Wednesday, 9 July 2025

✍️चूरू के संस्थापक कौन

चूरू की स्थापना एवं संस्थापक - एक विश्लेषण
चूरू के संस्थापक : चूहरू जाट
गोत्र - कालेर 
चूरू के साहित्यकार दुलाराम सहारण के अनुसार - 
वर्ष 1908, 1909, 1939, 1970, 1974 में छपे साक्ष्य - 
राजस्थान सरकार के चूरू जिला गजेटियर में दर्ज के अनुसार - 
सैंकड़ों ऐतिहासिक पुस्तकों में संदर्भित,
कुछ ऐतिहासिक प्रमाणों के प्रकाश में लिखा है कि चूरू को 1620 ई में चूहरू जाट ने बसाया -
1. द इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया, वॉल्यूम-10, प्रकाशन वर्ष-1908, पृष्ठ-335, 
2. बीकानेर राज्य का इतिहास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, प्रकाशन वर्ष -1939, पृष्ठ-62
3. राजस्थान डिस्ट्रिक गजेटियर : चूरू, प्रकाशन- राजस्थान सरकार, प्रकाशन वर्ष - मार्च 1970, पृष्ठ-2
4. एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटानिका
5. बीकानेर रियासत के सदस्य पूर्व सांसद करणीसिंह द्वारा 1974 में लिखी किताब The Relations of the House of Bikaner with the Central Powers, 1465-1949 Karni Singh, 1974 page नंबर 317
6. राजपूताना गजेटियर, प्रकाशन, 1909 The Western Rajputna States Residency And The Bikaner Agency Vol-iii.a - by Ersine K. D.। Page 388
के संदर्भ अनुसार इतिहासकार एवं भारत सरकार, राजस्थान सरकार के गजेटियर के अलावा भी अनेक साक्ष्य हैं, जो इसी बात की पुष्टि करते है।
मेरी कविता 🖕
                चूरू के चित्र 
(श्री दुलाराम सहारण के बताए अनुसार उनकी फेसबुक वाल से)
सीगड़ी/सीघडू के कुए का रहस्य
एक दिन सायंकाल के समय सभी चौधरी चूहरू की चौपाल में बैठे - कुआ बनाने की समस्या पर विचार कर रहे थे । अनेक तरह के सुझाव आ रहे थे। ठीक उसी समय एक चरवाहा दौड़ता हुआ चौपाल में आया और #चूहरू को संबोधित करके कहने लगा - 'बाबा एक बड़ी विचित्र बात है। सूखे ताल में सब भेड़ें, बैठी हुई है केवल मध्य भाग में 6 - 7 फीट के घेरे में कोई भेड़ नहीं बैठती है। कई भेड़ों को बरबस मैंने पकड़ कर वहां बैठाया परंतु वे भी तुरंत वहां से उठकर दूसरी जगह बैठ गई। इस रहस्यमय चमत्कार को देखने के लिए सब लोग घटनास्थल की ओर दौड़ पड़े ।
सचमुच एक बड़ी ही विचित्र बात थी। मुखिया चूहरू ने एक भेड़ के बच्चे को उठाकर खाली स्थान पर बैठा दिया परंतु वह भी तुरंत वहां से उठकर अपनी मां की गोद में जा बैठा। आग की तरह इस विचित्र स्थान की चर्चा गांव-गांव में फैल गई। मौका देखने के लिए अनेक लोग आये। कहते हैं कि किसी ने #चौधरी_चूहरू को यह बताया कि अवश्य ही इस स्थान पर कभी कोई कुआं बनाया गया था। उसकी पक्की नाल यहां हो सकती है। इसी कारण भेड़ इस स्थान पर नहीं बैठती - ऐसे थोथ के स्थानों को पहचान लेने की भेड़ों में एक प्रकृति प्रदत्त शक्ति होती है। सारी #चुहरू_की_ढाणी वहां कुए की नाल होने की बात सुनकर आनंद से नाच उठी। वहीं कुआं बनाने की बात पक्की कर ली। दूसरे दिन ही खुदाई का काम चालू कर दिया गया।बड़ी मुश्किल से 8 - 10 हाथ खुदाई हुई थी की पक्की दीवार पर फावड़ा लगा। बड़ी सावधानी से खुदाई चालू की गई । गोलाकार कुएं की नाल निकल आई। विशाल पत्थर सामने दिखाई देने लगे। ऐसे पत्थर यहां नहीं पाए जाते। एक-एक पत्थर का वजन कम से कम तीन से चार मण से कम नहीं मालूम होता था। 
यहां के कुए बनाने वाले कारीगरों का यह कहना है कि यहां के कुए बड़े गहरे होते हैं अतः यहां के कुओं में अधिक से अधिक एक मन भारी वजन के पत्थर ही काम में लाए जाते हैं - इससे अधिक वजन के पत्थर न तो यहां अधिक मिलते हैं और न ही उनको कुएं में ले जाने के साधन ही थे। इन भारी पत्थरों से बनाए गए इस कुएं की नाल को देखने के लिए लोग यहां प्रतिदिन जमा होने लगे।
 उधर कुए की खुदाई का काम एक नए होश और जोश के साथ चालू रहा - ज्यूं ज्यूं खुदाई नीचे की ओर बढ़ती गई त्यों त्यों इन विशाल पत्थरों की मोटाई और विशालता बढ़ती गई।करीब 60 हाथ खुदाई होने पर कुएं की नाल में एक मोरी मिली। उसकी थोड़ी सी मिट्टी हटाते ही उसके अंदर एक बड़ी गुफा साफ दिखाई देने लगी।इस रहस्यमय गुफा की चर्चा उस समय दूर-दूर तक फैल गई।
पुनः खुदाई की गई - करीब 7 - 8 हाथ खुदाई होते ही मीठे पानी का अगाध स्रोत निकल आया। इस विचित्र कुए की चर्चा एक बिणजारे के कानों में भी पड़ी। वह अपने विशाल काफिले के साथ दिल्ली से #खासोली के रास्ते अजमेर जा रहा था। वह बड़ा धार्मिक और आस्तिक व्यक्ति था। इस कुएं की चर्चा सुनकर उसकी उत्सुकता बढ़ी और वह अपने कुछ साथियों सहित #कालेरा_बास के उसे कुएं पर पहुंच गया। सचमुच बड़ा विचित्र कुआ था। ऐसे कुएं उस बिणजारे ने पाटलीपुत्र, मगध, कौशांबी और उज्जैन में देखे थे। 
सारी चूहरू की ढाणी हर्ष से नाच उठी। चंग - ढोलक एवं लोक नृत्य की मधुर ध्वनि से सारा आकाश गूंज उठा। बिणजारे को मुख्य अतिथि का सम्माननीय स्थान दिया गया। यहां के लोगों के अतिथि सत्कार से बंजारा आनंद विभोर हो उठा। उसने घोषणा की कि कुए की पूरी मरम्मत में मेरा द्रव्य लगेगा और इसका नाम सगरु कुआं रखा जाएगा। इस प्रकार बड़े सुंदर रूप से कुआं बना। पानी संग्रह हेतु कोठे बने एवं पशुओं के लिए पानी की खेळ बनाई गई। इसके मीठे पानी की सुविधा के कारण चूहरू की ढाणी शीघ्र ही एक बस्ती के रूप में बदल गई और चूरू शहर की नींव की आधारशिला बन गई।
 यह ऐतिहासिक सगर कुआं आज भी ठीक हालत में मौजूद है। उसके नाम में थोड़ा सा परिवर्तन हो गया है - वह अब सीगडू/ सीगड़ी कुए के नाम से पुकारा जाता है।
 अब तक कई बार इसकी मरम्मत हो चुकी है। आज से करीब 100 वर्ष पहले यह कुआं पुनः बुरी तरह टूट फूट गया । अतः लोगों के विशेष आग्रह करने पर श्री पीरामल जी गोयनका ने पुनः इसका जीर्णोद्धार करवाया। परंतु मरम्मत करने वाले कारीगरों का कहना था कि भीतर काम में लाए उन विशाल पत्थरों का बाल भी बांका नहीं हुआ है। पानी से सात - आठ हाथ ऊपर वह मोरी अब भी मौजूद है। कई बार उसे बंद करवाया गया परंतु फिर वह खुल जाती है। इस गुफा में बड़े-बड़े पत्थर हैं पहाड़ के, गुफा 7- 8 हाथ लंबी - चौड़ी है। कुए की नाल के चारों ओर घूमा जा सकता है। 
इस गुफा के विषय में एक बड़ा रहस्य और सुनने में आया है। कहते हैं इस गुफा में उसकी छत में करीब 3 फीट का सुराक है जो क्रमशः छोटा होता हुआ ऊपर की ओर चला गया है। अंत में केवल 2 इंच का गोलाकार प्रकाश बिंदु दिखाई देता है। जिसमें से प्रकाश की एक किरण आती दिखाई देती है। सुनने में तो यह भी आया है कि इस कुए के माली बेसमय इस कुएं पर बिना आवाज किए -/चेतावनी दिए नहीं जाते । इससे प्रतीत होता है कि अवश्य कुछ रहस्य इस विचित्र कुएं में भरा पड़ा है।
 हां वर्षों पहले चूरू के भूतपूर्व विधायक और सांसद रहे श्रद्धेय श्री मोहर सिंह जी राठौड़ इस गुफा का रहस्य जानने के लिए प्रकाश के लिए जनरेटर लगाकर इस गुफा में गए।
 गुफा अवश्य है परंतु वहां शिवाय पत्थरों के कुछ भी नहीं दिखाई दिया। उनका कहना है कि संभव है कुआं पहले का कोई धंसा हुआ है परंतु मालियों का कहना है कि यह धंसा कभी नहीं हो सकता क्योंकि यह गुफा पानी से सात हाथ ऊपर है।
प्रस्तुति - 
दलीप_सरावग बूंटिया 
साभार 
चूरू_का_इतिहास 
प्रथम भाग 
ज्ञान - मित्रा - विशेषांक सन् 1971
लेखक - श्री मुरलीधर सारस्वत

राजपूत समाज के पद्म सिंह राठौड़ गांव दांदू के अनुसार -

इतिहास का जन स्मृति विवरण - 
आज से करीब साढे पांच सौ साल पहले जयपुर जिले के फुलेरा कस्बे के नजदीक सांभर गांव में वहां के सामंत व काला गोत्र के चमारों जिन्हें वर्तमान में मेघवाल कहा जाता है में किसी बात पर अनबन हो गई इसलिए उन मेघवालों को अपना मूल स्थान छोड़ना पड़ा l
खानाबदोश होने के बाद काला गोत्र के मेघवाल अपने समूह के साथ उत्तर की तरफ रवाना हुए और प्रथम डेरा सीकर जिले के अठवास गांव में डाला, काला मेघवालों के कुल देवता गोसाई जी महाराज थे इसलिए उन्होंने अठवास गांव में गुसाईं मंदिर की स्थापना की जो आज एक बड़े मंदिर के रूप में जाना जाता है , वहां से कुछ समूह और उत्तर की तरफ बढ़े और झुंझुनू तथा सीकर जिलों के कई गांवों में थोड़ी थोड़ी संख्या में बस गए जिनमें तारपुरा , दादिया, मंडावा, फतेहपुर, देवास, डोटासरा, रामगढ़ आदि प्रमुख गांव थे उसके बाद और आगे बढ़ते हुए वे चूरू में दो स्थानों पर बसे जिनमें से पूर्व की तरफ बसाए डेरे को कालेरा बास तो पश्चिम की तरफ पंखा की तरफ बसे डेरे को काला का बास कहा जाने लगा l
समय बीतने के साथ-साथ पूर्व के स्थानों से कई मेघवाल परिवार यहां आकर बसे जिनमें अलखपुरा से माहिच, कादिया से मेव व देवठिया, लालासर से सुणिया व चोपड़ा पिलानी से रांगेर व कई अन्य गांवों से बरोड़, जिनोलिया, इंदलिया, झाझड़ा , सर्वा , शीला , जाखड़ एवं गोठवाल परिवार जो आज भी यहां स्थित हैं , मेघवालों के साथ-साथ जांगिड़, सैनी, प्रजापत, भार्गव, रावणा राजपूत और पूनिया एवं नेहरा जाटों ने भी इस गांव को बसाया जिसे #कालां_रा_बास कहा जाने लगा और कालांतर में इसका नाम #कालेरा_बास पड़ा व इस परिवार के मुखिया का नाम #चोरूराम_काला होने के कारण कालांतर में इस क्षेत्र का नाम भी चूरु पड़ा l
इस क्षेत्र के गोठवाल सबसे ज्यादा संपन्न थे इसीलिए मेघवाल होते हुए भी उन्होंने उस समय गोठवालों की हवेली का निर्माण करवाया जो उस समय की चूरू में सबसे बड़ी हवेलियों में से एक तथा पूर्वी चूरू की एकमात्र हवेली थी जिसके प्रमाण आज भी मौजूद हैं l मेघवाल जाति में कई गोत्र जीण माता व करणी माता को भी पूजते थे इसीलिए विस्तृत कालेरा बास जिसे आज चांदनी चौक के नाम से जाना जाता है में करीब साडे चार सौ साल पुराना करणी माता मंदिर तो डाबला बीड़ चौकी के पिछे करीब 200 साल पुराना जीण माता मंदिर स्थित है , सर्वा गोत्र के मेघवाल वर्तमान भगवान दास जी बागला की बाड़ी में रहते थे और वहां उन्होंने करीब 400 साल पहले भैरव मंदिर की पूजा अर्चना शुरू की वहां रहते हुए उनका वंश आगे नहीं बढ़ा इसलिए उस जगह को अशुभ मानते हुए उन्होंने वह स्थान छोड़ दिया और मेघवाल कुए के पास आकर बस गए लेकिन उसी मंदिर की पूजा अर्चना करते रहे, 1911 में चूरू के राय बहादुर भगवान दास जी बागला ने जैसे ही उस जमीन का अधिग्रहण किया वह जमीन कटारिया मालियों के अधीन चली गई भेरुजी का स्थान बहुत ही छोटा व कच्ची ईंटों का था इसलिए कटारिया परिवार ने उस पर ध्यान नहीं दिया और वह मंदिर नष्ट हो गया कटारिया परिवार की मान्यता है कि उसके बाद उनके परिवार पर संकट आए तो सर्वा परिवार ने उनसे कहा कि आप भेरुजी की आराधना कीजिए तो संकट दूर हो जाएगा दोनों ही परिवारों की मान्यता है कि जैसे ही सैनी परिवार ने भैरू जी की आराधना शुरू की उनके दिन फिरने लगे और वे सुख शांति से अपना जीवन यापन करने लग गए वह छोटा सा भेरू मंदिर आज भी भैराराम जी कटारिया के घर में मौजूद है l 
एक डेरे ने गांव और गांव ने नगर का रूप लिया तो यहां के बाशिंदों को अपना प्रशासनिक ढांचा सुचारू रूप से चलाने के लिए एक प्रशासक की आवश्यकता पड़ी , चूरू के निकटवर्ती गांव घांघु व खासौली की बसावट चूरू से भी पहले हो चुकी थी और घांघू में जीण माता के पूर्वज वहां की प्रशासनिक व्यवस्था संभालते थे इसलिए चूरु वासियों ने वहां जाकर घांघू के प्रशासक से चूरू की प्रशासनिक व्यवस्था संभालने का आग्रह किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और चूरु आकर प्रशासन का कार्यभार संभाला , इतिहासकारों का कहना है की प्रशासनिक कार्यों में सहयोग देने के लिए दिलावर नामक एक व्यक्ति को चूरू का चौधरी चुना हुआ था जो विभिन्न प्रकार के कर एवं लगान इकट्ठा करके राज परिवार तक पहुंचाया करते थे , धर्म परिवर्तन करने के बाद उन्हें दिलावर चौधरी के वंशज वर्तमान के दिलावर खानी कहलाए । 
यहां रहने वाले लोगों में बड़ा ही आपसी सहयोग एवं प्रेम भाव था इसलिए जातिगत भेदभाव ना मानते हुए उन्होंने #सिगडू कुआं जिसका तात्पर्य होता है #सामूहिक_कुआ का निर्माण करवाया और सभी जातियां एक ही कुएं और एक ही कोठी से पानी भरते थे , वह कुआं भी एक ऐतिहासिक प्रमाण है, समय बीतता गया और शिक्षा की जरूरत पड़ी तो इस क्षेत्र के लोगों ने सर्वोदय आश्रम जिसे गांधी आश्रम भी कहा जाता है में एक नीम के पेड़ के नीचे पाठशाला लगानी शुरू की जिसे बाद में स्वर्गीय स्वामी गोपाल दास जी के सहयोग से विस्तार दिया गया और कबीर पाठशाला नाम रखा गया जो आज भी एक ऐतिहासिक प्रमाण है l  
समय बीतता गया और इस क्षेत्र में दक्षिण की तरफ से कई जातियों ने प्रवेश किया जिनमें अग्रवाल मंडावा वाले, झुंझुनू वाले , बिसाऊ वाले, रामगढ़ वाले , चमडिया फतेहपुर वाले, पिलानी वाले , ब्राह्मण, नाई , बाल्मीकि, सांसी, रेगर, खटीक, दर्जी, मुसलमान, कायमखानी, अलाई, सब्जी फरोश, छींपा , लीलगर , काजी, धोबी, मणियार, तेली आदि प्रमुख है जो आज भी यहां बसे हुए हैं l
कुछ जिले से बाहर के तथाकथित इतिहासकार चूरु शहर के इतिहास से समय-समय पर छेड़छाड़ करने की नाकामयाब कोशिश करते रहते हैं लेकिन जिनका वे नाम बताते हैं उनका कोई भी प्रमाणिक साक्ष्य नहीं है वे किस स्थान से आए और कौन से घर में रहते थे इसके भी कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, अगर वह चूरू में रहते थे तो बाद में उनके वंशज कहां चले गए इसके भी कोई प्रमाण नहीं है।
चूरू के साथ साथ ही कालेर गोत्र के जाटों ने कालेरा बास बसाया था यह सो प्रतिशत सत्य है लेकिन वह कालेरा बास झुंझुनू जिले में एक गांव है जिसे आज भी कालेरा बास कहा जाता है, यह भी सत्य है की चूरू के नजदीकी गांव ढ़ाढर में कालेर जाट मौजूद हैं लेकिन वे य़ा उनके पूर्वज कभी भी चूरु स्थित कालेरा बास में आकर कभी नहीं बसे l 
अगर इसी प्रकार इतिहास के साथ अवांछित छेड़छाड़ होती रही तो आने वाली पीढ़ियों को बताया जाएगा की चंदेल नगर की स्थापना मेघवालों ने नहीं बल्कि चंदेल वंश के राजपूतों ने की थी , मोतीसर की स्थापना मोतीलाल नेहरू ने की थी , इंदिरा कॉलोनी की स्थापना प्रेमानंद बाल्मीकि ने नहीं बल्कि स्वयं इंदिरा जी ने की थी उसी प्रकार मेघसर की स्थापना मेघवालों ने नहीं बल्कि स्वयं इंद्रदेव ने की थी । 
जब चूरु बसा था उस समय यहां के वाशिंदे इतने एडवांस नहीं थे कि उन्हें अंग्रेजी और हिंदी के कैलेंडर का ज्ञान हो, बहुत से तो आज भी हैं जिन्हें अपना स्वयं का जन्म दिवस भी याद नहीं, ना ही उनके पास उच्च कोटि के चित्रकार या कैमरे थे जिनसे वे चोरूराम जी काला की हुबहु तस्वीर बनाकर उन्हें सफेद पगड़ी व कानों में कुंडल पहना सकें।

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