कुरान एक परिचय
कुरान (कुरआन) शब्द और अर्थ - क़ुरआन शब्द का प्रथम वर्णन स्वयं क़ुरआन (पाश्चात्य लेखकों के अनुसार सीरियाई शब्द कुरियना का समानांतर शब्द जिसका अर्थ है पवित्र धर्म ग्रंथ का पाठ/तिलावत एवं मुस्लिम विद्वानों के अनुसार यह कुरा (अरबी क्रिया शब्द) से बना है जिसका अर्थ है पढ़ना) में ही मिलता है जिसका अर्थ है - उसने पढ़ा, या उसने उच्चारण किया। कुरान समझदार (अल-फ़ुरकान), गाइड (हुदा), ज्ञान (हिकमा), याद (ज़िक्र) के रूप में स्वयं को वर्णित करता है। वही (तंज़ील - ईश्वर द्वारा फरिश्ते के माध्यम से अपने दूतों को संदेश भेजने की प्रक्रिया) के माध्यम से यह अवतरित हुई। एक और शब्द अल-किताब (शास्त्र/ग्रंथ) हैं, तोरात और बाइबिल को अरबी भाषा में इसी शब्द से संबोधित किया जाता है। मुस्हफ़ ('लिखित कार्य') शब्द का प्रयोग अक्सर विशेष कुरआन की लिपियों के संदर्भ में किया जाता है।
क़ुरआन अवतरण (नुजूल) (वही) एवं संग्रह - इस्लाम का आधार इसी आसमानी फ़रमान (आदेश) पर है जिसने इसका अनुपालन किया वह इस्लाम के दायरे में दाख़िल (प्रवेश) हुआ। जब पैग़म्बर मुहम्मद साहब की उम्र 40 साल की हुई उस समय आप को नबुव़त प्रदान की गयी और रिसालत (दूत का पद) प्रदान किया गया। इसी समय से क़ुरआन का अवतरण शुरू हुआ जो समय की अवश्यकता के अनुसार 23 साल तक जारी रहा। रमज़ान की शबे-क़द्र (पवित्र 21, 23, 25, 27, 29 वीं रात में से एक) में पूरा क़ुरआन उतारा गया और इसके बाद हज़रत जिब्रील (देवदूत) को जिस समय हुक्म हुआ उन्होंने पवित्र कलाम को बिल्कुल वैसा ही बिना किसी परिवर्तन या कमी-बेशी के नबी मुहम्मद साहब तक पहुंचाया। कभी दो आयतें (छंद), कभी तीन आयतें और कभी एक आयत से भी कम, कभी दस-दस आयतें और कभी पूरी-पूरी सूरतें (पाठ) वह्यी के रूप में पहुंचाई गई। विद्वानों के अनुसार वह्यी के विभिन्न तरीके हदीसों से बताए गए हैं – (1) फ़रिश्ता वह्यी लेकर आए और एक आवाज़ घंटी जैसी मालूम हो। यह स्थिति अनेक हदीसों से साबित है और यह वह्यी के सभी प्रकारों से कठोर थी। नबी को बहुत कष्ट होता था यहां तक कि कि जब कभी ऐसी वह्यी आती तो जान निकल जाने को होती।
(2) फ़रिश्ता दिल में कोई बात डाल दे।
(3) फ़रिश्ता इंसान के रूप में आ कर बात करे। यह क़िस्म बहुत आसान थी इसमें कष्ट नहीं होता था।
(4) अल्लाह जागते में नबी से कलाम (वार्ता या आदेश) करे, जैसे कि शबे मेराज (मेराज की रात) में।
(5) अल्लाह सपने में वार्ता करे।
(6) फ़रिश्ता सपने की हालत में आकर कलाम करे। (यह 01 से 04 सही हदीसों से साबित है। अंतिम दो के अनुसार नहीं क्यों कि पूरा क़ुरआन जागने की स्थिति में अवतरित हुआ)। क़ुरआन के धीरे-धीरे अवतरण होने में उत्तम युक्ति) थी कि इस में कुछ आयतें वे थीं जिनको किसी समय रद्द कर देना प्रस्तावित था। कुरान में तीन प्रकार के मंसूखात (रद्द) हुए हैं। कुछ वे जिनके आदेश भी मंसूख (रद्द) हुए और तिलावत (उच्चारण) भी मंसूख (रद्द) हुए। मोहम्मद साहब ने अपने जीवन काल में
1. जैद बिन साबित
2. अल-अंसार
3. अब्दुल्ला बी अज्जुबैर
4. सईद बिन अल-आस
5. अब्दुर्रहमान बी अल-हरिथ कुरैश
को कुरान लिखने का कार्य दे चुके थे।
मोहम्मद साहब के इस दुनिया से जाने के बाद वही उतरना बंद हो गई। कुरान किसी किताब में, जैसा कि आजकल है जमा नहीं था अलग-अलग चीजों पर सूरतें और आयतें लिखी हुई थीं और वे अलग-अलग लोगों के पास थीं। मोहम्मद साहब के अधिकांश साथियों को क़ुरआन मौखिक याद था। अब से पहले कुरान को एक जगह जमा करने का विचार हज़रत उमर फारुख के मन में आया। कुरान को लिख कर एक जगह करने का मुख्य कारण था, जो हाफिज ए कुरान थे वो या तो बूढ़े हो कर या किसी जंग में शहीद हो रहे थे। इनको डर था कि यदि यही हाल रहा तो बहुत बड़ा हिस्सा हाथ से चला जायेगा। हज़रत उमर फ़ारुख़ ने हजरत सिद्दिक (तत्कालीन खलीफा) को इस कार्य हेतु राजी किया, और हजरत सिद्दिक ने हजरत ज़ैद बिन साबित (वही लिखने वालों में से एक ) को कुरान को जमा करने के लिए चुना, कुछ समय बाद वो सहमत हो गए और उन्होंने बड़ी सावधानी व ज़िम्मेदारी से क़ुरआन को जमा करना शुरू किया। हजरत ज़ैद बिन साबित को चुने जाने की का कारण विद्वानों के अनुसार यह है कि हर साल रमज़ान में हज़रत जिब्रील से मोहम्मद साहब क़ुरआन का दौराहन किया करते थे और इस दुनिया से जाने के साल में दो बार क़ुरआन का दोराहन हुआ और हजरत ज़ैद बिन साबित इस अंतिम दौरे में उपस्थित थे। और इस अंतिम दौर के बाद फिर कोई आयत मंसूख (रद्द) नहीं हुई जितना कुरान इस दौरे में पढ़ा गया, वह सब बाक़ी रहा अर्थात यही पूरा क़ुरआन था अतः ज़ैद बिन साबित को उन आयतों का ज्ञान था जिनकी तिलावत मंसूख हुई थी अर्थात जिनका पढ़ना मना था और ये आयते क़ुरआन में शामिल नहीं थी। जब पूरा क़ुरआन एकत्रित हो चुका अर्थात किताब की सूरत में, हज़रत उमर फ़ारुक़ ने दोबारा देखा और जहां कहीं लिखने में ग़लती हुई उसे ठीक किया। वर्षों तक इस चिंता में रहे और कभी-कभी साथियों से चर्चा कर कहीं भी लिखने में गलती दिखती तो फ़ौरन उसको सही कर देते। अंत में तय मापदंड अनुसार सही लिखा जाने के बाद हजरत उमर फारुख ने कुरान को पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था की और हाफ़िजों (कुरान को कंठस्थ करने वाले) को दूर देशों में कुरान व फ़िक़्ह की शिक्षा के लिए भेजा, जिसका सिलसिला आज पूरे विश्व में जारी है। यहां एक समस्या और आ गई कि कुरान की तिलावत (पाठ) किस प्रकार से किया जावे। इस पर हज़रत उस्मान गनी (खलीफा) ने क़ुरआन की सात प्रतियाँ लिखवा कर दूर-दूर के देशों में भेज दीं। और तिलावत क़िरआत (क़ुरआन पाठ करने के तरीक़ो) की वजह से जो मतभेद और झगड़े हो रहे थे सब को ख़त्म कर दिया। केवल एक क़िरआत (कुरान पाठ करने के तरीक़ो) पर सब को सहमत कर दिया।
ऊंट की हड्डी पर लिखी कुरान की आयतसूरह और आयत
कुरान की पहली सूरत सूरह अल फ़ातिहा, जिसमें सात आयत शामिल हैं। कुरान में कुल 114 पाठ हैं, प्रत्येक को सूरा के नाम से जाना जाता है। सुरा को मक्की या मदनी के रूप में वर्गीकृत किया गया है, इस पर निर्भर करता है कि मुहम्मद साहब के मदीना के प्रवास से पहले या बाद में आयात प्रकट किए गए थे या नहीं। हालांकि, मदनी के रूप में वर्गीकृत एक सूरह में मक्की आयत हो सकती है और इसके विपरीत भी। सूरह शीर्षक में चर्चा किए गए नाम या गुणवत्ता से, या सूरह के पहले अक्षर या शब्दों से प्राप्त होते हैं। घटते आकार के क्रम में सूरह मोटे तौर पर व्यवस्थित होते हैं। इस प्रकार सूरह व्यवस्था प्रकाशन के अनुक्रम से नहीं जुड़ी है। नौवीं सूरत को छोड़कर प्रत्येक सूरत बिस्मिल्लाह अर्रहमान निर्रहिम (शुरू अल्लाह के नाम पर जो अत्यंत कृपालु और दयावान है) के साथ शुरू होती है। (अत-तीन (अंजीर), कुरान के 95 वीं सूरह) प्रत्येक सूरा में कई आयत होती हैं, जिसका मूल रूप से ईश्वर द्वारा भेजा गया संकेत/सबूत होता है। छंदों की संख्या हर सूरह में पृथक है। सूरत में विभाजन और स्वतंत्र होने के अलावा, कुरान को पढ़ने में सुविधा बाबत लगभग बराबर हिस्सों में विभाजित करने हेतु एक महीने में पूरे कुरान पढा जा सके, 30 भाग (पारा) में विभाजित किया गया है। इनमें से कुछ हिस्सों को नामों से जाना जाता है- जो पहले कुछ शब्द हैं जिनसे पारा शुरू होता है। एक पारा कभी-कभी दो हिज़्ब (बहुवचन हज़ाब) में विभाजित होता है, और प्रत्येक हिजब चार रूब अल-अहज़ब में विभाजित होता है। एक सप्ताह में कुरान को पढ़ने के लिए कुरान को लगभग सात बराबर भागों, मंजिल (बहुवचन मनाज़िल) में विभाजित किया गया है। अनुच्छेदों के समान अर्थात् इकाइयों द्वारा एक अलग संरचना प्रदान की जाती है और इसमें लगभग दस आयत शामिल होते हैं। इस तरह के एक खंड को रुकूअ कहा जाता है।
सुरह फातिहा (प्रारंभ की सूरत)हुरुफ़ मुक़त्तआत कुरान में बेजुड़े अक्षर (रहस्यमय पत्र) 114 सूरहों में से 29 की शुरुआत में एक से पांच अरबी अक्षरों से होती है जिनका अर्थ या संयोजन हैं किसी को पता नहीं है और ना ही कहीं इन्हे स्पष्ट किया गया है। इन अक्षरों को फवातीह (प्रारंभिक) के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि इन अक्षरों से ही संबंधित सूरतों का आरंभ होता है। चार सूरतों का नाम उनके मुक़त्ततात, ता-हा, या-सीन, सआद और क़ाफ़ के लिए रखा गया है। अक्षरों का मूल महत्व अज्ञात है। तफसीर में उन्हें अल्लाह के नाम या गुणों या संबंधित सूरतों के नाम या सामग्री के लिए संक्षेप में लिखने की व्याख्या की है।
हजरत अली द्वारा लिखित कुरान की पांडुलिपिकुरान का केंद्रीय विषय - क़ुरआन में केंद्रीय सामग्री बुनियादी इस्लामी मान्यताओं से संबंधित है जिसमें ईश्वर और सृष्टि के अस्तित्व से संबंधित संदेश शामिल हैं। प्रथम नबी आदम से लेकर नैतिक और कानूनी विषयों की कथाएं, मुहम्मद साहब के समय, दान और प्रार्थना की ऐतिहासिक घटनाएं कुरान में दर्ज हैं। कुरान की आयतों में सही - गलत और ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में सामान्य उपदेश सम्मिलित हैं, सामान्य नैतिक पाठों की रूपरेखा से संबंधित हैं। प्राकृतिक घटनाओं से संबंधित आयतें कुरान के संदेश की प्रामाणिकता के संकेत के रूप में व्याख्या करते है। कुरान का केंद्रीय विषय एकेश्वरवाद है। ईश्वर निरंकार, अमर, शाश्वत, सर्वज्ञानी और सर्वज्ञ, निर्माता और संहारक के रूप में उल्लेखित किया गया है। कुरान में ईश्वर के अस्तित्व को साबित करने के लिए शर्तों का जिक्र किए बिना विभिन्न छंदों में ब्रह्माण्ड संबंधी तर्कों का उपयोग किया गया है। इसलिए, ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है और उसे उत्प्रेरक की आवश्यकता है, और जो भी अस्तित्व में है उसके अस्तित्व के लिए पर्याप्त कारण होना चाहिए। इसके अलावा, ब्रह्मांड के स्वरूप को अक्सर चिंतन के बिंदु के रूप में जाना जाता है। यहूदी, ईसाई और इस्लामी विचारों के इतिहास में "ईश्वर के बारे में एक मानवशास्त्रीय भाषा" का उपयोग करना या न करना "गहन बहस का विषय" रहा है। एक पर विश्वास, अद्वितीय ईश्वर इस्लामी तौहीद का आधार है अब्राहमिक धर्मों की पवित्र पुस्तकों में मानवरूपी उदाहरण हैं, साथ ही ऐसे भाव भी हैं जो ईश्वर को प्राणियों से अलग करते हैं। एक सामान्य दृष्टिकोण से, यह कहा जा सकता है कि कुरान और बाइबिल में तंजीह की तुलना में अधिक उपमाएं हैं। कुरान में तौरात,इंजील, जुबूर के कई उद्धरण शामिल हैं। साथ में फरिश्तों,नबियों, घटनाओं, स्वर्ग,नरक,ईश्वर और सृष्टि के नाम अरबी संस्करण में लिखे गए हैं।
वह स्थान जहां हजरत मोहम्मद साहब चिंतन किया करते थे। स्थान का नाम हीरा की गुफा, सऊदी अरब।परलोक का सिद्धांत
हिब्रू शब्द गेहीन्नोम से गेहन्नम शब्द है का अरबी संस्करण है जहन्नम (एक ऐसा स्थान जहां आग कभी नहीं बुझती और कीड़े कभी नहीं मरते) "गेहिन्नोम" या हिन्नोम के पुत्र की घाटी यरूशलेम में एक शापित घाटी है (जहां बच्चों की बलि दी गई थी (यिर्मयाह 32:35))। सुसमाचारों में, यीशु "गेहन्ना" के बारे में एक ऐसे स्थान के रूप में बात करते हैं जहाँ "कीड़ा कभी नहीं मरता और आग कभी नहीं बुझती"। (मरकुस 9:48) जहन्नम पाप की सजा का पारलौकिक स्थान है जहां अपराधी को सदैव रहना है। और जन्नत विलासिता और सुख का सदैव रहने वाला पारलौकिक स्थान है। अंतिम दिन (यौम अल-क़ियामा) और आखिरत (ब्रह्मांड के अंत का समय) का सिद्धांत कुरान के दूसरे महान सिद्धांत के रूप में माना गया है। यह अनुमान लगाया गया है कि कुरान का लगभग एक तिहाई भाग आखिरात के बारे में सावधान करने पर लिखा गया है, इस दुनिया से बाद के जीवन के साथ और समय के अंत के निर्णय के दिन से निपटने हेतु कुरान के अधिकांश पृष्ठों पर बाद के जीवन पर चर्चा की गई है और बाद के जीवन को ईश्वर पर विश्वास के आधार पर निर्णय किए जाने पर चर्चा की गई है। कुरआन मानव आत्मा की प्राकृतिक अमरता पर जोर नहीं देता है, क्योंकि मनुष्य का अस्तित्व ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है: जब वह चाहता है, तो वह मनुष्य को मरने का कारण बनाता है; और जब वह चाहता है, तो पुनः जीवित कर देता है।
ईश्वर द्वारा भेजे गए नबी (दूत) कुरान के अनुसार,प्रत्येक स्थान, जाति और कबीले के लोगों के भले के लिए ईश्वर अपने संदेश वाहक भेजता रहता है। संदेश वाहकों का अनुसरण ही ईश्वर का अनुसरण है। मनुष्य के साथ संवाद स्थापित करने हेतु ईश्वर पैगम्बरों तक ज्ञान फरिश्तों के माध्यम से (वही के रूप में ) पहुंचाता है और उन्हें मानवता की भलाई के काम लगाता है। संदेश समान है और सभी मानव जाति के लिए है।
नीति-धार्मिक अवधारणाएं क़ुरान पर विश्वास नैतिकता का एक मौलिक पहलू है, और विद्वानों ने कुरान में "विश्वास" और "आस्तिक" की अर्थपूर्ण सामग्री निर्धारित करने की कोशिश की है। अधार्मिक आचरण से निपटने वाली नैतिक व कानूनी अवधारणाओं और उपदेशों को ईश्वर के प्रति गहन जागरूकता से जोड़ा गया है, जिससे विश्वास, उत्तरदायित्व और ईश्वर के साथ प्रत्येक इंसान के अंतिम मिलन में विश्वास पर जोर दिया जाता है। लोगों को विशेष रूप से जरूरतमंदों के लिए दान करने के लिए आमंत्रित किया जाता है। विश्वास करने वाले रात और दिन में, गुप्त और सार्वजनिक रूप से" अपनी संपत्ति में से दान करने का वादा किया जाता है कि वे ईश्वर से अपना इनाम लेंगे, उन पर कोई डर नहीं होगा, न ही वे दुखी होंगे। कुरआन में विवाह, तलाक और विरासत, बंटवारा,पारिवारिक संबंध के मामलों पर कानून बनाकर पारिवारिक जीवन की पुष्टि भी करता है। रिश्वत,ब्याज और जुए जैसे कई कार्य प्रतिबंधित हैं। कुरान इस्लामी कानून (शरिया) के मौलिक स्रोतों में से एक है। कुछ औपचारिक धार्मिक प्रथाओं को कुरान में औपचारिक प्रार्थनाओं (सलात) और रमजान के महीने में उपवास सहित महत्वपूर्ण जोर दिया गया है। जिस तरह से नमाज पढ़ी जानी है, कुरान स्पष्ट करता है। परोपकार, जकात का शाब्दिक अर्थ है शुद्धिकरण। कुरान के अनुसार चैरिटी आत्म-शुद्धिकरण का साधन है।
विज्ञान में रुचि ब्रह्मांड विज्ञान; कुरान की आयतों के शाब्दिक और प्रत्यक्ष अर्थों के अनुसार, दुनिया को अल्लाह ने सपाट बनाया था, कुरान के अनुसार, अल्लाह अर्श पर बैठता है और ब्रह्मांड को नियंत्रित करता है, (जिसमें स्वर्ग और पृथ्वी शामिल है), उसने 6 दिनों में बनाया। इस ब्रह्मांड में फरिश्ते, दानव, जिन्न और मानव जैसे जीव हैं। सितारों को कभी-कभी राक्षसों को बाहर निकालने के लिए पत्थरों को फेंकने के रूप में उपयोग किया जाता है "जो समाचार चुराने के लिए आकाश में चढ़ते हैं"। (सूरह 67: 1-5) प्रलय का दिन दृश्य भी कुरान के ब्रह्मांड और ईश्वर के मॉडल का प्रतिबिंब है।
पृथ्वी केंद्रित या पृथ्वी ब्रह्मांड के ऊपर। यह माना जाता है कि कुरान में ब्रह्मांड को पृथ्वी-केंद्रित (ऊपर का) ब्रह्मांड मॉडल के रूप में परिभाषित किया गया है। कुरान शब्दों में से एक, सिदरत'उल मुन्तेहा (बड़ा देवदार का पेड़) आखिरी बिंदु है जहां (ब्रह्मांड विज्ञान) तक लोग पहुंच सकते है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण - आम तौर पर स्वीकार किया जाता है कि लगभग 750 आयत हैं कुरान में जो प्राकृतिक घटना के संबंध में है, इनमें से कई आयतों में प्रकृति का अध्ययन "प्रोत्साहित और अत्यधिक अनुशंसित" है, अल-बिरूनी और अल-बट्टानी जैसे ऐतिहासिक इस्लामिक वैज्ञानिकों ने कुरान की इन्ही आयतों से प्रेरणा ली। मोहम्मद हाशिम कमली ने कहा है कि "वैज्ञानिक अवलोकन, प्रयोगात्मक ज्ञान और तर्कसंगतता" प्राथमिक साधन हैं जिनके साथ मानवता कुरान में इसके लिए निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त कर सकती है। ज़ियाउद्दीन सरदार ने कुरान की बार-बार बुलाए जाने वाले प्राकृतिक घटनाओं पर ध्यान देने और प्रतिबिंबित करने के लिए मुसलमानों के लिए आधुनिक विज्ञान की नींव विकसित की गई है। भौतिक विज्ञानी अब्दुस सलाम ने अपने नोबेल पुरस्कार भोज पत्र में कुरान (67: 3-4) के संदर्भ में लिखा है कि "यह प्रभाव सभी भौतिकविदों का विश्वास है: जितना गहरा हम चाहते हैं, उतना ही अधिक हमारे आश्चर्य उत्साहित कर नज़र की चमक डाल देती है। सलाम की मूल मान्यताओं में से एक यह था कि इस्लाम और खोजों के बीच कोई विरोधाभास नहीं है कि विज्ञान मानवता को प्रकृति और ब्रह्मांड के बारे में बताता है। सलाम ने यह भी राय रखी कि कुरान का अध्ययन तर्कसंगत प्रतिबिंब की इस्लामी भावना असाधारण सभ्यता के विकास का स्रोत है। सलाम विशेष रूप से, इब्न अल-हेथम और अल-बेरूनी का अनुभव अग्रदूतों के रूप में करते थे जिन्होंने प्रयोगात्मक दृष्टिकोण पेश किया, अरस्तु के प्रभाव को तोड़ दिया और इस प्रकार आधुनिक विज्ञान को जन्म दिया। सलाम आध्यात्मिक विज्ञान और भौतिकी के बीच अंतर करने के लिए भी सावधान थे, और अनुभवी रूप से कुछ मामलों की जांच करने के खिलाफ सलाह दी गई थी, जिन पर "भौतिकी चुप है और ऐसे ही रहेगी," जैसे कि सलाम के विचार में विज्ञान की सीमाओं के बाहर है और इस प्रकार धार्मिक विचारों को "रास्ता देता है"।
साहित्यिक शैली - कुरान का संदेश विभिन्न साहित्यिक संरचनाओं और उपकरणों के साथ व्यक्त किया गया है। मूल अरबी में, सुरह और आयत ध्वनियात्मक और विषयगत संरचनाओं को नियोजित किया गया हैं जो सुरह को याद करने में सहायता करते हैं। कुरान की भाषा को "कविता गद्य" के रूप में वर्णित किया गया है क्योंकि यह पद्य और गद्य दोनों का हिस्सा है, जो कुछ हिस्सों में अधिक काव्यात्मक है और दूसरों में अधिक गद्यात्मक है। इस तरह के रूप की प्रभावशीलता उदाहरण के लिए सूरा 81 में स्पष्ट है, और इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन लय ने श्रोताओं के विवेक को प्रभावित किया। आयतों के एक जोड़े से दूसरे जोड़े में अक्सर पद्य का परिवर्तन चर्चा के विषय में बदलाव होता है। बाद के खंड भी इस को संरक्षित करते हैं। कुरान के पाठ में कोई शुरुआत, मध्य या अंत नहीं है, इसकी संरचना एक वेब या नेट के समान है। पाठ्यचर्या व्यवस्था को कभी-कभी निरंतरता की कमी, किसी भी कालक्रम या विषयगत क्रम और दोहरान के लिए माना जाता है। सम्पूर्ण कुरान आपसी चर्चा - परिचर्चा शैली में है। यहां हर आयत में ए ईमान वालो..., ए मोहम्मद...., ए लोगो....., कसम है.....। पूरा कुरान पढ़ने पर कहीं भी अलगाव नहीं होता। कुरान की हर सूरत आसानी से याद की जा सकती है।
व्याख्या (तफ़सीर) कुरान की हर आयत का पैटर्न और शैली अपने आप में यूनिक होती है। कुरान ने कुरान के छंदों के अर्थों को समझाने, उनके आयात को स्पष्ट करने और उनके महत्व को जानने के उद्देश्य से टिप्पणी और व्याख्या (तफ़सीर) की आवश्यकता है। तफसीर मुसलमानों की सबसे शुरुआती शैक्षणिक गतिविधियों में से एक है। कुरान के अनुसार, मुहम्मद साहब पहले व्यक्ति थे जिन्होंने प्रारंभिक मुसलमानों के लिए आयतों के अर्थों का वर्णन किया था। अन्य शुरुआती तफसीर कारों में मुहम्मद साहब के कुछ साथी शामिल थे, जैसे ' अली इब्न अबी तालिब, अब्दुल्ला इब्न अब्बास , अब्दुल्ला इब्न उमर और उबेय इब्न काब। उन दिनों में कविता के साहित्यिक पहलुओं, इसके प्रकाशन की पृष्ठभूमि और कभी-कभी, दूसरे की मदद से एक आयत की व्याख्या के स्पष्टीकरण तक ही सीमित था। यदि आयत एक ऐतिहासिक घटना के बारे में होती, तो कभी-कभी मुहम्मद साहब की कुछ हदीस को इसका अर्थ स्पष्ट करने के लिए वर्णित किया गया था। कुरान मूल अरबी में बोली जाती है, बाद में कई लोग इस्लाम (ज्यादातर गैर-अरब) में परिवर्तित होते थे, जो कुरानिक अरबी नहीं समझते थे, जो मुसलमान अरबी में धाराप्रवाह बोल सकते थे ने कई प्रकार से अलग अलग व्याख्याएं लिखीं। सबसे शुरुआत अहमदीया मुस्लिम समुदाय ने कुरान पर दस खंड वाली उर्दू टिप्पणी प्रकाशित की है, जिसका नाम ताफसीर ए कबीर है।
गूढ़ व्याख्या (सूफीवादी अवधारणा ) गूढ़ व्याख्या या सूफी व्याख्या कुरान के आंतरिक अर्थों को स्पष्ट करने का प्रयास करती है। सूफीवाद आयतों के स्पष्ट (जाहीर) बिंदु से आगे बढ़ता है और इसके बजाय कुरान की आयतों को आंतरिक या गूढ़ (बातिन) और चेतना से संबंधित करते है। वे स्पष्टीकरण (तफसीर) अधिक संकेत (इशारात) हैं। वे संभावनाओं को इंगित करते हैं जितना कि वे प्रत्येक लेखक की अंतर्दृष्टि का प्रदर्शन करते हैं। प्यार के विषय के उपयोग का भी उदाहरण है, उदाहरण के लिए कुरैरी की कुरान की व्याख्या में देखा जा सकता है। तबाताई के अनुसार, स्वीकार्य और अस्वीकार्य गूढ़ व्याख्याएं हैं। स्वीकार्य ता'विल अपने शाब्दिक अर्थ से परे एक कविता के अर्थ को संदर्भित करता है; बल्कि अंतर्निहित अर्थ, जो अंततः केवल भगवान के लिए जाना जाता है और अकेले मानव विचारों के माध्यम से सीधे समझा नहीं जा सकता है। प्रश्न में छंद यहां आने, जाने, बैठने, संतुष्टि, क्रोध और दुःख के मानवीय गुणों को संदर्भित करते हैं, जिन्हें स्पष्ट रूप से भगवान के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है । अस्वीकार्य ta'wil वह है जहां एक सबूत के माध्यम से एक अलग अर्थ के लिए एक कविता का स्पष्ट अर्थ "स्थानांतरित" होता है; यह विधि स्पष्ट विसंगतियों के बिना नहीं है। यद्यपि यह अस्वीकार्य ता'विल ने काफी स्वीकृति प्राप्त की है, यह गलत है और कुरानिक छंदों पर लागू नहीं किया जा सकता है। सही व्याख्या यह है कि वास्तविकता एक कविता को संदर्भित करती है। यह सभी छंदों में पाया जाता है, निर्णायक और अस्पष्ट एक जैसे; यह शब्द का अर्थ नहीं है; यह एक तथ्य है कि शब्दों के लिए बहुत शानदार है। भगवान ने उन्हें अपने दिमाग में थोड़ा सा लाने के लिए शब्दों के साथ तैयार किया है; इस संबंध में वे कहानियों की तरह हैं जिनका उपयोग दिमाग में एक तस्वीर बनाने के लिए किया जाता है, और इस प्रकार श्रोता को स्पष्ट रूप से इच्छित विचार को समझने में मदद मिलती है। 12 वीं शताब्दी से पहले गूढ़ व्याख्या के उल्लेखनीय लेखकों में से एक नाम सूफी सुलामी है। सूफी की अधिकांश टिप्पणियां सुरक्षित नहीं हैं। सुलामी की प्रमुख टिप्पणी हकीक अल-तफसीर पुस्तक में है। 11 वीं शताब्दी से कुशायरी, दयालम, शिराज़ी और सुहरावर्दी की व्याख्याओं सहित कई अन्य तफसीर सामने आई हैं। इन में सुलामी की किताबों और लेखक के योगदान शामिल है। कई व्याख्यान फारसी में लिखे गए हैं जैसे कि मबड़ी कश्फ अल-असर में लिखे गए हैं। रुमी ने अपनी पुस्तक मथनावी में व्याख्या लिखी है। रुमी अपनी व्याख्या में कुरान का भारी उपयोग करता है। मथनावी में बड़ी संख्या में कुरानिक मार्ग पाए जा सकते हैं, जिनमें से कुछ कुरान की एक सूफी व्याख्या पर विचार करते हैं। रुमी की पुस्तक कुरान पर उद्धरण और विस्तार के लिए असाधारण नहीं है, हालांकि, रुमी कुरान का अधिक बार उल्लेख करता है। सिमनानी ने कुरान पर सूफीवाद पर दो किताबें लिखीं। उन्होंने सुन्नी इस्लाम की भावनाओं के साथ और भौतिक संसार में ईश्वर के अभिव्यक्ति के विचारों को सुलझाया। 18 वीं शताब्दी में इस्माइल हाकी बुर्सवी की व्याखाओं में व्यापक सूफी टिप्पणियां दिखाई देती हैं। उनकी अरबी पुस्तक रूह अल-बायान में पूर्ववर्तियों, विशेषकर इब्न अरबी और गजली से अधिक प्रभावित है। सलफ़ी और ज़ाहिरी के विपरीत, शिया और सूफ़ी के साथ-साथ कुछ अन्य मुस्लिम दार्शनिकों का मानना है कि कुरान का अर्थ शाब्दिक पहलू तक ही सीमित नहीं है। उनके लिए, यह एक आवश्यक है कि कुरान में भी आंतरिक पहलू हैं। क़ुरआन में बाहरी उपस्थिति और एक छिपी गहराई, एक असाधारण अर्थ और एक गूढ़ और छुपा अर्थ है। इस गहराई में खगोलीय क्षेत्रों के बाद गहराई होती है, जो एक-दूसरे के भीतर संलग्न होती हैं। इन व्याखाओं के अनुसार, यह भी स्पष्ट हो गया है कि कुरान का आंतरिक अर्थ अपने बाहरी अर्थ को खत्म या अमान्य नहीं करता है। इसके बजाय, यह आत्मा की तरह है, जो शरीर को जीवन देती है। आयतों के बाहरी पहलुओं की व्याख्या वाली टिप्पणियों को ताफसीर कहा जाता है, और आंतरिक पहलुओं की व्याख्या वाली गूढ़ टिप्पणियों को तविल कहा जाता है, टिप्पणीकारों का मानना है कि कुरान का अंतिम अर्थ केवल ईश्वर ही जानता है। इसके विपरीत, कुरानिक शाब्दिकता , इसके बाद सलाफिस और जहीरिस , यह विश्वास है कि कुरान को केवल इसके स्पष्ट अर्थ में ही लिया जाना चाहिए।
अन्य भाषाओं में कुरान का अनुवाद एवं मुद्रण- फारसी के बाद सब से पहले जर्मन भाषा में सन 1772 में किया गया। कुरान के इस चीनी भाषा में अनुवाद किया गया। वर्तमान में विश्व की सभी भाषाओं में कुरान का अनुवाद किया जा चुका है। प्रथम मुद्रित कुरान वेनिस में 1537/1538 में पगिनिनो पागनिनी और एलेसेंड्रो पागनिनी द्वारा तुर्क बाजार के लिए बनाया गया था। दो और संस्करण पादरी द्वारा प्रकाशित किए गए अब्राहम हिंकेलमैन में हैम्बर्ग 1694 में, और इटली के लुदेवेको मराकी में पडुआ लैटिन अनुवाद व टीका के साथ 1698 में प्रकाशित की।इस अवधि में कुरान का अरबी में मुद्रण 1483 से 1726 के बीच तुर्क साम्राज्य में प्रतिबंधित था। 1726 में अरबी लिपि में छपाई पर तुर्क प्रतिबंध पर इब्राहिम म्यूटेरिकिका के अनुरोध पर गैर-धार्मिक ग्रंथों के लिए उठाया समाप्त कर दिया गया, 1729 में पहली अरबी कुरान मुद्रित की। 1786 में, रूस के कैथरीन द ग्रेट ने सेंट पीटर्सबर्ग में तातार और तुर्की ऑर्थोग्राफी के लिए एक प्रिंटिंग प्रेस शुरू की , जिसमें मौलाना उस्मान इस्माइल अरबी संस्करण के प्रभारी रहे। 1787 में इस प्रेस के साथ एक कुरान मुद्रित किया गया, 1790 और 1793 में सेंट पीटर्सबर्ग में पुनः मुद्रण किया गया। 1828 में ईरान में मुद्रित पहला संस्करण तेहरान में जारी हुआ, तुर्की में अनुवाद सहित 1842 में काहिरा में मुद्रित किया गया, और पहला आधिकारिक स्वीकृत ओटोमन संस्करण कॉन्स्टेंटिनोपल में 1875 और 1877 के बीच दो खंडों के सेट के रूप में मुद्रित किया गया। 1834 में गुस्ताव फ्लूजेल में कुरान का एक संस्करण प्रकाशित हुआ, जो एक सदी तक आधिकारिक बना रहा, कुरान का मानकीकृत संस्करण 1924 में कैरो के अल अजहर विश्वविद्यालय द्वारा कुरान के एक संस्करण का प्रकाशन किया गया जो ऑर्थोग्राफी और बाद के संस्करणों का आधार बना हुआ है।
कुरान पढ़ने (पाठ) किरअत के नियम - कुरान का उचित पाठ तजाविद नामक एक अलग विषय है जो विस्तार से निर्धारित करता है कि कुरान को कैसे पढ़ा जाना चाहिए, प्रत्येक के अक्षर का कैसे उच्चारण किया जाना चाहिए, उन स्थानों पर ध्यान देने की आवश्यकता जहां विराम होना चाहिए, जहां उच्चारण लंबा या छोटा होना चाहिए, कहां अक्षरों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए और कहां उन्हें अलग रखा जाना चाहिए। यह कहा जा सकता है कि तजावीद के अनुसार कुरान के उचित पाठ के नियमों और विधियों का अध्ययन करता है और तीन मुख्य क्षेत्रों व्यंजनों और स्वरों का उचित उच्चारण (कुरानिक ध्वनियों की अभिव्यक्ति), पठन में विराम के नियम और पठन की बहाली, और पाठ की संगीत और सुन्दर उच्चारण महत्वपूर्ण है। सही उच्चारण सहित पठन को किरअत कहते हैं इस कार्य में विशेषज्ञ को कारी कहते हैं। कारी की शिक्षा 3 साल तक ली जाती है। गलत उच्चारण से बचने के लिए, अरबी भाषा के वक्ताओं हेतु मिस्र या सऊदी अरब जैसे देशों में प्रशिक्षण के कार्यक्रम आयोजित करते हैं। इनमें मिस्र के कारी पढ़ने की कला में अत्यधिक प्रभावशाली हैं। दक्षिणपूर्व एशिया विश्व स्तरीय किरअत के लिए जाना जाता है। इसमें जकार्ता के मारिया उलफाह जैसी महिला कारी की लोकप्रियता अधिक है। कुरान में दो प्रकार की किरअत हैं एक मुरत्तल अर्थात धीमी गति से पढ़ना और दूसरा मुजावद गति से पढ़ना। जो प्रशिक्षित विशेषज्ञों (कारी) द्वारा सार्वजनिक रूप से तकनीकी कलात्मकता और सुन्दर आरोह अवरोह के साथ प्रस्तुतिकरण है। 9वीं शताब्दी के अंत तक विशिष्ट स्वर ध्वनियों को इंगित करने वाले ध्वनि चिह्न अरबी भाषा में प्रस्तुत किए गए। प्रारंभिक कुरानिक पांडुलिपियों में इन अंकों की कमी थी। दोषपूर्ण स्वर की प्रकृति द्वारा अनुमत पाठ के पठन में भिन्नता 10 वीं शताब्दी में किरअत की संख्या में वृद्धि हुई। बगदाद में इब्न मुजाहिद (10 वीं शताब्दी के मुस्लिम विद्वान) ने कुरान के सात प्रकार से किरअत की तजवीज की। उन्होंने विभिन्न किरअत और उनकी विश्वसनीयता का अध्ययन किया और मक्का, मदीना, कूफ़ा, बसरा और दमिश्क जैसे शहरों से 8वीं शताब्दी के कारीयों को चुना। एक हदीश के अनुसार कुरान को सात "हरुफ" (अर्थात् सात अक्षरों या मोड) में प्रकट किया गया। इब्न मुजाहिद ने दो कारीयों, कुफा के आसिम इब्न अबी अल-नजुद और नफी अल मदनी हैं। मिस्र के काहिरा के किरअत मानक कुरान के स्वर संकेतों और आयतों के विवरण हेतु अतिरिक्त चिन्हों का उपयोग करते है जो 'असिम की किरअत पर आधारित है। कुरान का यह संस्करण आधुनिक प्रिंटिंग के लिए मानक बन गया है।
कुरान एक चमत्कार (मौअजज़ा) मोअजजा उस चमत्कार को कहते हैं जो किसी नबी या रसूल के पास हो और मानव शक्ति से परे हो, जिस पर मानव बुध्दि हैरान हो जाए। हर युग में जब भी कोई रसूल (ईश दूत) ईश्वरीय आदेशों को मानव तक पहुँचाता, तब उसे अल्लाह की ओर से चमत्कार दिए जाते थे। हज़रत मूसा को असा (हाथ की लकड़ी) दी गई, जिससे कई चमत्कार दिखाए गये। हज़रत ईसा को मुर्दों को जीवित करना, बीमारों को ठीक करने का मौअजज़ा दिया गया। किसी भी नबी का असल मौअजज़ा वह है जिसे वह दावे के साथ पेश करे। हज़रत मुहम्मद साहब के हाथ पर सैकड़ों मौअजज़े वर्णित हैं, किन्तु जो दावे के साथ पेश किया गया और जो आज भी चमत्कार के रूप में विश्व के समक्ष मौजूद है, वह है क़ुरआन जिसका यह दावा दुनिया के समक्ष अनुत्तरित है कि इसके एक भाग जैसा ही बना कर दिखा दिया जाए। यह दावा क़ुरआन में कई स्थान पर किया गया। क़ुरआन पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगा, इस दावे को 1500 वर्ष बीत गए और क़ुरआन सुरक्षित है, पूर्ण सुरक्षित है। यह सिद्ध हो चुका है, जो एक चमत्कार है। यहां तक दावा किया गया है कि संसार में उपलब्ध सारी प्रतियां एक साथ कर जला दी जावे, तब भी यह अमर रहेगा।क़ुरआन विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है, और उसके वैज्ञानिक वर्णनों के आगे वैज्ञानिक नतमस्तक हैं। यह भी एक चमत्कार है। 1500 वर्ष पूर्व अरब के रेगिस्तान में एक अनपढ़ व्यक्ति ने ऐसी किताब प्रस्तुत की जो आधुनिकता के सारे साधनों के सामने अपनी सत्यता ज़ाहिर कर रही है। यह कार्य क़ुरआन के अतिरिक्त किसी अन्य किताब द्वारा संभव नहीं हुआ। क़ुरआन का यह चमत्कारिक रूप आज हमारे लिए है और हो सकता है आगे आने वाले समय के लिए उसका कोई और चमत्कारिक रूप सामने आए। जिस समय क़ुरआन अवतारित हुआ उस युग में उसका मुख्य चमत्कार उसका वैज्ञानिक आधार नहीं था। उस युग में क़ुरआन का चमत्कार था उसकी भाषा, साहित्य, वाग्मिता, जिसने अपने समय के अरबों के भाषा ज्ञान को झकझोर दिया था। यहां स्पष्ट करना उचित होगा कि उस समय के अरबों को अपने भाषा ज्ञान पर इतना गर्व था कि वे शेष विश्व के लोगों को अजमी (गूंगा) कहते थे। क़ुरआन की शैली के कारण अरब के भाषा ज्ञानियों ने अपने घुटने टेक दिए।
मानव इतिहास को बदलने वाली क्रांतिकारी किताब क़ुरआन ऐसी किताब है जिसके आधार पर सामाजिक और धार्मिक क्रांति आई। रेगिस्तान के ऐसे अनपढ़ लोगों को जिनका विश्व के नक्शे में उस समय कोई महत्व नहीं था। क़ुरआन की शिक्षाओं के कारण, उसके प्रस्तुतकर्ता की शैली ने उन्हे उस समय की महान शाक्तियों के समक्ष ला खड़ा किया और एक ऐसे क़ुरआनी समाज की रचना मात्र 23 वर्षों में की गई जिसका उत्तर विश्व कभी नहीं दे सकता। आज भी विद्वान मानते है कि क़ुरआन और हज़रत मुहम्मद साहब ने एक आदर्श समाज की रचना की। इस दृष्टि से यदि क़ुरआन का अध्ययन किया जाए तो आपको उसके साथ क़दम मिला कर चलना होगा। उसकी शिक्षाओं पर टिकना होगा। केवल निजी जीवन में ही नहीं बल्कि सामाजिक, राजनैतिक और क़ानूनी क्षैत्रों में, तब आपके समक्ष वे सारे चरित्र जो क़ुरआन में वर्णित हैं, जीवित नज़र आऐंगे। वे सारी कठिनाई और वे सारी परेशानी सामने आ जाऐंगी। तन, मन, धन, से जो लोग इस कार्य हेतु उठे तो क़ुरआन की हिदायत हर मोड़ पर उसका मार्ग दर्शन करेगी।
कुरान ईश्वर की रस्सी है - क़ुरआन अल्लाह की रस्सी है। इस बारे में तिरमिज़ी में हज़रत ज़ैद बिन अरक़म द्वारा वर्णित हदीस है जिसमें कहा गया है कि क़ुरआन अल्लाह की रस्सी है जो ज़मीन से आसामान तक तनी है। क़ुरआन अल्लाह की रस्सी इस अर्थ में भी है कि यह मुसलमानों को आपस में बांध कर रखता है। उनमें विचारों की एकता, मत भिन्नता के समय अल्लाह के आदेशों से निर्णय और जीवन के लिए एक आदर्श नमूना प्रस्तुत करता है। ख़ुद क़ुरआन में है कि अल्लाह की रस्सी को मज़बुती से पकड़ लो। क़ुरआन के मूल आधार पर मुसलमानों के किसी गुट में कोई टकराव नहीं है। तबरानी में वर्णित एक और हदीस है जिसमें कहा गया है कि एक दिन हुज़ूर (सल्ल.) मस्जिद में तशरीफ लाए तो देखा कुछ लोग एक कोने में बैठे क़ुरआन पढ़ रहे हैं और एक दूसरे को समझा रहे हैं। यह देख कर आप (सल्ल.) के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। आप (सल्ल.) सहाबा के उस गुट के पास पहुंचे और उन से कहा- क्या तुम मानते हो कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य माबूद (ईश) नहीं है, मैं अल्लाह का रसूल हुँ और क़ुरआन अल्लाह की किताब है? सहाबा ने कहा, या रसूल अल्लाह हम गवाही देते हैं कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई माबूद नहीं, आप अल्लाह के रसूल हैं और क़ुरआन अल्लाह की किताब है। तब आपने कहा, खुशियां मानाओ कि क़ुरआन अल्लाह की वह रस्सी है जिसका एक सिरा उसके हाथ में है और दूसरा तुम्हारे हाथ में।
क़ुरआन के 05 हक़ (दायित्व) क़ुरआन के हर मुसलमान पर पांच दायित्व हैं, जिन्हे अपनी शाक्ति और सामर्थ्य के अनुसार पूर्ण करना चाहिए।
01. ईमान (विश्वास) - हर मुसलमान क़ुरआन पर ईमान रखे जैसा कि ईमान का हक़ है अर्थात केवल ज़बान से इक़रार नहीं हो, दिल से यक़ीन रखे कि यह अल्लाह की किताब है। 02. समझ के साथ पढ़ना (तिलावत) - क़ुरआन को हर मुसलमान निरंतर पढ़े जैसा कि पढ़ने का हक़ है, अर्थात उसे समझ कर पढ़े। पढ़ने के लिए तिलावत का शब्द खुद क़ुरआन ने बताया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है To Follow (पीछा करना)। पढ़ कर क़ुरआन पर अमल करना (उसके पीछे चलना) यही तिलावत का सही हक़ है। खुद क़ुरआन कहता है और वे इसे पढ़ने के हक़ के साथ पढ़ते हैं। (सूरह 2 आयत 121) इसका विद्वानों ने यही अर्थ लिया है कि ध्यान से पढ़ना, उसके आदेशों में कोई फेर बदल नहीं करना, जो उसमें लिखा है उसे लोगों से छुपाना नहीं। जो समझ में नहीं आए वह विद्वानों से जानना। पढ़ने के हक़ में ऐसी समस्त बातों का समावेश है। 03. समझना - क़ुरआन का तीसरा हक़ हर मुसलमान पर है, उसको पढ़ने के साथ समझे और साथ ही उस पर चिंतन करे। खुद क़ुरआन ने समझने और उसमें ग़ौर करने की दावत मुसलमानों को दी है। 04 अमल - क़ुरआन को केवल पढ़ना और समझना ही नहीं। मुसलमान पर उसका हक़ है कि वह उस पर अमल भी करे। व्यक्तिगत रूप में और सामजिक रूप मे भी। व्यक्तिगत मामले, क़ानून, राजनिति, आपसी मामलात, व्यापार सारे मामले क़ुरआन के प्रकाश में हल किए जाऐं। 05 आम आदमी तक प्रसार - क़ुरआन का पांचवां हक़ यह है कि उसे दूसरे लोगों तक पहुंचाया जाए। मोहम्मद साहब का कथन है कि चाहे एक आयत ही क्यों ना हो। हर मुसलमान पर क़ुरआन के प्रसार में अपनी सार्मथ्य के अनुसार दूसरों तक पहुंचाना अनिवार्य है।
कुरान और उसकी समझ अवतरण काल - क़ुरआन को समझने के लिए उसके अवतरण (नुज़ूल) की पृष्ठ भूमि जानना ज़रूरी है। यह इस तरह की किताब नहीं है कि इसे पूरा लिख कर मोहम्मद साहब को देकर कह दिया गया हो कि जाओ इसकी ओर लोगों को बुलाओ। बल्कि क़ुरआन थोड़ा थोड़ा उस क्रांति के अवसर पर जो हज़रत मुहम्मद साहब ने अरब में आरंभ की थी, आवश्यकता के अनुसार अवतरित किया गया। आरंभ से जैसे ही क़ुरआन का कुछ भाग अवतरित होता मोहम्मद साहब उसे लिखवा देते और यह भी बता देते कि यह किसके साथ पढ़ा जाएगा। अवतरण के क्रम से विद्वानों ने क़ुरआन को दो भागों में बांटा है। एक मक्की भाग, दूसरा मदनी भाग। आरंभ में मक्का में छोटी छोटी सूरतें अवतरित हुईं। उनकी भाषा श्रेष्ठ, प्रभावी और अरबों की पसंद के अनुसार श्रेष्ठ साहित्यिक दर्जे वाली थी। उसके बोल दिलों में उतर जाते थे। उसके दैविय संगीत से कान उसको सुनने में लग जाते और उसके दैविय प्रकाश से लोग आकर्षित हो जाते या घबरा जाते। इसमें सृष्टि के वे नियम वर्णित किए गए जिन पर सदियों के बाद अब भी मानव आश्चर्य चकित है, किन्तु इसके लिए सारे उदाहरण स्थानीय थे। उन्हीं के इतिहास, उन्ही का माहौल। ऐसा पांच वर्ष तक चलता रहा। इसके बाद मक्के की राजनैतिक तथा आर्थिक सत्ता पर क़ब्ज़े वाले लोगों ने अपने लिए इस खतरे को भांप का अत्याचार का वह तांडव किया कि मुसलमानों की जो थोड़ी संख्या थी उसमें भी कई लोगों को घरबार छोड़ कर हब्शा (इथोपिया) जाना पड़ा। खुद नबी मोहम्मद साहब को एक घाटी में परिवारजनों के साथ क़ैद रहना पड़ा और अंत में मक्का छोड़ कर मदीना जाना पड़ा। मुसलमानों पर यह बड़ा कठिन समय था और अल्लाह ने इस समय जो क़ुरआन नाज़िल किया उसमें तलवार की काट और बाढ़ की तेज़ी थी। जिसने पूरा क्षैत्र हिला कर रख दिया। मुसलमानों के लिए तसल्ली और इस कठिन समय में की जाने वाली प्रार्थनाऐं हैं जो इस आठ वर्ष के क़ुरआन का मुख्य भाग रहीं। इस हिंसात्मक प्रकरण से स्पष्ट होता है कि मानवीय रचना धर्मिता एवं भावनाओं का प्रभाव इस ग्रंथ की रचना में रहा। मक्की दौर के तेरह वर्ष बाद मदीने में मुसलमानों को एक केन्द्र प्राप्त हो गया। जहाँ सारे ईमान लाने वालों को एकत्रित कर तीसरे दौर का अवतरण शुरू हुआ। यहाँ मुसलमानों का दो नए प्रकार के लोगों से परिचय हुआ। प्रथम यहूदी जो यहाँ सदियों से आबाद थे और अपने धार्मिक विश्वास के अनुसार अंतिम नबी मोहम्मद साहब की प्रतिक्षा कर रहे थे। किन्तु अंतिम नबी को उन्होंने अपने से दूसरे समाज में देखा तो उत्पात मचा दिया। क़ुरआन में इस दौर में अहले किताब (ईश्वरीय ग्रंथों को मानने वाले विशेष कर यहूदी तथा ईसाई) पर क़ुरआन में सख्त टिप्पणियाँ की गईं। इसी युग में कुटाचारियों (मुनाफिक़ों) का एक गुट मुसलमानों में पैदा हो गया जो मुसलमान होने का नाटक करते और विरोधियों से मिले रहते। यहीं से मुसलमानों को सशस्त्र संघर्ष की आज्ञा मिली और उन्हें निरंतर मक्का वासियों के हमलों का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर एक इस्लामी राज्य की स्थापना के साथ पूरे समाज की रचना के लिए ईश्वरीय नियम अवतरित हुए। युद्ध, शांति, न्याय, समाजिक रीति रिवाज, खान पान सबके बारे में ईश्वर के आदेश इस युग के क़ुरआन की विशेषता हैं। जिनके आधार पर समाजिक बराबरी का एक आदर्श राज्य मोहम्मद साहब ने खड़ा कर दिया। जिसके आधार पर आज सदियों बाद भी हज़रत मुहम्मद साहब का क्रम विश्व नायकों में प्रथम माना जाता है। उन्होंने जीवन के हर क्षैत्र में ज़बानी निर्देश नहीं दिए, बल्कि उस पर अमल करके दिखाया। इस पृष्ठ भूमि के कारण ही क़ुरआन में कई बार एक ही बात को बार बार दोहराया जाना लगता है। एकेश्वरवाद, धार्मिक आदेश, स्वर्ग, नरक, सब्र (धैर्य), धर्म परायणता (तक्वा) के विषय हैं जो बार बार दोहराए गए। क़ुरआन ने एक सीधे साधे, भले व्यापारी को, जो अपने परिवार में एक भरपूर जीवन गुज़ार रहा था। विश्व की दो महान शक्तियों (रोमन तथा ईरानी साम्राज्य) के समक्ष खड़ा कर दिया। केवल यही नहीं उसने रेगिस्तान के अनपढ़ लोगों को ऐसा सभ्य बना दिया कि पूरे विश्व पर इस सभ्यता की छाप से सैकड़ों वर्षों बाद भी पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। क़ुरआन ने युद्ध, शांति, राज्य संचालन, उपासना और परिवार के वे आदर्श प्रस्तुत किए जिसका मानव समाज में आज प्रभाव है।
कुरआन पर शोध कुरान पर शोध होते रहते हैं, इसी तरह कुछ वर्षों पूर्व अरबों के एक गुट ने भ्रुण शास्त्र से संबंधिक क़ुरआन की आयतें एकत्रित की और उनका अंग्रेजी में अनुवाद कर, प्रो. कीथ एल. मूर के समक्ष प्रस्तुत की जो भ्रूण शास्त्र (embryology) के प्रोफेसर और टोरंटो विश्वविद्यालय (कनाडा) के विभागाध्यक्ष हैं। इस समय विश्व में भ्रूण शास्त्र के सर्वोच्च ज्ञाता माने जाते हैं। उनसे कहा गया कि वे क़ुरआन में भ्रूण शास्त्र से संबंधित आयतों पर अपने विचार प्रस्तुत करें। उन्होंने उनका अध्ययन करने के पश्चात कहा कि भ्रूण शास्त्र के संबंध में क़ुरआन में वर्णन ठीक आधुनिक खोज़ों के अनुरूप हैं। कुछ आयतों के बारे में उन्होंने कहा कि वे इसे ग़लत या सही नहीं कह सकते क्यों कि वे खुद इस बात में अनभिज्ञ हैं। इसमें सबसे पहले नाज़िल की गई क़ुरआन की वह अयात भी शामिल थी जिसका अनुवाद है। अपने पालनहार का नाम ले कर पढ़ो, जिसने (दुनिया का) सृजन किया। जिसने इंसान को खून की फुटकी से बनाया। इसमें अरबी भाषा में एक शब्द का उपयोग किया गया है अलक़ इस का एक अर्थ होता खून की फुटकी (जमा हुआ रक्त) और दूसरा अर्थ होता है जोंक जैसा। डॉ. मूर को उस समय तक यह ज्ञात नहीं था कि क्या माता के गर्भ में आरंभ में भ्रूण की सूरत जोंक की तरह होती है। उन्होंने अपने प्रयोग इस बारे में किए और अध्ययन के पश्चात कहा कि माता के गर्भ में आरंभ में भ्रूण जोंक की आकृति में ही होता है। डॉ कीथ मूर ने भ्रूण शास्त्र के संबंध में 80 प्रश्नों के उत्तर दिए जो क़ुरआन और हदीस में वर्णित हैं। उन्ही के शब्दों में, यदि 30 वर्ष पूर्व मुझसे यह प्रश्न पूछे जाते तो मैं इनमें आधे भी उत्तर नहीं दे पाता। क्योंकि तब तक विज्ञान ने इस क्षैत्र में इतनी प्रगति नहीं की थी।1 981 में सऊदी अरब मेडिकल कांफ्रेंस में डॉ. मूर ने घोषणा की कि उन्हें क़ुरआन की भ्रूण शास्त्र की इन आयतों को देख कर विश्वास हो गया है कि हज़रत मुहम्मद साहब ईश्वर के पैग़म्बर थे। क्यों कि सदियों पूर्व जब विज्ञान खुद भ्रूण अवस्था में था इतनी सटीक बातें केवल ईश्वर ही कह सकता है। डॉ. मूर ने अपनी किताब के 1982 के संस्करण में सभी बातों को शामिल किया है जो कई भाषाओं में उपलब्ध है और प्रथम वर्ष के चिकित्साशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती है। इस किताब (The developing human) को किसी एक व्यक्ति द्वारा चिकित्सा शास्त्र के क्षैत्र में लिखी किताब का अवार्ड भी मिल चुका है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्हे क़ुरआन की इस टीका में आप निरंतर पढ़ेंगे।
मत भिन्नता कुरान के आलोचक कहते हैं कि जब क़ुरआन इतनी सिद्ध किताब है तो उसकी टीका में हज़रत मुहम्मद साहब से अब तक विद्वानों में मत भिन्नता क्यों है। यहां इतना कहना काफी होगा कि पैगम्बर मुहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों में सेहतमंद विभेद को बढ़ावा दिया किन्तु मतभिन्नता के आधार पर कट्टरपन और गुटबंदी को पसंद नहीं किया। सेहतमंद मतभिन्नता समाज की प्रगति में सदैव सहायक होती है और गुटबंदी सदैव नुक़सान पहुंचाती है। इसलिए इस्लामी विद्वानों की मतभिन्नता भी क़ुरआन हदीस में कार्य करने और आदर्श समाज की रचना में सहायक हुई है किन्तु नुक़सान इस मतभिन्नता को कट्टर रूप में विकसित कर गुटबंदी के कारण हुआ है। शाब्दिक वह्य क़ुरआन हज़रत मुहम्मद साहब पर अवतरित हुआ वह ईश्वरीय शब्दों में था। यह वह्य शाब्दिक है, अर्थ के रूप में नहीं। यह बात इसलिए स्पष्ठ करना पड़ी कि ईसाई शिक्षण संस्थाओं में यह शिक्षा दी जाती है कि वह्य ईश्वरीय शब्दों में नहीं होती बल्कि नबी के हृदय पर उसका अर्थ आता है जो वह अपने शब्दों में वर्णित कर देता है। ईसाईयों के लिए यह विश्वास इसलिए ज़रूरी है कि बाईबिल में जो बदलाव उन्होंने किए हैं, उसे वे इसी प्रकार सत्य बता सकते थे। पूरा ईसाई और यहुदी विश्व सदियों से यह प्रयास कर रहा है कि किसी प्रकार यह सिद्ध कर दे कि क़ुरआन हज़रत मुहम्मद साहब के शब्द हैं और उनकी रचना है। इस बारे में कई किताबें लिखी गई और कई तरीक़ों से यह सिद्ध करने के प्रयास किए गए किन्तु अभी तक किसी को यह सफलता नहीं मिल सकी।
कुरान का ज्ञानार्जन - कुरान के ज्ञानार्जन के लिए भी दो विभिन्न तरीक़े अपनाने होंगे। आदेशों के लिहाज़ से क़ुरआन में विचार करने वाले को पीछे की ओर यात्रा करनी होगी। क़ुरआन के आदेश का अर्थ धर्म शास्त्रियों (फुकरा), विद्वानों (आलिमों) ने क्या लिया, तबाताबईन (वे लोग जिन्होने ताबईन को देखा।), ताबईन (वे लोग जिन्होने सहाबा (हज़रत मुहम्मद साहब के साथियों को देखा।) और सहाबा ने इसका क्या अर्थ लिया। यहां तक कि ख़ुद को हज़रत मुहम्मद साहब के क़दमों तक पहुंचा दे कि ख़ुद साहबे क़ुरआन का इस बारे में क्या आदेश था? दूसरी ओर ज्ञानविज्ञान के लिहाज़ से आगे और निरंतर आगे विचार करना होगा। समय के साथ ही नहीं उससे आगे चला जाए। मनुष्य के ज्ञान की सतह निरंतर ऊंची होती जा रही है। क़ुरआन में विज्ञान का सर्वोच्च स्तर है उस पर विचार कर नए अविष्कार, खोज और जो वैज्ञानिक तथ्य हैं उन पर कार्य किया जा सकता है।
कुरआन में मानवता के लिए 100 सीधे आदेश :-
सारांश कुरान मजीद -
कुरान में मानव हित में ईश्वर के 100 सीधे आदेश -
क्रम निर्देश सूरत - आयत
1. बदज़ुबानी से बचो। 3 -159
2. गुस्से को पी जाओ। 3 -134
3- लोगों के साथ भलाई करो। 4 - 036
4. घमंड से बचो। 7- 013
5. लोगों की गलतियाँ माफ करो। 7 -199
6. लोगों से नरमी से बात करो। 20 - 44
7. अपनी आवाज़ नीची रखो। 19- 031
8. किसका मज़ाक मत उड़ाओ। 11- 049
9. माँ-बाप की इज़्ज़त करो। 17- 023
10. माँ-बाप के सामने उफ़ भी न कहो। 17- 023
11. बिना अनुमति किसी के घर में प्रवेश न करें। 24 - 058
12. आपस में उधार लेन - देन लिख लिया करो। 02- 282
13. किसी का अंधानुकरण मत करो।
02 - 170
14. यदि कोई तंगी मे है तो उसे कर्ज़ उतारने में राहत दो। 02 - 280
15. ब्याज कभी मत खाओ। 02- 275
16. रिश्वत कभी मत खाओ। 02 - 188
17. वादों को हमेशा पूरा करो। 02- 177
18. परस्पर भरोसा क़ायम रखें। 02- 283
19. सच और झूठ को आपस में कभी मत मिलाओ। 02- 042
20. लोगों के बीच इंसाफ से फैसला करो।
04- 058
21.न्याय (इंसाफ) पर मज़बूती से जम जाओ। 04:135
22. मृतक की संपत्ति का बंटवारा देनदारी, वसीयत और शरीयत के अनुसार हो। 04- 007
23. स्त्रियों का विरासत में निर्धारित हिस्सा है। 04 - 007
24. यतीमों का माल मत खाओ। 04- 10
25. यतीमों का ख्याल रखो। 02- 220
26. किसी का धन मत हड़पो। 04- 029
27. आपसी झगड़ेने वालों के मध्य सुलह कराओ। 09 - 49
28. बदगुमानी से बचो। 12 - 49
29. गवाही को मत छुपाओ। 02- 283
30. एक दूसरे के भेद न टटोला करो और किसी की चुगली मत करो। 12 - 049
31. अपने धन में से दान करो। 07- 057
32. अनाथ, असहाय एवं गरीबों को भोजन कराओ। 03 - 107
33. ज़रूरतमंद की तलाश कर उनकी मदद करो। 2 - 273
34- कंजूसी और फिज़ूल ख़र्ची से बचा करो। 17 - 029
35. किए गए दान को दिखावे और एहसान से बर्बाद मत करो। 02 -264
36. मेहमानों की इज़्ज़त करो। 51- 026
37. भलाई पर ख़ुद अमल करने के बाद दूसरों को बढ़ावा दो। 02 - 044
38. ज़मीन पर फसाद मत करो। 02 - 60
39- लोगों को मस्जिदों में अल्लाह के ज़िक्र से मत रोको। 02 - 114
40- सिर्फ उन से लड़ो जो तुम से लड़ें। 02 - 190
41. युद्ध के नियमों का ख़याल रखना। 02 - 191 42. युद्ध के समय पीठ मत फेरना।8 - 15
43. दीन में कोई ज़बरदस्ती नहीं 02:256
44. सब नबियों पर इमान लाओ। 2-285
45. माहवारी में औरतों के साथ संभोग न करो। 2 - 222
46. माँ बच्चों को दो साल तक दूध पिलाएँ। 2 - 233
47. ख़बरदार, ज़िना के पास किसी सूरत में नहीं जाना। 17:32
48. हुक्मरानो को ख़ूबीे देखकर चुना करो। 2 - 247
49. किसी पर उसकी ताक़त से ज़्यादा बोझ मत डालो। 2 - 286
50. आपस में फूट मत डालो। 3 - 103
51. सृष्टि के निर्माण के चमत्कार पर गहरी चिन्ता करो। 03 - 191
52. मर्दों और औरतों को आमाल का सिला बराबर मिलेगा। 3 - 195
53. ख़ून के रिश्तों में शादी मत करो। 4 - 23
54. मर्द परिवार का हुक़्मरान है। 4 - 34
55. हसद और कंजूसी मत करो। 4 - 37
56. हसद मत करो। 4 - 54
57. एक दूसरे का क़त्ल मत करो। 4 - 92
58. अमानत में ख़यानत करने वालों के हिमायती मत बनो। 4 - 105
59. गुनाह और ज़ुल्म व ज़यादती में मदद मत करो। 5 - 2
60. नेकी और भलाई में सहयोग करो 5 - 2
61. बहुमत में होना सच्चाई का सबूत नहीं है। 6 - 116
62. इंसाफ पर क़ायम रहो। 5 - 8
63. जुर्म की सज़ा मिसाली तौर में दो।
5 - 38
64. गुनाह और बुराई के विरुद्ध खूब संघर्ष करो। 5 - 63
65. मृत जानवर का मांस, खून, सूअर का मांस निषेध हैं। 5 - 3
66. शराब और नशीली दवाओं से ख़बरदार। 5 - 90
67. जुआ कभी मत खेलो। 5 - 90
68. दूसरों के देवताओं को कभी बुरा मत कहो। 6:108
69. लोगों को धोखा देने के लिये नाप तौल में कमी मत करो। 6:152
70. ख़ूब खाओ पियो परंतु हद पार न करो। 7 - 31
71. मस्जिदों में इबादत के समय अच्छे कपड़े पहनें। 7 - 31
72. जो तुमसे सहायता और सुरक्षा मांगे उसकी सहायता और सुरक्षा करो। 9 - 6
73. पाक़ी चुना करो। 9 - 108
74. अल्लाह की रहमत से कभी निराश मत होना। 12 - 87
75. अशिक्षा और अनभिज्ञता के कारण किए गए बुरे काम और गुनाह अल्लाह माफ कर देगा। 16 - 119
76. लोगों को अल्लाह कीओर बुद्धिमानी और नसीहत के साथ बुलाओ। 16 - 125
77. कोई किसी दूसरे के गुनाहों का बोझ नहीं उठाएगा 17 - 15
78. असहाय और ग़रीबी के डर से अपने बच्चों की हत्या कभी मत करो। 17 - 31
79. जिस बात की जानकारी न हो उसके पीछे मत पड़ो। 17 - 36
80. निराधार और अनजाने कामों से परहेज़ करो। 23 - 3
81. दूसरों के घरों में बिना अनुमति मत दाखिल हो। 24 - 27
82.अल्लाह पर भरोसा रखने वालों की रक्षा हिफाज़त अल्लाह ही करेगा। 24 -55
83.धरती पर आराम और सुकून से चलो। 25 - 63
84. सांसारिक जीवन को अनदेखा मत करो। 28 - 77
85. अल्लाह के साथ किसी और को मत पुकारो। 22 - 88
86. समलैंगिकता से हमेशा बचा करो। 29 - 29
87. अच्छे कामों की नसीहत और बुरे कामों की मनाही करो। 31 - 17
88. ज़मीन पर शेखी और अहंकार से इतरा कर मत चलो। 31 - 18
89. औरतें अपने बनाओ श्रृंगार पर तकब्बुर (घमंड) न करें। 33 - 33
90.अल्लाह सभी गुनाहों को माफ कर देगा सिवाय शिर्क के। 39 - 53
91. अल्लाह की रहमत से मायूस मत हो 39 - 53
92. बुराई को, भलाई से भगाओ। 41 - 34
93. सलाह एवं विचारविमसर्श से कार्य पूर्ण करें। 42 - 38
94. तुम में से ज़्यादा इज़्ज़त वाला वो है जिसने सच्चाई और भलाई को अपनाया हो। 49 - 13
95. दीन मे कामना और लालसा नहीं होती हैं। 57 - 27
96. अल्लाह के यहाँ पढ़े - लिखे (आलिम) के दरजात बुलंद हैं। 58 - 11
97. ग़ैर मजहब के साथ उचित, दयालु और अच्छा व्यवहार करो। 60 - 8
98. स्वयं को इंद्रियों के वश में होने से बचाओ। 64 - 16
99. अल्लाह से माफी माँगो, वो माफ करने और रहम करने वाला है। 73 - 20
100. नरमी से बात करें- (वयतालततफ)
सुराह कहफ की 19वीं आयत का एक लफ्ज़ है वलयतालततफ यह थोड़ा बड़ा कर के लिखा जाता है क्योंकि यहां कुरान शरीफ़ का मध्य भाग आ जाता है। आलिमों के अनुसार यह शब्द कुरान शरीफ़ का खुलासा है, जिसका अर्थ है नर्मी से बात करना। अल्लाह ने मूसा (अ.) को जब फिरओन के पास भेजा तो यही कहा था कि उससे नर्मी से बात करना शायद मान जाए। किस से नर्मी से बात करने को कहा जा रहा है जो दुनिया का सबसे घमंडी इंसान है उससे। जीवन ही बदल जाए यदि हम अल्लाह की इस बात को मान जाएं कि नर्मी से बात करना बेवकूफी या कमजोरी नहीं अपितु चरित्र और शिक्षा की पहचान है।
जिगर चुरूवी शमशेर भालू खान 9587243963
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