Thursday, 10 July 2025

✅जैन धर्म

               
जैन धर्म का मुख्य वाक्य :-
अहिंसा परमो धर्म है।

जैन धर्म संबोधन :- 
             जय जिनेन्द्र

जैन धर्म का परिचय मान्यता व इतिहास :-
जैन धर्म श्रमण परम्परा से निकला है जिसके प्रवर्तक 24 तीर्थंकर हैं, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) व अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी हैं। 
जैन धर्म की अत्यन्त प्राचीनता सिद्ध करने वाले सन्दर्भ अनेक उल्लेख (विशेषकर पौराणिक साहित्य) प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। 
श्वेतांबर व दिगम्बर जैन धर्म के दो सम्प्रदाय हैं।जैन ग्रन्थ समयसार व तत्वार्थ सूत्र हैं। जैनों के प्रार्थना स्थल जिनालय कहलाते हैं।
यह धर्म जिन परम्परा का धर्म है जिन शब्द का अर्थ है जिन द्वारा प्रवर्तित दर्शन। 
जिन के अनुयायीयों को जैन कहते हैं। 
जिन शब्द संस्कृत के जि धातु से बना है जिसका अर्थ है जीतना  जिन का अर्थ है जीतने वाला(तन,मन व वाणी को जीत कर आत्म ज्ञान से पूर्ण ज्ञान प्राप्त पुरुष जिनेन्द्र अथवा जिन कहलाता है)।

जैन धर्म की प्राचीनता :- 
जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में एक से है। कितना पुराना धर्म है इस बात का सही व पूर्ण आंकलन संभव नहीं है। 
महावीर स्वामी (वर्धमान) जन्म 599 ईसा पूर्व व  निर्वाण ईसा से 468 वर्ष पूर्व अर्थात मोहम्मद साहब से लगभग 1050 वर्ष पूर्व।। जैन धर्म बौद्ध धर्म से पहले का है (बुद्ध का जन्म 568 ईस्वी पूर्व) इसी समय से जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। जैनों ने अपने ग्रंथों को आगम पुराण में विभक्त किया है। 
कई शिलालेखों से जैन धर्म की प्राचीनता का बोध होता है। 
जिस प्रकार वेद संहिता में पंचवर्षात्मक युग हैं और कृत्तिका से नक्षत्रों की गणना की जाती है उसी प्रकार जैनों के अंग ग्रंथों में भी इसी प्रकार की गणना पाई जाती है जिससे इस धर्म की प्राचीनता सिद्ध होती है। 
अंतिम दो जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी का इतिहास ज्ञात है शेष के विषय में अनेक प्रकार की अलौकिक कथायें प्रचलित हैं। 

जैन धर्म में काल चक्र (समय चक्र) :-
वर्तमान काल चक्र अवसर्पिणी काल चक्र है। 
जैन कालचक्र दो भाग में विभाजित है : - 
1 उत्सर्पिणी :-
उत्सर्पिणी काल में समयावधि, वस्तुमान आयु व बल घटता है जबकि 
2 अवसर्पिणी :-
अवसर्पिणी में समयावधि,वस्तुमान और आयु व बल बढ़ता है 
इन दोनों का कालमान (अवधि) दस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम का होता है। 
प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 नारायण और 9 प्रतिनारायण का जन्म होता है। 
इन्हें त्रिसठ श्लाकापुरुष कहा जाता है। 
वर्तमान काल के 24 तीर्थंकर वर्तमान अवसर्पिणी के काल के हैं। प्रत्येक उत्सिर्पिणी या अवसर्पिणी काल में नये-नये जीव तीर्थंकर होते रहते हैं। 
इन्हीं तीर्थंकरों के उपदेशों को लेकर गणधर(मुख्य शिष्य) द्वादश (बारह) अंगो की रचना करते हैं। ये ही द्वादशांग जैन धर्म के मूल ग्रंथ हैं।

जैन धर्म मन्त्र :-
णमोकार मंत्र (नवकार मन्त्र, नमस्कार या पंच परमेष्ठि नमस्कार मन्त्र)
कुल 68 वर्ण वाले इस मंत्र के प्रथम पाँच पदों में 35 अक्षर और शेष दो पदों में 33 अक्षर हैं। 
यह जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है जो प्राकृत भाषा में है :-
णमो अरिहंताणं। 
णमो सिद्धाणं। 
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं। 
णमो लोए सव्वसाहूणं॥
सभी अरिहंतो,सिद्ध,आचार्यों,उपाध्यायों,साधुओं (पंचपरमेष्ठी) को नमस्कार किया जाता है जिसे परम पवित्र और अनादि मूल मंत्र माना जाता है। इसमें किसी व्यक्तिविशेष के स्थान संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन,स्मरण,चिंतन,ध्यान व अनुभव किया जाता है। 
लौकिक मंत्र सिर्फ लौकिक लाभ पहुँचाते हैं पर लोकोत्तर मंत्र लौकिक और लोकोत्तर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं। उदयगिरी की पहाड़ी पर हाथी गुफ़ा में 162 ईस्वी पूर्व के अभिलेख में णमोकार मंत्र एवं जैन राजा खारबेळा का उल्लेख मिला है।

जैन पालिताना मन्त्र :-  
पर्वतसोनगिरिहस्तिनापुरअयोध्याशिखरजीकुंडलपुरपावापुरीबावनगजारणकपुरखजुराहोवाराणसीश्रवणबेलगोलाउदयगिरिकुंभजओसियांपट्टदकलहलेबिडुएलोरागुन्टूरकुलपाकजीमत्तनचेरीतिरुमलै

जैन धर्म व भगवान :-
ईश्वर की मान्यता के आधार पर बौद्ध व जैन धर्म में लगभग समानता है। जैनधर्मावलम्बी उस ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक ज्ञाता व द्रष्टा है पर त्रिलोक का निर्माता या संहारक नहीं।
जैन धर्म में जिन या अरिहन्त और सिद्ध को ईश्वर मानते हैं। अरिहंतो और केवलज्ञानी की आयुष्य पूर्ण होने पर जब वे जन्ममरण से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त सिद्धि प्राप्त करते हैं,जैनी उसी की आराधना करते हैं और उन्हीं के निमित्त जिनालय बनवाते हैं। 
जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत देव ने संसार को द्रव्यार्थिक की अपेक्षा से अनादि बनाया है व जीवो के सुख दुःख के लिये दूसरा कोई नहीं स्वयं जीव ही जिम्मेदार है। अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख-दुःख भोगते हैं। जीव या आत्मा का मूल स्वभाव शुद्ध,बुद्ध व सच्चिदानंदमय है। केवल पुदगल (कर्म) आवरण से उसका मूल स्वरुप छुप जाता है व तप से पौद्गलिक भार हटते ही आत्मा परमात्मा की उच्च दशा को प्राप्त कर लेती है। जैन मत 'स्याद्वाद' के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्याद्वाद का अर्थ है अनेकांतवाद अर्थात एक ही पदार्थ में नित्यत्व - अनित्यत्व, सादृश्य - विरुपत्व, सत्व - असत्व एवं अभिलाष्यत्व- अनभिलाष्यत्व जैसे परस्पर भिन्न दर्शन को स्वीकार किया है।

जैन दर्शन अनुसार सृष्टि निर्माता व संहारक भगवान नहीं :-
जैन धर्म में अरिहन्त (केवली) और सिद्ध (मुक्त आत्माएँ) को कहा जाता है। जैन धर्म इस ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति, निर्माण या रखरखाव के लिए जिम्मेदार किसी निर्माता ईश्वर या शक्ति की धारणा को खारिज करता है। 
जैन दर्शन के अनुसार यह लोक और इसके छः द्रव्य हमेशा से हैं और रहेंगे। इस सृष्टि को किसी ने नहीं बनाया पूरा ब्रह्माण्ड स्व संचालित है और सार्वभौमिक प्राकृतिक क़ानूनों पर चलता है। 
जैन दर्शन के अनुसार भगवान अमूर्तिक है वह मूर्तिक वस्तु (ब्रह्माण्ड) का निर्माण नहीं कर सकती। 
जैन ग्रंथों में देवों (स्वर्ग निवासियों) का एक विस्तृत विवरण मिलता है देवी-देवता जो स्वर्ग में हैं वो अपने अच्छे कर्मों के कारण वहाँ हैं और भगवान नहीं माने जा सकते न ही इनको सृष्टि के रचनाकारों के रूप में स्वीकार किया जा सकता। देवता स्वयं दुखों के अधीन हैं एक निशित समय के लिए वहाँ हैं और यह भी मरण उपरांत मनुष्य बनकर ही मोक्ष तक जा सकते हैं। 
हर आत्मा का असली स्वभाव भगवंता है और हर आत्मा में अनंत दर्शन,अनंत शक्ति,अनंत ज्ञान और अनंत सुख है। आत्मा और कर्म पुद्गल के बंधन के कारण यह गुण प्रकट नहीं हो पाते। 
सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान,सम्यक्चरित्र के माध्यम से आत्मा के इस ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। इन रत्नत्रय धारक को भगवान कहा जाता है। एक भगवान इस प्रकार एक मुक्त आत्मा हो जाता है जो दुख,पुर्नजन्म,मोह,कर्म और अंत में शरीर से भी मुक्ति मिल जाती है अर्थात कोई भी मनुष्य कठोर तप कर भगवान बन सकता है।
इसे निर्वाण या मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार जैन धर्म में अनंत भगवान हैं। सब बराबर,मुक्त, और सभी गुण की अभिव्यक्ति में अनंत हैं।  
जैन दर्शन के अनुसार कर्म प्रकृति के मौलिक कण हैं व जिसने कर्म हनन कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया वो अरिहंत (भगवान) हैं। 
तीर्थंकर विशेष अरिहन्त होते हैं जो धर्म तीर्थ की रचना करते हैं (जीव को मुक्ति(मोक्ष) मार्ग दिखाते हैं) जैन धर्म किसी भी सर्वोच्च जीव पर निर्भरता नहीं सिखाता। तीर्थंकर आत्मज्ञान के लिए रास्ता दिखाते हैं पर ज्ञान के लिए संघर्ष ख़ुद ही करना पड़ता है।

पूजा 
जैनों द्वारा इन वीतरागी भगवानो की पूजा किसी उपकार या उपहार के लिए नहीं की जाती। वीतरागी भगवान की पूजा कर्मों को क्षय करने और भगवंता प्राप्त करने के लिए की जाती है।

सनातन धर्म में जैन साहित्य व तीर्थंकर :-
सनातन धर्म साहित्य में जैन तीर्थंकरों का वर्णन मिलता है। श्रीमद्भागवत में ॠषभदेव का वर्णन विष्णु के 24 अवतारों में से एक के रूप में किया गया है। श्रीमदभागवत में अर्हन राजा के रूप में वृषभदेव का वर्णन है। के पाँचवें स्कन्ध के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र हुये जिनके पुत्र राजा नाभि (जैन धर्म में नाभिराय) थे। राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट हुये। भागवत पुराण अनुसार ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की पुत्री जयन्ती से हुआ। इससे इनके सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े एवं गुणवान थे। उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट नौ राजकुमार शेष इकरानवे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष,प्रबुद्ध,पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन थे।
विष्णु पुराण में ऋषभदेव मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है।
ऋषभदेव की कथा भागवत आदि कई पुराणों में आई है। महाभारत के अनुशासन व शांति पर्व, स्कन्ध पुराण, जैन प्रभास पुराण,जैन लंकावतार आदि अनेक ग्रंथो में अरिष्टनेमि का उल्लेख है।

जैन धर्म दर्शन :-
अहिंसा परमो धर्मः जैन दर्शन का आधार है।
1 अहिंसा
2 कर्म
3 अनेकान्तवाद
अहिंसा :-
रागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण वर्धमान को महावीर की उपाधि दी गई व महावीर जिन जिन कहलाये जिसके कारण उनके द्वारा प्रचारित धर्म जैन धर्म कहलाया। 
सब जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता इसलिये जैन धर्म में प्राणि वध निषेध पहला उपदेश है। जैनी केवल प्राणों का ही वध नहीं दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा मानते हैं। 
महावीर ने अपने शिष्यों तथा अनुयायियों को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चलते, उठते-बैठते, सोते-जागते और खाते-पीते समय यत्नशील रहना चाहिये। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है।
विकारों (बुराई) पर विजय पाना, इन्द्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैन पन्थ में सच्ची अहिंसा बताया गया है। 
पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु और पौधों में जीवन है व एकेन्द्रिय (एक कोशिकीय) जीव की हत्या का भी इस धर्म में निषेध है।

2 कर्म :-
जैन पन्थ का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कर्म महावीर ने बार-बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर व चाहे जो बन सकता है वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं है।  तप व सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था ही ईश्वर है। जैन धर्म मुक्त ईश्वर व अवतारवाद को स्वीकार नहीं करता।
आठ नाशयोग्य कर्म :- 
1ज्ञानावरण
2 दर्शनावरण
3 वेदनीय
4 मोहनीय
5 अन्तराय
6 आयु
7 नाम 
8 गोत्र 
इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि (जन्ममरण) के प्रपंच से मुक्त हो जाता है।

छः द्रव्य :-
जैन धर्म में लोक में छः द्रव्य शाश्वत बताये गये हैं जिनको न तो मिटाया जा सकता है और न ही बनाया जा सकता है। 
जैन दर्शन के अनुसार तीन लोक में कोई भी कार्य निम्नलिखित छः द्रव्य के बिना नहीं हो सकता। सम्पूर्ण लोक मूल भूत इन छः द्रव्यों से बना हैं :- 
1 जीव
2 पुद्गल
3 धर्म
4 अधर्म
5 आकाश 
6 काल  

सात तत्व :-
अलोकाकाश में केवल आकाश ही है जिसमें सात तत्व बताये गये हैं :-
1 जीव :- 
जैन दर्शन में आत्मा के लिए जीव शब्द का प्रयोग किया गया जो चैतन्य स्वरुप है। 
2 अजीव :- 
जड़ या की अचेतन द्रव्य को अजीव (पुद्गल) कहा जाता है। अजीव
अजीव शब्द का अर्थ होता हैं जिसमें जान न हो।  जैन दर्शन के अनुसार यह सात तत्त्वों में से एक तत्त्व हैं।इस में स्वयं का बल नहीं होता और न स्वयं गति कर सकते हैं।
3 आस्रव :- 
पुद्गल कर्मों का आस्रव करना
4 बन्ध  :- 
आत्मा से कर्म बन्धना
5 संवर :- 
कर्म बन्ध को रोकना
6 निर्जरा :- 
कर्मों को क्षय करना
7 जैन धर्म व मोक्ष :-
जैन धर्म में मोक्ष का अर्थ है पुद्ग़ल (जीवन व मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं)। कर्मों से मुक्ति। जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के बाद जीव (आत्मा) जन्म मरण के चक्र से निकल जाती है व लोक के अग्रभाग सिद्धशिला में विराजमान हो जाती है। सभी कर्मों का नाश करने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। मोक्ष के उपरांत आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप (अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, और अनन्त शक्ति) में आ जाती है। ऐसी आत्मा को सिद्ध कहते है। मोक्ष प्राप्ति हर जीव के लिए उच्चतम लक्ष्य माना गया है। 
सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र से इसे प्राप्त किया जा सकता है। जैन धर्म को मोक्ष मार्ग भी कहा जाता है।

जैन धर्म व निर्वाण :-
निर्वाण यानी समस्त कर्मों से मुक्ति। जब साधु के घाति कर्म (आत्मा के गुणों का नाश करते है) से केवल ज्ञान प्रकट होता है व केवली भगवान बचे हुये अगहतिया (कर्मों का नाश) करते हैं व संसार सागर से मुक्त (निर्वाण) प्राप्त करते हैं। 
मोक्ष और निर्वाण शब्द जैन ग्रंथों में एक दूसरे की जगह प्रयोग किये गये हैं परन्तु दोनों में अंतर है। निर्वाण के उपरांत अरिहन्त सिद्ध बनते हैं। 
जैन ग्रन्थों के अनुसार तीर्थंकर भगवान पंच कल्याणक देवों द्वारा मनाए जाते हैं इनमें अंतिम निर्वाण कल्याणक होता है।

जैन धर्म में त्रिरत्न (रत्नत्रय) :-
यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं रहता। 
जैन धर्म के अनुसार इस रत्नत्रय सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चरित्र की एक रूपता ही मोक्ष का मार्ग है।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग - अर्थ जीव का असली स्वभाव व मोक्ष का मार्ग सम्यक् चरित्र है - (तत्त्वार्थसूत्र 1/1)

1 सम्यक् दर्शन  :- 
सम्यक् दर्शन को प्राप्ति के लिए तत्त्व निर्णय की साधना करनी पड़ती है । तत्त्व निर्णय - मै इस शरीर आदि से भिन्न एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्त्व भगवान आत्मा हूँ यह शरीर मै नहीं और मैं इसका नहीं।

2 सम्यक् ज्ञान  :
सम्यक ज्ञान प्राप्ति के लिए भेद ज्ञान की साधना करनी पड़ती है | भेद ज्ञान - जिस जीव का जिस दृव्य का जिस समय जो कुछ भी होना है वह उसकी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा। उसे कोई फेर-बदल नहीं कर सकता।

3 सम्यक् चारित्र : 
सम्यक चारित्र की साधना के लिए वस्तु स्वरुप की साधना करनी पड़ती है। सम्यक चरित्र का तात्पर्य नैैतिक आचरण से है | पंच महाव्रत के पालन से ही चरित्र निर्माण संभव है|
1 सम्यग्दर्शन (श्रद्धा के बाद)
2 सम्यग्ज्ञान (सम्यग्दर्शन से)
3 सम्यक्चारित्र (व्रत, तप, संयम के पालन से) 
यही तीन रत्न मोक्ष का मार्ग हैं।
जैन सिद्धान्त में रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है और जीव समस्त कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
जीव को ऊर्ध्वगति प्राप्त होने के कारण वह लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर अवस्थित हो जाता है। उसे अनंतदर्शन,अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की प्राप्ति होती है और वह अन्तकाल तक वहाँ निवास करता है जहां से लौटकर नहीं आता (मोक्ष मिल जाता है)।

जैन धर्म मे सम्यकत्व :-
सम्यक्त्व के आठ अंग है :—
1 निःशंकितत्त्व
2 निःकांक्षितत्त्व
3 निर्विचिकित्सत्त्व
4 अमूढदृष्टित्व
5 उपबृंहन / उपगूहन
6 स्थितिकरण
7 प्रभावना
8 वात्सल्य

3 अनेकान्तवाद (स्यादवाद) :-
अनेकान्तवाद जैन पन्थ का तीसरा मुख्य सिद्धान्त है।अनेकान्त का अर्थ है- किसी भी विचार या वस्तु को अलग अलग दष्टिकोण से देखना, समझना,परखना और सम्यक भेद द्धारा सर्व हितकारी विचार या वस्तु को मानना ही अंनेकात है।
यह अहिंसा का वृहद रूप है। राग द्वेषजन्य, प्रतिशोध के संस्कारों के वशीभूत न होकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकान्तवाद है। 
इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी मत या सिद्धान्त को पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक मत अपनी अपनी परिस्थितयों और समस्याओं को लेकर उदृत हुआ है अतः प्रत्येक मत में अपनी खास विशेषतायें हैं। अनेकान्तवादी इन सबका समन्वय करके आगे बढ़ता है। आगे चलकर जब इस सिद्धान्त को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से जाना जाने लगा स्यादवाद का अर्थ है- विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन।

स्यादवाद में सात परिस्थितियां (भाग) हैं :-
(सप्तभंगी) :-
1 स्यात् अस्ति
2 स्यात् नास्ति
3 स्यात् अस्ति नास्ति
4 स्यात् अवक्तव्य
5 स्यात् अस्ति अवक्तव्य
6 स्यात् नास्ति अवक्तव्य
7 स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य

जैन धर्म व आचार-विचार का दर्शन :-
जैन धर्म में आत्मशुद्धि पर बल दिया गया है। आत्मशुद्धि प्राप्त करने के लिये देह-दमन और कष्टसहिष्णुता को मुख्य माना गया है। निर्ग्रंथ और निष्परिग्रही होने के कारण तपस्वी महावीर नग्न अवस्था में विचरण किया करते थे। यह बाह्य तप भी अन्तरंग शुद्धि के लिये ही किया जाता था। जैन सूत्रों के अनुसार भले ही कोई नग्न अवस्था में रहे या एक एक महीने उपवास करे अगर उसके मन में मोहमाया है तो उसे सिद्धि नहीं मिल सकती।  जैन आचार-विचार के पालन करने को शूरों (वीरों) का मार्ग कहा गया है। जैसे लोहे के चने चबाना,बालू का ग्रास भक्षण करना,समुद्र को भुजाओं से पार करना और तलवार की धार पर चलना दुस्साध्य है वैसे ही निर्ग्रंथ आचरण को भी दुस्साध्य कहा गया है।

जैन धर्म व वर्ण व्यवस्था :-
बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म में भी जाति भेद को स्वीकार नहीं किया गया है। जैन ग्रन्थों में कहा गया है कि सच्चा वही है जिसने राग,द्वेष और भय पर विजय प्राप्त की है, जो अपनी इन्द्रियों पर निग्रह रखता है। 
जैन धर्म में अपने अपने कर्मों के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र की कल्पना की गई है किसी जाति विशेष में उत्पन्न होने से नहीं। महावीर ने अनेक म्लेच्छ, चोर, डाकू, मछुआरे, वेश्या और चांडालों को जैन धर्म में दीक्षित किया। इस प्रकार की अनेक कथायें जैन ग्रन्थों में पाई जाती हैं।

जैन धर्म के पंच महाव्रत :-
23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चार महाव्रत थे फिर महावीर स्वामी ने पांचवां महाव्रत अपनाया  जैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों के लिए पाँच महाव्रत अनिवार्य हैं। तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है वो महाव्रत कहलाते हैं :-
1 अहिंसा :- किसी भी जीव को मन, वचन व कर्म से पीड़ा नहीं पहुँचाना ही अहिंसा है। 
किसी जीव के प्राणों का घात नहीं करना।
2 सत्य :- हित,मित,प्रिय वचन बोलना।
3 अस्तेय :- बिना दी गई वस्तु को ग्रहण नहीं करना व ।
4 अपरिग्रह :- पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का बुद्धिपूर्वक त्याग व संग्रह प्रवृति का त्याग।
5 ब्रह्मचर्य :- मन,वचन,कर्म व शरीर से मैथुन कर्म का त्याग करना।
जैन मुनि इन व्रतों का सूक्ष्म रूप से पालन करते है व श्रावक आंशिक रूप से पालन करते हैं।

जैन धर्म के चार कषाय (दुःख के कारण)  :-
1 क्रोध
2 मान
3 माया
4 लोभ 
इन चार कषाय है जिनके कारण कर्मों का आस्रव होता है  जिनको संयमित रखने के लिये
1 माध्यस्थता
2 करुणा
3 प्रमोद
4 मैत्री भाव 
को धारण करने से दुःख का निवारण होता है।

जैन धर्म मे चार (पांच) गतियाँ :-
जैन धर्मानुसार जीवन की चार गतियाँ जिनमें संसारिक मोह में जीव का जन्म मरण होता रहता है इनको पार करने पर ही अंतिम गति मोक्ष है।
1 देव गति
2 मनुष्य गति
3 तिर्यंच गति
4 नर्क गति
5 मोक्ष (पंचम या अंतिम गति) कहा जाता है।

जैन धर्म में चार निक्षेप :-
1 नाम निक्षेप
2 स्थापना निक्षेप
3 द्रव्य निक्षेप
4 भाव निक्षेप

जेन धर्म मे तीन प्रमाण :-
1 प्रत्यक्ष
2 अनुमान
3 आगम (आगम)

जैन धर्म में नौ पदार्थ :-
जैन ग्रंथों के अनुसार जीव व अजीव दो मुख्य पदार्थ हैं शेष अजीव के भेद हैं।
1जीव  
2 अजीव (जीव व अजीव दो मुख्य पदार्थ)
3 आस्रव, (3 से 9 अजीव के भाग)
4 बन्ध
5 संवर
6 निर्जरा
7 मोक्ष
8 पुण्य
9 पाप

जैन साहित्य (नाटकत्रयी) व धर्म ग्रन्थ :-
जैन सम्प्रदाय में तीन सार ग्रन्थ हैं :-
1पञ्चास्तिकायसार
2 समयसार 
3 प्रवचनसार 
जैन धर्म ग्रंथ :-
तत्त्वार्थ सूत्र- सभी जैनों द्वारा स्वीकृत ग्रन्थ है।
दिगम्बर (जैन) (आगम ग्रन्थ)। दिगम्बर आचार्यों द्वारा समस्त जैन आगम ग्रंथो को चार भागो में बांटा गया है :-
(1) प्रथमानुयोग
(2) करनानुयोग
(3) चरणानुयोग
(4) द्रव्यानुयोग

दिगम्बर ग्रन्थ
1 षट्खण्डागम- (मूल आगम ग्रन्थ)
2 समयसार  (आचार्य कुंद कुंद द्वारा रचित) 
3 प्रवचनसार
4 नियमसार
5 रयणसार
6 रत्नकरण्ड 
7 श्रावकाचार
8 पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
9 आदिपुराण
10 इष्टोपदेश,
11 आप्तमीमांसा
12 मूलाचार
13 द्रव्यसंग्रह
14 गोम्मटसार
15 भगवती आराधना
16 योगसार
17 परमात्म प्रकाश
18 पद्मपुराण 
19 श्रेणिक चरित्र
20 हरिवंश पुराण
21 तिलोय पण्णत्ती
22 तत्वार्थ सूत्र
23 जिनसहस्त्र नाम स्त्रोत
24 अष्टपाहुड
25 आलाप पद्धति
26 ज्ञानार्णव
27 मालारोहण - (आचार्य तारण स्वामी रचित) 28 पंडित पूजा     "   "   "
29 कमलबत्तीसी   "  "  "
30 तारण तरण     "  "  "
31 श्रावकाचार
32 न्यानसमुच्चय साथ
33 उपदेशशुद्ध सार
34 त्रिभंगीसार
35 चौबीसठाणा
36 ममलपाहुड
37 षातिकाविशेष
38 सिद्धस्वभाव
39 सुन्नस्वभाव
40 छद्मस्थवाणी
41 नाममाला
42 कार्तिकेयानुप्रेक्षा
43 समयसार कलश
44 हरिवंश पुराण
45 पार्श्व पुराण
46 उत्तर पुराण
47 सर्वार्थ सिद्धि
48 त्रिलोकसार
49 दर्शनसार

श्वेताम्बर जैन धर्म ग्रन्थ
1 कल्पसूत्र 

काव्यात्मक जैन साहित्य :-
1 स्वयंभूस्तोत्र :- (आचार्य समन्तभद्र रचित) चौबीस तीर्थंकर की स्तुति की गई है।
2 युक्तानुशासन :- (आचार्य समन्तभद्र रचित) एक काव्य रचना में भी सभी तीर्थंकर की स्तुति की गई है।
3 वर्धमान स्तोत्र :-  (मुनि प्रणम्यसागर रचित)  
एक काव्य रचना में भी सभी तीर्थंकर की स्तुति की गई है।
4 वीरष्टकम :-  (मुनि प्रणम्यसागर रचित)
महावीर स्वामी की स्तुती
5 महावीर रस :- (18 वी सदी में महाकवि पदम रचित) महावीर रस का हिंदी अनुवाद और संपादन डॉ. विद्यावती जैन द्वारा किया गया व 1994 में प्राच्य श्रमण भारती द्वारा प्रकाशित किया गया।

जैन पुराण :-
जैन परम्परा में 63 शलाका पुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएं तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण-साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
जैन धर्म में 24 पुराण तो तीर्थकरों के नाम पर हैं, और भी बहुत से हैं जिनमें तीर्थकरों के अलौकिक चरित्र, सब देवताओं से उनकी श्रेष्ठता, जैन धर्म संबंधी तत्वों का विस्तार से वर्णन, फल स्तुति, माहात्म्य आदि हैं। अलग पद्म पुराण और हरिवंश (अरिष्टनेमि पुराण) भी हैं।
मुख्य पुराण हैं:- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंश) पुराण, रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्वपूर्ण हैं।
समस्त आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है
(१) प्रथमानुयोग
(२) करनानुयोग
(३) चरणानुयोग
(४) द्रव्यानुयोग।
अन्य ग्रन्थ
1.षट्खण्डागम
2.धवला टीका
3.महाधवला टीका
4.कसायपाहुड
5.जयधवला टीका
6.समयसार
7.योगसार
8.प्रवचनसार
9.पंचास्तिकायसार
10.बारसाणुवेक्खा
11.आप्तमीमांसा
12.अष्टशती टीका
13.अष्टसहस्री टीका
14.रत्नकरण्ड श्रावकाचार
15.तत्त्वार्थसूत्र
16.तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका
17.तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीका
18.समाधितन्त्र
19.इष्टोपदेश
20.भगवती आराधना
21.मूलाचार
22.गोम्मटसार
23.द्रव्यसंग्रह
24.अकलंकग्रन्थत्रयी
25.लघीयस्त्रयी
26.न्यायकुमुदचन्द्र टीका
27.प्रमाणसंग्रह
28.न्यायविनिश्चयविवरण
29.सिद्धिविनिश्चयविवरण
30.परीक्षामुख
31.प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका
32.पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
33.भद्रबाहु संहिता

बौद्ध ग्रंथों में कहीं पुराणों का उल्लेख नहीं है पर तिब्बत और नेपाल के बौद्ध ९ पुराण मानते हैं जिन्हें वे नवधर्म कहते हैं —

(1) प्रज्ञापारमिता (न्याय का ग्रंथ कहना चाहिए),
(2) गंडव्यूह,
(3) समाधिराज,
(4) लंकावतार (रावण का मलयागिरि पर जाना और शाक्यसिंह के उपदेश से बोधिज्ञान लाभ करना वर्णित है),
(5) तथागतगुह्यक,
(6) सद्धर्मपुंडरीक,
(7) ललितविस्तर (बुद्ध का चरित्र),
(8) सुवर्णप्रभा (लक्ष्मी, सरस्वती, पृथ्वी आदि की कथा और उनका शाक्यसिंह का पूजन)
(9) दशभूमीश्वर

जैन श्रावक व चातुर्मास :-
मानसून के चार महीनों में आषाढ़ शुक्ल चौथ से कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दिपावली तक) धर्म की रक्षा के लिए जैन साधु विहार(भ्रमण) नहीं करते। इस समय पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति बढ़ जाती है।
कीडे,मकोड़े व झिंगुर-पंखी रात के अंधेरे में एवं वर्षा होते ही केंचुये,मेंढक,टिड्डे,बिच्छू,चींटे व कई प्रकार की वनस्पतियां पैदा होती हैं और इनमें भी जान पाई जाती है, अहिंसा व्रत पालनार्थ चींटी से लेकर बड़े प्राणी हिंसा के पात्र न बने इसलिये चतुर्मास में जैन साधु बाहर नहीं घूमते।

जैन शिद्धान्त :-
महावीर ने पाँचवा महाव्रत 'ब्रह्मचर्य' के रूप में भी स्वीकारा।जैन सिद्धांतों की संख्या 45 है, जिनमें 11 अंग हैं।

जैन धर्म के प्रमुख त्यौहार :-
1 महावीर जयंती
2 पर्युषण
3 सोलहकारण पर्व
4 अष्टान्हिका पर्व
5 पंचमेरू पर्व
6 रत्नत्रय पर्व
7 ऋषिपंचमी
8 श्रुत पंचमी
8 वीरशासन जयंती पर्व

जैन धर्म में सम्प्रदाय :-
जैन धर्म के मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं :-
1 श्वेताम्बर (सफेद वस्त्र पहनने वाला)
2 दिगम्बर (नग्न रहने वाला)
3 स्थानकवासी

जेन धर्म मे दो शाखाएँ श्वेताम्बर व दिगम्बर में बंटने के कारण :- 
तीर्थंकर महावीर तक सब ठीक था बाद में ईसा की तीसरी सदी में यह दो भागों में विभक्त हो गया - दिगंबर व श्वेताम्बर। 
जैन धर्म और दर्शन ग्रन्थ के अनुसार आचार्य भद्रबाहु ने दिव्य ज्ञान के बल पर जान लिया था कि उत्तर भारत में १२ वर्ष तक दुर्भिक्ष अकाल पड़ने वाला है।
उन्होंने सभी साधुओं को निर्देश दिया कि इस भयानक अकाल से बचने के लिए दक्षिण भारत की ओर विहार करना उचित होगा। उन के साथ बहुत से जैन मुनि (निर्ग्रन्थ) दक्षिण(केरल,विदर्भ, तमिलनाडु व कर्नाटक) की ओर प्रस्थान किया पर कुछ जैन साधु उत्तर भारत में ही रह गये  जिन्होंने क्रियाएँ शिथिल अकालानुसार स्थिर कर लीं जैसे कटि वस्त्र धारण, ७ घर  भिक्षाटन, 14 यंत्र साथ रखना। 
12 वर्ष अकाल कटने के बाद दक्षिण से लौट कर आये साधुओं ने पुनः यथास्थिति हेतु  (12 वर्ष पूर्व की ) उत्तर भारत में रह गये साधुओं से निवेदन किया परन्तु ऐसा नहीं हो सका और जैन धर्म दिगंबर व श्वेताम्बर दो भाग में विभक्त हो गया।

(क) दिगम्बर
दिगम्बर का अर्थ होता हैं: "दिशायें ही जिनका अम्बर (वस्त्र) हों।  दिगम्बर मुनि केवल कमंडल पिच्छी और शास्त्र ही संग रख सकते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द इस काल के प्रमुख दिगम्बर आचार्य थे। 
प्रत्येक दिगम्बर मुनि को 28 मूल-गुणों का पालन करना अनिवार्य हैं, यह हैं-
1 नङ्गा रहना - दिगम्बर साधु (निर्ग्रन्थ) वस्त्र नहीं पहनते है। दिगम्बर मतानुसार तीर्थकरों की प्रतिमायें पूर्ण नग्न बनायी जाती हैं और उनका श्रृंगार नहीं किया है। 
दिगंबर समुदाय तीन में भागों विभक्त हैं।
दिगम्बर जैन धर्म शाखा के भी दो भाग हो गये
1 दिगम्बर तेरापन्थ
2 दिगम्बर बीसपंथ

(ख) श्वेताम्बर
जैन श्वेताम्बर साध्वियाँ और संन्यासी श्वेत वस्त्र पहनते हैं। तीर्थकरों की प्रतिमाएँ प्रतिमा पर धातु की आंख व कुंडल सहित बनायी जाती हैं और उनका शृंगार किया जाता है।
श्वेताम्बर भी दो भाग मे विभक्त है :-
1 मूर्तिपूजक 
 यॆ तीर्थकरों की प्रतिमाओं की पूजा करतॆ हैं।
2 अमूर्तिपूजक - 
ये मूर्ति पूजा नहीँ करते। द्रव्य पूजा की जगह भाव पूजा में विश्वास करते हैं।
अमूर्तिपूजक के भी दो भाग हैं।

जैन धर्म में गणधर
जैन तीर्थंकर के मुख्य शिष्य को गणधर कहते हैं।

जैन धर्म व यक्ष व यक्षिणी  :-
यक्ष पौराणिक चरित्र हैं जिसका शाब्दिक अर्थ है - जादू की शक्ति। यक्ष राक्षसों के निकट संबन्धी हैं।
मान्यता के अनुसार प्रारम्भ में दो प्रकार के राक्षस होते थे 
1 रक्षक (यक्ष - मनुष्य के मित्र गण)
2 राक्षस (मनुष्य के शत्रु गन)
यक्ष(पुरूष) यक्षिणी(स्त्री)
सनातन दर्शननानुसार कुबेर एक अच्छे यक्ष थे जो धन व सम्पदा में अतुलनीय थे। 
महाभारत काल में पाण्डव दूसरे वनवास के समय वन-वन भटक रहे थे तब एक यक्ष से उनकी भेंट हुई जिसने युधिष्ठिर से विख्यात यक्ष प्रश्न (यक्ष प्रश्न) किये थे।
2 राक्षस व राक्षशी :-
मनुष्य के शत्रु गण

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर
जैन पन्थ के सभी तीर्थकर क्षत्रिय कुल में हुए थे। इससे मालूम होता है कि पूर्वकाल में जैन धर्म क्षत्रियों का धर्म था, लेकिन आजकल अधिकांश वैश्य लोग ही इसके अनुयायी हैं। वैसे दक्षिण भारत में सेतवाल आदि कितने ही जैन खेतीबारी का धंधा करते हैं। पंचमों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के धंधे करनेवाले लोग पाए जाते हैं। जिनसेन मठ (कोल्हापुर) के अनुयायियों को छोड़कर और किसी मठ के अनुयायी चतुर्थ नहीं कहे जाते। चतुर्थ लोग साधारणतया खेती और जमींदारी करते हैं। सतारा और बीजापुर जिलों में कितने ही जैन धर्म के अनुयायी जुलाहे, छिपी, दर्जी, सुनार और कसेरे आदि का पेशा करते हैं।
जैन धर्म के सभी तीर्थंकर क्षत्रिय वंश से हैं जिनमें से कुछ ने गृहस्थ जीवन को भोगा है।
तीर्थ शब्द का अर्थ है तीन रथ अर्थात तीन लोक धरती,आकाश व पाताल। इन तीनों लोकों के आवागमन (जन्ममरण) से छुटकारा(मोक्ष) दिलवाने की शिक्षा देने वाला ही तीर्थंकर कहलाता है। तीर्थंकर का पद कठोर तपस्या से प्राप्त होता है।
जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त कर संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है व वह तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर वह व्यक्ति हैं जिन्होनें पूरी तरह से क्रोध,छल, तृष्णा अभिमान,मोह व इच्छा पर विजय प्राप्त की हो। 
तीर्थंकर को इस नाम से कहा जाता है क्योंकि वे तीर्थ (पायाब) के रूप में मानव को कष्ट की नदी पार करवाते हैं।[दो जैन तीर्थंकरों ऋषभदेव एवं अरिष्टनेमि या नेमिनाथ के नामों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। अरिष्टनेमि को भगवान श्रीकृष्ण का निकट संबंधी माना जाता है।
जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों माने जाते हैं जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। 
जैन 24 तीर्थंकर कुछ तथ्य :-
(1) 24 में से 23 इक्ष्वाकु वंश से एक यदुवंशी
(2) 21 का निर्वाण सम्मेद शिखर (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) हुआ।
(3) 23 तीर्थंकर ने गृहस्थ जीवन का भोग किया।
(4) 21 तीर्थंकर प्रागेतिहासिक काल पूर्व के हैं।
(5) सभी राजापुत्र थे।
(6) आदिनाथ की लंबाई 1500 मीटर थी जो महावीर स्वामी तक आते-आते घट कर सामान्य मनुष्य की हो गई।
(7) आदिनाथ से तीर्थंकरों की आयु लाखों वर्ष से घट कर महावीर स्वामी तक 72 वर्ष रह गई।

24 जैन तीर्थंकर व उनका सामान्य परिचय :-
1 ऋषभदेव :-
काल -एक लाख वर्ष पूर्व का प्रागेतिहासिक काल
वर्णन - श्रीमद्भागवत, स्कंदपुराण,भगवन्तपुरण
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - अंतिम कुल राजा नाभिराज (मनु के पोते व प्रियव्रत के पुत्र)
माता - महारानी मरूदेवी
विवाह - नन्दा, सुनन्दा, इंद्र पुत्री जयन्थि व यशावति
सन्तान -
पुत्र - कुल 100 पुत्र भरत चक्रवर्ती(भारत का नाम इन्हीं के नाम पर भारतभूमि), बाहुबली और वृषभसेन,अनन्तविजय,अनन्तवीर्य आदि 98 पुत्र
पुत्री -  दो पुत्री ब्राह्मी (अक्षरज्ञान,लिपिज्ञान) और सुंदरी - (अंकविद्या)
जन्म  - अयोध्या
मोक्ष -  माघ कृष्ण १४ कैलाश पर्वत
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - वृषभ (बैल)
ऊंचाई  - 500 धनुष (1500 मीटर)
यक्ष - गोमुख देव
यक्षिणी - चक्रेश्वरी

2 अजितनाथ :-
काल - ईस्वी से एक लाख वर्ष पूर्व प्रागेतिहासिक
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - राजा जितशत्रु
माता - विजया
जन्म - अयोध्या (माघ शुकल अष्टमी)
मोक्ष -  सम्मेद शिखर (चैत्र शुक्ल पक्ष पंचमी)
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - हाथी
ऊंचाई - 450 धनुष (450x3 = 1350 मीटर)
यक्ष - महायक्ष
यक्षिणी - अजितबाला
गणधर (मुख्य शिष्य) - चक्रयुध

3 सम्भवनाथ :-
काल 10000 वर्ष पूर्व काल प्रागेतिहासिक
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - राजा जितारि
माता - सेना रानी
जन्म  -  श्रावस्ती (श्रावण माष) 
मोक्ष  -  सम्मेद शिखर (चैत्र मास)
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - घोड़ा
ऊंचाई - 400 धनुष
(एक धनुष= तीन मीटर  (1200 मीटर) 
यक्ष  - त्रिमुख
यक्षिणी - दुरितारि

4 अभिनंदन :-
काल - 10000  वर्ष पूर्व काल प्रागेतिहासिक
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - सन्वर
माता - सिद्धार्था
जन्म - अयोध्या (माघ शुक्लपक्ष बारहवीं)
मोक्ष -  सम्मेद शिखर (वैशाख शुक्लपक्ष सप्तमी)
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - बन्दर
ऊंचाई 350 धनुष (1050 मीटर)
यक्ष - ईश्वर
यक्षिणी - काली

5 सुमतिनाथ :-
काल - 10000 वर्ष पूर्व का काल प्रागेतिहासिक
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - मेघरथ
माता - सुमंगला
जन्म -  काम्पिल (चैत्र शुक्ल ग्यारस)
मोक्ष -  सम्मेद शिखर (चैत्र शुक्ल दशमी)
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - चकवा
ऊंचाई - 300 धनुष (900 मीटर)
यक्ष - तुम्बरु
यक्षिणी - महा काली

6 पद्मप्रभ जिन :-
काल - 10000 ईस्वी पूर्व काल प्रागेतिहासिक
शिक्षा - अहिंसा
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - श्रीधर धरण राज
माता - सुसीमा
जन्म - वत्स कोशाम्बी (कार्तिक कृष्णपक्ष तेरस)
मोक्ष - सम्मेद शिखर (फाल्गुन कृष्णपक्ष चौथ)
रंग - लाल
चिन्ह - कमल
ऊंचाई - 250 धनुष (750 मीटर)
यक्ष - कुसुम
यक्षिणी - अच्युता

7 सुपार्श्वनाथ :-
काल - 10000 ईस्वी पूर्व काल प्रागेतिहासिक
 जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - सुप्रतिष्ठ
माता - पृथ्वी
जन्म   -काशी (बनारस)
मोक्ष  - सम्मेद शिखर
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - स्वास्तिक
ऊंचाई - 200 धनुष (600 मीटर)
यक्ष - मातंग
यक्षिणी - शांता

8 चंदाप्रभु :-
काल - 10000 वर्ष पूर्व कालखंड प्रागेतिहासिक
 जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - महासेन
माता - लक्ष्मणा
जन्म - चन्द्रपुरी
मोक्ष  - सम्मेद शिखर
रंग - सफ़ेद
चिन्ह - चंद्रमा
ऊंचाई - 150 धनुष (450 मीटर)
यक्ष - विजय
यक्षिणी - ज्वाला

9 सुविधिनाथ :-
इन्हें 'पुष्पदन्त' भी कहा जाता है
काल - ईसा से एक लाख वर्ष पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - सुग्रीव
माता - रामा
जन्म -  काकन्दी (मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी)
मोक्ष स्थान - सम्मेद शिखर
रंग - सफ़ेद
चिन्ह - मगर
ऊंचाई - 100 धनुष (300 मीटर)
यक्ष - अजित
यक्षिणी - सुतारा

10 शीतलनाथ जिन :-
काल - ईसा से एक लाख वर्ष पूर्व प्रागेतिहासिक 
जवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - दृढरथ राज
माता - सुनन्दा
जन्म स्थान - भद्रिकापुरी
मोक्ष स्थान - सम्मेद शिखर
रंग - सुनहरा
चिन्ह - कल्पवृक्ष
ऊंचाई - 90 धनुष (270 मीटर)
यक्ष - ब्रह्मा
यक्षिणी - अशोक

11 श्रेयांसनाथ :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - विष्णु नरेन्द्र
माता - वेणुदेवी
जन्म  - सिंहपुर सारनाथ (भादवा कृष्णा सप्तमी)
मोक्ष -  सम्मेद शिखर
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - गैंडा
ऊंचाई - 80 धनुष (240 मीटर)
यक्ष - ईश्वर
यक्षिणी - गौरी

12 वासुपूज्य :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
पिता -  वासुपूज्य
माता - जया
वंश - इक्ष्वाकु
जन्म - चम्पापुरी
निर्वाण - चम्पापुरी
रंग - लाल
चिन्ह - भैंसा
ऊंचाई - 70 धनुष (210 मीटर)
यक्ष - सुकुमार
यक्षिणी - चंद्रा

13 विमलनाथ :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन  - गृहस्थ जीवन
वंश -इक्ष्वाकु
पिता - कृतवर्मन
माता - श्यामा
जन्म- काम्पिल
मोक्ष स्थान - सम्मेद शिखर
रंग -  स्वर्ण
चिन्ह - सुअर
ऊंचाई - 60 धनुष (180 मीटर)
यक्ष - षण्मुख
यक्षिणी - विदिता

14 अनंतनाथ :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
 जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - सिंहसेन
माता - सुयशा
जन्म- अयोध्या
मोक्ष स्थान -सम्मेद शिखर
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - सेही
ऊंचाई - 50 धनुष (150 मीटर)
यक्ष - पाताल
यक्षिणी - अंकुशा

15 धर्मनाथ :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - राजा भानु
माता - सुव्रता
जन्म -  श्रावस्ती (कार्तिक शुक्ल पक्ष)
मोक्ष - सम्मेद शिखर (चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठमी)
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - वज्र
ऊंचाई - 45 धनुष (135 मीटर)
यक्ष - 
यक्षिणी - कन्दर्पा

16 शांतिनाथ :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - विश्वसेन
माता - अचिरा देवी (ऐरा देवी)
जन्म - हस्तिनापुर  (भादवा कृष्ण सप्तमी)
मोक्ष स्थान - सम्मेद शिखर (कृष्ण चतुर्दशी)
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - हिरण
ऊंचाई - 40 धनुष (120 मीटर)
यक्ष - गरुड़
यक्षिणी - निर्वाणी

17 कुंथुनाथ जिन :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - राजा शूर
माता - रानी श्रीदेवी
जन्म स्थान हस्तिनापुर
मोक्ष स्थान - सम्मेद शिखर
रंग - स्वर्ण
चिन्ह - बकरा
ऊंचाई - 35 धनुष (105 मीटर)
यक्ष - गन्धर्व
यक्षिणी - बाला

18 अरनाथ :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
पिता - सुदर्शन
माता - देवीरानी
वंश -इक्ष्वाकु
जन्म -हस्तिनापुर
निर्वाण - सम्मेद शिखर
रंग - सुनहरा
चिन्ह - मछली
ऊंचाई - 30 धनुष (90 मीटर)
यक्ष - यक्षेंद्र
यक्षिणी - धारिणी

19 मल्लिनाथ :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन गृहस्थ
पिता - कुम्भराज
माता - प्रभावती
वंश - इक्ष्वाकु
जन्म - मिथिला (मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष एकादशी)
निर्वाण - सम्मेद शिखर (फाल्गुन शुक्लपक्ष द्वितीया)
रंग - नीला
चिन्ह - कलश
ऊंचाई - 25 धनुष (75 मीटर)
यक्ष - कुबेर
यक्षिणी - धरणप्रिया

20 मुनिसुव्रत :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
पिता - हरिवन्श (सुमित्र)
माता - पद्मावती
जन्म -  राजगृही (कार्तिक शुक्ल पक्ष)
मोक्ष -  सम्मेद शिखर (चैत्र सुदी सष्ठमी)
रंग - काला
चिन्ह - कछुआ
ऊंचाई - 20 धनुष (60 मीटर)
यक्ष - वरुण
यक्षिणी - नरदत्ता

21 नमिनाथ :-
काल - एक लाख ईस्वी पूर्व प्रागेतिहासिक काल
जीवन - गृहस्थ जीवन
पिता - विजयराजा
माता - वप्रारानी
वंश - इक्ष्वाकु
जन्म - मिथिला (श्रावण कृष्ण पक्ष की अष्टमी)
निर्वाण - सम्मेद शिखर
रंग - सुनहरा
चिन्ह - नील कमल
ऊंचाई - 15 धनुष (45 मीटर)
यक्ष: - भृकुटी
यक्षिणी - गांधारी

22 अरिष्टनेमि  - 
इन्हें नेमिनाथ भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे व समकालीन थे।
इनसें पुर्व के इक्कीस तीर्थंकरों को प्रागैतिहासिक कालीन महापुरुष माना जाता।
काल - उत्तर प्रागेतिहासिक काल 82000 ई.पू.
जीवन - गृहस्थ जीवन
पिता- समुद्रविजय
माता - शिवदेवी
वंश - यदुवंश
जन्म - सौरीपुर (श्रावण शुक्ल पंचमी)
निर्वाण - गिरनार (आषाढ माष)
रंग - काला
चिह्न - शंख
ऊंचाई: - 10 धनुष (30 मीटर)
यक्ष - गोमेध
यक्षिणी - अम्बिका

23 पार्श्वनाथ (पारसनाथ) जिन :-
काल - 872-772 ईस्वी पूर्व (2900 साल पूर्व)
जीवन - अविवाहित ब्रह्मचर्य का पालन
वंश - इक्ष्वाकु
पिता - राजा अश्वसेन
माता - रानी वामादेवी
घर त्याग - तीस वर्ष की आयु में
जन्म -  वाराणसी (पूर्व पौष कृष्‍ण एकादशी) जैन मान्यतानुसार 10 वां पुनर्जन्म
मोक्ष -  सम्मेद शिखर (श्रावण शुक्ला सप्तमी) 
रंग - हरा
चिन्ह - सर्प
लम्बाई - 9 हाथ (लगभग 15 फुट)
यक्ष - धरणेन्द्र
यक्षिणी - पद्मावती

24 वर्धमान महावीर :- (सन्मति, वीर, अतिवीर)
जन्म का नाम - वर्धमान
काल   - 599- 529 ईस्वव पूर्व
जीवन - ब्रह्मचारी
पिता -सिद्धार्थ
माता - त्रिशला
जन्म - कुंडग्राम वैशाली (चैत्र शुक्ल तेरस)
मोक्ष -बिहार के पावापुरी (राजगीर) में कार्तिक कृष्ण अमावस्या  529 ईस्वी पूर्व 72 वर्ष की आयु में (दिपावली के दिन)
विवाह - यशोदा
पुत्री - प्रियदर्शिनी (राजकुमार जमाली से शादी)
नारा - जियो और जीने दो
वंश - इक्ष्वाकु
तपस्या हेतु गृह त्याग - 35 वर्ष की आयु में
तप के वर्ष - 12 वर्ष (निःवस्त्र)(मौन) (कैवल्य प्राप्त)
अनुयायी राजा - बिम्बिसार,कुणिक और चेटक
धर्म की परिभाषा - अहिंसा, सत्य,तप व संयम ही धर्म है।
क्षमा - 'मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं क्षमा करता हूँ।'
पाप  'मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।'

जैन धर्म मे विरहमान (वर्तमान) तीर्थंकर (पृय्वी से अलग):-
जैन धर्म मेें विहरमान (विराजमान) तीर्थकर की संख्या 20 हैं। जो 24 तीर्थकरों से अलग हैं और वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में विराजमान (स्थिर) हैं। पांच कल्याणक (जन्ममरण) नहीं होते हैं। कुल छः काल में से महाविदेह में सदैव चतुर्थ काल ही रहता है (जीव चतुर्थ काल में ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है।)

विहरमान तीर्थंकरो के नाम :-
1 सिमंधर स्वामी
2 युगमंदिर स्वामी
3 बाहु स्वामी 
4 सुबाहु स्वामी
5 सुजात स्वामी
6 स्वयंप्रभ स्वामी
7 ऋषभभानन स्वामी
8 अनंतवीर्य स्वामी
9 सुरप्रभ स्वामी
10 वज्रधर स्वामी
11 विशालधर स्वामी
12 चन्द्रानन स्वामी 
13 चन्द्रबाहु स्वामी
14 भुजंग स्वामी
15 ईश्वर स्वामी
16 नेमीश्वर स्वामी
17 वीरसेन स्वामी
18 महाभद्र स्वामी
19 देवयश स्वामी 
20 अजितवीर्य स्वामी

जैन धर्म में पंच परमेष्ठी :-
जैन धर्म में, पंच परमेष्ठी धार्मिक अधिकारियों का पंच पदानुक्रम हैं, जो पूजनीय हैं। यह आत्मायें सिद्धशिला (मुक्त आत्माएँ) पर विराजती हैं व यह आत्मायें लोक के किसी कार्य में दख़ल नहीं देती हैं व देहरहित होती हैं।

वे पाँच सर्वोच्च आत्मायें निम्नलिखित हैं :-
1 अरिहंत (केवली)
2 सिद्ध
3 आचार्य (मुनि संघ के प्रमुख)
4 उपाध्याय (मनीषी गुरु)
5 मुनि

1 केवली (अरिहंत) (पूजा योग्य)(सर्वज्ञ)
अर्हत् (संस्कृत) और अरिहंत (प्राकृत) भाषा में पर्यायवाची शब्द हैं। पूजा योग्य होने से इन्हें अर्ह (योग्य) कहा गया है। मोह रूपी शत्रु (अरि) का नाश करने के कारण ये 'अरिहंत' (अरि=शत्रु (बूरे कर्म) का नाश करने वाला) कहे जाते हैं। अर्हत, सिद्ध से एक चरण पूर्व की स्थिति है। वे आत्मायें जिन्होंने चार घाती कर्म का क्षय कर दिया वह अरिहन्त कहलाती हैं। समस्त कशाय (बूरे कर्म) का नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्ति अरिहन्त कहलाते है। 
चार कशाय
1 क्रोध
2 मान
3 माया
4 लोभ
इन कशाय विजेता को केवली (अरिहंत) भी कहा जाता है। 
अरिहंत 35 गुणयुक्त व 18 अवगुण रहित होते हैं-
1 जन्म
2 जरा (वृद्धावस्था)
3 तृषा (प्यास)
4 क्षुधा (भूख)
5 विस्मय (आश्चर्य)
6 आरती
7 खेद
8 रोग
9 शोक
10 मद (घमण्ड)
11 मोह
12 भय
13 निंद्रा(नींद)
14 चिन्ता
15 स्वेद
16 राग
17 द्वेष
18 मरण
अरिहन्त दो प्रकार के होते है:
(क) तीर्थंकर :- (समस्त मनुष्य जाति का कल्याण करने वाला (मुक्त आत्मा)
(ख) सामान्य केवली- :- (जो अपना कल्याण करने वाला अरिहन्त)

2 जैन धर्म में सिद्ध आत्मा (भगवान)
अरिहंत के बाद का पद सिद्ध होता है।
जैन धर्म के अनुसार भगवंता पर किसी का भी एकाधिकार नहीं है और सम्यक दृष्टि, ज्ञान और चरित्र से कोई भी सिद्धता प्राप्त कर सकता है। 
जैन मतानुसार सभी अरिहंत आत्मा आयु कर्म के अंत में सिद्ध बन जाती हैं जो जीवन मरण के बन्धन से मुक्त होती हैं।  सभी कशाय कर्मों का क्षय कर चुके  सिद्ध अष्ट ग़ुणोयुक्त होते हैं एवं अनंत आत्मायें सिद्धता प्राप्त कर चुकी हैं। 
शिद्धात्मा में अनन्त गुण होते हैं जिनमें आठ गुण प्रधान हैं।
आठ गुण :-
1 क्षायिक समयक्त्व
2 केवलज्ञान
3 केवलदर्शन
4 अनन्तवीर्य
5 अवगाहनत्व
6 सूक्ष्मत्व
7 अगुरुलघुत्व
8 अव्यबाधत्व

3 जैन धर्म आचार्य :- 
मुनि संघ के नेता एवं 36 मूल गुण धारी, शिक्षा एवं दीक्षा देने में कुशल व्यक्ति को आचार्य कहते हैं।



4 जैन धर्म में उपाध्याय  (साधु,गुरु)
इसमें 28 मूलगुण होते हैं लेकिन 25 गुण और  होते हैं यह दिक्षादि कार्यों को करने वाले आचार्य परमेष्ठि के संघ में ही रहते हैं व स्वयं के ज्ञान,ध्यान,तप व त्याग के साथ अन्य साधुओं को भी अध्ययन-अध्यापन करवाते हैं। उपाध्याय संघ के नए मुनियों को ज्ञान-अर्जन में सहयोग करते हैं। 

5 जैन धर्म में मुनि (श्रमण)(पुरूष सन्यास) व आर्यिका (स्त्री सन्यासी)
मुनि (साधु) शब्द 28 मूल गुण धारी संसार,भोग एवं शरीर से विरक्त संन्यास का पालन करने वाले व्यक्तियों के लिए किया जाता हैं। जैन मुनि के लिए निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग भी किया जाता हैं। प्रत्येक जैन मुनि को केश-लोंच करना अनिवार्य हैं। वे नियमित अंतराल पर अपने बालों को अपने हाथों से उखाड़ते रहते हैं। जिसकी समय सीमा तय है।
1 उत्कृष्ट 2 माह
2 मध्यम 3 माह
3 जघन्य 4 माह 
जैन मुनि के बाईस परिषह(अभाव) 
बाईस परिषह :-
1 - भूख
2 - प्यास
3 - सर्दी
4 - गर्मीं
5 - दशंमशक
6 - अनिष्ट वस्तु से अरुचि
7 - नग्नता
8 - भोगाभाव
9 - स्त्री  स्त्री से रक्षा मन और इन्द्रियों पर वश
10 - चर्या
11 - अलाभ
12 - रोग
13 - याचना
14 - आक्रोश
15 - वध
16 - मल
17 - सत्कार-पुरस्कार
18 - भुशयन
19 - प्रज्ञा
20 - अज्ञान
21 - अदर्शन
22 - सही स्थिति में बैठक

(अन्य पद)
जैन ऐलक :-
एक वस्त्र धारी (केवल लंगोट) 12 प्रतिमा धारी उत्कृष्ट श्रावक।
3 जैन आर्यिका :-
जैन स्त्री साधु 25 मूलगुण धारी मात्र 1 साड़ी धारण करने वाली
जैन क्षुल्लक :-
 2 वस्त्र धारी(लंगोट एवं दुपट्टा) 12 प्रतिमा धारी मध्यम श्रावक।
जैन क्षुल्लिका :-
 क्षुल्लक समान मध्यम श्रविका एवं 12 प्रतिमा धारी श्राविका।

भगवान महावीर के बाद मुनि एवं आचार्य :-
◆ ईसा पूर्व 527-465 तक 62 वर्ष में 3 मुनि व आचार्य हुये जो निंमनुसार हैं  :-
1 आचार्य गौतम गणधर ईसा पूर्व 527 से 515
2 आचार्य सुधर्मा स्वामी ईसा पूर्व 515 से 507
3 आचार्य जम्बूस्वामी ईसा पूर्व 542 से 465
◆ 465 से 365 (100 वर्षो) में पाँच केवली हुये-
1 आचार्य नन्दी (विष्णु कुमार)
2 आचार्य नन्दिमित्र (नन्दिपुत्र)
3 आचार्य अपराजित
4 आचार्य गोवर्धन
5 आचार्य भद्रबाहु
इन पाँच आचार्यों को श्रुत केवली भी कहते हैं।
◆ ईसा पूर्व 365 से 182 तक 183 वर्ष में आचार्य :- 
1 आचार्य बिशाख
2 आचार्य प्राष्ठिल्ल
3 आचार्य छत्रिय
4 आचार्य जयसेन
5 आचार्य नागसेन
6 आचार्य सिद्दार्थ
7 आचार्य घृतसेन
8 आचार्य विजय
9 आचार्य बुद्दिल
10 आचार्य गंगदेव
11 आचार्य सुधर्मस्वामी
(इन्हे 11 अंक भी कहा जाता है)
◆ ईसा पूर्व 182 से ईस्वी सन 38 तक 220 वर्ष में पॉच आचार्य :-
1 आचार्य नक्षत्र
2 आचार्य जयपाल
3 आचार्य पाण्डू
4 आचार्य ध्रुवसेन
5 आचार्य कंस
◆ ईस्वी सन 38 से अब तक के आचार्य :-
1 आचार्य सुभद्र
2 आचार्य यशोभद्र
3 आचार्य यशोबाहु
4 आचार्य लोहाचार्य
5 एवम अन्य आचार्य
6 आचार्य अर्हदबलि
7 आचार्य माघनन्दि
8 आचार्य धरसेन
9 आचार्य पुष्पदंत
10 आचार्य भूतबली
11 आचार्य जिनचन्द
12 आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी
13 आचार्य उमास्वामी 
14 आचार्य समन्तभद्र
15 आचार्य शिवकोटि
16 आचार्य शिवायन
17 आचार्य सिद्धसेन दिवाकर
18 आचार्य पूज्यपाद
19 आचार्य अकलंकदेव
20 आचार्य वीरसेन
21 आचार्य जिनसेन
22 आचार्य नेमिचन्द

जैन धर्म में विवाह संस्कार :-
सनातन परंपरा के जैसे ही विवाह को सोलह संस्कारों में से एक माना गया है।
शादी के दिन वर-वधु व्रत रखते है और सुबह भगवान की शांतिधारा के बाद पूजन के उपरांत भगवान की बेदी के चारों ओर फेरे लेने के बाद यह शादी संपन्न होती है। इसमें वर-वधु को सात दिन का ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है।

जैन धर्म में अंतिम संस्कार :-
संथारा या संलेखना
कुछ जैन धर्मावलम्बी मृत्यु होने से पहले ही संथारा या संलेखना कर मृत्यु होने तक अन्न-जल का त्याग कर देते हैं (भारतीय क़ानून के अनुसार यह आत्महत्या की श्रेणी में आता है)
 ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति जैन धर्म से सम्बंध रखता है, वो अपनी मौत का निर्धारण खुद ही करता है। जैन धर्म के लोग खुद की मृत्यु को खुद ही निश्चित करते हैं। इसमें उपवास रखा जाता है और इसी उपवास के जरिए ही लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इसीलिए जैन धर्म के जितने भी गुरु हैं, वो इसी तरह से मोक्ष की प्राप्ति करते हैं और अपनी मौत का निश्चय खुद ही करते हैं। इसके अलावा जैन धर्म के लोगों को उनकी समाधि मुद्रा में रहते हुए ही, उनकी चिता को अग्नि दी जाती है।
जैन धर्म में शरीर के प्रति लगाव रखना नहीं सिखाया जाता है। इस धर्म में यह सिखाया जाता है कि आत्मा शरीर से एकदम अलग एक इकाई है जिसे दूसरा शरीर प्राप्त करने के लिए एक क्षण का समय भी नहीं लगता है।  
जैन धर्म में अंतिम संस्कार का इतना विशेष महत्व नहीं है क्योंकि मरने के बाद तुरंत आत्मा नए शरीर में वास कर लेती है।
मृतक दाह संस्कार बैकुंठी की अवस्था में किया जाता है।
सामान्य मृत्यु पर लगभग सनातन परंपरा अनुसार ही दाग कार्य किया जाता है।


वर्तमान में जैन धर्म
दूसरी सदी तक प्रभावशाली दिगम्बर मुनि आचार्य समन्तभद्र तक इस धर्म ने खूब प्रगति की।
धीरे-धीरे यह वणिक (वैश्य) वर्ग तक सीमित हो कर रह गया। भारत में हर शहर में जैन समुदाय के मानने वाले पाये जाते हैं।

जिगर चुरुवी 9587243963

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