Thursday, 10 July 2025

✅इस्लाम धर्म संक्षिप्त परिचय

      हजरे अस्वद का निकटतम दृश्य
सब से पहले इस जमीन पर आदम (प्रथम ईश दूत) को उतारा गया। सभी को मानवता का संदेश देने एवं भलाई के कार्य करने व बुराई से बचने हेतु लोगों को प्रेरित करने का कार्य सौंपा गया। अंतिम पैगम्बर को जब भलाई का संदेश सभी दूतों के माध्यम से पूर्ण कर लिया गया नमाज, रोजा, हज एवं जकात देने का संदेश दिया गया। कलमा इस से पहले के नबियों के समय भी था। इब्राहिम के समय मोहम्मद (स.) के स्थान पर इब्राहिम खलीलुल्लाह, मूसा के समय मूसा कलीमुल्ला, ईशा रूहअल्लाह, इस्माईल ज़बीहउल्लाह कहा जाता था।
इस संबंध में विस्तार से आगे चर्चा होगी।

एक हदीष
"सबसे पहली चीज़ जिसे अल्लाह (ईश्वर) ने कलम (लेखनी) को पैदा किया। अल्लाह ने इस से कहा लिख क़लम ने कहा ए मेरे मालिक मैं क्या लिखूँ? अल्लाह (ईश्वर) ने आदेश दिया  - क़यामत तक होने वाली सारी चीज़ों की तक़दीरें लिख।
दाऊद 4700, तिरमिज़ी 3319-2155, मस्नद अहमद 208, मिशकात 94)

इस्लाम शब्द का अर्थ है -
स्वयं का अल्लाह (ईश्वर) के प्रति समर्पण।
इस प्रकार मुसलमान वह है, जिसने स्वयं को अल्लाह (ईश्वर) के प्रति समर्पित कर दिया। अर्थात इस्लाम धर्म के नियमों पर चलने लगा। इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत का पालक और हजरत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक अथवा पैगम्बर मानना है। इस्लाम धर्म में मानव पर दो प्रकार के दायित्व हैं और इन्हीं का तन्मयता से पालन इस्लाम है - 
1हक़ उल इबाद 
मानव का मानव के प्रति कर्तव्य जिसे अरबी में हक़ उल इबाद कहा गया है।
2हक़ उल अल्लाह - 
मानव का ईश्वर के प्रति कर्तव्य जिसे हक़ उल अल्लाह कहा गया है।

इस्लाम धर्म संक्षिप्त परिचय:-
इस्लाम अरबी भाषा में‎ अल-इस्लाम  एक इब्राहीमी विचारधारा का ईश्वर (अल्लाह, खुदा, रब) के दूतों (पैग़म्बर) द्वारा बताया गया पथ (दीन) है जो निरंकारवादी एकेश्वरवादी व ईश्वर को सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वव्यापी मानने वाला धर्म (मज़हब) है।
अरबी में इस्लाम शब्द का अर्थ है मानना कुफ्र शब्द का अर्थ है मना करना
इस प्रकार से कुरआन व (हज़रत) मोहम्मद (सल्लला अलैहि व सल्लम) (ईश्वर आप की रक्षा करे) की शिक्षाओं को मानने वाला मुसलमान कहलाया व मना करने वाला काफ़िर
इस्लामिक मान्यता के अनुसार विश्व के हर हिस्से में हर समुदाय में ईश्वर के मत का प्रेषण करने हेतु दूत (नबी) भेजे गये जिनकी संख्या लगभग 124000 या 184000 हज़ार है।
इस्लामिक मान्यता के अनुसार इसके अन्तिम दूत (ईश्वर के संदेश प्रेषित करने वाला) की शुरुआत 7वीं सदी के अरब प्रायद्वीप में हुई है।
इस्लामी परंपराएं अल्लाह (ईश्वर) के अन्तिम पैगम्बर (दूत) मुहम्मद साहब (स.) के द्वारा मनुष्यों तक पहुँचाई गई अवतरित (नाजिल) पुस्तक कुरान की शिक्षा पर आधारित हैं। जिसकी भाषा अरबी है। इसमें हदीस, सीरत उन-नबी व शरीयत आदि शामिल हैं। इस्लाम में सुन्नी, शिया, सूफ़ी, कादरिया, नक्शबंदी, वहाबी, देवबंदी, बरेलवी व अहमदिया समुदाय प्रमुख हैं। 

इस्लाम धर्म में कुरआन एवं 4 किताब :-
इस्लाम का आधार ईश्वर द्वारा भेजी गई किताबें हैं जिनकी संख्या कुरआन सहित 05 है।  यह किताबें ईश्वर (अल्लाह) द्वारा अपने दुतों (रसूलों) को प्रदान की गईं थीं। 
इन आकाशीय किताबों में से क़ुरआन ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान की गयी अन्तिम किताब है। क़ुरआन के अलावा चार और किताबें  हैं :-

1 सहूफ़ ए इब्राहीमी:- 
जो कि (हजरत) इब्राहीम/अब्राहम (पैगम्बर,नबी) (अलैहिस्सलाम)(आदरसूचक शब्द जिसका अर्थ है ईश्वर की उन पर कृपा बनी रहे) को प्रदान की गयी थी। यह छोटे - छोटे सहिफ़े (पत्रिकाएं) थीं जिनमें मानवधर्म के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया एवं इसी आधार पर शेष चार किताबों में विस्तृत विवरण किया गया।

तोराह(तौरेत):- 
यह पुस्तक हजरत (बुजुर्गों के लिये आदर सूचक शब्द अर्थात आदरणीय) मूसा/मौजिज (पैगम्बर, नबी) (अलैहिस्सलाम) को प्रदान की गई थी। यहीं से बनी इसराइल कौम (समाज) का हिजाज प्रांत में जीवन प्रारंभ होता है। यहीं से गाय की पूजा एवं समूह में अपराध की शुरुआत होती है।

ज़बूर:- 
यह पुस्तक  दाउद/डेविड पैगम्बर, नबी) (अलैहिस्सलाम) को प्रदान की गयी थी।

इंजील - 
यह (हजरत) ईसा (यीशु)/ईसा मसीह (अलैहिस्सलाम) को प्रदान की गयी थी।
मुस्लिम मतानुसार  यहूदियों (मूसा - तौरात) और ईसाइयों (ईसा/यीशु - इंजील) ने अपनी क़िताबों के सन्देशों में बदलाव कर दिये एवं ईश्वर द्वारा दिये गये सन्देश विलुप्त कर स्वरचित मनगढ़ंत बाते उनमे जोड़ दीं। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि ईशा (यीशु) का जन्म का धर्म यहूदी है जो बनी इसराइल कौम (समाज) में अंतिम नबी हैं। इसके बाद मोहम्मद साहब बनी इस्माईल में अवतरित (पैदा) हुए।

काबा (बैतुल्लाह/क़िब्ला) - 
शुरुआत में नमाज़ मस्जिदे अक्शा (फिलीस्तीन) की ओर मुँह कर के पढ़ी जाती थी बाद में काबा की ओर मुंह कर के पढ़ी जाने लगी। काबा मक्का शहर में एक आयताकार कमरा है। जिस की ओर मुंह कर के नमाज पढ़ी जाती है।
वर्तमान में यह स्थान मक्का शहर में है।मुस्लिम समाज इसे पृथ्वी का मध्य बिंदु (क़िब्ला) मानता है। काबे की स्थापना इब्राहिम (रह.) के द्वारा की गई थी। 
इब्राहिम की तीसरी पत्नी आयशा के पुत्र होने पर पत्नियों के आपसी विवाद के कारण (इस्लामिक मान्यता सपने के कारण पहले इस्माईल को जिबह (बलिदान) करने में ईश्वर की कृपा से असफलता के बाद (इस्माईल के स्थान पर भेड़ का प्रकट होना, इसी याद में ईद अल अजहा मनाया जाता है) के बाद छोटे बच्चे इस्माइल को मां आयशा के साथ अरब के हिजाज (गर्म एवं सूखे क्षेत्र) प्रांत में छोड़ आए। यहां दो पहाड़ियां सफा एवं मरवा है इनके मध्य प्यास लगने के कारण मां आयशा कभी पहाड़ी पर पानी की तलाश में भागी, फिर बच्चे की याद आई तो नीचे उतरी, फिर दूसरी पहाड़ी पर भागी, फिर नीचे उतरी ऐसा सात बार किया। ऐसे में इस्माईल ने प्यास के कारण जमीन पर पैर पटकने/रगड़ने शुरू कर दिए। ईश्वर की कृपा से पैर रगड़ने की जगह से पानी निकल पड़ा, पानी बहता देख आयशा ने कहा, जम - जम (ठहर जा/रुक जा) और इसके चारों ओर मिट्टी की पाल बना दी। कालांतर में इब्राहिम बच्चे और पत्नी की सुध लेने आए तो देखा वह क्षेत्र शांतिपूर्ण ईश्वर की कृपा का स्थान बन चुका था। यहीं पर अब इब्राहिम रहने लगे और घर बनाया। कालांतर में यह स्थान व्यापार का मुख्य केंद्र बना। यहां बना काबा मकान के बारे में आगे विस्तार से चर्चा होगी। हर मुसलमान के लिये दिन में 5 बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। विवशता और बीमारी की हालत में (शरीयत में आसान नियम बताये गए हैं ) इसे नहीं टाला जा सकता।

कुरआन - 
हज़रत मोहम्मद साहब पर ईश्वर की तरफ से (फरिश्ते जिब्रील के माध्यम से) भेजे गये सन्देश (वही) जो उस्मान गनी व आयशा के द्वारा  संकलित किए गए। (कुरान में संबंध में पृथक से आगे के भाग में चर्चा होगी)।

इस्लाम धर्म में सम्प्रदाय - 
कालांतर (ख़िलाफ़ते राशिदीन के पतन के बाद) में इस्लाम धर्म भी दो वर्गों में विभाजित हो गया।
(1) शिया सम्प्रदाय
(2) सुन्नी संप्रदाय
(3) इसके अलावा भी कई फरके (संप्रदाय) बने जैसे वहाबी,देवबंदी(तब्लीगी जमात), बरेलवी (अहले सुन्नत वल जमात), कादरिया, मंसूर, अहले हदीष, नक्शबंदी आदि जिनके बारे में आगे पढ़ेंगे।
शिया एवं सुन्नी के एक ईश्वर के सिद्धांत के अलावा अपने - अपने इस्लामी नियम हैं फिर भी इनके आधारभूत सिद्धान्त मिलते-जुलते हैं। बहुत से सुन्नी, शियाओं को पूर्ण मुसलमान नहीं मानते और इनमें आपसी खींचतान भी चलती रहती है। इस्लाम धर्म में हर मुसलमान के 5 आवश्यक कर्तव्य होते हैं जिन्हें इस्लाम के 5 सुतून (स्तम्भ) भी कहा जाता है। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धांतों हैं (थोड़ा अंतर है)। 

इस्लाम धर्म के 5 स्तंभ -
1. साक्षी होना (शहादत )- 
इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। अरबी भाषा में لا اله الا الله محمد رسول الله  हिंदी भाषा में (ला इलाहा इलल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह)।
कलमे का हिन्दी अर्थ 
अल्लाह (ईश्वर) के सिवा कोई माबूद (पूजा योग्य) नहीं और (हज़रत) मुहम्मद (सलल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह के नेक बन्दे (पवित्र मानव) और आखिरी रसूल (अंतिम दूत) हैं।
प्रत्येक व्यक्ति जो इस्लाम धर्म की मान्यताओं को धारण करता है उसे सर्वप्रथम यह घोषणा कल्ब (मन) ज़बान (बोल कर) सार्वजनिक करनी अनिवार्य है। प्रत्येक मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद (सलल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रसूल होने के अपने विश्वास की गवाही (शहादत) देता है। यह इस्लाम का सबसे प्रमुख सिद्धांत है। हर मुसलमान के लिये अनिवार्य है कि वह इसे स्वीकार करे।
2. प्रार्थना (सलात)- 
इसे फ़ारसी में नमाज़ कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है जो अरबी भाषा में एक विशेष नियम से अज़ान के बाद मस्ज़िद अथवा घर में पढ़ी जाती है। (पहले स्त्रियां भी मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ती थीं पर बाद में सुरक्षा कारणों से बंद कर दी गई। इस्लाम के अनुसार नमाज़ ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। मोहम्मद साहब से पूर्व के नबियों के अनुयाइयों हेतु नमाज मूसा के मानने वालों पर दो समय के लिए अनिवार्य की गई। मूसा से पूर्व के नबियों के अनुयाइयों पर नमाज पढ़ने की अनिवार्यता नहीं थी। नबी इस्हाक़ एक गुफा में बैठ कर ईश्वर का स्मरण किया करते थे, जैसे हम सनातन परंपरा में ऋषियों को स्मरण (ध्यान) करते हुए देखते हैं। नमाज काबा की और मुंह कर के पढ़ी जाती है। (इस संबंध में विस्तृत चर्चा आगे होगी)।
3. व्रत (रमज़ान) (सौम ) रोज़ा - 
शब्द रमजान का अर्थ है (गर्म दिन)इस के अनुसार इस्लामी कैलेंडर के नवें महीने में सभी मुसलमानों के लिये (बीमार को छूट) सूर्योदय (फजर) से सूर्यास्त (मग़रिब) तक व्रत रखना(भूखा प्यासा रहना) अनिवार्य है। इस व्रत को रोज़ा भी कहते हैं। रोज़े में हर प्रकार का खाना-पीना वर्जित (मना) है। अन्य व्यर्थ कर्मों से भी अपनेआप को दूर रखा जाता है। यौन गतिविधियाँ भी वर्जित हैं। विवशता (बीमारी,सफर) में रोज़ा रखना आवश्यक नहीं है। रोज़ा रखने के कई उद्देश्य हैं जिन में से दो प्रमुख उद्देश्य यह हैं कि दुनिया के बाकी आकर्षणों से ध्यान हटा कर ईश्वर से निकटता अनुभव की जाये और दूसरा यह कि निर्धनों, भिखारियों और भूखों की समस्याओं और परेशानियों का ज्ञान हो।
यदि किसी कारण रमजान के महीने में रोजा नहीं रखा गया तो बीमारी या सफर की समाप्ति पर एक महीने तक रोजा अनिवार्य है। फिर भी यदि कोई ऐसा नहीं कर पाए तो कफ्फारा (मुक्ति) हेतु गरीब व्यक्तियों को भोजन करवा कर ईश्वर से मुक्ति हेतु याचना कर सकता है।
4. दान (ज़कात )- 
यह एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को निर्धन मुसलमानों में बांटना अनिवार्य है। अधिकतर मुसलमान अपनी वार्षिक आय का 2.5% दान में देते हैं। यह एक धार्मिक कर्तव्य इस लिये है क्योंकि इस्लाम के अनुसार मनुष्य की पूंजी वास्तव में ईश्वर की देन है। और दान देने से जान और माल की रक्षा होती है। 
जकात हेतु अमीर - गरीब का आशय - 
अमीर व्यक्ति - (कर्ज विहिन) जिस व्यक्ति के पास साढ़े बावन तोला लगभग (525 ग्राम), चांदी, साढ़े सात तोला (72 ग्राम 250 मिली) सोना एवं लगभग 45000 रुपए नकद या अन्य एसेट्स (संपत्ति) हैं तो वह व्यक्ति अमीर है और उसे जकात देना अनिवार्य है। जकात न्यूनतम 2.5% है और अधिकतम 10% है।
5. तीर्थ यात्रा (हज)- 
(पवित्रता प्राप्त करने हेतु यात्रा) हज उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के 12वें महीने में मक्का में जाकर की जाती है। हर समर्पित मुसलमान (जो हज का खर्च‍‍ उठा सकता हो और विवश न हो) के लिये जीवन में एक बार इसे करना अनिवार्य है। यहां 8 दिन रुकना ज़रूरी है।

शरीयत और इस्लामी न्यायशास्त्र - 
मुसलमानों के लिये इस्लाम जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव रखता है। इस्लामी सिद्धान्त मुसलमानों के घरेलू जीवन, उनके राजनैतिक या आर्थिक जीवन, मुसलमान राज्यों की विदेश निति इत्यादि पर प्रभाव डालते हैं। शरीयत उस नीति को कहते हैं जो इस्लामिक कानूनी परम्पराओं और इस्लामी व्यक्तिगत और नैतिक आचरणों पर आधारित होती हैं। शरीयत की नीति को नींव बना कर न्यायशास्त्र के अध्य्यन को फिक़ह कहते हैं।
फिक़ह के मामले में इस्लामी विद्वानों की अलग अलग व्याख्याओं के कारण इस्लाम में न्यायशास्त्र कई भागों में बंट गया और कई अलग - अलग न्यायशास्त्र से सम्बन्धित विचारधारओं का जन्म हुआ। 
इन्हें पन्थ (फिरका) कहते हैं। सुन्नी इस्लाम में प्रमुख पन्थ चार हैं-

1. हनफ़ी पन्थ- 
इसके अनुयायी दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में हैं।
2. मालिकी पन्थ-
इसके अनुयायी पश्चिम अफ्रीका और अरब के कुछ भागों में हैं।
3. शाफ्यी पन्थ-
इसके अनुयायी पूर्वी अफ़्रीका, अरब के कुछ भागों और दक्षिण पूर्व एशिया में हैं।
4. हंबली पन्थ- 
इसके अनुयायी सऊदी अरब में हैं।

अधिकतर मुसलमानों का मानना है कि चारों पन्थ आधारभूत रूप से सही हैं और इनमें जो मतभेद हैं वह न्यायशास्त्र की बारीक व्याख्याओं को लेकर हैं।

हज़रत मोहम्मद साहब की मक्का से मदीना यात्रा हिज़रत :-
पैगंबर मुहम्मद (सल्ललाहु अलैही व सल्लम)  को मक्का की पहाड़ियों (गारे हीरा) जहां वो बकरियां चराते थे,में कुरान का ज्ञान 610 के आसपास प्राप्त हुआ। जब उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया तब मक्का के समृद्ध लोगों ने इसे अपनी सामाजिक व्यवस्था पर खतरा समझा और उनका विरोध करना शुरू कर दिया जिनमें सबसे पहले उनके चाचा अबु तालिब थे।
अंत में इश्वी सन 622 (हिजरी 01) में उन्हें अपने अनुयायीयों के साथ मक्का (हिजाज़) से मदीना (यशरब) के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरत कहा जाता है। (हिज़रत शब्द का अर्थ है पलायन अर्थात बसने की नीयत से किसी ओर स्थान की ओर प्रस्थान) और यहीं से इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है जिसे हिजरी सन के नाम से जाना जाता है। मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान थी और (हजरत) मुहम्मद (सल्ललाहु अलैही व सल्लम)  के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया। 632 में पैगम्बर मुहम्मद (सल्ललाहु अलैही व सल्लम)का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक इस्लाम के प्रभाव से अरब के सारे कबीले एक राजनीतिक और सामाजिक सभ्यता का हिस्सा बन चुके थे। इस के बाद इस्लाम में खिलाफत का दौर शुरु हुआ।

मुस्लिम आबादी:-
विश्व में आज लगभग 2.4 अरब ( 240 करोड़) की सांख्या में मुस्लिम निवास करते हैं। 
आज ईसाइयों के बाद इस्लाम 240 करोड़ अनुयायियों के साथ दूसरा सब से बड़ा धर्म है इनमें से लगभग 90% सुन्नी और लगभग 8% शिया हैं व 2%अहमदिया व अन्य हैं। 
सबसे अधिक मुसलमान दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया के देशों में रहते हैं। मध्य पूर्व, अफ़्रीका और यूरोप में भी मुसलमानों के बहुत से समुदाय रहते हैं। विश्व में लगभग 56 देश हैं जहाँ मुसलमान अधिक संख्या में हैं व कई देश ऐसे भी हैं जहाँ की मुस्लिम जनसंख्या के बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है। वेटिकन सिटी को छोड़ कर कोई ऐसा देश नहीं जहाँ मुस्लिम आबादी नहीं बसती।

संसार के देश जिनमें अधिकतम मुसलमान रहते हैं:-
इण्डोनेशिया 238,272,000 
पाकिस्तान 215,000,000
भारत 250,000,000
बांग्लादेश 17,96,81,509
तुर्की 8,77,50,000
मिस्र 905,60,000 
ईरान 908,05,000 
नाइजीरिया 11,57,50,000 
चीन 3,51,11,000 
अफ़ग़ानिस्तान 39,025,000 
इथियोपिया 3,70,32,160

मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि का कालक्रम :-
सन 1800 पूरे विश्व की जनसंख्या 1 बीलीयन मुुस्लिम जनसंख्या थी जिसका प्रतिशत (9.1%) था आज लगभग 27.4% है।

इबादतगाह (पूजा स्थल)
1. मस्जिद - 
मुसलमानों के उपासनास्थल को मस्जिद कहते हैं। मस्जिद इस्लाम में केवल ईश्वर की प्रार्थना का ही केंद्र नहीं होता है बल्कि यहाँ पर मुस्लिम समुदाय के लोग विचारों का आदान प्रदान और अध्ययन भी करते हैं। मस्जिदों में अक्सर इस्लामी वास्तुकला के कई अद्भुत उदाहरण देखने को मिलते हैं। विश्व की सबसे पुरानी व सुंदर मस्ज़िद मस्जिदे अक़सा का स्थान इस्लाम में महत्वपूर्ण हैं।
बड़ी मस्जिद मक्का की मस्जिद अल हरम है। मुसलमानों का पवित्र स्थल काबा इसी मस्जिद में है। मदीना की मस्जिद अल नबवी और जेरूसलम की मस्जिद अक्सा (पहले काबा), मस्जिदे कुर्तुबा प्रसिद्ध हैं।
2. खानगाह - 
सूफी विचारधारा के लोगों के रहने का स्थान जहां विभिन्न प्रकार से ईश्वर को याद किया जाता है। इस्लाम धर्म में प्रसारण में इन खानगाहों का अत्यधिक महत्व रहा है। भारतीय प्रायद्वीप में इस्लाम धर्म सूफियों के कारण फैला।
 3. दरगाह - 
सूफियों अथवा किसी वली (ईश्वर के मित्र) की मृत्यु के उपरांत उनकी कब्र पर बनाया गया भवन दरगाह कहलाता है। यहां भी सूफी परम्परा के अनुसार ईश्वर को याद किया जाता है।
4. ईदगाह - 
सभी बस्ती वालों के लिए यह स्थान वर्ष में दो बार ईद अल फितर और ईद अल अजहा के समय इकट्ठे हो कर नमाज पढ़ने हेतु नियत होता है। 
5. इमाम बाड़ा - 
शिया मुसलमानों का विशेष पूजा करने का स्थान।

विवाह एवं सामाजिक जीवन:-
मुसलमानों का पारिवारिक और सामाजिक जीवन इस्लामी कानूनों और इस्लामी प्रथाओं से प्रभावित होता है। विवाह एक प्रकार का कानूनी और सामाजिक अनुबंध होता है जिसकी वैधता केवल पुरुष और स्त्री की मर्ज़ी और 2 गवाहों व एक वकील से निर्धारित होती है (शिया वर्ग में केवल एक गवाह होता है)।
तलाक या खुला - 
स्त्रियों को पति से अलग होने हेतु खुला एवं पुरुषों को पत्नी से अलग होने हेतु तलाक की शर्तें पूर्ण करनी होती हैं। दोनों ही एक दूसरे से किसी भी उम्र में पृथक होने का अधिकार रखते हैं।
इद्दत - 
पति की मृत्यु/विवाह विच्छेद/तलाक/खुला के बाद 130 दिवस तक स्त्री का पिता, भाई, पुत्र और मेहरम (जिन से निकाह हराम(वर्जित) है के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से (गैर महरम) से नहीं मिलना। इससे यदि गर्भ में बच्चा है तो आकार ले लेगा और असली पिता की पहचान की जा सकेगी।

संपत्ति का बंटवारा - 
इस्लामी कानून स्त्रियों और पुरुषों को विरासत में आधा हिस्सा देता है। स्त्रियों का हिस्सा पुरुषों की तुलना में आधा होता है। पिता से पुत्री को 33% पुत्र को शेष हिस्सा दिया जाना तय है।

अंतिम संस्कार:-
इस्लाम में मरने के बाद ज़िंदा होने के बारे में विश्वास किया जाता है। कयामत के बाद हिसाब के दिन सबको उठाया जायेगा उस जगह का नाम हसर का मैदान है उस दिन का नाम रोज़े ए महशर है।
मुस्लिम कफ़न दे कर कब्र में दफनाते हैं।

त्योंहार:-
इस्लाम के दो महत्वपूर्ण त्यौहार ईद उल फितर और ईद-उल-अज़्हा हैं। 
1 ईद उल फितर :- 
रमज़ान का महीना (जो कि इस्लामी कैलेण्डर का नवाँ महीना होता है) बहुत पवित्र समझा जाता है। एक महीने के रोज़ो के बाद खाना पीना शुरू करने के पहले दिन को ईद (खुशी) के रूप में मनाते हैं। सभी ईद गाह में नामज़ पढ़ते हैं।

2 ईद उल अज़हा :-
हजरत (महात्मा) इब्राहिम के अपने पुत्र इस्माइल जो आएशा से 70 साल की उम्र में हुआ था को ईश्वर को खुश करने के लिये बलिदान करने हेतु जाने पर बालक के स्थान पर भेड़ के उपस्थित होने व इस्माइल के बच जाने की खुशी में ईद अल अज़हा के रूप में किसी जानवर की कुर्बानी कर मनाया जाता है। कुर्बानी का मांस 3 भागो में 1 गरीब, 2 रिश्तदार व 3 स्वयं का हिस्सा किये जाते है। यह त्योहार तीन दिन तक जिल हिज़्ज़ की 10 तारीख से 12 तारीख तक चलता है। पहले सब ईदगाह में ईद की नमाज़ पढ़ते हैं बाद में कुर्बानी।

पहनावा (लिबास) एवं आभूषण - 
इस्लाम धर्म में पहनावे से संबंधित कोई विशेष निर्देश नहीं है। कपड़े पहनते समय लज्जा रखने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। विश्वासी (मोमिन) का पहनावा खूबसूरत, पाक ओर साफ़ सुथरा होना चाहिए, खास तौर पर लोगों से मुलाकात ओर नमाज के समय। इस्लाम ने लोगों के लिए पहनावे हेतु कोई विशेष नियम तय नहीं किए हैं, बल्कि हर पहनावे को स्वीकृति प्रदान की है बशर्ते कि यह शरीर की जरूरत पूरी करे जिस में ना ज्यादती हो ओर ना हद से गुजरना। इस्लाम के अनुसार पहनावा किसी विशेष नियम के अधीन ना हो कर स्थानीय रिवाज के अनुसार बस्ती के जायज तरीके के अनुसार हो।  अल्लाह ने पहनावे को न सिर्फ तन ढकने का माध्यम बनाया बल्कि उससे शरीर को गर्मी ओर अन्य परेशानियों से सुरक्षित रखने का माध्यम भी बनाया है। मोहम्मद साहब ने तत्कालीन समय का स्थानीय परिवेश का पहनावा अपनाया। उन्होंने किसी विशेष पहनावे का आदेश नहीं दिया ना किसी विशेष पहनावे हेतु मना किया।
कुछ विशेष बातें हैं जिनमें - 
1. मुस्लिम मर्द रेशम के कपड़े एवं सोने के आभूषण धारण नहीं कर सकता। स्त्रियों पर आभूषण संबधी कोई पाबंदी नहीं है।
2. मुस्लिम मर्द को यथा संभव हल्के रंग के कपड़े पहनने चाहिए।
3. स्त्रियों को स्वयं के शरीर को इस प्रकार से ढकना चाहिए कि उनके शरीर की बनावट दिखाई न दे।
4. स्त्री - पुरुष को कपड़े इस तरह पहने चाहिए कि वो ना तो ज्यादा ढीले हो और ना ही ज्यादा तंग।
5. मुस्लिम मर्द को नीचे का कपड़ा टखने से ऊंचा रखना चाहिए।
6. कपड़ा इस प्रकार का हो कि उसमें से या उससे पिंडली (सतर) दिखाई ना दे।
7. प्रत्येक मुस्लिम अनुयाई का सर ढका होना चाहिए।
8. यथा संभव चेहरे पर दाढ़ी रखी जावे।
9. कपड़े साफ एवं सुंदर पहनने चाहिए।
10. कपड़े या जूते फट जाएं तो उनके पैबंद या टांका लगा कर पहनें।
11. ऐसा पहनावा पहनने से मनाही है जिससे घमंड और असहजता का भाव हो।
इसके अलावा कोई किसी तरह की मनाही नहीं है। कोई भी मुस्लिम किसी भी क्षेत्र के प्रचलित रीति के अनुसार कपड़े पहन सकता है। आजकल स्त्रियां हिजाब और बुरका अधिक पहनने लगीं हैं। मुस्लिम ज्यादातर मलेशिया निर्मित जालीदार सफेद टोपी लगाते हैं।
कुरान में पहनावे के संबंध में - 
पहनावा लोगों पर अल्लाह (ईश्वर) की उत्तम देन (नियामत) में से एक है जैसा कि कुरआन में कहा गया है - 
ऐ आदम की संतान, हमने तुम्हारे लिए लिबास पैदा किया जो तुम्हारे अंगों (शर्मगाहों) को छिपाता है और सुंदरता के साथ मर्यादा में बढ़ोतरी करता है और संयम (तकवे) का लिबास इससे बढ़कर है। ये अल्लाह की निशानियों में से है ताकि ये लोग याद रखें।
- सूरह ऐराफ 26 🖕 31👇- 
ऐ आदम की संतान, तुम मस्जिद की हर हाजिरी के वक्त अपना लिबास पहन लिया करो।
- सुरह ए नहल 81 👇
ओर उसी ने तुम्हारे लिए कुर्ते बनाए हैं जो तुम्हें गर्मी से बचायें ओर ऐसे कुर्ते भी जो तुम्हें लड़ाई के समय भी काम आए वो इसी तरह अपनी पूरी सुविधा दे रहा है कि तुम आज्ञाकारी (फर्माबरदार) बन जाओ।" 

मुस्लिम समाज में नामकरण - 
विश्व का कोई भी मुसलमान कहीं भी रहता है अपनी मुस्लिम पहचान दिखाने के लिए बच्चों के नाम (लगभग) अरबी भाषा में रखते हैं।

अन्य धर्मों से संधि एवं सुलह - 
अन्य धर्मों से इस्लाम का सम्पर्क समय और परिस्थितियों से प्रभावित रहा है। यह सम्पर्क मुहम्मद (सलल्लाहु अलैहि वसल्लम) के समय से ही शुरु हो गया था। उस समय इस्लाम के अलावा अरब में तीन परम्पराओं के मानने वाले थे। एक तो अरब का पुराना धर्म (जो अब लुप्त हो चुका है) था जिसकी वैधता इस्लाम ने स्वीकार नहीं की इसका कारण उनका अनेकेश्वरवादी होना था जो इस्लाम धर्म के मूल सिद्धान्तों के विरुद्ध था। ईसाई पन्थ और यहूदी पन्थ को इस्लाम ने वैध तो स्वीकार किया परन्तु पवित्र आसमानी पुस्तकों में बदलाव करने के कारण अलगाव की स्थिति रही। मुहम्म्द (स.) ने मक्का से मदीना पहुँचने के बाद वहाँ के यहूदियों के साथ एक सन्धि की जिसमें यहूदियों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता को स्वीकार किया गया। अरब बहुदेववादियों के साथ भी एक सन्धि हूई जिसे हुदैबा की सुलह कहते हैं।

इस्लाम धर्म व ज्योतिष शास्त्र -
इस्लाम  धर्म में ज्योतिषी (नजुमी) पर विश्वास करना हराम (वर्जित) किया गया है। इसलिये मुस्लिम मत ज्योतिष शास्त्र पर विश्वास नहीं करता है।

जादू-टोना व इस्लाम धर्म -
ज्योतिष शास्त्र की ही तरह जादू-टोने को भी हराम किया गया है जो सर्वथा वर्जित है।

इस्लाम धर्म व संगीत -
संगीत व नाच गाना इस्लाम धर्म में हराम (वर्जित) है।

इस्लाम धर्म में खतना करवाना -
शिशन के ऊपर की अतिरिक्त त्वचा को विशेष क्रिया द्वारा काट कर हटाने को खतना कहते हैं। इस्लाम धर्म सफाई (व्यक्तिगत) को विशेष महत्व दिया गया है। शिशन के ऊपर की अतिरिक्त त्वचा में मूत्र त्याग के समय मूत्र के कुछ अंश रह जाते हैं जो बाद में कपड़ों के भी लग जाता है जिस से नापाकी (गन्दा होना) हो जाती है व व्यक्ति नमाज या अन्य धार्मिक कार्य नहीं कर पाता। इसलिये व्यक्तिगत स्वच्छता हेतु खतना करवाई जाती है। आजकल तो बालक के जन्म के समय ही खतना कर दी जाती है। यहूदी भी खतना करवाते हैं।

जेहाद एवं जजिया -
सत्य के मार्ग को प्रशस्त करने हेतु असत्य के समर्थकों से की जाने वाली लड़ाई को जेहाद कहा जाता है। इसका हिंदी अर्थ होता है संघर्ष। मुहम्मद (स.) के बाद से अक्सर राजनैतिक कारण अन्य धर्मों की ओर इस्लाम का व्यवहार निर्धारित करते आये हैं। खलीफा ए राशिदून ने जब अरब से बाहर कदम रखा तो उनका सामना पारसी, यूनानी एवं  अन्य पंथ के लोगों से हुआ। मुसलमानों के क्षेत्र में अन्य धर्मावलंबियों (धीम्मी) हेतु जकात की तरह निर्धारित सुरक्षा राशि देनी होती थी जिसे जिज़्या (जजिया) कहते हैं। खिलाफत  ए उम्मयद काल में राजनैतिक और आर्थिक लाभ के लिये  इस्लाम कबूल (ग्रहण) करने वाले को हतोत्साहित किया जाता था।
इस्लाम धर्म में उत्तराधिकार एवं संपति वितरण- 
मुस्लिम कानून के अनुसार, एक विधवा को अपने मृत पति की संपत्ति में एक निश्चित हिस्सा मिलता है, और बाकी संपत्ति उसके कानूनी उत्तराधिकारियों को मिलती है। यदि पति की कोई संतान नहीं है, तो विधवा को पति की संपत्ति का 1/4 हिस्सा मिलता है। यदि पति की संतान है, तो विधवा को 1/8 हिस्सा मिलता है। मुस्लिम पति की संपत्ति के कानूनी उत्तराधिकारियों में शामिल हैं - 
विधवा - 
जैसा कि ऊपर बताया गया है, विधवा को एक निश्चित हिस्सा मिलता है.
संतान - 
पुत्रों और पुत्रियों को भी संपत्ति का हिस्सा मिलता है। पुत्रों को पुत्रियों की तुलना में दोगुना हिस्सा मिलता है.
माता-पिता - 
यदि माता-पिता जीवित हैं, तो उन्हें भी संपत्ति का हिस्सा मिलता है.
अन्य रिश्तेदार - 
यदि कोई अन्य रिश्तेदार हैं, जैसे कि भाई, बहन, चाचा, चाची, आदि, तो उन्हें भी संपत्ति का हिस्सा मिल सकता है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि मृतक ने वसीयत बनाई है या नही।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम कानून में, संपत्ति का विभाजन विरासत के नियमों के अनुसार किया जाता है, और विधवा का हिस्सा उसकी संतान की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर निर्भर करता है।

शमशेर भालू खां 
9587243963

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