश्चित्त। प्रवचन नारद।
8 मार्कण्डेय पुराण :-
कुल श्लोक 9000, कुल अध्याय 138 में मार्कण्डय ऋषि के क्रौष्टुकि को गृहस्थ ,श्राद्ध ,दिन चर्या,नित्यकर्म,व्रत,उत्सव,अनुसूया पतिव्रता की कथा,योग,दुर्गा की महानता, इन्द्र, अग्नि, सूर्य के बारे में प्रवचन।
9 अग्नि पुराण :-
अग्नि ऋषी के वशिष्ठ को प्रवचन जिसमें कुल श्लोक 15000, कुल अध्याय 363 में विष्णु के अवतारों, शिवलिंग, दुर्गा, गणेश, सूर्य, प्राण प्रतिष्ठा, भूगोल, गणित, फलित-ज्योतिष, विवाह, मृत्यु, शकुन विद्या, वास्तु विद्या, दिन चर्या, नीति शास्त्र, युद्ध विद्या, धर्म शास्त्र, आयुर्वेद, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष निर्माण का वर्णन है।
10 ब्रह्मवैवर्त पुराण :-
कुल श्लोक 18000, कुल चार खण्ड हैं : (क) ब्रह्म, (ख) प्रकृति, (ग) गणेश तथा (घ) श्रीकृष्ण-जन्म, इसमें कुल 5 पर्व हैः–(क) ब्राह्म पर्व, (ख) विष्णु पर्व, (ग) शिव पर्व, (घ) सूर्य पर्व एवं (ङ) प्रति सर्ग पर्व, इसमें मुख्य विषय ब्राह्मण,आचार, वर्ण आश्रम व श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन है।
11 लिंग पुराण :-
कुल श्लोक 11000, इसमें शिव की उपासना व उसके 28 अवतारों की कथायें कुल 163 अध्याय में है। इसके ड्यो खंड (क) पूर्व व (ख) उत्तर है।
12 वाराह पुराण :-
(कुल श्लोक 24000,कुल 217 अध्याय हैं। जिसमें विष्णु के वराह-अवतार के प्रवचन हैं।
13 स्कन्द पुराण :-
(कुल श्लोक 81100, शिव के अपने पुत्र स्कन्द (कार्तिकेय,सुब्रह्मण्य) के नाम पर प्रवचन है। इसमें सात खण्ड - (क) माहेश्वर, (ख) वैष्णव, (ग) ब्रह्म, (घ) काशी, (ङ) अवन्ती, (रेवा), (च) नागर (ताप्ती) तथा (छ) प्रभास- कुल छः संहिताएँ (1) सनत्कुमार, (2) सूत,(3) शंकर, (4) वैष्णव, (5) ब्राह्म तथा (6) सौर
14 वामन पुराण :-
कुल श्लोक 10000, कुल अध्याय 95 चार संहितायें - (क) माहेश्वरी (ख) भागवती (ग) सौरी तथा (घ) गाणेश्वरी जिसमें विष्णु के वामन अवतार का वर्णन है।
15 कृर्म पुराण :-
कुल 95 अध्याय में श्लोक 17000 हैं में विष्णु के कूर्म अवतार का वर्णन है कि चार संहितायें - (क) ब्राह्मी (ख) भागवती (ग) सौरा तथा (घ) वैष्णवी
16 मत्स्य पुराण :-
291 अध्याय में कुल श्लोक 14000 ,राजाओं की वंशावली,जलप्रलय व कलियुग के राजाओं की सूची दी गई हैं।
17 गरुड पुराण :-
256 अध्याय में कुल श्लोक 19000 वैष्णव पुराण में गरुड के कश्यप को प्रवचन जिसमें विष्णु पूजा का वर्णन दो खण्ड में हैं (क) पूर्व खण्ड (ख) उत्तरखण्ड।
18 ब्रह्माण्ड पुराण :-
109 अध्याय में कुल श्लोक 12000 )(राजाओं की वंशावली का वर्णन है। इसमें चार पाद हैं -(क) प्रक्रिया (ख) अनुषङ्ग (ग) उपोद्घात तथा (घ) उपसंहार।
पुराणों के अतिरिक्त कुछ उपपुराण भी लिखे गये हैं जो निम्नलिखित हैं।
उपपुराण :-
1 आदि पुराण (सनतकुमार के प्रवचन)
2 नरसिंह पुराण (विष्णु के नरसिंह अवतार का वर्णन)
3 नन्दि पुराण (कुमार के प्रवचन)
4 शिव धर्म पुराण
5 आश्चर्य पुराण (दुर्वासा ऋषि के प्रवचन)
6 नारदीय पुराण (नारद ऋषि के प्रवचन)
7 कपिल पुराण
8 मानव पुराण
9 उशना पुराण
10 ब्रह्माण्ड पुराण
11 वरुण पुराण
12 कालिका पुराण
13 माहेश्वर पुराण
14 साम्ब पुराण
15 सौर पुराण
16 पाराशर पुराण
17 मारीच पुराण
18 भार्गव पुराण
19 विष्णुधर्म पुराण
20 बृहद्धर्म पुराण
21 गणेश पुराण
22 मुद्गल पुराण
23 एकाम्र पुराण
24 दत्त पुराण
सनातम धर्म में कर्मकांड व पूजा :-
यज्ञ :- यज्ञ के वर्तमान रूप के महत्व को लेकर कई विद्वानों, मतों और भाष्कारों में विरोधाभाष है। यज्ञ में आग के प्रयोग को प्राचीन पारसी पूजन विधि के इतना समान होना और हवन की अत्यधिक महत्ता के प्रति विद्वानों में रूचि रही है।
अश्वमेध यज्ञ :- राजा द्वारा न्यायपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करना अश्वमेध यज्ञ कहलाता है। अश्वमेध का अर्थ घोड़े का बलि बताया जाता है।
आरती व अन्य कर्मकांड वेदों में नहीं है। स्मृतियों में स्तुतियाँ लिखि गई हैं।
वर्तमान पूजा पद्धति ग्यारहवीं शताब्दी के आस-पास की शुरुआत है।
सनातन धर्म में सोलह संस्कार :-
सनातन में पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। जो निम्नानुसार है :-
1. गर्भाधान संस्कार : -
स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भाधान हेतु महर्षि चरक के अनुसार मन का प्रसन्न व पुष्ट रहना आश्यक है। स्त्री-पुरुष को हमेशा उत्तम भोजन करना चाहिए और सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए।
2. पुंसवन संस्कार :-
पुंसवन संस्कार गर्भ धारण के तीन माह पश्चात भ्रूण का मस्तिष्क विकसित होने लगता है व सीखना शुरू कर देता है। भ्रूण के उत्तम ज्ञान हेतु पुंसवन संस्कार आयोजित किया जाता है।
3. सीमंतोन्नायन संस्कार :-
सीमंतोन्नायन संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में भ्रूण को ज्ञान की दिशा में ले जाने हेतु किया जाता है। भ्रूण में अच्छे गुण, स्वभाव,कर्म ज्ञान के लिए मां का उत्तम आचरण, विचार,रहन-सहन, सुंदर व शील व्यवहार करना आवश्यक है।
4. जातक्रम संस्कार : -
शिशु जन्मते ही जातकर्म संस्कार में उसे मंत्रों का उच्चारण के साथ शहद और घी चटाया जाता है।
5. नामकरण संस्कार : -
शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय कर नामकरण संस्कार किया जाता है।
बालक का नाम ऐसा रखना चाहिये कि घर व बाहर उसे उसी नाम से पुकारा जाये।
6. निष्क्रमण संस्कार : -
शिशु जन्म के चौधे माह में निष्क्रमण संस्कार (बाहर निकलना) किया जाता है।
7. अन्नप्राशन संस्कार (छटी) : -
जन्म के छः माह बाद दांत निकलने की शुरुआत होने पर अन्न खिलाकर अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है।
8. चूड़ाकर्म संस्कार (झडुंला, मुंडन) : -
शिशु के सिर के बाल प्रथम बार उतारने की क्रिया चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार कहलाती है। यह एक,तीन,पांच या सातवें वर्ष में प्रवेश करने पर किया जाता है।
9. कर्णवेध संस्कार :-
कर्णवेध (कान को छेदना) इसके पांच कारण हैं -
1 आभूषण पहनने के लिये।
2 राहु-केतु के बुरे प्रभाव से बचाव
3 एक्यूपंक्चर (नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होना)
4 श्रवण शक्ति बढाना
5 यौन इंद्रियों की पुष्टि
10. यज्ञोपवीत (उपनय, जनेऊ) संस्कार : -
शिक्षा ग्रहण करने हेतु बालक को गुरु के पास ले जाना ही उपनयन संस्कार है जिससे बालक को ज्ञान, बल, ऊर्जा व तेज प्राप्त होता है जनेऊ (यज्ञोपवित) में तीन सूत्र तीन देवता के प्रतीक हैं।
1 ब्रह्मा
2 विष्णु
3 महेश
11. केशांत संस्कार :-
केशांत संस्कार में सर के बालों का अंत कर उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व केशांत (मुंडन) किया जाता है गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति तक केश नहीं रखते थे एक चोटी (शिखा) ज़रूर रखी जाती थी।
12. वेदारंभ संस्कार : -
बालक को वेदों के ज्ञान हेतु गुरु के आश्रम में भेज दिया जाता है।
13. समावर्तन संस्कार (गुरुकुल से घर लौटना) : -
बालक का युवा बनकर गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद घर लौटने की क्रिया को समावर्तन संस्कार कहा जाता है।
14. विवाह संस्कार : -
गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर विवाह करने को पाणिग्रहण (विवाह) संस्कार किया जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर गृहस्थ जीवन धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सन्तान प्राप्ति कर (पितृऋण मुक्ति) कुल वृद्धि की जाती है।
15. आवसश्याधाम संस्कार :-
गृहस्थ जीवन त्याग कर आध्यात्मिक जीवन अपनाने की क्रिया।
16. श्रोताधाम (अंत्येष्टि) संस्कार :-
अंतिम संस्कार (मृत्यु होने पर) मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है जिसमें शव यात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाकर इसी से चिता को अग्नि दी जाती है।
सनातन धर्म व हिंसा :-
सनातन धर्म में हिंसा को वर्जित किया गया है।
अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥
मनुस्मृति
अर्थात पशु हिंसा के आठ प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक व पापी हैं।
1मारने की आज्ञा देने
2 काटने वाला
3 मारने वाला
4 क्रेता
5 विक्रेता
6 पकाने वाला
7 परोसने वाला
8 खाने वाला
सनातन धर्म में स्त्रियों के लिये स्थान :-
यंत्र नारी पूज्यंते तत्र रमन्ते देवता:
अर्थात जहाँ नारी को सम्मान मिलेगा वहीं देवताओं का वास होगा। सनातन धर्म मे नारी को विद्या व शक्ति का रूप माना है। नारी का नाम गृहलक्ष्मी भी कहा गया है।
यज्ञ में आहुति पत्नी के बिना पूर्ण नहीं होती।
परन्तु मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के 148 वें श्लोक में कहा गया है कि कंवारी लड़की को पिता के,विवाहोपरांत पति के संरक्षण में व विधवा होने पर सन्तान की दया पर निर्भर रहना चाहिये। महिला किसी भी स्थिति में आज़ाद नहीं हो सकती।
देवता व सनातन धर्म :-
एको देव सर्व भूतेषु गूढः सर्व व्यापी सर्व भूतान्तरात्मा
कुछ लोग ईश्वरके सगुण तो कुछ निर्गुण स्वरुप में मानते हैं। कुछ मूर्ति पूजा करते है और कुछ ऐसे लोग है जो मूर्ति पूजा के विरूद्ध हैं और ईश्वर को एक मात्र सत्य, सर्वोपरि समझते हैं। देवताओं को महा मनुष्य के रूप में विशिष्ट शक्ति प्राप्त साकार चरित्र भी कहते हैं। परोपकार (भला) करने वाली वस्तुएँ (यथा नदी, सूर्य), विद्वान लोग और मार्ग दर्शन करने वाले मंत्रों को देव कहा गया जैसे अग्नि का अर्थ =आगे (परमेश्वर) हैं। देवता का अर्थ दिव्य परमेश्वर (निराकार) की शक्ति से पूर्ण माना जाता है - जैसे पृथ्वी। पुराणों के अनुसार कुल तीन देवता हैं जो देवी पुराण के अनुसार जन्म-मृत्यु के भागी हैं व अजर अमर नहीं हैं।
1 ब्रह्मा - सृष्टि के जन्मदाता (रचयिता)
2 विष्णु - पालनकर्ता (पालनहार)
3 महेश - संहारक (नष्ट कर्ता)
(1) - सृजन के देव - ब्रह्मा :-ल
महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन है जिनके पाँच मुख बताये गये पर पांचवा मुख शंकर (महेश) ने सत रूपा (गायत्री) (ब्रह्मा कृत) को उन्हीं द्वारा कुदृष्टि से देखने के कारण
क्रोध में आकर काट दिया अब चार मुख ही शेष हैं।
नाम - ब्रह्मा
उपनाम -सृष्टि के रचयिता,सृजक
चतुरानन , श्वेताम्बर , ब्रह्मेश
निवासस्थान -ब्रह्मलोक
पिता - ज्योति निरंजन ब्रह्मा (इनको परमात्मा ने चार वेद दिये) (समुद्र मंथन पर प्राप्त सूक्ष्म वेद (पांचवा वेद नष्ट कर दिया।)
माता - दुर्गा,अष्टागी के जेष्ठ पुत्र
सहोदर :-
1 विष्णु - सतोगुण प्रमुख
2 शिव - तमोगुण प्रमुख
मंत्र - ॐ ब्रह्मणे नमः
अस्त्र - देवेया धनुष, ब्रह्मास्त्र
जीवन साथी - सरस्वती
संतान
1 सनकादि ऋषि,
2 सप्त ऋषि
3 अत्रि
4 अंगरिस
5 पुलस्त्य
6 मरीचि
7 पुलह
8 क्रतु
9 भृगु
10 वशिष्ठ
11 दक्ष प्रजापति
12 नारद
(क्रमांक 3 से 12 कुल 10 ब्रह्मा के मानस पुत्र कहलाते हैं।)
वाहन - हंस (हन्सकुमार)
पद - सृष्टि के पालक, नभ,पाताल व भू लोक के रजोगुण कद प्रधान
ब्रह्मा जी आयु -
श्रीमद्भागवत के अनुसार 100 वर्ष
पुराणों के अनुसार ब्रह्मा जी कुल आयु सात करोड़ बीस लाख चतुर्युग बताई गई है।
(ब्रह्मा जी के एक दिन में 14 इन्द्रों का शासन काल समाप्त हो जाता है। एक इंद्र का शासन काल बहत्तर चतुर्युग का होता है। इसलिए वास्तव में ब्रह्मा जी का एक दिन (72 गुणा 14) = 1008 चतुर्युग का होता है औसत 1000 चतुर्युग मान रखने पर माह में 30(दिन) x 2000 = 60000 चतुर्युग, वर्ष (12 माह) x 60000 = 720000 (सात लाख बीस हजार) चतुर्युग होता है।)
ब्रह्मा जी द्वारा ब्रह्मांड की उत्पत्ति :-
मैत्रायणी उपनिषद (कुत्सायना स्त्रोत), मैत्री उपनिषद के अनुसार वास्तव में वो एक था, वो तीन बन गया, आठ, ग्यारह, बारह और असंख्य बन गया। यह सबके भीतर आ गया, वो सबका अधिपति बन गया। यही आत्मा है, भीतर और बाहर।
भागवत पुराण में कहा है कि ब्रह्मा वह है जो "कारणों के सागर" से उभरता है। ब्रह्मा विष्णु की नाभि से निकले एक कमल के पुष्प से उभरे। ब्रह्मा निद्रा में थे गलती करते थे एवं वे ब्रह्माण्ड की रचना के समय अस्थायी रूप से अक्षम थे। फिर भ्रान्ति और निद्रा से मुक्त हुये एक तपस्वी की तरह तपस्या की ईश्वर को अपने हृदय में अपनाया, ब्रह्माण्ड के आरंभ और अंत का ज्ञान ले कर रचनात्मक शक्तियां प्राप्त कीं तत्पश्चात ब्रह्मांड रूपी माया की रचना की।
ब्रह्मा जी के अवतार :-
विष्णुपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार ब्रह्मा के सात अवतार निम्न हैं :-
1 महर्षि वाल्मीकि
2 महर्षि कश्यप
3 महर्षि बछेस
4 चंद्रदेव
5 बृहस्पति
6 कालिदास
7 महर्षि खट
(2)विष्णु (संसार के पालक) :-
विष्णु शब्द का अर्थ - विष्णु शब्द की व्युत्पत्ति विष/विश धातु से मानी गई है जिसमें विष का अर्थ है गरल(ज़हर) व विश का अर्थ है सम्पूर्ण विश्वरूप (अनेकत्र सर्वव्यापी आत्मा)
नाम - विष्णु
अन्य नाम -
1 वैष्णव त्रिलोकी नाथ, 2 अधिपति, 3 लक्ष्मीपति,4 हरि 5, शिव , 6 हरि , 7 चक्रधारी , 8 वासुदेव , 9 नारायण , 10 अच्युत ,11 श्रीकांत 12 पीतांबर , 13सत्य नारायण , 14जगदीश , 15 जनार्दन , 16 दामोदर व 17 जगन्नाथ ,18 उपेंद्र 19 बृहच्छरीर व 20 युवा कुमार (ऋग्वेद) , परम वीर्य।
निवासस्थान - क्षीर सागर (बैकुंठ) ,पाथ
मंत्र -
1 ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय,
2 ॐ विष्णवे नम:,
3 ॐ नमो नारायणाय,
4 हरिः ॐ
अस्त्र -
1 शंख (पाञ्चजन्य),
2 चक्र (सुदर्शन),
3 गदा (कौमोदकी व पद्म,
4 धनुष (सारंग),
5 तलवार (नंदक)
6 फरसा (परशू)
प्रतीक - शालिग्राम व आंवले का पेड़
दिवस - बृहस्पतिवार (गुरुवार)
वर्ण - पीला
हार - वैजयंती माला (मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्र नील तथा हीरा पाँच रत्नों से बनी माला)
विष्णु का रूप वर्णन -
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघ वर्णं शुभांगम्।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
जीवन साथी -
1 लक्ष्मी देवी
2 वृन्दा
संतान -कामदेव
सवारी -गरुड़
शय्या -शेषनाग
शास्त्रों में वर्णन -
1 श्रीमद् भागवत महा पुराण
2 विष्णु पुराण
3 गरुड़ पुराण
4 मत्स्य पुराण
5 नरसिंह पुराण
6 वामन पुराण
7 रामायण
8 महाभारत
सहोदर -
1 ब्रह्मा
2 शिव
(कई स्थानों पर विष्णु को इंद्र का छोटा भाई बताया गया है।)
पद - सृष्टि के पालक (सतोगुण प्रमुख), न्याय के संस्थापक।
विष्णु के अवतार :-
अवतार का अर्थ स्वातंत्र्य शक्ति से भौतिक जगत में मूर्त रूप से प्रकट होना।
अवतार का प्रयोजन :-
यदा यदा ही धर्मशयः ग्लानिर्भवति भारतः
अभ्युत्थानमं च धर्मशयः तदात्मानं सुजामियां
श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय आठवां श्लोक
विष्णु के अवतारों की संख्या :-
हंस: कूर्मश्च मत्स्यश्च प्रादुर्भावा द्विजोत्तम ॥
वराहो नरसिंहश्च वामनो राम एव च।
रामो दाशरथिश्चैव सात्वत: कल्किरेव च ॥
महाभारत के अनुसार
हंस: मत्स्य कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः। रामो रामश्च कृष्णश्च कल्किश्च ते दशा:॥
महाभारत दाक्षिणात्य पाठ
अवतारों के संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं :-
1 मत्स्यावतार (मछली) : -
ब्रह्मा जी की तन्द्रावस्था में उनके मुख से निकले वेद को हयग्रीव दैत्य के द्वारा चुरा लेने पर विष्णु ने मत्स्यावतार लिया तथ मनु नामक राजा से कहा कि सातवें दिन प्रलय काल आने पर समस्त बीजों (वन व जीव) एवं वेदों के साथ नौका पर बैठ जाएँ।
सप्तर्षि के सहयोग से विष्णु ने महा मत्स्य के रूप में नौका को जल राशि पर तैरा कर बचा लिया व हयग्रीव को मारकर वेद ब्रह्मा को लौटा दिये।
2 कूर्मावतार (कछुआ) : -
असुर राजा बलि के नेतृत्व में असुरों द्वारा देवताओं को परास्त कर शासन हथिया लेने पर विष्णु ने देवताओं को असुरों के साथ मिल कर समुद्र मंथन करने को कहा और जब मन्थन के समय मथानी (मन्दराचल) डूबने लगा तो कछुआ रूप धारण कर उसे अपनी पीठ पर रख लिया, इस मन्थन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई। देवता जीते व राक्षस हारे। देवताओं को स्वर्ग पर आधिपत्य प्राप्त हुआ।
3 वराहावतार (सुअर) : -
वराहावतार में विष्णु ने महा सागर (रसातल) में डुबाई गयी पृथ्वी को बचाया व हिरण्याक्ष दैत्य का वध किया।
4 नरसिंहावतार (आधा इंसान आधा शेर) : -
हिरण्याक्ष के वध के बाद विष्णु विरोधी हिरण्यक शिपु ने तपस्या कर अद्भुत वर पा कर देवताओं को परास्त किया व अखण्ड साम्राज्य स्थापित कर लिया। वह विष्णु के भक्तों पर अत्याचार करने लगा, स्वयं के पुत्र प्रह्लाद को विष्णु-भक्त होने के कारण बहन होलिका के हाथों जला कर (होलिका को आग में जलने के वरदान प्राप्त था) मार डालना चाहा। विष्णु ने प्रहलाद को बचाया व वरदान की शर्त निभाते हुए नरसिंह (आधा आदमी आधा शेर ) रूप में आकर हिरण्यक शिपु का वध कर दिया।
5 वामन अवतार (बौना आदमी) :-
असुर नरेश बलि द्वारा देवताओं को हरा कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया गया। महर्षि कश्यप के परामर्श से अदिति के गर्भ से जन्म लेकर वामन रूप में बलि की यज्ञ शाला में पहुँच कर तीन पग भूमि माँगी (बलि दानवीर थे जो बिना दान किये भोजन न करते थे) बाद में विष्णु ने विराट रूप धारण कर दो पगों में पृथ्वी-स्वर्ग नाप दी व तीसरा पग रखने के लिए बलि द्वारा सिर दिये जाने पर उसे भूतल लोक पहुंचा दिया।
6 परशुरामावतार :-
अन्यायी क्षत्रियों (हैहय वंश) का नाश करने के लिए विष्णु ने परशुराम (जमदग्नि ऋषि के पुत्र) के रूप में अंश अवतार ले कर पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय विहीन किया। अत्याचारी कार्त वीर्य अर्जुन (सहस्रार्जुन) के हजार हाथों को युद्ध में काट डाला और उसके पुत्रों द्वारा (परशुराम जी के पिता) को बुरी तरह घायल कर हत्या कर देने पर सबका वध करके उनके रक्त से समन्त पंचक क्षेत्र में पाँच कुण्ड भर दिये थे। फिर यज्ञ करके सारी पृथ्वी कश्यप जी को दे कर महेन्द्र पर्वत पर चले गये।
7 रामावतार :-
इस विश्व-विश्रुत अवतार में भगवान् ने महर्षि पुलस्त्य जी के पौत्र एवं मुनिवर विश्रवा के पुत्र रावण—जो कुयोगवश राक्षस हुआ—के द्वारा सीता का हरण कर लेने से वानर जातियों की सहायता से अनुचरों सहित रावण का वध करके आर्या वर्त को अन्यायी राक्षसों से मुक्त कर मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में रामराज्य की स्थापना की।
आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम्।
सोऽहं यश्च यतश्चाहं भगवांस्तद् ब्रवीतु मे॥
8 कृष्णावतार: -
विष्णु कृष्ण के रूप में देवकी और वसुदेव के घर जन्म लेते हैं व उनका लालन पालन यशोदा और नंद (देवकी व वसुदेव कंश की जेल में बन्दी होने के कारण) ने किया था। दुराचारी कंस का वध,महाभारत की रचना कर युद्ध में गीता-उपदेश द्वारा अर्जुन को युद्ध हेतु तत्पर करके कौरवों के विध्वंश के बहाने पृथ्वी के भार स्वरूप प्रायः सभी राजाओं को ससैन्य नष्ट करवा दिया। यहाँ तक कि उनके बतलाये आदर्शों की अवहेलना कर मद्यपान में रमने वाले यदुवंश का भी विनाश करवा दिया। श्रीकृष्ण ने यह शिक्षा दी कि जीवन की राह सीधी रेखा में ही नहीं चलती। धर्म और अधर्म का निर्णय परिस्थिति और अन्तिम परिणाम के आधार पर होता है, न कि परम्परा के आधार पर। कृष्ण-चरित्र का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत में है।
9 वेंकटेश्वर अवतार (तिरुपति बालाजी) :-
क्रोध में आ कर शिव ने विष्णु के पुत्र कामदेव को भस्म कर दिया जिस की राख से भण्डासुर असुर उत्पन्न हुआ। भण्डासुर ने ललिता को मारने हेतु मरे हुये हिरण्यक शिपु और हिरण्याक्ष सहित कई असुरों को अपने एक विशेष अस्त्र से पुनर्जीवित कर दिया। ललिता ने नरसिंह व वराह का स्मरण किया एवं वाराह ने हिरण्याक्ष को मार डाला। अब हिरण्यक शिपु को मारने हेतु चौखट नहीं मिल रही थी व दिन ढलना शुरू हो गया तब गणेश जी के देव शिल्पी विश्व कर्मा से चौखट बनाने का निवेदन करने पर विश्व कर्मा ने एक चौखट बनाई। नरसिंह हिरण्यक शिपु को उस चौखट पर ले गये और हिरण्यक शिपु को घुटनों पर रखकर गोधूली बेला में अपने नाखूनों से पेट को फाड़ डाला। हिरण्यक शिपु के वध के बाद ललिता ने उस चौखट पर विष्णु से पुनः अवतार निवेदन करने पर उन्हें तिरुपति बालाजी (वेंकेटश्वर) रूप में आये।
10 कल्कि अवतार (भविष्य का अवतार) :-
कलियुग का अन्त समीप आने पर अनाचार बढ़ेगा तब सम्भल में विष्णुयश ब्राह्मण के घर कल्कि का अवतार होगा जो अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करेगा व पुनः सत्य युग (सतयुग) का चक्र शुरू होगा।
विष्णु के अन्य 14 अवतार :-
कौमार सर्ग अवतार :-
इसे सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार के नाम से भी जाना जाता है। एक बार ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से कठोर तप किया जिससे प्रसन्न होकर विष्णु ने चार ऋषियों के रूप में अवतार लिया।
11 हयशीर्ष (हयग्रीव) -
एक बार हयग्रीव ( महर्षि कश्यप और दनु पुत्र ) नाम के दानव ने माता पार्वती की घोर तपस्या की और उनसे वरदान माँगा कि वह केवल हयग्रीव के हाथों ही मारा जाये | जब उसके अत्याचार बढ़ने लगे तो भगवान विष्णु ने हयग्रीव (उसी का रूप) का अवतार ले कर हयग्रीव का वध किया।
12 नारद अवतार :-
एक बार सप्त ऋषियों में विवाद हो गया कि उनमें से कौन श्रेष्ठ है जिसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने प्रतियोगिता का आयोजन किया पर इस द्वंद्व का भी परिणाम नहीं निकलने विष्णु ने नारद रूप ले कर सप्त ऋषियों को ज्ञान दिया।
12 हंस अवतार :-
महा भारत के अनुसार एक बार सनकादि ऋषियों ने अपने पिता ब्रह्मा से पूछा कि सृष्टि की रचना कैसे हुई इसका आदि व अंत कौन है?
सनकादि ऋषियों के प्रश्नों का उत्तर देने हेतु विष्णु हंस के रूप में अवतार ले कर सभा में सनकादि ऋषियों के प्रश्नों के उत्तर दिये।
13 नर नारायण अवतार :-
नर और नारायण अवतार के रूप में विष्णु ने जुड़वाँ संतों के रूप में ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति रुचि की पत्नी आकूति के गर्भ से जन्म लिया।
14 कपिल अवतार :-
महर्षि कर्दम के तप से प्रसन्न होकर विष्णु ने कपिल के रूप में देवहूति के गर्भ से जन्म लिया।
15 दतात्रेय अवतार : -
त्रिदेवि (भवानी,सरस्वती व लक्ष्मी) को अपने सतीत्व का अहंकार होने पर नारद ने उन से सति अनुसूईया (अत्रि ऋषी की पत्नी) की पतिव्रतता की कहानी सुनाई जिससे त्रिदेवियों को ईर्ष्या हो गईं व त्रिदेवों से उसका सतीत्व भंग करने की ज़िद की। त्रिदेव अत्रि के आश्रम में गये व अनुसूईया से बिना नग्न अवस्था में भोजन कराने को कहा। अनुसूईया ने पति के पैर धोये पानी से तीनों को शिशु बना कर पुत्र समान स्नेह दिया स्तन पान करा दिया। तीनो देवियां पतियों को तलाशती हुई अनुसूइया के घर आई व उनके पतियों को शिशु रूप से मुक्त करने हेतु निवेदन करने पर अनुसूइया ने मुक्त तो कर दिया पर त्रिदेवों को शंकर के अंश से दुर्वासा, ब्रह्मा के अंश से चन्द्र और विष्णु के अंश से दता त्रेय के रूप में अनुसूईया के गर्भ से जन्म लेना पड़ा।
16 सुयज्ञ अवतार :-
राजा मनु के यज्ञ की रक्षा हेतु विष्णु ने आकूति के गर्भ से रूचि प्रजापति के पुत्र के रूप में जन्म लिया जिसे सुयज्ञ अवतार कहा जाता है।
17 ऋषभदेव अवतार (जैन तीर्थंकर ) :-
विष्णु भक्त नाभिराज राजा ने सन्तान प्राप्ति हेतु यज्ञ करवाया जिससे विष्णु ने प्रसन्न हो कर मरुदेवी के गर्भ से उनके पुत्र के रूप में ऋषभदेव नाम से जन्म लिया।
18 पृथु अवतार :-
विष्णु ने भू मंडल पर सर्व प्रथम राजा वेन के पुत्र पृथु के रूप में जन्म लिया जिसके कारण भूमि को पृथ्वी भी कहते हैं।
19 धन्वन्तरि अवतार : -
जब समुद्र मन्थन हुआ और उस से 14 रत्न प्राप्त हुये उन में से अंतिम रत्न अमृत (एक कलश में ले कर) विष्णु धन्वंतरि के रूप में प्रकट हुये। इन्ही धन्वंतरि को आयुर्वेद का जनक माना जाता है।
20 मोहिनी अवतार : -
धन्वंतरि से छीन कर राक्षस अमृत कलश ले कर भागे तो उनको रोकने हेतु विष्णु मोहिनी (सुन्दर स्त्री) रूप में प्रकट हुये व असुरों को मोहित कर उनसे अमृत कलश छीन कर देवताओं को अमृत पान करवाया।
21 वेदव्यास अवतार :-
पाराशर मुनि को एक बार सत्यवती नामक स्त्री की नाव पर बैठ कर यमुना पार जाना पड़ा और वो उसके रूप पर मोहित हो गये और सत्यवती से सहवास की इच्छा प्रकट की।
सत्यवती के लाख अनुनय-विनय करने पर भी पाराशर ने सत्यवती से प्रणय किया व सत्यवती के गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत पुत्र का जन्म हुआ। जो बड़ा हो कर तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये जहां उनका शरीर काला पड़ गया और लोग उन्हें कृष्ण द्वैपायन कहने लगे। समयांतर वेदों का भाष्य लिखने के कारण कृष्ण द्वेपायन (वेदभाष्य) वेदव्यास के नाम से प्रशिद्ध हुये।
22 श्री हरि गजेन्द्र मोक्ष दाता अवतार :-
एक बार एक हाथी था जो सौ हथिनियों का पति था जिससे 1000 पुत्र प्राप्त हुये। एक बार हाथी नदी में स्नान करने गया जहां एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। हज़ारों प्रयासों पर भी जब वह आज़ाद न हो सका तो उसने विष्णु का स्मरण किया।
विष्णु श्रीहरि के रूप में उसके सम्मुख आये और मगरमच्छ को मारकर गज राज को बचा लिया व उसे अपना पार्षद बना लिया।
विष्णु के 108 नाम :-
1. नारायण -ईश्वर, परमात्मा
2. विष्णु - हर जगह विराजमान रहने वाले
3. वषट्कार - यज्ञ से प्रसन्न होने वाले
4. भूतभव्यभवत्प्रभु - भूत,वर्तमान व भविष्य के स्वामी
5. भूतकृत - सभी प्राणियों के रचयिता
6. भूतभृत - सभी प्राणियों का पोषण करने वाले
7. भाव - सम्पूर्ण अस्तित्व वाले
8. भूतात्मा - ब्रह्मांड की सभी आत्मा में निवासी
9. भूतभावन - ब्रह्मांड के सभी प्राणियों के पोषक
10. पूतात्मा - शुद्ध छवि वाले प्रभु
11. परमात्मा - श्रेष्ठ आत्मा
12. मुक्तानां परमागति - मोक्ष प्रदान करने वाले
13. अव्यय - हमेशा एक रहने वाले
14. पुरुष - हर जन में वास करने वाले
15. साक्षी - ब्रह्मांड की सभी घटनाओं के साक्षी
16. क्षेत्रज्ञ - क्षेत्र के ज्ञाता
17. गरुड़ध्वज - गरुड़ पर सवार होने वाले
18. योग - श्रेष्ठ योगी
19. योगाविदां नेता - सभी योगियों का स्वामी
20. प्रधानपुरुषेश्वर - प्रकृति, प्राणियों के भगवान
21. नारसिंहवपुष - नरसिंह रूप धरण करने वाले
22. श्रीमान् - देवी लक्ष्मी के साथ रहने वाले
23. केशव - सुंदर बाल वाले
24. पुरुषोत्तम - श्रेष्ठ पुरुष
25. सर्व - संपूर्ण या जिसमें सब समाहित हों
26. शर्व - बाढ़ में सब कुछ नाश करने वाले
27. शिव - सदैव शुद्ध रहने वाले
28. स्थाणु - स्थिर रहने वाले
29. भूतादि - सभी को जीवन देने वाले
30. निधिरव्यय - अमूल्य धन के समान
31. सम्भव - सभी घटनाओं में स्वामी
32. भावन - भक्तों को सब कुछ देने वाले
33. भर्ता - सम्पूर्ण ब्रह्मांड के संचालक
34. प्रभव - सभी चीजों में उपस्थित होने वाले
35. प्रभु - सर्वशक्तिमान प्रभु
36. ईश्वर - पूरे ब्रह्मांड पर अधिपति
37. स्वयम्भू - स्वयं प्रकट होने वाले
38. शम्भु - खुशियां देने वाले
39. जगन्नाथ - जग के नाथ
40. पुष्कराक्ष - कमल जैसे नयन वाले
41. महास्वण - वज्र की तरह स्वर वाले
42. अनादिनिधन - जिनका न आदि है न अंत
43. धाता - सभी का समर्थन करने वाले
44. विधाता - सभी कार्यों, परिणामों के रचयिता
45. धातुरुत्तम - ब्रह्मा से भी महान
46. अप्रेमय - नियम व परिभाषाओं से परे
47. हृषीकेशा - सभी इंद्रियों के स्वामी
48. पद्मनाभ - जिनके पेट से ब्रह्मांड उत्पत्ति हुई
49. अमरप्रभु - अमर रहने वाले
50. विश्वकर्मा - ब्रह्मांड के रचयिता
51. मनु - सभी विचार के दाता
52. त्वष्टा - बड़े को छोटा करने वाले
53.वासुदेव - नर से नारायण बनने वाले
54. स्थविरो ध्रुव - प्राचीन देवता
55. अग्राह्य - मांसाहार का त्याग करने वाले
56. शाश्वत - हमेशा अवशेष छोड़ने वाले
57. कृष्ण - काले रंग वाले
58. लोहिताक्ष - लाल आँखों वाले
59. प्रतर्दन - बाढ़ के विनाशक
60. प्रभूत - धन और ज्ञान के दाता
61. त्रिककुब्धाम - सभी दिशाओं के भगवान
62. पवित्रां - हृदया पवित्र करने वाले
63. मंगलपरम् - श्रेष्ठ कल्याणकारी
64. ईशान - हर जगह वास करने वाले
65. प्राणद - प्राण देने वाले
66. प्राण - जीवन के स्वामी
67. ज्येष्ठ - सबसे बड़े प्रभु
68. श्रेष्ठ - सबसे महान
69. प्रजापति - सभी के मुख्य
70. हिरण्यगर्भ - विश्व के गर्भ में वास करने वाले
71. वासुदेव - नर से नारायण बनने वाले
72. माधव - देवी लक्ष्मी के पति
73. मधुसूदन - रक्षक मधु के विनाशक
74. ईश्वर - सबको नियंत्रित करने वाले
75. विक्रमी - सबसे साहसी भगवान
76. धन्वी - श्रेष्ठ धनुष- धारी
77. मेधावी - सर्वज्ञाता
78. विक्रम - ब्रह्मांड को मापने वाले
79. क्रम - हर जगह वास करने वाले
80. अनुत्तम - श्रेष्ठ ईश्वर
81. दुराधर्ष - सफलतापूर्वक हमला न करने वाले
82. कृतज्ञ - अच्छाई- बुराई का ज्ञान देने वाले
83. कृति - कर्मों का फल देने वाले
84. आत्मवान - सभी मनुष्य में वास करने वाले
85. सुरेश - देवों के देव
86. शरणम - शरण देने वाले
87. चक्रधारी - चक्र धारण करने वाले
88. विश्वरेता - ब्रह्मांड के रचयिता
89. प्रजाभव - भक्तों के अस्तित्व हेतु अवतार
90. अह्र - दिन की तरह चमकने वाले
91. सम्वत्सर - अवतार लेने वाले
92. व्याल - नाग द्वारा कभी न पकड़े जाने वाले
93. प्रत्यय - ज्ञान का अवतार कहे जाने वाले
94. सर्वदर्शन - सब कुछ देखने वाले
95. अज - जिनका जन्म नहीं हुआ
96. सर्वेश्वर - सम्पूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी
97. सिद्ध - सब कुछ करने वाले
98. सिद्धि - कार्यों के प्रभाव देने वाले
99. सर्वादि - सभी क्रियाओं के प्राथमिक कारण
100. अच्युत - कभी न चूकने वाले
101. वृषाकपि - कुर्म व वराह अवतार लेने वाले
102. अमेयात्मा - जिनका कोई आकार नहीं है।
103. सर्वयोगविनि - सभी योगियों के स्वामी
104. वसु - सभी प्राणियों में रहने वाले
105. पीताम्बर - पीले वस्त्र धारण करने वाले
106. सत्य - सत्य का समर्थन करने वाले
107. समात्मा - सभी के लिए एक जैसे
108. सममित - सभी प्राणियों में असीमित वास
(3) महेश (शिव शंकर) (संहार के देवता) :-
नाम - महेश
अन्य नाम -1 शंकर ,2 शिव, 3महा देव 4 भोले नाथ, 5 रुद्र (वेदों में) , 6 नीलकंठ, 7 गंगाधार, 8 भैरव (तंत्र साधक) , 9 पशुपतिनाथ 10 कैलाशपति,11 उमा पति, 12 सदाशिव, 13 ॐ, 14 त्रिनेत्र,15 अर्धनारीश्वर, 16 आशुतोष, 17 नागेश्वर, 18 घृणेश्वर, 19 गरीब नाथ, 20 लिंगम, 21 पशुपतिनाथ, 22 नटराज, 23 नीलकंठ
पत्नी का नाम -
पार्वती (शक्ति की देवी) (सती का पुनर्जन्म) और सती (महाशिवरात्रि के दिन विवाह)
मन्त्र -
1 महा मृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है।
2 ॐ नमः शिवाय
सहोदर - ब्रह्मा, विष्णु भाई
बहन सरस्वती (छोटी बहन)
अस्त्र - त्रिशूल, पिनाक धनुष,डमरु, परशु और पशुपतास्त्र
सन्तान -
1 गणेश पुत्र
2 अय्यप्पा पुत्र
3 कार्तिकेय पुत्र
4 अशोक सुंदरी पुत्री
5 ज्योति पुत्री
6 मनसा देवी पुत्री
प्रतीक - शिवलिंग
गले मे हार - सर्प
हथियार -
त्रिशूल
वाद्य - डमरू
वास स्थान - कैलाश पर्वत
नृत्य - तांडव
रूप -
सौम्य - भोलेनाथ (शिव)
रौद्र - शंकर
प्रमुख भक्त - रावण, शनिदेव, कश्यप ऋषि
पद - तमोगुण प्रधान
शिव का उल्लेख - शिव पुराण
माह - श्रवण
दिन - सोमवार
शिव के गण :-
1 नंदी
2 भृंगी
3 रिटी
4 टुंडी
5 श्रृंगी
6 नन्दिकेश्वर
7 बेताल
8 पिशाच
9 तोतला
10 भूतनाथ
शिव की अष्टमूर्ति :-
1. पृथ्वीमूर्ति - शर्व
2. जलमूर्ति - भव
3. तेजमूर्ति - रूद्र
4. वायुमूर्ति - उग्र
5. आकाशमूर्ति - भीम
6. अग्निमूर्ति - पशुपति
7. सूर्यमूर्ति - ईशान
8. चन्द्रमूर्ति - महादेव
शिव के उपासक :-
शिव तथा उनके अवतारों को मानने वालों और भगवान शिव की आराधना करने वाले लोगों को शैव कहते हैं। शैव में शाक्त, नाथ, दशनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं । शिव के भूत रूप को पूजने वाले अघोरी कहलाते हैं।
शिव का व्यक्तित्व :-
शिव में परस्पर विरोधभाषी भावों का सामंजस्य परिलक्षित होता है। शिव के ललाट पर चंद्र है, गले में विषधर (सर्प ) है। गृहस्थ भी श्मशान वासी वीतरागी भी हैं। सौम्य भी व भयंकर रुद्र भी।
पृथ्वी में भागवान शिव के दो ज्योतिर्लिंग
(1) कैलाश पर्वत
(2) कालन्जर पर्वत (तिब्बत) वनखण्ड।
शिवरात्रि व महा शिवरात्रि :-
माघ कृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। शिव लिंगतयो द्रूत: कोटि सूर्य सम प्रभः॥
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है व फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महा शिवरात्रि कहलाती है। इसी दिन शिव व पार्वती का विवाह हुआ था।
शिव के अवतार :-
1 निराकार ब्रह्मम :-
उत्तरा खण्ड में निरंकार देवता के नाम से पूजे जाते हैं।
2 भैरव नाथ अवतार :-
भैरव या काल भैरव के नाम से पूजे जाते हैं।
त्रिदेवी :-
1 सरस्वती (विद्या की देवी)
2 लक्ष्मी (धन/यश की देवी
3 पार्वती (शक्ति की देवी)
अन्य देवता :- सभी पेड़,पृथ्वी, सूर्य, चन्दमा, ग्रह,नक्षत्र, गणेश,कामदेव, अग्निदेव,गण,यमराज (मृत्यु के देवता), देव, वायुदेव,बजरंग बली (बालाजी) , जलदेव (वरुण),इंद्र (वर्षा), पितृ आदि।
सनातन धर्म के त्योहार :-
1 दिपावली :- भगवान राम के वनवास स3 लौटने पर कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष पर आयोजित होने वाला पर्व जो पांच दिन तक मनाया जाता है।
1 धनतेरस 2 दीपावली/लक्ष्मी पूजन 3 भाईदूज 4 व 5
2 होली :- होलिका द्वारा प्रह्लाद को जला कर मारने की कोशिश व विष्णु द्वारा उसे बचाने के दिन होली मनाई जाती है।
3 रामनवमी :- श्रीराम के जन्मदिन को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है।
4 दशहरा : - राम द्वारा रावण का वध व लंका विजय के दिन के अवसर पर मनाया जाने वाला त्योहार जिस में रावण व उसके दो भाइयों के पुतले दहन किये जाते हैं।
5 गणेश चतुर्थी :- गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा गणेश जन्मोत्सव के दिन मनाया जाने वाला त्योहार जिस में एक बड़े जुलूस के रूप में गणेश जी की बड़ी बड़ी मूर्तियां समुद्र या नदियों में बहाई जाती हैं व दही हांडी का कार्यक्रम भी होता है।
6 श्राद्ध :- पितृ तर्पण के लिये श्राद्ध किये जाते हैं जिसमें लोगों को 16 दिन तक भोजन आदि करवाया जाता है।
7 नवरात्रा :- दुर्गा के 9 रूपों की 9 दिन पूजा की जाती है।
8 महाशिवरात्रि :- फाल्गुन की चतुर्दशी को शिव पार्वती के विवाह के दिन मनाया जाने वाला उत्सव।
8 अन्य त्योहार :- अनन्त चतुर्दशी , सभी एकादशी , सभी पूर्णिमा , कृष्ण जन्माष्टमी , राम नवमी , कल्कि जयंती , नारद जयंती , मत्स्य जयंती , कूर्म जयंती , वराह द्वादशी , वामन द्वादशी , नरसिंह जयंती , हयग्रीव जयंती , वेदव्यास जयंती , परशुराम जयंती,हनुमान जयंती, गुरु पूर्णिमा व स्थानीय त्योहार।
सनातन धर्म में शवो का क्रियाक्रम :-
शवों को जला कर अवशेष हरिद्वार ले जाये जाते हैं वहां गंगा में प्रवाहित कर दिये जाते हैं।
सनातन धर्म में विवाह कार्यक्रम :- सनातन धर्म में में दो प्रकार के विवाह कार्यक्रम पाये जाते हैं
1 सामाजिक विवाह - सामाजिक रीति- नीति से किया गया कार्यक्रम जिस में अग्नि को साक्षी मानकर समाज की उउपस्थिति में सात फेरे ले कर पाणिग्रहण संस्कार किया जाता है व वधु के पिता कन्यादान द्वारा वर को वधु सुपुर्द करते हैं व वर अग्नि व जल को साक्षी मानकर उसके सुख,दुःख में साथ रहने का वचन देता है।
2 गन्धर्व विवाह -
सनातन धर्म में ग्रह नक्षत्र व ज्योतिष शास्त्र :-
सनातन धर्म में ज्योतिष शास्त्र पर बहुत विश्वास किया जाता है। बारह महीनों की बारह रशिया हैं जो व्यक्ति के कार्य,व्यक्तित्व व जीवन के सभी आयामों को प्रभावित करती है। कर्मकांड के माध्यम से ग्रह दोष निवारण भी किया जाता है।
सनातन धर्म में निकट रिश्तेदारी में विवाह -
मामा की पुत्री से विवाह के उदाहरण -
अर्जुन ने अपने मामा की लड़की सुभद्रा से विवाह किया जिससे उसका पुत्र अभिमन्यु पैदा हुआ। कुन्ती और सुभद्रा के पिता सगे भाई-बहन थे, दोनों शूरसेन की सन्तान थे। कुन्ती का वास्तविक नाम पृथा था, राजा कुन्तीभोज ने पिता शूरसेन से गोद लेने के कारण कुन्ती पड़ा। इसलिए तो अर्जुन को पार्थ कहा जाता है।
वासुदेव की दो पत्नियाँ थीं . रोहिणी और देवकी। रोहिणी की सन्तान बलराम और सुभद्रा थे जबकि देवकी की सन्तान कृष्ण थे।
अभिमन्यु ने अपनी माता सुभद्रा के सगे भाई अर्थात अपने सगे मामा बलराम की पुत्री वत्सला से विवाह किया। सुभद्रा और बलराम एक ही माँ रोहिणी और वासुदेव की सन्तान थे। अभिमन्यु की दो पत्नियाँ थीं - 1. उत्तरा(विराट नरेश की पुत्री) 2. वत्सला (बलराम की पुत्री)
श्रीकृष्ण के लड़के प्रद्युम्न का विवाह भी अपने मामा की लड़की रुक्मावती के साथ हुआ था।
श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध ने अपने मामा की लड़की रोचना से विवाह किया।
परीक्षत ने अपने सगे मामा राजा उत्तर(विराट नरेश के पुत्र) की लड़की इरावती से विवाह किया था।
सहदेव ने अपने सगे मामा द्युतिमान(शल्य के भाई) की बेटी विजया से विवाह किया।
बुद्ध धर्म के स्थापक,सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) का विवाह अपने सगे मामा सुप्पबुद्ध की लड़की यशोधरा से हुआ था।
बौद्ध राजा अजातशत्रु ने अपने सगे मामा प्रसेनजित को युद्ध में हराकर उनके बेटी वज्जिरा से जोर जबरदस्ती विवाह किया।
महावीर स्वामी ने अपनी पुत्री अनोज्जा(प्रियदर्शिनी) का विवाह सगी बहन सुदर्शना के पुत्र जमालि से किया।
महावीर स्वामी के सगे बड़े भाई नन्दिवर्धन का विवाह सगे मामा राजा चेटक की पुत्री ज्येष्ठा से हुआ। महावीर की माता त्रिशला और चेटक भाई बहन थे।
मौखरि वंश के राजा आदित्यवर्मा के पुत्र ईश्वरवर्मा का विवाह सगे मामा उत्तरगुप्त वंश के राजा हर्षगुप्त की पुत्री उपगुप्ता से हुआ।
सनातन सार :-
अयं निजः करोवेति लघु चेतसां ।
उदार चरितनां वसुंधेव कुटुम्बकम।।
सनातन धर्म मे धन कमाने के छः साधन :-
1 विद्या,2 बुद्धि,3 धन,4 बल,5 रूप व 6 संयोग
वर्तमान सनातन रूप जिसे हिन्दू धर्म कहा जाता है 11 वी सदी के उत्तरार्ध में शुरू होता है जब भारत की सनातन संस्कृति विदेशी आक्रांताओं के सम्पर्क में आती है। 14 वीं शताब्दी के अंत तक तुलसी दास जी द्वारा रचित साहित्य को वर्तमान भारत के हिन्दू साहित्य की शुरुआत कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
एकेश्वर वाद और सनातन धर्म -
चीन में सनातन धर्म -
क्वांगझाऊके संग्रहालय में स्थित भगवान नृसिंह की का चित्र ।
सनातन और बौद्ध धर्म ने लगभग एक ही समय चीन में प्रवेश किया। यह भारतीय व्यापारियों द्वारा विभिन्न मार्गों से व्यापार के माध्यम से चीन में पहुंचा। उनमें से एक समुद्र के रास्ते रेशम मार्ग था जो दक्षिण-पूर्व भारत में पहला कोरोमंडल तट से दूसरा मार्ग कामरूप मार्ग के प्राचीन साम्राज्य से ऊपरी बर्मा से युन्नान तक पहुंचा। तीसरा मार्ग उत्तर-पश्चिम चीन तक पहुंचने वाला प्रसिद्ध रेशम मार्ग है , जो मुख्य मार्ग था जिसके माध्यम से बौद्ध धर्म चीन में फैला। चीन के तटीय शहरों और युन्नान के दाली के मंदिरों के प्रतीकों के अवशेष पाए गए हैं । यह दर्ज है कि 758 में ग्वांगझोउ झिंजियांग में सनातन मंदिरों के अवशेष भी खोजे गए हैं, और वे दक्षिण-पूर्व चीन के मंदिरों से पहले के हैं। सनातन ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय तांत्रिक ग्रंथ और वेद शामिल हैं। जिन्हें चीनी में मिंगलुन या झीलून के रूप में जाना जाता है,या ध्वन्यात्मक लिप्यंतरण के माध्यम से वेइतुओ, फेइतुओ या पितुओ के रूप में जाना जाता है। विभिन्न चीनी बौद्ध भिक्षुओं ने खुद को सनातन धर्म ग्रंथों, विचारों और व्यवहार के अध्ययन के लिए समर्पित कर दिया।सुई (581 से 618) और बाद में तांग राजवंश (618 से 907) में, चीनी में अनुवादित सनातन ग्रंथों में शुलवशूत्र, और ब्राह्मण ऋषियों के नुस्खे शामिल थे। तिब्बतियों ने पाणिनिसूत्र और रामायण का चीनी भाषा में अनुवाद करके योगदान दिया।
7 वीं शताब्दी में ताओ और शाक्तवाद के बीच बौद्धिक आदान-प्रदान हुआ, जिसमें दाऊदेजिंग का संस्कृत में अनुवाद किया गया । शाक्तवाद में प्रचलित कुछ श्वास तकनीकों को सिनाचार (चीनी पूजा पद्धति) के रूप में जाना जाता है, और शाक्त तंत्र जो उनकी चर्चा करते हैं, उनका मूल ताओवाद से बताते हैं। इनमें से दो तंत्रों में बताया गया है कि शाक्त गुरु वशिष्ठ ने ताओवादियों से सिनाचार सीखने के उद्देश्य से विशेष रूप से चीन की यात्रा की थी। पशुपति शेववाद के तमिल ग्रंथ शैवागम के अनुसार , दक्षिणी शाक्तवाद के अठारह सिद्धों में से दो और पुलिपानी, जातीय रूप से चीनी थे। तांग काल में चीन में भी शाक्तवाद का प्रचलन हुआ। था। चीन में सनातन धर्म का प्रभाव विभिन्न देवताओं में भी स्पष्ट है, जो मूल रूप से सनातन मूल के हैं, जिन्हें चीनी लोक धर्म में समाहित कर लिया गया है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण भगवान हनुमान हैं, जिन्होंने चीनी देवता होउवांग को जन्म दिया, जिन्हें जर्नी टू द वेस्ट में सन vukong के रूप में जाना जाता है । पिछले दशकों में चीन में सनातन धर्म के आधुनिक, अंतरराष्ट्रीय रूपों का विकास हुआ है। इसमें योगिग शास्त्र का रूप युजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है , जिसका शाब्दिक अर्थ "जेड युवती" है), तांत्रिक और कृष्णवादी समूह ने भगवत गीता का हाल ही में चीनी भाषा में अनुवाद किया है।बीजिंग, संघाई सहित कई शहरी केंद्रों में स्थित हैं।
जिगर चुरुवी
9587243963
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