मोहर्रम ताजियादरी और इमाम हुसैन की शहादत | |
होती है कैसी खुदा की मार देखिए रोते हैं सड़कों पे जारो कतार देखिए। जन्नत जहन्नम का तजकरा कैसा इसी जमीं पर इनके आसार देखिए। हक हुसैन फातिमा का लाल हक मुश्किलों से होते हैं दो चार देखिए। कुफान किस्मत में ना साथ हुसैन का दामन हुआ जिनका दागदार देखिए। बाजू कटे अब्बास नेजों की नोक से गिरा जो घोड़े से सहसवार देखिए। प्यासी आले अली दरिया ए फरात पे तीर अली असगर के गले पार देखिए। अश्के जैनब गस ए सकीना का मंजर हाय, जुर्म ए यजीद बार बार देखिए। मोहब्बत में हुसैन से वो अकीदत कहां कहा मैं हुसैन से वो ताजदार देखिए। कैद हुरमा की बेड़ियों की झंकार देखिए सब्रे जैनुल आबेदीन की बहार देखिए। करबला में गिरा खून का हर कतरा जमा आज वहीं सुर्ख खार देखिए। तपते सहरा में सूखती जबां हुसैन की शहादत को नौजवान बेकरार देखिए। नेजो पे सरे हुसैन अब्बास का सर नाचते ताशों पर यजीद मक्कार देखिए। सबो रोज करबला की हिकायत जिंदा ना समझ सके हम मुरदार देखिए। अली के लाल का जहदो वकार देखिए हम खड़े कहां बागौर सरकार देखिए। जानो अमान किए क्यों निसार देखिए बेकरारों को आ जाए वो करार देखिए। शहादत हुसैन की ना हो जाया मोमिन बिछाते कदमों में हम नार देखिए। जिगर सुन के दास्तां यह आंखें नम देख जमीर ए खुद बार बार देखिए। जिगर चुरुवी | |
हजरत इमाम हुसैन का मकबरा करबला इराक मातम का एक दृश्य | |
मोहर्रम - मोहर्रम अरबी संवत हिजरी का पहला महीना है। यह नाम हिजरी शुरू होने से पहले भी चलता था, मोहर्रम का एक और नाम सफर भी है। यह महीना उन तीन महीनों रमजान, जीकाद, जिलहिज्ज की तरह पवित्र महीनों में से एक है, जिसमें में युद्ध करना मना है। एक हदीश के अनुसार जिस तरह फर्ज (अनिवार्य) नमाजों के बाद सबसे उत्तम नमाज तहज्जुद (आधी रात के बाद की नमाज) है, उसी तरह रमजान के रोजों के बाद सबसे उत्तम रोजे मुहर्रम के हैं। शिया कौन - मुहम्मद साहब की वफात के बाद खिलाफत हेतु मुस्लिम 2 भागों में बंट गए। 1. उस्मान गनी, उमर फारुख और अबू बकर सिद्दीक के साथी थे जो 2. अली अबू तालिब के साथी उस समय अली के साथ कम लोग ही थे और खलीफा क्रमशः अबू बकर, उमर और उस्मान बने। इसके बाद अली का नंबर आया। अली के साथी (शियान ए अली) को शिया कहा जाने लगा। शिया संप्रदाय - शिया समुदाय कर्बला की लड़ाई को अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष का प्रतीक मानता है। हुसैन को धर्मपरायणता, त्याग और दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है और यजीद को अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार का प्रतिनिधि मानते हैं। हुसैन के पूर्वनिर्धारित एवं स्वैच्छिक विद्रोह और बलिदान ने भविष्य की पीढ़ियों के लिए सच्चे इस्लाम को संरक्षित किया। हुसैन के बलिदान ने मुस्लिम समुदाय को उमय्यदों के अधीन नैतिक पतन के विरुद्ध जागृत किया। दुख के बदले में हुसैन को उन अनुयायियों के लिए (कयामत) न्याय के दिन मध्यस्थता का अधिकार दिया गया जो उनके साथ हैं। श्री नगर भारत में एक शिया जुलूस यौम ए आशुरा - 10 मोहर्रम की तारीख को आशूरा कहते हैं। इस दिन हजरत मूसा द्वारा लाल सागर के विभाजन (मिश्र से बनी इजराइल के साथियों के साथ फिलिस्कीतीन आने हेतु समुद्र पार करने ) की स्मृति में मनाया जाने वाला त्योहार है। इसे धन्यवाद (शुक्र) का दिन भी कहा जाता है। आशुरा के दिन खिचड़ी पकाना - आशूरा के दिन खिचड़ा पकाना पकाना हराम या ना जायज होने की कोई दलील नहीं है। हज़रत नूह (अ) की सुन्नत (अनुसरण) है। तूफान से निजात पाकर हज़रत नूह अलैहि अस्सलाम की कश्ती जोदी पहाड़ पर ठहरी तो आशूरा का दिन था आपने कश्ती में से तमाम अनाजों को बाहर निकाला_तो (बड़ी मटर) गेंहू, जो, मसूर, चना, चावल, प्याज़ सात किस्म के गल्ले मौजूद थे आपने उन सातों अनाजों को एक ही हांडी में मिला कर पकाया शहाब अलदीन कल्यूबी ने फ़रमाया के मिस्र में जो खाना आशूरा के दिन (खिचड़ा) के नाम से पकाया जाता है? उसकी असल वा दलील यही है हज़रत नूह अलैहि अस्सलाम का अमल है |
मोहर्रम का अर्थ क्यों बदला - मोहम्मद साहब के दोहिते और हजरत अली के बेटे शियाओं के तीसरे इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) को साथियों और बच्चों सहित, यजीद इब्ने मावियाह (तत्कालीन उम्मय्यद खलिफा) ने मुहर्रम के दसवें दिन 10 अक्टूबर 680 (हिजरी 10 मोहर्रम 0061) के दिन शहीद कर दिया गया (जिसे यौम ए आसुरा कहते हैं) और परिवार के अन्य जीवित सदस्यों को बंदी बना लिया। इस शहादत दिवस के रूप में मोहर्रम को दुख का महीना बना दिया गया।
ईरान में नाटक का मंचनइमाम हुसैन एक परिचय -
नाम - हुसैन इब्ने अली
जन्म - 8 जनवरी 626 (4/5 शाबान हिजरी 04)
जन्म स्थान - यशरब (मदीना)
मृत्यु -10 अक्टूबर 680(10 मोहर्रम 0061 हिजरी) (उम्र 54)
मृत्यु का कारण - यजीद के साथ कुफा शहर के पास करबला का युद्ध।
हुसैन की मृत्यु के पश्चात अली इब्ने हुसैन, जेनुलआबेदीन इमाम बने।
शांत स्थल - करबला (इराक)
उपनाम -
1. जन्नत में युवाओं के सरदार
2. शबीर
3. इमाम (हजरत अली और हसन के बाद तीसरे इमाम)
4. मौला
5. शहीद
6. ताबी
7. तैय्यब
8. मुबारक
9. वाली
पत्नियां -
1. शहर बानो
2. उम्मे रूबाब
3. उम्में लैला
4. उम्मे इशहाक
संतान
1. अली अकबर
2. अली असगर
3. उम्मेंं कुलसुम
4. सकीना
5. फातिमा
6. जैनब
पिता - अली इब्ने अबी तालिब
माता - फातिमा बिन्त मोहम्मद (स)
भारत, मोहर्रम के ताजियों से प्रार्थना करती महिलाघटनाक्रम - कर्बला की लड़ाई की पृष्ठभूमि अली के स्थान पर अबु बकर के खलीफा बनने से शुरू होती है जिसमें नजफ की मस्जिद में नमाज पढ़ते अली की (हत्या) शहादत आग में घी का काम करती है।मुआविया ने अली से खिलाफ़त के लिए लड़ाई लड़ी और उनको शहीद कर दिया। अली के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफ़ा बनना था पर मुआविया खुद खलीफा बनना चाहता था। हसन ने इस शर्त पर कि वो मुआविया की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे ओर अगला खलीफा अली की संतान में से होगा के वादे के बाद मुआविया को खिलाफत सौंप दी। भविष्य में हसन खिलाफत ना मांग ले इस हेतु उसने हिजरी 50 (सन 679) के दिन हसन को ज़हर पिलवाकर शहीद कर दिया। हसन और उसके परिवार को मदीना में दुख दिया जाने लगा। इस पर वो मदीना से मक्का आ गए। सन 680 (हिजरी 61) में खलिफा मआविया ने मौत से पहले अपने पुत्र यजीद को खलीफा घोषित कर दिया। खिलाफत के कानून के अनुसार अरब के इस्लामिक नेताओं की काउंसिल द्वारा ही खलीफा चुना जाना था। हुसैन ने यजीद की बेअत (मान्यता नहीं दी) नहीं की। उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा। हुसैन सीरिया की राजधानी दमिश्क भी गए। इराक के एक शहर कूफा के लोगों ने 40 खत लिखे की हम हुसैन के साथ हैं और यजीद को खलीफा नहीं मानते। कूफा वालों के बुलावे पर हुसैन परिजनों सहित 70 साथियों को साथ ले कर मक्का से कुफा की और चल पड़े। इस घटना का जब यजीद को पता चला तो उसने कूफा के गवर्नर नोमान इब्ने बशीर को हटा कर ओबेदुल्लाह इब्ने जियाद को गवर्नर बना दिया। मोहर्रम 02 हिजरी 61 को ओबेदुल्लाह ने हुसैन को रोकने हेतु बड़ी सेना भेजी जिसका सामना करबला (एक रेगिस्तानी मैदान) में हुसैन से हुआ। ओबेदुल्लाह की फौज का नेतृत्व उमर बिन शाद कर रहा था। उसने दबाव डाला कि हुसैन और साथी यजीद की बात मान लें पर हुसैन नहीं माने। उनको वहीं पर रोक दिया गया। मोहर्रम 07 के दिन हुसैन को फरात नदी का पानी लेने से रोक दिया गया। करबला का तापमान 45 से 50 डिग्री था, लोगों का प्यास से बुरे हाल होने लगे। चार दिन 10 मोहरम तक सभी साथी बिना पानी पिए रहे। हुसैन के साथ 6 माह का बेटा और चार साल की बेटी थी। अली अकबर पहले शहीद हो गए। हुसैन अली असगर (उम्र छह माह) को गोद में उठा कर उसे पानी पिलाने की दरखास्त कर रहे थे कि दुश्मन का तीर उनके हलक में लगा और अली असगर शहीद हो गये। हुसैन के भाई अब्बास इस स्थिति में नदी से पानी लेने गए और सेना को चीरते हुए मस्किजा भर लाए। रास्ते में दुश्मनों ने तीरों से उनके बाजू काट दिए और अब्बास शहीद हो गए। इस जंग में यह तय हुआ था कि एक व्यक्ति से एक व्यक्ति लड़ेगा परंतु यजीदियों ने नियमों का पालन करने के स्थान पर पूरी सेना के साथ एक आदमी से लड़ाई लड़ना शुरू कर दिया। हुसैन पिता अली की तलवार जुल्फीकार से लड़ने लगे। दुश्मन ने तीर बरसाने शुरू कर दिए। हुसैन सजदे में गिर गए और शहीद हो गए। यजीदियो ने उनका सर काट लिया। अब्बास और हुसैन के सर को भालों पर सजा कर गिरफ्तार परिवार के सदस्यों सहित कुफा़ की गलियों में ढोल और ताशों के साथ घुमाया। इब्ने अली (अली की संतान) पर अत्याचार तब तक जारी रहा जब मुहम्मद अल-महदी (बारहवें और अंतिम शिया इमाम) का सन 874 का विद्रोह नहीं हुआ।
ताजिए रंग बिरंगे
शब्द ताजिया - ताजियत एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है दुख में शामिल होना, शोक मनाना, मातम। शिया समुदाय के लोग हुसैन की शहादत के दिन को यौम ए आसूरा के रूप में मनाते हैं। शिया मोहर्रम एक से 10 तक मातम मनाते हैं। शिया समुदाय द्वारा हर वर्ष यह मातम अलग अलग प्रकार से मनाया जाता है। ईरान (प्रमुख शिया बहुल क्षेत्र) सहित समस्त विश्व में मातम (अलम) मनाया जाता है। शिया जुलहिज्ज की 20 तारीख से काले कपड़े पहनना शुरू कर देते हैं। रात को इमाम बाड़ों में इकट्ठे हो कर खुद को विभिन्न प्रकार से दुख पहुंचा कर मातम मनाते हैं। स्थानीय करबला निवासी नंगे पैर हुसैन के मकबरे तक जाते हैं। मोहर्रम के महीने में ख़ास तौर पर ताज़िया हज़रत अली के बेटे हज़रत इमाम हुसैन कि याद में बनाया जाता है। अशूरा पर वार्षिक आयोजन उमय्यदों द्वारा युद्ध के बाद हुसैन के तंबू को जलाने और महिलाओं और बच्चों की बंदी बनाने की घटना का मंचन किया जाता है।
भारत में अवध शिया रियासत के शाह शासन काल में ताजियादार और मातम का मंचन 18वीं सदीभारत में सबसे अच्छी ताजियादारी जावरा मध्यप्रदेश प्रदेश में होती है। यहां ताजिये बांस से नहीं, शीशम और सागवान की लकड़ी से बनाते है जिस पर कांच और माइका का काम होता है। जावरा में 300 से अधिक 12 फिट के ताज़िए बनते है। ताज़िया बाँस की खपचियों पर रंग-बिरंगे कागज, पन्नी आदि चिपका कर बनाया हुआ मकबरे के आकार का मंडप होता है। शोक मनाने वाले जुलूस (दस्ता,मौकिब) के रूप में आलम (एक विशेष झंडा) उठा कर लोगों के खाने की वस्तुएं या नख़ल (खजूर) बांटते हुए प्रतिवर्ष मुहर्रम की दस तारीख (आशुरा) के दिन सड़कों पर ढोल - ताशो पर मातमी धुन पर शोकगीत गाते हुए (नजफ़ में अली के मकबरे तक रात्रि को मशाल जुलूस के रूप में जाते हैं) निकलते हैं। हुसैन के मकबरे के प्रतीक के रूप में बनाए गए ताजियों को दफनाया/नदी या समुद्र में बहाया जाता है। ताजियादारी विशुद्ध रूप से भारतीय परंपरा है, जो भारतीय उपमहाद्वीप भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार के अलावा किसी और इस्लामी देश में में नहीं है। ताजिए की शुरुआत भारत में बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह (8 अप्रैल 1336 – 18 फरवरी 1405) के जमाने में हुई थी। तैमूर शिया मुस्लिम था जो हर वर्ष मोहर्रम के महीने में करबला जाया करता था। एक बार वह ज्यादा बीमार हो जाने के कारण करबला नहीं जा सका। इस से वह बहुत निराश हुआ। तैमूर को खुश करने के लिए उसके ईरानी मूल के दरबारियों ने करबला में इमाम हुसैन के मकबरे जैसा एक ढांचा बनवाया जिसे देख कर वह बहुत खुश हुआ। बस इसके बाद धीरे - धीरे यह पूरे उप महाद्वीप में फेल गया और ताजिये निकाले जाने लगे। भारत में मोहर्रम के दिनों में सुनी मुस्लिम हजरत-इमाम-हुसेन की कब्र के प्रतीक रूप मे दसवें दिन जलूस के साथ ले जाकर इसे दफन करते है। शिया मुस्लिम इमाम हुस्सैन की याद में इमाम बाड़ों में मर्सिया और मातम करते हैं। कर्बला में शोक की शुरुआत यजीद की कैद से छूटे लोगों (दमिश्क से मदीना लौटते समय आजाद होते ही वो हुसैन की कब्र पर गए और वहां मातम किया) विशेष रूप से हुसैन की बहन ज़ैनब द्वारा शुरू हुआ जो समय के साथ खास रिवाज में बदलता गया। यह मातम मुहर्रम के पहले दस दिनों में होते हैं जो दसवें दिन प्रमुख शिया शहरों में जुलूसों के साथ समाप्त होते हैं। इमाम बाड़ों में आयोजित होने वाले मातम का मुख्य घटक कर्बल कथा होता है। इस मातम में नोहे और मर्शिये गाए जाते हैं। श्रोता छाती पीट -पीट कर रोते हैं। कर्बला की कहानियों का नाट्य मंचन किया जाता है। मातम एक ऐतिहासिक घटना का दोराहन है जो ईरान सहित सम्पूर्ण विश्व में किया जाता है। शिया इस्लाम में मुहर्रम की रस्में: - रौदा ख्वानी, नोहा, मर्सिया, तत्बीर, हुसैनिया, ताजिएह, नखल गर्दनी, बीबी-का-आलम और होसे मुख्य रस्में हैं। मातम का चरम रूप (तत्बीर, टिक-ज़ानी, क़मा-ज़ानी) हैं जिसमें शिया मर्द खुद के बदन के विभिन्न हिस्सों को लहू - लुहान (माथे या पीठ पर, चाकू, तलवार या जंजीरों से मारते हैं, जिसमें रेजर ब्लेड लगे होते हैं। आजकल यह शियाओं के बीच विवादास्पद प्रथा बनी हुई है। वर्तमान में अधिकांश शिया और सुन्नी मुस्लिम इस जुलूस के स्थान पर रोजे (उपवास) रखने और इबादत (पूजा) करने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। इस्लामी मान्यता इस आधार पर दो भागों में विभाजित हो गई है जिसमें एक पक्ष (अहले सुन्नत वल जमात व शिया मुस्लिम) जुलूस सहित मातमी धुन के साथ ताजियादारी के पक्ष में है और दूसरा पक्ष (तबलीग जमात,अहले हदीस) आदि उपवास और प्रार्थना के पक्ष में हैं।
वर्तमान में ताजियादारी मूल स्वरूप खो चुकी है जिसमें विभिन्न प्रकार के पुतले बना कर ताजिया निकाले जाते हैं। मातमी धुनों के स्थान पर DJ पर फिल्मी गाने बजाए जाते हैं।ताजियादारी की शुरुआत - ज़ैनअलअबिदीन और उनकी बहन सकीना ने सन 735 तक हर वर्ष इस तरह के शोक समारोहों का आयोजन जारी रखा। हुसैन के रोजे की जियारत सर्वप्रथम तव्वबुन ने शुरू की। वो कुफ़ा के लोगों के साथ जिन्हें हुसैन का साथ नहीं देने का पछतावा था, हुसैन की मौत के अगले वर्ष कब्र पर एकत्र हुए जहाँ नोहे पढ़े, और उमय्यदों के खिलाफ एकजुट होने की प्रतिज्ञा की। इसे 685 के तव्वबुन विद्रोह के रूप में जाना जाता है। हुसैन के बलिदान से बिखरा हुआ शिया समुदाय अब संप्रदाय में बदल गया। कर्बला युद्ध के बाद शिया और सुन्नी मतभेद बढ़ने लगे। शिया इमाम जाफर बिन सादिक ने नोहों और मर्शियों के कवियों के संग्रह को विशेष रूप से संरक्षित किया। उम्म्यदों ने कर्बला की घटना को जनता की स्मृति से विलोपित करने के लगातार प्रयास किए। उमय्यद जनरल अल-हज्जाज इब्न यूसुफ ने सन 714 में आशूरा को एक उत्सव मनाने हेतु सार्वजनिक अवकाश घोषित किया। शियाओं का कर्बला के लिए उमय्यदों के खिलाफ गुस्सा उनके पतन के लिए जिम्मेदार रहा और लगभग 90 वर्ष बाद उम्मयद खिलाफत का पतन हो गया। उम्मयद काल में मोहम्मद साहब के चाचा अब्बास के वंशजों ने उमय्यदों को उखाड़ फेंकने के लिए शिया समर्थन जुटाया, उन्हें अहले बैत (नबी के घराने) में से खलीफा होने का दावा किया जिन्हे अलवी (अली के वंशज) कहा जाता है। शिया इमामों के माध्यम से इस प्रकार कर्बला की घटना को प्रसारित कर जन आक्रोश उत्पन्न किया गया। परिणामस्वरूप कर्बला का स्मरण साहित्यिक विवरणों और तीर्थ यात्राओं के रूप में बढ़ गया। इस तरह की तीर्थ यात्राओं को शिया इमामों द्वारा प्रोत्साहित किया गया। सत्ता संभालने के बाद अब्बासी खलीफा भी शियाओ के खिलाफ हो गए। वे इस तरह की प्रथाओं को राजनीतिक खतरे के रूप में देखने लगे। खलीफा अल-मुतवक्किल (सन 847 से 861) ने हुसैन के मकबरे को ध्वस्त कर दिया और जायरीनों को एक और कर्बला को रोकने हेतु मार डाला। शिया इमामों को निगरानी में रखा जाने लगा। इमाम हुसैन के प्रति विश्वास की रस्में सूफीयों में भी दिखाई देती हैं जो कर्बला की घटना को त्रासदी के स्थान पर हुसैन और उनके साथियों के शाश्वत जीवन संदेश के उत्सव के रूप में मनाते हैं। जिन्होंने अपनी स्वैच्छिक मृत्यु के साथ खुद को ईश्वर में सम्मिलित कर दिया। हुसैन ने सत्य का साथ नहीं छोड़ा।
ताजियेदारी जुलूस
नोहा ख्वानी - नोहा का अर्थ है दुख प्रकट करना, गम करना या याद करके रोना। करबला की जंग में शहीद हुए लोगों को और उनकी शहादत को याद करना और पद्य रूप में प्रकट करने को नोहा ख्वानी कहते हैं। नोहा ख्वा मजलिस में नोहा ख्वानी करके अपने अक़ीदे को पेश करते हैं।
मर्शिया ख्वानी - मर्शिया अरबी का शब्द है जिस का अर्थ है मृत आत्मा की बड़ाई करना। इसके समानार्थी शब्द कशीदा का अर्थ है जीवित व्यक्ति की बड़ाई करना। इमाम हुसैन की शहादत के बाद मर्शिया का प्रचलित अर्थ हुसैन की शहादत पर कविता के रूप में दुख प्रकट करना हो गया। भारत में मीर अनिस, दबीर ऑर मीर तकी की मर्शिया गोई प्रसिद्ध है।
सबील बनाना - भारतीय उपमहाद्वीप में मोहर्रम की एक तारीख से 10 तारीख तक मीठा पानी (शरबत) लोगों को पिलाया जाता है। ऐसा माना जाता है की उस समय हुसैन और उनके साथियों को पानी नहीं पीने दिया गया। अब लोगों को पानी या शरबत पिलाने से ईश्वर की प्रसन्नता मिलेगी।
इमाम हुसैन का मकबरा (रोजा ए हुसैन) यह मकबरा इराक के कर्बला शहर में स्थित है जो शिया मुसलमानों का पवित्र स्थान है। मक्का और मदीना के बाद मुसलमान यहां की जियारत करते हैं। अशुरा के चालीस दिन बाद तक लोग यहां के कार्यकर्मों में सम्मिलित होते हैं। पहले इस पर 3 गुंबद थे पर उन में से एक ढहा दिया गया। दो शेष गुंबद की ऊंचाई 27 मीटर (89 फीट) है। कब्र के ऊपर गोल तुर्की शैली का सोने की परत चढ़ा गुंबद है। मकबरे की चारदीवार कांच और लकड़ी से सजाई गई है। बीच में एक बड़ा आंगन है जिसमें 65 कमरे बने हुए है। इमाम हुसैन की कब्र स्टील की रेलिंग से कवर की गई है। इस के पास ही अल अब्बास मस्जिद है।
हुसैन के मकबरे पर लाल झंडा ही क्यों अरब में खून का बदला (किस्सास) दिया और लिया जाता है। खून माफ करने हेतु खून बहा (जमीन, जानवर, सोना या अन्य संसाधन) ले कर खून माफ किया जा सकता है। हुसैन और उनके परिवार के कत्ल का बदला अभी तक बाकी है। अरब में प्रथा है कि जब तक खून का बदला नहीं ले लिया जाता तब तक मकतूल की कब्र पर लाल झंडा रहता है।
मोहर्रम की ताजियादारी और आलोचना - वर्तमान काल में मुहर्रम की रस्मों ने तेजी से राजनीतिक आयाम विकसित किया है। उपदेशक अब उत्पीड़कों की तुलना कर्बला में हुसैन के दुश्मनों से करते हैं। कर्बला के संघर्ष ने अन्याय और उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष मार्ग प्रशस्त किया पर आज के कार्यक्रम इसे इस्लाम की मान्यता से पृथक करते हैं। शियाओं द्वारा किए जाने वाले मातम को निषेधित साबित करने हेतु सुन्नी विद्वान इब्राहिम के शुद्धतावादी धर्मपरायणता और संयम के सिद्धांत पर पर जोर देते हुए, एक हदीस का हवाला देते हैं कि मोहमद साहब अपने शिशु बेटे इब्राहिम की मृत्यु पर बहुत रोए थे पर लोगों को शोक मनाने से मना किया। एक और हदीस के अनुसार मुहम्मद साहब ने दुख के समय खुद और युद्ध के समय किसी पर चिल्लाने, चेहरा विकृत करने या कपड़े फाड़ने से मना किया था। शोक सभाओं की आलोचना करते हुए विद्वान सुझाव देते हुए कि गरीबों में घन और भोजन वितरित करना चाहिए। शिया इमाम अली इब्न हुसैन ज़ैन अल-अबिदीन ने अपने दुख की तुलना याकूब से यूसुफ की जुदाई के गम से की, जिसमें रोते हुए याकूब अंधे हो गए। मोहर्रम समर्थकों का तर्क है कि गरीबों को खाना खिलाना कर्बला संस्कृति का हिस्सा है। ताजियादारी विरोधियों का तर्क है कि इस्लाम में स्वयं को दुख देना और आत्महत्या वर्जित है जिस से काफी शिया विद्वान भी सहमत हैं। मातम के पक्षकारों का तर्क है कि वे कर्बला के शहीदों के दर्द का एक अंश अनुभव कर कुफ़ा वालों के पापों का प्रायश्चित करते हैं जिन्होंने हुसैन को अकेला छोड़ दिया। आजकल सांकेतिक रूप से रक्तदान को एक विकल्प के रूप में प्रोत्साहित किया जा रहा है। ब्यूयिड्स (शासन काल (934–1062) करबला में प्रथम सार्वजनिक जुलूस शिया राजवंश (ईरान और उराक के कुछ भाग के शासक) बुईदों के काल में आशूरा सन 963 में प्रथम बुईद शासक मुइज़ अल-दावला (सन 954 से 967) ने बगदाद के बाजार बंद करवा दिये, काले वस्त्र पहने शिया शोक मनाने वालों के जुलूस सड़कों पर रोते, चिल्लाते और अपने चेहरे और छाती पर मारते हुए निकले। इन जुलूसों के कारण शिया - सुन्नी दंगे होने लगे। सन 656 की में अली इब्न अबी तालिब के खिलाफ ऊंट की लड़ाई के समय के समझौते को लागू किया गया। मिस्र में दंगों के कारण फ़ातिमी ख़लीफ़ा अल-मुइज़ ली-दीन अल्लाह (सन 953 - 975) ने ऐसे जुलूसों को बंद कर दिया था। बारहवीं शताब्दी में शिया संप्रदाय समर्थक सफविद काल में मोहर्रम की रस्में ईरान पहुंच गईं। संस्थापक इस्माइल ने ईरान में शियावाद को बढ़ावा दिया। इस समय के की ताजियादारी कलात्मक रूप से विकसित हुई। अब हुसैनिया में मुहर्रम के पहले दस दिनों में वार्षिक शोक सभाएं (मजलिस) आयोजित की जाने लगीं, इमाम बड़े बने, सभाओं में कर्बला की याद में रवज़ - ख्वानी होने लगीं। 1503 में किताब रवज़ात अल-शुहादा प्रकाशित हुई जो शायद आज तक कर्बल कथाओं का सबसे सुंदर संग्रह है। सिना-ज़ानी (छाती पर प्रहार करना), ज़ंजीर-ज़ानी (पीठ पर जंजीरों से प्रहार करना), और टिक-ज़ानी या क़मा-ज़ानी (तलवारों या चाकुओं से खुद को मारना) शबीह ख्वानी (करबला की घटनाओं का नाटकीयकरण) के रिवाज शुरू हुए। तरह की रस्में उत्तरी ईरान (काकेशस) और अज़रबैजान (तुर्की भाषी क्षेत्रों) में उत्पन्न हुईं। ईरान से, ताज़िया बाद में इराक और फिर लेबनान पहुँच गया। ईरान में पहलवी शासन काल में ताजियादारी को लगभग बंद करवा दिया गया। इराक में भी ताजियादारी कुछ कम हुई है।
प्यासे थे करबला में मुस्तुफा के जानी, दरिया भी गैरत से हो रहा था पानी - पानी।
शमशेर भालू खान
9587243963
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